स्वर्ण चम्पा / जयश्री रॉय

Gadya Kosh से
(स्वर्ण चम्पा / जयश्री राय से पुनर्निर्देशित)
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मेरे हिस्से के आकाश में चाँद नहीं होता, बस अंधेरा होता है- एक सिरे से दूसरे सिरे तक ! जो कुछ उजला है, सुंदर है, खो गया है मुझसे- एक जमाना हुआ...एकदिन छवि ने कहा था, किसी खोयी हुई टिटहरी की-सी आवाज में. उस समय शाम गिर रही थी, साँवली, उदास कतलों में- झीसीं की तरह महीन और निःशब्द. सामने झील की सतह गहरी नीली हो रही थी- एकदम स्थिर- पूरे आकाश को अपनी पारदर्शी बाँहों में बाँधे हुए- किसी शीशे के फ्रेम की तरह !

सुनते हुए मैं हमेशा की तरह उसकी आँखों के नीरव में घिर गया था. उस समय शायद यही उसके साथ होना था और मैं उसके साथ होना चाहता था- जहाँ तक वह चाहे. बात अब पूरी तरह उसकी मर्जी पर ही आकर ठहर गयी थी. अंदर एक समर्पण है- पूरे स्व का- एकदम शर्त रहित... शायद प्राणांजली इसी को कहते हैं...

ऐसा कब और क्योंकर हुआ, अब याद नहीं. याद करने की आवश्यकता भी नहीं. सबसे दीगर बात है छवि, छवि... और छवि ! हाँ, यही नाम था उसका- अपने सम्पूर्ण अर्थ में मेरे अंदर रचा-बसा- हर रंद्र में, हर रेश में- साँस और स्पंदन की तरह... ऐसे कि मैं खुद से ही बेदखल होकर रह गया हूँ. निःशेष हो जाना शायद इसी को कहते हैं... अपने अंदर के धागों में बेतरह उलझता मैं उसे देखता हूँ-

धूप का एक आखिरी उजला टुकडा उसके दायें कंधेपर तितली के रंगीन पर की तरह थरथरा रहा है, बाकी चेहरे पर सांझ है. बुझे हुए चाँद की तरह लग रही है वह- उतनी ही जर्द और उदास...

उसकी आँखों में शाम के एकदम से डूब जाने के पहले का रंग था- धूसर, मटमैला नील... उदास दिख रही थी, बहुत रो चुकने के बाद का चेहरा- निष्प्रभ, मेघिल, कुहरीला आकाश जैसा. चुप्पी मे डूबा कहन, उन्हें सुनने के लिए भी मुझे मौन ही रहना था. शब्दों से परे की भाषा, मूक, निवार्क... उसके साथ अब मैं भी सीख चला हूँ, वह सबकुछ सुनना, जो वह कभी कहती नहीं !

चुप रहना न कहना नहीं है, उसके सम्पर्क में जाना है. पहले पहल बहुत कोफ्त होता था, उसकी इस हर पल की चुप्पी से. चेहरे पर इसे टाँके डोर कटी पतंग की तरह डोलती रहती थी. मुझे कभी-कभी डर लगता था, वह जिंदा है भी या नहीं !

वह मेरी कोई नहीं, मगर सबकुछहै. रिश्तों की दुनिया से एक अदद नाम हमें भी मिला है- वह मेरी भाभी लगती थी. और अब उसकी विधवा. उस भाई की बीवी, जिसे मैंने कभी देखा नहीं था. नमन नाम था उसका, सेना में था. उसके पिता यानी मेरे चचेरे चाचाजी बहुत पहले असम में जाकर बस गये थे. वही नमन भैया पैदा हुए, पले-बढे और फौज में भर्ती होकर कारगिल की लडाई में शहीद हो गये. चाचाजी पहले ही गुजर गये थे. नमन भैया के मरने के बाद चाची अपनी बहू को लेकर हमारे गाँव आ गयी थीं, अपने वर्षों से बंद पडे पैतिृक घर में रहने.

हम जानते थे, नमन शादी की रात उसे छोड गया था- देश की सीमा पर ! वहाँ उसकी जरूरत थी और वही जरूरत अहम थी. हम सब यह बात जानते-समझते थे, छवि भी. मगर उस लाल जोडे का क्या, जो उस रात उसके जिस्म पर जलता रहा होगा, चूडियाँ जो खनकना भूल गयी होंगी, नाक की बडी-सी नथ- रूलायी में चुपचाप थरथराती हुई... किसी इतिहास में उनकी मौन पीडा दर्ज नहीं होती, मगर इसी से उन्हें अनहुआ माना नहीं जा सकता न..

उसकी प्रतीक्षा को किसी के लौट आने का आश्वासन नहीं मिला था, मगर वह बिना किसी प्रतिश्रृति के दिनों तक दरवाजे पर खडी रही थी. और फिर वह फोन आया था...! चाची ने उसे कोसते हुए कहा था, ये चूडियाँ उतार दे, तेरे भाग्य में नहीं... उसने मान लिया था, न जाने कब से-यह सब उसके भाग्य में नहीं. चुपचाप बिना कुछ कहे उसने अपने चूडे उतार दिये थे. इसके साथ ही वह छुट गयी थी- हर उस चीज से जिसे जिंदगी कहते हैं. अपने लाल जोडे के साथ उसकी दुधिया हँसी, रंग-बिरंगे ख्वाब... सबकुछ जर्द हो गये थे-एक सिरे से.

एक सफेद सन्नाटे में घिरी किसी शब की तरह वह चलती-फिरती थी, अपनी परछाई तक को समेटकर. जैसे कोई अछूत हो... मौसम के सारे चहल-पहल से दूर, अपने में डूबी- एकदम सम्पृक्त...

नमन की मृत्यु के बाद चाची उसे उसके मायके पहुँचा आयी थी, मगर दूसरे ही दिन वह वहाँ से भी लौटा दी गयी थी. बचपन में ही उसके माँ-बाप गुजर गये थे. निःसंतान मामा-मामी ने उसे पाला-पोसा था. कुछ दिन पहले मामा का भी देहांत हो चुका था. वृद्ध और बीमार मामी किसी तरह अकेली अपना जीवन यापन कर रही थी. उसने छवि को अपने पास रखने में अपनी असमर्थता जाहिर कर दी थी. मुझे याद है, छवि दो दिनतक चाची की देहलीज पर बिना खाये-पीये बैठी रही थी. चाची उसे किसी भी तरह अपने घर में रखने को तैयार नहीं थी.

किसी तरह समझा-बुझाकर अंत में गाँववालों ने ही चाची को राजी किया था. पडी रहने दो चाची, घर के कामकाज सँभालेगी, तुम्हारी सेवा करेगी. दोरोटी डाल देना, और क्या... चाची मान गयी थी. आजकल दो रोटी में एक चौबीस घंटे की नौकरानी कहाँ मिलती है !

हमारा घर एक ही था. बीच में एक दीवार खडी करके उसे दो हिस्सों में बाँटा गया था. शाम को छतपर टहलते या दुपहर को धूप सेंकते हुए वह अक्सर दिख जाती थी- कभी कुएँ के जगत पर बैठी कपडों का अंबार धोते-पछीटते हुए तो कभी बर्तन मांजते हुए. उसकी आँखें बोलती-सी थीँ, मगर होंठ एकदम चुप. जैसे हँसना-गाना भूल गयी हो. मैं उसे देखकर एक अनाम दुख से घिर जाता था. मुझे न जाने क्यों प्रतीत होता था, उसके मौन में एक चीख दबी हुई है, वह रोने की एक निः शब्द छटपटाहट से हर समय भरी हुई है...

एकदिन मैंने उसके सामने बरामदे में लटके पिंजरे को खोलकर उसके अंदर बंद तोते को आजाद कर दिया था. वह मुस्करायी थी, एक गीली, वाष्पित हँसी- जैसे कुछ अनायास पा गयी हो... मेरे अंदर उसदिन देने का सुख देरतक बना रहा था. कुछ न देकर भी किसी को कुछ बहुत अमूल्य दिया जा सकता है उसी दिन जाना था.

सुना था, वह पढी-लिखी है. शादी के लिए बीच में ही उसकी पढाई रोक दी गयी थी. मैंने माँ से कहा था, प्रायवेट में छवि को बी. ए. की परीक्षा दे देनी चाहिए. समझाया था, थोडा पढ-लिख लेगी तो चाची को ही बुढापे में सहारा हो जायगा. बहुत मुश्किल से सब माने थे. मैं कॉलेज में लेक्चरॉर था, इतना तो उसके लिए कर ही सकता था. मैंने उससे कहा था, कोई कठिनाई हो तो वह मेरे पास आ सकती है. इसके बाद वह कभी-कभी मेरे पास पढने के लिए आने लगी थी. उसे अग्रेजी में कठिनाई होती थी.

पहले दिन हाथों में ढेर सारी किताबें लिए मेरे सामने किसी स्कूल की लडकी की तरह आ खडी हुई थी. पहली बार मैंने गौर किया था, वह कितनी कम उम्र है. मुश्किल से बीस-इक्कीस की. कितनी उत्तेजित लग रही थी ! उत्सुक भी. चेहरे पर अर्से बाद धूप खिली थी, किसी सूरजमुखी की तरह चमकीली और खूबसूरत...

किताबों की ढेर के बीच उसे इस तरह से बैठी हुई देखना मुझे अच्छा लगता था. इन्हीं किताबों में एक खिडकी, एक पूरे आकाश की सम्भावना थी उसके लिए. मैं चाहता था, वह अपना पंख पसारे और उडकर सारे आकाश का असीम विस्तार पा ले. मैं उसके लिए अपनी संकुल परीधि से निकलकर वह आकाश बन जाना चाहता था. उसके अदृश्य कारावास में न जाने क्यों मेरा दम घुटता रहता था.

रसोई के धुएँ में, जूठे बर्तनों की कालिख में मैं उसे रोज-रोज सँबलाते हुए देखता था. अपने नाजुक कंधों पर रिश्तों का, जिम्मेदारियाँ का बोझ उठाये लडखडाती फिरती थी. मैं उसका दुख बाँट लेना चाहता था- भाई के दुख के साथ उसके बाद की गहरी शून्यता... सबकुछ. मगर कुछ चीजें सिर्फ उसीकी थी, उसीकी हो सकती थी. मैं चाहकर भी उनमें हिस्सा नहीं बँटा सकता था. जैसे उसके जीवन में फैला वैधव्य का सफेद रंग ! यह रंग उसकी खुशियों का, जीवन के हर उमंग का कफन बन गया था. उसे पूरी तरह से ढँक लिया था. मैं चाहकर भी इसमें रंग की एक छोटी-सी छींट नहीं डाल सकता था.

मैं देखता था, पढाई करते-करते अक्सर उसका ध्यान भटक जाता था. कभी कागज पर पेन या पेंसिल से आडी-तिरछी लकीरें खींचने लगती तो कभी पेन का पिछला हिस्सा दाँतों में दबाकर खिडकी से बाहर देखने लगती. कई बार मैंने उसे उस डाँटा भी था. फिर समझ पाया था, वह ऐसा जानबुझकर नहीं करती. वह अपनी निसंग दुनिया में अनायास भटक जाती है. एकबार हँसकर कहा था, जानते हो मास्टरजी, मुझे स्कूल में भी इस आदत के लिए खूब डाँट पडती थी. क्लास के बाहर एक बहुत बडा रक्त चम्पा का पेड था. बारिश से पहले उसमें आग लग जाती थी. जमीन भी झरते हुए फूलों से ढँककर एकदम लाल हो जाती थी- किसी कालीन की तरह... बताते हुए उसकी काली, चमकीली आँखें कितनी उज्ज्वल हो आयी थीं. उनमें एक गीली चमक थी, जैसे अंदर से दिप उठी हों... मैं उसे चुपचाप देखता रह गया था. शायद मेरी निगाहों को पहचानकर ही वह फिर एकाएक झेंप उठी थी. जैसे कुछ गलत करते हुए पकडा गयी हो.

मैंने मेज पर रखे उसके हाथ पर अपना हाथ रख दिया था- कभी-कभी मुस्करा लेना गलत नहीं होता छवि, वीलिव मी... सुनकर वह बैठी रह गयी थी. आँखों में मेघिल मौन लिए. उनमे चमकता थोडी देर पहले का सूरज न जाने कहाँ को गया था.

मैंने धीरे से मेज खटखटाया था- नॉक-नॉक...

उसने प्रशनभरी आँखों से मुझे देखा था- क्या है?

- जिंदगी, मे आई कम इन?

वह हल्के से हँसी थी- जिंदगी... यहाँ तुम्हारा क्या काम !

- जहाँ तुम वही तो जिंदगी....

- उसी का तो सवाल है... मेरी बात सुनकर वह खिडकी से बाहर देखने लगी थी.

- उसी को तो जबाव चाहिए...

- कोई जबाव नहीं है...

उसकी पलकें बदलाने लगी थीं. आँखोँ मेँ धुँआसा आकाश!

- तो फिर जिंदगी अनशन पर बैठ जायेगी, यही, इसी मेज पर... मैंन सामने मेज पर अपनी दोनों हथेलियाँ फैला दी थी. वह न जाने उन्हें कितनी देरतक रूलाई भरी आँखों से देखती रही थी और फिर अचानक उठकर वहाँ से चली गयी थी.

दूसरे ही दिन मैंने पढाई के कमरे के बाहर स्वर्ण चम्पा का एक पौधा रोपा था- ठीक खिडकी के पास! अंदर प्रार्थना थी, छवि का जीवन खुशियों के स्वर्ण चम्पा से झिलमिला उठे, उसमे जीवन की चाह जगे...

याद है, दूसरे दिन बारिश हो रही थी, खूब! बारिश के साथ ही ठंड बहुत बढ गयी थी. सांझ से ही झील के ऊपर कुहरा इकट्ठा होने लगा था... दूर की पहाडियाँ गाढे, नीले धुएँ में डूब गयी थीँ. हवा में मिट्टी की गंध तैर रही थी- गीली और सांद्र... पूरा माहौल सिला हुआ था, एकदम बोसीदा. काँच के पल्लों पर बूँदों की अनवरत टकोर और टीन के छज्जे पर हवा, पानी का उबाऊ, एकरस शोर... एक अजीब-सी चुप्पी में हो आये थे हम.

छवि की आँखे खिडकी पर टँकी हुई थीं- एकदम तंद्रिल और खोयी हुई-सी. क्या है वहाँ, उस धुंधलायी शून्यता में... जानने की इच्छा होती है. उसके इन निसंग क्षणों का साक्षी बनना चाहता हूँ. मगर कहीं कोई अदृश्य दीवार है, जिसे पार नहीं किया जा सकता. मैं उसे देख सकता हूँ, और बस, इतना ही...

न जाने रोज क्या-क्या उसके लिए सहेज लाता हूँ- अपने हिस्से से बचाकर, थोडा-थोडा- एक टुकडा हँसी, कुछ सपने, रंग... मगर कुछ भी तो उसे दे नहीं पाता. रह जाता है सबकुछ मेरे पास उसी तरह- कुम्हलाते हुए, जर्द पडते हुए...

शॉल से निकली उसकी अंगुलियाँ- चाँपा की नर्म पाँत-सी! उसपर बार-बार मेरी नजर टँक जाती थी. उसदिन अचानक उसने अपनी आँखें उठायी थी- पारे-सी तरल, थरथराती हुई- क्या देख रहे हैं? मैं एक क्षण के लिए सकपकाया था- कुछ नहीं ! और फिर दूसरे ही क्षण उसकी हथेली पकडकर मेज पर उल्टा कर दिया था- तुम्हारी हथेली मे कुछ रोपना चाहता हूँ..

- हथेली में रोपना चाहते हो... क्या भला? वह कौतुक से मुस्करायी थी- आँखों से लेकर चिबुक तक-एक गीली, उजली हँसी... झरते हुए चम्पा की तरह !

- खुशियों के बीज, जो फूल बनकर खिलेंगे- तुम्हारी आँखों में, होंठों पर... सुनकर दो भौहें जुडकर एक मुकम्मल इन्द्रधनुष बन गया था- आधे चाँद-से माथे को घेरकर- लो, बो दो, मैं भी तो देखूँ, यह तुम्हारे खुशियों के फूल कैसे खिलते हैं...

- खिलेंगे देखना, मैंने उसकी हथेली पर एक छोटी-सी लकीर खींची थी. उसने झट् अपनी मुट्ठी बंदकर ली थी- अब इसे खोने नहीं दूंगी... और फिर दूसरे ही पल खोल भी दी थी- काश! ऐसा होता... कहते हुए वह कितनी विसन्न हो आयी थी, बुझे हुए दीये की तरह निष्प्रभ...

उसकी यह नाउम्मीद आँखें मुझे अक्सर बौना कर जाती थीं. देने को मैं उसे पूरी दुनिया दे दूँ, मगर क्या दे सकता हूँ मैं उसे...

देखता हूँ- शीत, ग्रीष्म, पतझड- हर ऋतु का अभाव उसकी देह में घोंसला डाल चुका है. पाले से ठिठुरे हुए किसी फूल की तरह नील पड रही थी वह- हर क्षण, हर पल... मेरे हौसलों के टूटे हुए बाजू मुझे सालते थे, अक्षमता दंश देती थी.

कई बार रातों को मुझे न जाने ऐसा क्यों लगता था कि कोई कराह-कराहकर रो रहा है. एक धीमी, अस्पष्ट-सी आवाज- थम-थमकर, देरतक... अपनी नींद में मैं बेचैन हो उठता था, कभी उठकर खिडकी पर खडा हो जाता था, मगर कहीं कुछ नहीं होता था, रात के अमित सन्नाटे के सिवा. चाँदनी बहती हवा में चमकीली पन्नियों की तरह झरती, पहाडों पर बिछ जाती, चीर की ऊँची, लंबी देहपर पानी की महीन धार की तरह बरसती. रात का कोई पक्षी वादियों की नीली गहराइयों में बेकल होकर पुकारती फिरती... मैं अनझिप आँखों से रात की मायावी स्तब्धता को तकता रहता... अंदर टूटे पंखों की छटपटाहट से भरा हुआ. क्यों मैं हर जगह, हर भीड में इस तरह अकेला हो जाता हूँ... जाने किसकी तन्हाई मुझे आवाज देती रहती है...

सुबह मैं छवि की नींद और जगार से भरी आँखें देखता था, मगर जानता था, वह कुछ नहीं कहेगी. उसका मौन मुझे एक अनबुझ शोर से भर देता था. दिन पर दिन कैसी दुर्बल, कृषकाय होती जा रही थी वह. संध्या तारा-सी उज्ज्वल आँखें के नीचे अनचीन्ही उदासी की मलिन रेखाएँ, गालों से उतरता रंग... धीरे-धीरे खत्म होते मेले की तरह... मैं चाहता था कहूँ उससे, छवि, जिंदगी को एक मौका दो... मगर जानता था, जबाव में उसकी वही रिक्त आँखें होंगी, जिनकी चावनी में एक अछोर चुप्पी के सिवा अब कुछ नहीं होता.

जिसदिन उसके लंबे, घने बाल कतरवा दिये गये थे, मैं दुख से फट पडा था. मेरे लिए यह अमानवीय कृत्य था. एक जीती-जागती इंसान को मिटंटी-पत्थर में बदल देना... मैं सबसे लडना चाहता था, सबकुछ तहस-नहस कर देना चाहता था, मगर माँ बीच में खडी थी- तूझे इन बातों में नहीं पडना है आभास... उसदिन मैं सचमुच हताश होने लगा था. क्यों पूरा समाज एक निरीह, असहाय लडकी के उत्पीडन में इस तरह से जुट गया है. पहाडों में रहते-रहते क्या सभी पत्थर बन गये हैं...

न जाने उसदिन कौन-सी पूजा थी. चाची बीमार थीं और माँ व्यस्त. इसलिए छवि को मंदिर ले जाने की जिम्मेदारी मुझे सौंपी गयी थी. साथ में आजी-हमारी पडोसन- को भी भेजा गया था. शायद हमपर नजर रखने के लिए ही...

हम सुबह-सुबह निकल पडे थे. जीप से. खुली जीप में छवि के बाल खुलकर बिखर गये थे. हवा तेज चल रही थी. कंधेतक छँटे बालों में वह कितनी छोटी लग रही थी, किसी स्कूल की लडकी की तरह. उबर-खाबड रास्तें में सावधानी से ड्राइव करनी पड रही थी. जीप हिचकोले खा रही थी. सडक की एक तरफ गहरी खाई थी, दूसरी तरफ पहाड की काली दीवार- गुलाबी फूलों से लदी हुई. बीच-बीच में हरी घास की मुलायम पैबंद. चारों तरफ धूप और हवा रेशमी फाहों की तरह उड रही थी.

अपने उडते बालों को दोनों हाथों से सहेजती हुई छवि वादियों में झाँक रही थी. गहरी नीली धुँध के नीचे छोटी-बडी बस्तियाँ पानी की तरल नीलिमा में डूबी-सी प्रतीत हो रही थीं. कहीं-कहीं धूप के टुकडे में घरों की लाल खपरैल चमक रही थी. गाय, भेडों के झुंड जगह-जगह चरते नजर आ रहे थे- छोटे-छोटे खिलौनों की तरह. धूप-छाँह का अल्हड खेल पहाडी ढलानों में अविराम लगा था.

मैंन छवि को एक पलक देखा था. वह किसी बच्ची की तरह प्रकृति के वैभव में गुम थी. उतनी ही उत्सुक और तल्लीन. बडी-बडी आँखें पारे की रूपहली कौंध से भरी हुई थीं

उसकी इस क्षणिक खुशी में मैं भी हो आया था. अच्छा लगा था उसका यूं खुश होना, मुस्कराना. जैसे बादल के पीछे से यकाय चाँद निकल आया हो- वैसा ही उज्जवल, जगमगाता रूप...

छवि ने शायद बीच में कुछ पूछा था, हवा में उसके शब्द बिखर गये थे. जबाव न पाकर उसने अब मेरी बाँह छूयी थी- एक ठंडा, गीला स्पर्स... मैं तब भी चुप रह गया था. यह क्षण मेरे मौन का था, कुछ कहकर मैं अपने भीतर पनपे इस छोटे-से सुख को बिखेर देना नहीं चाहता था . मुझे चुप देखकर वह भी चुप हो गयी थी, हमेशा की तरह. हमारे बीच एक भरी-भरी, अर्थमयी चुप्पी देरतक पसरी रही थी. एक अनाम सुख भी.

देवदार के घने पेडों के बीच देवी का वह छोटा मंदिर लकडी और पत्थरों से बना हुआ था- बहुत प्राचीन, बारिश से सिला हुआ, एकदम स्लेटी. दीवारों पर घास और काई उगी हुई. पासवाले बहुत पुराने पेड पर बँधे हुए जर्द धागों का गुंजल और सिंदूर. ऊपर अनगिनत छोटी-छोटी घंटियाँ- एकसाथ टुनटुनाती तो हवा में संगीत-सा घुल जाता. हमें पहुँचते-पहुँचते काफी देर हो गयी थी. मंदिर निर्जन पडा था. पुजारी पूजा करके जा चुका था. फूल और वेणियाँ बेचनेवाली औरतें भी. चारों तरफ गहरी निःस्तब्धता छायी हुई थी.

दीये की झिलमिलाती पाँत में देवी की काली, चमकदार मूर्ति कितनी जीवंत लग रही थी, जैसे अभी बोल पडेंगी. छवि हाथ जोडकर आँखें मूँदें न जाने कितनी देरतक खडी रही थी. उसकी तरफ देखते हुए मैंने भी अपने हाथ जोड दिये थे- ईश्वर ! छवि की सारी मनोकामनाएँ पूरी कर देना. आँखें खोलकर देखा था, छवि मुझे ही देख रही थी. उसकी आँखों के गीले कोर दीये की सुनहली लौ में चमक रहे थे- तुमने अपने लिए कुछ भी नहीं मांगा...

- तुम्हें कैसे पता...? मैंने हैरत से पूछा था.

- मालूम नहीं... भभूत का एक टीका अपने माथे पर लगाकर वह बाहर निकल गयी थी. गर्भगृह में बुझी हुई अगरबत्ती और धूप की तीव्र सुगंध मडँरा रही थी. अंधकार में जलते हुए दीओं की सुनहरी आभा से चारों तरफ एक तरल, मायावी आलोक फैला हुआ था.

मंदिर से बाहर निकलकर देखा था, अचानक धूप निकल आयी है. बादल के टुकडे दूर-दूर छिटक गये थे. छोटे-से पहाडी चश्में का ठहरा हुआ पानी किरणों से नहाकर नीलम की तरह चमक उठा था. छवि ने अपनी अँजूरी में पानी भरकर चेहरे पर छपका था. वह फिर बहुत खुश दिख रही थी. खुश और हल्की. मैंने बडी कोशिश करके अपनी आँखें उसके चेहरे पर से हटायी थी.

देवदार की ऊँची डालपर कोई चिडियाँ रह-रहकर बोल रही थी. उसकी मीठी आवाज से वातावरण का नीरव और भी ज्यादा गहरा हो रहा था. मैं अंदर ही अंदर एक अनकहे सुकून से भर आया था. घर से इतनी दूर आकर हल्का महसूस कर रहा था, उन्मुक्त भी. शायद छवि भी ऐसा ही महसूस कर रही थी.

मैं थोडी देर के लिए लेट गया था. छवि पास ही एक पत्थर से बने गोमुख से बहता हुआ पानी पी आयी थी- पता है, कितना मीठा है, शर्बत जैसा... कहते हुए उसकी आवाज में किसी चिडिया की-सी चहक थी.

थर्मस से पेपर कप में ढालकर उसने मुझे चाय थमायी थी. आजी टोकरी से खाने-पीने के सामान निकाल रही थी- पूरी, सब्जी, कचौरिया...

- आज तो हमारा पिकनिक ही हो गया... सामने की खुली जगह में दरी बिछाते हुए मैंने मजाक किया था. छवि प्लेट में खाना परोस लायी थी- हमें यहाँ से तीन बजे से पहले निकल पडना होगा. आजकल अंधेरा बहुत जल्दी उतर आता है, फिर मौसम भी खराब है.

- तुम्हारा मायका तो यहाँ से बहुत पास ही पडता है.... मेरी बात का उसने कोई जबाव नहीं दिया था. उसके अंदर न जाने कितने घाव थे जो समय-असम दुखने लगते थे. बहुत नीचे, पहाडियों क ी तलहटी में चरते हुए मबेशियों के गले में बंधी हुई घंटियाँ अनवरत टनटना रही थी. आजी किसी जंगली बूटी की तलाश में निकली थी. एकांत का एक छोटा-सा दुर्लभ क्षण हमारे बीच था. छवि न जाने अपने आँचल में क्या-क्या इकट्ठा कर लायी है- जंगली फूल, सूखे, रंगीन पत्ते, पक्षी के पंख... खुश दिख रही है वह, जैसे कुछ कीमती पा गयी हो. हम दोनों चुप थे, एक मीठे-से अर्थमयी मौन में.

मैं चाहता हूँ, आज का यह समय हमारे बीच ठहर जाय- इस झरते हुए मौन और दोपहर के एक टुकडा धूप के साथ- इसी तरह... जानने की इच्छा होती है, छवि क्या चाहती है. मगर वह अपने में मूँदी पडी रहती है- स्पर्श से परे, देहातीत- इन पहाडी कुहासों की तरह- है, मगर नहीं है. मैं उसके सामने अपनी हथेली फैला देता हूँ. वह उसे चुपचाप देखती है- मेरे पास कुछ नहीं आभास...

- मैंने कुछ मांगा भी तो नहीं... बस, तुम्हें देना चाहता हूँ.

- रहने दो, रह जाने दो... वह उठ खडी हुई थी. आँखों को मींचते हुए.

लौटते हुए वह एकदम चुप हो गयी थी. पहाडों पर तीन बजते-बजते परछाइयाँ घिर आयी थीं. हवा में ठंडक थी. झिंगूर की तेज आवाज भी. थोडी देर में हल्की झींसी बारिश में बदल गयी थी. हमें विवश होकर छवि के मायके में रात को रूकना पडा था. दरवाजा खटखटाने पर छवि की मामी हाथ में लालटेन लेकर बाहर निकल आयी थी. उसदिन छवि उनसे लिपटकर कितना रोयी थी- मुस्कराते हुए ही. पूरे घर की हालत खराब थी, छते यहाँ-वहाँ से टपक रही थीं. आंगन की एक दीवार इसी बारिश में गिर गयी थी. चारों तरफ काई, घास और जंगलात... गरीबी और दैन्य का छाप.

उस रात रसोई के आंगन में मेरे सोने की व्यवस्था की गयी थी. यहाँ छत साबुत थी और आंगन भी चटाई से घेरा गया था, मगर पानी की महीन छींटे आ रही थी. एक सीली गंधवाली चादर थमाते हुए छवि का चेहरा उतर गया था- तुम्हें यहाँ बहुत तकलीफ होगी...

- बिल्कुल नहीं... मैंने उसे आश्वासन दिया था. उस रात छवि देरतक बैठी अपनी बचपन की बातें करती रही थी-दिन होता तो तुम्हें दिखाती, आंगन में एक आडू का पेड है, पिछबाडे एक खुबानी का... बचपन में मैंने एक दाडिम का पेड लगाया था, मामी कहती है, अभी भी खूब फल रहा है. गाँव के बच्चे तोड ले जाते हैं. यह झर-झर आवाज सुन रहे हो? पास ही एक गधेरा है, बारिश में एकदम उफन आता है, कितना नीचे गिरता है जाकर... लालटेन की पीली रोशनी में उसकी बडी-बडी आँखें गीली और चमकदार लग रही थीं. कितनी खुश थी वह, आन्तरिक उछाह से भरी हुई... थोडी देर बाद आजी उसे अंदर बुला ले गयी थी. शायद उसे छवि का यूं खुलकर हँसना-बोलना अच्छा नहीं लग रहा था. सोने से पहले लालटेन की रोसनी में मैंने देखा था, मूँज की खटिया से लगी हुई दीवार पर किसी धारदार चीज से खुरचकर लिखा हुआ था- छवि पंत ! मैंने हाथ बढाकर उसपर उंगली फिरायी थी. उस अतीत को छू लेने का सुख, जिसमें मेरा कोई हिस्सा नहीं था.

दूसरे दिन लौटते हुए वह फिर चुप थी. मैंने भी कुछ कहकर उसके ख्यालों में दखल देना नहीं चाहता था. कितने दिनों बाद वह अपनी दुनिया में हो सकी थी ! उसकी निजता के यह क्षण उसी के पास रहे. कितनी बोझिल दिख रही थी वह, खुशियों के बाद का अवसाद- उनसे एकबार फिर छुट जाने का. थोडे-से समय के लिए जो छवि मुझे दिखी थी, मैं उसकी स्मृति अपने अंदर संजो लेना चाहता था- उसकी पारे-सी थरथराती आँखों की गिली, उजली चावनी, बात-बात पर फूट पडनेवाली झरने जैसी हँसी... कितना दुर्लभ था यह सब ! घर पहुँचकर उसने जाते हुए न जाने मुझे किन नजरों से देखा था. वहाँ अनकहे शब्द थे, मुखर न हो पाने की गहरी विवशता में... मैं चुपचाप कॉलेज की लायब्रेरी में चला आया था. मगर वहाँ भी मन नहीं लगा था. सारा दिन बेचैन रहा था, यहाँ-वहाँ भटकता रहा था.

उसदिन के बाद न जाने क्यों घर के सभी लोगों का व्यवहार बदल गया था. शायद आजी ने सबके कान भरे थे. चाची ने अचानक छवि को मेरे पास पढने से आने के लिए रोक दिया था. पूछने पर दो टुक जबाव- कौन सा उसे नौकरी करनी है... बहुत आग्रह करने पर कभी भेज भी देतीं तो कोई न कोई आसपास मँडराता रहता. यह सब मेरे लिए बहुत अपमानजनक था. पता नहीं क्यों, माँ का रवैया भी बदल गया था. इस मामले में चुप ही रहतीं. एकबार मैंने उनसे बात करनी चाही थी- उसकी उम्र ही क्या है... माँ का सीधा जबाव था- यही उसकी नियति है, ऊपरवाले की मर्जी है. हम कर भी क्या सकते हैं !

- हम उसके दुख दूर कर सकते हैं... मैंने बहुत हिम्मत करके कहा था. माँ ने सुनकर कहा था- भगवान् बनने की कोशिश मत करो ! जिस औरत ने पहली ही रात अपने पति को खा लिया, वह उसका साया भी अपने इकलौते बेटे पर पडने नहीं देंगी. इसके बाद उन्होंने कुछ तस्वीरें मेरे सामने रख दी थीं- इनमें से किसी एक को पसंद कर लो, अगले बैशाख में तुम्हारी शादी है... मैं उनकी तरफ देखे बिना वहाँ से उठ आया था.

इसके बाद छवि ने मुझसे बोलना-चालना लगभग छोर ही दिया था. कभी सामने पड भी जाती तो मुँह झुकाकर चल देती. मेरे लिए उसका यह मौन असहनीय हो उठा था. मगर मैं कर भी क्या सकता था. पूरा समाज किसी चील की तरह हमारी खुशियों पर नजर गढाये हुए था.

एकदिन मैंने सुबह-सुबह चाची के घर पर भीड लगी देखी थी. पूछने पर माँ ने कहा था, छवि पर देवी आने लगीहै. मैंने जाकर देखा था, छवि बाल बिखराये बीच आंगन में झूम रही थी- एकदम अस्त-व्यस्त... रातदिन उसे सतानेवाले, व्यंग्य कसनेवाले उसके सामने हाथ जोडे खडे थे. छवि चढी हुई, तीखी आवाज में कह रही थी- मुझे सिंदूर दे, लाल साडी दे, फूलों की वेणी दे... मैं जान गया था, उसकी रातदिन की घुटन, अतृप्त इच्छाएँ आज यह रूप धरकर सामने आयी हैं. मानवी होकर जो कहा नहीं जा सकता, देवी होकर कहा जा सकता है. लोग सुनते हैं, मानते हैं. लोगों ने उसे सिंदूर, लाल साडी और फूलों से लाद दिया था. उसका वह अद्भुत रूप, दीप शिखा-सी दमक उठी थी. एक सुख- बहुत यत्न से चुराया हुआ- उसे खुश हो लेने दो...

एकदिन मौका पाकर पूछा था उससे- छवि, यह स्वाँग क्यों? वह मुझे रिक्त आँखों से तकती रही थी, निरूत्तर, निर्वाक...उसकी लज्जा को मैंने फिर नहीं उधेडा था. वह पहले से ही लहूलुहान थी, एकदम छीली हुई...

अपनी पी. एच. डी. के सिलसिले में मुझे दो महीने के लिए स्टडी टूर पर निकलना था. सारी तैयारियाँ हो चुकी थी. दूसरी सुबह मुझे निकलना था. अपने एक मित्र से मिलने और कुछ खरीदारी करने मैं उस शाम शहर गया हुआ था. लौटते हुए देर हो गयी थी. घर आकर पता चला था, चाची को दिल का दौरा पड गया है. उन्हें सदर अस्पताल ले जाया गया था. घर सूनसान पडा था. माँ भी चाची के साथ अस्पताल में रूकी हुई थी. चाची के हिस्से का मकान अंधकार में डूबा हुआ था.

शायद बारिश आनेवाली थी. आसमान पर काले बादल छाये हुए थे. जोर-जोर से छत के दरवाजे टकराने लगे. मैं उन्हें बंद करने सीढियाँ चढकर ऊपर गया तो मेरी दृष्टि सहज ही बगल के घर पर पड गयी. बिजली की सफेद रोशनी में मुझे वहाँ छवि खडी हुई दिखी-आंगन के एक खंभे से टेक लगाये हुए. बिना कुछ सोचे-समझे मैं दूसरी तरफ की सीढियाँ उतरकर उसके पास पहुँच गया था. अचानक मुझे सामने पाकर छवि बेतरह चौंक पडी थी और फिर फुट-फुटकर रोते हुए मेरे सीने से लग गयी थी- अब मेरा क्या होगा आभास...? तभी जोड की बिजली कडकी थी और उसके साथ ही बारिश शुरू हो गयी थी. कुछ ही पल में हम पूरी तरह से भीग गये थे. उसे अपनी बाँहों में लेते हुए मैं उसके कमरे में आ गया था और दरवाजे की चिटकनी लगाते हुए बहुत विश्वास के साथ कहा था- कुछ नहीं होगा छवि, मैं हूँ न... उस रात छवि ने मुझपर विश्वास किया था.

दूसरी सुबह पौ फटने से पहले मैं घर से निकल पडा था. जाते हुए रास्ते में हस्पताल में रूककर मैंने पूछा था, चाची अब खतरे से बाहर थी, चिंता की कोई बात नहीं थी . दो महीने बाद लौटने पर मैंने पाया था, छवि घर पर नहीं है. पूछने पर माँ ने कोई सीधा-सीधा जबाव नहीं दिया था. हर बार टाल गयी थी. चाची के मुँह पर भी ताला लगा हुआ था. मुझे देखते ही एकदम अंजान बन जाती थीं. सबके रवैये ने मुझे असमंजस में डाल दिया था. मैं भीतर ही भीतर क्षुब्ध भी बहुत था. मगर क्या करूँ समझ नहीं पा रहा था. इसी बातपर माँ से कई बार झगडा हो चुका था. घर में तनाव था, सबसे अबोला चल रहा था. माँ कभी घर छोरकर जाने की धमकी दे रही थीं तो कभी पहाड से कूदकर जान देने की. पूरे गाँव ने भी जैसे मुँह बंद रखने की कसम खा रखी थी.

एकबार हिम्मत करके छवि के मायके भी हो आया था. मगर वहाँ घर पर ताला पडा हुआ था. पास-पडोस में पूछने पर पता चला था, छवि की मामी का देहांत दो महीने पहले ही हो चुका था. उसके बाद किसी ने छवि को भी नहीं देखा था. हर तरफ से निराश होकर मैं अपने घर लौट आया था. मेरे पीछे छवि का क्या हुआ, इसका कोई जबाव मुझे मिल नहीं पा रहा था.

इसके बाद दो साल बीत गये थे. न जाने यह समय मैंने कैसे बिताया था. रातदिन, सुबह-शाम छवि का ख्याल मुझे घेरे रखता. किसी काम में मेरा मन नहीं लगता था. पी. एच. डी. का काम भी अधूरा रह गया था. बहुत कठिन था वह समय मेरे लिए. कभी-कभी प्रतीत होता था, मैं पागल हो जाऊंगा. छवि के अचानक इस तरह से चले जाने से मेरी पूरी दुनिया ही जैसे एक सिरे से उलट-पुलट हो गयी थी.

इसके बाद माँ बीमार पडी थीं और मरने से पहले उनकी अपनी बहू का चेहरा देखने की इच्छा को पूरी करने के लिए मुझे शादी करनी पडी थी. इसके बाद एक साल और बीत गया था.

समय के साथ छवि का दुख कम नहीं हुआ था, हाँ, मगर सह जरूर गया था. जिदंगी रूक-रूककर ही सही, चलने लगी थी. नूतन-मेरी पत्नी- सुंदर और पढी-लिखी थी. उसका स्वभाव भी अच्छा था. प्रेम न सही, एक गहरा साहचर्य सुख तो था ही मेरे जीवन में. बेटे के जन्म के बाद रहा-सहा कसर भी पूरा हो गया था. जीवन एकबार फिर सम पर आने लगा था. अपनी गति से बीत भी रहा था.

और फिर एकदिन वह पत्र आया था- छवि का ! किसी सैनिटोरियम में थी वह. वहीं मुझे मिलने के लिए बुलाया था. गया था मैं. जाना ही था- छवि ने बुलाया था.

ऊँची पहाडियों के बीच बसा हुआ वह सैनिटोरियम- ब्रिटिश स्थापत्य कला का एक खूबसूरत नमूना. सफेद ईमारत पर सुर्ख टाइल्स की ढलवा छत, लंबे बरामदे, अनगिनत ऊँचे, मजबूत कंभे... बहुत सुंदर और शांत था वहाँ का माहौल. मगर वहाँ पहुँचकर मेरा मन बैठा जा रहा था. न जाने छवि को किस दशा में देखूंगा ! मेरे पूछने पर एक नर्स ने मुझे दूर से छवि को दिखाया था. वह लॉन में बैठी हुई थी. शाम की आखिरी धूप उसकी पीठ पर थी- किसी तितली की तरह काँपती हुई. न जाने क्यों, मुझे कुछ बहुत पुराना याद आया था. अंदर दर्द का एक जाना-पहचाना स्वाद अनायास फैल गया था- गीला और नमकीन...

मेरे पुकारने पर उसने मुडकर देखा था, बहुत सहज भाव से, जैसे उसे पहले से पता हो, मैं आज उससे मिलने आऊंगा- आ गये मास्टरजी...!

उसकी बात का जबाव दिये बगैर मैं उसे एकटक देखता रह गया था. यह वही छवि थी ! सोने की मूरत मिट्टी हो गयी थी. विवर्ण, दुर्बल चेहरा, उडी हुई निस्तेज रंगत, गालों पर अस्वाभाविक लाली, गर्त में धंसी हुई संध् या तारा-सी उज्ज्वल आँखें...

- क्या बात नहीं करोगे? उसने मेरा हाथ पकडा था- वहीं ठंडा, गीला स्पर्श...

- तुम से नाराज हूँ, सख्त नाराज... मैं उसके बगल में ढह गया था. यकायक जन्मभर की क्लांति ने मुझे आ घेरा था. कितनी दूर से आया था मैं, कितना चलकर...

- होना भी चाहिए... वह मुस्कराती रही थी. इसके बाद हमारे बीच एक लंबा मौन खींचा था, तनाव से तडकता हुआ. एक समय बाद छवि ने स्वयं ही कहना शुरू किया था, मेरे बिना कुछ पूछे ही- तुम्हारे जाने के बाद चाची जल्दी ही सबकुछ समझ गयी थी. मुझे उल्टियाँ होनी शुरू हो गयी थी. सबने मिलकर जबरदस्ती मेरा हमल गिरा दिया था- बहुत ही क्रूर तरीके से. बहुत रक्तपात हुआ था. बचने की कोई आशा नहीं थी. बीमार पड गयी थी बहुत सख्त . फिर सबने मिलकर मुझे माँजी के एक दूर के रिश्तेदार के पास भेज दिया था. किसी को कानों कान खबर नहीं लगने दी गयी थी.

जाते समय सबने मुझे कडी हिदायत दी थी कि मैं किसी भी तरह तुमसे सम्पर्क साधने का प्रयत्न न करूँ. यह तुम्हारे हित में नहीं होगा. तुम्हें जात बाहर कर दिया जायगा, पैतृक सम्पत्ति से बेदखल कर दिया जायगा. बदनामी होगी, सो अलग. तुम्हारी माँ बार-बार अपनी जान दे देने की धमकी दे रही थी. मैं बहुत दबाव में आ गयी थी. सबका कहना था, मैं मनहूस हूँ, शादी की रात ही अपने पति को खा गयी, तुम्हें भी खा जाऊंगी, मेरी कुंडली में है...

मैं सुन रहा था चुपचाप. एकदम सकते में था. क्या कहता? मेरी माँ, चाची, रिस्तेदार... ओह !

गिरती सांझ की धूसर, मटमैली धूप में वह कितनी करूण, कितनी विसन्न दिख रही थी...

- छह महीने पहले यहाँ आयी हूँ. एक मिश्नरी जो हमारे गाँव में स्कूल चलाता था, वह मेरी हालत देखकर मुझे यहाँ ले आया था.

सबकुछ सुनकर मैंने एक गहरी साँस ली थी- अब इतने दिनों बाद मुझे कैसे याद किया? मेरे प्रश्न पर वह देरतक चुप रही थी और फिर हल्के से मुस्करायी थी- तुम्हें एकबार देखना चाहती थी.

- क्यों? मैं यकायक निष्ठूर हो उठा था. वह मुझपर यकीन कर सकती थी, मगर नहीं किया.

- डॉक्टर कहते हैं कि... कहते हुए उसके शब्द लडखडा गये थे, वह अपनी बात पूरी नहीं कर पायी थी, बीच में ही थमककर रूक गयी थी. उसकी अनकही बात का तात्पर्य समझकर मेरे अंदर का एक बहुत बडा हिस्सा यकायक अवश हो आया था- क्या कह रही थी वह...!

- हाँ मास्टरजी... अब कभी भी... कहते हुए वह तेज खाँसी की चपेट में आकर दुहरी हो गयी थी. शाम की

धूसर बैंजनी रोशनी में मैं स्तब्ध बैठा उसकी काँपती हुई दुर्बल काया को तकता रह गया था.खाँसी के साथ उसका पूरा शरीर रह-रहकर काँप रहा था. इस भीषण खाँसी को पहाड का कौन-सा व्यक्ति नहीं पहचानता.... मेरे अंदर की विभीषिका अपने चरम पर थी. मैं क्या करूँ, क्या कर सकता हूँ उसके लिए...? एकबार फिर मेरी अक्षमता मुझे दंश दे गयी थी. प्रतीत हो रहा था, मेरे दोनों बाजू टूट गये है, अंदर एक अनिर्वचनीय पीडा और दुविधा के अनवरत घात-संघात... आँखें जल रही थीं, मगर आँसू की एक बूँद नहीं उतरी थी. अंदर के सारे सजल सोते शायद मर गये थे. सबकुछ समय के साथ रेत के शुष्क ढूँहों में परिवर्तित होकर रह गया था लगता था.

बहुत मुश्किल से उसने खुद को समेटा था. लाल, गीली आँखें पोंछने का प्रयत्न करते हुए मुस्करायी थी- अब अपनी कहो... शादी, बच्चे... मैं अपनी खुली हथेलियों की तरफ देखते हुए कन्फेशन की तरह बोलता चला गया था- सबकुछ- शादी, नूतन, बेटा...वह गहरी-गहरी साँसें लेते हुए मेरी बातें सुनती रही थी. उसकी आँखें एकटक मेरे चेहरे पर लगी हुई थीं - वही गीली, वाष्पित चावनी ! क्या था उन धुआँयी आँखों में? शिकायत, गुस्सा, मान...! नहीं, बस अतृप्ति, तृष्णा और अभिलाषा... अभिलाषा जीवन की, खुशियों की, हम दोनों के उस साथ की जो जिया नहीं जा सका. एक अमूर्त्त पीडा में उसकी आँखों की पुतलियाँ ओस की बूँद की तरह थरथा रही थीं... वहाँ उसका सारा मन शनैः -शनैः पिघल आया था.

और फिर मेरे बेटे की बात सुनते हुए वह यकायक फुट-फुटकर रो पडी थी, रोते हुए मेरी गोद में ढह गयी थी- आभास, मैं जीना चाहती थी... आज भी जीना चाहती हूँ- बहुत-बहुत... तुम्हारे साथ आभास ! तुमने कहा था मुझसे, जिंदगी मेरे दरवाजे पर नाँक कर रही है... उससे कहो, मैं जीना चाहती हूँ... मुझे बचा लो, आभास, मुझे बचा लो... प्लीज...

उसके रोने की आवाज सुनकर कई लोग इधर-उधर से दौड आये थे. एक नर्स उसे सँभालने की कोशिश कर रही थी. मगर छवि को किसी की परवाह नहीं थी. जीवनभर का संयम टूटकर वह किसी टतटबंध टूटी नदी की तरह उद्दाम प्लावन में बह आयी थी- अबाध्य, उश्रृंखल, दुदरंत...अपने कुल-किनारों को तोडते हुए, भीषण वन्या में डूबोते हुए... समस्त जीवन का पथराया मौन एक आर्तनाद, एक हाहाकर में परिवर्तित होकर फट पडा था. अब कोई बंधन, कोई वर्जना उसे मान्य नहीं. वह टूट पडना चाहती है, टूट-टूटकर बिखर जाना चाहती है, निःशेष हो जाना चाहती है- हमेशा के लिए !

लोग उसे उठाकर ले जा रहे हैं. वह मेरी तरफ हाथ फैलाकर किसी वध-स्थल पर लिए जाते हुए पशु की तरह चीखे जा रही है- आभास मुझे जीना है, मुझे बचा लो, तुमने कहा था... मैं प्रस्तरवत् खडा रह गया हूँ- एकदम अशक्त, अवश... जैसे मेरे अंदर प्राण ही नहीं बचे हैं, एकदम मृत हो गया हूँ. हे ईश्वर ! मैंने क्यों एकबार फिर उसके अंदर जीवन की इच्छा बो दी... वह तो सुकून से मर ही रही थी. मैं उसे जीवन तो न दे सका, आज उसकी मृत्यु भी छीन ली... जो स्वर्ण चम्पा का पौधा मैंने बरसों पहले रोपा था, आज वह कितना बडा, कितना विशाल हो गया है मुझे पता ही नहीं चला... छवि अब भी चीखे जा रही है- आभास, मैं जीना चाहती हूँ...