सेन्सर बोर्ड की नियमावली है फिल्म जगत की शापित शिला / जयप्रकाश चौकसे

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सेन्सर बोर्ड की नियमावली है फिल्म जगत की शापित शिला
प्रकाशन तिथि :23 नवम्बर 2015


जेम्स बॉन्ड शृंखला की नई फिल्म स्पेक्टर से सात सेकंड के चुंबन दृश्य को कम करके सेन्सर ने उसे तीन सेकंड का कर दिया है। इस प्रकरण को लेकर बवाल मचा है। भारत में 1913 से कथा फिल्में बननी शुरू हुईं और पहला सेन्सर अधिनियम प्रथम विश्वयुद्ध के समाप्त होने पर 1918 में लागू किया गया। उस समय तक सिनेमा विधा को किसी भी देश में ठीक से समझा नहीं गया था। हुकूमते बरतानिया ने युद्ध के समय जो पत्र-व्यवहार के सेन्सर नियम बनाए थे, उन्हें फिल्मों पर लागू कर दिया और उसकी एकमात्र चिंता यह थी कि फिल्म में उसकी हुकूमत के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठे। यही सेंसर की नियमावली बन गई, जो बाद में भी चलती रही। परंतु उस वक्त भारतीय फिल्मकारों ने धार्मिक कथाओं में देशप्रेम की अलख अपने ढंग से जगाई। जैसे 'महात्मा विदुर' फिल्म में महाभारत के पात्र विदुर को गांधीजी की तरह प्रस्तुत किया गया और 'कीचक वध' नामक फिल्म में कीचक की भूमिका एक अंग्रेज को दी। दर्शक फिल्मकार के मन्तव्य को बखूबी समझ रहे थे और इसी अनुुभव से यह तय हुआ कि सिनेमा की भाषा फिल्मकार और दर्शक के बीच समझदारी से तय होती है। किसी सेन्सर बोर्ड की बजाय यही समझ नियंत्रण का ज्यादा बेहतर उपाय होता है और अदृश्य रूप से काम करता है।

बहरहाल, वर्ष 1951 में मंत्री एसके पाटिल की अध्यक्षता में फिल्म उद्योग की समस्या पर आयोग का गठन हुआ तथा उसकी सिफारिश पर सेन्सर कोड बनाया गया, जिसमें थोड़े फेरबदल के साथ उसका निर्वाह आज भी हो रहा है, जबकि विगत 65 वर्षों में समाज में अनेक परिवर्तन आए हैं और परमिसिवनेस तथा मांसलता के प्रदर्शन की लहर पूरे देश में अनेक दशकों से चल रही है। समाज बदला है और खुलापन भी आया है। प्रासंगिकता और संदर्भ बदले हैं। लेकिन सेन्सर कोड में समय के साथ परिवर्तन नहीं किए गए, जबकि संविधान में कई संशोधन हो चुके हैं। अमेरिका में 1934 में हेज कोड लागू किया गया और इसके कारण अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधा पड़ने के कारण सेन्सर का उत्तरदायित्व हॉलीवुड उद्योग को ही सौंपा गया। 'गॉन विद द विंड' अमेरिका में बाइबिल के बाद सबसे अधिक पढ़ी गई किताब मानी गई है और इस पर आधारित फिल्म में एक दृश्य नायक के तवायफों के इलाके में जाने का था, जिसे सेन्सर काटना चाहता था परंतु यह सोचकर कि किताब पढ़ने वाले पाठक के साथ यह अन्याय होगा, उसे काटा नहीं गया। हॉलीवुड, पाठक और दर्शक को सम्मान देता है। इस तरह का सम्मान हमारे यहां दुर्लभ ही कहा जाएगा, जबकि ऐसा सम्मान देकर ही हमारा सेन्सर भी सम्मान और प्रतिष्ठा हासिल कर सकता है, जो वह उत्तरोत्तर खोता जा रहा है।

भारतीय सेन्सर बोर्ड प्राय: विवाद का कारण बना है। परीक्षण कमेटी में फिल्म विधा के जानकार का होना जरूरी है, क्योंकि कई बार किसी दृश्य का वह छोटा अंश हटाया जाता है, जिससे दृश्य का अर्थ ही बदल जाता है। मसलन, 1981 में प्रदर्शित ऑलीवर ट्विस्ट से प्रेरित फिल्म में कीचड़ में लड़ने के बाद नायिका टब में स्नान कर रही है, जहां आकर नायक उसे समझाता है कि उसे जैसे अपराधी के प्रेम के लिए अन्य किसी कन्या से नहीं लड़ना चाहिए, क्योंकि वह अपने अपराधी जीवन के कारण कभी भी जेल चला जाता है। अगले दृश्य में नायिका उसे टब से आवाज देती है कि तौलिया फेंकता जाए? फिल्म ग्रामर से अनभिज्ञ सेन्सर ने बाथ टब वाले कुछ अंश काट दिए तो प्रभाव यह बना कि संभवत: प्रेम करके वापस जाने वाले नायक से लड़की ने तौलिया फेंकने को कहा। सच्चाई यह है कि साहित्य और सिनेमा पर अभी तक लगाए गए तथाकथित अश्लीलता के किसी मुकदमे में सेन्सर की जीत नहीं हुई है। सारे प्रकरण के मूल में जड़ यह है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था में यौन शिक्षा को पाठ्यक्रम का विषय नहीं बनाया गया है। अगर ऐसा होता तो किसी किताब या फिल्म से किसी को अनैतिक होने का कोई खतरा नहीं होता। हमारी राष्ट्रीय विशेषता है समस्याओं को टालते रहना और उसकी जड़ पर प्रहार नहीं करना। आज टेक्नोलॉजी ने किशोर वर्ग के लिए तथा कथित अश्लीलता की कंदरा के लौह-कपाट खोल दिए हैं और विषय का ज्ञान ही उन्हें सही निर्णय की क्षमता दे सकता है। सेन्सर नियमावली किसी शापित देवी की तरह शिला में बदलकर जड़ हो गई है, केवल ज्ञान के चरण पड़ने र वह जीवित हो सकती है। सारे विवाद सुर्खियां बनकर लोप हो जाते हैं।