हर मौसम में अवाम की रक्षा करती कबीर की चादर / जयप्रकाश चौकसे

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हर मौसम में अवाम की रक्षा करती कबीर की चादर
प्रकाशन तिथि : 19 जून 2019


संत कवि कबीर का साहित्यकारों और फिल्मकारों पर प्रभाव रहा है। मान्यता है कि क्षितिमोहन सेन ने कबीर की रचनाओं का अनुवाद बांग्ला भाषा में किया था और गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर पर उसका गहरा प्रभाव हुआ। महान गुरुग्रंथ साहिब में भी कबीर के पद शामिल हैं। राज कपूर की फिल्म 'जागते रहो' के पहले दृश्य में कोलकाता की एक सड़क दिखाई गई है और जगह-जगह दीवारों पर संत कबीर के चित्र लगे हैं। शैलेन्द्र का गीत कबीर के दोहे से प्रारंभ होता है 'रंगी को नारंगी कहे..' गीत का मुखड़ा है 'ज़िंदगी ख्वाब है और ख्वाब में सच है क्या और भला झूठ है क्या।' शैलेन्द्र जन्म जन्मांतर की प्रेम-कथा 'मधुमति' के गीत में कबीरनुमा उलटबासी का प्रयोग करते हैं, मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी, भेद ये गहरा बात जरा सी..।'

'संत कबीर' नामक फिल्म में गायक सीएच आत्मा ने अभिनय किया था। एक व्यंग्य फिल्म का नाम था 'देख कबीरा रोया।' गुलजार ने दूरदर्शन के लिए कबीर पर सीरियल बनाया था, जिसमें अन्नू कपूर ने कबीर की भूमिका अभिनीत की थी। दरअसल, दूरदर्शन को 'हम लोग', 'बुनियाद' और 'कबीर' का प्रदर्शन बार-बार करना चाहिए। प्रायवेट चैनलों ने दूरदर्शन की लोकप्रियता कम कर दी है, परंतु ये सीरियल दूरदर्शन को पुन: लोकप्रिय कर सकते हैं। राज कपूर ने अपनी फिल्मों में कबीर की रचनाओं का भरपूर प्रयोग किया है। मसलन 'जिस देश में गंगा बहती है' में ढपली बजाने वाला सरल स्वभाव का व्यक्ति डाकुओं की बर्बरता की रिपोर्ट दर्ज करने पुलिस थाने की ओर जा रहा है। पार्श्व गीत है, 'कबीर सोया क्या करे उठ ना रोवे दुख/ जाका बासा गोर में सो क्यूं सोवे सुख/ जीवन मरण बिचार कर कूड़े काम निवार/ जिन पंथो तुझ चालना सोई पंत संवार/ जिन पंथो तुझ चालना सोई पंत संवार'।

इसी तरह 'राम तेरी गंगा मैली' में 'प्रीतम की पगली भई तक तक पी की राह/ सैंया सैंया रटती मैं.., इतना रूठ ना, आदर करे न कोई, दूर दूर करे सहेलियां/ साई मुड़ मुड़ देख ना कोई।' उनके काव्य के रहस्यवाद की तरह ही कबीर के जन्म और मृत्यु को लेकर भी अनेक किंवदंतियां रची गई हैं। उनका पालन-पोषण एक जुलाहे के परिवार में हुआ। उनकी मृत्यु हो जाने पर दो समुदाय उनकी अंतिम यात्रा अपने-अपने ढंग से करना चाहते थे। एक समुदाय उनका अग्निदाह करना चाहता था तो दूसरा उन्हें कब्रस्तान ले जाना चाहता था। किंवदंती यह है कि उनकी मृत देह अदृश्य हो गई और जो चादर उन्हें ओढ़ाई गई थी, उसी के दो भाग किए गए। एक समुदाय ने उस आधी चादर का अग्निदाह किया और दूसरे ने उसे जमींदोज किया। सच तो यह है कि कबीर का साहित्य एक चादर है, जो हमें समय की बेरहमी से बचाता है। हम उस चदरिया को ओढ़-बिछाकर जीवन व्यतीत कर सकते हैं। सारे बदलते हुए मौसम में अवाम की रक्षा कबीर की चादर ही करती है। चादर में विविध रंग हैं, परंतु साजिश की जा रही है कि उसे एक ही रंग में रंगा जाए। भला इंद्रधुनष एक रंग का कैसे हो सकता है?

कबीर कभी किसी पाठशाला नहीं गए परंतु उन्होंने दिन-प्रतिदिन के जीवन में जो विसंगतियां देखीं; उन्हीं पर सपाट बयानी की। उन्होंने कभी अपने पद लिखे नहीं। सामूहिक अवचेतन में दर्ज उनकी रचनाएं प्रकाशित की गई हैं। उन्होंने कभी किसी मंच पर विराजमान होकर कोई प्रवचन नहीं दिया। वे अपने रोज का काम करते हुए बोलते रहे, जिन्हें उनके साथ काम करने वालों ने लिख दिया। आचार्य रजनीश (ओशो) के सारे भाषणों में कबीर साहित्य की ही व्याख्या की गई है। कबीर भाषा को बहता हुआ आंसू मानते थे। कबीर का पद 'पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय/ ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय' सबसे अधिक बार दोहराया गया है। हमारे देश में पुनर्जन्म अवधारणा अत्यंत प्रबल है। संभवत: यह अवतारवाद का ही एक हिस्सा है। बहरहाल, आज कबीर का पुनरागमन मानव अस्तित्व की रक्षा कर सकता है। भारत ही नहीं परंतु सारे विश्व को ही आज कबीर की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक है।

महात्मा गांधी जितनी बार भी आएंगे, उनकी हत्या कर दी जाएगी। हम गांधी से भयभीत हैं। उन्होंने हमें भयमुक्त करना चाहा था, परंतु हम भय से मुक्त होना नहीं चाहते। हमें आज कबीर की आवश्यकता है। कबीर की हत्या नहीं की जा सकती। उनका शव ही अदृश्य हो गया था। कबीर शाश्वत 'मि. इंडिया' रहे हैं।