हम किसी के न रहे, कोई हमारा ना रहा / ममता व्यास

Gadya Kosh से
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पिछले दिनों पास की बस्ती में आग लग गई। सभी लोग अपने अपने घर की आग बुझा रहे थे। कुछ परिवार दूसरों की मदद भी कर रहे थे और कुछ परिवार सिर्फ ये देख रहे थे कि इस हादसे के समय कितने लोग उनकी मदद के लिए आगे आए। जो लोग मदद के लिए नहीं आए या दुःख में संवेदना देने नहीं पहुंच सके उन लोगो से रिश्ता तोड़ लिया गया। ये तो सिर्फ उदाहरण है ऐसी घटनाएँ हम अपने आसपास खूब देखते हैं। माना कि दुःख और मुसीबते हमें दोस्तों और रिश्तेदारों की पहचान करवाती हैं; लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि लोगों से बहुत-सी उम्मीदें लगा ले, अपेक्षाए पाल लें और जब कोई बात मन माफिक न हो तो हम लोगो से दूरी बना ले। उन्हें छोड़ दें।

एक और उदाहरण से अपनी बात स्पष्ट करती हूँ। एक मित्र हैं जिनके पास हमेशा शिकायतों का पुलिंदा होता है। उन्हें अपने जीवन में कभी भी कोई अच्छा मकान-मालिक नहीं मिला, कभी कोई अच्छा पडोसी नहीं मिला, कभी कोई सच्चा दोस्त नहीं मिला और न कभी उनकी बेटियों के लिए कोई अच्छा परिवार ही मिला जहाँ वे उनकी शादी कर सकें। ऐसा क्या हुआ कि दुनिया का हर व्यक्ति उन्हें बुरा, लुटेरा और धोखेबाज लगता है?

ऐसा नहीं है कि उनके पास कोई रिश्ते नहीं हैं। बहुत हैं, कई तो बहुत प्रगाढ़ रिश्ते हैं लेकिन ये सब रिश्ते कुछ दिन ही टिक पाते हैं। जैसे ही कोई उनकी उम्मीद या अपेक्षा पर खरा नहीं उतरता वे उन्हें हटा कर आगे बढ़ जाती हैं। दिलचस्प बात ये कि ऐसे लोग हमेशा अकेले और सबसे अधिक दुखी भी देखे गए और इसके विपरीत जो लोग किसी भी रिश्ते में उम्मीद या अपेक्षा से दूर रहे उनके रिश्ते बहुत गहरे और मीठे बने रहे।

आइए, आज उम्मीद और अपेक्षा के मनोविज्ञान पर बात बात करते हैं। हम जिस समाज में रहते हैं उस पर परिवेश के हिसाब से निरंतर अंतर्क्रिया (इंटरेक्शन) करते रहते हैं हम एक व्यक्ति के नाते समाज और परिवार के विभिन्न व्यक्तियों के साथ अलग-अलग स्तरों के अंतर्संबंध बनाते हैं। हम अपने लिए लोगों से अपेक्षाएं करते हैं और साथ ही यह भी समझने लगते हैं कि इसी तरह अन्य लोग भी हमसे अपेक्षाएं करते होंगे। इन्हीं की पूर्ति के आधारों पर हम अपने मन मे लोगों की छवि बनाते हैं और उन्हें तौलते हैं और दिलचस्प बात ये कि जीवन भर हम इसी तरह लोगों को आजमाते रहते हैं और इसी दौरान हम यह भी "फिक्स " कर लेते हैं कि हम तो ऐसे ही हैं। हमें तो ऐसे ही बने रहना है यानी खुद से भी एक निश्चित अपेक्षा और समाज से तो एक अपेक्षा है ही।

अब मुश्किल उस दम आती है जब समय के साथ जैसे-जैसे हमारी समझ का, हमारे ज्ञान का दायरा बढ़ता है हमारे परिवेश के लोगों के साथ हमारे अन्तर्सम्बन्धों में भी परिवर्तन आते हैं। और उनकी अपेक्षाएं भी हमसे बढने लगती है और हम अपने आप से भी और दूसरों से भी अपेक्षाएं पालने लगते हैं।

अपनी छवि, उपयोगिता और श्रेष्ठता बनायें रखने के लिए हम इन अपेक्षाओं और उनकी पूर्ति के प्रति बहुत conscious (सचेत ) होते जाते हैं। अपनी सक्रियता तथा अपने व्यवहार और उसके प्रभावों के प्रति सतर्क हो जाते हैं उन पर अतिरिक्त ध्यान देने लगते हैं। यह अतिरिक्त सतर्कता और सक्रियता हमें असहज बना देती है। हमारा व्यवहार बदल जाता है।

बदलता व्यवहार हमारी कई मान्यताओं को भी बदल सकता है। लोगों से की जा रही अपेक्षा और खुद से की जा रही अपेक्षाओं के बीच द्वंद और अंतर्द्वंद जन्म लेते हैं और यह सब मिलकर हमारे व्यवहार को असहज बनाते हैं। हम लोगों से दूर होने लगते हैं, संवाद के पुल टूटने लगते हैं और खाइयां गहरी हो जाती हैं। हम पहले समाज से और फिर खुद से विमुख हो जाते हैं। अकेले हो जाते हैं। तनाव और अवसाद से घिर जाते हैं। हर व्यक्ति दुश्मन दिखता है, स्वार्थी और धोखेबाज भी।

ऐसे समय में क्या किया जाए?

सबसे पहले आत्मविश्लेषण किया जाना चहिए। अंतर्विरोधों को समझना चाहिए कि कौन-से कारण है जो आपको तनाव से भर देते हैं। आप अपनी अपेक्षाओं के प्रति दृढ़ रहना चाहते हैं और समाज अपनी अपेक्षाओं के प्रति। ऐसे में जीत किसकी हो? साम्य तो बनाना ही होगा। चीजों को समझना होगा। लोगों के व्यवहार को जानना होगा। अपनी बात पर अड़े रहकर या ज़िद पर डटे रहकर हम कुछ हासिल नहीं कर सकते, उलटे खोते ही हैं।

याद रखिये, रिश्तों को समझने के लिए बहुत धीरज की आवश्यकता होती है। कोई भी रिश्ता खासकर प्रेम या दोस्ती का रिश्ता एक फल की तरह होता है जो धीरे-धीरे पकता है। आप उसे कच्चा तोड़ कर खायेगे तो मुंह का स्वाद भी कसैला होगा और फल भी नष्ट होगा। उसे मिठास तक पहुंचने दें। धैर्य, रिश्तों को जीवंत और सार्थक बनाता है इसके विपरीत उम्मीद और अपेक्षा रिश्तों को खोखला करती हैं। रिश्तों में उष्णता बनी रहे वास्तविक लगाव बना रहे; इसके लिए जरुरी है कि उनमें विश्वास और धीरज का सीमेंट हो, ना की उम्मीद अपेक्षा और स्वार्थ की मिलावट। एक बात और ध्यान रखने जैसी है कि कभी भी रिश्ते कोरी भावना के स्तर पर या रोमांच के लिए नहीं बनाये जाएँ। हमेशा रिश्तों की बुनावट के समय होश से काम लिया जाए। इस उम्मीद से किसी से न जुड़े कि भविष्य में वो व्यक्ति लाभ देगा या सहारा बनेगा। कभी जब उम्मीद टूटी या अपेक्षा पूरी नहीं हुई तो बहुत दुःख का सामना करना पड़ता है। खुद पर भरोसा हो, दूसरो पर विश्वास हो और मन में सभी के प्रति अच्छी भावना हो तो आप कभी अकेले नहीं रहेगे और ना ये कहेंगे कि हम किसी के न रहे, कोई हमारा ना रहा...