http://gadyakosh.org/gk/api.php?action=feedcontributions&user=%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B2+%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9C%E0%A4%AF&feedformat=atomGadya Kosh - सदस्य योगदान [hi]2024-03-29T14:04:08Zसदस्य योगदानMediaWiki 1.24.1http://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%87_%E0%A4%96%E0%A4%BC%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A4%BE_/_%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%A8_%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%B0&diff=44180पुराने ख़ुदा / कृश्न चन्दर2024-03-18T22:54:48Z<p>अनिल जनविजय: '{{GKCatKahani}} मथुरा के एक तरफ़ जमुना है और तीन तरफ़ मंदिर, इ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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<div>{{GKCatKahani}}<br />
मथुरा के एक तरफ़ जमुना है और तीन तरफ़ मंदिर, इस हुदूद-ए-अर्बआ में नाई, हलवाई, पांडे, पुजारी और होटल वाले बस्ते हैं। जमुना अपना रुख़ बदलती रहती है। नए नए आलीशान मंदिर भी ता'मीर होते रहते हैं। लेकिन मथुरा का हुदूद-ए-अर्बआ वही रहता है, उसकी आबादी की तशकील और तनासुब में कोई कमी बेशी नहीं हो पाती। सिवाए उन दिनों के जब अष्टमी का मेला मालूम होता है, कृष्ण जी के भगत अपने भगवान का जन्म मनाने के लिए हिन्दोस्तान के चारों कोनों से खिंचे चले आते हैं। उन दिनों कृष्ण जी के भगत मथुरा पर यलग़ार बोल देते हैं, और मद्रास से, कराची से, रंगून से, पिशावर से, हर सम्त से रेल गाड़ियां आती हैं और मथुरा के स्टेशन पर हज़ारों जातरी उगल देती हैं, जातरी समुंदर की लहरों की तरह बढ़े चले आते हैं और मंदिरों घाटों, होटलों और धर्मशालाओं में समा जाते हैं। मथुरा में कृष्ण भगतों के इस्तक़बाल के लिए पंद्रह-बीस रोज़ पहले ही तैयारियां शुरू हो जाती हैं। मंदिरों में सफ़ाई शुरू होती है। फ़र्श धुलाए जाते हैं। कलसों पर धात पालिश चढ़ाया जाता है, ज़रकार पंगोड़े और झूले सजाये जाते हैं, दीवारों पर क़लई और रंग होता है। दरवाज़ों पर गुल-बूटे बनाए जाते हैं। दुकानें राधाकृष्ण जी की मूर्तियों से सजाई जाती हैं । हलवाई पूरी-कचौरी के लिए बनास्पती घी के टीन इकट्ठे करते हैं। होटलों के किराए दुगने बल्कि सहगुने होजाते हैं। धर्म शालाएं चूँकि ख़ैराती होती हैं इसलिए उनके मैनेजर एक कमरे के लिए सिर्फ़ एक रुपया किराया वसूल करते हैं। किसान लोग जवान ख़ैराती धर्मशालाओं में ठहरने की तौफ़ीक़ नहीं रखते। उमूमन जमुना के किसी घाट पर ही सो रहते हैं, घाट चूँकि पुख़्ता ईंटों के बने होते हैं, उस के लिए घाट मुंतज़िम सोने वाले जात्रीयों से एक आना फी कस वसूल करलेते हैं और असल घाट पर सोने के लिए एक आने का तावान बहुत कम है। कनार जमुना, सर पर कदम की परछाईयां, जमुना की लहरों की मीठी-मीठी लोरियाँ, ठंडी ठंडी हवा। तारों भरा आसमान और मंदिरों के चमकते हुए कलस। जब जी चाहा सो रहे, जब जी चाहा उठ कर जमुना में डुबकियां लगाने लगे। एक आने में दो मज़े, इस पर भी बहुत से किसान लोग घाट के ग़रीब मुंतज़िमों को एक आना किराया भी अदा करना नहीं चाहते और घाट पर सोने और जमुना पर नहाने के मज़े मुफ़्त में लूटना चाहते हैं।इन्सान की फ़ित्री कमीनगी..!<br />
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जन्म अष्टमी से दो रोज़ पहले मैं मथुरा में आ पहुंचा, मथुरा के बाज़ार गलियाँ और मंदिर जात्रीयों से खचा-खच भरे हुए थे और जात्रीयों के रेवड़ों को मुख़्तलिफ़ मंदिरों में दाख़िल कर रहे थे, उन जात्रीयों की शक्लें देखकर मुझे एहसास हुआ कि मथुरा में हिन्दोस्तान भर की बूढ़ी औरतें जमा हो गई हैं, बूढ़ी औरतें माला फेरती हुईं और लाठी टेक कर चलते हुए मर्द...खाँसती हुई, घटिया की मारी हुई रअशा बर अनदाम मख़लूक़ जो यहां अपने गुनाह बख्शवाने की उम्मीद में आई थी। जितनी बदसूरती यहां मैंने एक घंटे के अर्से में देख ली, उतनी शायद मैं अपनी सारी उम्र में भी न देख सकता। मथुरा का यह एहसान मैं क़ियामत तक नहीं भूल सकता।<br />
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मथुरा पहुंचते ही सबसे पहले मैंने अपने रहने के लिए जगह तलाश की, होटल वालों ने बालकोनियाँ तक किराये पर दे रखी थीं और उनकी खिड़कियाँ, दरवाज़ों और बालकोनियों पर जा बजा जात्रीयों की गीली धोतियां हिल्लोलें लहराती दिखाई देती थीं। धर्म शालाएं जात्रीयों से भड़के छतों की तरह भरी हुई थीं। कोई मंदिर बंगालियों के लिए वक़्फ़ था तो कोई मद्रासियों के लिए, किसी धर्मशाला में सिर्फ़ नंबूदरी ब्रह्मणों के लिए जगह थी तो किसी में सिर्फ़ काएस्थ ठहर सकते थे। इस सराय में अग्रवालों को तर्जीह दी जाती थी, तो दूसरी सराय में सिर्फ़ अमृतसर के अरडरे ठहर सकते थे। एक धर्मशाला में एक कमरा ख़ाली था। मैंने हाथ जोड़कर पांडे जी से कहा, "मैं हिंदू हूँ, ये देखिए हात पर मेरा नाम खुदा हुआ है। अगर आप अंग्रेज़ी नहीं पढ़ सकते तो चलिए बाज़ार में किसी से पढवा लीजिए। ग़रीब जातरी हूँ, अपनी धर्मशाला में जगह दे दीजिए, आपका बड़ा एहसान होगा।" पांडे जी की आँखें ग़लाफ़ी थीं और भंग से सुर्ख़, जनेऊ का मुक़द्दस तागा नंगे पेट पर लहरा रहाथा। कमर में राम-नाम की धोती थी। चंद लम्हों तक चुप-चाप खड़े मुझे घूरते रहे, फिर घिगयाई हुई आवाज़ में जिसमें पान के चूने और कत्थे के बुलबले से उठते हुए मालूम होते थे, बोले, "आप कौन गोत हो?"<br />
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मैंने झल्लाकर कहा, "मैं इन्सान हूँ, हिंदू हूँ, काला शाह काको से आया हूँ।"<br />
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"नाँ, नाँ!" पांडे जी ने अपना बायां हाथ गौतमबुद्ध की तरह ऊपर उठाते हुए कहा, "हम पुछत हैं, आप कौन गौत हो?"<br />
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"गौत?" मैंने रुक कर कहा,"मुझे अपनी गौत तो याद नहीं। बहरहाल कोई न कोई गौत ज़रुर होगी। आप मुझे फ़िलहाल अपनी धर्मशाला, इस ख़ैराती धर्मशाला में रहने के लिए जगह दे दें, मैं घर पर तार दे कर अपनी गौत मंगवाए लेता हूँ।" "नाँ,नाँ!" पांडे जी ने पान की पीक ज़ोर से फ़र्श पर फेंके हुए कहा, "हम एसो मानुस कैसो राखें? ना गौत ना जात!"<br />
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मैं मथुरा के बाज़ारों में घूम रहा था। फ़िज़ा में कचौरियों की कड़वी बू जमुना के महीन कीचड़ की सडांद और बनास्पती घी की गंदी बॉस चारों तरफ़ फैली हुई थी। मथुरा की ख़ाक जातरियों के क़दमों में थी, उनके कपड़े में थी, उनके सर के बालों में, नाक के नथनों में, हलक़ में, मेरा दम घुटा जाता था और जातरी श्रीकृष्ण महाराज की जय के नारे लगा रहे थे। मेरा सर घूम रहा था। मुझे रहने के लिए अभी तक कहीं जगह न मिली थी। एक पनवाड़ी की दुकान पर मैंने एक ख़ुशपोश ख़ुशरू नौजवान को देखा कि सर-ता-पा बर्राक खद्दर में मलबूस, पान कल्ले में दबाए खड़ा है, आँखों से और चेहरे से ज़हानत के आसार नुमायां हैं। मैंने उसे बाज़ू से पकड़ लिया, "मिस्टर?" मैंने उसे निहायत तल्ख़ लहजे में मुख़ातिब हो कर कहा, "क्या आप मुझे जेल-ख़ाने के सिवा यहां कोई और ऐसी जगह बता सकते हैं जहां एक ऐसा इन्सान जो हिंदू हो, पंजाबी हो, काला शाह काको से आया हुआ और जिसे अपनी गौत का इल्म न हो, मेले के दिनों अपना सर छुपा सके?"<br />
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नौजवान ने चंद लम्हों के लिए तवक़्क़ुफ़ किया, चंद लम्हों के लिए मुझे घूरता रहा। फिर मुस्कुरा कर कहने लगा, "आप पंजाबी हैं ना! इसीलिए आप ये तकलीफ़ महसूस कर रहे हैं...दरअसल बात ये है कि...माफ़ कीजिएगा...पंजाबी बड़े बदमाश होते हैं। यहां से लड़कियां अग़वा कर ले जाते हैं..."<br />
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"और उन लड़कियों के मुताल्लिक़ आपकी क्या राय है जो इस तरह अग़वा होजाती हैं", मैंने पूछा। एक दुबला-पतला आदमी जिस का कद बाँस की तरह लंबा था और मुँह छछूंदर का सा खद्दर पोश नौजवान की ताईद करते हुए बोला, "बाबू साहिब, आप मथुरा की बात क्यों करते हैं। मथुरा तो पवित्र नगरी है। मैं तो बंबई तक घूम आया हूँ , वहां भी पंजाबीयों को शरीफ़ महलों में कोई घुसने नहीं देता।"<br />
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दो-चार लोग हमारे इर्द-गिर्द इकट्ठे हो गए। मैंने आस्तीन चढ़ाते हुए कहा, "क्या आप ने तारीख़ का मुताला किया है?"<br />
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"जी हाँ!" ख़ुशरु नौजवान ने पान चबाते हुए जवाब दिया।<br />
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"तो आप को मालूम होगा कि पंजाब सबसे आख़िर में अंग्रेज़ों की अमल-दारी में आया और छोटी बच्चीयों को जान से मार डालने की रस्म जो हिन्दोस्तान के सूबों में राइज थी, पंजाब में सबसे आख़िर में ख़िलाफ़-ए-क़ानून क़रार दी गई। अंग्रेज़ों के आने से पहले शरीफ़ लोग अक्सर अपनी लड़कियों को पैदा होते ही मार डालते थे।"<br />
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"इस से क्या हुआ?"<br />
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"हुआ ये कि पंजाब में मर्दों और औरतों का तनासुब एक और पाँच का हो गया। पाँच मर्द और एक औरत, अब बताईए बाक़ी चार मर्द कहाँ जाएं, मज़हब इस बात की इजाज़त नहीं देता कि हर औरत एक दम चार-पाँच ख़ाविंद कर सके, जैसा कि तिब्बत में होता है, क्या आप इस बात की इजाज़त देते हैं।" नौजवान हँसने लगा।<br />
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मैंने कहा, "पंजाब में लड़कियां कम हैं। पंजाबीयों ने दूसरे सूबों पर हात साफ़ करना शुरू किया, बंगाल में लड़कियां ज़्यादा हैं। वहां लोग एक बीवी रखते हैं और एक दाश्ता जो उमूमन विधवा होती है, सिंधी और गुजराती मर्द समुंदर पार तिजारत के लिए जाते हैं और अक्सर घरों से कई साल ग़ायब रहते हैं। इसीलिए सिंध में अदम मंडलियां बनती हैं और गुजरात में बकरी के दूध और ब्रह्मचर्य का प्रचार होता है। मर्ज़ एक है, नौईयत वही है, अब आप ही बताईए कि शरीफ़ कौन है और बदमाश कौन? जो हक़ीक़त है आप उसका सामना करना नहीं चाहते। उलट पंजाबीयों को कोसते हैं।" नौजवान बेइख़्तियार क़हक़हा मार कर हंसा, पान गले-सने मोरी में जा गिरा, वो मेरे बाज़ू में बाज़ू डाल कर कहने लगा,"आईए साहिब, मैं आपको अपने घर लिए चलता हूँ।"<br />
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थोड़े ही अर्से में हम एक दूसरे के बेतकल्लुफ़ दोस्त बन गए, वो एक नौजवान वकील था एक कामयाब वकील, उसका ज़हीन चेहरा, फ़राख़ माथा और मज़बूत ठोढ़ी उसके अज़्म-ए-रासिख़ की दलील थे। वो मद्रासी ब्रहमन था। मथुरा में सबसे पहले उसका दादा आया था, कहते हैं कि उसके दादा के किसी रिश्तेदार ने जो मद्रास में एक मंदिर का पुजारी था, किसी आदमी को क़त्ल कर दिया, ठाकुर जी को एक पुजारी के गुनाह के बार से बचाने के लिए मेरे दोस्त के दादा ने एक रात को मंदिर से ठाकुर जी की मूर्ती को उठा लिया और एक घोड़े पर सवार हो कर मद्रास चल दिया। सफ़र करते करते वो मथुरा आन पहुंचा।यहां पहुंच कर उसकी आत्मा को सुकून नसीब हुआ और उसने ठाकुर जी को एक मंदिर में स्थापित कर दिया। आज उसी दादा का पोता मेरे सामने मंदिर की दहलीज़ पर खड़ा था और मैं उसके गठे हुए जिस्म और चेहरे के तीखे नुक़ूश में उस बूढ़े ब्रहमन के अज़्म और एतिक़ाद की झलक देख रहा था जिसकी तस्वीर उसकी बैठक में आवेज़ां थी। नहा-धोकर और खाने से फ़ारिग़ हो कर हम मेले की सैर को निकले, जो गली बाज़ार से विश्राम घाट की तरफ़ जाती है उसमें सैंकड़ों नाई बैठे उस्तरों से जात्रीयों के सर मूंड रहे थे। गोल गोल चमकते हुए मुंढे हुए सर उन सपेद छतरियों की तरह दिखाई देते थे जो बरसात के दिनों में ख़ुद बख़ुद ज़मीन पर उग आती हैं, जी चाहता था कि उन सपेद सपेद छतरियों पर निहायत शफ़क़त से हाथ फेरा जाये!इतने में एक नाई ने मेरी आँखों के सामने एक चमकदार उस्तरा घुमाया और मुस्कुरा कर बोला, "बाबूजी सर मुँडा लो, बड़ा पुन्न होगा", मैंने अपने दोस्त से पूछा, "ये जातरी लोग सर क्यों मुंडाते हैं", कहने लगा, "दान-पुन करने की ख़ातिर। ये लोग अपने मरे हुए अज़ीज़ों की रूहों के लिए दान-पुन करना चाहते हैं और इसके लिए सर मुंडाना बहुत ज़रूरी है और यहां ऐसा कौन शख़्स है जिस का अब तक कोई अज़ीज़ या रिश्तेदार न मरा हो", मैंने जवाब दिया, "मेरी चंदिया पर पहले ही थोड़े से बाल हैं। मैं इन्हें हज्जाम की दस्त बुर्द से महफ़ूज़ रखना चाहता हूँ क्योंकि मैं समझता हूँ कि एक बाल जो चंदिया पर है उन बालों से कहीं बेहतर है जो हज्जाम की मुट्ठी में हों", हम लोग जल्दी जल्दी क़दम उठाते हुए विश्राम घाट पहुंच गए। घाट पर बहुत सी कश्तियां खड़ी थीं और लोग उन पर बैठ कर जमुना जी की सैर के लिए जा रहे थे, हमने भी एक कश्ती ली और तीन घंटे तक जमुना में घूमते रहे। जिनके किनारे पुख़्ता घाट बने हुए थे। कहीं कहीं मंदिरों और धर्मशालाओं की चौ बुर्जियां और कदम के दरख़्त नज़र आजाते। एक जगह दरिया के के किनारे एक पुराने शिकस्ता महल के बुलंद कंगुरे नज़र आए।इस्तिफ़सार पर मेरे दोस्त ने बताया कि उसे कंस महल कहते हैं। मैंने कहा, "तीन चार-सौ साल से ज़्यादा पुराना मालूम नहीं होता," कहने लगा, "हाँ उसे किसी मरहटा सरदार ने बनवाया था। अब ज़ूद उल-एतक़ाद लोगों को ख़ुश करने के लिए ये कह दिया जाता है कि ये उसी कंस का महल है जिसके ज़ुल्मों का ख़ातमा करने के लिए भगवान ने जन्म लिया था."<br />
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मैंने पूछा, "किस ज़माने में ज़ुल्म नहीं होते?" वो हंस कर बोला, "अगर यही पूछना था तो मथुरा क्यों आए...वो देखो रेल का पुल?... मथुरा में सबसे ज़्यादा ख़ूबसूरत शैय यही रेल का पुल है, मज़बूत जैयद बुलंद", रेलगाड़ी निहायत पुरसकून अंदाज़ में जमुना के सीने के ऊपर दनदताती हुई चली जा रही थी, कहते हैं कि कृष्ण जी के जन्मदिन को जमुना फर्त-ए-मुहब्बत से उमडी चली आती थी और जब तक उसने कृष्ण जी के क़दम न छू लिये उसकी लहरों का तूफ़ान ख़त्म न हुआ। जमुना में अब भी तूफ़ान आते हैं लेकिन इसकी लहरों की हैजानी इस रेलगाड़ी के क़दमों को भी नहीं छू सकती जो उसकी छाती पर दनदनाती हुई चली जा रही है। जमुना की सर-बुलंदी हमेशा के लिए ख़त्म हो चुकी है।<br />
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जब हम वापिस आए तो सूरज ग़ुरूब हो रहा था और विश्राम घाट पर आरती उतारी जा रही थी। औरतें राधे श्याम, राधे श्याम गाती हुई जमुना में नहा रही थीं शंख और घड़ियाल ज़ोर ज़ोर से बज रहे थे, जातरी चढ़ावा चढ़ा रहे थे, और जमुना में फल और फूल फेंक रहे थे। पांडे दक्षिणा सँभालते जाते थे और साथ साथ आरती उतारते जाते थे। एक पांडे ने एक ग़रीब किसान को गर्दन से पकड़ कर घाट से बाहर निकाल दिया क्योंकि किसान के पास दक्षिणा के पैसे न थे। शायद किसान समझता था कि भगवान की आरती पैसों के बग़ैर भी हो सकती है। विश्राम घाट की निचली सीढ़ियों तक जमुना बहती थी, लेकिन यहां पानी कम था और कीचड़ ज़्यादा था और कीचड़ में सैंकड़ों छोटे-मोटे कछवे कुलबुला रहे थे और मिठाईयां और फल खा रहे थे। उनके मुलायम मटियाले जिस्म उन जात्रीयों की नंगी खोपरियों की तरह नज़र आते थे जिनके बाल नाइयों ने मूंड कर साफ़ कर दिए थे। राधेकृष्ण-राधेकृष्ण, जातरी चिल्ला रहे थे। नौ-बियाहता जोड़े कश्तीयों में बैठे हुए मिट्टी के दिये रोशन कर के उन्हें जमुना के सीने पर बहा रहे थे। जिनके सीने पर इस क़िस्म के सैंकड़ों दीये रोशन हो उठे थे और नौ-बियाहता जोड़े मसर्रत भरी निगाहों से एक दूसरे की तरफ़ तक रहे थे, हमारे बिल्कुल क़रीब ही एक ज़र्दरु नौजवान लड़की ने मिट्टी के दो दीये रोशन किए और उन्हें जमुना के हवाले कर दिया। देर तक वो वहां खड़ी अपने हाथ अपने से लगाए उन दीयों की तरफ़ देखती रही और हम उसकी आँखों में चमकने वाले आँसूओं की तरफ़ देखते रहे। उस लड़की के साथ उसका ख़ाविंद न था, वो ब्याहता मालूम होती थी, फिर इन झिलमिलाते हुए दीयों की लौ को क्यों उसने अपने सीने से चिमटा लिया था, ये लरज़ती हुई शम-ए-मोहब्बत... लड़की ने यका-य़क मेरे दोस्त की तरफ़ देखा और फिर सर झुका कर आहिस्ता-आहिस्ता घाट की सीढ़ियां चढ़ते हुए चली गई। मेरे दोस्त के लब भिंचे हुए थे, रुख़्सारों पर ज़र्दी खूंडी हुई थी, क्या जमुना में इतनी ताक़त न थी कि मुहब्बत के दो कांपते हुए शोलों को हम-आग़ोश होजाने दे।ये दीवारें, ये पानी की दीवारें, पैसे की दीवारें, समाज, ज़ात पात और गौत की दीवारें..! मेरा दिल ग़ैर मामूली तौर पर उदास हो गया और मैंने सोचा कि मैं कल मथुरा से ज़रूर कहीं बाहर चला जाऊंगा। बृंदाबन में या शायद गोकुल में, जहां की सादा और पाक व साफ़ फ़िज़ा में मेरे दिल को इत्मिनान नसीब होगा। बृंदाबन में बन कम और पक्की गलियाँ और खुली सड़कें ज़्यादा थीं, बृंदाबन के आलीशान मंदिरों की वुसअत और अज़मत पर महलों का धोका होता था। राजा मान सिंह का मंदिर, मीरा का मंदिर बाहर इमारत में कृष्ण जी की मूर्ती मौजूद थी, हर जगह पांडे मौजूद थे, अंग्रेज़ी बोलने वाले पढ़े लिखे गाईड, पहले लोग मंदिरों में बेखटके चले जाया करते थे, अब भगवान ने गाईड रख लिए थे, ख़ुदा वही पुराने थे। लेकिन जदीद मज़हब के सारे लवाज़मात से बहरावर, आख़िर ये नई तहज़ीब भी तो उन्हें की बनाई हुई थी।<br />
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बृंदाबन के एक मंदिर में मैंने देखा कि एक बहुत बड़ा हाल है जिसमें सात आठ सौ साधू हात में खड़तालें लिये एक साथ गा रहे थे, राधे श्याम , राधे श्याम...लेफ़्ट राइट, लेफ़्ट राइट...बाक़ायदगी तंज़ीम, अंधापन तहज़ीब और ताक़त के हज़ारों राज़ उस रिक़्क़त अंगेज़ नज़्ज़ारे में मस्तूर थे, हर-रोज़ सैंकड़ों बल्कि हज़ारों जातरी इस मंदिर में आते थे और बेशुमार चढ़ावा चढ़ता था, सुना है कि इन अंधे साधुओं को सुबह शाम दोनों वक़्त खाना मिल जाता था और एक पैसा दक्षिणा का, बाक़ी जो मुनाफ़ा होता, वो एक लहीम शहीम पांडे की तिजोरी में चला जाता, एक और मंदिर में भी मैंने ऐसा ही नज़ारा देखा, फ़र्क़ ये था कि यहां अंधे साधुओं की बजाय बेकस और नादार औरतें कृष्ण भगवान की स्तुति कर रही थीं। दिन-भर स्तुति करने के बाद उन्हें भी वही राशन मिलता था जो अंधे साधुओं के हिस्से में आता था। यानी दो वक़्त का खाना और एक पैसा दक्षिणा का। उन अंधे साधुओं और औरतों के सर मंढे हुए थे। जिन्हें देखकर मुझे विश्राम घाट के जातरी और जमुना के कीचड़ में कुलबुलाते हुए कछवे याद आगए। मज़हब ने मंदिरों में फ़ैक्ट्रीयां खोल रखी थीं और भगवान को लोहे से भी ज़्यादा मज़बूत सलाख़ों के अंदर बंद कर दिया था, हर मंदिर में हर एक जातरी को ज़रूर कुछ न कुछ देना पड़ता था, बा'ज़ दफ़ा तो एक ही मंदिर में मुख़्तलिफ़ जगहों पर दक्षिणा रेट मुख़्तलिफ़ था। सीढ़ियों को छू ने के लिए एक आना, मंदिर की चौखट तक आने के लिए चार आने। मंदिर का किवाड़ अकसर बंद रहता था और एक रुपया देकर जातरी मंदिर के किवाड़ खोल कर भगवान के दर्शन कर सकता, कई एक मंदिर ऐसे थे जो साल में सिर्फ़ एक-बार खुलते थे और कोई बड़ा सेठ ही उनकी बोहनी कर सकता था और बहुत सा रुपया अदा करके मंदिर के किवाड़ खोल सकताथा। तवाइफ़ीयत हमारे समाज का कितना ज़रूरी जुज़ु है। इस बात का एहसास मुझे ऐसे मंदिरों ही को देखकर हुआ। गोकुल में जमुना के किनारे तीन औरतें रेत पर बैठी रो रही थीं, मारवाड़ से कृष्ण भगवान के दर्शन करने को आई थीं, ज़ेवरों में लदी-फंदी एक साधू महात्मा ने उन्हें अपनी चिकनी चुपड़ी बातों में फंसा लिया और ज्ञान-ध्यान की बातें करते करते उन्हें मुख़्तलिफ़ मंदिरों में लिये फिरे, और जब ये मारवाड़ी औरतें गोकुल में माखन चोर कन्हैया का घर देखने आईं तो ये महात्मा भी उनके हमराह हो लिये, औरतें जमुना में स्नान कर रही थीं और साधू किनारे पर उनके ज़ेवरों और कपड़ों की रखवाली कर रहा था। जब औरतें नहा-धो कर घाट से बाहर निकलीं तो महात्मा जी ग़ायब थे, औरतें सर पीटने लगीं, कृष्ण जी अगर माखन चुराते थे तो साधू-महात्मा ने अगर चंद ज़ेवर चुरा लिये तो कौन सा बुरा काम किया। लेकिन महात्मा की ये तकल्लुफ़ उन बेवक़ूफ़ औरतों की समझ में न आती थी और वो जमुना की गीली रेत पर बैठी महात्मा जी को गालियां दे रही थीं। बहुत से लोग उनके आस-पास खड़े थे और वो तरह तरह की बातें कर रहे थे, "जी बड़ा ज़ुल्म हुआ है इन ग़रीब औरतों के साथ..."<br />
भला ये घर से ज़ेवर लेकर ही क्यों आईं? "अपनी इमारत दिखाना चाहती थीं। अब रोना किस बात का... अजी साहिब शुक्र कीजिए उनकी जान बच गई। अब कल ही मथुरा में एक पांडे ने अपने जजमान और उसकी बीवी को अपने घर ले जाकर क़त्ल कर दिया। जजमान का नया-नया ब्याह हुआ था। बीवी के पास साठ-स्तर हज़ार का ज़ेवर था... किसी मद्रासी जागीरदार का लड़का था जी, इकलौता लड़का था...उसके बाप को पुलिस ने तार दिया है, ख़्याल तो कीजिए कैसा अंधेर मच रहा है इस पवित्र नगरी में।"<br />
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मथुरा में लोक से न्यारी! बहुत रात गए मैं और मेरा दोस्त जमुना के उस पार खेतों में घूमते रहे। जन्म अष्टमी रात थी, फूंस के झोंपड़ियों में जिनमें ग़रीब मज़दूर और किसान रहते थे, मिट्टी के दिये रोशन थे और जमुना के दूसरे किनारे घाटों पर बिजली के क़ुमक़ुमे और ब्रह्मणों के क़हक़हों की आवाज़ें फ़िज़ा में गूंज रही थीं। फूंस के झोंपड़ों के बाहर मरियल सी फ़ाक़ाज़दा गायें बंधी थीं और नीम ब्रहना लड़के ख़ाक में खेल रहे थे। कुवें की जगत पर एक बूढ़ी औरत आहिस्ता-आहिस्ता डोल खींच रही थी। दो बड़ी बड़ी गागरें उसके पास पड़ी थीं। कुवें से आगे आम के दरख़्तों की क़तार थी जो बहुत दूर तक फैलती हुई चली गई थी। आम के दरख़्त और आंवले के पेड़ और खिरनी के मुदव्वर छतनारे , यहां गहरा सन्नाटा छाया हुआ था। हवा में एक हल्की उदास सी ख़ुशबू थी और सितारों की रोशनी ऐसी जिसमें सपेदी के बजाय स्याही ज़्यादा घुली हुई थी जैसे ये रोशनी खुल कर हँसना चाहती है, लेकिन शाम की उदासी को देख कर रुक जाती है। मेरे दोस्त ने आहिस्ते से कहा, "मैं और वो कई बार इन खिरनी के मुदव्वर सायों में एक दूसरे के हात के हात में दिए घूमते रहे हैं...कितनी ही जन्म अषटमियाँ इस तरह गुज़र गईं...और आज...!" मैं ख़ामोश रहा, "चंद दिन हुए" मेरा दोस्त कह रहा था, "मुझे क़त्ल के एक मुक़द्दमे में पेश होना पड़ा। क़ातिल को मक़तूल की बीवी से मुहब्बत थी...और जब उसे फांसी का हुक्म सुनाया गया तो क़ातिल किसान ने जिन हसरत भरी निगाहों से अपनी महबूबा की तरफ़ देखा, उन निगाहों की वारफ़्तगी और गुरस्नगी अभी तक मेरे दिल में तीर की तरह चुभी जाती है। वो दोनों बचपन से एक दूसरे को चाहते थे।<br />
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सालहा साल एक दूसरे से प्यार करते रहे। फिर लड़की के माँ-बाप ने उसकी शादी किसी दूसरी जगह कर दी...ये जमुना पर लोग मुहब्बत के दिये किस लिए जलाते हैं? बड़े हो कर अपने ही बेटों और बेटीयों के गले पर किस तरह छुरी चलाते हैं...वो किसान औरत अब पागलखाने में है?"<br />
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मैंने कहा, "मुहब्बत भी अक्सर बेवफ़ा होती है। राधा को कृष्ण से इश्क़ था लेकिन राधा और कृष्ण के दरमियान बादशाहत की दीवार आगई."<br />
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उसने कहा, "शायद तुम्हें राधा और कृष्ण की मुहब्बत का अंजाम मालूम नहीं।"<br />
<br />
"नहीं..." वो चंद लम्हों तक ख़ामोश रहा, फिर आहिस्ता से कहने लगा... "कृष्ण जी ने बृंदाबन की गोपियों से वादा किया था कि वो एक-बार फिर बृंदाबन में आएँगे और हर एक गोपी के घर का दरवाज़ा तीन बार खटखटाएँगे, जिस घर में रोशनी होगी और जो गोपी दरवाज़ा खटखटाने पर उनका खैरमक़दम करेगी, वो उसी इश्क़ को सच्चा जानेंगे...इस बात को कई बरस गुज़र गए। एक अंधयारी तूफ़ानी रात में जब बिजली कड़क रही थी और बारिश मूसलाधार बरस रही थी किसी ने बृंदाबन के दरवाज़े खटखटाने शुरू किए स्याह लिबादे में लिपटा हुआ अजनबी हर एक मकान पर तीन बार दस्तक देता, और फिर आगे बढ़ जाता....लेकिन सब मकानों में अंधेरा था। सब लोग सोए पड़े थे। किसी ने उठ कर दरवाज़ा न खोला। अजनबी नाउम्मीद हो कर वापस जाने वाला था कि उसने देखा कि दूर एक झोंपड़े में मिट्टी का दिया झिलमिला रहा है। वो उस झोंपड़ी की तरफ़ तेज़-तेज़ क़दमों से बढ़ा। लेकिन उसे दरवाज़ा खटखटाने की ज़रूरत भी न महसूस हुई क्योंकि दरवाज़ा खुला था। झोंपड़े के अंदर दिये की रोशनी के सामने राधा बैठी थी। अपने महबूब के इंतिज़ार में, राधा के सर के बाल सपेद हो चुके थे, चेहरे पर ला तादाद झुर्रियां। कृष्ण जी ने गुलूगीर आवाज़ में कहा, राधा मैं आगया हूँ। लेकिन राधा ख़ामोश बैठी रही। दिये की लौ की तरफ़ तकती हुई। राधा मैं आ गया हूँ, कृष्ण जी ने चिल्ला कर कहा।<br />
<br />
लेकिन राधा ने कुछ न देखा, न सुना। अपने महबूब की राह तकते तकते उसकी आँखें अंधी हो चुकी थीं और कान बहरे। ज़िंदगी से परे, मौत से परे इन्साफ़ से परे..."<br />
<br />
मेरी आँखों में आँसू आ गए, मेरा दोस्त अपनी बाहोँ में सर छुपा कर सिसकियाँ लेने लगा जैसे किसी ने उसकी गर्दन में फांसी का फंदा डाल दिया हो जैसे पागल औरत मुहब्बत करने के जुर्म में लोहे की सलाख़ों के पीछे बंद कर दी गई हो। ज़र्दरू लड़की विश्राम घाट पर हसरत भरी निगाहों से मिट्टी के दियों की लौ की तरफ़ तक रही थी, उसकी हैरान पुतलियां मेरी आँखों के आगे नाचने लगीं। अंधे साधू सर मुंडाए हुए क़तार दर क़तार खड़े थे और खड़तालें बजाते हुए गा रहे थे। राधे श्याम, राधे श्याम, राधे श्याम...लेफ़ राइट... लेफ़ राइट, लेफ़ राइट। पुराने ख़ुदा अभी तक मंदिरों, बैंकों फ़ैक्ट्रीयों और खेतों पर क़ब्ज़ा किए बैठे थे, वो अपने बही खाते खोले। आलती-पालती मारे बैठे थे। उनकी नंगी तोंदों पर जनेऊ लहरा रहे थे और वो निहायत दिलजमई से उन लाखों आवाज़ों को सुन रहे थे, जो फ़िज़ा में चारों तरफ़ शहद की मक्खीयों की तरह भिनभिना रही थीं...राधे श्याम ...राधे श्याम...</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A4%AE%E0%A4%A4%E0%A4%BE_/_%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%A8_%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%B0&diff=44179ममता / कृश्न चन्दर2024-03-18T22:50:24Z<p>अनिल जनविजय: '{{GKCatKahani}} ये कोई दो बजे का वक़्त था, बादलों का एक हल्का स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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<div>{{GKCatKahani}}<br />
ये कोई दो बजे का वक़्त था, बादलों का एक हल्का सा गिलाफ़ चांद को छुपाए हुए थे। यकायक मेरी आँख खुल गई। क्या देखता हूँ कि साथ वाली चारपाई पर अम्मां सिसकियां ले रही हैं।<br />
<br />
"क्यों अम्मी?" मैंने घबरा कर आँखें मिलते मिलते पूछा।<br />
<br />
"क्यों...अम्मी!" अम्मां ने सिसकियां और हिचकियों के दरमियां मेरे सवाल को ग़ुस्से से दुहराते हुए कहा, "शर्म नहीं आती, बाप को भी और बेटे को भी इतने बड़े होगए हो, कुछ ख़ुदा का ख़ौफ़ नहीं।"<br />
<br />
"आख़िर हुआ क्या?" मैंने जल्दी से बात काट कर पूछा। "ये आधी रात के वक़्त रोना कैसा?"<br />
<br />
गर्मियों के दिन थे, हम सब बरामदे में सो रहे थे। मगर अब्बा अंदर सामने एक कमरे में सो रहे थे। उनकी तबीयत नासाज़ थी और उन्हें अक्सर गर्मियों में भी सर्दी लग जाने का अंदेशा लाहक़ रहता था। इसलिए उमूमन वो अंदर ही सोया करते हैं। आख़िर उनकी आँख भी खुल गई। वहीं बिस्तर पर से करवट बदल कर बोले, "क्या बात है वहीद? तुम्हारी अम्मां क्यो रो रही है?"<br />
<br />
"मैं क्या बताऊं अब्बा। बस रो रही हैं।"<br />
<br />
"हाँ, और तुम्हें किस बात की फ़िक्र है।" अम्मां की हिचकियां और तेज़ हो गईं। "पता नहीं मेरा लाल इस वक़्त किस हालत में है। मेरा छोटा महमूद, और तुम यहां पड़े सो रहे हो। वहां उसका कौन है, न माँ, न भाई, न बहन और तुम खर्राटे ले रहे हो। आराम से जैसे तुम्हें किसी बात की फ़िक्र ही नहीं(सिसकते हुए) मैंने अभी अभी अपने छोटे महमूद को ख़्वाब में देखा है। वो एक मैले कुचैले बिस्तर में पड़ा बुख़ार से तप रहा था। उसका पिंडा तनूर की तरह गर्म था। वो करहाते हुए अम्मां,अम्मां कह रहा था..." ये कह कर अम्मां ज़ोर ज़ोर से रोने लगीं।<br />
<br />
अम्मां का 'छोटा महमूद' और मेरा बड़ा भाई लाहौर बी.ए. में तालीम पाता था, थर्ड इयर में, मैं एफ़.ए. का इम्तिहान देकर लाहौर से यहां मई के महीने ही में आ गया था, मगर महमूद को अभी हालोर की तप्ती हुई फ़िज़ाओं में पूरा एक महीना और गुज़ारना था। लेकिन अब जून का महीना भी गुज़र गया था और महमूद अभी तक लाहौर से वापस न आया था। अम्मां बहुत परेशाँ थीं और सच पुछिए तो हम सब बहुत परेशाँ थे। हमने उसे परसों एक तार भी दे दिया था और मुद्दतों के बाद अचानक महमूद का एक ख़त भी आया था। चंद मुन्हनी सुतूर थीं। लिखा था, "मैं बीमार हूँ, मलेरिया का बुख़ार है। लेकिन अब टूट रहा है। चंद दिनों से यहां बहुत बारिश हो रही है। अगर लाहौर का ये हाल है तो इस्लामाबाद में क्या होगा। क्या कश्मीर आने का रास्ता खुल गया। जल्दी लिखीए कि किस रास्ते से आऊं, क्या जम्मू बानिहाल रोड से आऊं... कि कोहाला उड़ी सड़क से, कौन सा रास्ता बेहतर रहेगा?" हमने सोच बिचार के बाद एक तार और दे दिया था। गो बारिश बहुत हो रही थी और दोनों सड़कें शिकस्ता हालत में थीं। फिर भी कोहाला उड़ी रोड, बानिहाल रोड से बेहतर हालत में थी। इसलिए यही मुनासिब समझा कि महमूद कोहला रोड ही से आए। अब आधी रात के वक़्त ये उफ़्ताद आ पड़ी।<br />
<br />
अब्बा की नींद परेशान हो गई थी चीं बजीं होते हुए बोले, "तो इसका क्या किया जाये? और तुम्हें तो यूंही दिल में वस्वसे उठा करते हैं। भला इसका ईलाज क्या? आख़िर महमूद कोई बच्चा तो नहीं? तुम्हें फ़िक्र किस बात की है। हज़ारों माओं के लाल लाहौर में पढ़ते हैं और होस्टलों में रहते हैं। आता ही होगा, अगर आज सुबह वो लाहौर से चला तो शाम को वो रावलपिंडी पहुंच गया होगा कल कोहाला और..."<br />
<br />
अम्मां जल्दी से बोलीं, "और....और? क्या ग़ज़ब करते हो और अगर खुदा न करे। उसका बुख़ार अभी न टूटा हो तो फिर? मैं पूछती हूँ तो फिर?" ये कह कर अम्मां रुक गईं और दुपट्टे से आँसू पूंछ कर कहने लगीं।<br />
<br />
"मुझे मोटर मंगवा दो। में अभी लाहौर जाऊंगी।"<br />
<br />
"अब तुम से कौन बहस करे, हमें तो नींद आई है।" ये कह कर अब्बा करवट बदल कर सो रहे। मैंने भी यही मुनासिब जान कर आँखें बंद कर लीं। मगर कानों में माँ की मद्धम सिसकियों की आवाज़ जिसे वो दबाने की बहुत कोशिश कर रही थीं बराबर आ रही थी। क्या दिल है माँ का और कितनी अजीब हस्ती है उसकी? मैं आँखें बंद किए सोचने लगा। माँ का दिल, माँ की मुहब्बत, ममता, किस क़दर अजीब जज़्बा है, आलम-ए-जज़्बात में उसकी नज़ीर मिलनी मुहाल है। नहीं ये तो अपनी नज़ीर आप है। एक सपने के धुन्द्ल्के में अपने बीमार बेटे को देखती है और चौंक पड़ती है। लरज़ जाती है। ममता.....क्या इस जज़्बे का असास महज़ जिस्मानी है, महज़ इसलिए कि बेटा माँ के गोश्त-व-पोस्त का एक टुकड़ा है? और क्या हम सचमुच फ़लाबीर के तख़य्युल के मुताबिक़ इस कायनात में अकेले हैं, तन्हा, बे-यार-व-मददगार, एक दूसरे को समझते हुए भी नाआशना, मगर मैं भी तो महमूद का भाई हूँ, मेरी रगों में वही ख़ून मोजज़न है, हम दोनों एक दूसरे को चाहते हैं और अपनी ज़िंदगी के इन बीस सालों में सिर्फ़ दो दफ़ा महमूद से जुदा हुआ हूँ और वो भी निहायत क़लील अर्सों के लिए। फिर मैं क्यों इस क़दर उसके लिए बेताब-व-बेक़रार नहीं। ममता...क्या हम सचमुच पत्थरों के तोदों की तरह हैं, मिस्र के मीनारों की तरह ख़ूबसूरत लेकिन बेजान अशोक के कत्बों की तरह सबक़ आमोज़ लेकिन बे-हिस्स, बे-रूह? ममता!...बुद्ध ने कहा था कि ये दुनिया धोका है, सराब है, माया है, होगी। लेकिन यक़ीन नहीं पड़ता आख़िर ये हसीन जज़्बा कहाँ से आया? और कायनात के एक गोशे में सिसकती हुई अम्मां क्या ये भी एक धोका है? सच्च जानिए यक़ीन नहीं पड़ता है।<br />
<br />
छोटा महमूद....मेरा नन्हा महमूद....मेरा लाल..<br />
<br />
अम्मी हल्की हिचकियों में भाई का नाम ले रही थीं। कितनी मामूली सी बात थी। भाई जान शाहिद अभी लाहौर ही में होंगे। ज़ियाफ़तें उड़ाते होंगे, सिनेमा देखते होंगे। या अगर लाहौर से चले आए हों तो रावलपिंडी में इस वक़्त ख़्वाब-ए-ख़रगोश में पड़े खर्राटे ले रहे होंगे। मलेरिया क्या अजब मलेरिया का बुख़ार मुतलक़ ही न हो। मैं भाई जान के बहानों को ख़ूब जानता हूँ, अम्मां भी जानती हैं मगर फिर भी रो रही हैं। आख़िर क्यों? ममता! शायद ये कोई रूहानी क़राबत है, शायद इस दुनिया के वसीअ सहरा में हम अकेले नहीं हैं। शायद हम महज़ पत्थरों के तोदों की तरह नहीं हैं। <br />
<br />
शायद इस इंसानी मिट्टी में किसी अज़ली आग के शोलों की तड़प है मसलन मुझे मोपासां का अफ़साना “तन-ए-तनहा”याद आ गया। जिसमें उसने इस शदीद एहसास ए तन्हाई का रोना रोया है। आह बेचारा मोपासां, वो एक माहिर-ए-नफ़सियात था और एक माहिर-ए-नफ़सियात की तरह वो कई बार नफ़सियाती वारदात का सही अंदाज़ा करने से क़ासिर रहा उसके अफ़्क़ार ने इसे कसरत को ग़लत रास्ते पर डाल दिया। “तन-ए-तनहा” एक ऐसी ही मिसाल है। वो लिखता है :<br />
<br />
“औरत एक सराब है और हुस्न एक फ़रोंई अमर... हम एक दूसरे के मुताल्लिक़ कुछ नहीं जानते, मियां-बीवी सालहा साल एक दूसरे के साथ रहते हुए भी एक दूसरे से बेगाना हैं...दो दोस्त मिलते हैं और हर दूसरी मुलाक़ात में एक दूसरे से दूर चले जा रहे हैं....निस्वानी मुहब्बत मुस्तक़िल धोका है...और जब मैं औरत को देखता हूँ तो मुझे चारों तरफ़ मौत ही मौत नज़र आती है।”<br />
<br />
मैंने आँखें खोल कर अम्मां की तरफ़ देखा, अम्मी रोते रोते सो गई थीं, गाल आंसुओं से गीले थे और बंद आँखों की पलकों पर आँसू चमक रहे थे। क्या अम्मी मौत है? और क्या ममता भी कोई ऐसा ही हलाकत आफ़रीं जज़्बा है? शायद मोपासां ग़लती पर था, शायद उसे ये लिखते वक़्त अपनी शफ़ीक़ माँ की याद न आई थी। वो उसकी जान बख़्श लोरियां, वो नर्म नर्म थपकियां जबकि वो बच्चों की तरह सिर्फ़ ऊँ ऊँ कह कर बिलबिला उठता था और उसकी छाती से लिपट जाता था...निस्वानी मुहब्बत मुस्तक़िल धोका है....शायद उसे अपनी अम्मां के वो तवील बोसे भूल गए कि जब बड़ा होने पर भी उसका नफ़सियाती सर अपने बाज़ूओं में ले लेती थी और प्यार करती थी। जब वो ममता से बेक़रार हो जाती थी और उनकी ग़ैर हाज़िरी में भी उसकी राह देखा करती थी। उसकी हर ग़लती को बच्चों की भूल से ताबीर किया करती थी और गुनाह को नेकी में मुबद्दिल कर देती थी। इस दुनिया में हम अकले नहीं हैं बल्कि हमारे साथ हमारी माएं हैं वो इस शदीद एहसास ए तन्हाई जिसकी मोपासां को शिकायत है, जो दुनियावी कुलफ़तों और उल्फ़तों में भी इंसान का पीछा नहीं छोड़ता, न जाने वो माँ की गोद में आकर कैसे नापैद हो जाता है? माँ के जज़्बा-ए-मुहब्बत में एक ऐसी दीवानगी-व-वारिफ़्तगी है जो उसकी अनानियत को फ़ना कर देती है और उसकी ज़ात को बच्चों में मुंतक़िल कर देती है। यक़ीनन हम इस दुनिया में अकेले नहीं हैं। बल्कि हमारे साथ हमारी माएं हैं...यक़ीनन....मगर....<br />
<br />
गुटर गूं, गुटर गूं, कुरु कूँ, कबूतर, मुर्ग़, चिड़ियां, दोशीज़ा सहर को ख़ुशआमदीद कह रहे थे। उनकी ख़ुश इल्हानी ने मुझे बेदार कर दिया, मैं उठ कर बिस्तर पर बैठ गया। टांगें चारपाई से नीचे लगा दीं और आँखें मलने लगा। इतने में आंगन से अम्मां की आवाज़ आई,<br />
<br />
“बेटा वहीद उठो, महमूद आगए।”<br />
<br />
आँखें खोल कर देखा तो सचमुच....अम्मां आंगन में उगे हुए पन्चतारे के बूटे के नीचे एक मोंडे पर बैठी थीं और महमूद उनके पैरो पर झुका हुआ था। मैं जल्दी से उठा, आंगन में हम दोनों भाई बग़लगीर हुए।<br />
<br />
"इतने दिन कहाँ रहे," मैंने महमूद से पूछा।<br />
<br />
महमूद ने शोख़ निगाहों से मेरी तरफ़ देखा और एक आँख मीच ली। फिर गर्दन मोड़ कर पंच तारे के सुर्ख़ सुर्ख़ फूलों के गुच्छों को ग़ौर से देखने लगा।<br />
<br />
"कोई सात रोज़ झड़ी रही, मुतवातिर बारिश होने से सड़क जाबजा से बह गई थी और सुपरिटेंडेंट ट्रैफ़िक ने रास्ता बंद कर दिया था।" उसने आहिस्ता से जवाब दिया और ये कह कर एक हाथ मेरे हाथ को पकड़ कर ज़ोर से हिलाने लगा।<br />
<br />
अम्मां कद्दू छिल रही थीं और हम दोनों को देखती जाती थीं। उनकी आँखें पुरनम थीं। आँसूओं के इन दो समुंद्रों में ख़ुशियों की जल परियां नाच रही थीं।</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A4%96%E0%A4%BC%E0%A5%8D%E0%A4%A4_/_%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%A8_%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%B0&diff=44178पानी का दरख़्त / कृश्न चन्दर2024-03-18T22:45:43Z<p>अनिल जनविजय: '{{GKCatKahani}} जहां हमारा गांव है इस के दोनों तरफ़ पहाड़ों क...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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<div>{{GKCatKahani}}<br />
जहां हमारा गांव है इस के दोनों तरफ़ पहाड़ों के रूखे सूखे सिंगला ख़ी सिलसिले हैं।मशरिक़ी पहाड़ों का सिलसिला बिलकुल बेरेश-ओ-बुरूदत है।इस के अंदर नमक की कानें हैं।मग़रिबी पहाड़ी सिलसिले के चेहरे पर जंड, बहीकड़, अमलतास और कीकर के दरख़्त उगे हुए हैं । इसकी चट्टानें स्याह हैं लेकिन इन स्याह चटानों के अंदर मीठे पानी के दो बड़े क़ीमती चश्मे हैं, और उन दो पहाड़ी सिलसिलों के बीच में एक छोटी सी तलहटी पर हमारा गांव आबाद है।हमारे गांव में पानी बहुत कम है।जब से मैंने होश सँभाला है मैंने अपने गांव के आसमान को तपे हुए पाया है, यहां की ज़मीन को हाँपते हुए देखा है और गांव वालों के मेहनत करने वाले हाथों और चेहरों पर एक ऐसी तरसी हुई भूरी चमक देखी है जो सदीयों की ना-आसूदा प्यास से पैदा होती है।हमारे गांव के मकान और आस-पास की ज़मीन बिलकुल भूरी और ख़ुशक नज़र आती है।ज़मीन में बाजरे की फ़सल जो होती है इस का रंग भी भूरा बल्कि स्याही माइल होता है।यही हाल हमारे गांव के किसानों और उनके कपड़ों का है।सिर्फ हमारे गांव की औरतों का रंग सुनहरी है क्योंकि वो चश्मे से पानी लातें हैं।<br />
<br />
बचपन ही से मेरी यादें पानी की यादें हैं। पानी का दर्द और इस का तबस्सुम उस का मिलना और खो जाना।ये सेना उस के फ़िराक़ की तमहीद और इस के विसाल की ताख़ीर से गूदा हुआ है।मुझे याद है जब में बहुत छोटा सा था दादी अम्मां के साथ गांव की तलहटी के नीचे बेहती हुई रवेल नदी के किनारे कपड़े धोने के लिए जाया करता था।दादी अम्मां कपड़े धोती थीं में उन्हें सुखाने के लिए नदी के किनारे चमकती हुई भूरी रेत पर डाल दिया करता था।इस नदी में पानी बहुत कम था।ये बड़ी दुबली पतली नदी थी।छरीरी और आहिस्ता ख़िराम जैसे हमारे सरदार पेन्दा ख़ान की लड़की बानो। मुझे इस नदी के साथ खेलने में इतना ही लुतफ़ आता था।जितना बानो के साथ खेलने में ।दोनों की मुस्कुराहट मीठी थी ,और मिठास की क़दर वही लोग जानते हैं जो मेरी तरह नमक की कान में काम करते हैं।मुझे याद है हमारी रवेल नदी साल में सिर्फ छः महीने बेहती थी,छः महीने के लिए सूख जाती। जब चीत का महीना जाने लगता तो नदी सूखना शुरू हो जाती और जब बैसाख ख़त्म होने लगता तो बिलकुल सूख जाती,और फिर उस की तह पर कहीं कहीं छोटे छोटे नीले पत्थर रह जाते या नरम नरम कीचड़ जिसमें चलने से यूं मालूम होता था जैसे रेशम के दुबैज़ ग़ालीचे पर घूम रहे हूँ ।चंद दिनों में ही नदी का कीचड़ भी सूख जाता और इस के चेहरे पर बारीक दुर्ज़ों और झुर्रियों का जाल फैल जाता ,किसी मेहनती किसान के चेहरे की तरह उस के होंटों पर ख़ुशक पपड़ीयाँ जम जातीं और ऐसा मालूम होता जैसे उस की गर्म गुदाज़ रेत ने साल-हा-साल से पानी की एक बूँद नहीं चखी।<br />
<br />
मुझे याद है पहली बार जब मैंने नदी को इस तरह सूखते हुए पाया था तो बे-कल ,बेचैन और परेशान हो गया था,और रात सो भी ना सका था।इस रात दादी अम्मां मुझे बहुत देर तक गोद में लेकर अजीब अजीब कहानियां सुनाती रहें और सारी रात दादी अम्मां की गोद में लेटे लेटे मुझे रवेल नदी की बहुत सी प्यारी बातें याद आने लगीं उस का हौले हौले पत्थरों से ठुमकते हुए चलना,और पत्थरों के दरमयान से इस का ज़रा तेज़ होना और कतरा कर चलना,जैसे कभी कभी बानो ग़ुस्से में गली के मोड़ पर से तेज़ी से निकल जाती है और जहां दो पत्थर एक दूसरे के बहुत क़रीब हुए थे वहां में और बानो बाजरे की डंडियों की बनी हुई पनचक्की लटका देते थे और गीला आटा पिसाते थे।पनचक्की नदी की आहिस्ता ख़िरामी के बावजूद कैसे तेज़ तेज़ चक्कर लगा कर घूमती थी और अब ये नदी सूख गई।<br />
इन सब बातों को याद कर के मैंने दादी अम्मां से पूछा: दादी अम्मां ये हमारी नदी कहाँ चली गई? ज़मीन के अंदर छिप गई।<br />
<br />
क्यों? सूरज के डर से क्यों ?ये सूरज से क्यों डरती है?सूरज तो बहुत अच्छा है।<br />
<br />
सूरज एक नहीं बेटा,दो सूरज हैं।एक तो सर्दीयों का सूरज है।वो बहुत अच्छा और मेहरबान होता है।दूसरा सूरज गरमीयों का है।ये बड़ा तेज़ चमकीला और ग़ुस्से वाला होता है, और ये दोनों बारी बारी हर साल हमारे गांव में आते हैं।जब तक तो सर्दीयों का सूरज रहता है हमारी नदी इस से बहुत ख़ुश रहती है,लेकिन जब गरमीयों का ज़ालिम सूरज आता है तो हमारी नदी के जिस्म से इस का लिबास उतारना शुरू करता है।हर-रोज़ कपड़े की एक तह उतरती चली जाती है और जब बैसाखी का आख़िरी दिन आता है तो नदी के जिस्म पर पानी की एक पतली सी चादर रह जाती है।इस रात को हमारी नदी श्रम के मारे ज़मीन पर छिप जाती है और इंतिज़ार करती है सर्दीयों के सूरज का जो उस के लिए अगले साल पानी की नई पोशाक लाएगा।<br />
<br />
मैंने आँख झपकते हुए कहा:सच-मुच गरमीयों का सूरज तो बहुत बुरा है।<br />
<br />
लो अब सो जाओ बेटा।<br />
<br />
मगर मुझे नींद नहीं आ रही थी ।इस लिए मैंने एक और सवाल पूछा?दादी ये हमारे नमक के पहाड़ का पानी क्यों कड़वा है।हमारे गांव में बच्चे पानी के लिए बहुत सवाल करते थे।पानी उनके तख़य्युल को हमेशा उकसाता रहता है।दूसरे गांव में,जहां पानी बहुत होता है,वहां के लड़के शायद सोने के जज़ीरे ढूंडते होंगे या पुरसतान का रास्ता तलाश करते होंगे लेकिन हमारे गांव के बच्चे होश सँभालते ही पानी की तलाश में निकल पड़ते हैं।और तलहटी पर और पहाड़ी पर और दूर दूर तक पानी को ढ़ूढ़ने का खेल खेलते हैं मैंने भी अपने बचपन में पानी को ढ़ूंडा था और नमक के पहाड़ पर पानी के दो तीन नए चश्मे दरयाफ़त किए थे।मुझे आज तक याद है मैंने कितने चाव और ख़ुशी से पानी का पहला चशमा ढ़ूंडा था ,किस तरह काँपते हुए हाथों से मैंने चटानों के दरमयान से झिझकते हुए पानी को अपनी छोटी छोटी उंगलीयों का सहारा देकर बाहर बुलाया था और जब मैं पहली बार उसे ओक में लिया तो पानी मेरे हाथ में यूं काँप रहा था जैसे कोई गिरफ़्तार चिड़िया बच्चे के हाथों में काँपती है।फिर जब में उसे ओक में भर कर अपनी ज़बान तक ले गया तो मुझे याद है मेरी काँपती हुई ख़ुशी कैसे तल्ख़ बिच्छू में तबदील हो गई थी ।पानी ने ज़बान पर जाते ही बिच्छू की तरह डंक मारा और इस के ज़हर ने मेरी रूह को कड़वा कर दिया।मैंने पानी थूक दिया और फिर किसी नए चश्मे की तलाश में निकल खड़ा हुआ ,लेकिन नमक के पहाड़ पर मुझे आज तक मीठा चशमा ना मिला ।इस लिए जब नदी सूखने लगी तो मीठे चश्मे की याद ने मुझे बेचैन कर दिया ।और मैंने दादी अम्मां से पूछा :<br />
<br />
दादी माँ ये नमक के पहाड़ का पानी कड़वा क्यों है?<br />
<br />
दादी अम्मां ने कहा।ये तो एक दूसरी कहानी है। तो सुनाओ। नहीं अब सो जाओ। मैं चीख़ा:नहीं सुनाओ।<br />
<br />
अच्छा बाबा सुनाती हूँ,मगर तुम अब चीख़ोगे नहीं।<br />
<br />
नहीं<br />
<br />
और ना ही बीच बीच में टोकोगे। नहीं<br />
<br />
अच्छा तो सुनो।ये तुम इस तरफ़ नमक की पहाड़ी जो देखते हो ये पुराने ज़माने में एक औरत थी जो इस पहाड़ की बीवी थी ,जहां आजकल मीठे पानी का चशमा है।<br />
<br />
फिर-फिर एक रोज़ देवों में बड़ी जंग छड़ी और ये सामने पहाड़ भी जो इस औरत का ख़ावंद था,जंग में भर्ती हो गया और बीवी को पीछे छोड़ गया और से कह गया कि वो उस के आने तक कहीं ना जाये ,ना किसी से बात करे,सिर्फ अपने घर का ख़्याल करे।<br />
<br />
अच्छा हाँ ।फिर कई साल तक बीवी अपने देव ख़ावंद का इंतिज़ार करती रही लेकिन इस का ख़ावंद जंग से ना लौटा। आख़िर एक दिन उस के घर में एक सफ़ैद देव आया और इस पर आशिक़ हो गया।<br />
<br />
आशिक़ क्या होता है। दादी अम्मां रुक गईं,बोलीं:तू ने फिर टोका।मैंने दिल में सोचा:दादी अम्मां अगर ख़फ़ा हो गईं तो बाक़ी कहानी सुनने को नहीं मिलेगी और कहानी अब दिलचस्प होती जा रही है इसलिए चुपके से सन लेना चाहिए आशिक़ का मतलब बाद में पूछ लेंगे।इसलिए मैंने जल्दी से सोच कर दादी माँ से कहा।अच्छा अच्छा ,दादी अम्मां आगे सुनाओ,अब नहीं टोकोंगा।<br />
<br />
दादी अमान रखाई से इस तरह ख़फ़ा हो के बोलीं जैसे उन्हें कहानी का आगे आने वाला हिस्सा पसंद नहीं है।कहने लगीं:होना किया था,मग़रिबी पहाड़ी की बीवी बेवफ़ा निकली।जब उसे सफ़ैद देव ने झूट-मूट यक़ीन दिला दिया कि इस का पहला ख़ावंद देवों की जंग में मारा गया है तो उसने सफ़ैद देव से शादी कर ली।<br />
<br />
देवों की जंग क्यों होती थी?मेरे मुँह से बे-इख़्तियार निकल गया।<br />
<br />
तो ने फिर टोका।दादी अम्मां बहुत ख़फ़ा हो के बोलीं चल अब आगे नहीं सुनाऊँगी।नहीं दादी अम्मां मेरी अच्छी दादी अम्मां अच्छा अब बिलकुल नहीं टोकोंगा ।मैंने मिन्नत समाजत करते हुए कहा।<br />
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फिर-फिर एक दिन बहुत सालों के बाद एक बूढ़ा देव इस वादी में आया।ये उसी औरत का पहला ख़ावंद था।जब इस ने अपनी बीवी को सफ़ैद देव के साथ देखा तो उसे बहुत ग़ुस्सा आया और उसने कुलहाड़ा लेकर सफ़ैद देव और अपनी बीवी को क़तल कर दिया ।जब से इन दोनों देवओं को बड़े पैर की बददुआ मिली है और ये लोग सिल पत्थर हो गए। सामने वाले पहाड़ का पानी इसलिए मीठा है क्योंकि उसे अपनी बीवी से सच्ची मुहब्बत थी।इस के मुक़ाबिल पहाड़ का पानी खारा है और इस में नमक है क्योंकि वो औरत है और अपनी बेवफ़ाई पर हरवक़त रोती रहती है।और जब उस के आँसू ख़ुशक हो जाते हैं तो नमक के डले बन जाते हैं ,जिन्हें हर-रोज़ तुम्हारा बाप पहाड़ के अंदर खोद के निकालता है।<br />
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फिर-फिर कहानी ख़त्म।<br />
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कहानी ख़त्म हो गई और मैं भूल गया कि मैंने किया सवाल किया था।मुझे क्या जवाब मिला। मैंने कहानी सन ली,इतमीनान का सांस लिया और पलक झपकते ही सो गया।सोते सोते मेरी आँखों के सामने नमक की कान का मंज़र आया, जहां मेरे अब्बा काम करते थे,जहां जवान हो कर मुझे काम करना पड़ा और जहां पहली बार में अपनी अम्मां के साथ अपने अब्बा का खाना लेकर गया था।अफवा!कितनी बड़ी कान थी वो चारों तरफ़ नमक के पहाड़ नमक के सतून ,नमक के आईने नमक की दीवारों में लगे हुए थे।एक जगह नमक की आबी झील थी जिसके चारों तरफ़ नीलगूं दीवारें थीं और छत भी नमक की थी जिससे क़तरा-क़तरा कर के नमक का पानी रस्ता था और नीचे गिर कर झील बन गया था और यका-य़क मुझे ख़्याल आया ये उस औरत के आँसू में जो बड़े पैर की बददुआ से नमक का पहाड़ बन चुकी है।मेरे अब्बा इस झील को देखकर बोले:यहां इस क़दर पानी है फिर भी पानी कहीं नहीं मिलता।दिन-भर नमक की कान में काम करते करते सारे जिस्म पर नमक की पतली सी झिल्ली चढ़ जाती है जिसे खर्चो तो नमक चूरा चूरा हो कर गिरने लगता है। इस वक़्त किस क़दर वहशत होती है।जी चाहता है कहीं मीठे पानी की झील हो और आदमी इस में ग़ोते लगाता जाये।<br />
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पानी !पानी!<br />
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पानी सारे गांव में कहीं नहीं था। पानी नमक के पहाड़ पर भी नहीं था। पानी था तो सामने पहाड़ पर जिसकी मुहब्बत में बेवफ़ाई नहीं की थी।या पानी फिर रवेल नदी में था। लेकिन ये नदी भी छः महीने ग़ायब रहती थी और फिर आख़िर एक दिन ये बिलकुल ग़ायब हो गई और आज तक उस के नीले पत्थर और सूखी रेत और इस के किनारे किनारे चलने वाली औरतों के ना उमीद क़दम उस की राह तकते हैं।लेकिन ये मेरे बचपन की कहानी नहीं है,ये मेरे लड़कपन की कहानी है।जब हमारे गांव से बहुत दौरान पहाड़ी सिलसिलों के दूसरी तरफ़ सैंकड़ों मील लंबी जागीर के मालिक राजा अकबर अली ख़ान ने हमारे दिहात वालों की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ रवेल नदी का बहाव मोड़ कर अपनी जागीर की तरफ़ कर लिया और हमारी तलहटी को और आस-पास के बहुत सारे इलाक़े को सूखा ,बंजर और वीरान कर दिया। इस वक़्त नदी के किनारे हमारा गांव और इस वादी के और दूसरे बहुत से गांव परेशान हो गए।इस तरह हमारे लिए रवेल नदी मर गई और इस का पानी भी मर गया और हमारे लिए एक तल्ख़ याद छोड़ गया।मुझे याद है इस वक़्त गांव वालों ने दूसरे गांव वालों से मिलकर सरकार से अपनी खोई हुई नदी मांगी थी क्योंकि नदी तो घर की औरत की तरह है।वो घर में पानी देती है,खेतों में काम करती है,हमारे कपड़े धोती है जिस्म को साफ़ रखती है।नदी के गीत उस के बच्चे हैं।<br />
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जिन्हें वो लोरी देते हुए ,थपकते हुए मग़रिब के झूले की तरफ़ ले जाती है। पानी के बग़ैर हमारा गांव बिलकुल ऐसा है जैसे घर औरत के बग़ैर गांव वालों को बिलकुल ऐसा मालूम हुआ जैसे किसी ने उनके घर से उनकी लड़की अग़वा कर ली हो।वही गम,वही ग़ुस्सा था,वही तेवर थे,वही मरने मारने के अंदाज़ थे।लेकिन राजा अकबर अली ख़ां चकवाल के इलाक़े का सबसे बड़ा ज़मींदार था। हुकूमत के अफ़िसरों के साथ उस का गहिरा असर-ओ-रसूख़ था ।नमक की कान का ठेका भी इस के पास था।<br />
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नतीजा ये हुआ कि गांव वालों को उनकी नदी वापिस ना मिली,उल्टा हमारे बहुत से गांव वाले ,जो नमक की कान में काम करते थे, बाहर निकाल दिए गए।उनका क़सूर सिर्फ ये था कि उन्होंने अपने गांव के अग़वा शूदा पानी को वापिस बुलाने की जुरात की थी।मुझे याद है इस रोज़ अब्बा काँपते काँपते घर आए थे। उनके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था और बार-बार अपने कानों को हाथ लगा कर कहते:तौबा तौबा ! कैसी ग़लती हुई।वो तो अल्लाह का काम था कि मैं बच गया वर्ना राजा साहिब मुझे निकाल देते,में तो अब कभी राजा के ख़िलाफ़ अर्ज़ी ना दूं ,चाहे वो पानी क्या मेरी लड़की ही क्यों ना अग़वा कर के ले जाएं ।तौबा तौबा! और ये भी सच्च है कि हमारे गांव में पानी की इज़्ज़त लड़की की तरह बेशकीमती है।पानी जो ज़िंदगी देता है। पानी जो रगों में ख़ून बन कर दौड़ता है। पानी ,जो मुँह धोने को नहीं मिलता। पानी ,जिसके ना होने से हमारे कपड़े भूरे और मैले रहते हैं ,सर में जुएँ ,जिस्म पर पसीने की धारियाँ और रूह पर नमक जमा रहता है।ये पानी तो सोने से ज़्यादा क़ीमती है और लड़की से ज़्यादा हुसैन ।इस की क़दर और क़ीमत हमारे गांव वालों से पूछिए जिनकी ज़िंदगी पानी के लिए लड़ते झगड़ते गुज़रती है। एक दफ़ा सामने के पहाड़ के मीठे चश्मे से पानी लाने के लिए स्वर ख़ान की बीवी सय्यदां और अय्यूब ख़ां की बीवी ाइशां दोनों आपस में लड़ पड़ी थीं हालाँकि दोनों इतनी गहिरी सहेलियाँ थीं कि हरवक़त इकट्ठी रहतीं ,घर भी उनके साथ साथ थे।चश्मे पर भी पानी इकट्ठे ही लेने जाती थीं ।पहले एक फिर दूसरी पानी भर्ती।बारी बारी वो दोनों एक दूसरे का घड़ा उठा के सर पर रखतीं और फिर बातें करतीं हुई वापिस चल पड़तीं। लेकिन आज ना जाने किया हुआ,आज जाने दोनों को क्या जल्दी थी। एक कहती पहले पानी में भरूँगी ,दूसरी कहने लगी नहीं मैं भरूँगी।शायद उन्हें ग़ुस्सा एक दूसरे की ख़िलाफ़ नहीं था। शायद ग़ुस्सा उन्हें इसलिए था कि यहां मीठे पानी का एक ही चशमा था जहां नदी के सूख जाने के बाद दूर से दूसरे लोग पानी लेने के लिए आते थे।<br />
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मुँह-अँधेरे ही औरतें घड़ा ले के चल पड़तीं।जब यहां पहुंचतीं तो लंबी लाईन पहले से मौजूद होती या चश्मे के मुँह से एक ऐसी पतली सी धार को निकलते देखतीं जो आधे घंटे में मुश्किल से एक घड़ा भर्ती थी।और तीन कोस का आना जाना क़ियामत से कम ना था। लड़ाई की वजह कुछ भी हो असली लड़ाई पानी की थी। दोनों औरतों ने देखते देखते एक दूसरे के चेहरे नोच लिए ,घड़े तोड़ दिए,कपड़े फाड़ डाले और फिर रोती हुई अपने अपने घरों को गईं ।तब सय्यदां ने सरवर ख़ां को भड़काया और ाइशां ने अय्यूब ख़ां को।<br />
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दोनों ख़ावंद ग़ुस्से से बे-ताब हो के कुल्हाड़ीयां ले के बाहर निकल पड़े और पेशतर उस के कि लोग आ के बीच बचाओ करें दोनों ने कुल्हाड़ियों से एक दूसरे को ख़त्म कर दिया।शाम होते होते दोनों हमसाइयों का जनाज़ा निकल गया ।हमारे गांव के क़ब्रिस्तान की बहुत सी क़ब्रें पानी ने बनाई हैं।मेरे लड़कपन के ज़माने में जब दो क़तल हुए उस वक़्त सामने के पहाड़ पर एक ही मीठे पानी का चशमा था लेकिन बाद में जब में और बड़ा हुआ तो यहां एक और चशमा भी निकल आया। इस नए चश्मे की दास्तान भी बड़ी अजीब है। ये उस ज़माने का ज़िक्र है जब हमारे पोठोहार में सख़्त काल पड़ा था और गर्मी की वजह से इलाक़े के सारे नदी नाले और कुँवें सूख गए थे।<br />
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सिर्फ कहीं कहीं उन चश्मों में पानी रह गया था । इन दिनों हमारे घरों में औरतें रात के दो बजे ही उठ के चल देतीं और चश्मे के नीचे हमेशा घड़ों की एक लंबी क़तार जिसमें से प्यास से बिलकते हुए बच्चों की सदा आती थी।<br />
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इस ज़माने में बड़े बड़े लोग नेकी और ख़ुदाई से मुनहरिफ़ हो गए और उन लोगों में सबसे बुरा काम ज़ैलदार मुल्क ख़ां ने किया। उसने थानेदार फ़ज़ल अली से मिल के इस चश्मे पर पुलिस का पहरा लगा दिया और फिर तहसीलदार ग़ुलाम नबी से मिल के चश्मे के इर्द-गिर्द की सारी ज़मीन ख़रीद कर रातों रात इस पर एक चारदीवारी बांध दी और चारदीवारी के बाहर ताला लगा दिया।अब इस चश्मे से कोई आदमी बिलाइजाज़त पानी ना ले सकता था क्योंकि अब ये चशमा ज़ैलदार की मिल्कियत था,और उसने चश्मे से पानी ले जानेवाले घड़ों पर अपना टैक्स रख दिया ।<br />
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एक घड़े पर एक आना दो घड़ों पर दो आने।तब सारे गांव में ज़ुलम के ख़िलाफ़ शोर मच गया।लेकिन पुलिस सरदार ज़ैलदार मुल्क ख़ां की हिमायत में थी ,क़ानून भी इस की तरफ़ था और जिधर क़ानून था पानी भी इधर था।इस लिए गांव के सारे जवान और बुड्ढे और बच्चे जमा हो के मेरे अब्बा के पास आए और बोले?चचा ख़ुदाबख़्श अब तुम ही हमें इस मुसीबत से नजात दिलवा सकते हो। वो कैसे ? मेरे अब्बा ने हैरान हो के सवाल पूछा।सफ़ैद रेश बुड्ढे हाकिम ख़ां ने कहा ?याद है ये मीठे पानी का चशमा,जवाब ज़ैलदार मुल्क ख़ां का हो गया,ये चशमा भी तुमने दरयाफ़त किया था ।क्या तुम दूसरा चशमा नहीं ढूंढ सकते? आख़िर इस पहाड़ के अंदर,उस के सीने में और भी तो कहीं मीठा पानी होगा जो इन्सान को आब-ए-हयात बख़श सकता है।ख़ुदाबख़्श तुम हम सबसे काबिल हो। अपनी अक़ल दोड़ाओ हम तुम्हारे साथ मरे मारने को तैयार हैं।हमारे गांव में पानी नहीं है और अब पानी चाहिए।<br />
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मेरा बाप चारपाई पर अकड़ूं बैठा था। इसी वक़्त अल्लाह का नाम लेकर उठ खड़ा हुआ ।सारा गांव उस के साथ था । पहाड़ पर चढ़ाई थी और तलाश पानी की थी।फ़र्हाद की कोहकनी से पानी की तलाश मुश्किल है,ये बात मुझे इस रोज़ मालूम हुई क्योंकि पानी सामने नहीं होता वो तो एक छलावे की तरह पहाड़ की सिलवटों में गुम हो जाता है।पानी ख़ाना-ब-दोश है:आज यहां कल वहां ।पानी एक परदेसी है जिसकी मुहब्बत का कोई एतबार नहीं ।पानी का वजूद इस नाज़ुक ख़ुशबू की तरह है जो तेज़-धूप में उड़ जाती है।<br />
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इस पोठोहार के इलाक़े में ,जहां औरतें बावफ़ा और बा-हया हैं,पानी बेवफ़ा और हरजाई है।वो कभी किसी एक का हो कि नहीं रहता। वो हमेशा यहां से वहां ,एक जगह से दूसरी जगह एक मुल्क से दूसरे मुल्क में घूमता है,पासपोर्ट के बग़ैर। ऐसे हरजाई की तलाश के लिए एक तेशा नहीं एक आईना चाहिए जिसके सामने पहाड़ का दिल इस तरह हो जैसे एक खुली किताब आख़िर मेरे गांव वालों ने कुछ समझ कर मेरे बाप को इस काम के लिए चुना था।इस रोज़ हम दिन-भर इस बुलंद-ओ-बाला पहाड़ की ख़ाक छानते रहे।<br />
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हमने कहाँ कहाँ इस पानी को तलाश नहीं किया: बैरियों की घुन्नी झाड़ीयों में, चटानों की गहिरी दुर्ज़ों में,स्याह डरावनी खोओं में,जंगली जानवरों के भट्ट में।पानी की तलाश में हमने सारे पुराने चश्मे खुदवाए लेकिन उनका खोदना ऐसे ही था जैसे आदमी ज़िंदगी की तलाश में क़ब्रें खोद डाले।पानी कहीं नहीं मिला। एक चोर की तरह उसने जगह जगह अपने छोटे सुराग़ छोड़े लेकिन आख़िर को वो हमेशा हमें जल देकर कहीं ग़ायब हो जाता था। जाने फ़ित्रत के किस कोने में बैठा हो अपने चाहने वालों पर हंस रहा था।लेकिन गांव वालों ने आस नहीं छोड़ी ।वो सारा दिन मेरे बाबा के पीछे पीछे पानी की खोज करते रहे। आख़िर जब शाम होने लगी तो मेरे अब्बा ने पसीना पोंछ कर एक ऊंचे टीले पर खड़े हो के उधर नज़र दौड़ाई जिधर सूरज ग़ुरूब हो रहा था।यका-य़क उन्हें ग़ुरूब होते हुए सूरज की रोशनी में चटानों की एक गहिरी दर्ज़ में फ़रन का सब्ज़ा नज़र आया और कहते हैं जहां फ़रन का सब्ज़ा होता है वहां पानी ज़रूर होता है।फ़रन पानी का झंडा है और पानी एक घूमने वाली क़ौम है। पानी जहां जाता है अपना झंडा साथ ले जाता है।<br />
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एक चीख़ मार कर जल्दी से मेरे अब्बा इस तरफ़ लपके जहां फ़रन का सब्ज़ा उगा था। गांव वाले उनके पीछे पीछे भागे । जल्दी जल्दी मेरे अब्बा ने अपने नाख़ुनों ही से ज़मीन को कुरेदना शुरू कर दिया ।ज़मीन ,जो ऊपर से सख़्त थी , नीचे से नरम होती गई गीली होती गई । आख़िर में ज़ोर से पानी की एक धार ऊपर आई और सैंकड़ों सूखे हुए गलों से मुसर्रत की आवाज़ निकली: पानी!पानी।<br />
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अब्बा ने काँपते हुए हाथों से ओक में पानी भरा। सारी निगाहें अब्बा के चेहरे पर थीं ,सैंकड़ों दिल धड़क रहे थे।:या अल्लाह पानी मीठा हो, या अल्लाह पानी मीठा हो,या अल्लाह पानी मीठा हो।<br />
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अब्बा ने पानी चखा।पानी मीठा है।अब्बा ने ख़ुशी से कहा।<br />
गांव वाले ज़ोर से चलाए :पानी मीठा है!सारी वादी में आवाज़ें गूंज उठें : मीठा पानी मिल गया ,पानी मीठा है !<br />
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सारी वादी में ढोल बजने लगे। औरतें गाने लगीं ,जवान नाचने लगे, बच्चे शोर मचाने लगे। गांव वालों ने जल्दी से चश्मे को खोद कर अपने घेरे में ले लिया।अब चशमा उनके बीच में था और वो उस के चारों तरफ़ थे और वो उसे मुड़ मुड़ कर इस तरह मुहब्बत भरी निगाहों से देखते जैसे माँ अपने नौज़ाईदा बच्चे को देख देखकर ख़ुश होती है।वो रात मुझे कभी नहीं भोलेगी। इस रात कोई आदमी गांव में-ओ-अपस नहीं गया। इस रात सारे गांव ने चश्मे के किनारे जश्न मनाया। इस रात तारों की गोद में भूरी बैरियों के साय में माओं ने चूल्हे सुलगाए ,बच्चों को थपक थपक के सुलाया उस रात कुँवारियों ने लहक लहक कर गीत गाय ।ऐसे गीत जो पानी की तरह निर्मल और सुंदर थे,जिनमें जंगली झरनों का सा हसन और आबशारों की सी रवानी थी। इस रात सारी औरतें ख़ुशी से बेक़रार थीं, सारे बीज तख़लीक़ से बेक़रार हो कर फूट पड़े थे।<br />
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ऐसी रात हमारे गांव में कब आई थी! जब अब्बा ख़ुदाबख़्श ने पानी ढूंढ निकाला था।पानी जो इन्सान के हाथों की मेहनत था,उस के दिल की मुहब्बत था।आज पानी हमारे हाँ इस तरह आया था जैसे बारात डोली लेकर आती है।<br />
वो नया चशमा हमारे दरमयान आज इस तरह हौले हौले शर्मीले अंदाज़ में चल रहा था जैसे नई दुल्हन झिजक झिजक कर अजनबी आँगन में पांव रखती है,इस रात मेरे एक हाथ में पानी था,दूसरे हाथ में बानो का हाथ था और आसमां पर सितारे थे।इस नए चश्मे के साथ मेरी जवानी की बेहतरीन यादें वाबस्ता हैं।इस चश्मे के किनारे मैंने बानो से मुहब्बत की।<br />
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बानो जिसका हुस्न पानी की तरह नायाब था, जिसे देखकर हमेशा ये ख़्याल आता था कि जाने इस ज़मीन की गोद में कितने ही मीठे चश्मे निहां हैं, कितनी हसीन यादें मुंजमिद हैं,मौसिम-ए-गर्मा के कितने ही शोख़ चमकते हुए फूल ,ख़िज़ाओं के सुनहरी पत्ते,ज़मिस्ताँ की पाकीज़ा बर्फ़ ,बानो की मुहब्बत भी कितनी ख़ामोश और चुप-चाप थी,ज़मीन के नीचे बहने वाले पानी की तरह।वो रात के अंधेरे में या फ़ज्र से बहुत पहले इस चश्मे के किनारे आती थी,जब यहां और कोई ना होता मेरे सिवा ।मुझे देखकर उस के चेहरे पर तबस्सुम की ज़िया फैल जाती, जैसे अंधेरे में सह्र का उजाला फैलता है।वो घड़े को चश्मे की धार के नीचे रख देती ।<br />
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पानी घड़े से बातें करने लगता और मैं बानो से ।धीरे धीरे बातें करते करते घड़ा भर जाता और हमारे दिल-ख़ुशी से मामूर हो जाते और हमारे जाने बग़ैर कहीं दूर से सुबह यूं धीरे धीरे चलते हुए आती जैसे बाद-ए-नसीम सनगतरे के फूल की सी उंगलियां लिए सोए हुए चेहरों पर से गुज़र जाती है और हम चौंक कर उठ खड़े होते और हैरत से उधर देखने लगते। फिर में इस का घड़ा उठा कर उस के सर के ऊपर रखी हुई सुर्ख़ पट्टी पर रखता और वो मुस्कुरा कर,पलट कर और घूम कर ढलवान पर से गुज़र जाती और में इस की तरफ़ देखता रहता उस वक़्त भी देखता जब दूसरी औरतें मेरी तरफ़ देखकर मुस्कुराने लगतीं ,और मुझे वो दिन याद आता जब मैंने दादी अम्मां से पूछा था:दादी अम्मां आशिक़ किस को कहते हैं?<br />
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और फिर उस चश्मे के किनारे मुझे वो रात भी याद है जब मैं कान में काम करता था और दिन-भर थक के घर लोटता था और इस थकन से चूर हो कर सो जाता था, सुबह ही आँख खुलती थी । कई दिनों से मैं बानो से चश्मे पर मिलने ना गया था मगर कोई बेक़रारी ना थी। वो साथ के घर में तो रहती थी।इन्ही दिनों में इस के चचा का लड़का ग़ज़नफ़र भी आया और चला भी गया लेकिन मुझे इस से मिलने की भी फ़ुर्सत ना मिली क्योंकि कान में नया नया मुलाज़िम हुआ था,काम सीखने का बहुत शौक़ था और ये तो हर शख़्स को मालूम है कि नमक की कान में जा के हर शख़्स नमक हो जाता है।<br />
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एक रात बानो ने मुझे कहा कि रात के दो बजे चश्मे पर इस से मिलों ।मैंने कहा:में बहुत थका हुआ हूँ ।<br />
वो बोली :नहीं ज़रूरी काम है,आना होगा।चुनांचे में गया<br />
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दो बजे के वक़्त आधी रात में चश्मे पर कोई नहीं था,हम दोनों के सिवा ।मैंने इस से पूछा:क्या बात है ?<br />
वो देर तक चुप रही, फिर मैंने पूछा:अभी बताओ आख़िर क्या बात है?वो बोली में गांव छोड़ के जा रही हूँ।<br />
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मेरा दिल धक से रह गया।मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे चशमा चलता चलता रुक गया।मेरे गले से आवाज़ निकली:क्यों? मेरी शादी तै हो गई है। किस से?चाचा के लड़के के साथ जो लाम से हो कर यहां आया था।वो चकवाल में है सूबेदार है।और तुम जा रही हो!मैंने तल्ख़ी से पूछा।हाँ वो चुप हो गई। में भी चुप हो गया।सोच रहा था उसे अभी जान से ना मार दूं या शादी की रात क़तल करूँ। थोड़ी देर रुक के बानो फिर बोली:सुना है चकवाल में पानी बहुत होता है सुना है वहां बड़े बड़े नल होते हैं जिनसे जब चाहो टूटी घुमा के पानी निकाल लो। इस की आवाज़ ख़ुशी के मारे काँप रही थी।वो शायद और भी कुछ कहती लेकिन शायद मेरी आज़ुर्दगी का ख़्याल कर के चुप हो गई।<br />
मैंने उस के बिलकुल क़रीब आकर उसे दोनों शानों से पकड़ लिया और ग़ौर से इस की आँखों की तरफ़ देखा।उसने एक लम्हा मेरी तरफ़ देखकर आँखें झुका लें ।इस की निगाहों में मेरी मुहब्बत से इनकार नहीं था बल्कि पानी का इक़रार था।मैंने आहिस्ता से इस के शाने छोड़ दीए और अलग हो के खड़ा हो गया।यका-य़क मुझे महसूस हुआ कि मुहब्बत सच्चाई ख़ुलूस और जज़बे की गहराई के साथ साथ थोड़ा पानी भी माँगती है।बानो की झक्की हुई निगाहों में इक ऐसे जानगसल शिकायत का गुरेज़ था जैसे वो कह रही हो:जानते हो हमारे गांव में कहीं पानी नहीं मिलता।यहां में दो दो महीने नहा नहीं सकती ।मुझे अपने आपसे अपने जिस्म से नफ़रत हो गई है।बानो चुप-चुप ज़मीन पर चश्मे के किनारे बैठ गई ।मैं इस तारीकी में भी उसकी आँखों के इंदिरा स की मुहब्बत के ख़ाब को देख सकता था जो गंदे बदबूदार जिस्मों पुसूओं ,जोओं और खटमलों की मारी ग़लीज़ चीथडों में लिपटी हुई मुहब्बत ना थी।इस मुहब्बत से नहाए हुए जिस्मों ,धुले हुए कपड़ों और नए लिबास की महक आती थी।मैं बिलकुल मजबूर और बेबस हो कर एक तरफ़ बैठ गया। रात के दो बजे।बानो और में।दोनों चुप-चाप कभी ऐसा सन्नाटा जैसे सारी दुनिया काली है कभी ऐसी ख़ामोशी जैसे सारे आँसू सो गए हैं । चश्मे के किनारे बैठी हुई बानो आहिस्ता-आहिस्ता घड़े में पानी भर्ती रही ।आहिस्ता-आहिस्ता पानी घड़े में गिरता हुआ बानो से बातें करता रहा इस से कुछ कहता रहा, मुझसे कुछ कहता रहा।पानी की बातें इन्सान की बेहतरीन बातें हैं।<br />
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बानो चली गई।<br />
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जब बानो चली गई तो मेरे ज़हन में बचपन की वो कहानी आई जब मुहब्बत रोई थी और आँसू नमक के डले बन गए थे।<br />
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इस वक़्त मेरी आँख में आँसू भी ना था लेकिन मेरे दल के अंदर नमक के कितने बड़े डले इकट्ठे हो गए थे!मेरे दल के अंदर नमक की एक पूरी कान मौजूद थी। नमक की दीवारें सतून ग़ार और खारे पानी की एक पूरी झील ।मेरे दिल और दिमाग़ और एहसासात पर नमक की एक पतली सी झिल्ली चढ़ गई थी और मुझे यक़ीन हो चला था कि अगर में अपने जिस्म को कहीं से भी खर्चोंगा तो आँसू ढलक कर बह निकलेंगे इस लिए मैं चुप-चाप बैठा रहा और जब वो मेरी तरफ़ देखकर ढलवान पर मुड़ गई उस वक़्त भी मैं चुप-चुप बैठा रहा क्योंकि मेरे पास पानी नहीं था और बानो पानी के पास जा रही थी।जिस रात बानो का ब्याह ग़ज़नफ़र से हुआ उस रात मैंने एक अजीब ख़ाब देखा।मैंने देखा कि हमारी खोई हुई नदी हमें वापिस मिल गई है और नमक के पहाड़ पर मीठे पानी के चश्मे उबल रहे हैं और हमारे गांव के मर्कज़ में एक बहुत बड़ा दरख़्त खड़ा है। ये दरख़्त सारे का सारा पानी का है इस की जड़ें,शाख़ें, फल,फूलपत्तियां सब पानी की हैं और इस दरख़्त की शाख़ों से,पत्तों से पानी बह रहा है और ये पानी हमारे गांव की बंजर ज़मीन को सेराब कर रहा है। और मैंने देखा कि किसान हल जोत रहे हैं ,औरतें कपड़े धो रही हैं , कानकन नहा रहे हैं और बच्चे फूलों के हार लिए पानी के दरख़्त के गर्द नाच रहे हैं और बानो साफ़ सुथरे कपड़े पहने मेरे कंधे से लगी मुझसे कह रही है:अब हमारे गांव में पानी का दरख़्त उग आया है। अब मैं तुम्हें छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगी।ये बड़ा अजीब ख़ाब था लेकिन मैंने जब अपने बाप को सुनाया तो वो मारे डर के काँपने लगे और बोले: तुमने ये ख़ाब मेरे सिवा किसी दूसरे को तो नहीं सुनाया मैंने कहा :नहीं अब्बा, मगर आप डर क्यों गए हैं।<br />
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ये तो एक ख़ाब था । वो बोले:अरे ख़ाब तो है मगर ये एक सुर्ख़ ख़ाब है।मैंने हंसकर कहा :नहीं अब्बा जो दरख़्त मैंने ख़ाब में देखा वो सुर्ख़ नहीं था।इस का रंग तो बिलकुल जैसे पानी का होता है। वो पानी का दरख़्त था। इस का तना, शाख़ें, पत्ते सब पानी के थे। हाँ इस दरख़्त पर फलों की जगह कट गिलास की चमकती हुई सुराहीयाँ लटकी थीं और उनमें पानी बच्चों की हंसी की तरह चमकता था और फ़व्वारों की तरह ऊंचा जा के गिरता था वो बोले।कुछ भी हो ये बड़ा ख़तरनाक सपना है। अगर पुलिस ने कहीं सन लिया या तुमने किसी से इस का ज़िक्र कर दिया तो वो तुम्हें इस तरह पकड़ के ले जाऐंगे जिस तरह वहां मज़दूरों को पकड़ के ले गए थे जिन्हों ने हमारे गांव की नदी को वापिस लाना चाहा था। इस लिए बेहतर यही है कि तुम इस ख़ाब का ज़िक्र किसी से ना करो।उसे भूल जाओगे तुमने ये ख़ाब कभी देखा था क्योंकि इस ख़ाब का चर्चा कर के इस से कुछ ना होगा, सूखी नदी हमेशा सूखी रहेगी और प्यासे सदा प्यासे रहेंगे।मुझे अपने अब्बा के लहजे की हसरत आज तक याद है ।मुझे ये भी याद है कि शुरू शुरू में इस का ज़िक्र मैंने किसी से नहीं किया लेकिन जब चंद मज़दूर साथीयों से अपने ख़ाब का ज़िक्र किया तो वो मेरा ख़ाब देखकर डरने की बजाय हँसने लगे और जब मैंने उनसे पूछा कि इस में हँसने की क्या बात है तो उन्होंने कहा:भला इस में डराने की क्या बात है। ये ख़ाब तो बहुत अच्छा है और ये उनकी कान में हर एक देख चुका है।<br />
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क्या सच्च कहते हो!वही पानी का दरख़्त? हाँ हाँ ।वही पानी का दरख़्त गांव में,एक ठंडा मीठा पानी का चशमा हर नमक की कान में! घबराओ नहीं,एक दिन ये ख़ाब ज़रूर पूरा होगा।<br />
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पहले मुझे उनकी बातों का यक़ीन नहीं आया ।लेकिन अपने साथीयों के साथ काम करते करते अब मुझे यक़ीन हो चला है कि हमारा ख़ाब ज़रूर पूरा होगा ।एक दिन हमारे गांव में पानी का दरख़्त ज़रूर अगेगा। और जो जाम-ए-ख़ाली हैं वो भर जाऐंगे और जो कपड़े मैले हैं वो धुल जाऐंगे और जो दिल तरसे हुए हैं वो खुल जाऐंगे और सारी ज़मीनें और सारी मुहब्बतें और सारे वीराने और सारे सहरा शादाब हो जाऐंगे</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80_/_%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%A8_%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%B0&diff=44177दानी / कृश्न चन्दर2024-03-18T22:38:48Z<p>अनिल जनविजय: '{{GKCatKahani}} दानी लंबा और बदसूरत था। इस की टांगों और बाँहो...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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<div>{{GKCatKahani}}<br />
दानी लंबा और बदसूरत था। इस की टांगों और बाँहों पर बाल कसरत से थे और बेहद खुरदुरे थे। सुब्ह-सवेरे चारक रोड के हाईड्रेंट पर नहाते हुए वो दूर से देखने वालों को बिलकुल भैंस का एक बच्चा मालूम होता था। इस के जिस्म में वाक़ई एक बैल की सी ताक़त थी। इस का सर बड़ा, माथा चौड़ा और खोपड़ी बड़ी मज़बूत थी। दिन-भर वो चारक रोड के नाके पर ईरानी रस्तोराँ में बड़ी मुस्तइद्दी से काम करता और रात को ठर्रा पी कर एक मेंढे की तरह सर नीचा कर के हर किसी ना-किसी से कहता। आओ मेरे सर पर टक्कर मॉरो। मगर यार लोग हंसकर तरह दे जाते थे। क्योंकि दानी का सर ही नहीं उस का जिस्म भी बेहद मज़बूत था। दो तीन बार थूगा लेन और डोरा गली के चंद कसरती नौजवानों ने इस का चैलेंज मंज़ूर करते हुए उसे नुक्कड़ पर घेरा था और नतीजा में अपने सर फड़वा कर चले गए थे। फिर किसी में हिम्मत ना हुई कि दानी के सर से टक्कर ले सके।<br />
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ग़ालिबन दानी के सर में हड्डी के सिवा कुछ ना था। अगर मग़ज़ का गूदा होता तो वो बाआसानी थोड़ी सी अक़ल सर्फ कर के बंबई का दादा बन सकता था। इस से कम डीलडौल और ताक़त वाले नौजवान अपने अपने इलाक़ों के ज़ी असर दादा बन चुके थे और ग़ुंडों की पल्टनों पर हुकूमत करते थे। शराब स्मगल करते थे। सट्टा खिलाते थे। सिनेमा के टिकट ब्लैक में बेचते थे। रन्डीयों के कोठे चलाते थे और इलैक्शन के मौके़ पर अपने इलाक़े के वोट बेचते थे।<br />
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मगर शायद दानी की खोपड़ी में भेजा ना था। क्योंकि उसे इस किस्म के तमाम कामों से उलझन सी होती थी। जब कोई उसे इस किस्म का मश्वरा देता तो उस के चेहरे पर शदीद बेज़ारी के असरात नुमायां हो जाते और वो कहने वाले की तरफ़ अपनी छोटी छोटी आँखें और भी छोड़ी कर के, होंट भेंच कर सर झुका के। कंधे सुकेड़ के एक हमला करने वाले मेंढे की तरह ख़तरनाक पोज़ लेकर कहता। फिर बोला तो टक्कर मार दूँगा।<br />
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और मश्वरा देने वाला खिसिया कर हंसकर परे हट जाता।<br />
<br />
दानी को पढ़ने से नफ़रत थी। वो तालीम-ए-याफ़ता आदमीयों को बड़ी हक़ारत से देखता था। दानी को शौहरत से नफ़रत थी। जब कभी किसी बड़े और मशहूर आदमी का जलूस चारक पार्क से गुज़रता और इस अज़ीमुश्शान हस्ती को फूलों में लदे हुए, एक खुली कार में बैठे हुए दो-रूया हुजूम की सलामी लेता हुआ देखता तो कहता :<br />
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वाह, क्या सजा हुआ मेंढा है। इस से पूछो, मेरे सर से टक्कर लेगा?<br />
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वाक़ई ज़रा ग़ौर करो तो सिर्फ जंग-ए-आज़ादी के दिनों में दुबले पतले लीडर आते थे। आजकल जूँ-जूँ अवाम की हालत पतली होती जाती है, लीडर मोटे होते जाते हैं। इस क़दर लहीमो शहीम और मोटे ताज़े दस्तयाब होते हैं। आजकल कि उन पर बाआसानी किसी मेंढे या नागौरी बेल का शुबा किया जा सकता है।<br />
<br />
दानी को सियासत से भी सख़्त नफ़रत थी। ऊंची सियासत तो ख़ैर उस के पल्ले ही ना पड़ती थी। लेकिन वो जो एक सियासत होती है, गली, मुहल्ले, बाज़ार और रस्तो रान की, वो भी इस की समझ में ना आती थी। बस उसे सिर्फ काम करना पसंद था। हालाँकि दानी मुसलसल सोला घंटे काम करने के लिए तैयार था। मगर रस्तो रान का मालिक भी किया करे, वो क़ानून के हाथों मजबूर था और दानी अपनी फ़ित्रत के हाथों, इस लिए वो सुब्ह-सवेरे सबसे पहले रस्तो रान में आता और सब नौकरों के बाद जाता और दिन-भर खड़े खड़े इंतिहाई चौकसी से सब काम सबसे पहले करता और जब रस्तो रान बंद हो जाता और दिन-भर की मशक़्क़त से भी दानी का जिस्म ना थकता तो वो इंतिहाई बेज़ार हो कर ठर्रा पी लेता और फुट-पाथ पर खड़ा हो कर अपने दोस्तों से टक्करें लड़ाने को कहता और जब कोई तैयार ना होता तो वो मायूस हो कर अपना बदन ढीला छोड़ देता और फुट-पाथ पर गिर कर सो जाता। बस यही उस की ज़िंदगी थी।<br />
<br />
कमो बेश यही उस के दूसरे साथीयों की ज़िंदगी थी, जो उस के साथ रस्तो रान में काम करते थे और इसी फ़ुट-पाथ पर सोते थे। जो चारक चौक के रस्तो रान के बिलकुल सामने सड़क पार कर के चारक चर्च के सामने वाक़्य है। चारक चर्च एक छोटे से मैदान में एक तरफ़ नीले पत्थरों का बना हुआ एक ख़ूबसूरत गराटो है। जिसमें मुक़द्दस माँ का बुत है। एक तरफ़ गुल महर के दो पेड़ हैं। जिनका साया दिन में फिट-पाथ के इस हिस्से को ठंडा रखता है। इन पेड़ों की छाओं में ग़रीब ईसाई, मोमी शमएँ, यसवा मसीह और मर्यम के मोमी बुत और गेंदे के हार बेचते नज़र आते हैं। दो भिकारी दिन में भीक मांगते हैं और रात को कहीं ग़ायब हो जाते हैं। फुट-पाथ पर सड़क के किनारे छत्ते हुए बस-स्टॉप में, जहां बस का कियु लगाने वालों के इलावा आस-पास के नौजवानों का भी मजमा रहता है। क्योंकि ये बस-स्टॉप मुसाफ़िरों के वेटिंग रुम ही नहीं, आशिक़ों के मुलाक़ात घर भी हैं। पाँच बजे डी स्टप पर मिल जाना, रोज़ी गिरजा से निकलते हुए, दुज़-दीदा निगाहों से अपने आशिक़ विक्टर को देखती हुई आहिस्ता से कहती है और फिर अपनी ख़ौफ़नाक अम्मां के साथ घबरा कर आगे बढ़ जाती है और फिर विक्टर या जेम्स या चार्ल्स धड़कते हुए दिल से और बेचैन निगाहों से कभी घड़ी देखता हुआ, कभी अपनी पीटी कसता हुआ रोज़ी का इंतिज़ार करता है, साढे़ चार बजे ही से। और देखता है कि जोज़फ़ अपनी डेज़ी को लेकर गया और टॉम अपनी इज़ाबेल को लेकर भागा और शीला, फौजा सिंह के साथ चली गई। इस साली शीला को कोई ईसाई पसंद ही नहीं आता। बलडी शट! और ये लारा भी गई इस यहूदी छोकरे के साथ, जिसका जाने क्या नाम है। लेकिन जो हर-रोज़ पाँच बजे अपनी मोटर साईकल यहीं खड़ी करता है। अब साढे़ पाँच हो गए। अब पौने छः हो गए। अब अगर रोज़ी नहीं आई तो वो लोग गुण आफ़ नो-वारिद देखकर क्या करेगा। सन आफ़ अगन, छः बज गए। रोज़ी नहीं आई। वो नहीं आएगी। शायद वो फ्रांसिस के साथ चली गई। जिसके साथ उस की माँ, उस की शादी करना चाहती है। बलडी स्वाईन। वो फ्रांसिस को गोलीमार देगा। रोज़ी को भी गोलीमार देगा और इस की मनहूस माँ को जो हरवक़त साय की तरह रोज़ी के साथ लगी रहती है। वो बरगाईन फ़ैमिली के हर फ़र्द को गोली से मार देगा और फिर ख़ुद भी गोलीमार कर मर जाएगा। यकायक विक्टर ने दूर से रोज़ी को हल्के लेमन रंग के ताफ़ीता फ़्राक में फूलों की एक शाख़ की तरह झूलते देखा और इस के दिल से गोली मारने का ख़्याल एक दम निकल गया और इस का चेहरा मुसर्रत से खुल उठा और वो बे-इख़्तियार रोज़ी की तरफ़ भागा और भागते भागते एक दौड़ती हुई लारी के नीचे आने से बाल बाल बच गया। रोज़ी के मुँह से ख़ौफ़ की एक चीख़ निकली। मगर दूसरे लम्हे में विक्टर का हाथ उस की कमर में था और वो उसे दौड़ाते हुए लारियों, गाड़ीयों, टैक्सियों की भीड़ से निकालते हुए डी बस-स्टॉप प्रले गया। बस चल चुकी थी। मगर दोनों ने दौड़ कर उसे पकड़ लिया। चंद लम्हों के लिए रोज़ी का लेमन रंग फ़्राक का गोल घेरा तमाशाइयों की निगाहों में घूमा। फिर वो दोनों फूली हुई साँसों में हंसते हुए एक दूसरे को बाज़ू से पकड़े हुए डी बस की ऊपर की मंज़िल में चले गए। जहां से आसमान नज़र आता है और हुआ ताज़ा होती है और नीचे सड़क पर मर्द, औरतें, बच्चे संगीत के सुरों की तरह बिखरते हुए दिखाई देते हैं। कौन कहता है मुहब्बत करने के लिए पहलगाम, नैनीताल यादार जुलुंग जाना ज़रूरी है। मुहब्बत करने वाले तो किसी बस-स्टॉप पर खड़े हो कर भी अपनी जान पर खेल कर मुहब्बत कर जाते हैं।<br />
<br />
मगर दानी को औरतों से भी दिलचस्पी ना थी। इस लिए जिस रात उसने सरिया को ग़ुंडों के हाथों बचाया, उस के दिल में सरिया से या किसी औरत से भी मुहब्बत करने का कोई ख़्याल तक पैदा ना हुआ था। पीछे मुड़ कर दूर दूर तक जब वो नज़र डालता तो उसे अपनी ज़िंदगी में कोई औरत दिखाई ना देती। बहुत दूर बचपन में उसे एक ज़र्द-रू मायूस चेहरा दिखाई दिया था। जिसने उसे एक झोंपड़े से बाहर निकाल कर उस के चचा के हवाले कर दिया था। इस से ज़्यादा उस के दिल में अपनी माँ की कोई याद ना थी। फिर उस के ज़हन में एक ख़ौफ़नाक चची की सूरत थी, जो मुतवातिर चार बरस तक उसे पीटती रही थी। ज़रा बड़ा होने पर वो फ़ौरन ही अपनी चची के घर से भाग खड़ा हुआ था और जब से वो आज़ाद था। मगर हमेशा वो अपनी भूक के हाथों आजिज़ रहा, उसे बहुत भूक लगती थी। इसी वजह से इस की माँ ने उसे उस के चचा के हवाले कर दिया था। क्योंकि वो फ़ाक़ों से अपने बेटे का पेट नहीं भर सकती थी और आज दानी कह सकता था कि इस की चची भी कोई ना-मेहरबान औरत ना थी। हरगिज़ कोई ज़ालिम औरत ना थी। मगर उस के अपने पाँच बच्चे थे और दानी की भूक इतनी वसीअ और अरीज़, जय्यद और मज़बूत, बुलंद और देव ज़ाद थी कि चची ने इस के बार-बार खाना मांगने पर मजबूर हो कर उसे पीटना शुरू कर दिया था। वो दानी को नहीं पीटती थी। वो उस की भूक को पीटती थी और आज भी कितनी ही बीवीयां और शौहर, माएं और बेटे और बहूएं और ननदें और भावजें और चचेरे भाई और ख़लीरे भाई और दोस्त और यार और दल के प्यारे और जिगर के टुकड़े हैं जो इस भूक की ख़ातिर एक दूसरे को पीटते हैं, धोका देते हैं। बेवफ़ाई करते हैं, जान लेते हैं, फांसी चढ़ जाते हैं। मगर कोई इस ज़ालिम देव ज़ाद ख़ौफ़नाक भूक को फांसी नहीं देता। जिसके मनहूस वजूद से इस दुनिया में कोई इन्सानी रिश्ता और कोई तहज़ीब क़ायम नहीं है।<br />
<br />
दानी यहां तक तो ना सोच सकता था। वो जब भी सोचने की कोशिश करता था। इस के ज़हन में एक बहुत बड़ी ख़ौफ़नाक भूक का ख़्याल आता था। जिसकी वजह से इस की माँ ने तंग आ के उसे उस के चचा के हवाले कर दिया। जिसकी वजह से इस की चची उसे दिन रात चार साल तक मारती पीटती रही और जिसकी वजह से वो आगे जा कर अपनी ज़िंदगी में बार-बार मुख़्तलिफ़ हाथों से पिटा और मुख़्तलिफ़ घरों से निकाला गया। इस लिए उस के ज़हन में औरत की मुहब्बत, बाप की शफ़क़त, दोस्त की रिफ़ाक़त, किसी का कोई एहसास ना था। एक मुसलसल तिश्ना, तरसी हुई नाआसूदा भूक का एहसास था जो बचपन से जवानी तक उस के साथ चला आया था। चूँकि उस का बदन दूसरों से दुगना लंबा और बड़ा था। इस लिए वो दूसरों के मुक़ाबले में दुगुनी ख़ुराक का तालिब था। दानी को ज़िंदगी-भर एक ही अरमान रहा। कोई उसे पेट भर कर खाना दे दे और फिर चाहे इस से चौबीस घंटे मशक़्क़त किराए। मगर दानी का ये ख़राब चारक रोड के ईरानी रस्तो रान ही में आ के पूरा हुआ। ईरानी रस्तो रान का मालिक इस से चार आदमीयों के बराबर मशक़्क़त कराता था। मगर पेट भर के खाना देता था और बीस रुपय तनख़्वाह देता था जिससे ठर्रा पीता था और पेट भर के खाना खा के और ठर्रा पी कर वो फ़िट-पाथ पर सौ जाता था और उसे दौलत और सियासत और शौहरत और औरत वग़ैरा किसी चीज़ की परवाह ना थी। अब वो दुनिया का ख़ुश-क़िस्मत तरीन ज़िंदा इन्सान था।<br />
<br />
जिस रात सरिया को उसने ग़ुंडों के हाथों से बचाया तो इस रोज़ भी इस के दोस्त अली अकबर ने उसे बहुत मना किया था। तीन चार गुंडे मिलकर सरिया को एक टैक्सी में भगाने की कोशिश कर रहे थे जो चर्च के आहनी जंगले से बाहर फ़ुट-पाथ के किनारे खड़ी थी। चौक का सिपाही ऐसे मौक़ा पर कहीं गशत लगाने चला गया था। जैसा कि ऐसे मौक़ा पर अक्सर होता है। सरिया ख़ौफ़ और दहश्त से चला रही थी और मदद के लिए पुकार रही थी और अली अकबर ने दानी को बहुत समझाया था। ये बंबई है। ऐसे मौक़ों पर यहां कोई किसी की मदद नहीं करता। ऐसे मौक़ा पर सब लोग कान लपेट कर सो जाते हैं। हमाक़त मत करो। मगर दानी अपने कानों में उंगलियां देने के बावजूद सरिया की चीख़ों की ताब ना ला सका और अपनी जगह से उठकर टैक्सी की जानिब भागा। ग़ुंडों के क़रीब जा के उसने उनसे कोई बातचीत नहीं की। उसने सर नीचा कर के एक गुंडे के सर में टक्कर मारी। फिर दूसरे के, फिर पलट के तीसरे के। अगले चंद लम्हों में तीनों गुंडे फ़र्श पर पड़े थे और उनके सर फट गए थे। फिर पलट कर दानी ने चौथे गुंडे की तरफ़ देखा तो वो जल्दी से सरिया को फिट-पाथ पर छोड़कर टैक्सी के अंदर कूद गया और टैक्सी वाला गाड़ी स्टार्ट कर के ये जा वो जा। दानी मेंढे की तरह सर नीचा कर के टैक्सी के पीछे भागा। मगर मोटर का पहिया बहुत तेज़-रफ़्तार होता है। इस लिए दानी मायूस हो कर पलट आया और वापिस आकर सरिया से पूछने लगा।<br />
ये लोग कौन थे?<br />
<br />
एक तो मेरा भाई था। सरिया ने सिसकते सिसकते कहा।<br />
<br />
तुम्हारा भाई था? दानी ने पूछा।<br />
<br />
हाँ ! सरिया ने सर हिला कर कहा। वो मुझे उन ग़ुंडों के हाथ फ़रोख़त कर रहा था।<br />
<br />
कितने रूपों में?<br />
<br />
तीन सौ रूपों में। सरिया ने जवाब दिया।<br />
<br />
फिर-फिर में नहीं मानी।<br />
<br />
तुम क्यों नहीं मानी?<br />
<br />
मैं छः सौ माँगती थी।<br />
<br />
तुम छः सौ माँगती थीं? दानी ने हैरत से पूछा। वो क्यों?<br />
<br />
मेरा भाई तीन सौ रुपये ले जाता तो मुझे क्या मिलता, में जो बिक रही थी तो मुझे भी कुछ मिलना चाहिए था। सरिया ने दानी को समझाया।<br />
<br />
दानी ख़फ़ा हो के बोला: वाह! जो चीज़ बेची जाती है, उसे क्या मिलता है?ऐसा दस्तूर तो हमने ज़िंदगी में कहीं नहीं देखा ना सुना। हमारी दूकान से जो गाहक चार आने का खारा बिस्कुट ख़रीदता है। उसे चार आने के इव्ज़ खारा बिस्कुट मिलता है। दूकानदार को चार आना मिलता है। मगर खारा बिस्कुट को क्या मिलता है? ईं?<br />
<br />
मैं खारा बिस्कुट नहीं हूँ। सरिया ग़ुस्से से बोली।<br />
<br />
दानी ने सर से पांव तक सरिया को देखा, तेज़ और तीखी और नुकीली और साँवली। बोला :<br />
<br />
मगर बिलकुल खारा बिस्कुट की तरह लगती हो।<br />
<br />
सरिया मुस्कुराई, कुछ शरमाई। अगर वो साड़ी पहने होती तो ज़रूर उस वक़्त उस का पल्लू अपने सीने पर ले लेती कि ऐसे मौक़ों पर औरतों की ये एक पेटैंट अदा होती है। मगर इस बेचारी ने तो स्याह बलाउज़ पहन रखा था। इस लिए उसने सिर्फ गर्दन झुकाने पर इकतिफ़ा की।<br />
<br />
दानी पलट कर फुट-पाथ पर अपनी जगह पर आ गया और बोला: अच्छा अब जाओ, कहीं दफ़ा हो जाओ।<br />
सरिया उस के पीछे पीछे आते हुए बोली: मुझे भूक लग रही है।<br />
<br />
ईरानी रस्तो रान तो बंद हो चुका था। इस लिए दानी उस के लिए डोरा गली के एक चाए-ख़ाने से, चाय और आमलेट उधार लाया और जिस तरह से सरिया ने उसे खाया, इस से मालूम होता था कि इस की भूक में भी दानी का स्टाइल झलकता है। दो लुक़्मों में वो चार स्लाइस खा गई। एक लुक़्मे में आमलेट। फिर उसने एक ही घूँट में सारी चाय अपने हलक़ से नीचे उतार दी। दानी उस की इस हरकत पर बेहद ख़ुश हुआ। यकायक उसे ऐसा महसूस हुआ, जैसे उसे एक जिगरी दोस्त मिल गया। बोला :<br />
<br />
तुम्हें बहुत भूक लगती है ?<br />
<br />
बहुत !<br />
<br />
तुम्हारा नाम किया है?दानी ने अब पहली बार इस से नाम पूछा।<br />
<br />
सरिया यानी सवसिंह!सरिया झिजकते झिजकते बोली।<br />
<br />
मैं दानी हूँ। दानी अपने सीने पर उंगली रखते हुए बोला। यानी डेनियल!<br />
<br />
फिर वो दोनों हैरत से एक दूसरे को देखने लगे और यकायक पहली बार उन्हें आसमान बहुत साफ़ दिखाई दिया और दूर समुंद्र से नग़मे की सदा आने लगी और मीठी गुदाज़ रात गुल महर के फूल पहने उनके तरसे हुए जिस्मों के क़रीब से गुज़रती गई।<br />
<br />
रोज़ रात को फिट-पाथ पर दानी और सरिया का झगड़ा होता था। क्योंकि दानी ने सरिया को ईरानी रस्तो रान के किचन में नौकर करा दिया था। पहले तो उसने कई दिन तक सरिया को फिट-पाथ से भगाने की कोशिश की। वो मेंढे की तरह सर झुका कर जब सरिया की जानिब रुख़ करता तो सरिया वहां से भाग जाती और दानी के सौ जाने के बाद वापिस उसी फ़ुट-पाथ पर चली आती और हौले हौले उस के पांव दाबने लगती और जब सुब्ह-सवेरे दानी उठता तो उसे अपना बदन बहुत हल्का और उम्दा और मज़बूत मालूम होता और वो देखता कि किसी ने इस की बिनयान धो दी है और क़मीज़ और पतलून भी। तो पहली बार उसे ज़िंदगी में ऐसा मालूम हुआ, जैसे वो अपने घर में आ गया हो। पहली बार उसने सरिया की उंगलीयों को अजीब अनोखे अंदाज़ में देखा। वो देर तक उस के हाथ पर अपना हाथ फेरता रहा। फिर रातों को उसे फ़ुट-पाथ पर अपना बिस्तर और तकिया लगा हुआ मिलने लगा और वो जगह भी साफ़ सुथरी और मुसलसल झाड़ पोंछ से चमकती हुई महसूस होने लगी जहां वो हर-रोज़ सोता था और वो सरिया के वजूद का आदी होता गया। मगर अब भी हर-रोज़ खाने के वक़्त रात को फिट-पाथ पर दोनों की लड़ाई होती थी। क्योंकि सरिया भी बहुत खाती थी और दानी भी। दोनों रात का खाना रस्तो रान से ले आते थे और मिलकर खाते थे और दोनों की कोशिश ये होती थी कि कौन किस से ज़्यादा खाता है। अक्सर औक़ात दानी कामयाब रहता था। लेकिन जिस दिन सरिया ज़्यादा खाने में कामयाब हो जाती थी उस दिन वो दानी के हाथों ज़रूर पटती थी।<br />
<br />
एक दिन सरिया ने दानी से कहा।<br />
<br />
अब तुम मुझे मत पीटा करो।<br />
<br />
क्यों?<br />
<br />
क्योंकि अब मेरे बच्चा होने वाला है। सरिया ने उसे समझाया।<br />
<br />
दानी ने यकायक खाते खाते हाथ खींच लिया। वो हैरत से सरिया को सर से पांव तक देखने लगा, फिर बोला।<br />
<br />
बच्चा !<br />
<br />
हाँ ! सरिया ख़ुश होकर बोली।<br />
<br />
वो भी खाएगा? दानी की आवाज़ में ख़ुशी के साथ साथ ख़फ़ीफ़ सी मायूसी भी थी।<br />
<br />
हाँ वो भी खाएगा। सरिया ने उसे समझाया। पहले तो में एक थी, अब दो हूँ। एक में, एक मेरा बच्चा, तुम्हारा बच्चा, पेट में। अब हम दो हैं। हम दोनों को ज़्यादा रोटी मिलनी चाहिए।<br />
<br />
दानी ने अपने सामने फ़र्श पर पड़े हुए काग़ज़ात के टुकड़े पर खाने को देखा। फिर उसने सरिया को देखा। फिर उसने अपना मुँह बड़ी सख़्ती से बंद किया और दोनों जबड़ों को हिला कर इस तरह जुंबिश की, जैसे वो मायूसी का एक बहुत बड़ा लुक़मा निगलने जा रहा हो। फिर उसने आहिस्ता से काग़ज़ का टुकड़ा सरिया की जानिब बढ़ा कर कहा।<br />
<br />
लो खाओ।<br />
<br />
नहीं, तुम भी खाओ, तुमने कुछ खाया ही नहीं। सरिया ने कहा।<br />
<br />
नहीं, पहले तुम खा लो, बाद में जो बचेगा वो में खालों गा। दानी ने एक अजीब मलामत से कहा।<br />
<br />
पहले दिन तो सरिया सब चिट कर गई। इस ज़ोर की भूक लगी थी उसे। दूसरे दिन उसने कुछ थोड़ा सा छोड़ा दानी के लिए। फिर वो आहिस्ता-आहिस्ता दानी के लिए ज़्यादा खाना छोड़ने लगी। फिर भी जो बाक़ी बचता था वो दानी के लिए इस क़दर कम होता था कि इस की आधी भूक तिश्ना हो कर रह जाती थी। लेकिन अब उसने ख़ाली पेट या आधे पेट रात को भूके सो जाना सीख लिया था। पुरानी आदत को वापिस बुलाना इस क़दर मुश्किल नहीं होता। जिस क़दर नई आदत को पालना। हौले हौले उसने शराब पीना छोड़ दिया। क्योंकि बच्चे को ख़ुराक चाहीए और कपड़े भी और सरिया ने अभी से अपने बच्चे के लिए कपड़े सीने शुरू कर दिए थे। छोटे से मुन्ने से गड्डे के कपड़े। रंगदार और मुलाइम और रेशमी जिन पर हाथ फेरने से दानी के जिस्म और रूह में मुसर्रत और शादमानी की फुरैरियां सी घूमने लगती थीं।<br />
<br />
हमें ज़्यादा से ज़्यादा बचाना चाहिए। कई दिनों की सोच बिचार के बाद दानी इस नतीजा पर पहुंचा।<br />
<br />
रात के बारह बजे थे और अब वो दोनों फ़ुट-पाथ पर एक दूसरे के क़रीब लेटे थे और सरगोशियों में बातें कर रहे थे।<br />
<br />
मुझे अपने बचपन और लड़कपन में कोई दिन ऐसा याद नहीं आता, जिस दिन में भूका नहीं रहा। दानी बोला।<br />
<br />
मैं कोई रात ऐसी याद नहीं कर सकती, जब मैं खाने चुराने के इल्ज़ाम में ना पट्टी हूँ। सरिया बोली।<br />
<br />
मगर हमारा बच्चा भूका नहीं रहेगा। दानी ने फ़ैसलाकुन लहजे में कहा।<br />
<br />
इस के पास सब कुछ होगा। सरिया ने पर-उम्मीद लहजे में कहा।<br />
<br />
पेट भरने के लिए रोटी, तन ढकने के लिए कपड़ा। दानी ख़्वाब-नाक लहजे में बोला।<br />
<br />
और रहने के लिए घर! सरिया बोली।<br />
<br />
घर! दानी ने चौंक कर पूछा।<br />
<br />
क्या अपने बच्चे को घर ना दोगे? सरिया ने शिकायत के लहजे में पूछा: क्या वो इसी फ़ुट-पाथ पर रहेगा? <br />
<br />
मगर घर कैसे मिल सकता है? दानी ने पूछा।<br />
मैंने सब मालूम कर लिया है। सरिया ने समझाया। चर्च के पीछे नूरा मेंशन बन रही है। इस में पाँच कमरे वाले फ़्लैट होंगे और चार कमरे वाले और तीन कमरे वाले और दो कमरे वाले और दस फ़्लैट एक कमरे वाले भी होंगे जिनका किराया सतरह रुपय होगा और पगड़ी सात सौ रुपये।<br />
<br />
मगर सात सौ रुपये हम कहाँ से देंगे? दानी ने पूछा।<br />
<br />
अब तुमको सेठ तीस रुपये देता है, मुझको पच्चीस रुपये देता है। अगर हम हर महीना पच्चास रुपये नूरा मेंशन के मालिक को दें तो चौदह महीने में एक कमरा का फ़्लैट हमको मिल सकता है।<br />
<br />
बहुत देर तक दानी सोचता रहा। सरिया का हाथ दानी के हाथ में था। यकायक दानी को ऐसा महसूस हुआ, जैसे एक हाथ में एक नन्हे बच्चे का हाथ भी आ गया है। इस का दिल अजीब तरीक़े से पिघलने लगा। घुलने लगा, उस की आँखों में ख़ुद बख़ुद आँसू आ गए और उसने अपनी भीगी हुई आँखें सरिया के हाथ की पुश्त पर रख दें और रुँधे हुए गले से बोला :<br />
<br />
हाँ मेरे बच्चे का घर होगा, ज़रूर होगा। मैं सोचता हूँ सरिया। मैं तीन घंटे के लिए डोरा गली के चाए-ख़ाने में रात के ग्यारह बच्चे से दो बजे तक काम कर लूं। जब तो अपना रस्तो रान भी बंद हो जाता है, ग्यारह बजे। फिर ग्यारह बजे से दो बजे तक चाए-ख़ाने में काम करने में क्या हर्ज है। चाए-ख़ाने का सेठ दस रुपय पगार देने को बोलता था। मगर मेरे ख़्याल में वो बारह पंद्रह रुपय तक दे देगा।<br />
<br />
जब तो हम जल्दी घर ले सकेंगे। सरिया ने ख़ुश हो कर कहा।<br />
<br />
और अगर ईरानी सेठ उधार रुपय दे तो शायद अपने घर पर ही बच्चा पैदा होगा। दानी का चेहरा ख़ुश आइन्दा उम्मीद की रोशनी से चमकने लगा। यकायक उसने सरिया का हाथ ज़ोर से दबा कर कहा। आओ दुआ करें।<br />
वो दोनों उठकर गिरजा के आहनी जंगले को पकड़ को दो ज़ानू हो गए। जालीदार आहनी सलाख़ों के दरमयान गिरजा के वसीअ सेहन के वस्त में यसवा मसीह का बुत सलीब पर आवेज़ां था और एक तरफ़ नीले पत्थरों के गराटो में मर्यम ने मुक़द्दस बच्चे को गोद में उठा रखा था और गराटो में मोमी शमएँ रोशन थीं और गुल महर की नाज़ुक पत्तियाँ हुआ के झोंकों से टूट टूट कर चारों तरफ़ गिर रही थीं और मुक़द्दस मर्यम की गोद में एक छोटा सा बचा था, जैसा बच्चा हर माँ के तसव्वुर में होता है और ये रात मर्यम के लिबादे की तरह मेहरबान थी और किसी नींद में डूबे हुए यसवा के ख़ाब की तरह मासूम ।<br />
<br />
दुआ पढ़ कर दानी ने सरिया से पूछा।<br />
<br />
ये पादरी आज बार-बार अपने वाज़ में आज़ादी, रोटी और कल्चर की बात कर रहा था। आज़ादी और रोटी तो ख़ैर समझ में आती हैं, मगर ये कल्चर क्या होता है?<br />
<br />
मेरे ख़्याल में कोई मीठा केक होगा। सरिया सोच सोच कर बोली।<br />
<br />
और वो दुनिया में अमन की बात भी करता था&. दानी बोला: मगर हमेशा तो मेरे पेट में ऐसी जंग होती है कि समझ में नहीं आता। ये पेट की जंग कैसे बंद होगी। ओ ख़ुदा कैसी भयानक जंग होती है मेरे पेट में.<br />
<br />
मैं जानती हूँ, मेरी माँ भी जानती थी। मेरी बहनें भी, मेरे भाई भी और हम सब का बाप भी। सरिया तास्सुफ़ अंगेज़ लहजे में बोली: और मेरे बाप का बाप भी. बेचारा बूढ्ढा. कोई रिश्ता हमसे इस क़दर क़रीब नहीं रहा, जिस क़दर भूक का।<br />
<br />
ख़ुदा करे हमारा बेटा भूका ना रहे।<br />
<br />
पेट में अमन, और दुनिया में अमन, जैसा कि वो पादरी कहता था. आमीन!<br />
<br />
एक दिन सरिया जिस ग़ैर मुतवक़्क़े तरीक़े से आई थी, इसी तरह वहां से चली गई। ख़बर सुनते ही दानी भागा भागा रात के डेढ़ बजे डोरा गली के चाए-ख़ाने से फुट-पाथ पर आया तो उसने देखा कि लोगों का एक अज़दहाम है और पुलिस के बहुत से सिपाही सड़क पर और फुट-पाथ के आस-पास खड़े हैं और एक ट्रक फ़ुट-पाथ पर चढ़ा हुआ है और इस का इंजन गिरजा के आहनी जंगले को मूढ़ता हुआ गुल महर के पेट से टकरा गया। पिछले पहीयों पर सरिया और अली अकबर की लाशें रखी हैं। क्योंकि यही दो लोग फ़ुट-पाथ पर सोए हुए ट्रक की ज़द में आ गए थे। अगर दानी भी सोया होता तो उस वक़्त उस की लाश भी यहीं पड़ी होती। कभी कभी रात की तारीकी में तेज़ी से गुज़रते हुए या एक दूसरे से रेस करते हुए ट्रक फ़ुट-पाथ पर चढ़ जाते हैं। बड़े शहरों में अक्सर ऐसा होता रहता है।<br />
<br />
दानी एक अहमक़ की तरह ख़ून में लत-पत सरिया की लाश पर झुका रहा। फिर वो फटी फटी निगाहों से मजमा की तरफ़ देखने लगा और काँपते हुए लहजे में कहने लगा :<br />
<br />
मगर अभी तो वो ज़िंदा थी।<br />
<br />
दो घंटे पहले उसने और मैंने अपनी जगह पर खाना खाया था।<br />
<br />
वो बिलकुल ज़िंदा और तंदरुस्त थी।<br />
<br />
इसकी उम्र सिर्फ सतरह साल थी।<br />
<br />
इसके पेट में मेरा बच्चा था।<br />
<br />
छह महीने का बच्चा।<br />
<br />
मेरा बच्चा।<br />
<br />
किसने मारा उन्हें? यका-य़क दानी दोनों हाथों की मुट्ठियाँ कसते हुए ज़ोर से चीख़ा।<br />
<br />
एक तमाशाई ने ट्रक की तरफ़ इशारा किया। फ़ौरन पुलिस के दो संतरियों ने दानी को पकड़ा। मगर दानी ने घूँसे मार कर दोनों संतरियों से अपने आपको आज़ाद करा लिया। इस अरसा में दोनों संतरी इस से कश्मकश करते हुए उसे ट्रक से दूर घसीट कर ले गए थे। दानी उनसे आज़ाद हो कर ट्रक की जानिब लपका। इस की आँखें सुर्ख़ हो गईं। बदन झुक गया, और फिर एक मेंढे की तरह तन गया। इस के होंटों से जानवर नुमा एक भिंची हुई सी गुर्राहट निकली। वो अपने सर को एक ख़ौफ़नाक तरीक़े से आगे बढ़ाए और झुकाए तेज़ी से ट्रक पर हमला-आवर हो गया.<br />
पूरे छह माह वो हस्पताल में रहा। क्योंकि इस का सर खुल गया था। वो बच तो गया था मगर उसके दिमाग़ का हिस्सा तक़रीबन नाकारा हो चुका था और अब उसका सर पेंडूलम की तरह हौले हौले आप ही हिलता था और इसका वहशी मेंढे की तरह पिला हुआ मज़बूत जिस्म सूखे हुए बाँस की तरह दुबला हो गया था और उसे सब कुछ याद था और बहुत कुछ याद भी नहीं था और अब वो कोई काम नहीं कर सकता था क्योंकि अगर गाहक इस से चाय मांगता तो वो उस के सामने पानी ला कर रख देता और अगर कोई आमलेट मांगता तो वो उस के सामने माचिस की डिबिया रख देता। इस लिए ईरानी रस्तो रान के मालिक ने मजबूर हो कर उसे मुलाज़मत से अलग कर दिया था मगर वो अभी तक फिट-पाथ पर उसी जगह सोता था जहां सरिया सोता थी और उसने अपने बच्चे के कपड़े गिरजा के आहनी जंगले के कोने में छिपा कर रख दिए थे और रात के सन्नाटे में वो अक्सर उन्हें निकाल कर बिजली के खम्बे के नीचे बैठ कृतिका करता था और फुट-पाथ पर हजामत करने वाला रामू नाई अक्सर इस से पूछता।<br />
<br />
ये किस के कपड़े हैं?<br />
<br />
मेरे बच्चे के हैं।<br />
<br />
तेरा बच्चा कहाँ है? थागोलीन के चाय-ख़ाने का क़ासिम इससे पूछता।<br />
<br />
वो मेरी सरिया के पास है।<br />
<br />
तेरी सरिया कहाँ है?<br />
<br />
वो मैके गई है।<br />
<br />
वहां से कब लौटेगी? गोपी जेब-कतरा इससे पूछता।<br />
<br />
जब मेरा घर बन जाएगा। दानी इंतिहाई मासूमियत से जवाब देता।<br />
<br />
ये जून सुनकर मज़ाक़ करने वालों के चेहरे फ़क़ हो जाते और वो वहीं बैठे-बैठे ख़लाओं में तकने लगते। जैसे दूर से किसी ट्रक को अपनी तरफ़ आते हुए देख रहे हूँ और हल ना सकते हूँ। फुट-पाथ पर रहने वाले अपनी मजबूरी समझते हैं। वो जानते हैं कि वो फ़िट-पाथ से अपना बिस्तर तो ता कर सकते हैं लेकिन फिट-पाथ कोता नहीं कर सकते। अभी तक कोई ऐसा तरीक़ा ईजाद नहीं हुआ है, इस लिए दानी के घर का तख़य्युल एक बहुत बड़ा मज़ाक़ मालूम हुआ।<br />
<br />
दूसरे दिन दानी बड़े इन्हिमाक से अपना घर बनाने में मसरूफ़ नज़र आया। कहीं से दो तीन ईंटें उठा लाया था और अब वो एक ईंट पर दूसरी ईंट रखकर इस पर तीसरी ईंट लगाने में मसरूफ़ था कि क़ासिम ने इस से पूछा।<br />
दानी! ये कितना बड़ा घर होगा?<br />
<br />
दानी की आँखें ख़ुशी से चमकने लगीं।<br />
<br />
ये एक बहुत बड़ा घर होगा। वो बोला: और मैंने फ़ैसला किया है कि मैं उसे चारक रोड के ऐन बीच में तामीर करूँगा। इस के दस माले होंगे, हर माले में बत्तीस फ़्लैट होंगे। हर फ़्लैट में तीन कमरे होंगे।<br />
<br />
तीन कमरे किसके लिए? गोपी जेब कतरे ने पूछा।<br />
<br />
एक मियां के लिए, एक बीवी के लिए, एक बच्चे के लिए।<br />
<br />
मुझे भी इस घर में जगह दोगे? रामू हज्जाम ने पूछा। मेरी बीवी, मेरे दो बच्चे हैं और वो तीनों मेरे गांव में हैं, क्योंकि यहां मेरे पास कोई घर नहीं है और मेरी माँ बूढ़ी है।<br />
<br />
गोपी बोला: और मेरे पास कोई काम नहीं, सिवाए जीप काटने के और में तीन दफ़ा जेल काट चुका हूँ और मुझे तुम अपने घर का चौकीदार रख लेना और रहने के लिए सिर्फ एक कमरा दे देना।<br />
<br />
ये एक बहुत बड़ा घर होगा। दानी इंतिहाई ख़ुलूस से बोला और शिद्दत-ए-जज़्बात से इस की चमकती हुई आँखें बाहर निकली पड़ती थीं। और इस में तुम सब के लिए जगह होगी, क़ासिम के लिए और रामू के लिए और गोपी के लिए और धीरज के लिए और वासंत के लिए, और पायल के लिए और रंगाचारी के लिए और थागोलीन और डोर अगली के फुट-पाथ पर सोने वालों के लिए भी जगह होगी। मेरा ख़्याल है, में उसे बीस माले का बनाऊँगा। हर माले में तीस फ़्लैट होंगे, हर फ़्लैट में चार कमरे होंगे, हर कमरे के साथ बाथरूम होगा. फ्लश और शाइर।<br />
<br />
मोज़ेक का फ़र्श। क़ासिम बोला।<br />
<br />
और खिड़कियाँ समन्दर की तरफ़ खुलती हुईं। गोपी ने लुक़मा दिया।<br />
<br />
यकायक एक लम्हे के लिए इन सबने बावर कर लिया। यक़ीन कर लिया, एक लम्हा के लिए उन्होंने चारक रोड के चौक पर इस बड़े घर को तामीर होते हुए, बुलंद होते हुए, आसमान से बातें करते हुए देख लिया। दूसरे लम्हे में एक बहुत बड़ा ट्रक घूं घूं करता हुआ उनके क़रीब से गुज़र गया और वो सहम कर चुप हो गए।<br />
<br />
इस के बाद कई माह तक दानी वो घर बनाता रहा। ईंटें तो उस के पास वही तीन थीं। मगर घर का नक़्शा हर-रोज़ बदलता था। वो अब पच्चास मंज़िल का एक महल था, जिसमें सिर्फ फ़ुट-पाथ पर रहने वाले दाख़िल हो सकते थे। इस महल में ज़िंदगी की हर सहूलत और आसाइश मुहय्या थी। बिजली की लिफ़्ट और टेलीफ़ोन। एक छोटा सा सिनेमा और नर्सरी स्कूल और छत पर ख़ूबसूरत फूल वाला गार्डन। दीवार गीर रोशनीयां, और मद्धम मद्धम रंगों वाले ग़ालीचे और ख़ूबसूरत, तितलीयों की तरह आहिस्ता ख़िराम औरतें और बच्चे और धीमे धीमे बजते हुए अर्ग़नूं और मुहज़्ज़ब मर्द मुस्कुराते हुए सिगरेट पीते हुए, एक दूसरे से जाम टकराते हुए और उनके कपड़े भी उम्दा और ख़ुशबूदार और जेबें सिक्कों से भरी हुई और वो सब कुछ जो ग़रीब लोग सिनेमा में देखते हैं और अमीर अपने घर पर रखते हैं। वो सब कुछ इस घर में मौजूद था, बल्कि इस से भी ज़्यादा बुलंद, ख़ूबसूरत, दरख़शां, आलीशान। वो घर इतना ही ख़ूबसूरत था जितना किसी बे-घर का तख़य्युल हो सकता है।<br />
<br />
और फिर जब कई माह की काविश के बाद वो घर मुकम्मल हो गया तो रात के ग्यारह बजे से एक बजे तक दानी टीन का एक डिब्बा पीटते हुए चारक रोड के दोनों फ़ुट-पाथ और घोगा लेन के फुट-पाथ और डोरा गली बल्कि क्रास बाज़ार और चारक पार्क के फुट पाथियों को इस नए घर में आने की दावत देता फिरा। ज़ाहिर है कि इस के पास वही तीन ईंटें थीं मगर अब उसने तीन ईंटों को चारक चौक के ट्रैफ़िक आईलैंड के अंदर रख दिया था और इस तरह अपना महल तामीर कर लिया था और अब वो सारे फ़ुट पाथियों को अपने बीवी बच्चों समेत घर में आने की दावत दे रहा था।<br />
<br />
डोरा गली के पायल ने रोक कर कहा। लेकिन मेरे तो सात बच्चे हैं और हम सब के सब इस खुले फ़ुट-पाथ पर बड़े आराम से सोते हैं। तुम्हारे तीन कमरों वाले फ़्लैट से हमारा क्या होगा?<br />
<br />
मैं तुम्हें सात कमरों वाला फ़्लैट दूँगा। दानी ने टीन पीटते हुए चिल्ला कर कहा।<br />
<br />
कब आएं हम लोग। पायल की बीवी ने अपनी मुस्कुराहट को साड़ी के पल्लू में छिपा कर इस से पूछा। इस की हंसी रुकी नहीं पड़ती थी।<br />
<br />
कल सुबह जब सरिया बच्चे को लेकर मैके से आ जाएगी। मैं अपने घर के दरवाज़े सब लोगों के लिए खोल दूँगा। दरवाज़े पर हैंड होगा। रंगा-रंग झंडियां होंगी और बंधन दारें और मैं पादरी को घर के मुहूर्त के लिए बुलाऊँगा और वो बाइबल सुनाएगा और गिरजा के घंटे बजींगे और इस वक़्त तुम सब लोग मेरे घर में दाख़िल होगे।<br />
<br />
दानी की काँपती हुई आवाज़ में इंतिहाई ख़ुलूस था। इस का दुबला चेहरा ज़र्द और बुख़ार ज़दा दिखाई देता था। इस की आँखें सुर्ख़ और बेचैन थीं और मुतवातिर चलाने से इस के होंटों पर कफ़ आ चला था और इस के रूखे सूखे बालों की लटों में फिट-पाथ की ख़ाक चमक रही थी।<br />
<br />
<br />
दूसरे दिन दानी बलोगराटो के बाहर मुक़द्दस मर्यम के क़दमों में मुर्दा पाया गया। इस की आँखें खुली थीं और नीले आसमान में किसी ना-मुकम्मल सपने को तक रही थीं। इस के कपड़े फटे चीथड़े और तार-तार थे और इस के सीने पर वही तीन ईंटें रखी थीं और उसने मुक़द्दस मर्यम के क़दमों के फ़र्श पर अपना सर मार मार कर तोड़ दिया था।<br />
गिरिजा खोल दो।<br />
<br />
<br />
और घंटे बजाओ।<br />
<br />
देखो यसवा मसीह जा रहा है।<br />
<br />
अपने सीने पर ईंटों की सलीब लिए हुए।<br />
<br />
अब जन्नत के दरवाज़े ग़रीबों के लिए खुल गए हैं।<br />
<br />
क्योंकि एक ऊंट सूई के नाके से नहीं गुज़र सकता। लेकिन एक अमीर क़ानून के हर नाके से गुज़र सकता है।<br />
<br />
और अब इस धरती के मालिक ग़रीब होंगे।<br />
<br />
और ग़रीबों के मालिक अमीर होंगे।<br />
<br />
देखो वो यसवा मसीह जा रहा है।<br />
<br />
आओ इसे संगसार करें ।</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%81_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE_/_%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%A8_%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%B0&diff=44176चन्द्रु की दुनिया / कृश्न चन्दर2024-03-18T22:18:24Z<p>अनिल जनविजय: '{{GKCatKahani}} कराची में भी उसका यही धंदा था और बांद्रे आकर भ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
<hr />
<div>{{GKCatKahani}}<br />
कराची में भी उसका यही धंदा था और बांद्रे आकर भी यही धंदा रहा। जहां तक उसकी ज़ात का ताल्लुक़ था , कोई तक़सीम नहीं हुई थी। वो कराची में भी सिद्धू हलवाई के घर की सीढ़ीयों के पीछे एक तंग-ओ-तारीक कोठरी में सोता था और बांद्रे में वही सीढ़ीयों के अक़ब में उसे जगह मिली थी। कराची में उसके पास एक मैला-कुचैला बिस्तर, ज़ंगआलूद पतरे का एक छोटा सा स्याह ट्रंक और एक पीतल का लोटा था। यहां पर भी वही सामान था। ज़हनी लगाव न उसे कराची से था न बंबई से। सच बात तो ये है कि उसे मालूम ही न था ज़हनी लगाव किसे कहते हैं , कल्चर किसे कहते हैं, हुब्बुलवतनी क्या होती है और किस भाव से बेची जाती है। वो इन सब नए धंदों से वाक़िफ़ न था। बस उसे इतना याद था कि जब उसने आँख खोली तो अपने को सिद्धू हलवाई के घर में बर्तन माँजते, झाड़ू देते, पानी ढोते, फ़र्श साफ़ करते और गालियां खाते पाया। उसे इन बातों का कभी मलाल न हुआ क्योंकि उसे मालूम था कि काम करने और गालियां खाने के बाद ही रोटी मिलती है और इस क़िस्म के लोगों को ऐसे ही मिलती है। इलावा अज़ीं सिद्धू हलवाई के घर में उसका जिस्म तेज़ी से बढ़ रहा था और उसे रोटी की शदीद ज़रूरत रहती थी और हर वक़्त महसूस होती रहती थी। इसलिए वो हलवाई के झूटे सालन के साथ साथ उसकी गाली को भी रोटी के टुकड़े में लपेट के निगल जाता था।<br />
<br />
उसके माँ बाप कौन थे, किसी को पता न था। ख़ुद चन्द्रु ने कभी इसकी ज़रूरत महसूस नहीं की थी। अलबत्ता सिद्धू हलवाई उसे गालियां देता हुआ अक्सर कहा करता था कि वो चन्द्रु को सड़क पर से उठा कर लाया है । इस पर चन्द्रु ने कभी हैरत का इज़हार नहीं किया। न सिद्धू के लिए शुक्रिये के नर्म जज़्बे का उसके दिल तक गुज़र हुआ। क्योंकि चन्द्रु को कोई दूसरी ज़िंदगी याद नहीं थी। उसे बस इतना मालूम था कि ऐसे लोग होते हैं जिनके माँ बाप होते हैं। कुछ ऐसे लोग होते हैं जिनके माँ-बाप नहीं होते। कुछ लोग घर वाले होते हैं, कुछ लोग सीढ़ीयों के पीछे सोने वाले होते हैं, कुछ लोग गालियां देते हैं, कुछ लोग गालियां सहते हैं। एक काम करता है दूसरा काम करने पर मजबूर करता है। बस ऐसी ही ये दुनिया और ऐसी ही रहेगी। वो ख़ानों में बटी हुई यानी एक वो जो ऊपर वाले हैं, दूसरे वो जो नीचे वाले हैं। ऐसा क्यों है और ऐसा क्यों नहीं है और जो है वो कब क्यों और कैसे बेहतर हो सकता है? वो ये सब कुछ नहीं जानता था और न इस क़िस्म की बातों से कोई दिलचस्पी रखता था। अलबत्ता जब कभी वो अपने ज़हन पर बहुत ज़ोर देकर सोचने की कोशिश करता था तो उसकी समझ में यही आता था कि जिस तरह वो सट्टे के नंबर का दाव लगाने के लिए कभी-कभी हवा में सिक्का उछाल कर टॉस कर लेता है। उसी तरह उसके पैदा करने वाले ने उसके लिए टॉस कर लिया होगा और उसे इस ख़ाने में डाल दिया होगा जो उसकी क़िस्मत थी ।<br />
<br />
ये कहना भी ग़लत होगा कि चन्द्रु को अपनी क़िस्मत से कोई शिकायत थी हरगिज़ नहीं! वो एक ख़ुश-बाश, मेहनत करने वाला, भाग भाग कर जी लगा कर ख़ुशमिज़ाजी से काम करने वाला लड़का था। वो रात-दिन अपने काम में इस क़दर मशग़ूल रहता था कि उसे बीमार पड़ने की भी कभी फ़ुर्सत नहीं मिली। कराची में तो वो एक छोटा सा लड़का था। मगर बंबई आकर तो उसके हाथ-पांव और खुले और बढ़े, सीना फैला, गंदुमी रंग साफ़ होने लगा, बालों में लच्छे से पड़ने लगे, आँखें ज़्यादा रोशन और बड़ी मालूम होने लगीं। उसकी आँखें और होंट देखकर मालूम होता था कि उसकी माँ ज़रूर किसी बड़े घर की रही होगी ।<br />
<br />
चन्द्रु की दुनिया में आवाज़ का इस हद तक गुज़र था कि वो सुन सकता था। बोल नहीं सकता था। आम तौर पर गूँगे बहरे भी होते हैं। मगर वो सिर्फ़ गूँगा था बहरा न था। इसलिए हलवाई एक दफ़ा उसे बचपन में एक डाक्टर के पास ले गया था। डाक्टर ने चन्द्रु का मुआइना करने के बाद हलवाई से कहा कि चन्द्रु के हलक़ में कोई पैदाइशी नुक़्स है। मगर ऑप्रेशन करने से ये नुक़्स दूर हो सकता है और चन्द्रु को बोलने के क़ाबिल बनाया जा सकता है मगर हलवाई ने कभी इस नुक़्स को ऑप्रेशन के ज़रीये दूर करने की कोशिश नहीं की। सिद्धू ने सोचा ये तो बहुत अच्छा है कि नौकर गाली सुन सके मगर उसका जवाब न दे सके ।<br />
<br />
चन्द्रु का ये नुक़्स सिद्धू की निगाह में उसकी सबसे बड़ी ख़ूबी बन गया। इस दुनिया में मालिकों की आधी ज़िंदगी इसी फ़िक्र में गुज़र जाती है कि किसी तरह वो अपने नौकरों को गूँगा कर दें। उस के लिए क़ानून पास किए जाते जाती हैं, अख़बार निकाले जाते हैं, पुलिस और फ़ौज के पहरे बिठाए जाते हैं। सुन लो मगर जवाब न दो।<br />
और चन्द्रु तो पैदाइशी गूँगा था। यक़ीनन सिद्धू ऐसा अहमक़ नहीं है कि उसका ऑप्रेशन करवाए। सिद्धू भी दिल का बुरा नहीं था। अपने मख़सूस हालात में, मख़सूस हदूद के अंदर रह कर अपना मख़सूस ज़ाविया निगाह रखते हुए वो चन्द्रु को अपने तरीक़े से चाहता भी था। वो समझता था और इस बात पर ख़ुश था, और अक्सर उसका फ़ख़्रिया इज़हार भी किया करता था कि उसने चन्द्रु की परवरिश एक बेटे की तरह की है। कौन किसी यतीम बच्चे की इस तरह परवरिश करता है। इस तरह पालता-पोस्ता बड़ा करता है। कौन इस तरह उसे काम पर लगाता है। जब तक चन्द्रु का लड़कपन था, सिद्धू उस से घर का काम लेता रहा। जब चन्द्रु लड़कपन की हदूद फलांगने लगा, सिद्धू ने उसकी ख़ातिर एक नया धंदा शुरू किया।<br />
<br />
हलवाई की दुकान पर उसके अपने बेटे बैठते थे। उसने चन्द्रु के लिए चाट बेचने का धंदा तय किया। हौले-हौले उसने चन्द्रु को चाट बनाने का फ़न सिखा दिया। जल जीरा और कांजी बनाने का फ़न, गोलगप्पे और दही बड़े बनाने के तरीक़े, चटख़ारा पैदा करने वाले तीखे मसालहे, कुरकुरी पापड़ीयां और चने का लज़ीज़ मिरचिला सालन, ,भटूरे बनाने और तलने के अंदाज़, फिर समोसे और आलू की टिकियां भरने का काम, फिर चटनीयां, लहसुन की चटनी, लाल मिर्च की चटनी, हरे पोदीने की चटनी, खट्टी चटनी, मीठी चटनी, अद्रक की चटनी और प्याज़ और अनार दाने की चटनी।<br />
<br />
फिर अन्वा-ओ-इक़साम की चाटें परोसने का अंदाज़। दही बड़े की चाट, कांजी के बड़े की चाट, मीठी चटनी के पकौड़ों की चाट, आलू की चाट, आलू और आलू पापडी की चाट, हरी मूंग के गोलगप्पे, आलू के गोलगप्पे, कांजी के गोलगप्पे, हरे मसालहे के गोलगप्पे ।<br />
<br />
जितने बरसों में चन्द्रु ने ये काम सीखा उतने बरसों में एक लड़का एम.ए. पास कर लेता है। फिर भी बेकार रहता है। मगर सिद्धू का घर बेकार ग्रेजूएटों को उगलने की यूनीवर्सिटी नहीं था। उसने जब देखा कि चन्द्रु अपने काम में मश्शाक़ हो गया है और जवान हो गया है तो उसने चार पहीयों वाली एक हाथ गाड़ी ख़रीदी। चाट के थाल सजाये और चन्द्रु को चाट बेचने पर लगा दिया, डेढ़ रुपया रोज़ पर।<br />
<br />
जहां चन्द्रु चाट बेचने लगा वहां उसका कोई मद्द-ए-मुक़ाबिल न था। सिद्धू ने बहुत सोच समझ के ये जगह इंतिख़ाब की थी। ख़ार लिंकिंग रोड पर और पाली हल के चौराहे के क़रीब टेलीफ़ोन ऐक्सचेंज के सामने उसने चाट की पहीयों वाली साईकल गाड़ी को खड़ा किया। ये जगह बहुत बा रौनक थी। एक तरफ़ यूनीयन बैंक था, दूसरी तरफ़ टेलीफ़ोन ऐक्सचेंज। तीसरी तरफ़ ईरानी की दुकान, चौथी तरफ़ घोड़ बंदर रोड का नाका। बीच में शाम के वक़्त खाते पीते ख़ुश-बाश, ख़ुश-लिबास नौजवान लड़के लड़कियों का हुजूम बहता था। चन्द्रु की चाट हमेशा ताज़ा, उम्दा और कर्रारी होती थी।<br />
<br />
वो बोल नहीं सकता था मगर उसकी मुस्कुराहट बड़ी दिलकश होती थी। उसका सौदा हमेशा खरा होता था। हाथ साफ़ और तौल पूरा। गाहक को और क्या चाहिए? चंचन्द्रु की चाट इस नौआबादी में चारों तरफ़ मक़बूल होती गई और शाम के वक़्त उसके ठेले के चारों तरफ़ नौजवान लड़के लड़कियों का हुजूम रहने लगा। चन्द्रु को सिद्धू ने डेढ़ रुपया रोज़ पर लगाया था। अब उसे तीन रुपये रोज़ देता था और चन्द्रु जो डेढ़ रुपये रोज़ में ख़ुश था, अब तीन रुपया पाकर भी ख़ुश था क्योंकि ख़ुश रहना उसकी आदत थी। उसे काम करना पसंद था और वो अपना काम जानता था और अपने काम से उसे लगन थी। वो अपने ग्राहकों को ख़ुश करना जानता था और उन्हें ख़ुश करने में अपनी ख़ुशी महसूस करता था। दिन-भर वो चाट तैयार करने में मसरूफ़ रहता। शाम के चार बजे वो चाट गाड़ी लेकर नाके पर जाता। चार से आठ बजे तक हाथ रोके बग़ैर, आराम का सांस लिए बग़ैर, वो जल्दी जल्दी काम करता। आठ बजे उसका ठेला ख़ाली हो जाता और वह उसे लेकर अपने मालिक के घर वापस आजाता। खाना खा कर सिनेमा चला जाता। बारह बजे रात को सिनेमा से लौट कर अपनी चटाई बिछा कर सीढ़ीयों के पीछे सो जाता और सुबह फिर अपने काम पर।<br />
<br />
ये उसकी ज़िंदगी थी। ये उसकी दुनिया थी। वो बेफ़िकर और ज़िंदा-दिल था। न माँ न बाप न भाई न बहन। न बच्चे न बीवी। दूसरे लोगों के बहुत से ख़ाने होते हैं। उसका सिर्फ़ एक ही ख़ाना था। दूसरे लोग बहुत से टुकड़ों में बटे होते हैं और उन टुकड़ों को जोड़ कर ही उनकी शख़्सियत देखी जा सकती है मगर चन्द्रु एक ही लकड़ी का था और लकड़ी के एक ही टुकड़े से बना था। जैसा वो अंदर से था वैसा ही वो बाहर से भी नज़र आता था। वो अपनी ज़ात में बेजोड़ और मुकम्मल था।<br />
<br />
साँवली पारो को उसे परेशान करने में बड़ा मज़ा आता था। कानों में चांदी के बाले झुलाती, पांव में छोटी सी पाज़ेब खनकाती जब वो अपनी सहेलियों के साथ उसके ठेले के गिर्द खड़ी हो जाती तो चन्द्रु समझ जाता कि अब उसकी शामत आई है। दही बड़े की पत्तल तक़रीबन चाट कर वो ज़रा सा दही बड़ा उस पर लगा रहने देती और फिर उसे दिखा कर कहती,<br />
<br />
"अबे गूँगे, तू बहरा भी है क्या? मैंने दही बड़े नहीं मांगे थे दही पिटा करी मांगी थी। अब इसके पैसे कौन देगा। तेरा बाप?"<br />
<br />
इतना कहकर वो इस बड़े की तक़रीबन ख़ाली पत्तल को उसे दिखा कर बड़ी हक़ारत से ज़मीन पर फेंक देती। वो जल्दी जल्दी उसके लिए दही पटा करी बनाने लगता। पारो उस पटाकरी की पत्तल साफ़ करके उसमें आधी पटाकरी छोड़ देती और ग़ुस्से से कहती,<br />
<br />
"इतनी मिर्च डाल दी? इतनी मिर्ची? चाट बनाना नहीं आता है तो ठेला लेकर इधर क्यों आता है? ले अपनी पटाकरी वापस ले-ले।"<br />
<br />
इतना कह कर वो दही और चटनी की पटाकरी अपने नाख़ुन की कोर में फंसा कर उसके ठेले पर घुमाती। कभी उसे झूटी पटा करियों के थाल में वापस डाल देने की धमकी देती। उसकी सहेलियाँ हँसतीं, तालियाँ बजातीं। चन्द्रु दोनों हाथों से नाँ-नाँ के इशारे करता हुआ पारो से अपनी झूटी पटाकरी ज़मीन पर फेंक देने का इशारा करता।<br />
<br />
अच्छा समझ गई, तेरे चनों के थाल में डाल दूं वो जान-बूझ कर उसका इशारा ग़लत समझती। जल्दी-जल्दी घबराए हुए अंदाज़ में चन्द्रु ज़ोर ज़ोर से सर हिलाता फिर ज़मीन की तरफ़ इशारा करता। पारो खिलखिलाकर कहती,<br />
<br />
"अच्छा ज़मीन से मिट्टी उठा कर तेरे दही के बर्तन में डाल दूं?" पारो नीचे ज़मीन से थोड़ी से मिट्टी उठा लेती।<br />
इस पर चन्द्रु और भी घबरा जाता। दोनों हाथ ज़ोर से हिला कर मना करता।<br />
<br />
बिलआख़िर पारो उसे धमकाती, "तो चल जल्दी से आलू की छः टिकियां तल दे और ख़ूब गर्म-गर्म मसालहे वाले चने देना और अद्रक भी, नहीं तो ये पटा करी अभी जाएगी तेरे काले गुलाब जामुनों के बर्तन में..."<br />
<br />
चन्द्रु ख़ुश हो कर पूरी बत्तीसी निकाल देता। माथे पर आई हुई एक घुंगरियाले लट पीछे को हटाके तौलिये से हाथ पोंछ कर जल्दी से पारो और उसकी सहेलियों के लिए आलू की टिकियां तलने में मसरूफ़ हो जाता।<br />
<br />
फिर कभी कभी पारो हिसाब में भी घपला किया करती।<br />
<br />
"साठ पैसे की टिकियां, तीस पैसे की पटा करी। दही बड़े तो मैंने मांगे ही नहीं थे। उसके पैसे क्यों मिलेंगे तुझे? हो गए नव्वे पैसे दस पैसे कल के बाक़ी हैं...ले एक रुपया।"<br />
<br />
गूँगा चन्द्रु पैसे लेने से इनकार करता। वो कभी पारो की शोख़ चमकती हुई शरीर आँखों को देखता। कभी उसकी लंबी लंबी उंगलियों में कपकपाते एक रुपये के नोट को देखता और सर हिला कर इनकार कर देता और हिसाब समझाने बैठता। वो वक़्त क़ियामत का होता था जब वो पारो को हिसाब समझाता था। दही बड़े के थाल की तरफ़ इशारा करके अपनी उंगली को अपने मुँह पर रखकर चुप-चुप की आवाज़ पैदा करते हुए गोया उससे कहता, "दही बड़े खा तो गई हो। उस के पैसे क्यों नहीं दोगी? तीस पैसे दही बड़े के भी लाओ।" वो अपने गल्ले में से तीस पैसे निकाल के पारो को दिखाता।<br />
<br />
इस पर फ़ौरन चमक कर कहती, "अच्छा तीस पैसे मुझे वापस दे रहे हो? लाओ..."<br />
<br />
इस पर चन्द्रु फ़ौरन अपना हाथ पीछे खींच लेता, "नहीं..."<br />
<br />
इनकार में वो सर हिलाकर पारो को समझाता, "मुझे नहीं तुम्हें देना होंगे ये तीस पैसे।" वो अपनी तहदीदी उंगली पारो की तरफ़ बढ़ा के इशारा करके कहता।<br />
<br />
इस पर पारो फ़ौरन उसे टोक देती, "अबे अपना हाथ पीछे रख...नहीं तो मारूंगी चप्पल।"<br />
<br />
इस पर चन्द्रु घबरा जाता। पारो की डाँट से लाजवाब हो कर बिल्कुल बेबस हो कर मजबूर और ख़ामोश निगाहों से पारो की तरफ़ देखने लगता कि पारो को उस पर रहम आजाता। जेब से पूरे पैसे निकाल के उसे दे देती और बोलती, "तू बहुत घपला करता है हिसाब में। कल से तेरे ठेले पर नहीं आऊँगी।"<br />
<br />
मगर दूसरे दिन वो फिर आ जाती। उसे चन्द्रु को छेड़ने में मज़ा आता था और अब चन्द्रु को भी मज़ा आने लगा था। जिस दिन वो नहीं आती थी हालाँकि उस दिन भी उसकी गाहकी और कमाई में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था मगर जाने क्या बात थी चन्द्रु को वो दिन सूना सूना सा लगता था।<br />
<br />
जहां पर उसका ठेला रखा था वो उसके सामने एक गली से आती थी। पहले-पहल चन्द्रु का ठेला बिल्कुल यूनीयन बैंक के सामने नाके पर था हौले-हौले चन्द्रु अपने ठेले को खिसकाते-खिसकाते पारो की गली के बिल्कुल सामने ले आया। अब वो दूर से पारो को अपने घर से निकलते देख सकता था। पहले दिन जब उसने ठेला यहां लगाया था तो पारो ठेले की बदली हुई जगह देखकर कुछ चौंकी थी। कुछ ग़ुस्से से भड़क गई थी।<br />
<br />
"अरे तू नाके से उधर क्यों आ गया गूँगे?"<br />
<br />
गूँगे चन्द्रु ने टेलीफ़ोन ऐक्सचेंज की इमारत की तरफ़ इशारा किया। जहां वो अब तक ठेला लगाता आरहा था। उधर केबल बिछाने के लिए ज़मीन खोदी जा रही थी और बहुत से काले-काले पाइप रखे हुए थे ।<br />
<br />
वजह माक़ूल थी, पारो लाजवाब हो गई। फिर कुछ नहीं बोली। लेकिन जब केबल बिछ गई और ज़मीन की मिट्टी हमवार कर दी गई तो भी चन्द्रु ने अपना ठेला नहीं हटाया। तो भी वो कुछ नहीं बोली। हाँ उसके चंचल सुभाव में एक अजीब तेज़ी सी आगई। वो उसे पहले से ज़्यादा सताने लगी।<br />
<br />
पारो की देखा देखी उसकी दूसरी सहेलियाँ भी चन्द्रु को सताने लगीं और कई छोटे छोटे लड़के भी। मगर लड़कों को तो चन्द्रु डाँट देता और वो जल्दी से भाग जाते। एक-बार उसने पारो की सहेलियों से आजिज़ आकर उन्हें भी डाँट पिलाई। तो इस पर पारो इस क़दर नाराज़ हुई कि उसने अगले तीन चार दिनों तक चन्द्रु को सताना बंद कर दिया, इस पर चन्द्रु को ऐसा लगा कि आसमान उस पर ढय् पड़ा हो। या उसके पैरों तले ज़मीन फट गई हो। ये पारो मुझे सताती क्यों नहीं है? तरह तरह के हीलों-बहानों से उसने चाहा कि पारो उसे डाँट पिलाए। लेकिन जब इस पर भी पारो के अंदाज़ नहीं बदले और वो एक मुहज़्ज़ब, मुतमद्दिन, लेकिन चाट बेचने वाले चन्द्रु ऐसे छोकरों को फ़ासले पर रखने वाली लड़की की तरह, उस से चाट खाती रही तो चन्द्रु अपनी गूँगी हमाक़तों पर बहुत नादिम हुआ।<br />
<br />
एक दफ़ा उसने बजाय पारो के ख़ुद से हिसाब में घपला कर दिया। सवा रुपया बनता था, उसने पारो से पौने दो रुपये तलब किए, जान-बूझ कर। ख़ूब लड़ाई हुई। जम के लड़ाई हुई। बिलआख़िर सर झुका कर चन्द्रु ने अपनी ग़लती तस्लीम करली और ये गोया एक तरह पिछली तमाम ग़लतीयों की भी तलाफ़ी थी। चन्द्रु बहुत ख़ुश हुआ क्योंकि पारो और उसकी सहेलियाँ अब फिर उसे सताने लगी थीं। बस उसे इतना कुछ ही चाहिए। एक पाज़ेब की खनक औरा एक शरीर हंसी जो फुलझड़ी की तरह उसकी गूँगी सुनसान दुनिया के वीराने को एक लम्हे के लिए रोशन कर दे। फिर जब पारो के क़दम सहेलीयों के क़दमों में गड मड होके चले जाते, वो उस पाज़ेब की खनक को दूसरी पाज़ेबों की खनक से अलग करके सुनता था। क्योंकि दूसरी लड़कियां भी चांदी की पाज़ेबें पहनती थीं मगर पारो की पाज़ेब की मौसीक़ी ही कुछ और थी। ये मौसीक़ी जो उसके कानों में नहीं उसके दिल के किसी तन्हा तारीक और शर्मीले गोशे में सुनाई देती थी। बस इतना ही काफ़ी था और वो उसी में ख़ुश था।<br />
<br />
अचानक मुसीबत नाज़िल हुई एक दूसरे ठेले की सूरत में। क्या ठेला था ये! बिल्कुल नया और जदीद डिज़ाइन का। चारों तरफ़ चमकता हुआ कांच लगा था ऊपर-नीचे, दाएं-बाएं चारों तरफ़ लाल पीले, ऊदे और नीले रंग के कांच थे। गैस के दो हण्डे थे। जिनसे ये ठेला बुक़ा-ए-नूर बन गया था। पत्तल की जगह चमकती हुई चीनी की प्लेटें थीं। ठेले वाले के साथ एक छोटा सा छोकरा भी था जो गाहक को बड़ी मुस्तइद्दी से एक प्लेट और एक साफ़ सुथरी नैपकिन भी पेश करता था और पानी भी पिलाता था। चाट वाले के घड़े के गिर्द मोगरे के फूलों का हार भी लिपटा हुआ था और एक छोटा हार चाट वाले ने अपनी कलाई पर भी बांध रखा था और जब वो मसालेदार पानी में गोलगप्पे डुबोकर प्लेट में रखकर गाहक के हाथों की तरफ़ सरकाता तो चाट की कर्रारी ख़ुशबू के साथ गाहक के नथनों में मोगरे की महक भी शामिल हो जाती और गाहक मुस्कुरा कर नए चाट वाले से गोया किसी तमगे की तरह उस प्लेट को हासिल कर लेता।<br />
और नया चाट वाला गूँगे चाट वाले की तरफ़ तहक़ीर से देखकर पर नख़वत आवाज़ में ज़ोर से कहता, "चखीए!"<br />
<br />
एक-एक, दो-दो करके चन्द्रु के बहुत से गाहक टूट कर नए ठेले वाले के गिर्द जमा होने लगे तो भी चन्द्रु को ज़्यादा परेशानी नहीं हुई। फिर आजाऐंगे, ये ऊंची दुकान फीके पकवान वाले कब तक चन्द्रु की सच्ची-असली और सही मसालों रची हुई चाट का मुक़ाबला करेंगे? हम भी देख लेंगे। उसने दो एक ग्राहकों को नए चाट वाले की तरफ़ जाते हुए कनखियों से देख भी लिया था और उसे ये भी मालूम हो चुका था कि चिकनी चमकती प्लेटों और होटल नुमा सर्विस के बावजूद उन्हें नए चाट वाले की चाट ज़्यादा पसंद नहीं आरही है।<br />
<br />
वो पहले से भी ज़्यादा मुस्तइद हो कर अपने काम में जुट गया। यकायक उसके कानों में पाज़ेब की एक खनक सुनाई दी, उसका दिल ज़ोर ज़ोर से धड़क गया। उसने निगाह उठा के देखा। गली से पारो पाज़ेब खनकाती अपनी सहेलीयों के संग बरामद हो रही थी, जैसे चिड़ियां चहकें , ऐसे वो लड़कियां बोल रही थीं। कितनी ही बड़ी-बड़ी और शोख़ निगाहें थीं। फ़िज़ा में अबाबीलों की तरह तैरती हुईं और सड़क पार करके उसके ठेले की तरफ़ बढ़ने लगीं।<br />
<br />
अचानक पारो की निगाहें नए ठेले वाले की तरफ़ उठीं ।<br />
<br />
वो रुक गई।<br />
<br />
उसकी सहेलियाँ भी रुक गईं।<br />
<br />
वो सांस लिए बग़ैर पारो की तरफ़ देखने लगा।<br />
<br />
पारो ने एक उचटती सी निगाह चन्द्रु के ठेले पर डाली। फिर नख़वत से उसने मुँह फेर लिया और इक अदा-ए-ख़ास से मुड़कर अपनी सहेलियों को लेकर नए ठेले वाले के पास पहुंच गई। तुम भी? तुम भी? पारो तुम भी?<br />
<br />
चन्द्रु का चेहरा ग़ुस्से और शर्म से लाल हो गया। रगों और नसों में ख़ून गूँजने लगा। जैसे उसका हलक़ ख़ून से भर गया हो। वो कुछ बोल नहीं सका। मगर उसे देखकर लगता था जैसे वो बोलने की कोशिश कर रहा हो। वो उस मोटी दीवार को तोड़ देगा जो उसकी रूह का अहाता किए हुए थी। उसके चेहरे को देखकर लगता था जैसे वो अभी चीख़ कर कहेगा, "तुम भी! तुम भी? पारो...तुम भी!" मगर ख़ून उसके हलक़ में भर गया था। उसके कान किसी बढ़ते हुए तूफ़ान की आवाज़ें सुन रहे थे और उसका सारा बदन थर-थर काँप रहा था गोया कोई आख़िरी कोशिश किसी लोहे की दीवार से टकरा कर टूट गई थी और वो सर झुका कर अपने ग्राहकों की तरफ़ मुतवज्जा हो गया।<br />
<br />
मगर इस बेचैन पाज़ेब की खनक अभी तक उस के दिल में थी। पारो और उसकी सहेलियाँ नए ठेले वाले के गर्द जमा अन्वा-ओ-इक़साम की चाटें खाए चली जा रही थीं और बीच बीच में तारीफ़ें करती जा रही थीं । इन सब में पारो की आवाज़ सबसे ऊंची थी।<br />
<br />
"हाय कैसी लज़ीज़ चाट है। कैसे बराबर के मसालहे हैं। उस मुए (नाम न लेकर महज़ इशारा करके) पुराने ठेले वाले को तो चाट बनाने की तमीज़ ही नहीं है। अब तक झूटी पत्तलों में चाट खिलाता रहा है।"<br />
<br />
"अरी उसके हात तो देखो..." पारो ने चमक कर चन्द्रु की तरफ़ इशारा किया।<br />
<br />
"कैसे गंदे और ग़लीज़...मालूम होता है सात दिन से नहाया नहीं..."<br />
<br />
"एक नैपकिन तो नहीं उसके पास। जब हाथ पोंछने के लिए माँगो वही अपना गंदा मैला तौलिया आगे कर देता है।"<br />
"उंह..." पारो आग के पतले पतले होंट नफ़रत से ख़म हो गए। "मैं तो कभी इस चाट वाले के ठेले पर थूकुं भी ना।"<br />
<br />
इसके आगे चन्द्रु कुछ सुन न सका। एक लाल आंधी उसकी आँखों में छागई। वो गूंगों की सी एक वहशतज़दा चीख़ के साथ अपना ठेला छोड़कर आगे बढ़ा और उसने नए ठेले वाले को जा लिया और उससे गुत्थम गुत्था हो गया। लड़कियां चीख़ मार कर पीछे हट गईं। चन्द्रु नए ठेले वाले और उसके छोकरे दोनों पर भारी साबित हुआ। चन्द्रु एक वहशी जानवर की तरह लड़ रहा था। उसने नए ठेले वाले को मार मार कर उसका भुरकस निकाल दिया। उसके ठेले के सारे कांच तोड़ डाले। छोकरे की पिटाई की। नया ठेला मा अपने साज़ो सामान के सड़क पर औंधा दिया। फिर सड़क के बीच खड़ा हो कर ज़ोर ज़ोर से हांपने लगा।<br />
<br />
पुलिस आई और उसे गिरफ़्तार करके ले गई।<br />
<br />
अदालत में उसने अपने जुर्म का इक़बाल कर लिया। अदालत ने उसे दो माह क़ैद की सज़ा दी और पान सौ रुपया जुर्माना और जुर्माना न देने पर चार माह क़ैद बा मशक़्क़त।<br />
<br />
सिद्धू हलवाई ने जुर्माना नहीं भरा।<br />
<br />
और दूसरा कौन था जो जुर्माना अदा करता?<br />
<br />
चन्द्रु ने पूरे छः माह की जेल काटी।<br />
<br />
जेल काट कर चन्द्रु फिर सिद्धू हलवाई के घर पहुंच गया। कोई दूसरा उस का ठिकाना भी नहीं था। सिद्धू हलवाई पहले तो उसे देर तक गालियां देता रहा और उसकी हमाक़त पर उसे बेनुक़त सुनाता रहा और देर तक चन्द्रु सर झुकाए ख़ामोशी से सब कुछ सुनता रहा। अगर वो गूँगा भी न होता तो किस से कहता। उसका जुर्म ये नहीं था कि उसने एक ठेले वाले को मारा था। उसका जुर्म ये था कि उसने एक पाज़ेब की खनक सुनी थी।<br />
<br />
जब सिद्धू हलवाई ने ख़ूब अच्छी तरह गालियां देकर अपने दिल की भड़ास निकाल ली तो उसने उसे फिर काम पर लगा लिया। आख़िर क्या करता? चन्द्रु बेहद ईमानदार, मेहनती और अपने काम में मश्शाक़ था। अब जेल काट के आया है तो थोड़ी सी अक़ल भी आगई होगी कि क़ानून को अपने हात में लेने का क्या नतीजा होता है। उसने ख़ूब अच्छी तरह समझा-समझा के दो-तीन दिन के बाद फिर से चन्द्रु को उसी अड्डे पर ठेला देकर रवाना कर दिया।<br />
<br />
चन्द्रु की गैरहाज़िरी में सिद्धू ने एक अच्छा काम किया था। उसने चन्द्रु के ठेले पर नया रंग रोग़न करा दिया था। कांच भी लगा दिया था। पत्तलों की जगह कुछ सस्ती क़िस्म की चीनी की प्लेटें और कुछ चमचे भी रख दिए थे।<br />
<br />
चन्द्रु छः माह बाद फिर से ठेला लेकर रवाना हुआ। आठवीं, दसवीं और ग्यारहों सड़क पार करके लिंकिंग रोड के नाके पर आया। यूनीयन बंक से घूम कर टेलीफ़ोन ऐक्सचेंज के पास पहुंचा। उसने देखा जहां पर पहले उसका ठेला था अब उस जगह उस नए ठेले वाले ने क़ब्ज़ा कर लिया था। वही छोकरा है, वही ठेले वाला है। उस ठेले वाले ने घूर कर चन्द्रु को देखा। चन्द्रु ने अपनी नज़रें चुरा लीं। उसने नए ठेले वाले से कुछ फ़ासले पर ऐक्सचेंज के एक तरफ़ अपना ठेला रोक दिया और ग्राहकों का इंतिज़ार करने लगा।<br />
<br />
चार बज गए, पाँच बज गए, छः बज गए। कोई गाहक उसके पास नहीं फटका। दो एक गाहक आए मगर वो नए थे और उसे जानते नहीं थे। चार छः आने की चाट खा कर चल दिए। अफ़्सुर्दा दिल चन्द्रु सर झुकाए अपने आपको मसरूफ़ रखने की कोशिश करने लगा। कभी तौलिया लेकर कांच चमकाता। डोई डाल कर घड़े में मसालहेदार पानी को हिलाता। अँगीठी में आँच ठीक करता। हौले-हौले आलू के भरते में मटर के दाने और मसालहे डाल कर टिकियां बनाता रहा।<br />
<br />
फिर यकायक उसके कानों में पाज़ेब की खनक सुनाई दी। दिल ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगा। ख़ून रुख़्सारों की तरफ़ दौड़ने लगा। वो अपने झुके हुए सर को ऊपर उठाना चाहता था। मगर उसका सर ऊपर नहीं उठता था...पाज़ेब की खनक अब सड़क पर आगई थी।<br />
<br />
फिर जिस्म-ओ-जां का ज़ोर लगा कर उसने अपनी गिरी हुई गर्दन को ऊपर उठायाओर जब देखा तो उसकी आँखें पारो पर जमी की जमी रह गईं। उसके हाथ से डोई गिर गई और तौलिया उसके कांधे से उतरकर नीचे बाल्टी में भीग गया और एक गाहक ने क़रीब आकर कहा,<br />
<br />
"मुझे दो समोसे दो।"<br />
<br />
मगर उसने कुछ नहीं सुना। उस के बदन में जितने हवास थे, जितने एहसास थे, जितने जज़्बात थे सब खिंच कर उसकी आँखों में आगए थे। अब उसके पास कोई जिस्म न था। सिर्फ़ आँखें ही आँखें थीं।<br />
<br />
ये उसका ठेला था। वो चंद क़दम पर दूसरा ठेला था और वो तके जा रहा था। पारो किधर जाएगी? हौले-हौले सरगोशियों में बात करते हुए गाहे-गाहे उसकी तरफ़ देखते हुए लड़कियां सड़क पर चलते हुए उन दोनों ठेलों के क़रीब आरही थीं। जे़रे लब बहस धीरे धीरे साथ साथ चल रही थी ।<br />
<br />
यकायक जैसे इस बहस का ख़ातमा हो गया। लड़कियों ने सड़क पार करके नए ठेले वाले के ठेले को घेर लिया।<br />
मगर चन्द्रु की निगाहें नए ठेले वाले की तरफ़ नहीं फिरीं। वो इस ख़ला में देख रहा था, गली और सड़क के संगम पर, जहां आज छः माह के बाद उसने पारो को देखा था। वो सर उठाए दुनिया व माफ़ीहा, गिर्द-ओ-पेश से बेख़बर उधर ही देखता रहा।<br />
<br />
वो पत्थर की तरह खड़ा सिर्फ़ ख़ला में देख रहा था।<br />
<br />
यकायक बड़ी तेज़ी से अकेली पारो अपनी सहेलियों से कट कर उसके ठेले पर आगई और चुप-चाप उसके सामने एक मुजरिम की तरह खड़ी हो गई।<br />
<br />
उसी लम्हा गूँगा फूट फूटकर रोने लगा।<br />
<br />
वो आँसू नहीं थे। अलफ़ाज़ थे...शुक्राने के। दफ़्तर थे शिकायतों के... उबलते हुए आँसू... फ़सीह और बलीग़ जुमलों की तरह उसके गालों पर बहते आरहे थे और पारो सर झुकाए सुन रही थी।<br />
<br />
अब पारो गूँगी थी और चन्द्रु बोल रहा था। अरे वो कैसे कहे उस पगले से कि पारो ने भी तो छः माह इन्हीं आँसूओं का इंतिज़ार किया था।</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A5%87%E0%A4%9F_%E0%A4%95%E0%A5%87_%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%AE_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%BE_/_%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8&diff=44175क्रिकेट के जन्म की लोककथा / कांति कुमार जैन2024-03-18T22:03:46Z<p>अनिल जनविजय: '{{GKCatLekh}} उस समय मुझे यह पता नहीं था कि जिसे सारी दुनिया...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
<hr />
<div>{{GKCatLekh}}<br />
उस समय मुझे यह पता नहीं था कि जिसे सारी दुनिया क्रिकेट के नाम से जानती है, वह हम बैकुंठपुर के लड़कों का पसंदीदा खेल रामरस है. ओडगी जैसे पास के गांवों में रामरस को गढ़ागेंद भी कहते थे, पर सिविल लाइंस में रहनेवाले हम लोगों को रामरस नाम ही पसंद था. रामरस यानी वह खेल, जिसे खेलने में राम को रस आता था. अब आप यह मत पूछिएगा कि राम कौन? अरे राम-राजा राम, अयोध्या के युवराज, त्रेता युग के मर्यादा पुरुषोत्तम दशरथनंदन राम. मुझे राम और रामरस के सम्बंधों का पता नहीं था. वह तो अचानक ही खरबत की झील के किनारे मुझे जगह-जगह पर पत्थर के रंगबिरंगे गोल टुकड़े पड़े मिले- टुकड़े क्या- बिल्कुल क्रिकेट की गेंद जैसे आकार वाले ललछौंहे रंग के पत्थर. खरबत झील से लगा हुआ खरबत पहाड़ है. बैकुंठपर से कोई सात मील यानी लगभग चार कोस दूर. इतवार की सुबह हमने तय किया कि आज खरबत चला जाए, वहीं नहाएंगे, तैरेंगे और झरबेरी खाएंगे. हम लोगों ने यानी मैंने और जीतू ने, जीतू मेरा बालसखा था. मेरे हरवाहे का लड़का- हम उम्र, हम रुचि. साइकिल थी नहीं तो हम लोग पैदल ही खरबत नहाने निकले. रास्ता सीधा था. छायादार. पास के गांव यानी नगर के तिगड्डे से बिना मुड़े सीधे सामने चले चलो. खरबत की झील आ जाएगी. सामने पहाड़, हरा-भरा जंगल. खरबत की झील का जल इतना पारदर्शी और निर्मल था कि चेहरा देख लो. हम लोगों ने निर्मल जल में सिर डुबोया ही था कि टकटकी बंध गयी. जल में यह किसका प्रतिबिम्ब है? आईने में अपने चेहरे का प्रतिबिम्ब तो रोज़ ही देखते थे, पर वह चेहरा इतना सुंदर और मनोहारी होगा, यह कभी लगा ही नहीं. वह तो अच्छा हुआ कि उस समय तक मैंने नारसीसस की कथा नहीं पढ़ी थी अन्यथा मैं अपना प्रतिबिम्ब छूने के लिए नीचे झुकता और कुमुदिनी बनकर खरबत झील में अब तक डूबा होता. झील में कुमुदिनी के फूलों की कमी नहीं थी- कुमुदिनी को वहां के लोग कुईं कहते अर्थात मुझसे पहले भी मेरी वय के लड़के वहां पहुंचे थे, उन्होंने जल में अपना प्रतिबिम्ब निहारा था और इस प्रतिबिम्ब को छूने या चूमने के लिए नीचे झुके थे और गुड़प-उनकी वहां जल समाधि हो गयी होगी और कालांतर में वहां कुईं का फूल उग आया होगा.<br />
<br />
कभी-कभी अज्ञान भी कितना लाभदायी होता है. असल में कुईं के फूलों की तुलना में खरबत की झील और खरबत पहाड़ के बीच के मैदान में ललछौहें रंग के जो गोल-गोल पत्थर पड़े थे, उनमें हम लोगों का मन ज्यादा अटका हुआ था. समझ में नहीं आया कि इतने सारे पत्थर, वह भी एक ही रंग के सारे मैदान में क्यों बिखरे हैं. एक पत्थर उठाया, देखा वह मृदशैल का था- रंध्रिल, हल्का, स्पर्श-मधुर. इतने में वहां से एक बुड्ढा गुजरा. मैंने उसे बुड्ढा नहीं कहा. कहा- सयान, एक गोठ ला तो बता. सयान कहने से वह बुड्ढा खुश हो गया, उसे लगा कि हम उसे सम्मान प्रदान कर रहे हैं. वह रुका- बोला, ‘नगर के छौंड़ा हौ का?’<br />
<br />
हम लोग बैकुंठपुर के लड़के थे, बैकुंठपर रियासत की राजधानी थी, उसे सभी कोरियावासी नगर ही कहते थे. उसने- सयाने, अनुभवी पुरुष ने हमें बताया कि खरबत पहाड़ पर गेरू की खदाने हैं. ज़ोर की हवा चलती है तो वहां के पत्थर लुढ़कते हुए नीचे आते हैं, गेरू से लिपटे हुए. इतने ज़ोर की आंधी और शिखर से तल तक आने में इतनी रगड़ होती है कि पत्थरों के सारे कोने घिस जाते हैं और पत्थर बिल्कुल गोल बटिया बन जाते हैं. वह बैठकर वहीं चोंगी सुलगाने लगा. रसई के पत्ते की चोंगी में उसने माखुर भरी, टेंट से चकमक पत्थर निकाला, बीच में सेमल की रुई अटकायी और पत्थरों को रगड़ा ही था कि भक्क से आग जल गयी. दो- चार सुट्टे ही लिये होंगे कि उसकी कुंडलिनी जाग्रत हो गयी. अब उसके लिए न काल की बाधा थी, न स्थान की. काहे का कलयुग, काहे का द्वापर. मैंने जीतू से कहा कि यार, नहाएंगे बाद में, पहले इन गोल-गोल गेदों को बीनो और झोले में भर लो- जितनी आ जाएं. ‘कांति भैया, अपन इन टुकड़ों का करेंगे क्या?’ मैं बोला- ‘करेंगे क्या, इन पर साड़ी की किनारी लपेटेंगे, चकमकी मिट्टी का पोता फेरेंगे और रामरस खेलेंगे.’ रामरस सुनना था कि छत्तीसगढ़ का वह सयाना चैतन्य हुआ, उसने अपनी चोंगी से इतने ज़ोर का सुट्टा लिया कि लौ तीन बीता ऊपर उठ गयी. शायद वह त्रेता युग में पहुंच गया था. वह राम-लक्ष्मण को रामरस खेलते देख रहा था. इतने में एक सारस आया, वह हम लोगों से थोड़ी दूर पर एक टांग के बल खड़ा हो गया, उद्ग्रीव. ठीक वैसे ही जैसे कोई दर्शक क्रिकेट मैच में खिलाड़ी को बैटिंग करते देख रहा हो. ‘ध्यानावस्थित, तदगतेन मनसा.’<br />
<br />
हम लोग उस सयाने के पास बैठ गये. वह सयाना सचमुच सयान था, सज्ञान, सुजान. हमें लगा कि वह सदैव से सयाना था, न कभी वह बालक रहा था, न तरुण, जैसा वह त्रेता में था, वैसा ही आज भी है. वह चोंगी का एक कश लेता, सरई के पत्ते की मोटी बीड़ी से लौ उठाता और एक युग पार कर लेता. तीसरे कश में तो वह जैसे राम के युग में ही पहुंच गया. कहने लगा कि राम, सीता और लखन भैया वनवास मिलने पर चित्रकूट से सीधे खरबत आये. सीधे अर्थात चांगभखार के रास्ते से, जनकपुर, भरतपुर होते हुए. खरबत की झील देखकर सीता ने ज़िद पकड़ ली- बस, कुछ दिन यहीं रहूंगी. कहां रहोगी, न यहां कंदरा, न गुफा. न मठ, न मढ़ी. लखन भैया ने कोई बहस नहीं की. अपनी धनुही उठायी, कांधे पर तूणीर टांगा और खरबत पहाड़ी की टोह लेने निकल गये. जिन खोजा तिन पाइयां. बड़के भैया और भाभी वहां झील तीरे चुपचाप बैठे थे. राम कह रहे थे- थोड़ा आगे चलो, सरगुजा में एक बोंगरा है. लम्बी खुली गुफा. वह स्थल भी बड़ा सुरम्य है. वहां के निवासी भी बड़े अतिथि-वत्सल हैं, पर सीताजी रट लगाये बैठी थीं- खरबत, खरबत. लक्ष्मण ने लौटकर अग्रज को बताया कि यहां से कोसेक की दूरी पर तीन गुफाएं प्रशस्त हैं, स्वच्छ हैं, जलादि की सारी सुविधाएं हैं. हम लोग चातुर्मास यहीं बिता सकते हैं. तो ठीक है, भाभी को ले जाओ, दिखाओ, उन्हें पसंद आती है तो हम लोग चार महीने यहीं रहेंगे. गुफाओं को देखकर सीताजी प्रसन्न हो गईं। उन्हें अपने मायके मिथिला की याद आई। ऐसी ही हरीतिमा, ऐसा ही प्रकाश, ऐसा ही मलय समीर. ‘लखन भैया, तुम इस गुफ़ा में रहना, यहाँ मेरा रंधाघर होगा.’ सीताजी ने वहाँ की रसोई को रसोई न कहकर त्रियों की तरह रंधनगृह कहा. ‘यह गुफा थोड़ी बड़ी है- इसमें हम दोनों रहेंगे.’ राम ने भी गुफाओं को देखकर सीताजी के मत की पुष्टि की. चतुर पतियों की तरह. ‘चलो, यहां सीता का मन लगा रहेगा.’ खरबत में राम-परिवार के चार माह बड़े आराम से कटे. विहान स्नान-ध्यान में कटता, प्रातः जनसंपर्क के लिए नियत था. त्रियां भी आतीं, पुरुष भी. मध्याह्न में दोनों भाई आखेट के लिए निकल जाते. यही समय फल-फूल, कंदमूल के संचय का होता. आखेट से लौटने के बाद वे क्या करें? एक सांझ लखनलाल ने दादा से कहा- ‘दादा, शाम को हम लोग कोई खेल खेलें.’ ‘क्या खेल खेलें?’ लक्ष्मण बड़े चपल, बड़े कौतुक प्रिय, बड़े उत्साही. बोले- ‘खरबत पहाड़ के नीचे जगह-जगह गोल-गोल पत्थर पड़े हुए हैं- ललछौंहे रंग के, बिलकुल कंदुक इव. मैं कल भाभी से उनकी सब्जी काटने का पहसुल मांग लूंगा और उससे महुआ की छाल छील लाऊंगा. महुआ की छाल यों ही लसदार होती है. खूब कसकर पाषाण कंदुक पर लपेटेंगे तो एक आवेष्टन बन जाएगा. उससे चोट नहीं लगेगी.’<br />
<br />
दूसरे दिन लखन सचमुच मधूक वृक्ष का वल्कल ले आये. ललछौंहे पाषाण खंड पर मधूक वल्कल का वह एक आवेष्टन ऐसे चिपका कि गेंद और परिधान का अंतर ही मिट गया. राम को एक उपाय सूझा. उन्हें याद आयी कि सीता के पास एक पुरानी साड़ी है. उसकी किनारी बड़ी सुंदर है- चमकीली. गोटेदार. यदि उस किनारी को मधूक आवेष्ठन पर लपेट दिया जाए तो गेंद के आघात का कोई दुष्प्रभाव नहीं होगा. लखनलाल को अब कंदुक क्रीड़ा की कल्पना साकार होती हुई लगी. लखन पास के ही एक गर्त से चकमिकी मिट्ठी उठा लाये. चकमिकी यानी चकमक वाली. बैकुंठपुर में नदी-नालों की सतह पर जो चकमिकी मिट्टी दिखाई पड़ती है, वह और कुछ नहीं, अभ्रक है.<br />
<br />
लखन की लायी हुई अभ्रक में गेंद को लिथड़ाया जा रहा है. सीता देखकर हंस रही हैं- ‘अरे, ये काम तुम लोगों के नहीं हैं, तुम लोग तो तीर-धनुष चलाओ.’ वह सरई के पत्तों की चुरकी में झील से थोड़ा-सा जल भर लायी हैं. अभ्रक पर उन्होंने जल सिंचन किया है. थोड़ा-सा जल अपनी हथेलियों में लेकर गेंद को भी आर्द्र किया है. अरे, गेंद तो अब चमकने लगी है. अब अंधेरा भी होये तो गेंद गुमेगी नहीं, दिखती रहेगी. खेल के नियम तय किये जा रहे हैं. राम ने सात खपड़ियों को लेकर तरी ऊपर जमा लिया है- खपड़ी यानी खपरे के टुकड़े, तरी ऊपर यानी नीचे-ऊपर. राम ने उन सात खपड़ियों की सुरक्षा का भार स्वतः स्वीकार किया है यानी बल्लेबाजी. लखनजी को गेंद ऐसे फेंकनी थी कि सात खपड़ियों वाला स्तूप ढह जाए. राम जी सावधान-सतखपड़ी के सामने ऐसी वीर मुद्रा में खड़े होते कि लखनजी को लक्ष्य पर आघात का मौका ही नहीं मिलता. इधर लखनजी ने गेंद फेंकी, उधर रामजी ने उस गेंद को ऐसे ठोका कि कभी सामने खड़े आंवले के तने से टकराती, कभी दायें फैली खरबत पहाड़ी की तलहटी से. कभी-कभी तो रामजी अपना बल्ला ऐसे घुमाते कि गेंद खरबत झील का विस्तार पार कर उस पार. अब लखनजी गेंद के संधान में लगे हैं. दिन डूब जाता, सूर्यदेव अस्त हो जाते. दोनों भाई गुफा में वापस लौटते. क्लांत. भाभी देवर से मज़ाक करती- ‘आज फिर दिनबुड़िया. दिनबुडिया यानी दिन डूब गया है और तुम दांव दिये जा रहे हो.’ लखन कहते- ‘भाभी, भैया ने बहुत दौड़ाया. बल्ला ऐसे घुमाते हैं कि जैसे उनके बल्ले में चुम्बक लगा हो, गेंद कैसे भी फेंको, भैया, उसे धुन ही देते हैं.’ दो-एक दिन तो ऐसे ही चला, फिर सीताजी ने मध्यस्थता की. उन्हें देवर पर दया आयी- ‘कल से तुम दोनों बारी-बारी से कंदुक बाजी और बल्लेबाजी करोगे. मैं तुम दोनों भाइयों का खेल देखूंगी. कोई नियम विरुद्ध नहीं होना चाहिए.’<br />
<br />
रामजी को मर्यादा का बड़ा ध्यान रहता है. ये मर्यादा पुरुषोत्तम यों ही तो नहीं कहलाते. फिर सीताजी जैसी निर्णायक. खेल में वे कोई पक्षपात नहीं करतीं. गोरे देवर, श्याम उन्हीं के ज्येष्ठ हैं. फिर दर्शक दीर्घा में सारस भी तो हैं- एक टांग पर खड़े क्रीड़ा का आनंद उठाते हुए. निर्णय देने में ज़रा-सी चूक हुई कि सारस वृंद क्रीं-क्रीं करने लगता है. रामरस की ऐसी धूम मची कि खरबत के आदिवासी युवा तो वहां समेकित होने ही लगे, बैकुंठपुर, नगर, ओड़गी के तरुण भी खेल देखने के लिए एकत्र हो रहे हैं. चतुर्दिक रामरस का उन्माद छाया हुआ है. राम के परिवार में आनंद ही आनंद है. लोक से जुड़ने का संयोग अलग से. रामजी ने देखा कि आस-पास के गांवों के युवा भी इस खेल में सम्मिलित होना चाहते हैं. उन्होंने सीताजी से परामर्श किया, लखनभाई से भी पूछा. सब खेल को व्यापक आधार देने के पक्ष में हैं. अगले दिन से अभ्यास पर्व मनाये जाने की घोषणा हुई. बल्ले सब अपने-अपने लायेंगे. शाखाएं चुनी जा रही हैं, टंगिया से डालें काटी जा रही हैं, हंसिया से उन्हें छीला जा रहा है. ऊपर का भाग पतला – मूठवाला. हाथ से पकड़ने में आसानी हो. नीचे का भाग चौड़ा, समतल. बल्ला तैयार हो गया तो उसे मंदी आंच पर तपाया जा रहा है. सामने से कितनी भी तेज गेंद आये, बल्लेबाज का बल्ला उसे ऐसे ठोके कि सीमा के पार. राम नवमी के दिन राम और लखन के दल में विशेष प्रतिस्पर्धा होगी. गांव के सयाने आमंत्रित हैं- खरबत के ही नहीं, आसपास के गांवों के भी. नगर के, ओड़गी के. निर्णय निष्पक्ष होना चाहिए. एक चत्वर बनाया गया. धर्माधिकारी उस चत्वर पर बैठेंगे, वाद-विवाद होने पर पंचाट का निर्णय सर्वमान्य होगा. रामरस मर्यादा का खेल है, भद्रजनों का. रामरस से मर्यादा के जो नियम निर्धारित हुए थे, वे आज भी न्यूनाधिक परिवर्तन के साथ अक्षुण्ण रूप से प्रचलित हैं. अब लोग उसे रामरस नहीं कहते, क्रिकेट कहते हैं, पर नाम में क्या धरा है- आज जब कोई कहता है ‘ये तो क्रिकेट नहीं है’ तो भैया, हमारी तो छाती चौड़ी हो जाती है. बैकुंठपुर में क्रिकेट के पूर्वज रामरस का बचपन बीता. छत्तीसगढ़ में क्रिकेट का पहला मैच खेला गया.<br />
<br />
वह सयाना त्रेता युग की पूर्व स्मृतियों में खो गया. उसकी चोंगी की लौ धीरे-धीरे मंदी पड़ रही थी. उसने उस ओर देखा जिस ओर सारस खड़े थे. वह जानता था कि सारस रामरस के ऐसे दर्शक हैं, जिन्हें न भूख व्यापती है, न प्यास. वे रात-दिन रामरस में ऐसे डूबे रहते हैं कि खेलने वाले थक जाएं, पर उन्हें कोई क्लांति नहीं होती. सीताजी की रसोई तैयार थी- आयीं. दोनों भाइयों को ब्यालू की सूचना दी. सभी सयानमन से कहा- ‘दादाजी, आप भी ब्यालू हमारे साथ ही करें.’ धर्मरक्षक लोगों से भी आग्रह किया कि ब्यालू के बाद ही जाइएगा. हम लोगों को लगा कि हम भी त्रेता युग में हैं. सीताजी ने, लखनलाल ने, दादा राम ने भी रोका, पर हम लोग रुके नहीं. घर में बोलकर नहीं आये थे, कौन विश्वास करेगा. पिताजी को पता चलेगा तो सौ सवालों का जवाब देना पड़ेगा. हम लोगों ने कहा- दीदी, हम लोग बराबर आते रहेंगे. हम लोगों को भी रामरस में रस आने लगा है. रामरस में कौन अभागा है, जिसे आनंद न आये?<br />
<br />
(फ़रवरी, 2014 में पत्रिका ’नवनीत’ में प्रकाशित)</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8&diff=44174कांति कुमार जैन2024-03-18T21:58:33Z<p>अनिल जनविजय: </p>
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<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=Kanti Kumar- Jain.gif <br />
|नाम=कांति कुमार जैन <br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=09 सितम्बर 1932<br />
|मृत्यु=27 अप्रैल 2021<br />
|जन्मस्थान=देवरीकलाँ, सागर, मध्य प्रदेश<br />
|कृतियाँ=बैकुंठपुर में बचपन, महागुरु मुक्तिबोध : जुम्मा टैंक की सीढ़ियों पर, इक्कीसवीं शताब्दी की हिंदी आदि<br />
|विविध=डॉ कांतिकुमार जैन ने संस्मरण लेखन को एक नई पहचान दी। वे माखनलाल चतुर्वेदी पीठ, मुक्तिबोध पीठ, <br />
और बुन्देली शोध पीठ के अध्यक्ष रहे । उन्होंने ‘छत्तीसगढ़ की जनपदीय शब्दावली’ पर विशेष शोधकार्य किया ।प्रोफेसर जैन की किताबों में छत्तीसगढ़ी बोली का व्याकरण और कोश, भारतेन्दु पूर्व हिन्दी गद्य, कबीरदास, इक्कीसवीं शताब्दी की हिन्दी, छायावाद की मैदानी और पहाड़ी शैलियाँ, शिवकुमार श्रीवास्तव : शब्द और कर्म की सार्थकता, सैयद अमीर अली ‘मीर’, लौटकर आना नहीं होगा, तुम्हारा परसाई, जो कहूँगा सच कहूँगा, बैकुण्ठपुर में बचपन, महागुरु मुक्तिबोध : जुम्मा टैंक की सीढ़ियों पर, पप्पू खवास का कुनबा, लौट जाती है उधर को भी नज़र आदि प्रमुख हैं। उन्होंने बुन्देलखण्ड की संस्कृति पर केन्द्रित ‘ईसुरी’ नामक शोध पत्रिका का संपादन किया। डॉक्टर जैन ने ‘भारतीय लेखक’ के परसाई अंक का ‘परसाई की खोज’ के नाम से अतिथि संपादन भी किया । उन्हें – 2012 में मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन का प्रतिष्ठित भवभूति अलंकरण प्रदान किया गया था।<br />
|अंग्रेज़ीनाम=kranti kumar jain<br />
|जीवनी=[[कांति कुमार जैन / परिचय]]<br />
}}<br />
{{GKCatMadhyaPradesh}}<br />
====आलेख====<br />
* [[एक पहाड़ी मैना की मौत / कांति कुमार जैन]] <br />
* [[क्षतशीश किन्तु नतशीश नहीं / कांति कुमार जैन]]<br />
* [[क्रिकेट के जन्म की लोककथा / कांति कुमार जैन]]</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8&diff=44173कांति कुमार जैन2024-03-18T21:53:41Z<p>अनिल जनविजय: </p>
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<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=Kanti Kumar- Jain.gif <br />
|नाम=कांति कुमार जैन <br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=09 सितम्बर 1932<br />
|मृत्यु=27 अप्रैल 2021<br />
|जन्मस्थान=देवरीकलाँ, सागर, मध्य प्रदेश<br />
|कृतियाँ=बैकुंठपुर में बचपन, महागुरु मुक्तिबोध : जुम्मा टैंक की सीढ़ियों पर, इक्कीसवीं शताब्दी की हिंदी आदि<br />
|विविध=डॉ कांतिकुमार जैन ने संस्मरण लेखन को एक नई पहचान दी। वे माखनलाल चतुर्वेदी पीठ, मुक्तिबोध पीठ, <br />
और बुन्देली शोध पीठ के अध्यक्ष रहे । उन्होंने ‘छत्तीसगढ़ की जनपदीय शब्दावली’ पर विशेष शोधकार्य किया ।प्रोफेसर जैन की किताबों में छत्तीसगढ़ी बोली का व्याकरण और कोश, भारतेन्दु पूर्व हिन्दी गद्य, कबीरदास, इक्कीसवीं शताब्दी की हिन्दी, छायावाद की मैदानी और पहाड़ी शैलियाँ, शिवकुमार श्रीवास्तव : शब्द और कर्म की सार्थकता, सैयद अमीर अली ‘मीर’, लौटकर आना नहीं होगा, तुम्हारा परसाई, जो कहूँगा सच कहूँगा, बैकुण्ठपुर में बचपन, महागुरु मुक्तिबोध : जुम्मा टैंक की सीढ़ियों पर, पप्पू खवास का कुनबा, लौट जाती है उधर को भी नज़र आदि प्रमुख हैं। उन्होंने बुन्देलखण्ड की संस्कृति पर केन्द्रित ‘ईसुरी’ नामक शोध पत्रिका का संपादन किया। डॉक्टर जैन ने ‘भारतीय लेखक’ के परसाई अंक का ‘परसाई की खोज’ के नाम से अतिथि संपादन भी किया । उन्हें – 2012 में मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन का प्रतिष्ठित भवभूति अलंकरण प्रदान किया गया था।<br />
|अंग्रेज़ीनाम=kranti kumar jain<br />
|जीवनी=[[कांति कुमार जैन / परिचय]]<br />
}}<br />
{{GKCatMadhyaPradesh}}<br />
====आलेख====<br />
* [[एक पहाड़ी मैना की मौत / कांति कुमार जैन]] <br />
* [[क्षतशीश किन्तु नतशीश नहीं / कांति कुमार जैन]]</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Kanti_Kumar-_Jain.gif&diff=44172चित्र:Kanti Kumar- Jain.gif2024-03-18T21:43:30Z<p>अनिल जनविजय: </p>
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<div></div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%A8%E0%A4%BE_%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%BC%E0%A4%BE%E0%A4%B0_/_%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%A8_%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%B0&diff=44171मीना बाज़ार / कृश्न चन्दर2024-03-18T21:35:51Z<p>अनिल जनविजय: '{{GKCatKahani}} इंसान की हैसियत हमेशा न्यायिक फैसलों पर असर-...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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<div>{{GKCatKahani}}<br />
इंसान की हैसियत हमेशा न्यायिक फैसलों पर असर-अंदाज़ रही है। हिल स्टेशन पर आयोजित हुए उस एक ब्यूटी कॉम्पीटिशन में भी कुछ ऐसा ही हुआ था। कॉम्पीटिशन में शामिल होने वाली सबसे ख़ूबसूरत लड़की को नज़र-अंदाज़ कर के कमीश्नर साहब की उस बेटी को अवॉर्ड दे दिया गया जिसके बारे में कोई गुमान भी नहीं कर सकता था।<br />
<br />
दो आशिक़ों में तवाज़ुन बरक़रार रखना, जब के दोनों आई सी एस के अफ़राद हों, बड़ा मुश्किल काम है। मगर रम्भा बड़ी ख़ुश-उस्लूबी से काम को सर-अंजाम देती थी। उसके नए आशिक़ों की खेप उस हिल स्टेशन में पैदा हो गई थी। क्योंकि रम्भा बेहद ख़ूबसूरत थी। उसका प्यारा-प्यारा चेहरा किसी आर्ट मैगज़ीन के सर-ए-वर्क़ की तरह जाज़िब-ए-नज़र था। उसकी सुनहरी जिल्द नायलॉन की सत्ह की तरह बेदाग़ और मुलाइम थी। उसका नौजवान जिस्म नए मॉडल की गाड़ी की तरह स्प्रिंगदार नज़र आता था। <br />
<br />
दूसरी लड़कियों को देखकर ये एहसास होता था कि उन्हें उनके माँ बाप ने शायद औंधे सीधे ढंग से पाला है। लेकिन रम्भा किसी मॉर्डन कारख़ाने की ढाली हुई मालूम होती थी, उसके जिस्म के ख़ुतूत, उसके होंट, कान, नाक आँखें, नट बोल्ट, स्प्रिंग कमानियाँ, अपनी जगह पर इस क़दर क़ायम और सही और दुरुस्त मालूम होती थीं कि जी चाहता था रम्भा से उसके मेकर बल्कि मेन्यूफ़ेक्चरर का नाम पूछ के उसे ग्यारह हज़ार ऐसी लड़कियाँ सपलाई करने का फ़ौरन ठेका दे दिया जाये। <br />
<br />
जमुना, रम्भा की तरह हसीन तो ना थी। लेकिन अपना बूटा सा क़द लिए इस तरह हौले-हौले चलती थी जैसे झील की सतह पर हल्की-हल्की लहरें एक दूसरे से अठखेलियाँ करती जा रही हों उसके जिस्म के मुख़्तलिफ़ हिस्से आपस में मिल कर एक ऐसा हसीन तमूज पैदा करते थे जो अपनी फ़ितरत में किसी वाइलिन के नग़मे से मुशाबह था। स्टेशन की लोअर माल रोड पर जब वो चहल-क़दमी के लियें निकलती थी तो लोग उसके जिस्म के ख़्वाबीदा फ़ित्नों को देख-देख कर मबहूत हो जाते थे। <br />
<br />
ज़ुबैदा की आवाज़ बड़ी दिलकश थी और किसी हाई-फ़ाई रेडियो से मिलती जुलती थी। उसे देखकर किसी औरत का नहीं, किसी ग्रामोफोन कंपनी के रिकार्ड का ख़्याल आता था। वो हर वक़्त मुस्कुराती रहती, क्योंकि उस की साँवली रंगत पर उसके सफ़ेद दाँत बेहद भले मालूम होते थे। और जब वो कभी क़हक़हा मार कर हँसती तो ऐसा मालूम होता गोया नाज़ुक कांच के कई शेम्पेन गिलास एक साथ एक दूसरे से टकरा गए हों। ऐसी औरत के साथ क्लब में बैठ कर लोगों को बे पिए ही नशा हो जाता है। <br />
<br />
मृणालिनी की आँखें बड़ी उदास थीं और होंट बड़े ख़ूबसूरत थे। उसकी निगाहों की उदासी हल्के रंगों वाले गलीचे की तरह मुलाइम, मद्धम और ख़ुनुक थी। उन्हें देखकर जी चाहता था कि ज़िंदगी के पर-पेच और ख़ारदार रास्तों से गुज़रते हुए इन साया-दार पलकों के नीचे चंद लम्हे आराम और सुकून के बिताए जाएं। उसे देखकर उस रेस्तराँ की याद आती थी जो डायना पैक जाते हुए रास्ता में पड़ता है। घने देवदारों तले, मद्धम रौशनियों वाले बरामदे में ख़ामोशी और बा-अदब बैरे और ताज़ा लेम जूस। इस रेस्तराँ में बैठ कर मुहब्बत के मारों ने अक्सर मृणालिनी को याद किया है। और मृणालिनी को देखकर उन्हें अक्सर इस रेस्तराँ का ख़्याल आया है। बाज़ औरतें ऐसी ही ख़ूबसूरत होती हैं। <br />
<br />
रोज़ा गुलाब तो ना थी, लेकिन तितली की तरह ज़रूर थी। हर वक़्त थिरकती रहती और मंडलाती रहती, लेकिन मर्दों के इर्द-गिर्द नहीं, बल्कि डाँस हॉल में। रॉक एन रोल से मॉर्डन ट्विस्ट तक उसे हर तरह का नाच आता था। उसका सिर्फ एक आशिक़ था। हालाँकि कई हो सकते थे, मगर वो दो बरस से सिर्फ एक ही आशिक़ पर सब्र किए बैठे थी। क्योंकि वो उससे शादी करना। चाहती थी और शादी के लिए सब्र करना बेहद ज़रूरी है, चाहे वो अपना महबूब क्यों न हो, रोज़ा ने पीटर पर क़नाअत कर ली थी। मगर मुसीबत ये थी कि पीटर ने अभी तक सब्र न किया था। क्यों कि पीटर रोज़ा से भी बेहतर डाँसर था। और वो आई सी ऐस का अफ़्सर था और रंडुवा हो कर भी ऐसा कुँवारा धुला-धुला या मालूम होता था कि रम्भा ऐसी ख़ूबसूरत लड़की भी उसे लिफ़्ट देने लगती थी। गो रम्भा को रोज़ा किसी तरह अपने से बेहतर समझने पर तैयार ना थी। रोज़ा का जिस्म किसी बारह तेराह बरस के लड़के की तरह दुबला पुतला था। ऐसी ही उसकी आवाज़ थी। उसके लहरए दार कटे हुए बाल कितने ख़ूबसूरत थे। इन बालों को किसी ऑरकैस्टरा की याद ताज़ा होती थी। स्याह जीन्स में रोज़ा की लाँबी मख़रूती टांगें थीं। उसका सारा जिस्म किसी जैट हवाई जहाज़ की तरह नाज़ुक ख़तों का हामिल था। “हुँह रम्भा कौन होती है, पीटर को मुझसे छीन लेने वाली? “ <br />
<br />
ईला, जो किसी ज़माने में मिसेज़ केला चंद थीं और अब तलाक़ हासिल कर चुकी थीं। आज भी अपने नेपाली हुस्न से लोगों की आँखें ख़ीरा किए देती थीं। आरयाई हुस्न में चीनी हुस्न कुछ इस तरह घुल मिल गया था कि इन दोनों की आमेज़िश से जो मुजस्समा तैयार हुआ उसमें बिलकुल एक नए तरह की फ़बन और बांकपन था। ईला के कपड़े सारी हाई सोसाइटी में मशहूर थे। उसके हुस्न में जो कमी थी, ईला उसे कपड़ों से पूरा कर लेती थी। कपड़ों से और जे़वरात से। ईला के पास एक से एक ख़ूबसूरत जवाहरात के बढ़िया सेट थे। और आज से पाँच साल पहले ईला ने शिमला और दार्जिलिंग में एक सीज़न में दो ब्यूटी कम्पीटीशन जीते थे। गो कुछ लोगों के ख़्याल में अब वो पुराने मॉडल की गाड़ी थी। लेकिन मुसलसल झाड़ पोंछ, एहतियात और मालिश से उसकी आब-ओ-ताब ब-दस्तूर क़ायम थी। <br />
<br />
फिर हिल स्टेशन कमिशनर साहब की तीन लड़कीयाँ थीं, जिनके लिए चीफ़ कमिशनर साहब बहादुर को मुनासिब बरों की तलाश थी। उनके नाम बिल-तर्तीब सुधा,माधुरी और आशा थे। उन तीनों में आशा का शुमार तो खुले तौर पर बद-सूरतों में किया जा सकता था। अलबत्ता सुधा और माधुरी गो ख़ूबसूरत ना थीं, लेकिन निक-सुक दुरुस्त थीं। मगर चूँकि वो कमिशनर साहब की लड़कीयाँ थी, इसलिए उनका शुमार भी ख़ूबसूरत लड़कियों में होता था। बिलकुल उसी तरह जिस तरह आज हर मिनिस्टर की तक़रीर एक अदबी शाहकार समझी जाती है। <br />
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उनके इलावा सीता मल्होत्रा, बिर्जीस, अबदुर्रहमान, बलेसर कौर, पुष्पा राज़-दाँ, ख़ुरशीद गुरू वाला, और मेजर आनंद की लड़की गौरी वग़ैरा-वग़ैरा भी इस हिल स्टेशन के सालाना ब्यूटी कम्पीटीशन में शामिल थीं। जो अभी क्लब के लॉन में शुरू होने वाला था। ये ख़ूबसूरती का मुक़ाबला इस हिल स्टेशन का गोया सब से बड़ा क़ौमी त्योहार होता है। इस रोज़ कलब के लॉन में सैंकड़ों आदमी जमा हो जाते हैं। रंग-बिरंगी झंडियाँ, ज़र्क़-बर्क़ साड़ियों में मलबूस औरतें, सुनहरी बियर के सफ़ेद कफ़ से उबलते हुए जाम, हिस्सा लेने वाली लड़कियों के ख़ौफ़-ज़दा खोखले क़हक़हे, आशिक़ों और माँ-बापों की तिफ़्ल तसल्लियाँ, आख़िरी मिनट पर ब्लाउज़ बदलना और साड़ी की आख़िरी सिलवट दूर करना, आइने में देखकर भवों की कमान की आख़िरी नोक को तेज़ करना... बाप रे ये ब्यूटी कम्पीटीशन भी आई सी एस के कम्पीटीशन से किसी तरह कम नहीं है और कुछ हो ना हो, इसमें अव़्वल नंबर पाने वाली लड़की को बर तो ज़रूर मिल जाता है, और वो भी किसी ऊंचे दर्जे का। इसलिए हर सीज़न में दर्जनों लड़कीयाँ इसमें ख़ुशी ख़ुशी हिस्सा लेती हैं और माँ बाप ख़ुशी-ख़ुशी उनको इजाज़त दे देते हैं। <br />
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आज ब्यूटी कम्पीटीशन का फाईनल था। फाईनल के एक जज कुँवर बांदा सिंह रोहिल-खंड डिवीज़न के साबिक़ चीफ़ कमिशनर थे। दूसरे जज सर सुनार चंद थे। जिनके मुशायरे और कवी सम्मेलन हर साल दिल्ली मेँ धूम मचाते हैं। ये मान लिया गया था कि जो आदमी मुशायरे और कवी सम्मेलन कामयाब करा सकता है। वो औरतों को परखने का भी माहिर हो सकता है। फिर जजों की कमेटी के एक मेंबर साबिक़ जस्टिस देश पांडे भी चुन लिए गए थे। ता कि इन्साफ़ के पलड़े बराबर रहें। <br />
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एक मैंबर सय्यद इमतियाज़ हुसैन ब्राईट ला थे। जिनके मुताल्लिक़ मशहूर था कि हर-रोज़ अपनी बीवी को पीटते हैं। पांचवे जज कुमाऊँ के रईस आज़म दीवान बलराज शाह थे। जिनके मुताल्लिक़ ये मशहूर था कि उनकी बीवी हर-रोज़ पीटती है। मुक़ाबले की कौंसिल में जजों के दो नाम और पेश किए गए थे। एक तो हिन्दी के मशहूर कवी कुंज बिहारी शर्मा थे। जिन्हों ने ब्रज भाषा में औरतों के हुस्न पर बड़ी सुंदर कवीताएँ लिखी हैं। दूसरे क़मर ज्वेलर्ज़ के प्रोपराइटर क़मर-उद्दीन क़ुरैशी थे। जिनसे बेहतर जवाहरात के ज़ेवर यू. पी. में तो कोई बनाता नहीं। मगर ये दोनों हज़रात रईस ना होने की वजह से वोटिंग में हार गए। किसी औरत को जजों की कमेटी में नहीं लिया गया। क्योंकि ये एक तय-शुदा अमर है, कि हर औरत अपने से ज़्यादा हसीन किसी को नहीं समझती। अगर किसी औरत को जजों की कमेटी में शामिल कर लिया जाता तो वो मुक़ाबले में हिस्सा लेने वाली सब ही लड़कियों को रंग-ओ-नस्ल और ख़द्द-ओ-ख़ाल का इम्तियाज़ किए बग़ैर सिफ़र नंबर दे डालती। लिहाज़ा शदीद बहस-ओ-तमहीस के बाद यही तय पाया कि इस कमेटी में किसी औरत को शामिल ना किया जाये और यही पाँच मर्द जज मुक़ाबला-ए-हुस्न का फ़ैसला करने के लिए चुन लिए गए। <br />
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दिन बड़ा चमकीला था। आसमान पर उजले-उजले सपीद, दरख़शाँ बादल गोया फ़ैक्ट्री का सब्ज़ ग़ालीचा मालूम होता था। बच्चे इस क़दर धुले धुलाए और साफ़-शफ़्फ़ाफ़ नज़र आते थे गोया प्लास्टिक के बने हुए हों। वसीअ-ओ-अरीज़ लॉन के किनारे किनारे क्यारियों में स्वीट पी, डेलिया, लार्क सिपर, पटीवेनिया और कारनेशन के फूल कुछ इस क़ायदे और तर्तीब से खिले हुए थे। गोया काग़ज़ से काट कर टहनियों से चिपकाए गए होंगे, अर्ज़ ये कि बड़ा हसीन मंज़र था। <br />
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सबसे पहले अनाउंसर ने लॉन के दरमयान खड़े हो कर एक ज़ोरदार घंटी बजाई। तीन बार ऐसी घंटी का सुनकर लोग-बाग जौक़-दर-जौक़ क्लब के मुख़्तलिफ़ कमरों से निकल कर बाहर लॉन में आने लगे। लॉन में एक किनारे आधे दायरे की शक्ल में सोफ़े और कुर्सियाँ बिछा दी गई थीं, सब से आगे के सोफ़े पर पाँच जज बैठ गए। उनके पीछे क्लब के सर-बर-आवर्दा अस्हाब उनके बाद ख़ास-ख़ास शुरफ़ा और फिर आम शुरफ़ा। सब से आख़िर में लकड़ी की बेंचों पर हमारे ऐसे रज़ील और कमीने खड़े हो गए और बात बे बात क़हक़हा मार कर हँसने लगे। आख़िर में अनाउंसर को ज़ोरदार घंटी बजा कर सबको चुप कराना पड़ा। <br />
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साबिक़ जस्टिस देश पांडे ने उठकर मुक़ाबले के फाईनल में आने वाली लड़कियों की फ़ेहरिस्त पढ़ कर सुनाई फिर बैंड बजना शुरू हुआ। और बैंड के गीत पर सब लोगों की नज़रें क्लब की सीढ़ियों पर लग गईं जहाँ अंदर के मेक-अप रुम से हसीनाएँ सीढ़ियाँ उतर कर क्लब के लॉन पर जजों के सामने आने वाली थीं। सीढ़ीयों से लेकर जजों के सामने तक एक लंबा सा सुर्ख़ ग़ालीचा बिछा दिया गया था। जिस पर चल कर मुक़ाबले में हिस्सा लेने वालियाँ अपनी-अपनी अदाऐं करिश्मे, इश्वे या नख़रे दिखाने वाली थीं। बहुत से लोगों ने अपनी-अपनी दूरबीनें निकाल लीं। <br />
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सबसे पहले ईला सुर्ख़-रंग की साड़ी सँभालती, मटकती, सौ-सौ बल खाती सीढ़ीयों से नीचे उतरी। ख़ुशबुओं के भपके दूर-दूर तक फैल गए। ईला के चेहरे पर अजीब सी फ़ातिहाना हंसी सी मुस्कुराहट थी। जजों के सामने उसने अपना मुँह मोड़ कर बड़ी शोख़ी और नाज़ के साथ सबको अपना कटीला रुख़ दिखाया। और उसके कानों में चमकते हुए याक़ूत के आवेज़े निगाहों में लरज़-लरज़ गए, फिर वो अपना गोरा गुदाज़ हाथ आगे बढ़ा कर सेब की डाली की तरह लजा कर कुछ इस अदा से अपनी साड़ी के पल्लू को सँभाल कर पलटी कि तमाशाइओं के दिलों में मौज दर मौज लहरें टूटती चली गईं। <br />
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ज़ुबैदा एक मुग़ल शहज़ादी के रूप में नमूदार हुई। गहरे जामनी रंग का कामदानी का ग़रारा, उसके ऊपर हल्के ऊदे रंग के लखनऊ की बारीक फूलदार क़मीज़, उसके ऊपर लहरियेदार चुना हुआ दोपट्टा, उसके ऊपर ज़ुबैदा की गर्दन... वो मशहूर सुराही-दार गर्दन, जिसे देखकर जी चाहता था कि उसे उलट कर सारी शराब पी ली जाये। इस गर्दन के गिर्द उस वक़्त जड़ाऊ ज़मुर्रद का गला-बंद चमक रहा था और उसके हुस्न को दो-बाला कर रहा था। इस गर्दन के ऊपर ज़ुबैदा का साँवला सलोना प्यारा सा चेहरा था। ज़ुबैदा बड़ी तमकिनत से चलते-चलते जजों के सामने आई। गर्दन उठा कर अपनी सुराही के ख़म को वाज़ेह किया और यकायक हंस पड़ी और उसके सपीद-सपीद दाँतों की लड़ी बिजली की तरह कौंद गई। <br />
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रोज़ा गहरे सब्ज़-रंग की तंग जीन्ज़ के ऊपर लेमन रंग का फनता हुआ ब्लाउज़ पहन कर जो आई तो उसके सीने का उभार, उसकी कमर का ख़म, उसकी लम्बी मख़रूती टांगों की दिल-कशी और रानाई हर क़दम पर वाज़िह होती गई। बहुत से फ़ोटोग्राफ़र तस्वीरें लेने लगे। मुस्कुराती हुई रोज़ा ने गर्दन को ज़रा सा झुका कर सब तमाशाइयों से ख़राज-ए-तहसीन वसूल किया और चली गई। <br />
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फिर सुधा मेहता आई और उसके बाद माधुरी मेहता... दोनों बस ठीक थीं। ना अच्छी ना बुरी। चूँकि चीफ़ कमीशनर साहब की लड़कीयाँ थीं इसलिए आगे बैठने वाले सर-बर-आवर्दा लोगों ने उन बच्चियों का दिल रखने के लिए ज़ोर-ज़ोर से तालियाँ बजाएँ। मगर उनके बाद आशा मेहता जो निकली तो किसी को ताली बजाने की हिम्मत ही न हुई। ऐसी साफ़ खरी बदसूरत थी कि मालूम होता था कि मेक-अप भी इसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता वो भी मटकती हुई चली गई। तमाशाइओं ने सुकून का सांस लिया। <br />
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सीता मल्होत्रा टसर के रंग की सुनहरी बनारसी साड़ी पहने हुए आई। बनारसी साड़ी के नीचे का पेटीकोट बहुत उम्दा था। पेटीकोट भी अगर नायलान का होता तो मुम्किन है कुछ नंबर बढ़ जाते। <br />
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मृणालिनी ने देवदासियों की तरह बाल ऊपर बांध कर शून्ती के फूलों से सजाये थे। इस ने कोई मेक-अप नहीं किया था। सिवाए काजल की एक गहिरी लकीर के जिसने उस की बड़ी बड़ी आँखों की उदासी और अथाह ग़म को और उभार दिया था। जजों के क़रीब आकर उसने कुछ इस अंदाज़ से उनकी तरफ़ देखा जैसे वहशी हिरनी शहर में आकर खो गई हो... या जमुना देवदास के रो रही हो। फिर वो चली गई। <br />
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उसके बाद, बिर्जीस, ख़ुरशीद, गौरी वग़ैरा एक-एक कर के बाहर निकलीं और अपनी-अपनी अदाऐं दिखा कर रुख़स्त होती गईं। सबसे आख़िर में रम्भा निकली और उसके निकलते ही बैंड ज़ोर-ज़ोर से बजने लगा और तमाशाइयों के दिलों की धड़कनें तेज़ होती गईं। रम्भा ने चुस्त पंजाबी क़मीज़ और शलवार पहन रखी थी, ये लिबास उसके जिस्म पर इस क़दर चुस्त था कि बिलकुल तैराकी का लिबास मालूम होता था। उस लिबास में रम्भा के जिस्म का एक एक ख़म नुमायाँ था। जब वो चलती थी तो उसके टख़नों पर उलझी हुई झाँजनों के छोटे-छोटे घुँघरू इक रूपहली आवाज़ पैदा करते जाते थे, उसे देखकर तमाशाइयों के गलों से बे-इख़्तियार वाह-वाह की सदा निकली। चारों तरफ़ से तहसीन-ओ-मर्हबा के डोंगरे बजने लगे अब इसमें तो किसी को कलाम ही नहीं था कि इस साल की मल्लिका-ए-हुस्न रम्भा ही चुनी जाएगी। <br />
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जब सब लड़कीयाँ चली गईं तो जज भी उठकर क्लब के अंदर एक कमरे में मश्वरा करने चले गए। उनके जाने के बाद तमाशाइयों का शौक़ इंतिहा को पहुंच गया। लोग ज़ोर-ज़ोर से बातें करने लगे, कोई किसी को नंबर देता था, हर आशिक़ अपनी महबूबा के गर्द हाला खींच रहा था। हर माँ अपनी बेटी की तारीफ़ में तर ज़बान थी, मगर अक्सरीयत रम्भा के हक़ में थी। अलबत्ता दूसरे और तीसरे नंबर पर मुख़्तलिफ़ लड़कियों के नाम लिए जा रहे थे। कोई जमुना का नाम लेता था, कोई ज़ुबेदा का, कोई बिर्जीस का, कोई सीता मल्होत्रा पर मर-मिटा था। <br />
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पंद्रह बीस मिनट के बाद जज अपने कमरे से नमूदार हुए, साबिक़ जज देश पांडे के हाथ में काग़ज़ का एक पुर्ज़ा था, जज देश पांदे ने फ़ैसला सुनाने के लिए उठे, सारा मजमा ख़ामोश हो गया। जस्टिस देश पांडे ने अपनी ऐनक ठीक की, खंखार के गला साफ़ किया। फिर काग़ज़ के पुर्जे़ को अपनी नाक के क़रीब ला कर ऊंची आवाज़ में कहा, “जजों का मुत्तफ़िक़ा फ़ैसला ये है कि इस साल के ब्यूटी कम्पीटीशन में अव़्वल नंबर पर आने और मुल्क-ए-हुस्न कहलाने की हक़दार मिस सुधा मेहता हैं। नंबर दो मिस माधुरी मेहता, नंबर तीन मिस ज़ुबेदा।” <br />
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चीफ़ कमिशनर मेहता के घर में एक कुहराम सा मचा हुआ था। आशा मेहता ने रो-रो कर अपना बुरा हाल कर लिया था। शाम को जब कमीशनर साहब क्लब से घर लौटे तो आते ही उनकी बीवी ने आड़े हाथों लिया। “हाय मेरी बच्ची दोपहर से रो रही है। हाय तुमने आशा का बिल्कुल ख़्याल नहीं किया। हाय आग लगे तुम्हारे चीफ़ कमीशनर होने पर। क्या फ़ायदा है तुम्हारी चीफ़ कमिशनरी का, जब मेरी बच्ची इनाम हासिल नहीं कर सकी। अरे सुधा और माधुरी को तो फिर भी बर मिल जाऐंगे लेकिन जिस बच्ची का तुम्हें ख़्याल करना था, उसी का ना किया। अरे हाय हाय हाय।” <br />
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चीफ़ कमीशनर साहब ने गरज कर कहा, “बावली हुई हो। तुम्हारी दो बच्चियों को तो मैंने किसी ना किसी तरह इनाम दिलवा ही दिया। अब तुम्हारी तीसरी बच्ची को भी इनाम दिलवाता तो लोग क्या कहते? आख़िर इन्साफ़ भी तो कोई चीज़ है?”</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%80_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B2_/_%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%A8_%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%B0&diff=44170महालक्ष्मी का पुल / कृश्न चन्दर2024-03-18T21:30:39Z<p>अनिल जनविजय: '{{GKCatKahani}} मंदिर में इंसान के दिल की ग़लाज़त धुलती है और...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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<div>{{GKCatKahani}}<br />
मंदिर में इंसान के दिल की ग़लाज़त धुलती है और उस बद-रौ में इंसान के जिस्म की ग़लाज़त और इन दोनों के बीच में महालक्ष्मी का पुल है। महालक्ष्मी के पुल के ऊपर बाईं तरफ़ लोहे के जंगले पर छः साड़ियाँ लहरा रही हैं। पुल के इस तरफ़ हमेशा उस मक़ाम पर चन्द साड़ियाँ लहराती रहती हैं। ये साड़ियाँ कोई बहुत क़ीमती नहीं हैं। उनके पहनने वाले भी कोई बहुत ज़ियादा क़ीमती नहीं हैं। ये लोग हर रोज़ उन साड़ियों को धो कर सूखने के लिए डाल देते हैं और रेलवे लाईन के आर पार जाते हुए लोग, महालक्ष्मी स्टेशन पर गाड़ी का इन्तिज़ार करते हुए लोग, गाड़ी की खिड़की और दरवाज़ों से झांक कर बाहर देखने वाले लोग अक्सर उन साड़ियों को हवा में झूलता हुआ देखते हैं। <br />
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वो उनके मुख़्तलिफ़ रंग देखते हैं। भूरा, गहरा भूरा, मटमैला नीला, किरमिज़ी भूरा, गन्दा सुर्ख़ किनारा गहरा नीला और लाल, वो लोग अक्सर उन्ही रंगों को फ़िज़ा में फैले हुए देखते हैं। एक लम्हे के लिए। दूसरे लम्हे में गाड़ी पुल के नीचे से गुज़र जाती है। <br />
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उन साड़ियों के रंग अब जाज़िब-ए-नज़र नहीं रहे। किसी ज़माने में मुमकिन है जब ये नई ख़रीदी गई हों, उनके रंग ख़ूबसूरत और चमकते हुए हों, मगर अब नहीं हैं। मुतवातिर धोए जाने से उनके रंगों की आब-ओ-ताब मर चुकी है और अब ये साड़ियाँ अपने फीके सीठे रोज़मर्रा के अन्दाज़ को लिए बड़ी बे-दिली से जंगले पर पड़ी नज़र आती हैं। <br />
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आप दिन में उन्हें सौ बार देखें। ये आप को कभी ख़ूबसूरत दिखाई न देंगी। न उनका रंग रूप अच्छा है न उनका कपड़ा। ये बड़ी सस्ती, घटिया क़िस्म की साड़ियाँ हैं। हर रोज़ धुलने से उनका कपड़ा भी तार-तार हो रहा है। उन में कहीं कहीं रौज़न भी नज़र आते हैं। कहीं उधड़े हुए टाँके हैं। कहीं बदनुमा दाग़ जो इस क़दर पायदार हैं कि धोए जाने से भी नहीं धुलते बल्कि और गहरे होते जाते हैं। <br />
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मैं इन साड़ियों की ज़िन्दगी को जानता हूँ क्योंकि मैं उन लोगों को जानता हूँ जो उन साड़ियों को इस्तेमाल करते हैं। ये लोग महालक्ष्मी के पुल के क़रीब ही बाईं तरफ़ आठ नम्बर की चाल में रहते हैं। ये चाल मतवाली नहीं है बड़ी ग़रीब की चाल है। मैं भी इसी चाल में रहता हूँ, इसलिए आपको इन साड़ियों और उनके पहनने वालों के मुतअल्लिक़ सब कुछ बता सकता हूँ। <br />
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अभी वज़ीर-ए-आज़म की गाड़ी आने में बहुत देर है। आप इन्तिज़ार करते-करते उकता जाएँगे इसलिए अगर आप इन छः साड़ियों की ज़िन्दगी के बारे में मुझ से कुछ सुन लें तो वक़्त आसानी से कट जाएगा। उधर ये जो भूरे रंग की साड़ी लटक रही है ये शांता बाई की साड़ी है। इसके क़रीब जो साड़ी लटक रही है वो भी आप को भूरे रंग की साड़ी दिखाई देती होगी मगर वो तो गहरे भूरे रंग की है। आप नहीं मैं इसका गहरा भूरा रंग देख सकता हूँ क्योंकि मैं इसे उस वक़्त से जानता हूँ जब उसका रंग चमकता हुआ गहरा भूरा था और अब इस दूसरी साड़ी का रंग भी वैसा ही भूरा है जैसा शांता बाई की साड़ी का और शायद आप इन दोनों साड़ियों में बड़ी मुश्किल से कोई फ़र्क़ महसूस कर सकें। मैं भी जब उनके पहनने वालों की ज़िन्दगियों को देखता हूँ तो बहुत कम फ़र्क़ महसूस करता हूँ मगर ये पहली साड़ी जो भूरे रंग की है वो शांता बाई की साड़ी है और जो दूसरी भूरे रंग की है और जिस का गहरा रंग भूरा सिर्फ़ मेरी आँखें देख सकती हैं। वो जीवना बाई की साड़ी है। <br />
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शांता बाई की ज़िन्दगी भी उसकी साड़ी के रंग की तरह भूरी है। शांता बाई बर्तन माँझने का काम करती है। उसके तीन बच्चे हैं। एक बड़ी लड़की है दो छोटे लड़के हैं। बड़ी लड़की की उम्र छः साल होगी। सब से छोटा लड़का दो साल का है। शांता बाई का ख़ाविन्द सेवन मिल के कपड़े खाते में काम करता है। उसे बहुत जल्द जाना होता है। इसलिए शांता बाई अपने ख़ाविन्द के लिए दूसरे दिन की दोपहर का खाना रात ही को पका के रखती है, क्योंकि सुब्ह उसे ख़ुद बर्तन साफ़ करने के लिए और पानी ढोने के लिए दूसरों के घरों में जाना होता है और अब वो साथ में अपने छः बरस की बच्ची को भी ले जाती है और दोपहर के क़रीब वापस चाल में आती है। <br />
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वापस आ के वो नहाती है और अपनी साड़ी धोती है और सुखाने के लिए पुल के जंगले पर डाल देती है और फिर एक बेहद ग़लीज़ और पुरानी धोती पहन कर खाने पकाने में लग जाती है। <br />
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शांता बाई के घर चूल्हा उस वक़्त सुलग सकता है जब दूसरों के हाँ चूल्हे ठण्डे हो जाएँ। यानी दोपहर को दो बजे और रात के नौ बजे। इन औक़ात में इधर और उधर से दोनों वक़्त घर से बाहर बर्तन माँझने और पानी ढोने का काम करना होता है। अब तो छोटी लड़की भी उसका हाथ बटाती है। शांता बाई बर्तन साफ़ करती है। छोटी लड़की बर्तन धोती जाती है। दो तीन बार ऐसा हुआ कि छोटी लड़की के हाथ से चीनी के बर्तन गिर कर टूट गए। <br />
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अब मैं जब कभी छोटी लड़की की आँखें सूजी हुई और उसके गाल सुर्ख़ देखता हूँ तो समझ जाता हूँ कि किसी बड़े घर में चीनी के बर्तन टूटे हैं और उस वक़्त शांता भी मेरी नमस्ते का जवाब नहीं देती। जलती भुन्ती बड़बड़ाती चूल्हा सुलगाने में मसरूफ़ हो जाती है और चूल्हे में आग कम और धुआँ ज़ियादा निकालने में कामयाब हो जाती है। छोटा लड़का जो दो साल का है धुएँ से अपना दम घुटता देख कर चीख़ता है तो शांता बाई उसके चीनी ऐसे नाज़ुक रुख़्सारों पर ज़ोर-ज़ोर की चपतें लगाने से बाज़ नहीं आती उस पर बच्चा और ज़ियादा चीख़ता है। <br />
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यूँ तो ये दिन भर रोता रहता है क्योंकि उसे दूध नहीं मिलता है और उसे अक्सर भूक रहती है और दो साल की उम्र ही में उसे बाजरे की रोटी खाना पड़ती है। उसे अपनी माँ का दूध दूसरे भाई बहन की तरह सिर्फ़ पहले छः सात माह नसीब हुआ, वो भी बड़ी मुश्किल से। फिर ये भी ख़ुश्क बाजरी और ठण्डे पानी पर पलने लगा। हमारी चाल के सारे बच्चे इसी ख़ुराक पर पलते हैं। वो दिन भर नंगे रहते हैं और रात को गुदड़ी ओढ़ कर सो जाते हैं। सोते में भी वो भूके रहते हैं और जागते में भी भूके रहते हैं और जब शांता बाई के ख़ाविन्द की तरह बड़े हो जाते हैं तो फिर दिन भर बाजरी और ठण्डे पानी पी-पी कर काम करते जाते हैं और उनकी भूक बढ़ती जाती है और हर वक़्त मेदे के अन्दर और दिल के अन्दर और दिमाग़ के अन्दर एक बोझल सी धमक महसूस करते हैं और जब पगार मिलती है तो इनमें से कई एक सीधे ताड़ी ख़ाने का रुख़ करते हैं। ताड़ी पी कर चन्द घंटों के लिए ये धमक ज़ाइल हो जाती है। <br />
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लेकिन आदमी हमेशा तो ताड़ी नहीं पी सकता। एक दिन पिएगा, दो दिन पिएगा, तीसरे दिन की ताड़ी के पैसे कहाँ से लाएगा। आख़िर खोली का किराया देना है। राशन का ख़र्चा है। भाजी तरकारी है। तेल और नमक है। बिजली और पानी है। <br />
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शांता बाई की भूरी साड़ी है जो छटे सातवें माह तार-तार हो जाती है। कभी सात माह से ज़ियादा नहीं चलती। ये मिल वाले भी पाँच रुपए चार आने में कैसी खुदरी निकम्मी साड़ी देते हैं। उनके कपड़े में ज़रा जान नहीं होती। छटे माह से जो तार-तार होना शुरू होता है तो सातवें माह बड़ी मुश्किल से सी के, जोड़ के, गाँठ के, टाँके लगा के काम देता है और फिर वही पाँच रुपए चार आने ख़र्च करना पड़ते हैं और वही भूरे रंग की साड़ी आ जाती है। <br />
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शांता को ये रंग बहुत पसन्द है इसलिए कि ये मैला बहुत देर में होता है। उसे घरों में झाड़ू देना होती है। बर्तन साफ़ करने होते हैं, तीसरी चौथी मंज़िल तक पानी ढ़ोने होता है। वो भूरा रंग पसन्द नहीं करेगी तो क्या खिलते हुए शोख़ रंग गुलाबी, बसन्ती, नारंजी पसन्द करेगी। वो इतनी बेवक़ूफ़ नहीं है। <br />
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वो तीन बच्चों की माँ है लेकिन कभी उसने ये शोख़ रंग भी देखे थे, पहने थे। उन्हें अपने धड़कते हुए दिल के साथ प्यार किया था। जब वो धारवार में अपने गाँव में थी जहाँ उसने बादलों में शोख़ रंगों वाली धनक देखी थी, जहाँ मेलों में उसने शोख़ रंग नाचते हुए देखे थे, जहाँ उसके बाप के धान के खेत थे, ऐसे शोख़ हरे हरे रंग के खेत और आंगन में पेरू का पेड़ जिसके डाल-डाल से वो पेरू तोड़ तोड़ कर खाया करती थी। जाने अब पेरूओं में वो मज़ा ही नहीं है, वो शीरीनी और घुलावट ही नहीं है। वो रंग वो चमक दमक कहाँ जा के मर गई और वो सारे रंग क्यों यक-लख़्त भूरे हो गए। शांता बाई कभी बर्तन मांझते-मांझते खाना पकाते, अपनी साड़ी धोते, उसे पुल के जंगले पर ला कर डालते हुए ये सोचा करती है और उसकी भूरी साड़ी से पानी के क़तरे आँसुओं की तरह रेल की पटरी पर बहते जाते हैं और दूर से देखने वाले लोग एक भूरे रंग की बदसूरत औरत को पुल के ऊपर जंगले पर एक भूरी साड़ी को फैलाते देखते हैं और बस दूसरे लम्हे गाड़ी पुल के नीचे से गुज़र जाती है। <br />
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जीवना बाई की साड़ी जो शांता बाई की साड़ी के साथ लटक रही है, गहरे भूरे रंग की है। ब-ज़ाहिर उसका रंग शांता बाई की साड़ी से भी फीका नज़र आएगा लेकिन अगर आप ग़ौर से देखें तो उस फीके पन के बावुजूद ये आप को गहरे भूरे रंग की नज़र आएगी। ये साड़ी भी पाँच रुपए चार आने की है और बड़ी ही बोसीदा है। <br />
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दो एक जगह से फटी हुई थी लेकिन अब वहाँ पर टाँके लग गए हैं और इतनी दूर से मालूम भी नहीं होते। हाँ आप वो बड़ा टुकड़ा ज़रूर देख सकते हैं जो गहरे नीले रंग का है और उस साड़ी के बीच में जहाँ से ये साड़ी बहुत फट चुकी थी लगाया गया है। ये टुकड़ा जीवना बाई की इससे पहली साड़ी का है और दूसरी साड़ी को मज़बूत बनाने के लिए इस्तेमाल किया गया है। <br />
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जीवना बाई बेवा है और इसलिए वो हमेशा पुरानी चीज़ों से नई चीज़ों को मज़बूत बनाने के ढंग सोचा करती है। पुरानी यादों से नई यादों की तल्ख़ियों को भूल जाने की कोशिश करती है। जीवना बाई अपने ख़ाविन्द के लिए रोती रहती है, जिसने एक दिन उसे नशे में मार-मार कर उसकी आँख कानी कर दी थी। वो इसलिए नशे में था कि वो उस रोज़ मिल से निकाला गया था। <br />
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बुढ्ढा ढोंडू अब मिल में किसी काम का नहीं रहा था। गो वो बहुत तजुर्बेकार था लेकिन उसके हाथों में इतनी ताक़त न रही थी कि वो जवान मज़दूरों का मुक़ाबला कर सकता बल्कि वो तो अब दिन रात खाँसी में मुब्तला रहने लगा था। कपास के नन्हे-नन्हे रेशे उसके फेफड़ों में जा के ऐसे धँस गए थे जैसे चर्ख़ियों और ईंटों में सूत के छोटे-छोटे महीन तागे फँस कर लग जाते हैं। जब बरसात आती तो ये नन्हे मुंन्ने रेशे उसे दमे में मुब्तला कर देते और जब बरसात न होती तो वो दिन भर और रात भर खाँसता। <br />
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एक ख़ुश्क मुसलसल खँकार घर में और कारख़ाने में जहाँ वो काम करता था... सुनाई देती रहती थी। मिल के मालिक ने उस खाँसी की ख़तरनाक घण्टी को सुना और ढोंढू को मिल से निकाल दिया। ढोंडू उसके छः माह बाद मर गया। जीवना बाई को उसके मरने का बहुत ग़म हुआ। क्या हुआ अगर ग़ुस्से में आ के एक दिन उसने जीवना बाई की आँख निकाल दी। तीस साल की शादीशुदा ज़िन्दगी एक लम्हे पर क़ुर्बान नहीं की जा सकती और उसका ग़ुस्सा बजा था। <br />
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अगर मिल मालिक ढोंडू को यूँ बे-क़ुसूर नौकरी से अलग न करता तो क्या जीवना की आँख निकल सकती थी। ढोंडू ऐसा न था। उसे अपनी बेकारी का ग़म था। अपनी पैंतीस साला मुलाज़मत से बर-तरफ़ होने का रंज था और सब से बड़ा रंज उसे इस बात का था कि िमल मालिक ने चलते वक़्त उसे एक धेला भी तो नहीं दिया था। <br />
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पैंतीस साल पहले जैसे ढोंडू ख़ाली हाथ िमल में काम करने आया था उसी तरह ख़ाली हाथ वापस लौटा और दरवाज़े से बाहर निकलने पर और अपना नम्बर कार्ड पीछे छोड़ आने पर उसे एक धचका सा लगा। बाहर आ के उसे ऐसा मालूम हुआ कि जैसे इन पैंतीस सालों में किसी ने उसका सारा रंग, उसका सारा ख़ून उसका सारा रस चूस लिया हो और उसे बेकार समझ कर बाहर कूड़े करकट के ढेर पर फेंक दिया और ढोंडू बड़ी हैरत से मिल के दरवाज़े को और उस बड़ी चिमनी को देखने लगा जो बिल्कुल उसके सर पर ख़ौफ़नाक देव की तरह आसमान से लगी खड़ी थी। <br />
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यकायक ढोंडू ने ग़म और ग़ुस्से से अपने हाथ मले, ज़मीन पर ज़ोर से थूका और फिर ताड़ी ख़ाने चला गया। लेकिन जीवना की एक आँख जब भी न जाती, अगर उसके पास इलाज के लिए पैसे होते। वो आँख तो गल-गल कर, सड़-सड़ कर ख़ैराती हस्पतालों में डाक्टरों और कम्पाउण्डरों और नर्सों की बद एहतियातियों, गालियों और लापरवाइयों का शिकार हो गई और जब जीवना अच्छी हुई तो ढोंडू बीमार पड़ गया और ऐसा बीमार पड़ा कि फिर बिस्तर से न उठ सका। <br />
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उन दिनों जीवना उसकी देख भाल करती थी। शांता बाई ने मदद के तौर पर उसे चन्द घरों में बर्तन माँझने का काम दिलवा दिया था और गो वो अब बूढ़ी थी और मश्शाक़ी और सफ़ाई से बर्तनों को साफ़ न रख सकती थी फिर भी वो आहिस्ता आहिस्ता रेंग-रेंग कर अपने कमज़ोर हाथों में झूटी ताक़त के बाद सहारे पर जैसे-तैसे काम करती रही। <br />
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ख़ूबसूरत लिबास पहनने वाली, ख़ुशबूदार तेल लगाने वाली बीवियों की गालियाँ सुनती रही और काम करती रही। क्योंकि उसका ढोंडू बीमार था और उसे अपने आप को और अपने ख़ाविन्द को ज़िन्दा रखना था। लेकिन ढोंडू ज़िन्दा न रहा और अब जीवना बाई अकेली थी। <br />
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ख़ैरियत इसमें थी कि वो बिल्कुल अकेली थी और अब उसे सिर्फ़ अपना धन्दा करना था। शादी के दो साल बाद उसके हाँ एक लड़की पैदा हुई लेकिन जब वो जवान हुई तो किसी बदमाश के साथ भाग गई और उसका आज तक किसी को पता न चला कि वो कहाँ है। फिर किसी ने बताया और फिर बाद में बहुत से लोगों ने बताया कि जीवना बाई की बेटी फ़ारस रोड पर चमकीला भड़कीला रेशमी लिबास पहने बैठी है लेकिन जीवना को यक़ीन न आया। उसने अपनी सारी ज़िन्दगी पाँच रुपए चार आने की धोती में बसर कर दी थी और उसे यक़ीन था कि उसकी लड़की भी ऐसा करेगी। <br />
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वो ऐसा नहीं करेगी। इसका उसे कभी ख़याल न आया था। वो कभी फ़ारस रोड नहीं गई क्योंकि उसे यक़ीन था कि उसकी बेटी वहाँ नहीं है। भला उसकी बेटी वहाँ क्यों जाने लगी। यहाँ अपनी खोली में क्या था। पाँच रुपए चार आने वाली धोती थी। बाजरे की रोटी थी। ठण्डा पानी था। सूखी इज़्ज़त थी। ये सब कुछ छोड़कर फ़ारस रोड क्यों जाने लगी। उसे तो कोई बदमाश अपनी मोहब्बत का सब्ज़ बाग़ दिखा कर ले गया था क्योंकि औरत मोहब्बत के लिए सब कुछ कर गुज़रती है। ख़ुद वो तीस साल पहले अपने ढोंडू के लिए अपने माँ बाप का घर छोड़ के चली नहीं आई थी। जिस दिन ढोंडू मरा और जब लोग उसकी लाश जलाने के लिए ले जाने लगे और जीवना ने अपनी सिंदूर की डिबिया अपनी बेटी की अंगिया पर उण्डेल दी जो उसने बड़ी मुद्दत से ढोंडू की नज़रों से छुपा रक्खी थी। <br />
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ऐन उसी वक़्त एक गदराए हुए जिस्म की भारी औरत बड़ा चमकीला लिबास पहने उससे आ के लिपट गई और फूट-फूट के रोने लगी और उसे देख कर जीवना को यक़ीन आ गया कि जैसे उसका सब कुछ मर गया है। <br />
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उसका पति उसकी बेटी, उसकी इज़्ज़त। जैसे वो ज़िन्दगी भर रोटी नहीं ग़लाज़त खाती रही है। जैसे उसके पास कुछ नहीं था। शुरू दिन ही से कुछ नहीं था। पैदा होने से पहले ही उससे सब कुछ छीन लिया गया था। उसे निहत्ता, नंगा और बेइज़्ज़त कर दिया गया था और जीवना को उसी एक लम्हे में एहसास हुआ कि वो जगह जहाँ उसका ख़ाविन्द ज़िन्दगी भर काम करता रहा और वो जगह जहाँ उसकी आँख अंधी हो गई और वो जगह जहाँ उसकी बेटी अपनी दुकान सजा के बैठ गई, एक बहुत बड़ा कारख़ाना था जिस में कोई ज़ालिम जाबिर हाथ इंसानी जिस्मों को लेकर गन्ने का रस निकालने वाली चर्ख़ी में ठूँसता चला जाता है और दूसरे हाथ से तोड़ मरोड़ कर दूसरी तरफ़ फेंकता जाता है। यकायक जीवना अपनी बेटी को धक्का दे कर अलग खड़ी हो गई और चीख़ें मार मार कर रोने लगी। <br />
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तीसरी साड़ी का रंग मटमैला नीला है। यानी नीला भी है और मैला भी और मटियाला भी है। कुछ ऐसा अजब सा रंग है जो बार-बार धोने पर भी नहीं निखरता बल्कि ग़लीज़ हो जाता है। ये मेरी बीवी की साड़ी है। मैं फ़ोर्ट में धन्नू भाई की फ़र्म में क्लर्की करता हूँ मुझे पैंसठ रुपए तनख़्वाह मिलती है। सेवन मिल और बक्सिरया मील के मज़दूरों को यही तनख़्वाह मिलती है इसलिए मैं भी उनके साथ आठ नम्बर की चाल की एक खोली में रहता हूँ। <br />
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मगर मैं मज़दूर नहीं हूँ क्लर्क हूँ। मैं फ़ोर्ट में नौकर हूँ। मैं दसवीं पास हूँ। मैं टाइप कर सकता हूँ। मैं अंग्रेज़ी में अर्ज़ी भी लिख सकता हूँ। मैं अपने वज़ीर-ए-आज़म की तक़रीर जलसे में सुन कर समझ भी लेता हूँ। आज उनकी गाड़ी थोड़ी देर में महालक्ष्मी के पुल पर आएगी, नहीं वो रेस कोर्स नहीं जाएँगे। वो समुन्दर के किनारे एक शानदार तक़रीर करेंगे। इस मौक़े पर लाखों आदमी जमा होंगे। उन लाखों में मैं भी एक हूँगा। <br />
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मेरी बीवी को अपने वज़ीर-ए-आज़म की बातें सुनने का बहुत शौक़ है मगर मैं उसे अपने साथ नहीं ले जा सकता क्योंकि हमारे आठ बच्चे हैं और घर में हर वक़्त परेशानी सी रहती है। जब देखो कोई न कोई चीज़ कम हो जाती है। राशन तो रोज़ कम पड़ जाता है। अब नल में पानी भी कम आता है। रात को सोने के लिए जगह भी कम पड़ जाती है और तनख़्वाह तो इस क़दर कम पड़ती है कि महीने में सिर्फ़ पंद्रह दिन चलती है। बाक़ी पंद्रह दिन सूद-ख़ोर पठान चलाता है और वो भी कैसे गालियाँ बकते-बकते, घसीट-घसीट कर, किसी सुस्त-रफ़्तार गाड़ी की तरह ये ज़िन्दगी चलती है। <br />
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मेरे आठ बच्चे हैं, मगर ये स्कूल में नहीं पढ़ सकते। मेरे पास उनकी फ़ीस के पैसे कभी न होंगे। पहले-पहल जब मैंने ब्याह किया था और सावित्री को अपने घर यानी इस खोली में लाया था तो मैंने बहुत कुछ सोचा था। उन दिनों सावित्री भी बड़ी अच्छी-अच्छी बातें सोचा करती थी। गोभी के नाज़ुक-नाज़ुक हरे-हरे पत्तों की तरह प्यारी-प्यारी बातें। जब वो मुस्कुराती थी तो सिनेमा की तस्वीर की तरह ख़ूबसूरत दिखाई दिया करती थी। अब वो मुस्कुराहट न जाने कहाँ चली गई है। उसकी जगह एक मुस्तक़िल त्योरी ने ले ली है। वो ज़रा सी बात पर बच्चों को बेतहाशा पीटना शुरू कर देती है और मैं तो कुछ भी कहूँ, कैसे भी कहूँ, कितनी ही लजाजत से कहूँ वो बस काट खाने को दौड़ती है। पता नहीं सावित्री को क्या हो गया है। <br />
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पता नहीं मुझे क्या हो गया है। मैं दफ़्तर में सेठ की गालियाँ सुनता हूँ। घर पर बीवी की गालियाँ सहता हूँ और हमेशा ख़ामोश रहता हूँ। कभी-कभी सोचता हूँ, शायद मेरी बीवी को एक नई साड़ी की ज़रूरत है, शायद उसे सिर्फ़ एक नई साड़ी ही की नहीं, इक नए चेहरे, एक नए घर, एक नए माहौल, एक नई ज़िन्दगी की ज़रूरत है मगर अब इन बातों के सोचने से क्या होता है। अब तो आज़ादी आ गई है और हमारे वज़ीर-ए-आज़म ने ये कह दिया है कि इस नस्ल को यानी हम लोगों को अपनी ज़िन्दगी में कोई आराम नहीं मिल सकता। मैंने सावित्री को अपने वज़ीर-ए-आज़म की तक़रीर जो अख़बार में छपी थी सुनाई तो वो उसे सुन कर आग बगूला हो गई और उसने ग़ुस्से में आकर चूल्हे के क़रीब पड़ा हुआ एक चिमटा मेरे सर पर दे मारा। ज़ख़्म का निशान जो आप मेरे माथे पर देख रहे हैं उसी का निशान है। <br />
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सावित्री की मटमैली नीली साड़ी पर भी ऐसे कई ज़ख़्मों के निशान हैं मगर आप उन्हें देख नहीं सकेंगे। मैं देख सकता हूँ। उनमें से एक निशान तो उसी मोंगिया रंग की जॉर्जट की साड़ी का है जो उसने ओपेरा हाउसके नज़दीक भोंदू राम पार्चा फ़रोश की दुकान पर देखी थी। <br />
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एक निशान उस खिलौने का है जो पच्चीस रुपए का था और जिसे देख कर मेरा पहला बच्चा ख़ुशी से किलकारियाँ मारने लगा था, लेकिन जिसे हम ख़रीद न सके और जिसे न पा कर मेरा बच्चा दिन भर रोता रहा। <br />
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एक निशान उस तार का है जो एक दिन जबलपुर से आया था जिस में सावित्री की माँ की शदीद अलालत की ख़बर थी। सावित्री जबलपुर जाना चाहती थी लेकिन हज़ार कोशिश के बाद भी किसी से मुझे रुपए उधार न मिल सके थे और सावित्री जबलपुर न जा सकी थी। <br />
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एक निशान उस तार का था जिस में उसकी माँ की मौत का ज़िक्र था। एक निशान... मगर मैं किस किस निशान का ज़िक्र करूँ। ये निशान उन चितले-चितले, गदले-गदले ग़लीज़ दाग़ों से सावित्री की पाँच रुपए चार आने वाली साड़ी भरी पड़ी है। रोज़-रोज़ धोने पर भी ये दाग़ नहीं छूटते और शायद जब तक ये ज़िन्दगी रहे ये दाग़ यूँ ही रहेंगे। एक साड़ी से दूसरी साड़ी में मुन्तक़िल होते जाएँगे। <br />
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चौथी साड़ी क़िरमिज़ी रंग की है और क़िरमिज़ी रंग में भूरा रंग भी झलक रहा है। यूँ तो ये सब मुख़्तलिफ़ रंगों वाली साड़ियाँ हैं, लेकिन भूरा रंग इन सब में झलकता है। ऐसा मालूम होता है जैसे उन सबकी ज़िन्दगी एक है। जैसे उन सब की क़ीमत एक है। जैसे ये सब ज़मीन से कभी ऊपर नहीं उठेंगी। जैसे उन्होंने कभी शबनम में हँसती हुई धनक, उफ़ुक़ पर चमकती हुई शफ़क़, बादलों में लहराती हुई बर्क़ नहीं देखी। जैसे शांता बाई की जवानी है। वो जीवना का बुढ़ापा है। वो सावित्री का अधेड़-पन है। जैसे ये सब साड़ियाँ, ज़िंदिगयाँ, एक रंग, एक सत्ह, एक तवातुर, एक तसलसुल-ए-यकसानियत लिए हुए हवा में झूलती जाती हैं। <br />
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ये क़िरमिज़ी रंग की भूरे रंग की साड़ी झब्बू भय्ये की औरत की है। उस औरत से मेरी बीवी कभी बात नहीं करती क्योंकि एक तो उसके कोई बच्चा वच्चा नहीं है और ऐसी औरत जिसके कोई बच्चा न हो बड़ी नहस होती है। जादू टोने कर के दूसरों के बच्चों को मार डालती है और बद-रूहों को बुला के अपने घर में बसा लेती है। मेरी बीवी उसे कभी मुँह नहीं लगाती। <br />
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ये औरत झब्बू भय्या ने ख़रीद कर हासिल की है। झब्बू भय्या मुरादाबाद का रहने वाला है लेकिन बचपन ही से अपना देस छोड़ कर इधर चला आया। वो मराठी और गुजराती ज़बान में बड़े मज़े से गुफ़्तुगू कर सकता है। इसी वज्ह से उसे बहुत जल्द पवार मिल के गिनी खाते में जगह मिल गई। <br />
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झब्बू भय्या को शुरू ही से ब्याह का शौक़ था। उसे बीड़ी का, ताड़ी का, किसी चीज़ का शौक़ नहीं था। शौक़ था तो उसे सिर्फ़ इस बात का कि उसकी शादी जल्द से जल्द हो जाए। जब उसके पास सत्तर अस्सी रुपए इकट्ठे हो गए तो उसने अपने देस जाने की ठानी ताकि वहाँ अपनी बिरादरी से किसी को ब्याह लाए, मगर फिर उसने सोचा इन सत्तर अस्सी रूपों से क्या होगा, आने जाने का किराया भी बड़ी मुश्किल से पूरा होगा। <br />
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चार साल की मेहनत के बाद उसने ये रक़म जोड़ी थी लेकिन इस रक़म से वो मुरादाबाद जा सकता था, जा के शादी नहीं कर सकता था। इसलिए झब्बू भय्या ने एक बदमाश से बातचीत कर के उस औरत को सौ रुपए में ख़रीद लिया। <br />
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अस्सी रुपए उसने नक़्द दिए। बीस रुपए उधार में रहे जो उसने एक साल के अर्से में अदा कर दिए बाद में झब्बू भय्या को मालूम हुआ कि ये औरत भी मुरादाबाद की रहने वाली थी। धीरज गाँव की और उसकी बिरादरी की ही थी। झब्बू बड़ा ख़ुश हुआ। चलो यहीं बैठे-बैठे सब काम हो गया। <br />
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अपनी जात बिरादरी की, अपने ज़िले की। अपने धर्म की औरत यहीं बैठे बिठाए सौ रुपए में मिल गई। उसने बड़े चाव से अपना ब्याह रचाया और फिर उसे मालूम हुआ कि उसकी बीवी लड़िया बहुत अच्छा गाती है। वो ख़ुद भी अपनी पाटदार आवाज़ में ज़ोर से गाने बल्कि गाने से ज़ियादा चिल्लाने का शौक़ीन था। <br />
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अब तो खोली में दिन रात गोया किसी ने रेडियो खोल दिया हो। दिन में खोली में लड़िया काम करते हुए गाती थी। रात को झब्बू और लड़िया दोनों गाते थे। <br />
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उनके हाँ कोई बच्चा न था। इसलिए उन्होंने एक तोता पाल रक्खा था। मियाँ मिट्ठू ख़ाविन्द और बीवी को गाते देख देख कर ख़ुद भी लहक-लहक कर गाने लगे। लड़िया में एक और बात भी थी। झब्बू न बीड़ी पीता न सिगरेट न ताड़ी न शराब। लड़िया बीड़ी, सिगरेट, ताड़ी सभी कुछ पीती थी। कहती थी पहले वो ये सब कुछ नहीं जानती थी मगर जब से वो बदमाशों के पल्ले पड़ी उसे ये सब बुरी बातें सीखना पड़ीं और अब वो और सब बातें तो छोड़ सकती है मगर बीड़ी और ताड़ी नहीं छोड़ सकती। <br />
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कई बार ताड़ी पी कर लड़िया ने झब्बू पर हमला कर दिया और झब्बू ने उसे रुई की तरह धुन कर रख दिया। उस मौक़े पर तोता बहुत शोर मचाता था। रात को दोनों को गालियाँ बकते देख कर ख़ुद भी पिंजरे में टँगा हुआ ज़ोर-ज़ोर से वही गालियाँ बकता जो वो दोनों बकते थे एक बार तो उसकी गाली सुन कर झब्बू ग़ुस्से में आ कि तोते को पिंजरे समेत बद-रौ में फेंकने लगा था मगर जीवना ने बीच में पड़ के तोते को बचा लिया। तोते को मारना पाप है। जीवना ने कहा। तुम्हें ब्राह्मणों को बुला के परासचित करना पड़ेगा। तुम्हारे पंद्रह बीस रुपए खुल जाएँगे। ये सोच कर झब्बू ने तोते को बद-रौ में ग़र्क़ कर देने का ख़याल तर्क कर दिया। <br />
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शुरू-शुरू में तो झब्बू को ऐसी शादी पर चारों तरफ़ से गालियाँ पड़ीं। वो ख़ुद भी लड़िया को बड़े शुब्हा की नज़रों से देखता और कई बार बिला वज्ह उसे पीटा और ख़ुद भी मिल से ग़ैर हाज़िर रह कर उसकी निगरानी करता रहा मगर आहिस्ता-आहिस्ता लड़िया ने अपना एतिबार सारी चाल में क़ायम कर लिया। <br />
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लड़िया कहती थी कि औरत सच्चे दिल से बदमाशों के पल्ले पड़ना पसन्द नहीं करती, वो तो एक घर चाहती है चाहे वो छोटा ही सा हो। वो एक ख़ाविन्द चाहती है जो उसका अपना हो। चाहे वो झब्बू भय्या ऐसा हर वक़्त शोर मचाने वाला, ज़बान दराज़, शेखी ख़ोर ही क्यों न हो। वो एक नन्हा बच्चा चाहती है चाहे वो कितना ही बदसूरत क्यों न हो और अब लड़िया के पास भी घर था और झब्बू भी था और अगर बच्चा नहीं था तो क्या हुआ... हो जाएगा और अगर नहीं होता तो भगवान की मर्ज़ी। ये मियाँ मिट्ठू ही उसका बेटा बनेगा। <br />
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एक रोज़ लड़िया अपने मियाँ मिट्ठू का पिंजरा झुला रही थी और उसे चूरी खिला रही थी और अपने दिल के सपनों में ऐसे नन्हे से बालक को देख रही थी जो फ़िज़ा में हुमकता उसकी आग़ोश की तरफ़ बढ़ता चला आ रहा था कि चाल में शोर बढ़ने लगा और उसने दरवाज़े से झाँक कर देखा कि चन्द मज़दूर झब्बू को उठाए चले आ रहे हैं और उनके कपड़े ख़ून से रंगे हुए हैं। लड़िया का दिल धक से रह गया। वो भागती-भागती नीचे गई और उसने बड़ी दुरुश्ती से अपने ख़ाविन्द को मज़दूरों से छीन कर अपने कंधे पर उठा लिया और अपनी खोली में ले आई। <br />
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पूछने पर पता चला कि झब्बू से गिनी खाते के मैनेजर ने कुछ डाँट डपट की। इस पर झब्बू ने भी उसे दो हाथ जड़ दिए। इस पर बहुत वावेला मचा और मैनेजर ने अपने बदमाशों को बुला कर झब्बू की ख़ूब पिटाई की और उसे िमल से बाहर निकाल दिया। ख़ैरियत हुई कि झब्बू बच गया वर्ना उसके मरने में कोई कसर न थी। <br />
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लड़िया ने बड़ी हिम्मत से काम लिया। उसने उसी रोज़ से अपने सर पर टोकरी उठा ली और गली गली तरकारी भाजी बेचने लगी, जैसे वो ज़िन्दगी में यही धन्दा करती आई है। इस तरह मेहनत मज़दूरी कर के उसने अपने झब्बू को अच्छा कर लिया। <br />
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झब्बू अब भला चंगा है मगर अब उसे किसी मिल में काम नहीं मिलता। वो दिन भर अपनी खोली में खड़ा महालक्ष्मी के स्टेशन के चारों तरफ़ बुलन्द-ओ-बाला कारख़ानों की चिमनियों को तकता रहता है। सेवन िमल, न्यू िमल, ओलड िमल, पवार िमल, धनराज िमल लेकिन उसके लिए किसी िमल में जगह नहीं है क्योंकि मज़दूर को गालियाँ खाने का हक़ है गाली देने का हक़ नहीं है। <br />
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आजकल लड़िया बाज़ारों और गलियों में आवाज़ें दे कर भाजी तरकारी फ़रोख़्त करती है और घर का सारा काम-काज भी करती है। उसने बीड़ी, ताड़ी सब छोड़ दी है। हाँ उसकी साड़ी, क़िरमिज़ी भूरे रंग की साड़ी जगह-जगह से फटती जा रही है। थोड़े दिनों तक अगर झब्बू को काम न मिला तो लड़िया को अपनी साड़ी पर पुरानी साड़ी के टुकड़े जोड़ना पड़ेंगे और अपने मियाँ मिट्ठू को चूरी खिलाना बन्द करना पड़ेगी। <br />
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पाँचवीं साड़ी का किनारा गहरा नीला है। साड़ी का रंग गदला सुर्ख़ है लेकिन किनारा गहरा नीला है और इस नीले में अब भी कहीं-कहीं चमक बाक़ी है। ये साड़ी दूसरी साड़ियों से बढ़िया है क्योंकि ये साढ़े पाँच रुपए चार आने की नहीं है। उसका कपड़ा, उसकी चमक दमक कहे देती है कि ये उनसे ज़रा मुख़्तलिफ़ है। आप को दूर से ये मुख़्तलिफ़ मालूम नहीं होती होगी मगर मैं जानता हूँ कि ये उनसे ज़रा मुख़्तलिफ़ है। उसका कपड़ा बेहतर है। उसका किनारा चमकदार है। उसकी क़ीमत पौने नौ रुपए है। <br />
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ये साड़ी मंजूला की है। ये साड़ी मंजूला के ब्याह की है। मंजूला के ब्याह को अभी छः माह भी नहीं हुए हैं। उसका ख़ाविन्द गुज़श्ता माह चर्ख़ी के घूमते हुए पट्टे की लपेट में आ कि मारा गया था और अब सोलह बरस की ख़ूबसूरत मंजूला बेवा है। उसका दिल जवान है। उसका जिस्म जवान है। उसकी उमंगें जवान हैं लेकिन वो अब कुछ नहीं कर सकती क्योंकि उसका ख़ाविन्द मिल के एक हािदसे में मर गया है। <br />
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वो पट्टा बड़ा ढीला था और घूमते हुए बार-बार फटफटाता था और काम करने वालों के एहतिजाज के बावुजूद उसे िमल मालिकों ने नहीं बदला था क्योंकि काम चल रहा था और दूसरी सूरत में थोड़ी देर के लिए काम बन्द करना पड़ता है। पट्टे को तब्दील करने के लिए रुपए ख़र्च होते हैं। मज़दूर तो किसी वक़्त भी तब्दील किया जा सकता है। इसके लिए रुपए थोड़ी ख़र्च होते हैं लेकिन पट्टा तो बड़ी क़ीमती शय है। <br />
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जब मंजूला का ख़ाविन्द मारा गया तो मंजूला ने हर्जाने की दरख़्वास्त दी जो ना-मंज़ूर हुई क्योंकि मंजूला का ख़ाविन्द अपनी ग़फ़लत से मरा था, इसलिए मंजूला को कोई हर्जाना न मिला। <br />
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वो अपनी वही नई दुल्हन की साड़ी पहने रही जो उसके ख़ाविन्द ने पौने नौ रुपए में उसके लिए ख़रीदी थी। क्योंकि उसके पास कोई दूसरी साड़ी न थी जो वो अपने ख़ाविन्द की मौत के सोग में पहन सकती। वो अपने ख़ाविन्द के मर जाने के बाद भी दुल्हन का लिबास पहनने पर मजबूर थी क्योंकि उसके पास कोई दूसरी साड़ी न थी और जो साड़ी थी वो यही गदले सुर्ख़ रंग की थी। पौने नौ रुपए की साड़ी जिस का किनारा गहरा नीला है। <br />
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शायद अब मंजूला भी पाँच रुपए चार आने की साड़ी पहनेगी। उसका ख़ाविन्द ज़िन्दा रहता जब कभी वो दूसरी साड़ी पाँच रुपए चार आने की लाती, इस लिहाज़ से उसकी ज़िन्दगी में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं आया। मगर फ़र्क़ इतना ज़रूर हुआ है कि वो ये साड़ी आज पहनना चाहती है। एक सफ़ेद साड़ी पाँच रुपए चार आने वाली जिसे पहन कर वो दुल्हन नहीं बेवा मालूम हो सके। ये साड़ी उसे दिन रात काट खाने को दौड़ती है। इस साड़ी से जैसे उसके मरहूम ख़ाविन्द की बाँहें लिपटी हैं, जैसे उसके हर तार पर उसके शफ़्फ़ाफ़ बोसे मरक़ूम हैं, जैसे उसके ताने बाने में उसके ख़ाविन्द की गर्म-गर्म साँसों की हिद्दत-आमेज़ ग़ुनूदगी है। उसके सियाह बालों वाली छाती का सारा प्यार दफ़्न है। जैसे अब ये साड़ी नहीं है, एक गहरी क़ब्र है जिस की हौलनाक पहनाइयों को वो हर वक़्त अपने जिस्म के िगर्द लपेट लेने पर मजबूर है। मंजूला ज़िन्दा क़ब्र में गाड़ी जा रही है। <br />
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छटी साड़ी का रंग लाल है लेकिन उसे यहाँ नहीं होना चाहिए क्योंकि उसकी पहनने वाली मर चुकी है फिर भी ये साड़ी यहाँ जंगले पर बदस्तूर मौजूद है। रोज़ की तरह धुली धुलाई हवा में झूल रही है। <br />
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ये माई की साड़ी है जो हमारी चाल के दरवाज़े के क़रीब अन्दर खुले आंगन में रहा करती थी। माई का एक बेटा है सीतो। वो अब जेल में है। हाँ सीतो की बीवी और उसका लड़का यहीं नीचे आँगन में दरवाज़े के क़रीब नीचे पड़े रहते हैं। <br />
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सीतो और सीतो की बीवी, उनकी लड़की और बुढ़िया माई, ये सब लोग हमारी चाल के भंगी हैं। उनके लिए खोली भी नहीं है और उनके लिए इतना कपड़ा भी नहीं मिलता जितना हम लोगों को मिलता है इसलिए ये लोग आँगन में रहते हैं। वहीं खाना खाते हैं वहीं ज़मीन पर पड़ के सो रहते हैं। यहीं पे ये बुढ़िया मारी गई थी। <br />
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वो बड़ा सूराख़ जो आप इस साड़ी में देख रहे हैं पल्लू के क़रीब। ये गोली का सूराख़ है। ये कारतूस की गोली माई को भंगियों की हड़ताल के दिनों में लगी थी। नहीं वो उस हड़ताल में हिस्सा नहीं ले रही थी। वो बेचारी तो बहुत बूढ़ी थी, चल फिर भी न सकती थी। उस हड़ताल में तो उसका बेटा सीतो और दूसरे भंगी शामिल थे, ये लोग महँगाई माँगते थे और खोली का किराया माँगते थे यानी अपनी ज़िन्दगी के लिए दो वक़्त की रोटी, कपड़ा और सर पर एक छत चाहते थे। इसलिए उन लोगों ने हड़ताल की थी और जब हड़ताल ख़िलाफ़-ए-क़ानून क़रार दे दी गई तो उन लोगों ने जुलूस निकाला और उस जुलूस में माई का बेटा सीतो आगे आगे था और ख़ूब ज़ोर-ओ-शोर से नारे लगाता था। फिर जब जुलूस भी ख़िलाफ़-ए-क़ानून क़रार दे दिया गया तो गोली चली और हमारी चाल के सामने चली। <br />
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हम लोगों ने अपने दरवाज़े बन्द कर लिए लेकिन घबराहट में चाल का दरवाज़ा बन्द करना किसी को याद न रहा और फिर हमें बन्द कमरों में ऐसा मालूम हुआ गोया गोली इधर से, उधर से चारों तरफ़ से चल रही हो। <br />
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थोड़ी देर के बाद बिल्कुल सन्नाटा हो गया और जब हम लोगों ने डरते-डरते दरवाज़ा खोला और बाहर झाँक के देखा तो जलूस तितर-बितर हो चुका था और हमारी चाल के क़रीब बुढ़िया मरी पड़ी थी। ये उसी बुढ़िया की लाल साड़ी है जिस का बेटा सीतो अब जेल में है। इस लाल साड़ी को अब बुढ़िया की बहू पहनती है। उस साड़ी को बुढ़िया के साथ जला देना चाहिए था मगर क्या किया जाए तन ढकना ज़ियादा ज़रूरी है। मुर्दों की इज़्ज़त-ओ-एहतिराम से भी कहीं ज़ियादा ज़रूरी है कि ज़िन्दों का तन ढका जाए। <br />
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ये साड़ी जलने-जलाने के लिए नहीं है। तन ढकने के लिए है। हाँ कभी-कभी सीतो की बीवी उसके पल्लू से अपने आँसू पोंछ लेती है क्योंकि उसमें पिछले इसी बरसों के सारे आँसू और सारी उमंगें और सारी फ़त्हें और शिकस्तें जज़्ब हैं। आँसू पोंछ कर सीतो की बीवी फिर उसी हिम्मत से काम करने लगती है जैसे कुछ हुआ ही नहीं। कहीं गोली नहीं चली, कोई जेल नहीं गया। भंगन की झाड़ू उसी तरह चल रही है। <br />
<br />
ए लो बातों-बातों में वज़ीर-ए-आज़म साहब की गाड़ी निकल गई। वो यहाँ नहीं ठहरी। मैं समझता था वो यहाँ ज़रूरी ठहरेगी। वज़ीर-ए-आज़म साहब दर्शन देने के लिए गाड़ी से निकल कर थोड़ी देर के लिए प्लेटफ़ार्म पर टहलेंगे और शायद हवा में झूलती हुई इन छः साड़ियों को भी देख लेंगे जो महालक्ष्मी के पुल के बाईं तरफ़ लटक रही हैं। ये छः साड़ियाँ जो बहुत मामूली औरतों की साड़ियाँ हैं। ऐसी मामूली औरतें जिन से हमारे देस के छोटे-छोटे घर बनते हैं। <br />
<br />
जहाँ एक कोने में चूल्हा सुलगता है, एक कोने में पानी का घड़ा रक्खा है। ऊपरी ताक़चे में शीशा है, कंघी है, सिन्दूर की डिबिया है, खाट पर नन्हा सो रहा है। अलगनी पर कपड़े सूख रहे हैं। ये उन छोटे-छोटे लाखों करोड़ों, घरों को बनाने वाली औरतों की साड़ियाँ हैं जिन्हें हम हिन्दुस्तान कहते हैं। ये औरतें जो हमारे प्यारे प्यारे बच्चों की माएँ हैं, हमारे भोले भाइयों की अज़ीज़ बहनें हैं, हमारी मासूम मोहब्बतों का गीत हैं, हमारी पाँच हज़ार साला तहज़ीब का सब से ऊँचा निशान हैं। <br />
<br />
वज़ीर-ए-आज़म साहब! ये हवा में झूलती हुई साड़ियाँ तुम से कुछ कहना चाहती हैं। तुम से कुछ माँगती हैं। ये कोई बहुत बड़ी क़ीमती चीज़ तुम से नहीं माँगती हैं। ये कोई बड़ा मुल्क, बड़ा ओहदा और बड़ी मोटर कार, कोई परमिट, कोई ठेका, कोई प्रॉपर्टी, ये ऐसी किसी चीज़ की तालिब नहीं हैं। ये तो ज़िन्दगी की बहुत छोटी-छोटी चीज़ें माँगती हैं। <br />
<br />
देखिए! ये शांता बाई की साड़ी है जो अपने बचपन की खोई हुई धनक तुम से माँगती है। <br />
<br />
ये जीवना बाई की साड़ी है जो अपनी आँख की रौशनी और अपनी बेटी की इज़्ज़त माँगती है। <br />
<br />
ये सावित्री की साड़ी है जिसके गीत मर चुके हैं और जिसके पास अपने बच्चों के लिए स्कूल की फ़ीस नहीं है। <br />
<br />
ये लड़िया है जिस का ख़ाविन्द बे-कार है और जिसके कमरे में एक तोता है जो दो दिन का भूका है। <br />
<br />
ये नई दुल्हन की साड़ी है जिसके ख़ाविन्द की ज़िन्दगी चमड़े के पट्टे से भी कम क़ीमती है। <br />
<br />
ये बूढ़ी भंगन की लाल साड़ी है जो बन्दूक़ की गोली को हल के फल में तब्दील कर देना चाहती है ताकि धरती से इंसान का लहू फूल बन कर खिल उठे और गन्दुम के सुनहरे ख़ोशे हँस कर लहराने लगें। लेकिन वज़ीर-ए-आज़म साहब की गाड़ी नहीं रुकी और वो इन छः साड़ियों को नहीं देख सकते और तक़रीर करने के लिए चौपाटी चले गए, इसलिए अब मैं आप से कहता हूँ। अगर कभी आप की गाड़ी उधर से गुज़रे तो आप उन छः साड़ियों को ज़रूर देखिए जो महालक्ष्मी के पुल के बाईं तरफ़ लटक रही हैं और फिर उन रंगा रंग रेशमी साड़ियों को भी देखिए जिन्हें धोबियों ने उसी पुल के दाएँ तरफ़ सूखने के लिए लटका रक्खा है और जो उन घरों से आई हैं जहाँ ऊँची-ऊँची चिमनियों वाले कारख़ानों के मालिक या ऊँची-ऊँची तनख़्वाह पाने वाले रहते हैं। आप उस पुल के दाईं-बाईं दोनों तरफ़ ज़रूर देखिए और फिर अपने आप से पूछिए कि आप किस तरफ़ जाना चाहते हैं। देखिए! मैं आप से इश्तिराकी बनने के लिए नहीं कह रहा हूँ। मैं आपको जमाती जंग की तलक़ीन भी नहीं कर रहा हूँ। मैं सिर्फ़ ये जानना चाहता हूँ कि आप महालक्ष्मी पुल के दाईं तरफ़ हैं या बाईं तरफ़?</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%97%E0%A4%BC%E0%A4%B2%E0%A5%80%E0%A4%9A%E0%A4%BE_/_%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%A8_%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%B0&diff=44169ग़लीचा / कृश्न चन्दर2024-03-18T21:27:43Z<p>अनिल जनविजय: '{{GKCatKahani}} "यह तकनीक के प्रयोग के रूप में लिखी गई कहानी ह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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<div>{{GKCatKahani}}<br />
"यह तकनीक के प्रयोग के रूप में लिखी गई कहानी है। कई दृश्यों को जमा करके एक ग़लीचा को साकार मानकर कहानी बुनी गई है। रूपवती अतिसुन्दर, इटली की एक शिक्षित औरत है जो एक स्थानीय कॉलेज में प्रिंसिपल है। आर्टिस्ट की मुलाक़ात ग़लीचा ख़रीदते वक़्त होती है और आर्टिस्ट उसके हुस्न से घायल हो जाता है, लेकिन रूपवती पहले तो इटली के शायर जो से अपनी मुहब्बत का इज़हार करती है जो तपेदिक़ में मुब्तला हो कर मर गया था और बाद में आर्टिस्ट के दोस्त मजहूल किस्म के शायर से मुहब्बत का इन्किशाफ़ करती है और उससे शादी करके दूसरे शहर चली जाती है। ग़लीचा विभिन्न घटनाओं व दृश्यों का गवाह रहता है, इसीलिए आर्टिस्ट अक्सर उससे सवाल-जवाब करता है। आर्टिस्ट दूसरी लड़कियों में यदाकदा दिलचस्पी लेता है लेकिन रूपवती उसके हवास पर छाई रहती है। एक दिन स्टेशन पर उसे रूपवती मिल जाती है और उसे पता चलता है कि रूपवती तपेदिक़ में मुब्तला है, उसके शायर शौहर ने उसे छोड़ दिया है।"<br />
<br />
अब तो ये ग़लीचा पुराना हो चुका, लेकिन आज से दो साल पहले जब मैंने इसे हज़रत गंज में एक दुकान से ख़रीदा था, उस वक़्त ये ग़लीचा बिल्कुल मा’सूम था, इसकी जल्द मा’सूम थी। इसकी मुस्कुराहट मा’सूम थी, इसका हर रंग मा’सूम था। अब नहीं, दो साल पहले, अब तो इसमें ज़हर घुल गया है, इसका एक-एक तार मस्मूम और मुतअ’फ़्फ़िन हो चुका है, रंग मांद पड़ गया है, तबस्सुम में आँसुओं की झलक है और जिल्द में किसी आतिश-ज़दा मरीज़ की तरह जा-ब-जा गड्ढ़े पड़ गए हैं। पहले ये ग़लीचा मा’सूम था। अब क़ुनूती है, ज़हरीली हँसी हँसता है और इस तरह सांस लेता है जैसे कायनात का सारा कूड़ा-कर्कट इसने अपने सीने में छिपा लिया हो। <br />
<br />
इस ग़लीचे का क़द नौ फ़ुट है, चौड़ाई में पाँच फ़ुट, बस जितनी एक औसत दर्जे के पलंग की चौड़ाई होती है, किनारा चौकोर बादामी है, और डेढ़ इंच तक गहरा है, इसके बा’द अस्ल ग़लीचा शुरू’ होता है और गहरे सुर्ख़-रंग से शुरू’ होता है, ये रंग ग़लीचे की पूरी चौड़ाई में फैला हुआ है और दो फ़ुट की लंबाई में है गोया 5x2 फ़ुट की मुस्ततील है, सुर्ख़-रंग की इक झील बन गई है, लेकिन इस झील में भी सुर्ख़-रंग की झलकियाँ कई रंगों के तमाशे दिखाती हैं, गहरा सुर्ख़, हल्का सुर्ख़, गुलाबी, हल्का क़िर्मिज़ी और सुर्ख़ जैसे गंदा ख़ून होता है। लेटते वक़्त ग़लीचे के इस हिस्से पर मैं हमेशा अपना सर रखता हूँ और मुझे हर बार ये एहसास होता है कि मेरे सर में जोंकें लगी हैं। और मेरा गंदा ख़ून चूस रही हैं। <br />
<br />
फिर उस ख़ूनी मुस्ततील के नीचे पाँच और मुस्ततीलें हैं, जिनके अलग-अलग रंग हैं, ये मुस्ततीलें ग़ालीचे की पूरी चौड़ाई में फैली हुई हैं, इस तरह कि आख़िरी मुस्ततील पर ग़लीचे की लंबाई भी ख़त्म हो जाती है और दरी की कोर शुरू’ होती है... ख़ूनी मुस्ततील के बिल्कुल नीचे तीन छोटी-छोटी मुस्ततीलें हैं, पहली सपेद और सियाह-रंग की शतरंजी है। दूसरी सपेद और नीले रंग की, तीसरी ब्लू ब्लैक और ख़ाकी रंग की। ये शतरंजियाँ दूर से बिल्कुल चेचक के दाग़ों की तरह दिखाई देती हैं और क़रीब से देखने पर भी उनके हुस्न में ज़ियादा इज़ाफ़ा नहीं होता। बल्कि नीलाम-शुदा पुराने गर्म कोटों की जिल्द की तरह मैली-मैली और बदनुमा नज़र आती हैं। पहली मुस्ततील अगर ख़ून की झील है तो ये तीन छोटी-छोटी मुस्ततीलें मजमूई’ तौर पर पीप की झील का तअस्सुर पैदा करती हैं। उनके सपेद, काले, पीले, ब्लू ब्लैक रंग पीप की झील में गड-मड होते नज़र आते हैं, इस झील में मेरे शाने, मेरा दिल और मेरे फेफड़े, पसलियों के बक्स में धरे रहते हैं। <br />
<br />
चौथी मुस्ततील का रंग पीला है, और पाँचवें का सब्ज़ है, लेकिन ऐसा सब्ज़ जैसा गहरे समंदर का होता है। ऐसा सब्ज़ नहीं जिस तरह मौसम-ए-बिहार का होता है। ये एक ख़तरनाक रंग है, इसे देखकर शार्क मछलियों की याद ताज़ा होती है और डूबते हुए जहाज़-रानों की चीख़ें सुनाई देती हैं और उछलती हुई तूफ़ानी, वेव हैकल लहरों की गूंज और गरज रा’शा पैदा करती है, और ये पीला, मटियाला रंग तो मनहूस हुई, ये रंग ज़ाफ़रान की तरह, बसंत की तरह पीला नहीं, ये रंग मिट्टी की तरह पीला है, तपेदिक़ के मरीज़ की तरह पीला है। पीले गुनाह की तरह ज़र्द है, इक ऐसा ज़र्द रंग जिसमें शायद इक हल्का सा एहसास-ए-नदामत भी शामिल है। मुझे तो ऐसा मा’लूम होता है, जैसे ये मुस्ततील बार-बार कह रही हो। मैं क्यों हूँ, मैं क्यों हूँ... <br />
<br />
जहाँ मैं अपना सर रखता हूँ, उसके दाएँ कोने में नीले और पीले रंग के दस ख़ुतूत-ए-वहदानी बने हुए हैं और जहाँ मैं अपने पाँव पसार के सोता हूँ, वहाँ ग्यारह ख़ुतूत-ए-वहदानी हैं, ये पीले और फ़ीरोज़ी रंग के हैं, ग़लीचे के वस्त में छः ख़ुतूत-ए-वहदानी सुर्ख़-ओ-सपेद रंग में हैं और उनके बीच में एक गहरा सियाह नुक़्ता है। जब मैं ग़लीचे पर लेट जाता हूँ तो मुझे ऐसा मा’लूम होता है कि गोया सर से पाँव तक किसी ने मुझे इन ख़ुतूत वहदानी के हल्क़ों में जकड़ लिया है। मुझे सलीब पर लटका कर मेरे दिल में इक गहरे सियाह-रंग की मेख़ ठोंक दी है, चारों तरफ़ गंदा ख़ून है, पीप है, और सब्ज़-रंग का समंदर है। जो शार्क मछलियों और समुंदरी हज़ार-पायों से मा’मूर है। <br />
<br />
शायद मसीह को भी सलीब पर इतनी ईज़ा न पहुँची होगी, जितनी मुझे इस ग़लीचे पर लेटते वक़्त हासिल होती है, लेकिन ईज़ा-परस्ती तो इंसान का शेवा है, इसीलिए तो ये ग़लीचा मैं अपने आपसे जुदा नहीं कर सकता। न इसकी मौजूदगी में मुझे कोई और ग़लीचा ख़रीदने की जुरअत होती है, मेरे पास यही एक ग़लीचा है, और मेरा ख़याल है कि मरते दम तक यही एक ग़लीचा रहेगा। इस ग़लीचे को दर-अस्ल एक ख़ातून ख़रीदना चाहती थी, हज़रतगंज में एक दुकान के अंदर वो इसे खुलवा कर देख रही थी कि मेरी निगाहों ने इसे पसंद कर लिया और वो ख़ातून कुछ फ़ैसला न कर सकी और इसे वहीं छोड़कर अपने ब्लाउज़ के लिए रेशमी कपड़े देखने लगी। <br />
<br />
मैंने मैनेजर से कहा, “ये ग़लीचा मैं ख़रीदना चाहता हूँ।” <br />
<br />
वो ख़ातून की तरफ़ इशारा करते हुए बोला, “मिस रूपवती... शायद... इसे पसंद कर चुकी हैं। शायद... ठहरिए। मैं उनसे पूछता हूँ।” <br />
<br />
रूपवती बोली, “ग़लीचा... बुरा नहीं! <br />
<br />
“बुरा नहीं? क्या मतलब है आपका।”, मैंने भड़क कर कहा, “ऐसा ग़लीचा दुनिया में और कहीं नहीं होगा। दांते के तख़य्युल ने भी ऐसा जहन्नुमी नक़्शा तैयार न किया होगा, ये ग़लीचा हस्पताल की गंदी बाल्टी की तरह हसीन है। अमराज़-ए-ख़बीसा की तरह रूह-परवर है, ये आग और पीप का दरिया-ए-हातिमताई के सफ़र की याद दिलाता है, क़दीम इतालवी राहिब मुसव्विरों के शाहकारों की याद ताज़ा करता है, ये ग़लीचा नहीं है तारीख़ है इंसान की, इंसान की रूह की!” <br />
<br />
वो मुस्कुराई, दाँत बेहद सपेद थे, लेकिन ज़रा टेढ़े-मेढ़े और एक दूसरे से बहुत क़रीब, फिर भी वो मुस्कुराहट अच्छी तरह मा’लूम हुई, कहने लगी, “क्या आप कभी इटली गए हैं?” <br />
<br />
मैंने कहा, “इटली कहाँ मैं तो कभी हज़रतगंज के उस पार नहीं गया, उ’म्र गुज़री है इसी वीराने में, ये पान की दुकान और सामने वो काफ़ी हाऊस।” <br />
<br />
मैनेजर ने अब तआ’रुफ़ कराना मुनासिब समझा। बोला, “आप आर्टिस्ट हैं। काग़ज़ पर तस्वीर खींचते हैं, ये मिस रूपवती हैं। यहाँ लड़कियों के कॉलेज में प्रिंसिपल हो कर आई हैं। अभी-अभी इंगलैंड से ता’लीम हासिल कर के यहाँ...” <br />
<br />
वो बोली, “चलिए तो ये ग़लीचा आप ही लीजिए। मुझे तो ख़ास पसंद नहीं।” <br />
<br />
“आपका बड़ा एहसान है।”, मैंने ग़लीचे की क़ीमत अदा करते हुए कहा, “क्या आप मेरे साथ... काफ़ी पीना गवारा करेंगी, चलिए न ज़रा काफ़ी हाऊस तक, अगर ना-गवार-ए-ख़ातिर या’नी...” <br />
<br />
“शुक्रिया। मगर मैं ज़रा ये ब्लाउज़ देख लूँ।”, वो फिर मुस्कुराई। मुस्कुराहट भली मा’लूम हुई। ज़हीन बैज़वी चेहरे का रंग ज़र्द था। संदली रंग पर लबों की हल्की सी सुर्ख़ी इक अ’जब रसीला तमव्वुज सा पैदा कर रही थी। ब्लाउज़ का कपड़ा ख़रीदकर जब वो मेरे साथ चलने लगी तो लड़खड़ा गई। मैंने बाँह से पकड़कर सहारा दिया और पूछा, “क्या बात है। क्या आप हमेशा लड़खड़ाकर चलती हैं।” <br />
<br />
वो बोली, “नहीं तो...” <br />
<br />
मैंने ग़ौर से देखा, पाँव पर पट्टी बंधी हुई थी। <br />
<br />
“ज़ख़्म है?”, मैंने पूछा। <br />
<br />
“हाँ। अंगूठे का नाख़ुन बढ़ गया था, जिल्द के अन्दर... जहाज़ का सर्जन बिल्कुल गधा था।” <br />
<br />
उसने माथे पर साड़ी का पल्लू सरकाया और जब वो पहली बार मुड़ी तो मैंने उसके बालों में गर्दन के क़रीब दाईं तरफ़ गुलाब के ज़र्द फूल टके हुए देखे, फिर जब वो मुड़ी तो माथे का क़ुमक़ुम दरख़्शाँ नज़र आया। इससे पहले क्यों ये क़ुमक़ुम इस क़दर ख़ूबसूरत न था? काफ़ी हाऊस में बैठकर मा’लूम हुआ कि वो ख़ूबसूरत थी, कुछ तो काफ़ी हाऊस में रोशनी का इंतिज़ाम ऐसा है कि मर्द बदसूरत नज़र आते हैं, औ’रतें हसीन-तर, फिर... हाँ... कुछ तो था, वर्ना ये लोग बार-बार मुड़कर क्यों देखते थे, औ’रतें तेज़ निगाह से क्यों घूरती थीं, बैरे इतनी जल्दी मेज़ पर क्यों थे। <br />
<br />
वो मुस्कुराकर कहने लगी, “देखो बैरे, थोड़ा सा गर्म दूध और गर्म पानी एक अलग प्याले में।” <br />
<br />
“गर्म पानी तो...”, बैरे ने रुक कर कहा। <br />
<br />
“थोड़ा सा गर्म पानी। बस !”, वो फिर मुस्कुराई और बैरा सर से लेकर पाँव तक पिघल गया। जैसे उसका सारा जिस्म शीशे का बना हो, मैं उसे पिघलते हुए देख रहा था, उसके होंटों पर मुस्कुराहट आई और उसके सारे जिस्म को पिघलाती हुई चली गई। ये निगाह क्या है? ये तजल्ली कैसी है? क्या ये काफ़ी हाऊस की बिजलियों का शो’बदा तो नहीं! <br />
<br />
“और बैरा... अंडे के सैंडविच।”, वो फिर बोली। बैरे ने वापिस आकर कहा, “जी अंडे के सैंडविच तो ख़त्म हो गए।” <br />
<br />
“थोड़े से भी नहीं हैं?” <br />
<br />
उसकी बड़ी-बड़ी मा’सूम ज़ख़्मी सी आँखें और भी खुलती हुई मा’लूम हुईं, “बस दो-चार एक प्लेट भी नहीं?” <br />
<br />
सैंडविच भी मिल गए। <br />
<br />
“नहीं, बिल मैं अदा करूँगी!” <br />
<br />
“नहीं, ये कैसे हो सकता है। मैं मर्द हूँ।” <br />
<br />
वो हँसी, “बहुत पुरानी बात है।” <br />
<br />
और उसने बिल अदा कर दिया। <br />
<br />
घर पर नौकर को ग़लीचा पसंद न आया, उन दिनों एक तुनुक-मिज़ाज शाइ’र मेहमान था और जो आज़ाद बहर में नज़्में लिखा करता था। शराब पीता था और पाँच वक़्त-ए-नमाज़ अदा करता था, उसे भी ये ग़लीचा पसंद न आया। मैंने पूछा तो “हूँ” कर के रह गया, वो नज़्में जितनी लंबी लिखता था, बातें उसी निस्बत से कम करता था। <br />
<br />
“हूँ का क्या मतलब है।”, मैंने चिढ़कर कहा, “कुछ तो कहो। इन रंगों का तनासुब।” <br />
<br />
“हूँ।” <br />
<br />
रूप उसे बड़े ग़ौर से देख रही थी, अब खिलखिलाकर हँस पड़ी, उस सड़े-बुसे शाइ’र से कहने लगी, अपनी ताज़ा नज़्म सुनाओ... तुम्हें मा’लूम है आजकल स्पेंडर और रोडन इग़्लामियत के हक़ में नज़्में लिख रहे हैं।” <br />
<br />
“हूँ।”, वो अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरकर गुर्राया। <br />
<br />
मैंने रूप से पूछा, “तुम्हें कैसे मा’लूम है? क्या उन लोगों ने तुम्हें अपनी नज़्में सुनाई थीं।” <br />
<br />
“नहीं। लेकिन मुझे जो ने बताया था।” <br />
<br />
“कौन? जो?” <br />
<br />
“जो ब्राउन, नाम नहीं सुना है किया? आजकल ऑक्सफ़ोर्ड का महबूब-तरीन शाइ’र है, हिन्दोस्तान में अभी उसका कलाम नहीं पहुँचा, लंदन में मुझ पर आ’शिक़ हो गया था।” <br />
<br />
वो कुछ अजब, कुछ बे-बाक, कुछ शर्मीली सी हँसी के साथ कहने लगी और माथे का क़ुमक़ुम या’क़ूत की तरह दमकने लगा। <br />
<br />
मैंने पूछा, “तुम्हारी ज़िंदगी फ़ुतूहात से पुर मा’लूम होती है।” <br />
<br />
“नहीं।”, उसने आह भर कर कहा। इस तरह कि मेरा जी चाहा उसे गले से लगा लूँ। <br />
<br />
“हूँ।”, शाइ’र बोला। <br />
<br />
रूप मुस्कुराकर कहने लगी, “तुम्हारा शाइ’र बहुत बातूनी है... सुनो... तुम्हें एक नज़्म सुनाती हूँ।” <br />
<br />
मेरी हैरत बढ़ती जा रही थी, मैंने पूछा, “तुम शाइ’र भी हो।” <br />
<br />
“नहीं। ये नज़्म मेरी वालिदा ने कही थी।” <br />
<br />
“ठहरो। मुझे ये ग़लीचा बिछा लेने दो।” <br />
<br />
ग़लीचा बिछ गया। और नज़्म रूप ने गाकर सुनाई। बंगाली नज़्म थी, उदास, महज़ू, शब-ए-फ़िराक़ की जली हुई, लय शम्अ’ की तरह ख़ूबसूरत थी, आवाज़ शो’ले की तरह लर्ज़ां, तअस्सुर शराब की तरह ख़ुमार-आगीं, बंगाली दोशीज़ाएँ क़तार अन्दर... घड़े उठाए हुए घाट की तरफ़ जा रही थीं। समंदर की सब्ज़ लहरें उछल रही थीं। शिव जी का डमरू बज रहा था, पार्बती रक़्स कर रही थीं, बर्फ़ गिर रही थी... अब फ़िज़ा ख़ामोश थी और रूप की आँखों में आँसू थे। आँसू रुख़्सारों से ढलक कर ग़लीचे पर गिर पड़े और वो सुर्ख़ मुस्ततील, जैसे आग का शो’ला गई...! <br />
<br />
“तुम्हें जो ब्राउन से इ’श्क़ नहीं हुआ।”, मैंने पूछा। <br />
<br />
रूप ने अपने आँसू पोंछ डाले। बोली, “मुझे जिस लड़के से इ’श्क़ था, उसे लंदन ही में तपेदिक़ हो गया था। वो जहाज़ पर मेरे साथ आ रहा था, लेकिन रास्ते ही में उसकी मौत हो गई, अ’दन से परे बहीरा-ए-सुर्ख़ में!” <br />
<br />
“बहीरा-ए-सुर्ख़।”, मैंने सोचा और ग़ालीचे की सुर्ख़ मुस्ततील बहीरा-ए-सुर्ख़ बन गई और उसके गहरे पानियों में मुझे इक ज़र्द रूखा नसता हुआ चेहरा नज़र आया और फिर भंवर में ग़ायब हो गया, महव-ए-ख़्वाब है रूप का महबूब, सुर्ख़ समंदर के पानियों में और रूप के आँसू मेरे ग़ालीचे पर गिर रहे हैं... <br />
<br />
“हूँ।”, शाइ’र ने कहा। और मैंने एक किताब उसके सर पर्दे मारी। <br />
<br />
रूप आँसुओं में मुस्कुरा दी, बाज़-औक़ात आँसू रोने से आँसू पीना ज़ियादा अन्दोहनाक मा’लूम होता है! <br />
<br />
रूप कैसी अ’जीब सी लड़की थी वो। लंदन में शाइ’र जो ब्राउन उसे मुहब्बत करता था और लखनऊ में हज़रतगंज का ये आवारा मिज़ाज ग़रीब और आर्टिस्ट उसकी मुहब्बत में गिरफ़्तार हो गया, ये जानते हुए भी कि ये ज़हर है, वो किस तरह इस प्याले को पी गया, यासियत, ना-मुरादी, बेबसी, इ’श्क़ का जवाब हमेशा इ’श्क़ क्यों नहीं होता? ये कैसी आग है जो एक को जलाती है और दूसरे के दिल में बर्फ़ की सिल बन जाती है, जो महरूम-ए-तमन्ना को आँसू रुलाती है और जान-ए-तमन्ना के लबों पर तबस्सुम-रेज़ साया भी नहीं ला सकती। मैंने ग़लीचे से थपकते हुए पूछा। <br />
<br />
ग़लीचे ने कहा, “मैं सलीब हूँ, मैं दुख और दर्द जानता हूँ, दुख और दर्द की दवा नहीं जानता!” <br />
<br />
और रूप ने कहा, “ये क़िस्मत है, क़िस्मत तुम्हें ग़लीचा ख़रीदने के लिए वहाँ ले गई। क़िस्मत ने तुम्हें मुझसे रू-शनास होने का मौक़ा’ दिया, अब ये तुम्हारी क़िस्मत है कि मुझे तुमसे वो मुहब्बत न हो सकी। हज़ार कोशिश करने पर भी ये रिफ़ाक़त, मुहब्बत में मुबद्दल नहीं हो सकती। ये क़िस्मत नहीं तो और क्या है?” <br />
<br />
फिर कहने लगी, “शाइ’र अपने शे’र सुनाओ।” <br />
<br />
चंद रोज़ के बा’द उसने यकायक मुझसे कहा, “मुझे तुम्हारे शाइ’र से मुहब्बत हो गई है।” <br />
<br />
“झूट... उस चुग़्द से...” <br />
<br />
“उसकी आँखें देखीं तुमने।”, वो आह भर कर बोली, “जैसे मसीह दार पर लटका हो। कितना अंदोह है उनमें!” <br />
<br />
मैंने कहा, “अगर तुम कहो तो मैं अपनी आँखें अंधी कर लूँ।” <br />
<br />
शायद मेरी तल्ख़ी उसे नागवार गुज़री। संजीदा हो कर बोली, “क्या करूँ?” <br />
<br />
“हाँ... दिल ही तो है!”, मैंने तंज़न कहा। <br />
<br />
“हूँ।”, शाइ’र बोला। <br />
<br />
जिस रोज़ दोनों रुख़्सत हुए, मैंने घर पर इक छोटी सी दावत की, रूप ने ढाके की सियाह सारी पहनी हुई थी। आँखों में काजल गहरा था। रेशमी चूड़ियों का रंग भी सियाह था। हर रोज़ उसे देखकर उजियाले का, सूरज का, चाँद की किरन का, रोशनी का एहसास होता था। जाने आज उसे देख देखकर क्यों तारीकी का एहसास हो रहा था। क्यों वो इस अपनी मुकम्मल कामरानी के लम्हों में भी मुजस्सम यास-ओ-ग़म की तस्वीर दिखाई देती थी, क्या ये ग़रीब आर्टिस्ट के दिल का अंधेरा तो नहीं था। <br />
<br />
क्या ये उसके ब्रश की तारीकी तो थी! आज मैंने उससे वही गीत सुनने की तमन्ना की थी जो उसने पहले रोज़ गाया था। मुझे याद है, गाने के बा’द वो नाची भी थी, मैंने उसका चेहरा नहीं देखा, मैं उसके पाँव देखता रहा, धुँदले-धुँदले तारीक से पाँव जिनमें हिना की सुर्ख़ लकीर बिजली की तरह चमक-चमक जाती थी, इस तारीकी में सिर्फ़ यहाँ रोशनी थी, वो नाचती रही और मैं इस तारीकी में हिनाई लकीर का नाच देखता रहा, और जब नाच भी बंद हो गया, तो मैंने वो पाँव उठाकर अपने सीने में रख लिए, क्यों ये पाँव आज तक इस सीने में महफ़ूज़ हैं... क्या इस एहराम में ममियों के सिवाए और किसी के लिए जगह नहीं? <br />
<br />
जब वो चली गई तो मैं फिर ग़लीचे पर आ बैठा। ज़र्द गुलाब की इक कली उसके जोड़े से निकलकर ग़लीचे पर पड़ी रह गई थी। मेरे दिल में शायद अब रूप की कोई याद बाक़ी नहीं, सिर्फ़ ये दो पाँव हैं और इक ये गुलाब की ज़र्द कली... कैसी तस्वीर है ये? मुसव्विर हो कर भी मैंने शायद ऐसी अ’जीब तस्वीर इससे पहले कभी न बनाई थी... <br />
<br />
फिर मैं ग़लीचे से पूछता हूँ। <br />
<br />
ग़लीचा कहता है, “मैं तो सलीब हूँ, सलीब मौत बख़्शती है, उसे ज़िंदगी की तर्तीब, मुनासिब तवातुर से आगाही नहीं...” <br />
<br />
अच्छा इसे भी जाने दो। जो हुआ सो हुआ। अगर ज़िंदगी में क़ब्र ही का मज़ा लेना है तो क्यों न उसे आराम से हासिल किया जाए, अगर शहद में ज़हर ही मिलाकर पीना है, तो क्यों न ख़ालिस ज़हर पिया जाए। अगर मा’सूमियत बरक़रार नहीं रह सकती तो क्यों न गहरी मा’सियत की आग़ोश में पनाह ली जाए, आओ, अपने दिल में ज़मीर की जो हल्की सी शम्अ’ रह गई है उसे भी ख़मोश कर दें और बढ़ती हुई तारीकी में गुनाह फैलते हुए दूद को देखें और ज़िंदगी का मुँह चिढ़ाएँ और क़हक़हे लगाएँ। मुहब्बत न सही, बुल-हवसी सही! <br />
<br />
आर्टिस्ट ने एक और लड़की से आश्नाई पैदा कर ली, जो वीक में मुलाज़िम थी, उसका नाम था आशा लेकिन सूरत पर बिल्कुल निराशा बरसती थी, ऐसी भूकी लड़की थी वो, कभी मर्द देखा ही न था, कुतिया की तरह साथ-साथ लगी फिरती थी, बे-चारी आर्टिस्ट को शायद उस पर रहम आने लगा था, वो उसके साथ शफ़क़त बरतने लगा। इक मुरब्बियाना, पिदराना अंदाज़ के साथ अब वो उसे हर जगह लिए फिरता, लोग तंज़न उसके हुस्न-ए-इंतिख़ाब की दाद देते और वो बड़े ख़ुलूस से दाद क़बूल करता, कोई कहता, “भई, बड़ी बदसूरत है। तुमने क्या सोचकर...” तो वो लड़ने पर आमादा हो जाता, घंटों उसकी ख़ूबसूरती का तज्ज़िया करता, कोयले से उसने आशा की तस्वीर बनाई थी और अपने स्टूडियो में हरकिस-ओ-नाक़िस को वो ये तस्वीर दिखाता था। वो अपने ज़ख़्म दिखा रहा था। देखो... देखो... मुझे तुम्हारी क्या पर्वा है... मैं अपनी रूह का आप मालिक हूँ... ज़हर-ख़ंद... कोयले <br />
<br />
लेकिन वो कभी हज़रत गंज के उस पार न गया था। अब वहाँ से भागने का इरादा करने लगा। फ़ुटपाथ पर चलते-चलते वो हज़ारों उल्टे सीधे ख़्वाब देखने लगा, रह-गुज़र के हर पत्थर पर उसे किसी के पैरों के धुँदले-धुँदले साये काँपते हुए मा’लूम होते, काफ़ी की प्याली के हर सांस में क़ुमक़ुम तैरते हुए दिखाई देते, ये हँसी? वो मुड़कर देखता कहाँ से आई थी लेकिन ये तो वही कश्मीरी पालतू मैना अपने पिंजरे में चहक रही थी, बुलबुल क़फ़स की तीलियाँ तोड़ कर परवाज़ कर गई थी और वो अभी तक क्यों हज़रतगंज के वीराने में मुक़य्यद था... क्यों? <br />
<br />
क्यों? वो हिनाई लकीर बार-बार बिजली की तरह चमक कर उससे बार-बार पूछ रही थी। <br />
<br />
अब जबकि वो शहर छोड़कर जा रहा था, उसने अपने सब दोस्तों को, उस वीक लड़की को, और उसकी सब सहेलियों को आख़िरी दा’वत दी थी, और जब दा’वत के बा’द सब लोग चले गए थे तो वीक लड़की हैरान-ओ-परेशान इस ग़लीचे पर बैठी रही थी और फिर यकायक उसके सीने से लगकर रो पड़ी थी, ये गर्म-गर्म आँसू जो उसके सीने में बर्फ़ के फूल बनते जा रहे थे। इ’श्क़ का जवाब इ’श्क़ क्यों नहीं होता, ये कैसी आग है जो एक को जलाती है और दूसरों के दिल में बर्फ़ की सिल बन जाती है। <br />
<br />
वीक लड़की ग़लीचे पर लेटी थी, बाज़ू ऊपर के ख़ुतूत-ए-वहदानी के हक में थे। पाँव नीचे के ख़ुतूत-ए-वहदानी में। ग़लीचे ने चुपके से उसके दिल में एक सियाह मेख़ ठोंक दी, एहराम के लिए एक और ममी तैयार हो गई, लेकिन वहाँ जगह कहाँ थी, सीने में अब भी वही दो पाँव नाच रहे थे... और वही गुलाब की इक कली! <br />
<br />
मैंने ग़लीचे से पूछा, “ये कैसा खेल है? मैं किस का मुँह चिड़ा रहा हूँ, ये ज़ख़्म किसके हैं? ये लड़की क्यों रो रही है, अगर ये सब क़िस्मत है तो फिर ये काविश-ए-पैहम क्या है जो ममी को भी ज़िंदा कर देने पर तुली हुई है।” <br />
<br />
ग़लीचे ने जवाब दिया, “मुझे मा’लूम नहीं। मैं तो एक सलीब हूँ, जो दिल में सियाह कील ठोंकती है, सपेद रोशनी नहीं लाती, जो क़िस्मत का अंजाम दिखाती है, उसका आग़ाज़-ओ-शबाब नहीं!” <br />
<br />
तुझे जलाकर ख़ाक न कर डालूँ ! <br />
<br />
इस नए शहर में ! <br />
<br />
चार आदमी ग़लीचे पर ताश खेल रहे हैं । <br />
<br />
दो ऐक्टर <br />
<br />
दो तुज्जार <br />
<br />
और जो तमाशा देख रहा है वो आर्टिस्ट है! <br />
<br />
ताश खेलते-खेलते ऐक्टर और तुज्जार (व्यापारी) लड़ना शुरू’ करते हैं, हाथा-पाई की नौबत आती है, ग़लीचा नोचा जाता है, क्योंकि एक चाल में एक तुज्जार ग़लती से या जानबूझकर आठ आने ज़ियादा ले गया था। मेरा गिरेबान तार-तार हो चुका है, क्योंकि जो आदमी लड़ाई रफ़ा करना चाहता है, वही सबसे ज़ियादा पिटता है। फिर मैं सोचता हूँ, इस बद-मज़गी को दूर करने का क्या तरीक़ा है, बज़्ला-संजी ना-मुम्किन। ग्रामोफोन? बड़ा वाहियात! चाय ला’नत! शराब? सुब्हान-अल्लाह ! <br />
<br />
सब लोग शराब पी रहे हैं, आर्टिस्ट की आँखें सुर्ख़ हैं, हमेशा हँसने और ख़ुश रहने वाला ख़ुश शक्ल ऐक्टर हमेशा चुप रहने वाले क़ुबूल-ए-सूरत ऐक्टर से कह रहा है, मुहब्बत? मुहब्बत? साला तू मुहब्बत क्या जाने, अभी कॉलेज का लौंडा है तो... ऐं... मुहब्बत का नशा मुझसे पूछ... साली ये शराब भी बिल्कुल तल्ख़ नहीं है... रानी को तू देखा है तूने? <br />
<br />
“रानी 1945 की बेहतरीन ऐक्ट्रस है ना।”, मैंने पूछा। <br />
<br />
“जी हाँ, वो... वही... साला तो क्या जाने... वो मेरी महबूबा है... समझे...? ऐं मैंने उसके लिए अपने माँ बाप की गालियाँ खाईं... कई लड़ाईयां लड़ीं रक़ीबों से... अपना घर-बार छोड़ दिया... ये अँगूठी शाले देखते हो, ये क़मीस के बटन, ये कफ़ बटन, ये सब सोने के हैं, शाले तो क्या जाने... ये सब उसने दिए हैं... तोहफ़े... मगर मैं उससे शादी नहीं करूँगा। कभी नहीं करूँगा!”, उसने फ़ैसला-कुन अंदाज़ में कहा। <br />
<br />
“क्यों?” <br />
<br />
“वो मुझे चाहती है। पर वो मुझसे बहुत अमीर है। वो चाहती है कि मुझसे शादी कर ले, पर मैं मर जाऊँगा, उससे ब्याह नहीं करूँगा!” <br />
<br />
“तुम्हें इस से मुहब्बत नहीं!”, एक तुज्जार ने पूछा। <br />
<br />
“लेकिन भई घर आई दौलत क्यों छोड़ते हो।”, दूसरे तुज्जार ने पूछा। <br />
<br />
ऐक्टर ने मुट्ठियाँ भींच कर कहा, “मैं जो हूँ वही रहूँगा। मैं उससे मुहब्बत करता हूँ, लेकिन उसका ग़ुलाम बन कर नहीं रह सकता, मैं उसकी मुहब्बत चाहता हूँ, दौलत नहीं, ऊख़ !” <br />
<br />
ऐक्टर ने ज़ोर से ग़लीचे पर हाथ मारकर कहा। और फिर क़हक़हा लगा कर हँसने लगा। <br />
<br />
ग़लीचा काँप उठा। उसका रंग अ’जीब सा हो गया। और शराब दे हराम-ज़ादे वो अपने ख़ाली गिलास को टटोल रहा था। <br />
<br />
मैंने कहा, “रानी? अरे भई। आज ही तो मैंने अख़बार में पढ़ा है कि रानी ने एक अमरीकन से शादी कर ली।” <br />
<br />
ऐक्टर ने आहिस्ता से शराब का गिलास ग़ालीचे पर लुंढा दिया। उसकी उँगलियाँ कांच की सत्ह पर सख़्ती से जम गईं। कांच उसकी उँगलियों को ज़ख़्मी करता हुआ रेज़ा-रेज़ा हो गया। वो रुँधे हुए गले से कहने लगा, “ये ग़लत है, बिल्कुल ग़लत है!” <br />
<br />
आर्टिस्ट ने मेज़ पर से अख़बार उठा कर पढ़ा। <br />
<br />
ऐक्टर का चेहरा...। <br />
<br />
वो ग़लीचे पर दोनों कुहनियाँ टेके मेरी तरफ़ देख रहा था। उसके चेहरे रंग का बदलने लगा... उसका चेहरा सुता जा रहा था। ममी के ख़द-ओ-ख़ाल उभर रहे थे। <br />
<br />
“ये ग़लत है। बिल्कुल ग़लत है।”, वो फिर चीख़ा। फिर एक दम ख़ामोश हो गया। <br />
<br />
दूसरा ऐक्टर उसके गिलास में शराब उंडेलने लगा। वो अब भी ख़ामोश था, लेकिन पहला ऐक्टर ग़लीचे से लग कर सिसकियाँ ले रहा था। फिर उस ने ग़ालीचे पर क़य कर दी... मुझे ग़ालीचे का रंग उड़ता हुआ मा’लूम हुआ। सुर्ख़ से सपेद-ओ-ज़र्द... जैसे ये ग़ालीचा न हो, ज़िंदगी का कफ़न हो <br />
<br />
रानी! रानी! रानी! <br />
<br />
सुब्ह मैंने ग़लीचा धुलवाया और साफ़ करा के फिर कमरे में रखा, कि मेरी महबूबा कमरे में दाख़िल हुई, ये मेरी नए शहर की महबूबा थी, यहाँ आकर आर्टिस्ट ने फिर इ’श्क़ कर लिया था। इ’श्क़ करना किस क़दर मुश्किल है लेकिन जब इ’श्क़ मर जाए, उसके बा’द इ’श्क़ करना किस क़दर आसान हो जाता है! है ना, मर्दूद बोलते क्यों नहीं? जवाब दो! <br />
<br />
मेरी महबूबा के होंट मोटे थे, रुख़्सार भी मोटे। जिस्म भी मोटा, हँसी भी मोटी, अ’क़्ल भी मोटी, वो औ’रत न थी, इक दोहरा-तिहरा ग़ालीचा थी। आज उसने अपने बालों की दो चोटियाँ बना डाली थीं और उनमें चम्बेली के फूल सजाए थे। <br />
<br />
वो ग़ालीचे पर आकर बैठ गई। मैंने उसकी बलाएँ लेकर कहा, “आज तो तुम क्लियोपैत्रा को भी मात करती हो।” <br />
<br />
“क्लियोपैत्रा क्या है?”, उसने पूछा। <br />
<br />
“मिस्र की मलिका थी।” <br />
<br />
“मिस्र?” <br />
<br />
“हाँ मिस्र वो मुल्क जहाँ मरने के बा’द एहराम तैयार होते हैं और मर्दों की ममियाँ तैयार की जाती हैं... ख़ुदा करे तुम्हारी मौत भी क्लियोपैत्रा की तरह हो!” <br />
<br />
“हाय कैसी बातें करते हो? क्या हुआ था उसे?” <br />
<br />
“साँप से डसवा कर मर गई थी।” <br />
<br />
वो इक हल्की सी चीख़ मार कर मेरे क़रीब आ गई, “डराते हो मुझे?” <br />
<br />
उसने मेरा बाज़ू पकड़ कर कहा। फिर वो हँसी, अपनी मोटी भद्दी हँसी, जैसे भैंस जुगाली कर रही हो। फिर उसने अपने होंट मेरे आगे बढ़ा दिए। जैसे कोई फ़य्याज़ जाट किसी अजनबी शहरी को गन्ना चूसने को दे दे। मैंने गन्ना चूसते हुए कहा, “ये ग़ालीचा जीता एक-बार है लेकिन मरता बार-बार है... तो, ये मौत बार-बार क्यों आती है... अब आ भी जाए मौत! <br />
<br />
“आज ये तुम क्यों बार-बार मौत का ज़िक्र रहे हो।”, वो मिनमिनाई। <br />
<br />
“कुछ नहीं। तुम नहीं समझोगी।”, मैंने कहा, “हाँ ये तो बताओ, आज तुम्हारे ताज़ा लबों से, रुख़्सारों से, आँखों से, बालों से, ये कैसी लतीफ़ ख़ुशबू निकल रही है।” <br />
<br />
“कुछ नहीं!”, वो हँसकर बोली, “आज खोपरे का ख़ुशबूदार तेल लगाया है।” <br />
<br />
मैंने ग़ालीचे की तरफ़ कनखियों से देखा, उसका रंग उड़ता जा रहा था। बेचारा एक-बार फिर मर रहा था, उसकी जाँ-कनी मुझसे देखी न जाती थी। मैं घबरा कर कमरे से बाहर निकल गया। सीधा स्टेशन पहुँच गया, इरादा था, जी भरकर पियूँगा। बियर पियूँगा। न सिर्फ़ अपने गुर्दों को बल्कि अपनी रूह को भी जुलाब दूँगा ताकि ये सारा कूड़ा-कर्कट बह जाए। निकल जाए। तबीअ’त हल्की हो जाए। <br />
<br />
स्टेशन पर बियर से पहले रूप मिल गई। <br />
<br />
“अरे? तुम कहाँ?” <br />
<br />
“जूनागढ़ गई थी पहाड़ पर।” <br />
<br />
“और शाइ’र?” <br />
<br />
वो खांस कर कहने लगी, “उसने मुझे छोड़ दिया है।” <br />
<br />
“छोड़ दिया? क्यों?” <br />
<br />
“मुझे तपेदिक़ है, जूनागढ़ सैनीटोरियम में गई थी ना!” <br />
<br />
उसकी निगाहों में सब्ज़-रंग का समंदर था और इक ज़र्द-ओ-नहीफ़ चेहरा भंवर में ग़ोते खा रहा था, फिर वो चेहरा भी ग़ायब हो गया, अब शाइ’र का सड़ा-बसा बुशरा लहरों पर तैरने लगा, शाइ’र का चेहरा सर हिला कर कह रहा था, “हूँ।” <br />
<br />
मैंने कहा, “कहाँ है वो हरामज़ादा?” <br />
<br />
“जाने दो।”, वो महज़ू अंदाज़ में कहने लगी, “उसे गाली ना दो... मुझे उससे अभी तक मुहब्बत है!” <br />
<br />
“लेकिन...” <br />
<br />
“हाँ।”, वो बोली, “इस लेकिन के बा’द भी... अब मैं अपने घर जा रही हूँ, मैके, आराम से मरूँगी।” <br />
<br />
“नहीं, नहीं।”, मैंने सख़्ती से कहा, “अब मैं तुम्हें नहीं जाने दूँगा, ज़िंदगी ने तुम्हें मुझसे छीन लिया, अब मौत के दरवाज़े तक हम दोनों इकट्ठे चलेंगे और अगर इस दुनिया के बा’द कोई दूसरी दुनिया है तो शायद...” <br />
<br />
वो हँसी, वही उजियाली हँसी, वही संदली चेहरा, वही दमकता हुआ क़ुमक़ुम। मैंने उसकी बाँह पकड़ कर कहा, “घर चलो... रूप जीते-जी तुमने मुझे अपने साथ न रहने दिया। अब मौत के चंद लम्हे तो बख़्श दो। <br />
<br />
वो मुस्कुराई। <br />
<br />
बोली, “तुम नहीं जानते? मुहब्बत ज़िंदगी में और मौत में भी यकसाँ सुलूक करती है!” <br />
<br />
गाड़ी ने सीटी दी। वो बोली, “मुझे उम्मीद न थी तुम कभी मिलोगे। अफ़सोस है कि मैं यहाँ रुक नहीं सकती, हाँ ये किताब तुम्हें दे सकती हूँ, रिल्के की नज़्में।” <br />
<br />
गार्ड ने झंडी दिखाई। वो अपने डिब्बे की तरफ़ चल दी, मैं उसके चेहरे की तरफ़ न देख सका। मेरी आँखें फिर उसके पाँव पर गड़ गईं, वो पाँव चलते गए, चलते गए, दूर जाते हुए भी गोया क़रीब आते गए, बिल्कुल मेरे सीने पर आ गए और मैंने उन्हें उठा कर अपने सीने के अंदर छिपा लिया। <br />
<br />
मैंने निगाह उठाई। गाड़ी जा चुकी थी महबूबा अभी तक मेरी राह देख रही थी। बोली, कहाँ चले गए थे। मैं चुप हो रहा। <br />
<br />
“ये कौन सी किताब है।” <br />
<br />
“रिल्के की।” <br />
<br />
“क्या?” <br />
<br />
“एक शाइ’र की नज़्में हैं।” <br />
<br />
“मुझे सुनाओ। क्या कहता है?” <br />
<br />
मैंने किताब खोली। पंद्रहवाँ सफ़्हा आँखों के सामने आया। आहिस्ता से पढ़ना शुरू’ किया, “ऐ ख़ुदा तूने ज़िंदगी अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ दी, अब मौत तो मेरी मर्ज़ी के मुताबिक़ बख़्श दे। तुझसे और कुछ नहीं चाहता हूँ ख़ुदावंद!” <br />
<br />
“फिर मौत !”, वो बोली, “बुरा शगुन है ।” <br />
<br />
उसने किताब मेरे हाथ से छीन कर अलग कर दी और अपने लब मेरी तरफ़ बढ़ा दिए। ग़लीचा उबल रहा था। बिल्कुल आग... शो’लों का दरिया। पीप का समंदर, ज़हर का खौलता हुआ गर्म चश्मा, मैंने उससे पूछा, “तुम सलीब हो, तुमने आदमी के बेटे को मसीहा बना दिया। बताओ मुझे क्या बनाओगे?” ग़लीचे ने कहा, “जो तुम ख़ुद बन चुके हो। इक एहराम... इक खोखला एहराम जिसके सीने में ममियाँ दफ़्न हैं!” <br />
<br />
मैंने अपनी महबूबा से कहा, “मेरा जी चाहता है। इस ग़लीचे को जला कर ख़ाक कर डालूँ।” <br />
<br />
वो बोली, “हाँ, पुराना तो हो गया है।” <br />
<br />
“लेकिन...”, मैंने रुक कर अफ़्सुर्दा लहजे में कहा, “मेरे पास तो यही एक ग़लीचा है और यही एक ज़िंदगी है। न इसे बदल सकता हूँ। न उसे। <br />
<br />
ये कह कर आर्टिस्ट गन्ना चूसने लगा।</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%A8_%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%B0&diff=44168कृश्न चन्दर2024-03-18T20:54:37Z<p>अनिल जनविजय: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=Krishnachandar.jpg <br />
|नाम=कृश्न चन्दर<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म= 23 नवंबर 1914 <br />
|जन्मस्थान=वजीराबाद, गुजराँवाला (अब पाकिस्तान में)<br />
|कृतियाँ=पूरे चाँद की रात, एक गधे की आत्मकथा, प्यासी धरती प्यासे लोग<br />
|विविध= पद्मभूषण (1969)<br />
|जीवनी=[[कृश्न चन्दर / परिचय]]<br />
}}<br />
'''संस्मरण'''<br />
* [[सआदत हसन मण्टो : ख़ाली बोतल भरा हुआ दिल / कृश्न चन्दर]]<br />
''' कहानी संग्रह '''<br />
* '''[[पूरे चाँद की रात / कृश्न चन्दर]]'''<br />
<br />
'''कहानियाँ'''<br />
* [[पेशावर एक्सप्रेस / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[जामुन का पेड़ / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[अजनबी आँखें / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[अन्न-दाता / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[अमृतसर आज़ादी से पहले / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[आधे घण्टे का ख़ुदा / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[एक तवाइफ़ का ख़त / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[कचरा बाबा / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[खिड़कियाँ / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[ग़लीचा / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[चन्द्रु की दुनिया / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[ताई इसरी / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[थाली का बैंगन / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[दानी / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[दो फ़र्लांग लंबी सड़क / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[पानी का दरख़्त / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[पुराने ख़ुदा / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[पूरे चाँद की रात / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[पेशावर एक्सप्रेस / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[ममता / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[महालक्ष्मी का पुल / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[शहज़ादा / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[सौ रुपये / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[पुँछ की क्लियोपैट्रा / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[पत्नी-प्रेम / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[अमृतसर आज़ादी के बाद / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[भगत राम / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[चांदी का कमरबन्द / कृश्न चन्दर]] <br />
* [[कालू भंगी / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[कुँवारी / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[मीना बाज़ार / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[मेरा बच्चा / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[मोहब्बत की पहचान / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[पहला दिन / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[टूटे हुए तारे / कृश्न चन्दर]] <br />
'''उपन्यास '''<br />
* [[एक लड़की हज़ार दीवाने / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[एक गधे की आत्मकथा / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[एक गधा नेफ़ा में / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[तूफ़ान की कलियाँ / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[कार्निवाल / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[तूफ़ान की कलियाँ / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[एक गधे की वापसी / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[गद्दार/ कृश्न चन्दर]]<br />
* [[सपनों का क़ैदी/ कृश्न चन्दर]]<br />
* [[सफ़ेद फूल / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[तूफ़ान की कलियाँ / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[प्यास/ कृश्न चन्दर]]<br />
* [[यादों के चिनार/ कृश्न चन्दर]]<br />
* [[मिट्टी के सनम / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[रेत का महल / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[कागज़ की नाव / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[चांदी का घाव / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[दिल, दौलत और दुनिया / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[प्यासी धरती प्यासे लोग / कृश्न चन्दर]]<br />
* [[पराजय/ कृश्न चन्दर]]</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%95%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A4%AC%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6_/_%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%A8_%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%B0&diff=44167चांदी का कमरबन्द / कृश्न चन्दर2024-03-18T20:49:53Z<p>अनिल जनविजय: '{{GKCatKahani}} हर दो-तीन साल के वक़्फ़े पर एक शादी-शुदा शख़्स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
<hr />
<div>{{GKCatKahani}}<br />
हर दो-तीन साल के वक़्फ़े पर एक शादी-शुदा शख़्स अलग-अलग शहरों में जाता है और वहाँ ख़ूबसूरत और अमीर औरतों से इश्क़ फरमा कर उन्हें ठगता है। उस बार वह कलकत्ता जाता है। कलकत्ता में दो महीने रहने के बाद भी उसे कोई शिकार नहीं मिलता है। फिर अचानक ही एक और नौजवान, ख़ूबसूरत और अमीर लड़की से उसकी मुलाक़ात होती है। वह बहुत सजी-सँवरी है। उसकी कमर के नीचे और कूल्हों के उभार से थोड़ा ऊपर एक चाँदी का कमरबंद बंधा है। यह ख़ूबसूरत लड़की उल्टे कैसे इसी शख़्स को अपना शिकार बना लेती है यही इस कहानी में बयान किया गया है।<br />
<br />
चौरंघी के सुपर में रहने का सबसे बड़ा फ़ायदा ये है कि वहाँ शिकार मिल जाता है। कलकत्ता के किसी होटल में इतना अच्छा शिकार नहीं मिलता जितना सुपर में। और जितना अच्छा शिकार क्रिसमस के दिनों में मिलता है उतना किसी दूसरे सीज़न में नहीं मिलता। मैं अब तक सात बार कलकत्ते आ चुका हूँ, सिर्फ दो बार ख़ाली हाथ लौटा वर्ना हमेशा मज़े किए और बैंक बैलंस अलग बनाया। <br />
<br />
मैं सिर्फ चालीस बरस से ऊपर की औरतों पर नज़र रखता हूँ जो साहब-ए-जायदाद हों अगर बेवा हों तो और भी अच्छा है। मज़ीद ये कि मुझे हीरों के हार बहुत पसंद हैं। <br />
<br />
मेरा क़ायदा ये है कि मैं क्रिसमस से माह डेढ़ माह पहले ही कलकत्ता आ जाता हूँ और सुपर में क़ियाम करता हूँ, हर साल नहीं आता तीसरे चौथे साल आता हूँ और सिर्फ बड़ा शिकार खेलता हूँ। लोमड़ी और ख़रगोश मारना मेरा काम नहीं है, मैं सिर्फ शेरनी का शिकार करता हूँ। <br />
<br />
इस साल मुझे सुपर में ठहरे हुए बीस रोज़ हो चुके थे मगर अब तक शिकार का दूर-दूर तक कोई पता ना था। नेपाल की एक अमीर ज़ादी आई थी। मगर सिर्फ पाँच दिन होटल में रह कर चली गई। <br />
<br />
अभी जाल बिछाया ही था कि पंछी उड़ गया ऐसे मुआमलात में बड़े सब्र से काम लेना चाहिए । धीरज से, और अंदर से उजलत करते हुए भी यूं ज़ाहिर करना पड़ता है कि किसी तरह की उजलत नहीं है वर्ना पंछी बिदक जाएगा। <br />
<br />
फिर बैरोनेस रूबी होफ़ेन से कुछ उम्मीद पैदा हुई थी। रूबी अमरीकी शहरी थी। उस का मरहूम ख़ाविंद जर्मन था। मगर उसने बहुत सा रुपया और बहुत सी जायदाद अपनी बेवा के लिए छोड़ी थी। <br />
<br />
बैरोनेस होफ़ेन में एक उम्दा शिकार की सारी ख़ुसूसियात थीं। उम्र पचास से ऊपर, ढलती हुई ख़ूबसूरती और बढ़ती हुई ख़्वाहिशें। मशरिक़ी फ़लसफ़े और आर्ट की दिलदादा। महात्मा बुद्ध से उसे इश्क़ था। <br />
<br />
मैंने जल्दी-जल्दी बुद्धिज़्म पर बहुत सी किताबें पढ़ डालीं मगर अभी सिर्फ दो मुलाक़ातें हुई थीं कि वो जापान चली गई, जैन फ़लसफ़े का मुताला करने के लिए। वहाँ की किसी बोधि सोसाइटी ने उसे दावत दी थी, उसने मुझे अपना एड्रेस भी दिया, और दोबारा कलकत्ते आने का ख़्याल भी ज़ाहिर किया था। मगर उम्मीद नहीं दोबारा वो आए। ज़ैन फ़लसफ़े का शिकंजा बड़ा मज़बूत मालूम होता है सारी जायदाद धरवा लेता है। <br />
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क्रिसमस को सिर्फ तेरह दिन रह गए थे। ऐसा लगा अब कि ख़ाली हाथ लौट जाना होगा और छः, सात हज़ार की चपत अलग पड़ेगी होटल के बिल की सूरत में। मगर बड़े खेल में ऐसा तो होता ही है ख़तरा तो मोल लेना ही पड़ता है। <br />
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फिर अर्चना मिल गई। <br />
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मैं पार्क स्ट्रीट के नीलोफ़र रेस्तराँ में लंच खाने के लिए जा रहा था कि बाहर एक ताज़ा-तरीन मॉडल की कैडीलॉक आके रुकी और उसमें से सत्रह, अट्ठारह बरस की लड़की निकली। <br />
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स्याह बाल कटे हुए और शानों तक आरास्ता, बैज़वी चेहरा, ज़ैतूनी रंगत, उसने फ़ीरोज़ी रंग की एक बेशक़ीमती साड़ी पहन रखी थी और कमर में चांदी की एक पतली सपैटी पहन रखी थी जो उस की कमर की नाज़ुकी और कूल्हों के उभार बड़ी दिल-कशी से वाज़ह करती थी, उसने मेरी तरफ़ इक उड़ती हुई निगाह से देखा फिर मुँह फेर कर अंदर चली गई और मैं उसकी डोलती हुई चाल को देखता ही रह गया। <br />
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बिला मुबालग़ा मैंने ऐसी हसीन लड़की आज तक नहीं देखी थी, चंद लम्हों के लिए मैं भूल गया मैं किस मक़सद से कलकत्ते आया था। औरतों से इस क़दर वास्ता रखने का आदी हो चुका हूँ कि मेरा दिल अब उनके जिस्म के लिए नहीं धड़कता। धड़कता है तो उनके गले के ज़ेवर के लिए, उनके हाथ की अँगूठियों के लिए, उनकी पास बुक के लिए। इश्क़ की बातें मैं बहुत अच्छी तरह से कर लेता हूँ मगर इश्क़ की बातें मेरे हल्क़ से यूं निकलती हैं जैसे मछली खींचने वाली डोर गरारी से निकलती है। मेरी बातों में कोई ऐसा जज़्बा नहीं होता जो ख़ुद मेरे दिल को धड़का दे इसी लिए चंद लम्हे मबहूत रहने के बाद मुझे अपनी कमज़ोरी पर अफ़सोस हुआ। मैंने अपने आप पर लानत भेजी और फिर जी कड़ा करके रेस्तराँ में दाख़िल हो गया। <br />
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इत्तेफ़ाक़ से मुझे एक ऐसी मेज़ मिल गई, जहाँ से मैं उसे अच्छी तरह से देख सकता था लेकिन वो मुझे अच्छी तरह से नहीं देख सकती थी। लेकिन ऐसा मालूम होता था जैसे वो किसी को देखने में कोई दिलचस्पी नहीं रखती हालाँकि उधर की कई औरतें मुझे देखकर चौंकती थीं क्योंकि मेरी सिर्फ शक्ल-ओ-शबाहत ही अच्छी नहीं मैं अपनी सेहत का भी बहुत ख़्याल रखता हूँ, रोज़ सुबह चार मील की दौड़ लगाता हूँ, और पेट की वरज़िश भी करता हूँ, और बेहतरीन कपड़े पहनता हूँ, और चीते की तरह चलता हूँ, इसलिए जब मैं किसी नई जगह पे दाख़िल होता हूँ तो लोग एक लम्हे के लिए ज़रूर चौंक कर मुझे देखने पर मजबूर हो जाते हैं। ये भी ना हो तो आदमी बड़ा शिकारी नहीं बन सकता। <br />
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मैंने बड़े इत्मीनान से अपना लंच खाया, धीमी-धीमी मौसीक़ी के साथ चिकन, रेशमी कबाब बेहद लज़ीज़ थे और तीतर के भुने हुए मसालेदार तिक्के भी उम्दा थे, इलावा अज़ीं, इधर-उधर कोई दूसरी शय क़ाबिल-ए-तवज्जो न थी। चंद सेठ लोग अपनी बदसूरत बीवियों या ख़ूबसूरत दाश्ताओं के साथ बैठे थे। दो अमरीकी बौद्ध जोड़े थे, चंद दरमियाने तबक़े के टेडी लड़के और लड़कियाँ, चंद बिज़नेस एग्ज़िक्यूटिव, और दवायली दर्जे की तवायफ़ें बैठी थीं, ग़रज़ ये कि उस लड़की के सिवा कहीं निगाह ना टिकती थी। <br />
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मगर किस क़दर उदास और मग़्मूम वो बैठी थी जैसे किसी वीराने में किसी नदी के किनारे पाँव लटकाए बैठी हो। दो एक-बार उसने बड़ी अजीब अदा से अपने शाने झटक दीये, अपने बालों पर उंगलियाँ फेर कर उन्हें संवारा और मैं उस की उंगली में पड़ी अँगूठी के सालिम हीरे को देखता रह गया। <br />
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उंगलियाँ बेहद मुतनासिब थीं, हीरा बहुत बड़ा था अभी तक उस की चमक मेरी आँखों को ख़ीरा किए देती थी। मगर लड़की की उम्र किसी तरह सतरह-अठारह, उन्नीस बरस से ज़्यादा ना थी और मैं चालीस बरस से उधर देखता भी नहीं क्योंकि तजुर्बे ने बताया है कि ऐसा करने से कुछ हासिल नहीं होता उल्टी मुसीबत गले पड़ जाती है। इसी लिए मैंने तमाम-तर तवज्जो अपने लंच पर मर्कूज़ कर दी हाँ कभी-कभी उसे देख लेता था, क्योंकि ऐसा ना करना ना-मुम्किन था। <br />
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वो किसी सोच में डूबी हुई अपनी बेपनाह ख़ूबसूरती से ग़ाफ़िल थी। कभी छोटी-छोटी आहें भरती, कभी एक नोट बुक पर पेंसिल से कुछ लिखने लगती, बीच-बीच में सेब का शर्बत पीती, दो दफ़ा वो अपने लंच का ऑर्डर बदलवा कर नया आर्डर दे चुकी थी। <br />
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मालूम होता है बहुत परेशान है अपने आशिक़ की मुंतज़िर मालूम होती हुई जो अभी तक नहीं आया है। ब्लाउज़ के किनारे से लेकर नीचे साड़ी के किनारे तक उसका कसा हुआ जिस्म किसी ख़ूबसूरत सुराही की तरह ख़मदार मालूम होता है और उसके नीचे को लोहे की नीम गोलाई... मैंने जल्दी से नज़र हटा ली कम्बख़्त इस दिल की हरकत फिर तेज़ हुई जाती है और वह शिकारी ही किया जो अपने औसान बजा ना रखे। <br />
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लंच खा कर मैंने चाँदी के बोल में हाथ धोए, बिल अदा किया, और अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ एक लख़्त के लिए पलट कर उसने मेरी तरफ़ देखा, और हम दोनों की आँखें चार हुईं। <br />
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एक लख़्त के लिए मुझे उन निगाहों में एक गहरी इल्तिजा नज़र आई। मुम्किन है ये मेरा वहम हो और उसका रुख़ लचकदार प्लास्टिक की मीनू बुक में छिप गया था कैसी ग़ज़ाल आँखें थीं बड़ी-बड़ी, फैली-फैली, गहरी, स्याह साल पुतलीयाँ , मछलियों की तरह तैरती हुई। <br />
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मुझे झटका सा लगा मगर मैंने फौरन ही अपने आप पर क़ाबू पा लिया। और बड़ी तमकिनत से बैरे को टिप देता हुआ, अपने मेराको चमड़े के बटुवे को अंदर की जेब में रखता हुआ नीलोफ़र से बाहर निकल गया। <br />
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दूसरे दिन एक बुढ्ढी असफ़ीनी ख़ातून को शीशे में उतारने में मसरूफ़ रहा मगर ज़्यादा कुछ कामयाबी नहीं हुई। बुढ्ढी बेहद अमीर थी, मगर उम्र पैंसठ बरस से ऊपर थी, मैंने उसके ख़ून को गरमाने की बहुत कोशिश की मगर इस बा-वक़ार ख़ातून पर अगली दुनिया का हौल कुछ ऐसा तारी था कि इस दुनिया में वो ज़्यादा दिलचस्पी लेने पर तैयार ना थी। हम लोग देर तक बाइबिल की ख़ूबीयों पर सर धुनते रहे और मसला-ए-सलीस पर बहस करते रहे। <br />
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आख़िर में जब इस बुढ्ढी ने मुझसे स्पेन की एक राहिबा घर के लिए चंदा मांग लिया तो मैंने पसपाई इख़्तियार की। मैं बिल-उमूम इस उम्र की बुढ्ढियों को मुँह नहीं लगाता मगर क्या कीजे कलकत्ता आए हुए एक माह हो चुका था और क्रिसमस क़रीब आ रहा था। इसीलिए मुझे इस रोज़ लंच पर जाने में इस क़दर देर हो गई। जब मैं नीलोफ़र के बाहर पहुंचा तो वही हसीना एक साँवले रंग के नौजवान के साथ बाहर निकल रही थी। हल्के गुलाबी रंग की सादा सी रेशमी साड़ी पहने हुए थी, कानों और कलाई पर कोई ज़्योरुना था, सिर्फ गले में पुखराज का एक बेशक़ीमत गुलू-बंद था जो उस की ज़ैतूनी रंगत पर इस तरह झम-झमाता था जैसे एक शफ़्फ़ाफ़ हीरे पर दूसरा शफ़्फ़ाफ़ हीरा रखा हो। <br />
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मुझे देखते ही उसकी आँखों में दिलचस्पी और शनासाई की एक झलक पैदा हुई, फिर उस साँवले नौजवान ने खुली गाड़ी के पट की तरफ़ इशारा किया और वो नीले रंग की मर्सिडीज़ में बैठ गई जिसे वही कल वाला ड्राईवर चला रहा था। तो उसके पास या उस साँवले रंग के नौजवान के पास दो गाड़ियाँ हैं एक केडीलॉक, दूसरी मर्सिडीज़, जाने कौन लोग हैं ये? मालूम होता है मुझे अपना दस्तूर तोड़ना पड़ेगा और चालीस बरस से नीचे उतरना पड़ेगा, शेर भूका हो तो कैसे सब्र करे? नीलोफ़र से लंच खा कर में सुपर में आ गया और अपनी बीवी को मुहब्बत भरे ख़त लिखने लगा। <br />
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निर्मला एक लख-पति बाप की बेटी है और ख़ुद भी एक मशहूर-ओ-मारूफ़ एडवरटाइज़िंग फ़र्म में पंद्रह सौ रुपय माहाना पर मुलाज़िम है। उसे काम करने का शौक़ है और मुझे काम न करने का। दरअस्ल मुझे कोई काम आता ही नहीं, सिवाए औरतों के शिकार के। और मेरी शादी भी दरअस्ल इसी आदत का नतीजा है। <br />
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निर्मला के बाप ने हमारी अज़्दवाजी ज़िंदगी को माली उलझनों से निकाल कर उसे बेहद ख़ुशगवार बना दिया है। शादी में उसने मुझे एक आलीशान फ़्लैट दिया एक गाड़ी दी, बम्बई के सबसे महंगे क्लब की मेंबर-शिप दी, और मिन-जुमला हर तरह के सामान-ए-तअईश और लिबास-ए-फ़ाखिरा के साथ एक ख़ूबसूरत बीवी भी दी, और क्या चाहीए मेरे ऐसे आदमी को। <br />
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मगर आदतें बिगड़ी हुई हैं, पूरा नहीं पड़ता और काम कोई आता नहीं, जहेज़ कब तक साथ चलता है, वो तो अच्छा हुआ शादी से पहले ही मैंने निर्मला से कह दिया था कि मेरा धंदा ग़ैर मुल्की सय्याहों को हिन्दोस्तान के जंगलों में शिकार खिलाने का है। बाहर से ग़ैर मुल्की शिकारीयों या शिकार के ख़्वाहिश-मंदों की जो टोलियाँ हमारे देस में आती रहती हैं मैं उन्हें डेढ़-दो माह के लिए कभी ज़्यादा अरसे के लिए, कुमाऊँ, कोर्ग, विंध्याचल के जंगलों में शिकार खिलाने ले जाता हूँ, और उनसे दो तीन माह में पच्चीस-पच्चास हज़ार निपट लेता हूँ। निर्मला बे-चारी को इस तरह क्या किसी तरह के शिकार से दिलचस्पी नहीं है इसलिए वो मेरे साथ मेरे लंबे सफ़रों पर कहीं नहीं जाती है। अलबत्ता उसे मेरी बात का सौ फ़ीसदी यक़ीन है कि मैं वाक़ई ग़ैर मुल्की सय्याहों को खिलाने का दिलचस्प धंदा करता हूँ। और फिर रुपय भी तो घर ला के देता हूँ पच्चीस हज़ार। पच्चास हज़ार, लाख, डेढ़ लाख, दो लाख। फिर हम लोग मज़े से बैठ कर खाते हैं साल दो साल फिर में अपने शिकार को निकलता हूँ। <br />
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वैसे निर्मला को काम करने की ज़रूरत नहीं है। में एक ही हल्ले में इतना ले आता हूँ मगर काम करने वाली बीवी के बहुत से फ़ायदे हैं, जिनमें से एक ये भी है कि बे-चारी अपने काम में लगी रहती है। दूसरा फ़ायदा ये है कि सूखे मौसम में हरियाली का काम देती है और बेहतरीन से बेहतरीन शिकारी को अपनी ज़िंदगी में सूखे मौसम से वास्ता पड़ता है। <br />
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मैंने निर्मला को एक मुहब्बत भरा ख़त लिखा। और उससे दस हज़ार रुपय मंगा लिए क्योंकि मैं सय्याहों की एक बड़ी टीम को लेकर आसाम के जंगलों में शिकार खेलने जा रहा था तीन चार माह के बाद आऊँगा। ख़त लिख कर और डाक से भिजवाकर मैं क़ैलूला करने की नीयत से कमरे में लेट गया और सोने से पहले बहुत देर तक अपना प्रोग्राम बनाता रहा और उसमें ख़ुद ही तरमीम पेश करता रहा और दिल ही में बहस करता रहा। क्योंकि अब मेरे शिकार की नोइय्यत दूसरी थी इसलिए दूसरी तरह से काम करना होगा। <br />
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रात को डिनर खाने के लिए फिर नीलोफ़र पहुंच गया। मेरा ख़्याल सही निकला मेरी तरह अर्चना का पसंदीदा रेस्तराँ भी नीलोफ़र मालूम होता था। <br />
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उसने सुनहरे और फ़ालसई रंगों वाली बनारसी साड़ी पहन रखी थी। कानों में कबूतर की आँख की तरह सुर्ख़ याक़ूत के झम-झमाते हुए आवेज़े थे, और गले में लाल-ए-बदख़्शाँ का एक ही पुराना और क्लासिकी तर्ज़ का गुलू-बंद, जिसकी क़ीमत कम से कम पाँच लाख ज़रूर होगी। आज अर्चना का सुलगता हुआ हुस्न और उसकी निगाहों का ख़श्मगीं लहजा और उसके जिस्म के चंचल ख़म बेहद ख़तरनाक मालूम होते थे। सिर्फ मैं ही उसकी तरफ़ नहीं देख रहा था, रेस्तराँ में बैठे हुए हर ख़ुश-ज़ौक़ मर्द की निगाह उस पर थी ये निगाह जो बज़ाहिर अपनी बग़ल में बैठी हुई बीवी को हर तरह से अपनी तवज्जो का यक़ीन दिला के इधर-उधर पलट जाती थी और अर्चना पर मर्कूज़ हो जाती थी, और अर्चना सबसे बेनियाज़ बैठी थी। <br />
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कई मर्दों ने उससे डाँस के लिए कहा मगर उसने सर हिला कर इनकार कर दिया। उसकी आँखें... ऐसा लगता जैसे अभी रो देंगी या किसी को खा जाएँगी। <br />
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जब फ़्लोर पर नाचने वाले जोड़ों की भीड़ बहुत बढ़ गई और एक बहुत ही स्लो फॉक्स ट्रैक चलने लगा और जब मुझे महसूस हुआ कि अर्चना का इनकार किसी को मेरी तरफ़ मुतवज्जा नहीं करेगा तो में अपनी मेज़ से उठकर अर्चना की मेज़ पर गया, झुका, और अपनी बेहतरीन और दिलकश मुस्कुराहट से मुस्कुराया और उसे नाचने की दावत दी। <br />
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अर्चना ने मुझे सर से पाँव तक देखा। ऐसा लगा जैसे एक लम्हे के लिए वो मेरे मर्दाना हुस्न की मक़नातीसी कशिश से मस्हूर हो गई है। एक लम्हे के लिए उस की आँखों में गहिरी क़ुरबत और शनासाई की वही पुरानी चमक नमूदार हुई, ये चमक आदम और हव्वा के ज़माने की तरह पुरानी है। फिर जैसे उसका चेहरा एक दम उदास और ग़म-ज़दा हो गया, उसने मजबूर निगाहों से मेरी तरफ़ देखा और सर इनकार में हिला दिया। मैंने हार न मान कर अपनी मुस्कुराहट की लौ को और तेज़ कर दिया, बोला, “क्या आपने क़सम खाई है कि अपने इस साँवले ब्वॉयफ्रेंड के इलावा और किसी के साथ ना नाचेंगी?” <br />
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यकायक वो मेरी ग़लती पर मुस्कुरा पड़ी। “वो मेरा भाई है ब्वॉय फ्रेंड नहीं है।” मैंने फ़ौरन कहा, “यही तो मैं सोचता था कि ऐसी दिल-रुबा सूरत के साथ वो उखड़ी-उखड़ी साँवली सूरत मैच नहीं करती है अच्छा है, वो आपका भाई है... वर्ना मेरा इरादा आज उसे जान से मार देने का था।” <br />
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वो खिलखिला के हंस पड़ी और उठकर मेरी बाँहों में आ गई, और मुझे ऐसा लगा जैसे वो बनी ही मेरी बाँहों के लिए थी, सर से पाँव तक मुझे मुकम्मल करती हुई। नाचते-नाचते मेरी उंगलीयों के लम्स के जे़रे असर उसकी कमर के नीचे कूल्हे किसी मुतनासिब लय पर धीरे-धीरे डोलते थे। जैसे झील की हुमकती लहरों पर कंवल के फूल डोलते हैं। <br />
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अगर मैं नौजवान, ना-तजुर्बे कार, और अहमक़ होता तो ज़रूर उससे इश्क़ कर बैठता मगर मेरी आँख उसके याक़ूती गुलू-बंद पर थी। मेरी तीसरी आँख... वर्ना चेहरे की दोनों आँखें तो उसके चेहरे पर ही गड़ी हुई थीं। वो मुझसे नज़र चुरा कर घबराकर इधर-उधर देख लेती थी ,मैंने पूछा... <br />
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“किस का इंतिज़ार है?” <br />
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“भाई का” वो एक इज़्तेरारी सरगोशी में बोली। “मेरा भाई मुझे किसी के संग नाचने नहीं देता।” <br />
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“बहुत क़वामत परसत है।” <br />
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“नहीं... ये बात नहीं है” कहते-कहते वो रुक गई। <br />
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“फिर क्या बात है?” <br />
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“कुछ नहीं।” वो यकायक चुप हो गई। फिर नज़रें झुका कर बोली... “तुम बहुत अच्छा नाचते हो।” <br />
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“अपने भाई से इस क़दर डरती क्यों हो?” घबराओ नहीं, इतमीनान से नाचती जाओ, मैं तुम्हारे भाई पर निगाह रखूँगा, उसके आते ही में तुम्हें छोड़ दूँगा। <br />
<br />
मेरी बात सुनकर उसने इतमीनान का एक लंबा साँस लिया। फिर उसने अपने जिस्म को मेरे जिस्म के सपुर्द कर दिया। चंद लम्हों के लिए उसकी आँखें बंद हो गईं। उसका सर मेरे शाने से लग गया और चंद लम्हों के लिए हाथ उस की कमर पर रखे रखे मैंने महसूस किया जैसे मेरा हाथ उस की कमर पर न हो, गुल के चाक पर हो, जहाँ पर मैं एक ख़्वाब-नाक़ और आर्ज़ूमंद मिट्टी के बर्तन से ख़याम की एक सुराही की तख़लीक़ कर रहा हूँ। वैसे इन कानों के आवेज़े भी एक लाख से कम ना होंगे। <br />
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पहला नाच ख़त्म हो गया मगर उस का भाई नहीं आया, और हम दोनों वहीं खड़े-खड़े दूसरे रक़्स में शामिल हो गए। <br />
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ये एक अमरीकी लोक-निर्त था जिसमें जोड़े एक दूसरे को छूते हुए अलग हो जाते थे और रक़्स करते हुए बार-बार ताली बजाते थे। इस रक़्स के दौरान में मुझे बहुत सी बातें मालूम हुईं। <br />
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अर्चना के माँ बाप मर चुके थे। <br />
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ताली... <br />
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उनकी मंगेतर की कानें थीं आसाम में। <br />
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ताली... <br />
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और कलकत्ते में बहुत सी जायदाद थी। <br />
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ताली... <br />
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उस जायदाद के सिर्फ दो वारिस थे, भाई और बहन। <br />
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ताली... <br />
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भाई शादीशुदा था और बहन कुँवारी थी। <br />
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पुर-ज़ोर ताली... <br />
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अर्चना ने मुझसे वाअदा कर लिया कि वो दो रोज़ के बाद मुझसे फिर मिल सकेगी। कार नेशन रेस्तराँ में, दोपहर को लंच से एक घंटा पहले, उसके बाद लंच के टाइम पर नीलोफ़र चली जाएगी अपने भाई के साथ लंच खाने... <br />
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(सबसे ऊंची ताली...) <br />
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कार नेशन में केबिन का भी इंतिज़ाम है। कार नेशन में अर्चना ने पहली बार मेरे हाथ से शराब पी, एक हल्की सी मार्टीनी लाल-ए-बदख़्शान की तरह दरख़शंदा। बेहद झिझक-झिझक कर और बेहद इसरार के बाद उसने दो घूँट लिए फिर हौले-हौले उसके रुख़्सार तमतमाने लगे और होंट किसी इंदौर विन्नी शहद से बोझल हो कर बार-बार काँपने लगे। दूसरी मार्टीनी में वो बहुत कुछ बक गई। <br />
<br />
उसका भाई उससे प्यार नहीं करता था। उससे नफ़रत करता था। क्योंकि वो उसकी आधी जायदाद की मालिक थी अगर आज जायदाद के हिस्से अलग-अलग हो जाएं तो अर्चना को डेढ़ करोड़ रुपय मिलेंगे। मगर अर्चना पर बड़ी पाबंदीयाँ थीं हर लख्त उसकी निगरानी की जाती थी। क्योंकि उस का भाई उस का भी हिस्सा हड़प कर लेना चाहता था। और उससे काग़ज़ात पर दस्तख़त करा लेना चाहता था वो अभी तक इनकार किए जा रही थी। <br />
<br />
“मैं अकेली हूँ। निहत्ती हूँ। कोई नहीं है मेरा इस दुनिया में।” <br />
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“अगर मैंने ज़्यादा देर तक इंकार किया तो मुम्किन है वो लोग मुझे ज़हर दे दें या किसी से मरवा डालें... ।तुम नहीं जानते कुसुम को, कुसुम मेरे भाई की बीवी है। कभी-कभी वो ऐसी अजीब निगाहों से मुझे देखती है जैसे मेरी गर्दन पर छुरी रख दी हो। तुम बताओ, मैं क्या करूँ?” अर्चना फूट फूटकर रोने लगी। <br />
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तीसरी से चौथी मुलाक़ात में वो और भी बुझ गई। हर वक़्त मुतवहि्ह्श और दहशत-ज़दा दिखाई देती थी। ज़रा सी आहट पर चौंक जाती अपने भाई की आमद का शुबा ज़ाहिर करती कोई अजनबी अगर उसे ग़ौर से देखता तो उसे फ़ौरन अपने भाई का मुख़्बिर समझ लेती। <br />
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मगर इस पर भी हम मिलते रहे। मिलते रहे। और मैंने उसे सलाह दी कि वो कोर्ट में दरख़ास्त देकर अपनी जायदाद का हिस्सा अलग करा ले, मगर वो बेहद घबराई हुई थी। उसके भाई और भावज को ग़ालिबन उस पर शुबा हो गया था। क्योंकि भावज ने बहन के सारे ज़ेवर अपनी तहवील में ले लिए थे सिर्फ हाथ का एक कंगन बचा था। जवाहरात से मुरस्सा। उसने अपने बेशक़ीमत पर्स में से काँपते हुए वो कंगन निकाला और मेरे हाथ पर रखकर बोली... <br />
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“इसे तुम अपने पास रख लो। अगर ज़िंदा रही तो तुमसे ले लूँगी।” <br />
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मैंने इसरार कर करके उसे कंगन वापिस कर देना चाहा मगर उसने वापिस नहीं लिया कंगन वापिस करने की कोशिश में बार-बार उंगलियाँ उसकी उंगलीयों से छू गईं और फिर देर तक एक दूसरे की गिरिफ़्त में तड़पती रहीं। फिर उसकी उंगलियाँ बालाई की तरह नर्म पड़ गईं और उसने अपने हाथ को मेरे हाथ में बिलकुल ढीला छोड़ दिया और मेरे सीने से लग कर धीरे-धीरे सिसकने लगी। मुझे ऐसा लगा जैसे डेढ़ करोड़ रुपया मेरे सीने से लग कर मुझे धीरे-धीरे थपक रहा हो। <br />
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एक लख्त के लिए मेरे दिल में निर्मला का ख़्याल आया। <br />
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“ऊँह... कैसा फ़ातिर-उल-अक़्ल हूँ जो ऐसे मौके़ पर निर्मला पर ग़ौर कर रहा हूँ। निर्मला भी कोई ग़ौर करने की शय है?” <br />
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इसलिए मैंने सब सोच-सोच कर अर्चना के उदास काँपते हुए रस से बोझल होंट चूम लिए। किसी तेज़ शराब के पहले घूँट की तरह उस बोसे ने मेरे दिल-ओ-दिमाग़ पर नशा तारी कर दिया। मैंने फ़ैसला कर लिया कि मैं अर्चना से शादी कर लूंगा उसे अपनी बनाकर उसकी जायदाद का हिस्सा अलग करवा के कहीं दार्जिलिंग, शीलाँग की तरफ़ निकल जाऊँगा। मैं सारी ज़िंदगी उसके साथ गुज़ार दूँगा। डेढ़ करोड़ रुपया बहुत होता है छोटे-छोटे शिकार करने से ये कहीं बेहतर है कि आदमी एक ही हल्ले में बड़े शिकार पर हाथ साफ़ कर जाये। <br />
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“डार्लिंग। अपनी हर तकलीफ़ भूल जाओ।” मैंने उसे अपनी बाँहों में लेते हुए कहा। “अब तुम अकेली और बे-यार-ओ-मददगार नहीं हो मैं तुमसे मुहब्बत करता हूँ दिल-ओ-जान से मैं तुम्हारी मदद करूँगा। <br />
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“मगर कैसे? किस रिश्ते से?” वो आज़ुर्दा हो कर बोली। “लोग क्या कहेंगे।” <br />
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“लोग यही कहेंगे कि मैं तुम्हारा ख़ाविंद हूँ।” <br />
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“क्या-क्या?” उसकी ज़बान रुक गई और फटी-फटी निगाहों से मेरी तरफ़ देखने लगी। <br />
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“हाँ प्यारी।” मैंने अपनी दोनों आँखों की मुकम्मल कशिश से उसे मस्हूर करने की कोशिश करते हुए कहा। “मैं तुम्हें चाहता हूँ मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ।” <br />
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“नहीं, नहीं।” वो दोनों हाथ ज़ोर से हिलाते हुए बोली। “ये झूट है। तुम्हें महज़ मुझसे हमदर्दी है। इसी हमदर्दी की ख़ातिर तुम मुझसे शादी करने के लिए आमादा हो लेकिन मैं तुम्हें तबाह न करूँगी। मुक़द्दमा जाने कितने साल तक लड़ना पड़े। नहीं, नहीं। मुझे कोई हक़ नहीं है अपनी तकलीफ़ें तुम पर लादने का।” <br />
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वो फूट फूटकर रोने लगी मैंने उसे दम-दिलासा दिया, बार-बार अपनी मुहब्बत का सुबूत पेश किया। बड़ी मुश्किल से कई दिन मुतवातिर समझाने के बाद वो मुझसे शादी करने के लिए तैयार हो गई। <br />
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“मगर तीन दिन ठहर जाओ।” <br />
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“तीन दिन क्यों? आज मेरा भाई शिलाँग जाने वाला है। एक हफ़्ते के लिए। फिर मुझ पर से पहरा भी कम हो जाएगा। <br />
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यकायक उसकी रोती हुई आँखों से मुस्कुराहट छलक पड़ी। उसने मेरे बाज़ू को ज़ोर से पकड़ लिया और अपना गाल उससे लगा कर उसने एक मीठी और तवील सांस ली और धीरे से बोली, “तीन दिन के बाद में तुम्हारी हो जाऊँगी।” <br />
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इस बीच में हम दोनों फ़ैमिली के पुराने सॉलिसिटर से मिले। राखाल मुखर्जी। एक बेहद ख़ुश्क और बेहद बाक़ायदा मगर बेहद आज़मूदा और तजरबा-कार सॉलिसिटर मुझे मालूम हुए, वो भी अर्चना से बेहद हमदर्दी रखते थे। मगर उसके भाई के सॉलिसिटर होने की वजह से दर-पर्दा ही अर्चना की मदद कर सकते थे। <br />
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हाईकोर्ट में लड़ने के लिए यूं तो इतने बड़े मुक़द्दमे के लिए कई लाख की ज़रूरत थी मगर वो अर्चना को अपना एक दोस्त सॉलिसिटर दे देंगे जो सिर्फ पच्चीस हज़ार में हमारा केस लड़ेगा। मगर पच्चीस हज़ार नक़द और पहले उसे दे देना होंगे। हम दोनों बेहद परेशान हुए। अब पच्चीस हज़ार कहाँ से आएँगे। <br />
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“वो मेरा कंगन बेच दो।” अर्चना ने सलाह दी। <br />
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मगर मैं कंगन एक जौहरी को पहले ही से दिखा कर उसके दाम पूछ चुका था वो बारह हज़ार लगा रहा था और हमें पच्चीस हज़ार चाहिए और मैं कंगन बेचना नहीं चाहता था। बड़ी सुबकी होती ज़िंदगी-भर के लिए अर्चना की निगाह में ज़लील हो जाता। <br />
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“नहीं, नहीं।” मैंने फ़ैसला-कुन लहजे में कहा। कंगन कभी नहीं बिकेगा में कहीं ना कहीं से पच्चीस हज़ार का बंद-ओ-बस्त कर दूँगा। <br />
<br />
उसी दिन मैंने निर्मला को तार देकर पंद्रह हज़ार रुपया और मंगा लिया, और सॉलिसिटर को पच्चीस हज़ार रुपय अदा कर दीए गए। तीन दिन के बाद मैंने और अर्चना ने एक खु़फ़िया शादी कर ली। मगर पक्की और बाक़ायदा फेरों से। <br />
<br />
ये मेरी बारहवीं शादी थी, इससे पहले हमेशा दिल ही में हंसा। अब मैंने अपनी बाक़ी ज़िंदगी अर्चना के साथ गुज़ारने का फ़ैसला कर लिया था। <br />
<br />
जब हम शादी करके होटल को लौट रहे थे तो मेरे दिल में एक ख़्याल आया, मैंने अर्चना से कहा, “तुम्हारा भाई तो एक हफ़्ते के बाद आएगा।” <br />
<br />
“हाँ। मगर क्यों ?” <br />
<br />
“और वो तुम्हारे जे़वरात का डिब्बा तुम्हारी भावज के पास है।” <br />
<br />
“हाँ मगर क्यों पूछते हो?” <br />
<br />
“क्या तुम किसी तरह अपने जे़वरात का डिब्बा नहीं निकाल सकतीं? आख़िर वो तुम्हारा है डार्लिंग।” <br />
<br />
“हाँ है तो सही।” वो सोच सोच कर बोली। “मगर कैसे निकालूंगी।? ” <br />
<br />
“किसी पार्टी में जाने का बहाना करो, भावज को साथ ले जाओ और फिर उसे झाँसा देकर और सारा ज़ेवर पहने हुए सीधे मेरे पास होटल में आ जाओ” <br />
<br />
“मगर...” <br />
<br />
“नहीं। नहीं । कोई अगर मगर नहीं।” मैंने ज़रा सख़्ती से कहा। “लाखों का ज़ेवर यूं छोड़ देंगे हम, बावली हुई हो।” <br />
<br />
मैंने गाड़ी उसके घर की तरफ़ मोड़ दी। <br />
<br />
“मैं नहीं जाऊँगी।” वो मुझसे चिमट कर बोली, “एक लम्हे के लिए तुमसे अलग नहीं रह सकती...” वो तेज़-तेज़ साँसों वाली सरगोशी में बोली। <br />
<br />
“होश में आओ। जैसा मैं कहता हूँ वैसा करो पार्टी में जाने के लिए भावज ज़ेवर ज़रूर दे देगी। ख़ुसूसन जबकि वो ख़ुद तुम्हारे साथ जा रही होगी उसे शुबा तक ना होगा कि अस्ल मुआमला क्या है। बस ज़रा सी चालाकी से हमारा काम बनता है हमारा क्या जाता है?” <br />
<br />
मैंने उसके गुद-गुदी की वो बच्चों की तरह खिल-खिलाकर हंस पड़ी। मैंने उसे उसके घर से ज़रा दूर फ़ासले पर उतार दिया। <br />
<br />
तीन दिन तक वो नहीं आई मगर मुझे बराबर फ़ोन करती रही। मौक़ा ही नहीं मिलता था भावज किसी तरह राज़ी ना होती थी। मेरा ख़्याल है मैंने उसे टेलीफ़ोन पर ज़रा सख़्त लहजे में डाँटा होगा क्योंकि वो टेलीफ़ोन ही पर रोने लगी थी। चौथे दिन उसने टेलीफ़ोन पर मुझे मुज़्दा सुनाया, कि आज दोपहर में वो अपनी भावज के साथ एक सहेली के घर अपने सारे ज़ेवर पहन कर जा रही है और वहां से तीसरे पहर के क़रीब मेरे कमरे में आएगी। <br />
<br />
मैंने वक़्त तीसरे पहर के बाद दार्जिलिंग जाने के लिए दो सीटें बुक करा लीं और होटल वाले को बिल तैयार करने के लिए कह दिया। तीसरे पहर को वो सारे जे़वरात पहने हुए एक दुल्हन की तरह सजी संवरी मेरे कमरे में दाख़िल हुई। मैं उसे गले से लगा लेने के लिए आगे बढ़ा कि ठिठक कर खड़ा हो गया उसके पीछे पीछे उस का भाई भी दाख़िल हो रहा था। <br />
<br />
“अपने भाई को क्यों साथ लाईं?” मैंने हैरान हो कर कहा। “क्या सुलह हो गई?” <br />
<br />
वो महबूब निगाहों से अपने भाई की तरफ़ देखते हुए बोली, “हाँ सुलह हो गई है।” <br />
<br />
फिर मेरी तरफ़ देखकर बड़ी मासूमियत से बोली, “ये मेरे भाई नहीं हैं।” <br />
<br />
“भाई नहीं हैं?” मैंने चीख़ कर कहा। <br />
<br />
“मैं अर्चना का शौहर हूँ।” वो साँवला नौजवान बड़े मीठे लहजे में बोला। <br />
<br />
“फ्रॉड तो आपने मुझसे किया है।” अर्चना अपनी साड़ी के पल्लू से खेलते हुए बोली। “पहली बीवी के होते हुए दूसरी शादी मुझसे कर ली।” <br />
<br />
“ये झूट है।” <br />
<br />
“आपकी बीवी नीचे मेरी गाड़ी में बैठी है।” अर्चना बोली। <br />
<br />
“मैंने तार दे के उसे यहाँ बुलवा लिया था आप यक़ीनन अपनी बीवी से मिलना चाहते होगे।” <br />
<br />
“मेरे पच्चीस हज़ार रुपय?” मैंने चीख़ कर सवाल किया। वो ज़ोर से हंसी। <br />
<br />
“मैं तुम दोनों को अंदर करा दूँगा और उस बेईमान सॉलिसिटर को भी।” मैंने गुस्से से लरज़ते हुए कहा। <br />
<br />
वो साँवला नौजवान बोला। “अगर आप उस सॉलिसिटर के दफ़्तर जाऐंगे तो वो सॉलिसिटर आप को नहीं मिलेगा। बल्कि उसका दफ़्तर भी आपको वहाँ नहीं मिलेगा। <br />
<br />
“और जहाँ तक हमें जेल में डालने का ताल्लुक़ है मेरा ख़्याल है इसका फ़ैसला आपकी बीवी के सामने हो जाये तो अच्छा है।” अर्चना ने जवाब दिया। <br />
<br />
“गेट आउट।” मैंने ग़म-ओ-गुस्से से दहाड़ते हुए कहा। <br />
<br />
“पहले वो मेरा कंगन वापस कर दीजिए हमने एक माह के लिए एक जौहरी से उधार लिया था, एहतियातन हम उस जौहरी को भी अपने साथ लेते आए हैं। नीचे लाउंज में बैठा है आप ना देंगे तो बड़ा फ़साद होगा, आपकी बीवी...” <br />
<br />
“गेट आउट, गेट आउट।” मैंने जल्दी से वो कंगन भी अर्चना के हवाले करते हुए कहा। <br />
<br />
अर्चना मुस्कराकर वो कंगन अपनी कलाई में पहनने लगी। <br />
<br />
“मगर मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था?” मैंने गुस्से से तक़रीबन रुआंखा हो कर कहा।” तुमने मेरे साथ ऐसा सुलूक क्यों किया अर्चना?” <br />
<br />
“बात ये है ।” वो कंगन पहन कर उसे नचाते हुए बोली।” कि अपना भी वही धंदा है...जो आपका है।” <br />
<br />
मैं हैरत से उस बीस साला छोकरी की तरफ़ फटी-फटी निगाहों से देखने लगा। <br />
<br />
“अच्छा में जाती हूँ।” वो कंगन बजाते-बजाते दरवाज़े की तरफ़ बढ़ गई।” आपकी बीवी को आपके पास भेजे देती हूँ। बड़ी प्यारी सूरत पाई है निर्मला ने... मगर मैंने उसे कुछ बताया नहीं है बेचारी का दिल बुरा होता।” <br />
<br />
चलते-चलते वो मेरी तरफ़ देखकर रुकी और हाथ हिला कर बेहद शीरीन लहजे में बोली, “अच्छा, में चलती हूँ, गुडबाई।” <br />
<br />
कंगन बजाते बजाते वो कमरे से बाहर निकल गई, वो चांदी का कमरबंद अभी तक उस की नाज़ुक कमर से झूल रहा था।</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AD%E0%A4%97%E0%A4%A4_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE_/_%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%A8_%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%B0&diff=44166भगत राम / कृश्न चन्दर2024-03-18T20:47:39Z<p>अनिल जनविजय: '{{GKCatKahani}} अभी-अभी मेरे बच्चे ने मेरे बाएं हाथ की छंगुलि...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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<div>{{GKCatKahani}}<br />
अभी-अभी मेरे बच्चे ने मेरे बाएं हाथ की छंगुलिया को अपने दाँतों तले दाब कर इस ज़ोर का काटा कि मैं चिल्लाए बग़ैर ना रह सका और मैंने गु़स्सो में आकर उसके दो, तीन तमांचे भी जड़ दिए बेचारा उसी वक़्त से एक मासूम पिल्ले की तरह चिल्ला रहा है। ये बच्चे कम्बख़्त देखने में कितने नाज़ुक होते हैं, लेकिन उनके नन्हे-नन्हे हाथों की गिरिफ़्त बड़ी मज़बूत होती है। उनके दाँत यूँ दूध के होते हैं लेकिन काटने में गिलहरियों को भी मात करते हैं। इस बच्चे की मासूम शरारत से मेरे दिल में बचपन का एक वाक़ेआ उभर आया है, अब तक मैं उसे बहुत मामूली वाक़ेआ समझता था और अपनी दानिस्त में, मैं उसे क़त’अन भुला चुका था। लेकिन देखिए ये ला-शऊर का फ़ित्ना भी किस क़दर अजीब है। इसके साए में भी कैसे-कैसे खु़फ़िया अजाइब मस्तूर हैं। बज़ाहिर इतनी सी बात थी कि बचपन में मैंने एक दफ़ा अपने गाँव के एक आदमी ‘भगत रामֺ’ के बाएं हाथ का अँगूठा चबा डाला और उसने मुझे तमांचे मारने के बजाय सेब और आलूचे खिलाए थे। और बज़ाहिर मैं उस वाक़ए को अब तक भूल चुका था, लेकिन ज़रा इस भानमती के पिटारे की बवाल-अज़बियाँ मुलाहिज़ा फ़रमाईए। <br />
<br />
ये मामूली सा वाक़िया एक ख़्वाबीदा नाग की तरह ज़हन के पिटारे में दबा है और जूँ ही मेरा बच्चा मेरी छंगुलियां को दाँतों तले दबाता है और मैं उसे पीटता हूँ। ये पच्चीस, तीस साल का सोया हुआ नाग बेदार हो जाता है और फन फैलाकर मेरे ज़हन की चार-दीवारी में लहराने लगता है। अब कोई उसे किस तरह मार भगाए, अब तो दूध पिलाना होगा, ख़ैर तो वो वाक़आ भी सन लीजिए जैसा कि मैं अभी अर्ज़ कर चुका हूँ ये मेरे बचपन का वाक़आ है। जब हम लोग रंगपुर के गाँव में रहते थे। रंगपुर के गाँव तहसील जोड़ी का सदर मुक़ाम है, इसलिए उसकी हैसियत अब तक एक छोटे मोटे क़स्बे की है, लेकिन जिन दिनों हम वहां रहते थे रंगपुर की आबादी बहुत ज़्यादा ना थी। यही कोई ढाई तीन सौ घरों पर मुश्तमिल होगी। जिनमें बेशतर घर ब्राह्मणों और खत्रियों के थे। दस, बारह घर जुलाहों के और कुम्हारों के होंगे। पाँच, छः बढ़ई इतने ही चमार और धोबी। यही सारे गाँव में ले दे के आठ, दस घर मुस्लमानों के होंगे लेकिन उनकी हालत ना-गुफ़्ता सी थी। इसलिए यहाँ तो उनका ज़िक्र करना भी बेकार सा मालूम होता है। <br />
<br />
गाँव की बिरादरी के मुखिया लाला काशी राम थे। यूं तो ब्राह्मणी समाज के उसूलों के मुताबिक़ बिरादरी का मुखिया किसी ब्राह्मण ही को होना चाहीए था और फिर ब्राह्मणों की आबादी भी गाँव में सबसे ज़्यादा थी। पर बिरादरी ने लाला काशी राम को जो ज़ात के खत्री थे अपना मुखिया चुना था फिर वो सबसे ज़्यादा लिखे पढ़े थे यानी नए शहर तक पढ़े थे। जो ख़त डाकिया नहीं पढ़ सकता था उसे भी वो अच्छी तरह पढ़ लेते थे। तमक हण्डी, नालिश, सुमन, गवाही, निशानदेही के इलावा नए शहर की बड़ी अदालत की भी कार्रवाई से वो बख़ूबी वाक़िफ़ थे। इसलिए गाँव का हर फ़र्द अपनी मुसीबत में चाहे वो ख़ुद लाला काशी राम की ही पैदा-कर्दा क्यों ना हो, लाला काशी राम ही का सहारा ढूंढता था। और लाला जी ने आज तक अपने किसी मक़रूज़ की मदद करने से इनकार न किया। इसीलिए वो गाँव के मुखिया थे और गाँव के मालिक थे और रंगपुर से बाहर दूर-दूर तक जहाँ तक धान के खेत दिखाई देते थे। लोग उनका जिस गाते थे। <br />
<br />
ऐसे शरीफ़ लाला का मँझला भाई था लाला बंशी राम , जो अपने बड़े भाई के हर नेक काम में हाथ बटाता था लेकिन गाँव के लोग उसे इतना अच्छा नहीं समझते थे क्योंकि उसने अपने ब्रहमन धरम को त्याग दिया था और गुरू नानक जी के चलाए हुए पंथ में शामिल हो गया था। उसने अपने घर में एक छोटा सा गुरू-द्वारा भी तामीर किराया था और नए शहर से एक नेक सूरत, नेक तबीय्यत, नेक सीरत ग्रंथी को बुला कर उसे गाँव में सिक्ख मत के प्रचार के लिए मामूर कर दिया था। <br />
<br />
लाला बंशी राम के सिक्ख बन जाने से गाँव में झटके और हलाल का सवाल पैदा हो गया था मुस्लमानों और सिक्खों के लिए तो गोया एक मज़हबी सवाल था लेकिन भेड़ बकरियों और मुर्गे-मुर्ग़ियों के लिए तो ज़िंदगी और मौत का सवाल था। लेकिन इन्सानों के नक्कार-ख़ाने में जानवरों की आवाज़ कौन सुनता है। <br />
<br />
लाला बंशी राम के छोटे भाई का नाम था भगत राम ये वही शख़्स है जिसका अँगूठा मैंने बचपन में चबा डाला था किस तरह ये तो बाद में बताऊँगा। अभी तो उसका किरदार देखिए... यानी कि सख़्त लफंगा, आवारा, बदमाश था ये शख़्स। नाम था भगत राम लेकिन दरअसल ये आदमी राम का भगत नहीं, शैतान का भगत था। रंगपुर के गाँव में आवारगी, बदमाशी ही नहीं, ढिटाई और बेहयाई का नाम अगर ज़िंदा था तो महज़ भगत राम के वजूद से, वर्ना रंगपुर तो ऐसी शरीफ़ रूहों का गाँव था कि ग़ालिबन फ़रिश्तों को भी वहां आते हुए डर मालूम होता होगा। <br />
<br />
नेकी और पाकीज़गी और इबादत का हल्का-हल्का सा नूर गोया हर ज़ी-नफ़स के चेहरे से छनता नज़र आता था। कभी कोई लड़ाई ना होती थी, क़र्ज़ा वक़्त पर वसूल हो जाता था। वर्ना ज़मीन क़ुर्क़ हो जाती थी। और लाला काशी राम फिर रुपया देकर अपने मक़रूज़ को फिर काम पर लगा देते थे। मुस्लमान बेचारे इतने कमज़ोर थे और तादाद में इस क़दर कम थे उनमें लड़ने की हिम्मत ना थी सब बैठे मस्जिदों के मिनारों और उसके कंगूरों को ख़ामोशी से ताका करते, क्योंकि गाँव में उन्हें अज़ान देने की भी मुमानअत थी। <br />
<br />
कुमेरों और अछूतों का सारा धंदा दो जन्मे लोगों से वा-बस्ता था। और वो चूँ तक ना कर सकते थे उसके इलावा उन्हें ये एहसास भी ना था कि ज़िंदगी इसके इलावा कुछ और भी हो सकती है। बस जो है वो ठीक है, यही मुस्लमान समझते थे, यही ब्राह्मण, यही खत्री, यही चमार और सब मिलकर भगत राम को गालियाँ सुनाते थे क्योंकि उसकी कोई कल सीधी ना थी। <br />
<br />
भगत राम लठ गँवार था। बात करने में अक्खड़, देखने में अक्खड़, कुंदा, ना-तराश, बड़े-बड़े हाथ पाँव, बड़े बड़े दाँत, बत्तीसी हर वक़्त खुली हुई, लबों से राल टपकती हुई। जब हँसता तो हंसी के साथ मसूड़ों की भी पूरी-पूरी नुमाइश होती। गाँव में हर शख़्स का सर घुटा हुआ था और हर हिंदू के सर पर चोटी थी। लेकिन भगत राम ने बलोचों की तरह लंबे-लंबे बाल बढ़ाए थे, और चोटी ग़ायब थी। बालों में बड़ी कसरत से जुएँ होतीं, जिन्हें वो अक्सर घर के बाहर बैठ कर चुना करता था। सरसों का तेल सर में दो तीन बार रचाया जाता, गले में फूलों के हार डाले जाते और बीच में से सीधी मांग निकाल कर और ज़ुल्फ़ें सँवार कर वो सर-ए-शाम गाँव के चश्मों का तवाफ़ किया करता। अपनी इन बुरी हरकतों से कई बार पिट चुका था लेकिन इसका उस पर कोई असर ना हुआ था। बड़ी मोटी खाल थी उसकी और फिर मेरा ख़्याल है कि उसके शऊर मैं ज़मीर की आग कभी रोशन ही न हुई थी। वो शरारा नापैद था जो हैवान को इन्सान बना देता है। भगत राम सौ फ़ीसदी हैवान था और इसी लिए गाँव वाले ब्रहमन और खत्री अमीर और ग़रीब, हिंदू और मुस्लमान, सुनार और चमार सब उससे नफ़रत करते थे। <br />
<br />
लेकिन चूँकि लाला काशी राम का छोटा भाई था और बज़ाहिर गाँव के सबसे बड़े घर का एक मुअज़्ज़िज़ फ़र्द। इसलिए अपनी ना-पसंदीदगी के बावजूद गाँव के लोग उसके वजूद को और उसके वजूद की मज़बूही हरकात को बर्दाश्त करते थे, और आज तक करते चले आए थे। लेकिन जब हम रंगपुर में आए उस वक़्त भगत राम के बड़े भाई ने परेशान हो कर उसे अपने घर से निकाल दिया था। और तवे का एक घराट उसके सपुर्द कर दिया था जहाँ भगत राम काम करता था और वो रात को सोता भी वहीं था। क्योंकि घराट तो दिन रात चलता है ना जाने किस वक़्त किसे आटा पिसवाने की ज़रूरत दरपेश हो, और वो चादर में या भेड़ खाल में मकई या गंदुम के दाने डाले घराट पर चला आए। और फिर उसके इलावा ये भी तो है कि दिन-भर में गेहूँ जितना भी जमा होता है या जो अनाज अभी पिस नहीं जाता वो भी वहीं घराट पर धरा रहता है, और उसकी निगहबानी के लिए भी तो एक आदमी का वहाँ मौजूद होना ज़रूरी है। यही सोच कर लाला काशी राम ने अपने छोटे भाई भगत राम को अपने घराट का काम सौंप दिया और लाला काशी राम का घराट गाँव में सबसे नामी घराट था। यानी तक़रीबन सारे गाँव का अनाज वहीं पिसवाया जाता था एक और घराट भी था लेकिन वहाँ बि-उमूम मुस्लमानों, अछूतों, और कुमेरों के लिए अनाज पीसा जाता था। या जब कभी बड़ा घराट चलते-चलते रुक जाता और उसकी मुहीब चक्की काम करने से इनकार कर देती या जब पाटों की सतह पर पथरीले दंदाने बनाने के लिए उन्हें दिया जाता तो उस सूरत में दूसरे घराट वालों को चंद रोज़ के लिए अच्छी आमदनी हो जाती थी। ब-सूरत-ए-दीगर बड़े घराट पर ग्राहकों की भीड़ लगी रहती। <br />
<br />
जब बड़ा घराट चलता था उस वक़्त किसी मुस्लमान, किसी कुमेरे, किसी अछूत की ये जुर्रत ना थी, जुरर्त तो क्या कभी उनके ज़हन में ये ख़्याल भी ना आया था कि उनका अनाज कभी बड़े घराट पर पिस सकता है। <br />
<br />
शुरू-शुरू में जब भगत राम ने काम सँभाला तो उसने भी चंद रोज़ तक यही वतेरा इख़्तियार किया। लेकिन बाद में उसके मिज़ाज के ला-उबाली पन ने बल्कि यूं कहीए कि शैतान पन ने ज़ोर मारा और उसने सोचा... चलो जी क्या है। इसमें जो आए आटा पिसा कर ले जाये। इन फ़ित्र के दो पाटों में धरा ही क्या है और ये आख़िर अनाज ही तो है जिसे कुत्ता भी खाता है। इस से घराट की आमदनी में इज़ाफ़ा भी होगा और दूसरे घराट का हाल जो पहले ही बहुत पतला है और भी पतला हो जाएगा। और ऐन-मुमकिन है कि दूसरा घराट बिलकुल ही बंद हो जाये। जाने उसने क्या सोचा। ब-हर-हाल उसने कोई ऐसी ही बुरी बात सोची होगी जो उसने गाँव के चमारों और कुमेरों को भी अपने घराट पर से आटा पिसाने की दावत दी। <br />
<br />
पहले तो लोगों ने बड़ी शद्द-ओ-मद से इनकार किया... भला ऐसा भी हो सकता है? क्या कहते हो लाला, हम रइय्यत हैं, तुम राजा हो, ये तुम्हारा घराट है, हमारा घराट वो है... “हम भला यहाँ आटा पिसाने क्यों आएं? ना बाबा ये काम हमसे ना होगा और जो चाहे हमसे काम ले लो पर हमसे नहीं होने का।” <br />
<br />
लेकिन भगत राम ने आख़िर अपनी चालाकियों से उन बेचारों को फुसला ही लिया और उन्हें इस बात पर आमादा कर लिया कि वो अनाज उसी के घराट पर लाया करेंगे और वहीं पिसाया करेंगे। <br />
<br />
भला ऐसी बात भी बिरादरी में छिपी रह सकती है। बिरादरी में एक कुहराम मच गया, चीमेगोइयां होने लगी, हर-रोज़ भगत राम से लड़ाई होने लगी, तगड़ा आदमी था इसलिए गालियाँ सह गया, हंस-हंस कर टालता गया। फिर उसने ग़ुस्सा में आ कर दो, चार को पीट दिया फिर एक दिन ख़ुद पीटा गया। ये मुआमला बढ़ते-बढ़ते लाला काशी राम के पास पहुंचा उन्होंने भगत राम को बुला कर डाँटा, समझाया बुझाया, ठंडे दिल से नरमी से पुचकार कर बातें की। ऊंच-नीच समझाई लेकिन जिसके दिल में कमीना पन हो वो धरम-करम की बात कब सुनेगा। भगत राम ने उस कान से निकाल दी। पहले जब भगत राम अपने घर पर रहता था उसके लिए थोड़ी-बहुत रोक-टोक भी थी। ये डर भी था कि बड़े भाई क्या कहेंगे लेकिन अब तो वो रात-दिन घराट पर रहता था। अब उसे वहाँ रोकने वाला कौन था अब वो ख़ुद कफ़ील था उन्ही दिनों वो भांग पीने लगा और एक मुस्लमान फ़क़ीर के हाँ आना जाना शुरू किया, जो इन दिनों अपनी बीवी और एक नौजवान लड़की के साथ नदी किनारे एक तकिए पर आकर ठहरा था। <br />
<br />
जूँ-जूँ दिन गुज़रते गए भगत राम घराट के काम-काज से ग़ाफ़िल रहने लगा और दिन का बेशतर हिस्सा तकिए पर चरस गाँजा पीने में गुज़ारने लगा। भाई ने बहुतेरा समझाया ख़ुद गाँव के शरीफ़ मुस्लमानों ने उस पर नफ़रीं के आवाज़े कसे, लेकिन वो तो किसी और ही नशे में चूर था। चंद दिन और गुज़रने और फिर पता चला कि भगत राम ने नए शहर जा कर उस मुस्लमान फ़क़ीर की बेटी से निकाह कर लिया है और इस्लाम क़बूल कर लिया है। सारे गाँव में हलचल सी मच गई। <br />
<br />
जब उन्होंने भगत राम को स्याह फुंदने वाली सुर्ख़-रंग की ऊंची टोपी पहने हुए देखा, फ़क़ीर तो ख़ैर डर के मारे फिर गाँव में घुसा ही नहीं और ये उसने अच्छा ही किया वर्ना लाला काशी राम और बंशी राम ज़रूर उससे बदला लेने की कोशिश करते लेकिन अपने भाई को अब वो क्या कह सकते थे जो अपनी बीवी को लेकर फिर गाँव में आ गया था और घराट में, अपने बड़े भाई के घराट में आकर बस गया था। दोनों मियाँ बीवी यहीं रहते थे और भगत राम अब बड़ा ख़ुश था और सफ़ेद लट्ठे की शलवार और स्याह चिकन की बास्कट जिस पर कई सौ घुंडीदार बटन लगे हुए थे। गाँव की गलियों में फ़ख़्रिया घूमता था और गाँव की बहू बेटीयों पर बिला इमतियाज़-ए-मज़हब-ओ-मिल्लत आवाज़े कसता था। ऐसा दस नंबर का बदमाश था वो कि जब मेरी माँ मुझे गाली दिया करती तो मेरे ख़साइल का मुक़ाबला भगत राम के औसाफ़-ए-हमीदा से किया करतीं और मैं हमेशा रो देता। भगत राम से मुझे सख़्त चिड़ थी एक तो उसने हमारा धरम छोड़ दिया था। भला ऐसे आदमी का क्या एतबार और भगत राम की शैतानियत देखो मुस्लमान होते ही उसने गाँव के मुस्लमानों को उकसाना शुरू किया कि वो मस्जिद में मिनारे पर चढ़ कर अज़ान दें लेकिन वो तो भला हो मुस्लमानों का, किसी ने उसकी बात नहीं मानी और डरते-डरते कहा कि गाँव में आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ है। इस पर वो बदमाश बहुत हंसा और उसने ख़ुद वुज़ू कर के मस्जिद के मिनारे पर चढ़ कर अज़ान दी। और उसकी गूँजती, गरजती हुई आवाज़ वादी की चौ-हदी में, नदी किनारे नाशपातियों के झुण्ड में और दूर-दूर सनोबरों से ढकी हुई पहाड़ीयों की छातीयों में धमक पैदा करती हुई गूंज गई। और गाँव के ब्रहमन और खत्री का दिल एक ना-मालूम ख़ौफ़ से भर गया। “घोर कलजुग है, घोर कलजुग है ये... अब कोई दिन में ज़रूर कल्कि अवतार पैदा होंगे। हे राम... हे राम...” और लाला काशी राम ने ब्रह्मणों से मश्वरा कर के एक बहुत बड़ा यज्ञ किया और प्रायश्चित किया, और अपने छोटे भाई भगत राम को बिरादरी से ख़ारिज और जायदाद से बेदख़ल कर दिया। और पुराने घराट के पानी का बहाव मोड़ कर एक उम्दा सा घराट बनाया। <br />
<br />
पुराना घराट जहाँ अब भगत राम और उसकी बीवी रहते थे। अब बड़ी ख़स्ता हालत में थे। गाहक कम होते-होते मादूम हो गए। मुस्लमानों के जो चंद घर बाक़ी रह गए थे उन्होंने भी मदद से हाथ खींच लिया क्योंकि गाँव की समाजी ज़िंदगी में भगत राम ने जा-ब-जा सुराख़ कर दिए थे और उसे कोई पसंद न करता था। <br />
<br />
उन्ही दिनों भगत राम की बीवी के हाँ बच्चा होने वाला था। लोग कहते थे कि फ़कीरन ब्याह से पहले ही हामिला थी और वो फ़क़ीर भगत राम को जल देकर फ़रार हो गया था। <br />
<br />
कोई कुछ कहता कोई कुछ, जितने मुँह इतनी बातें। हाँ ये बात ज़रूर सच्च थी कि भगत राम हर वक़्त अपनी बीवी की दिल-जूई में मसरूफ़ रहता। वो उसके लिए हर तरह की मेहनत और मशक़्क़त करने पर आमादा था। लेकिन गाँव में अब कोई उसे काम देने के लिए तैयार नहीं था। और ऐसे लोफ़र के लिए भला उस शरीफ़ गाँव में काम करने की क्या सबील हो सकती है। <br />
<br />
मुझे वो रात नहीं भूलती जब भगत राम की बीवी के हाँ बच्चा होने वाला था। सुबह ही से भगत राम ने हमारे घर के चक्कर लगाने शुरू किए थे, मेरी माँ की मिन्नतें की थीं, और उसके पाँव पर अपना माथा टेक कर कहा था “तुम चलोगी माँ तो मेरी बीवी बच जाएगी। लेकिन मेरी माँ, जो बड़े-बड़े खत्री घरानों और ब्रह्मणों के घर में दाया बन कर जाती थी... भगत राम को टका सा जवाब दे दिया था। <br />
<br />
आधी रात के वक़्त भगत राम ने चीख़-चीख़ कर दुहाई दी लेकिन हम लोगों ने दरवाज़ा नहीं खोला और मिस्ट मार कर सो रहे। दूसरे दिन पता चला कि भगत राम की बीवी ज़चगी में मर गई। बच्चा पैदा नहीं हो सका था। भगत राम बहुत रोया ज़ार-ओ-क़तार रोया, लेकिन वो कोई सच्चे आँसू थोड़े ही थे... किसी इन्सान के आँसू थोड़े ही थे... एक हैवान के आँसू थे। जो यूँ ही अपनी तकलीफ़ पर टिसवे बहा रहा हो क्योंकि चंद दिनों में ही वो उस फ़क़ीरनी को भूल गया था। अब उसने अपना मुस्लमानी नाम भी तर्क कर दिया था अब वो फिर अपने को ख़ुदाबख़्श नहीं, भगत राम कहता था और उसी तरह गाँव की गलीयों में चक्कर लगाता था। लेकिन शाबाश है हिंदुओं को, कि किसी ने उसे मुँह नहीं लगाया। उसके भाई भी उससे बात तक करने के रवादार नहीं हुए और भगत राम अपना सा मुँह लेकर रह गया। <br />
<br />
चंद रोज़ के बाद भगत राम गाँव छोड़कर कहीं और चला गया। तीन चार महीनों के बाद जो लौटा तो उसके पास दो, तीन दर्जन साँप थे। और बहुत से छछूंदर और नेवले और ऐसे ही बहुत से जानवर। और एक पिंजरे में एक ख़ूबसूरत मैना भी थी जो बहुत अच्छा गाती थी। मैं घंटों उस मैना के पिंजरे के क़रीब जाकर गाना सुना करता था। गाँव के बहुत से लड़के मेरे साथ भगत राम के पास आया करते और अब भगत राम के पास बहुत सी जड़ी बूटीयाँ थीं जिनके मुताल्लिक़ वो कहता था कि दुनिया की हर बीमारी को यूँ चुटकी में दूर कर सकती हैं। आहिस्ता-आहिस्ता लोग उसकी तरफ़ खिंचने लगे और उसे अच्छी ख़ासी आमदनी होने लगी मेरी माँ को जो गाँव की मशहूर दाया थीं और औरतों के हर रोग का ईलाज जानती थीं भगत राम का ये बहरूप बहुत बुरा मालूम हुआ मगर वो अब क्या कर सकती थीं। हाँ जब कभी उन दोनों की मुड़भेड़ हो जाती, वो उसे ख़ूब खरी-खरी सुनातीं। भगत राम ये सलवातें सुनकर हंस देता या अपना सर खुजाने लगता, और फिर एक ज़ोर का क़हक़हा लगा कर आगे चल देता। परले दर्जे का छटा हुआ बदमाश था वो, होते-होते ये हुआ कि... भगत राम की जड़ी बूटियों की धाक सारे गाँव में बंध गई। फिर क़रब ओ ज्वार के पड़ोसी उसके पास आने लगे। अब उसने गाँव के छोटे से बाज़ार में एक चमार की आधी दुकान किराए पर ले ली और वहाँ बैठ कर दवाईयाँ बेचने लगा। <br />
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आधी दुकान में मौलू चमार जूतीयाँ बनता था। मौलू चमार और उसकी बीवी और उसकी बेवा बहन राम दुई, बस ये तीनों अफ़राद हर वक़्त जब देखो जूतीयाँ सीते रहते थे। दुकान के दूसरे हिस्से में भगत राम नए ग्राहकों को फांसता था और साँपों का तमाशा दिखाता था और अपनी ज़बान को साँपों से डसवाता था। और ख़ुद संख्या खा कर बताता था कि उस पर ज़हर का कोई असर नहीं होता क्योंकि उसके पास ऐसी तेज़-ब-हदफ़ बूटीयाँ थीं जो क़ातिल से क़ातिल ज़हर के लिए तिरयाक़ का हुक्म रखती हैं। ग़रज़ इसी किस्म की झूटी गप्पें हाँक कर शेख़ियाँ बघार कर वो उजड्ड, गँवार और भोले-भाले देहातियों से टके बटोरता था और मेरी माँ को उसकी बातें सुन सुनकर बहुत ग़ुस्सा आता था। लेकिन हम लोग उसका कुछ बिगाड़ न सकते थे। क्योंकि लोगों को उस पर एतिक़ाद सा हो गया था और अब उसकी जेब में रुपय भी थे। उसने गाँव से बाहर नदी के उस पार मिट्टी का एक कच्चा सा घर भी बना लिया था। जहाँ वो फ़ुर्सत के वक़्त अपना छोटा सा बाग़ीचा बनाने में मसरूफ़ होता। मुझे भगत राम से बड़ी नफ़रत थी और मैं कभी उसके घर न जाता था लेकिन अब वो उस ख़ूबसूरत मैना को जो दुकान के बाहर लटके हुए पिंजरे में गाती रहती थी। अपने घर ले गया था इसलिए में कभी-कभी उसके घर महज़ अपनी मैना को देखने के लिए चला जाया करता। ख़ैरीयत हुई, उसने मुझे टोका नहीं वर्ना मेरा इरादा तो ये था कि अगर उसने मुझे टोका तो गोयपे मैं ढेला रखकर भगत राम का सर फोड़ दूँगा। <br />
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भगत राम का काम अब तरक़्क़ी पर था लेकिन उन्ही दिनों उसने एक ऐसी हरकत की कि गाँव के लोग फिर उससे बदज़न हो गए और इस वाक़ए के बाद गाँव में और क़ुरब-ओ-जुवार के गाँव में कभी उसकी साख नहीं बंधी। वाक़िया दरअस्ल ये था कि राम दुई जो कि मौलू चमार की बेवा बहन थी। लाला बंशी राम ने दर-पर्दा भगत राम को कहला भेजा था कि वो कोई ऐसी दवाई दे जिससे राम दुई का हमल इस्क़ात हो जाए लेकिन भगत राम तो एक छटा हुआ बदमाश था। वो भला ऐसे मौके़ पर किसी शरीफ़ आदमी की क्योंकर मदद करता। चुनाँचे उसने साफ़ इनकार कर दिया। उल्टा उसने इस मुआमले की यहाँ तक तशहीर की कि लाला बंशी राम को चंद माह के लिए गाँव छोड़ कर नए शहर जाना पड़ा और राम दुई के लिए मुँह छुपाना मुश्किल हो गया। ये वाक़िया अब इस क़दर मशहूर हो चुका था कि जब लाला बंशी राम के बड़े भाई काशी राम ने मेरी माँ को जो उनकी ख़ानदानी दाया थी इस नाज़ुक मुआमले को अपने हाथ में लेने के लिए कहा तो उन्होंने भी साफ़ इनकार कर दिया। नतीजा ये हुआ कि बे-चारी राम दुई नौ महीने उस हरामी बेटे को अपने पेट में लिए लिए फिरी और गाँव भर में उसकी बेइज़्ज़ती हुई और हरामी बच्चा उसने अलग जना। इस पर उसकी बिरादरी ने उसे जात बाहर कर दिया। और उसके भाई ने और उसकी बीवी ने उसे घर से बाहर निकाल दिया। उस हालत में जब उस का कोई यार-ओ-मददगार ना था और जब वो कई दिन दरबदर की ठोकरें खाती रही थी और अपने बच्चे को दूध देने के लिए ख़ुद उसकी छातीयों में दूध ना रहा था। वो भगत राम के घर पहुंची वो बदमाश तो जैसे उसके इंतिज़ार में ही था, उसने झट उसे अपने घर में रख लिया और बग़ैर शादी ब्याह किए यूंही वो लोग हंसी ख़ुशी रहने लगे। गाँव में इससे पहले कभी ऐसा ना हुआ था। ये अंधेर-गर्दी, ये बे-राह-रवी... बेशरमी, बे-हयाई अपनी आँखों से तो देखी ना जा सकती थी नतीजा ये हुआ कि भगत राम की दुकान उठवा दी गई और उसे अच्छी तरह जता दिया कि इस वाक़ए के बाद अगर वो कभी गाँव का रुख करेगा तो अपनी जान से हाथ धो बैठेगा। <br />
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भगत राम अब अपने घर ही में रहता था और बाग़ीचे और घर के आस-पास जो उसने थोड़ी सी ज़मीन मोल ली थी, उसमें काशतकरी कर के अपना और राम दुई और उसके हरामी बच्चे का पेट पालता था। <br />
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बाज़ लोगों का ख़्याल है कि वो बड़ी उदास ज़िंदगी बसर करता होगा। ये ख़्याल बिलकुल ग़लत है। जैसे पक्के घड़े पर पानी का कोई असर नहीं होता उसी तरह इन तमाम वाक़आत ने भगत राम की फ़ितरत पर कोई असर नहीं किया। उसकी सरिश्त में कोई भी तब्दीली वाक़ेअ नहीं हुई। उसे ये एहसास ही नहीं था कि उसने अपने तर्ज़-ए-अमल से अपने माँ-बाप, अपने ख़ानदान, अपने गाँव की इज़्ज़त को पट्टा लगाया है। वो उसी तरह ख़ुश-ओ-ख़ुर्रम और शादाँ-ओ-फ़रहाँ नज़र आता था कि जैसे कभी कुछ हुआ ही नहीं था। जैसे वो अब भी गाँव के अंदर अपने भाई के ख़ूबसूरत घर में रहता हो जिसकी छत टीन की थी। मैंने एक दिन उसे उसके घर में दोपहर के वक़्त देखा था। वो आँगन में एक चारपाई पर लेटा हुआ था। और राम दुई को चूम रहा था मैंने उससे पहले किसी मर्द और औरत को चूमते हुए नहीं देखा था। इसलिए ये मंज़र देखकर मैं तो एक दम भौंचक्का रह गया और मेरे कानों में एक दम मेरी माँ के अल्फ़ाज़ गूंज गए। <br />
<br />
“कभी भी भूल कर भगत राम के घर का रुख ना करना वो बड़ा ही बदमाश है।” मेरी माँ ने सच कहा था भला शरीफ़ लोग कहीं ऐसे होते हैं। ग़म-ओ-ग़ुस्से से मेरी आँखों में आँसूं भर आए। मैं वापस जाने को था कि मैना ने मुझे देख लिया और जल्दी से चिल्लाने लगी। “आओ नन्हे मुन्ने बालक मिठाई दूंगी। आओ आओ नन्हे मुन्ने बालक मिठाई दूंगी।” मैना की आवाज़ सुनकर भगत राम जल्दी से उठा और मेरी तरफ़ बढ़ा शायद वो मुझे पकड़ना चाहता था। बदमाश मैं तेरे क़ाबू में आसानी से नहीं आऊँगा। ख़ूनी, डाकू, में रोता हुआ आगे भागा। पीछे-पीछे भगत राम दौड़ता हुआ आ रहा था। “बात सुन, बेटे, बात सुन बेटे।” पर में ऐसा बेवक़ूफ़ ना था कि रुक जाता में भागता गया। यकायक उसने मुझे गर्दन से पकड़ लिया और मैंने किटकिटा कर उसके अंगूठे को अपने दाँतों तले दबा लिया और इतने ज़ोर से काटा कि वो दर्द की शिद्दत से चीख़ उठा मगर उसने मुझे तमांचे नहीं मारे, कुछ नहीं किया लेकिन मुझे छोड़ा भी नहीं। वो मुझे अपने घर के अंदर आँगन में ले गया मुझे गर्दन से पकड़े हुए था कम्बख़्त। मैं अब भाग भी ना सकता था। उसने राम दुई की तरफ़ इशारा करके कहा। <br />
<br />
“ये तुम्हारी मौसी हैं इन्हें राम-राम कहो।” <br />
<br />
मैंने कहा, “मौसी तुम्हारी होगी, मैं उन्हें राम-राम नहीं कहूँगा।” <br />
<br />
उसने हंसकर कहा। “देखो ये तुम्हारा छोटा भाई है मनु, उसके साथ खेलो।” <br />
<br />
मैंने कहा, “में इसके साथ नहीं खेलूंगा, मेरी माँ कहती हैं, राम दुई का बच्चा हरामी है। हरामी है ये बच्चा।” <br />
<br />
राम दुई ने बच्चे को अपनी छाती से चिमटा लिया । भगत राम खिल-खिला कर हंस पड़ा और उसके बदसूरत करीहा दाँत और मसूड़े होंटों के बाहर निकल आए कहने लगा। “सेब खाओगे? सेब खाओगे? अलूचे? हा हा हा... हा हा...” मैंने सर हिला कर इनकार कर दिया।” <br />
<br />
उसने ज़बरदस्ती बहुत से सेब और अलूचे मेरी जेबों में ठूंस दीए फिर मुस्कुरा कर बोला। “ये मैना तुम्हें अच्छी लगती है न, ले जाओ उसे।” <br />
<br />
वो पिंजरा उतार कर मेरे हवाले करने लगा। <br />
<br />
मैंने कहा, “कोई थूकता भी है इस तुम्हारी मैना पर, मेरी माँ कहती है कि भगत राम आदमी नहीं हैवान है, वो तो चमार से भी बदतर है, छोड़ो मुझे, मुझे नहीं चाहिए तुम्हारी मैना वैना।” <br />
<br />
उसने हंसकर मुझे छोड़ दिया, कहने लगा, “तो अब भाग जाओ।” <br />
<br />
उस बदमाश के नीचे से निकल कर जो मैं भगा हूँ तो सीधा घर आकर दम लिया। घर आकर माँ को जो मैंने सारा क़िस्सा सुनाया तो पहले तो मुझ पर बहुत बिगड़ीं फिर भगत राम को उन्होंने ख़ूब-ख़ूब कोसा और सारे सेब और अलूचे उठा कर गली में फेंक दिए। <br />
<br />
उसके बाद में कभी भगत राम के घर नहीं गया। चंद महीनों के बाद जब लाला बंशी राम नए शहर से लौटा तो उसने मौलू चमार से कह कर भगत राम पर बदचलनी और अग़वा का मुक़द्दमा दायर करा दिया। छः सात महीने भगत राम जेल में रहा। आख़िर-ए-कार वो बरी हो गया लेकिन जेल में रह कर उसकी सेहत काफ़ी कमज़ोर हो गई थी, और अब वो जेल से छूट कर आया तो लोग कहते थे कि उसके चेहरे पर वो पहली सी बशाशत ना थी। न वो अब पहले की तरह सीना तान कर चलता था। कुछ झुका-झुका सा था, कुछ उदास लेकिन ये कैफ़ीयत भी चंद रोज़ तक रही फिर वो उसी तरह बेशर्म, बे-हया और ढीट बन कर इधर-उधर घूमने लगा। और गाँव-गाँव जा कर अपनी जड़ी बूटियों की तिजारत करने लगा। लेकिन शरीफ़ लोग उसे मुँह नहीं लगाते थे और उसके सॉए से परहेज़ करते थे। हिंदू, मुस्लमान, कुमेरे हर मज़हब और हर जात के लोग उसे आवारा और शोहदा समझते थे और हमारे गाँव में तो उसकी बुराई ज़र्ब-उल-मस्ल बन चुकी थी और माएं हमें दर्स-ए-अख़लाक़ देते वक़्त कहा करती थीं, “देखो जी कोई बुरा काम करोगे तो तुम्हारा भी वही हाल होगा, जो भगत राम का हुआ।” <br />
<br />
जैसी बे-मानी, बे-मतलब उसकी ज़िंदगी थी, वैसी ही उसकी मौत थी, बिलकुल मुहमल, ला-यानी। <br />
<br />
मैंने उसे मरते हुए नहीं देखा लेकिन जिन लोगों ने उसे मरते हुए देखा है वो भी उसके पागलपन पर आज तक हंसते हैं। कहते हैं मरने से पहले वो हश्शाश बश्शाश था। नदी के किनारे राम दुई के साथ खड़ा था, और उन तूफ़ानी लहरों का तमाशा देख रहा था जो बरसती बारिश की वजह से नदी की सत्ह को गिर्दाब-ए-फ़ना बनाए हुए थीं। यकायक उसने अपने किनारे के क़रीब भेड़ के तीन चार बच्चों को देखा जो उन हलाकत आफ़रीं लहरों की गोद में ख़ौफ़ज़दा आवाज़ में बा आ बा आ कहते हुए बहते चले आ रहे थे। एक लम्हे के लिये भगत राम ने उनकी तरफ़ देखा दूसरे लम्हे में वो नदी की तूफ़ानी लहरों की आग़ोश में था और भेड़ के बच्चों को बचाने की सई कर रहा था। उसी कोशिश में उसने अपनी जान दे दी। दूसरे दिन जब तूफ़ान थम गया तो उसकी लाश नदी के मग़रिबी मोड़ पर तुंग के एक तने से लिपटी हुई पाई गई जिसका आधा हिस्सा पानी में डूबा हुआ था। कैसी जाहिलाना, अहमक़ाना, बेवकूफ़ाना मौत थी। ये हैवानी ज़िंदगी की हैवानी मौत, हुस्न-ए-तरतीब, हुस्न-ए-तवाज़ुन से आरी, भला ऐसी मौत में भी कोई तुक है... लेकिन उसके अच्छे भाईयों ने अच्छा क्या, उसे माफ़ कर दिया, और गो वो बिरादरी से ख़ारिज हो चुका था। और अब वो ना हिंदू रहा था न मुस्लमान ना अछूत फिर भी उन्होंने अपने धरम के मुताबिक़ उससे अच्छा सुलूक किया। वो उसकी लाश को घर ले गए, उसे नहलाया धुलाया और अपने रस्म-ओ-रिवाज के मुताबिक़ इसे श्मशान घाट ले जा कर आग लगा दी मैं उस वक़्त वहीं मौजूद था... <br />
<br />
लेकिन ये १९२० की बात है। आज १९२४ है और मेरे नन्हे बेटे ने मेरी छंगुलिया को ज़ोर से काट खाया है और मैंने ग़ुस्से में आकर उसे दो, तीन तमांचे जड़ दीए हैं और मासूम बच्चा सोफ़े में मुँह छुपाए रो रहा है, और मैं सोचता हूँ, आज मैं ये सोचता हूँ कि भगत राम तुम जो दस नंबर के बदमाश थे और तुम्हारा कोई मज़हब ना था, तुम जो एक गँवार, उजड्ड, झूटे पंसारी थे और जुड़ी बूटीयां बेचते थे, और लोगों को ठगते थे, और उनसे रुपया बटोरते थे, और एक मुस्लमान फ़क़ीरनी से निकाह किए हुए थे, और एक अछूत बेवा से झूट-मूट का ब्याह रचाए हुए थे। भगत राम तुम तो जेल की हवा खा चुके थे। गाँव भर के माने हुए लफ़ंगे और गुंडे थे... तुम जिससे लोग नफ़रत करते थे। और शायद आज मैं ये सोचता हूँ भगत राम शायद मैंने तुम्हें पहचाना नहीं, शायद मैंने तुम्हें पहचानने में ग़लती की, शायद इन तमाम बड़े आदमीयों से बड़े हो, अच्छे हो, बेहतर हो, जो रेलें बनाते हैं, और लोगों को भूका मर जाने देते हैं, जो ऊँची-ऊँची इमारतें बनाते और ख़ुदा की मख़लूक़ को गलीयों में नंगा फिरने पर मजबूर करते हैं। जो नादार औरतों से उनकी इस्मत छीन कर इस्मत परस्त बनते हैं। जो अपनी वक़्ती बीवियों के लिए क़हबा ख़ाने और अपनी औलाद के लिए यतीम-ख़ाने तामीर करते हैं और समाज के समुंद्र में बैठ कर उन पर लानत भेजते हैं। हाँ तुम इन सब आदमीयों से बड़े हो जो ट्रैक्टर, हवाई जहाज़, स्कूल, मशीन गन, थियेटर, सिनेमा, एम्पायर, बिल्डिंग, नाच घर, नबक़, यूनीवर्सिटी, सलतनत तख़्त-ए-ताऊस, कुतबे, उपनिशद, फ़लसफ़ा, ज़बान, और अदब की तख़लीक़ करते हैं और आदमी की नस्ल को कायनात की तारीकी में हमेशा-हमेशा के लिए हैरान-ओ-परेशान छोड़ देते हैं। तुम इन सब आदमीयों से बड़े हो, अच्छे हो । भगत राम क्योंकि तुम पंसारी हो, जड़ी बूटी फ़रोख़्त करते हो, आवारा मिज़ाज हो, नहीं-नहीं तुम सच-मुच शायर हो, भगत राम, तुम वो शायर हो जो हर सदी में, हर बरस में, हर जगह हर गाँव में पैदा होता है। लेकिन लोग अच्छे लोग, नेक लोग, बड़े लोग उसे समझने से इनकार कर देते हैं तुम वो शायर हो दोस्त, आओ हाथ मिलाओ। <br />
<br />
लेकिन भगत राम अब मुझसे हाथ नहीं मिला सकता क्योंकि वो मुर्दा हो चुका है। १९२०ए- की तुग़्यानी में भेड़ के बच्चों को बचाते हुए मर गया था। और वहीं नदी के किनारे उसकी चिता जलाई गई थी और कोई उसकी मौत पर रोया ना था और उसकी चिता से शोले बुलंद हो कर आसमान की तरफ़ बढ़ रहे थे। लाल-लाल शोले, शोलों के पत्ते, शोलों की कलियाँ, शोलों के फूल से खिल रहे थे। और चिता जल रही थी और किसी की आँख में आँसू ना थे और क़ुदरत भी उदास न थी। आसमान साफ़ था, नीला गहरा, ख़ूबसूरत धूप थी, साफ़ थी, खुली हुई चमकदार, नर्म-गर्म और कहीं-कहीं बादलों के सपीद-सपीद सुबुक इंदाम, राज हंस तैर रहे थे, और नदी का पानी गीत गाता हुआ, भंवर बनाता हुआ, लहरों के जाल बुनता हुआ उस की चिता के क़रीब से गुज़र रहा था। और चिता के पास ही खट्टे अनारों के झुण्ड में शोला-ब-दामाँ फूल दमक रहे,। कायनात ख़ुश थी, ख़ुदा ख़ुश था, ख़ुद शायर ख़ुश था, क्योंकि आज उसका दिल शोला बन गया था और उसकी रूह फूल। ये शोले जो तुम्हारे दिल में हैं, ये फूल जो हर जगह हैं, जो तुम्हारे अन्दर हैं और मेरे अंदर हैं, और फिर अंदर, और बाहर, सब जगह, हर जगह और कायनात और शायर और आदमी एक हो गए थे। ऐसी मौत किसे नसीब होती है, भगत राम...</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A6%E0%A5%8B_%E0%A4%AB%E0%A4%BC%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%97_%E0%A4%B2%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A5%80_%E0%A4%B8%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A4%95_/_%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%A8_%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%B0&diff=44165दो फ़र्लांग लंबी सड़क / कृश्न चन्दर2024-03-18T20:44:46Z<p>अनिल जनविजय: '{{GKCatKahani}} कचहरियों से लेकर लॉ कॉलेज तक बस यही कोई दो फ़र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
<hr />
<div>{{GKCatKahani}}<br />
कचहरियों से लेकर लॉ कॉलेज तक बस यही कोई दो फ़र्लांग लंबी सड़क होगी, हर-रोज़ मुझे इसी सड़क पर से गुज़रना होता है, कभी पैदल, कभी साईकल पर, सड़क के दो रू ये शीशम के सूखे-सूखे उदास से दरख़्त खड़े हैं। इनमें न हुस्न है न छाँव, सख़्त खुरदरे तने और टहनियों पर गिद्धों के झुण्ड, सड़क साफ़ सीधी और सख़्त है। मुतवातिर नौ साल से मैं इस पर चल रहा हूँ, न इसमें कभी कोई गढ़ा देखा है न शिगाफ़, सख़्त-सख़्त पत्थरों को कूट-कूट कर ये सड़क तैयार की गई है और अब इस पर कोलतार भी बिछी है जिसकी अजीब सी बू गर्मियों में तबीयत को परेशान कर देती है। <br />
<br />
सड़कें तो मैं ने बहुत देखी भाली हैं लंबी-लंबी, चौड़ी-चौड़ी सड़कें बुरादे से ढंपी हुई सड़कें, सड़कें जिन पर सुर्ख़ बजरी बिछी हुई थी, सड़कें जिनके गिर्द सर्व-ओ-शमशाद के दरख़्त खड़े थे, सड़कें... मगर नाम गिनाने से क्या फ़ायदा इसी तरह तो अनगिनत सड़कें देखी होंगी लेकिन जितनी अच्छी तरह मैं इस सड़क को जानता हूँ किसी अपने गहरे दोस्त को भी उतनी अच्छी तरह नहीं जानता। <br />
<br />
मुतवातिर नौ साल से उसे जानता हूँ और हर सुब्ह अपने घर से जो कचहरियों से क़रीब ही है। उठकर दफ़्तर जाता हूँ जो ला कॉलेज के पास वाक़ेअ है। बस यही दो फ़र्लांग की सड़क, हर सुब्ह और हर शाम कचहरियों से लेकर ला कॉलेज के आख़िरी दरवाज़े तक, कभी साईकल पर कभी पैदल। <br />
<br />
इसका रंग कभी नहीं बदलता, इसकी हैयत में तब्दीली नहीं आती। इसकी सूरत में रूखापन बदस्तूर मौजूद है। जैसे कह रही हो मुझे किसी की क्या परवाह है और ये है भी सच इसे किसी की परवा क्यों हो? सैंकड़ों हज़ारों इन्सान, घोड़े-गाड़ियाँ, मोटरें इस पर से हर-रोज़ गुज़र जाती हैं और पीछे कोई निशान बाक़ी नहीं रहता। इसकी हल्की नीली और साँवली सतह इसी तरह सख़्त और संगलाख़ है जैसे पहले रोज़ थी। जब एक यूरीशियन ठेकेदार ने उसे बनाया था। <br />
<br />
ये क्या सोचती है? या शायद ये सोचती ही नहीं, मेरे सामने ही इन नौ सालों में इसने क्या-क्या वाक़िआ’त, हादिसे देखे। हर-रोज़ हर लम्हा क्या नए तमाशे नहीं देखती, लेकिन किसी ने इसे मुस्कुराते नहीं देखा, न रोते ही इसकी पथरीली छाती में कभी एक दर्ज़ भी पैदा नहीं हुई। <br />
<br />
“हाय बाबू! अंधे मोहताज ग़रीब, फ़क़ीर पर तरस कर जाओ अरे बाबा, अरे बाबू ख़ुदा के लिए एक पैसा देते जाओ अरे बाबा, अरे कोई भगवान का प्यारा नहीं, साहिब जी मेरे नन्हे-नन्हे बच्चे बिलक रहे हैं अरे कोई तो तरस खाओ इन यतीमों पर।” <br />
<br />
बीसियों गदागर इसी सड़क के किनारे बैठे रहते हैं। कोई अंधा है तो कोई लुंजा, किसी की टांग पर एक ख़तरनाक ज़ख़्म है तो कोई ग़रीब औरत दो-तीन छोटे-छोटे बच्चे गोद में लिए हसरत भरी निगाहों से राहगीरों की तरफ़ देखती जाती है। कोई पैसा दे देता है। कोई त्योरी चढ़ाए गुज़र जाता है कोई गालियाँ दे रहा है, हराम-ज़ादे मुस्टंडे, काम नहीं करते, भीक माँगते हैं। <br />
<br />
काम, बेकारी, भीक। <br />
<br />
दो लड़के साईकल पर सवार हंसते हुए जा रहे हैं एक बूढ़ा अमीर आदमी अपनी शानदार फिटेन में बैठा सड़क पर बैठी भिकारन की तरफ़ देख रहा है, और अपनी उंगलियों से मूछों को ताव दे रहा है। एक सुस्त मुज़्महिल कुत्ता फिटेन के पहियों तले आ गया है। उसकी पसली हड्डियाँ टूट गई हैं। लहू बह रहा है, उसकी आँखों की अफ़्सुर्दगी, बेचारगी उसकी हल्की-हल्की दर्दनाक टियाऊँ-टियाऊँ किसी को अपनी तरफ़ मुतवज्जा नहीं कर सकती। <br />
<br />
बूढ़ा आदमी अब गदेलों पर झुका हुआ उस औरत की तरफ़ देख रहा है जो एक ख़ुशनुमा सियाह-रंग की साड़ी ज़ेब-ए-तन किए अपने नौकर के साथ मुस्कुराती हुई बातें करती जा रही है। उसकी सियाह साड़ी का नुक़रई हाशिया बूढ़े की हरीस आँखों में चाँद की किरन की तरह चमक रहा है। <br />
<br />
फिर कभी सड़क सुनसान होती है। सिर्फ़ एक जगह शीशम के दरख़्त की छदरी छाँव में एक टाँगे वाला घोड़े को सुस्ता रहा है। गिद्ध धूप में टहनियों पर बैठे ऊँघ रहे हैं । पुलिस का सिपाही आता है। एक ज़ोर की सीटी, “ओ ताँगे वाले यहाँ खड़ा क्या कर रहा है। क्या नाम है तेरा, कर दूँ चालान?” <br />
<br />
“हजूर,” <br />
<br />
“हजूर का बच्चा! चल थाने” <br />
<br />
“हजूर? ये थोड़ा है…” <br />
<br />
“अच्छा जा तुझे माफ़ किया।“ <br />
<br />
ताँगे वाला ताँगे को सरपट दौड़ाए जा रहा है। रास्ते में एक गोरा आ रहा है। सर पर टेढ़ी टोपी, हाथ में बेद की छड़ी, रुख़्सारों पर पसीना, लबों पर किसी डाँस का सुर। <br />
<br />
“खड़ा कर दो कंटोनमेंट।” <br />
<br />
“आठ आने साहिब।” <br />
<br />
“वेल। छः आने।” <br />
<br />
“नहीं साहिब।” <br />
<br />
“क्या बकता है, टुम!” <br />
<br />
ताँगे वाले को मारते-मारते बेद की छड़ी टूट जाती है फिर ताँगे वाले का चमड़े का हंटर काम आता है। लोग इकट्ठे हो रहे हैं, पुलिस का सिपाही भी पहुँच गया है। “हराम-ज़ादे, साब बहादुर से माफ़ी माँगो” <br />
<br />
ताँगे वाला अपनी मैली पगड़ी के गोशे से आँसू पोंछ रहा है लोग मुंतशिर हो जाते हैं। <br />
<br />
अब सड़क फिर सुनसान है। <br />
<br />
शाम के धुँदलके में बिजली के क़ुमक़ुमे रौशन हो गए। मैं ने देखा कि कचहरियों के क़रीब चंद मज़दूर, बाल बिखरे, मैले लिबास पहने बातें कर रहे हैं। <br />
<br />
“भय्या भर्ती हो गया?” <br />
<br />
“हाँ।” <br />
<br />
“तनख़्वाह तो अच्छी मिलती होगी।” <br />
<br />
“हाँ।” <br />
<br />
“बुढ़ऊ के लिए कमा लाएगा। पहली बीवी तो एक ही फटी साड़ी में रहती थी।” <br />
<br />
“सुना है जंग सुरु होने वाली है।” <br />
<br />
“कब सुरु होगी?” <br />
<br />
“कब? इसका तो पता नहीं, मगर हम गरीब ही तो मारे जाएंगे।” <br />
<br />
“कौन जाने गरीब मारे जाएंगे कि अमीर।” <br />
<br />
“नन्हा कैसा है?” <br />
<br />
“बुख़ार नहीं टलता, क्या करें, इधर जेब में पैसे नहीं हैं उधर हकीम से दवा।” <br />
<br />
“भर्ती हो जाओ।” <br />
<br />
“सोंच रहे हैं।” <br />
<br />
“राम-राम।” <br />
<br />
“राम-राम।” <br />
<br />
फटी हुई धोतियाँ नंगे पाँव, थके हुए क़दम, ये कैसे लोग हैं। ये न तो आज़ादी चाहते हैं न हुर्रियत। ये कैसी अजीब बातें हैं, पेट, भूक, बीमारी, पैसे क़ुमक़ुमों की ज़र्द-ज़र्द रौशनी सड़क पर पड़ रही है। <br />
<br />
दो औरतें, एक बूढ़ी एक जवान, उपलों के टोकरे उठाए, खच्चरों की तरह हाँपती हुई गुज़र रहीं जवान औरत की चाल तेज़ है। <br />
<br />
“बेटी ज़रा ठहर, मैं थक गई... मेरे अल्लाह।” <br />
<br />
“अम्माँ, अभी घर जा कर रोटी पकानी है, तू तो बावली हुई है।” <br />
<br />
“अच्छा बेटी, अच्छा बेटी।” <br />
<br />
बूढ़ी औरत जवान औरत के पीछे भागती हुई जा रही है। बोझ के मारे उसकी टांगें काँप रही हैं, उसके पाँव डगमगा रहे हैं। वो सदियों से इसी सड़क पर चल रही है उपलों का बोझ उठाए हुए, कोई उसका बोझ हल्का नहीं करता, कोई उसे एक लम्हा सुस्ताने नहीं देता, वो भागी हुई जा रही है, उसकी टांगें काँप रही हैं उसकी झुर्रियों में ग़म है और भूक है। <br />
<br />
तीन-चार नौख़ेज़ लड़कियाँ भड़कीली साड़ियाँ पहने, बाँहों में बाँहें डाले हुए जा रही हैं। <br />
<br />
“बहन! आज शिमला पहाड़ी की सैर करें।” <br />
<br />
“बहन! आज लौरेंस गार्डन चलें।” <br />
<br />
“बहन! आज अनार कली!” <br />
<br />
“रीगल” <br />
<br />
“शट अप, यू फ़ूल!” <br />
<br />
आज सड़क पर सुर्ख़ बजरी बिछी है, हर तरफ़ झंडियाँ लगी हुई हैं पुलिस के सिपाही खड़े हैं, किसी बड़े आदमी की आमद है इसीलिए तो स्कूलों के छोटे-छोटे लड़के नीली पगड़ियाँ बाँधे सड़क के दोनों तरफ़ खड़े हैं। उनके हाथों में छोटी-छोटी झंडियाँ हैं, उनके लबों पर पपड़ियाँ जम गई हैं। उनके चेहरे धूप से तमतमा उठे हैं, इसी तरह खड़े-खड़े वो डेढ़ घंटे से बड़े आदमी का इंतिज़ार कर रहे हैं जब वो पहले-पहले यहाँ सड़क पर खड़े हुए थे तो हंस-हंस कर बातें कर रहे थे। अब सब चुप हैं चंद लड़के एक दरख़्त की छाँव में बैठ गए थे अब उस्ताद उन्हें कान से पकड़ कर उठा रहा है, शफ़ी की पगड़ी खुल गई थी। उस्ताद उसे घूर कर कह रहा है, “ओ शफी! पगड़ी ठीक कर” <br />
<br />
प्यारे लाल की शलवार उसके पाँव में अटक गई है और इज़ारबंद जूतियों तक लटक रहा है। <br />
<br />
“तुम्हें कितनी बार समझाया है प्यारे लाल!” <br />
<br />
“मास्टर जी पानी!” <br />
<br />
“पानी कहाँ से लाऊँ! ये भी तुमने अपना घर समझ रखा है दो-तीन मिनट और इंतिज़ार करो, बस अभी छुट्टी हुआ चाहती है।” <br />
<br />
दो मिनट, तीन मिनट, आधा घंटा <br />
<br />
“मास्टर जी पानी!” <br />
<br />
“मास्टर जी पानी!” <br />
<br />
“मास्टर जी बड़ी प्यास लगी है।” <br />
<br />
लेकिन उस्ताद अब इस तरफ़ मुतवज्जा ही नहीं होते वो इधर-उधर दौड़ते फिर रहे हैं। <br />
<br />
“लड़को! होशियार हो जाओ, देखो झंडियाँ इस तरह हिलाना, अबे तेरी झंडी कहाँ है? <br />
<br />
क़तार से बाहर हो जा, बदमाश कहीं का...” <br />
<br />
सवारी आ रही है… <br />
<br />
बड़ा आदमी सड़क से गुज़र गया लड़कों की जान में जान आ गई है अब वो उछल-उछल कर झंडियाँ तोड़ रहे हैं शोर मचा रहे हैं। <br />
<br />
सुबह की हल्की-हल्की रौशनी में भंगी झाड़ू दे रहा है। उसके मुँह और नाक पर कपड़ा बंधा है जैसे बैलों के मुँह पर, जब वो कोल्हू चलाते हैं। <br />
<br />
सड़क के किनारे एक बूढ़ा फ़क़ीर मरा पड़ा है। <br />
<br />
उसकी खुली हुई बे-नूर आँखें आसमान की तरफ़ तक रही हैं। <br />
<br />
“ख़ुदा के लिए मुझ ग़रीब पर तरस कर जाओ रे बाबा।” <br />
<br />
कोई किसी पर तरस नहीं करता सड़क ख़ामोश और सुनसान है ये सब कुछ देखती है, सुनती है, मगर टस से मस नहीं होती। <br />
<br />
अक्सर मैं सोचता हूँ कि अगर इसे डायनामाइट लगा कर उड़ा दिया जाये तो फिर क्या हो, इसके टुकड़े उड़ जाएँगे, उस वक़्त मुझे कितनी ख़ुशी हासिल होगी इसका कोई अंदाज़ा नहीं कर सकता। <br />
<br />
सड़क ख़ामोश है और सुनसान बुलंद टहनियों पर गिद्ध बैठे ऊँघ रहे हैं ये दो फ़र्लांग लंबी सड़क...</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B6%E0%A4%B9%E0%A4%9C%E0%A4%BC%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%BE_/_%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%A8_%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%B0&diff=44164शहज़ादा / कृश्न चन्दर2024-03-18T20:24:28Z<p>अनिल जनविजय: '{{GKCatKahani}} एक के बाद एक कई लड़के सुधा को नापसंद कर के चले...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
<hr />
<div>{{GKCatKahani}}<br />
एक के बाद एक कई लड़के सुधा को नापसंद कर के चले गए तो उसे कोई मलाल नहीं हुआ। मगर जब मोती ने उसे नापसंद किया तो उसने उसके इंकार में छुपी हुई हाँ को पहचान लिया और वह उस से मोहब्बत करने लगी। एक ख़याली मोहब्बत। जिसमें वह उसका शहज़ादा था। इसी ख़्याल में उसने अपनी पूरी उम्र तन्हा गुज़ार दी। मगर एक रोज़ उसे तब ज़बरदस्त झटका लगा जब मोती हक़ीक़त में उसके सामने आ खड़ा हुआ।<br />
<br />
सुधा ख़ूबसूरत थी न बदसूरत, बस मामूली सी लड़की थी। साँवली रंगत, साफ़ सुथरे हाथ पांव, मिज़ाज की ठंडी मगर घरेलू, खाने पकाने में होशियार, सीने-पिरोने में ताक़, पढ़ने-लिखने की शौक़ीन, मगर न ख़ूबसूरत थी न अमीर, न चंचल, दिल को लुभाने वाली कोई बात इस में न थी। बस वो तो एक बेहद शर्मीली सी और ख़ामोश-तबीअत वाली लड़की थी... बचपन ही से अकेली खेला करती, मिट्टी की गुड़ियाँ बनाती और उनसे बातें करती। उन्हें तिनकों की रसोई में बिठा देती और ख़ुद अपने हाथ से खेला करती। जब कोई दूसरी लड़की उसके क़रीब आती तो गुड़ियों से बातें करते-करते चुप हो जाती। जब कोई शरीर बच्चा उस का घरौंदा बिगाड़ देता तो ख़ामोशी से रोने लगती। रो कर ख़ुद ही चुप हो जाती और थोड़ी देर के बाद दूसरा घरौंदा बनाने लगती। <br />
<br />
कॉलेज में भी उसकी सहेलियाँ और दोस्त बहुत कम थे। वो शर्मीली तबीयत अभी तक उसके साथ चल रही थी, जैसे उसके माँ-बाप की ग़रीबी ने बढ़ावा दे दिया हो। उसका बाप जीवन राम नाथु मिल वाच मर्चैंट के यहां चाँदनी चौक की दूकान पर तीस साल से सेल्ज़ मैन चला आ रहा था। उसकी हैसियत ऐसी न थी कि वो अपनी बेटी को कॉलेज की तालीम दे सके। उस पर भी जो उसने अपनी बेटी को कॉलेज में भेजा था, महज़ इस ख़्याल से कि शायद इस तरीक़े से उसकी लड़की को कोई अच्छा ख़ाविंद मिल जाएगा। कभी कभी उसके दिल में ये ख़्याल भी आता था, मुम्किन है कॉलेज का कोई अच्छा लड़का ही उसपर आशिक़ हो जाये। मगर जब वो सुधा की सूरत देखता, झुकी हुई गर्दन, सिकुड़ा हुआ सीना, ख़ामोश निगाहें... और उसकी कम गोई का अंदाज़ा करता तो एक आह भर कर चुप हो जाता और अपना हुक़्क़ा गुड़ गुड़ाने लगता। <br />
<br />
सुधा के लिए तो कोई बर घेर घार कर ही लाना होगा। मगर मुसीबत ये है कि इस तरह के बर बड़ा जहेज़ मांगते थे और उसकी हैसियत ऐसी न थी कि वो बड़ा तो क्या छोटा सा भी जहेज़ दे सके। ज़हन के बहाव में बहते बहते उसने ये भी सोचा कि आजकल मुहब्बत की शादी बड़ी सस्ती रहती है। अब मालिक राम की बेटी गोपी को ही देखो, बाप हेल्थ मिनिस्ट्री में तीसरे दर्जे का क्लर्क है मगर बेटी ने एक लखपती ठेकेदार से शादी कर ली है जो उसके साथ कॉलेज में पढ़ता था। बाप क्वार्टरों में रहता है। मगर लड़की एयर कंडीशंड मोटरकार में बैठ कर अपने मैके वालों से मिलने आती है। हाँ, मगर गोपी तो बहुत ख़ूबसूरत है और हमारी सुधा तो बस ऐसी है जैसे उस की माँ... <br />
<br />
उसके लिए तो किसी बर को घेरना ही पड़ेगा जिस तरह सुधा की माँ और उसके रिश्ते वालों ने मुझे घेरा था। <br />
<br />
दो तीन जगह सुधा की माँ ने बात चलाई थी। मगर वो बात आगे न बढ़ सकी, मगर एक-बार तो उसने बंद इतना मज़बूत बाँधा कि लड़का ख़ुद घर चल कर सुधा को देखने आ गया। मगर सुधा उसे पसंद न आई। लड़का ख़ुद भी कौन सा अच्छा था? मुआ चेचक मारा, ठिंगना सा, उस पर हकलाता था, जामुन का सा रंग, मगर गोरी लड़की चाहता था और जहेज़ में एक स्कूटर मांगता था। यहां सुधा का बाप एक साईकल तक न दे सकता था। इसलिए मुआमला आगे चलता भी तो कैसे चलता? <br />
<br />
मगर ये सुधा के बाप को मालूम न था कि उस बदसूरत ठिंगने के इनकार पर ख़ुद सुधा कितनी ख़ुश हुई थी? वो और उसके भी दो बरसों में जो दो लड़के उसे देखने आए वो इनकार कर के चले गए। उन सब की सुधा किस क़दर दिल ही दिल में शुक्रगुज़ार थी। वो ऊपर से जितनी ठंडी थी, अंदर से उतनी ही लावा थी। ये कोई नहीं जानता था कि सुधा के तख़य्युल की उड़ान कितनी ऊंची और वसीअ है। अपनी तंगो तारीक सी दुनिया से बाहर निकल कर उसकी कल्पना कैसी कैसी सुंदर जगहों पर उसे ले जाती थी? इस बात को न तो उसका बाप जीवन राम जानता था न उसकी माँ मगही जानती थी कि सुधा कितनी अजीब लड़की है। वो बाहर से मामूली रंग-रूप की लड़की थी, मगर उसने अपने दिल के अंदर एक चमकती हुई ज़िंदगी छुपा रखी थी। जिस तरह लाल गुदड़ी में छुपा रहता है और ये तो हमारी रिवायत है क्योंकि अपने मैले-कुचैले बनिए को देख कर कभी ये एहसास नहीं होता कि उस आदमी के पास इतना सोना होगा। इसीलिए तो वो शर्मीली थी। वो अपना भेद किसी को क्यों बताए? शायद लोग उस पर हँसेंगे और जो कुछ वो सोचती थी वो सब कितना अजीब होता था। ये कॉलेज की सुंदर सजीली लड़कियां अगर उसके हुस्न की मोहिनी देख लें तो धक से रह जाएं और ये लंबी-लंबी कारों वाले देवताओं की तरह इठलाते हुए नौजवान अगर उसके दिल की राकेट जहाज़ देख लें तो क्या हैरत में न खो जाएं? वो मेरी तरफ़ देखते भी नहीं और ठीक भी है... घर की धुली हुई शलवार और सलवटों वाली स्याह क़मीस पहनने वाली ऐसी लड़की को वो भला क्यों देखेंगे... तो... मैं भी उन्हें क्यों बताऊंगी कि मैं क्या हूँ? <br />
<br />
तू ने कैसी लड़की जनी है? जीवन राम कभी कभी मगही को सताने लगता, हर वक़्त चुप रहती है। हर वक़्त निगाह नीची रखती है। हर वक़्त काम में जुटी रहती है। उसके मुँह पर कभी हंसी नहीं देखी। अब कपूर साहिब की लड़कियों को देखो, हर वक़्त फूलों की तरह महकती रहती हैं। हर वक़्त घर को गुलज़ार बनाए रखती हैं, और एक सुधा... जीवन राम अख़बार पटक कर चुप हो जाता। <br />
<br />
मगही बारह आने सेर वाला भात और चने की पतली दाल उसके सामने रखती हुई कहती, उन बच्चीयों की बात मत करो। उन बच्चीयों का बाप सुपरिटेंडेंट है। चार सौ रुपये घर लाता है। मेरी बच्ची के पास सिर्फ़ दो क़मीस हैं और कपूर साहिब की लड़कियां ही दिन में दो सूट बदलती हैं। कभी ये भी सोचा है? <br />
<br />
जीवन राम दाँत पीस कर चुप हो जाता। उसके दिल में बहुत से सवाल उभरते। ये चावल इतने मोटे क्यों हैं...? ये दाल इतनी पतली क्यों है? इसकी बीवी हर वक़्त नुची-खसोटी सी क्यों नज़र आती है? उसकी बच्ची हर वक़्त चुप क्यों रहती है? लोग जहेज़ में स्कूटर मांगते हैं...? बहुत से सवाल पतली दाल के चनों की तरह उसके दिमाग़ में फुदकने लगते... मगर जब उन सवालों का कोई जवाब न मिले तो उन्हें पतली दाल की तरह ही पी जाना चाहिए। <br />
<br />
एफ़.ए. पास करा के जीवन राम ने सुधा को कॉलेज से उठा लिया, मैं अफोर्ड नहीं कर सकता। उसने अपने साथी तोता राम से कहा जो सेवा मिल वूल क्लॉथ मर्चेंट के यहां नौकर था। वो बड़ी आसानी से ये भी कह सकता था कि कॉलेज में पढ़ाने की मेरी हैसियत नहीं। मगर हैसियत का लफ़्ज़ कितना साफ़ और खुला हुआ है, जैसे किसी ने सर पर सात जूते मार दिए हों और अफोर्ड में कितनी गुंजाइश है। वैसे अपनी ज़बान में कभी कभी बिदेसी और अजनबी अलफ़ाज़ भी इस्तिमाल कर लेने से कितनी पर्दापोशी हो जाती है। बिल्कुल ऐसे, जैसे घर में कोई अजनबी आ जाये तो घर के लड़ाई-झगड़े पर उसी वक़्त पर्दा पड़ जाता है...! तुम्हारी बेला तो अभी कॉलेज में पढ़ती है ना? <br />
<br />
उसने तोता राम से पूछा, हाँ! तोता राम मन की ख़ुशी से चहकते हुए बोला, अगली सर्दीयों में उसकी शादी होने वाली है। <br />
<br />
लड़का ढूंढ लिया? जीवन राम ने मरी हुई आवाज़ में पूछा। <br />
<br />
हाँ! तोता राम कोयल की तरह कूकते हुए बोला, उसने ख़ुद ही अपना बर पसंद कर लिया, कॉलेज में, लड़का बड़ा अमीर है। <br />
<br />
जब तोता राम चला गया तो जीवन राम ने बुरा सा मुँह बनाया और तोता राम की पतली आवाज़ की नक़ल करते हुए बोला, उसने ख़ुद ही अपना बर पसंद कर लिया, चह? फिर वो ज़ोर से फ़र्श पर थूकते हुए बोला, हरामज़ादा... <br />
<br />
दो साल गुज़र गए। सुधा अब आसिफ़ अली रोड की एक फ़र्म में टाइपिस्ट थी। वो पहले से ज़्यादा ख़ामोश, बावक़ार और मेहनती हो गई थी। घर की हालत भी अच्छी हो गई। क्योंकि सुधा घर में सौ रुपये लाती थी। दफ़्तर के काम से फ़ारिग़ हो कर वो स्टेनो का काम सीखने जाती थी। बी.ए. करने का इरादा भी रखती थी। <br />
<br />
घर की हालत ज़रा बेहतर होने पर जीवन राम और मगही ने सुधा के बर के लिए ज़्यादा एतिमाद से कोशिश शुरू कर दी थी। वो सुधा की तनख़्वाह में बहुत कम ख़र्च करते थे और स्कूटर के लिए पैसे जमा कर रहे थे। <br />
<br />
बहुत दिनों के बाद जीवन राम एक लड़के के वालदैन को स्कूटर का लालच देकर घेरने में कामयाब हुआ। मंगनी की रक़म, ब्याह का जहेज़, जहेज़ की नक़दी, जहेज़ का सोना, सारी ही ज़रूरी बातें तय हो गईं तो मोती जो लड़के का नाम था और वाक़ई शक्ल-ओ-सूरत में मोती ही की तरह उजला और ख़ूबसूरत था, अपनी होने वाली बीवी को देखने आया। <br />
<br />
मोती ने गहरे ब्राउन रंग का सूट पहना हुआ था। उसकी सुनहरी रंगत पर उसके स्याह घुंघरियाले बाल बेहद ख़ूबसूरत मालूम होते थे उसकी क़मीस से कफ़ के बाहर उसके हाथ बड़े मज़बूत और ख़ूबसूरत लगते थे और जब वो सजी सजाई सुधा की तरफ़ देखकर मुस्कुराया तो अंदर ही अंदर उस मासूम लड़की का दिल पिघल गया और चाय की प्याली उसके हाथों में बजने लगी और बड़ी मुश्किल से वो चाय की प्याली मोती को पेश कर सकी। <br />
<br />
मोती चाय पी कर और शुक्रिया अदा कर के बड़ी सआदत मंदी से रुख़्सत हो गया, अपनी बहनों के साथ। दूसरे दिन उसकी बहनों ने कहला भेजा, लड़की पसंद नहीं। इस रात सुधा न सो सकी। रात-भर उसकी आँखों में मोती का ख़ूबसूरत चेहरा और उसका बावक़ार जिस्म डोलता रहा था और रात-भर मोती के हाथों का ख़फ़ीफ़ सा लम्स उसकी रूह को गुदगुदाता रहा। <br />
<br />
लड़की पसंद नहीं। उंह। मगही ग़ुस्से से साग को कड़ाही में भूनते हुए बोली, और ख़ुद तो बड़ा यूसुफ़ है। अपनी रंगत पर बड़ा इतराता है। मगर अपनी पकौड़ा ऐसी नाक नहीं देखता? और अपने हब्शियों ऐसे घुंघरियाले बाल नहीं देखता। अपनी बहनों को नहीं देखता? एक तो भेंगी थी, सफ़ा भेंगी, दूसरी पोडर सुर्ख़ी की मारी, सूरत की चूहिया लगती थी। तीसरी के बाल देखे थे तुमने? जैसे बनिए की बोई के फोसड़े, उंह लड़की पसंद नहीं। ये कह कर उसने इतने ज़ोर से कड़ाही में करछी चलाई, जैसे वो साग के बजाय उस लड़के को भून रही हो। <br />
<br />
सुधा ने महसूस किया कि उसके घर वालों बल्कि घर के बाहर मुहल्ले वालों और शायद दफ़्तर वालों का भी ख़्याल था कि सुधा कुछ महसूस ही नहीं करती बल्कि दफ़्तर के काम के लिए निहायत मुनासिब लड़की है। न किसी से इश्क़ करे, न किसी को इश्क़ की तरग़ीब दे। दिन ब दिन उसकी आँखें मैली, होंट सिकुड़े हुए और चेहरा धुआँ-धुआँ होता जा रहा था। उसकी सूरत ऐसी ठंडी और ठस निकल आई थी कि उसे देखकर किसी बर्फ़ख़ाने का इमकान होने लगा था। क्लर्क आपस में चेमिगोइयां करते हुए कहते, जो आदमी सुधा से शादी करेगा उसे पहाड़ पर जाने की ज़रूरत न होगी। <br />
<br />
इसलिए कि मोती के इनकार करने पर सुधा के दिल पर किया बीती ये तो किसी को मालूम न हो सका। पहली बार उसने ज़िंदगी में किसी को दिल दिया था और ये किसी को मालूम न था। होता भी कैसे? और कहती भी क्या किसी से? कि जिसे मैंने चाहा वो मुझे देखने आया था और न पसंद कर के चला गया। लोग तो इश्क़ में रोते हैं। वो बेचारी कुछ कह भी न सकती थी। <br />
<br />
उस दिन उसने दफ़्तर में ओवर टाइम किया और जब अंधेरा ख़ासा बढ़ गया तो वो दफ़्तर से बाहर निकली और भूरे रंग का पर्स झुलाती हुई सामने आसिफ़ अली पार्क में चली गई और एक बेंच पर तन्हा बैठ गई। ये पार्क दिल्ली गेट के सामने एक छोटा सा ख़ामोश गोशा था। चंद पेड़ थे, चंद बेंचें थीं। चंद क़ते थे घास के... उनके चारों तरफ़ ट्रैफ़िक का शोर था। मगर आज यहां निस्बतन ख़ामोशी थी। सुधा हर रोज़ यहां आती थी और आध-पौन घंटा अकेले बैठ कर ताज़ा दम होती थी। थोड़े अर्से के लिए अपने ख़यालों की लहरों पर दूर तक तैरती हुई निकल जाती... उसे तन्हाई से डर न लगता था। तन्हाई उसका वाहिद सहारा थी। अंधेरे से उसे डर न लगता था बल्कि अंधेरा उसका दोस्त था। ग़ुंडों से उसे डर न लगता था। जाने उसकी शख़्सियत में कौनसी ऐसी बात थी कि गुंडे भी उसे दूर ही से सूंघ कर चल देते थे, कतरा कर निकल जाते थे। <br />
<br />
आज अंधेरा था और पेड़ के नीचे गहरी ख़ामोशी। पत्थर का बेंच भी ख़ूब ठंडा था। चंद मिनट तक सुधा ख़ामोशी से उस बेंच पर बैठी रही मगर जब उसकी तकान न गई तो वो उठकर पेड़ के नीचे चली गई और तने से टेक लगा कर बैठ गई और आँखें बंद कर लीं। <br />
<br />
यकायक किसी ने उससे कहा, तुम यहां क्यों बैठी हो? अकेली? <br />
<br />
सुधा ने आँखें खोलीं। सामने मोती मुस्कुरा रहा था। वही ख़ूबसूरत ब्राउन सूट पहने, वही सपेद दाँतों वाली जगमगाती हुई मुस्कुराहट... उसके हाथ उतने ही ख़ूबसूरत थे... सुधा के हलक़ में कोई चीज़ आ के रुकने लगी। वो बोल न सकी। <br />
<br />
मोती उसके क़रीब आ के बैठ गया। इतना क़रीब कि उसकी पतलून उसकी सारी से मस हो रही थी। उसने आहिस्ते से पूछा, <br />
<br />
तुम्हें मेरे इनकार पर ग़ुस्सा आ रहा है ना? <br />
<br />
सुधा ने आहिस्ते से सर हिलाया। उसकी आँखों में आँसू आ गए। <br />
<br />
बहुत बुरा लग रहा है ना? <br />
<br />
सुधा ने फिर हाँ के अंदाज़ में आहिस्ते से सर हिला दिया और आँसू छलक कर उसके गालों पर आ गए और वो रोने लगी... <br />
<br />
मोती ने अपने कोट की जेब से रूमाल निकाला और उसके आँसू पोंछते हुए बोला, <br />
<br />
मगर इस में रोने की क्या बात है? हर इन्सान को अपनी पसंद या नापसंद का हक़ है। बताओ हक़ है कि नहीं? <br />
<br />
मगर तुमने क्या देखा था मेरा? जो तुमने मुझे नापसंद कर दिया। क्या तुमने मेरे हाथ का फुलका खाया था? मेरा मटर पुलाव चखा था? क्या तुमने मेरे दिल का दर्द देखा था? और वो बच्चा जो तुम्हें देखते ही मेरी कोख में हुमक कर आ गया था...? तुमने मेरे चेहरे का सिर्फ़ स्पाट पन देखा। मेरे बच्चे का हुस्न क्यों नहीं देखा...? तुमने वो बात क्यों नहीं देखी जो ज़िंदगी भर तुम्हारे पांव धोते। और वो बटन जो मैं तुम्हारी क़मीस पर काढ़ने वाली थी, तुम मेरे जिस्म की रंगत से डर गए। तुमने उस स्वेटर का उजला रंग न देखा जो मैं तुम्हारे लिए बुनना चाहती थी। मोती, तुमने मेरी हंसी नहीं सुनी। मेरे आँसू नहीं देखे। मेरी उंगलियों के लम्स को अपने ख़ूबसूरत बालों में महसूस नहीं किया। मेरे कँवारे जिस्म को अपने हाथों में लरज़ते हुए नहीं देखा तो फिर तुमने किस तरह मुझे नापसंद कर दिया था? <br />
<br />
अरे... इतनी लंबी तक़रीर वो कैसे कर गई? इतना सब कुछ वो कैसे कह गई? बस उसे इतना मालूम था कि वो रो रही थी और कहती जा रही थी और उसका सर मोती के कंधे पर था और मोती अपनी ग़लती पर नादिम उसके शानों को हौले-हौले थपक रहा था। <br />
<br />
उस दिन वो बहुत देर से घर पहुंची और जब उसकी माँ मगही ने उससे पूछा तो उसने कमाल-ए-ला परवाई से कह दिया, दफ़्तर में देर हो गई। फिर पर्स को ज़ोर से झल्लाकर पलंग पर फेंक दिया और इस एतिमाद से खाना मांगने लगी कि उसकी माँ चौंक गई। उसका बाप चौंक गया। आज सुधा की रोई हुई आँखों की तह में ख़ुशी की एक हल्की से लकीर थी। जैसे गहरे बादलों में कभी-कभी बिजली कौंद जाती है। <br />
<br />
मगही ने अपने होंट चबा कर चालाक निगाहों से अपने ख़ाविंद की तरफ़ इस तरह देखा, जैसे उसने बेटी का राज़ भाँप लिया हो... जीवन राम ने भी एक पल के लिए मसरूर निगाहों से अपनी बेटी की तरफ़ देखा। फिर अपनी थाली की तरफ़ मुतवज्जा हो गया। <br />
<br />
ज़रूर कोई बात है... और सुधा चूँकि औरत है, इसलिए इस बात की तह में ज़रूर कोई मर्द है। ऐसा दोनों मियां-बीवी ने उसी लम्हा सोच लिया। आठ दस रोज़ के बाद इस शुबहा को और तक़वियत पहुंची। जब एक लड़का अपनी माँ के साथ सुधा को देखने के लिए आया, उस लड़के की माँ मगही की बचपन की सहेली थी और कैसे कैसे जतन और किस-किस तरह के वास्ते देकर मगही ने उसे शीशे में उतारा था। ये सिर्फ़ मगही ही जानती थी। इस लिए जब इस मौक़े पर लड़के की बजाय सुधा ने शादी से इनकार कर दिया तो पहले तो मगही अचंभे में रह गई। फिर उसके दिल में वो शुबहा तक़वियत पकड़ता चला गया... ज़रूर कोई है...! <br />
<br />
वो चुपके-चुपके अपनी बेटी के लिए जहेज़ का सामान तैयार करने लगी और जीवन राम हुक़्क़ा पीते-पीते उस दिन का इंतिज़ार करने लगा, जब सुधा चुपके से आकर मगही से सब बात कह देगी और बूढ्ढा जीवन राम पहले तो लाल-पीली आँखें निकाल कर सुधा को घूरेगा, तेरी ये हिम्मत! कि तू ने हमसे बाला-बाला ही अपने लिए बर पसंद कर लिया? निकाल दूँगा घर से और चुटिया काट कर फेंक दूँगा, हमारे ख़ानदान की नाक कटाने वाली... फिर वो मगही के समझाने-बुझाने पर ख़ुद ही नरम पड़ जाएगा और आख़िर में हुक़्क़ा गुड़गुड़ाते हुए पूछेगा, मगर कौन है वो...? <br />
<br />
और अब कोई भी हो, वो सुधा के बताते ही जल्द से जल्द उसके हाथ पीले कर देगा। पच्चीस बरस की जवान लड़की को घर में रखना ठीक नहीं। <br />
<br />
मगर दिन गुज़र गए, महीने गुज़र गए, साल गुज़र गए। मगर सुधा ने कुछ न बताया। उसकी माँ इंतिज़ार करती रही, मगर वो जन्म जली कभी कुछ मुँह से न फूटी। थक-हार के उसकी माँ ने फिर दो तीन बर ढ़ूंढ़े। मगर सुधा ने साफ़ इनकार कर दिया। आख़िरी बर, जो उसके बाप ने ढ़ूंडा, वो एक रनडवे हलवाई का था, जिसकी उम्र चालीस से तजावुज़ कर चुकी थी। <br />
<br />
इस रोज़ शफ़क़ के ढलते हुए सायों में गुलाबी उंगलियों वाली महकती हुई शाम में सुधा ने मोती को बताया, वो लोग आज मेरे लिए एक बूढ्ढा हलवाई ढूंढ के लाए थे। <br />
<br />
फिर? मोती ने हंसकर पूछा। <br />
<br />
मैंने साफ़ इनकार कर दिया। <br />
<br />
तू ने इनकार क्यूँकर दिया पगली। शादी कर लेती तो ज़िंदगी भर आराम से बैठी, मिठाई खाती। <br />
<br />
और तुम्हें छोड़ देती?'' सुधा ने प्यार भरे ग़ुस्से से मोती की तरफ़ देखकर कहा। <br />
<br />
मैंने भी तो तुमसे शादी नहीं की? मोती ने उसकी कमर में हाथ डालते हुए कहा। <br />
<br />
तो क्या हुआ? सुधा उसके गाल को अपने गाल से सहलाती हुई बोली, तुम मेरे पास तो हो, शादी से भी ज़्यादा मेरे पास... हर वक़्त मेरी मुट्ठी में गोया... <br />
<br />
मोती हंसकर बोला, हाँ ये तो सही है, मैं बिल्कुल तुम्हारी मुट्ठी में हूँ, जब चाहो बुला लो। <br />
<br />
शुरू में तो तुम ऐसे न थे। सुधा, मोती की तरफ़ चंचल निगाहों से देखकर बोली, शुरू में तो तुम बड़ी मुश्किल से मेरे पास आया करते थे... <br />
<br />
शुरू में ऐसा प्यार भी तो न था और किसी के दिल को समझते हुए देर भी तो लगती है... मोती ने सुधा के कानों में सरगोशी की और सुधा की आँखें शिद्दत-ए-एहसास से बंद होने लगीं और थोड़ी देर के बाद उसने मोती की तेज़-तेज़ साँसों की आँच अपने चेहरे पर महसूस की और अपनी गर्दन और रुख़्सार पर उसके बरसते हुए महसूस किए...! <br />
<br />
कल कहाँ मिलोगे? <br />
<br />
जहां तुम कहो... लवर्स लेन में? <br />
<br />
उंहू! <br />
<br />
कौटिल्य में घोड़ों की नुमाइश हो रहे है। <br />
<br />
मैं क्या घोड़े ख़रीद कर पालूँगी? सुधा हंसी। <br />
<br />
ओल्ड हाल में अदीबों की नुमाइश है। <br />
<br />
ना बाबा! सुधाने कानों पर हाथ रखे। <br />
<br />
मोती ख़ामोश हो गया। <br />
<br />
फिर सुधा ख़ुद ही बोली, कल पिक्चर देखेंगे, बसंत सिनेमा में बहुत अच्छी पिक्चर लगी है, मैं दो टिकट ख़रीद रखूँगी। तुम ठीक पौने छः बजे वहां पहुंच जाना। <br />
<br />
टिकट मैं ख़रीद लूँगा। <br />
<br />
नहीं ये पिक्चर तो मैं दिखाऊँगी, तुम कोई दूसरी दिखा देना। मैं कब मना करती हूँ... मगर भूलना नहीं, कल शाम पौने छः बजे बसंत सिनेमा के बाहर! <br />
<br />
बसंत सिनेमा के बाहर बहुत भीड़ थी। सुधा ने दो टिकट ख़रीद लिये और अब वो मोती का इंतिज़ार कर रही थी। उसने एहतियातन आधा पाव चिलगोज़े और एक छटांक किशमिश भी ले ली। सिनेमा देखते-देखते खाने का उसे हौका सा था। <br />
<br />
पौने छः हो गए, छः हो गए। पिछले शो के छूटने के बाद लोग चले गए। नए लोग शो देखने के लिए आने लगे। मोती नहीं आया। चारों तरफ़ रोशनियां थीं। लोगों की भीड़ थी। ख़्वांचे वालों की बुलंद आवाज़ें थी। ताँगे, मोटरों और रिक्शाओं का हुजूम था और मोती हुजूम को पसंद नहीं करता था। अब वो उसकी तबीयत समझ गई थी। उसे ख़ामोशी पसंद थी, अंधेरा पसंद था। तन्हाई पसंद थी... मोती बेहद हस्सास और नफ़ासत पसंद था। <br />
<br />
सवा छः के क़रीब वो सिनेमा हाल में जा बैठी। उसने अपने साथ वाली सीट पर अपना रूमाल रख दिया। चिलग़ोज़ों और किशमिश के लिफ़ाफ़े भी। हौले-हौले हाल भर गया। मगर मोती नहीं आया। जब हाल की रोशनियां गुल हो गईं और पिक्चर शुरू हो गई तो सुधा ने मोती का हाथ अपने हाथ पर महसूस किया। वो अंधेरे में चुपके से आकर साथी वाली सीट पर बैठ गया था। सुधा ने उसके हाथ को दबाते हुए कहा, <br />
<br />
बड़ी राह दिखाते हो। <br />
<br />
सॉरी! मोती के लहजे में बेहद मलामत थी। <br />
<br />
मैं तुम्हारे लिए चिलगोज़े और किशमिश लाई हूँ, खाओ... <br />
<br />
मोती ने किशमिश के चंद दाने उठा कर अपने मुँह में डाल लिए और सुधा मसर्रत का गहरा सांस लेकर तस्वीर देखने में मसरूफ़ हो गई। अब बातें करने का लम्हा न था। वो महसूस कर सकती थी कि मोती का हाथ उसके हाथ में है। वो उसके साथ कुर्सी पर बैठा है। थोड़ी-थोड़ी देर के बाद वो अपना सर उसके शाने पर रख देती। मोती सरगोशी मैं कहता, <br />
<br />
मेरे कंधे पर सर रखकर देखने से तुम्हें क्या नज़र आता है? तस्वीर तो नज़र आती न होगी? <br />
<br />
वो तस्वीर नज़र आती है जो इस हाल में बैठा हुआ कोई आदमी नहीं देख सकता। सुधा ने बड़ी गहरी मसर्रत से कहा। <br />
<br />
आहिस्ता-आहिस्ता हर शख़्स ने तबदीली महसूस की। सुधा की मैली-मैली आँखें उजली होती गईं। सीने का उभार वाज़िह होने लगा। कमर लचकने लगी और चाल में कूल्हों का मुदव्वर बहाव शामिल होता गया। वो दिन-ब-दिन हसीन-व-दिलकश होती गई। अब उसके कपड़े इंतिहाई साफ़ सुथरे होते थे। होते थे कम क़ीमत के मगर बेहद उम्दा सिले हुए होते थे। सुधा को ये तौफ़ीक़ न थी कि वो किसी अच्छे दर्ज़ी के पास जा सके मगर ख़ुद ही उसने दर्ज़ी का काम सीख लिया था और बहुत कम लड़कियां कटाई और नए लिबास की तराश और डिज़ाइन में उसका मुक़ाबला कर सकती थीं। मगर उसने कभी किसी को नहीं बताया कि वो ये कपड़े ख़ुद अपने हाथ से काट कर तैयार करती है। उसके दफ़्तर की जब कोई दूसरी लड़की उसके लिबास की तारीफ़ करती तो सुधा झट किसी महंगे दर्ज़ी का नाम बता देती। जहां सिर्फ़ अमीर तरीन फ़ैशन एबुल औरतों के कपड़े तैयार होते थे और उसके दफ़्तर की लड़कियां जल कर ख़ाक हो जातीं और सुधा से रश्क और हसद के मिले-जुले अंदाज़ में पूछतीं, <br />
<br />
कैसा है वो तेरा? <br />
<br />
गोरा रंग है, बाल घुंघरियाले हैं। हँसता है तो मोती झड़ते हैं। सुधा जवाब देती। <br />
<br />
क्या तनख़्वाह लेता है? <br />
<br />
बारह सौ। <br />
<br />
बारह सौ? लड़कियां चीख़ कर पूछतीं, बारह सौ तो हमारी फ़र्म के मैनेजर की तनख़्वाह है। <br />
<br />
वो भी एक फ़र्म में मैनेजर है। सुधा जवाब देती। <br />
<br />
अरी हमें दिखाएगी नहीं? बस एक-बार दिखा दे... हम देख तो लें कैसा है तुम्हारा वो! <br />
<br />
दिखा भी दूँगी, कहो तो दफ़्तर में बुला के दिखा दूं? <br />
<br />
ये तो उसने यूंही कह दिया था। वर्ना सुधा कहाँ मोती को दिखाने वाली थी। वो मर जाती मगर अपने मोती को न दिखाती। इन लौंडियों का क्या भरोसा? मगर सुधा ने दफ़्तर में बुलाने की धमकी इस कामिल एतिमाद से दे दी थी कि इससे आगे पूछने की हिम्मत लड़कियों को न हुई और वो जल कर ख़ामोश रह गईं। <br />
<br />
सुधा का बूढ़ा बाप कुढ़ कुढ़ कर मर गया क्योंकि सुधा शादी न करती थी और मुहल्ले वाले तरह तरह की चेमिगोइयां करते थे और सुधा का बाप अपनी बेटी को कुछ न कह सकता था। क्योंकि सुधा जवान और बालिग़ थी और ख़ुदमुख़्तार भी थी। अब वो घर में दो सौ रुपये लाती... सुधा का बाप मर गया और उसके मरने के बाद अगले चंद सालों में सुधा के भाईयों की शादियां हो गईं और वो लोग अपनी अपनी बीवीयां लेकर अपनी अपनी मुलाज़मतों के ठिकानों पर चले गए। फिर उसकी छोटी बहन दिजे की भी शादी हो गई। फिर उसकी माँ भी अपनी बड़ी बेटी के कँवारपने के ग़म में सुलग सुलग कर मर गई और सुधा इस ग़म में अकेली रह गई। चंद माह के बाद उसने वो घर भी छोड़ दिया और सिविल लाईन्ज़ में एक उम्दा मकान की दूसरी मंज़िल में दो कमरे लेकर पेइंग गेस्ट (Paying Guest) के तौर पर रहने लगी। उसके रहने के हिस्से का दरवाज़ा अलग से बाहर निकलता था और अब वो अपनी नक़ल-व-हरकत में मुकम्मल ख़ुदमुख़्तार थी। अब वो पैंतीस बरस की हो चुकी थी मगर मुश्किल से तीस बरस की मालूम होती थी। उसके होंटों पर हर वक़्त मुस्कुराहट खेलती रहती और आँखों में ख़ुशीयों के साये नाचते रहते। वो पहले से ज़्यादा संजीदा और बावक़ार हो गई थी। वो स्टेनो भी हो गई थी। उसने बी.ए. भी कर लिया था। उसकी तनख़्वाह भी बढ़ गई थी और किताबें पढ़ने का शौक़ भी... <br />
<br />
अब वो ख़ुशहाल और आरामदेह और सुकून आमेज़ ज़िंदगी बसर कर रही थी। कई साल से वो अपनी मांग में सींदूर भर रही थी और माथे पर सुहाग की बिंदिया सजाती थी और लोगों को ये तो मालूम न था कि उसकी शादी कहाँ हुई है? और कौन उसका ख़ाविंद है? मगर लोग इतना जानते थे कि कोई उसका है, जिसके साथ वो अपनी शामें गुज़ारती है। बल्कि लोग तो यहां तक कहते सुने गए कि जो कोई भी वो है, उसकी अपनी कुछ वजूह हैं, जिनकी वजह से उन दोनों की शादी नहीं हुई। मगर वो दोनों हर शाम की तन्हाइयों में मिलते हैं और जब दुनिया सो जाती है और जब कोई किसी को नहीं देखता। जब चारों तरफ़ नींद ग़ालिब आ जाती है, उन ग़नूदगी से लबरेज़ लम्हों में कोई सुधा के यहां आता है, हौले से दरवाज़ा खटखटाता है और ख़ामोशी से अंदर आ जाता है... लोगों ने उसे देखा नहीं था। मगर लोगों का ख़्याल यही था। वो सुधा से कुछ कहते नहीं थे। क्योंकि सुधा अब एक संजीदा और बावक़ार औरत बन चुकी थी और जिसके माथे पर सींदूर का ये बड़ा टीका जगमगाता हो, उसे कोई क्या कह सकता है? <br />
<br />
वो शाम सुधा की चालीसवीं सालगिरह की शाम थी और वो कई वजूह से सुधा को कभी नहीं भूलती। सुधा, मोती को मथुरा रोड के जापानी गार्डन में ले गई थी। जिस पर बाग़ की बजाय किसी ख़ूबसूरत मंज़र का शुबहा होता था। शफ़क़ ने चोट खाई हुई औरत की तरह अपना मुँह छुपा लिया था और रात की साँवली ज़ुल्फ़ें उफ़ुक़ पर बिखेर दी थीं। हौले-हौले तारे नमूदार होने लगे। आज सुधा बहुत ख़ामोश थी। मोती भी चुपचाप सा था... <br />
<br />
वो अब भी उसी तरह ख़ूबसूरत था, जैसे जवानी में था। अब भी वो हर-रोज़ उसी ब्राउन सूट में आकर सुधा से मिलता था कि सुधा का हुक्म यही था। उसे देखकर ये गुमान होता था कि मोती पर ज़िंदगी के बहाव ने और वक़्त के घाव ने ज़्यादा निशान नहीं छोड़े। सिर्फ़ कनपटियों पर सफ़ेद बाल आ गए हैं जो इस सूरत को और भी बावक़ार और वजीह बनाते थे और वो एक छड़ी लेकर चलता था जो उसकी पचासवें सालगिरह पर ख़ुद सुधा ने उसे तोहफ़े में दी थी। वर्ना इसके इलावा उसकी सूरतशक्ल में, किरदार और गुफ़तार में किसी तरह का फ़र्क़ ना आया था। वो पहले ही की तरह इतना हसीन, दिलकश और दिलनवाज़ था कि उसे देखते ही सुधा के दिल में ख़तरे की घंटियाँ बजने लगती थीं। इतना वक़्त गुज़र जाने के बाद आज भी उसे देखकर सुधा का दिल इतने ज़ोर से धक-धक करने लगा था जितना कि पहले रोज़... <br />
<br />
मोती ने आहिस्ते से पूछा, तुमने मुझसे शादी क्यों नहीं की? <br />
<br />
एक दफ़ा इनकार करने के बाद...? सुधा ने हौले से कहा, तुमसे शादी नहीं की जा सकती थी, सिर्फ़ मुहब्बत की जा सकती थी, अब तुम ये कैसे जान सकोगे कि जिस दिन तुमने इनकार किया था, उसी दिन से तुम मेरे हो गए थे... इतना जानने के लिए औरत का दिल चाहिए। <br />
<br />
मोती ख़ामोश रहा। बहुत देर के बाद बोला, आज तो तुम चालीस साल की हो चुकी हो, क्या तुम्हें अफ़सोस नहीं होता कि तुमने मुझसे शादी नहीं की! <br />
<br />
ये सुनकर सुधा भी ख़ामोश हो गई। इतनी देर ख़ामोशी रही कि मोती को गुमान गुज़रा कि कहीं सुधा अंदर ही अंदर रो रही है। <br />
<br />
सुधा। उसने आहिस्ते से उसका शाना हिलाया। <br />
<br />
मैं सोच रही थी, सुधा हौले से बोली, तुमसे शादी न कर के मैंने क्या खोया है... क्या कोई शाम ऐसी थी? जो मैंने तुम्हारे साथ न गुज़ारी हो। सोचो तो कहाँ-कहाँ हम नहीं गए? जहां-जहां मैंने तुम्हें बुलाया, क्या तुम वहां नहीं पहुंचे? और जिस वक़्त भी बुलाया, क्या उसी वक़्त सब काम छोड़कर तुम नहीं आए? अगर शादी का नाम रिफ़ाक़त है तो वो मुझे हासिल है... <br />
<br />
फिर ये भी सोचो कि इस तवील रिफ़ाक़त में मेरा तुम्हारा एक-बार भी झगड़ा नहीं हुआ, मैं ने तुम्हें हमेशा मेहरबान और मुस्कुराते हुए पाया। साल-हा-साल जब मेरे हाथों को तुम्हारे हाथों की ज़रूरत हुई, उनके लम्स की गर्मी, मैंने अपने जिस्म के रोएँ रोएँ में महसूस की... तुम्हारे फूल मेरी ज़ुल्फ़ों में रहे। तुम्हारे बोसे मेरे होंटों पर, तुम्हारी वफ़ा मेरे दिल में... क्या कोई औरत मुहब्बत में इससे ज़्यादा पा सकती है? <br />
<br />
सुधा ने एक गहरी मसर्रत से अपने आपको मोती के बाज़ुओं में ढीला छोड़ दिया और फिर उसे महसूस हुआ कि मोती के दो बाज़ू नहीं बल्कि चार बाज़ू हैं बल्कि शायद छः बाज़ू हैं, आठ बाज़ू हैं। और वो अपने जिस्म-ओ-जां के रग-ओ-रेशे में उसके बाज़ुओं को महसूस कर रही थी, जो उसे भींच कर अपने सीने से लगा रहे थे और सुधा ने अपने आपको उनके बाज़ुओं के सपुर्द कर दिया और अंदर ही अंदर इस तरह खुलती चली गई, जैसे चांदनी के लम्स से कली खिल कर फूल बन जाती है। मदमाते तारों के झुरमुट में, सब्ज़ झालरों वाले पेड़ों की ओट से चांद उभर आया था और अब चांद उस के बालों में था। उसकी आँखों में था, उसके होंटों में था। उसके दिल में था और लहर दर लहर उसकी जु-ए-ख़ूँ में रवां था। हाय मेरे मोतीचूर... मेरे मोतीचूर... मेरे मीठे लड्डू... मैं तो मर गई तेरे लिए... <br />
<br />
थोड़ी देर के बाद जब सुधा ने आँखें खोलीं तो उसका पुर मसर्रत ग़नूदगी आमेज़ चेहरा बता रहा था कि उससे अभी अभी मुहब्बत की गई है! <br />
<br />
वो शाम, वो रात सुधा को कभी नहीं भूलेगी क्योंकि वो रात मुकम्मल थी और उन दोनों की ज़िंदगियां मुकम्मल थीं। जैसे वक़्त और उम्र, चांद और आरज़ू सब एक साथ एक दायरे में मुकम्मल हो जाएं और जज़्बे की एक बूँद भी छलक कर बाहर जाने की ज़रूरत महसूस न करे। ऐसे लम्हे कब किसी की ज़िंदगी में आते हैं? और जब आते हैं तो इस शिद्दत से अपना तास्सुर छोड़ जाते हैं कि इन्सान महसूस करता है कि शायद मैं अब तक जिया ही इस लम्हे के लिए था। शायद कुछ इसी तरह सुधा ने इस लम्हे में महसूस किया और फिर कभी इस तरह महसूस न किया, क्योंकि इस वाक़िया के चंद दिन बाद, उसके दफ़्तर का मैनेजर तबदील हो गया और जो मैनेजर उसकी जगह आया, उसे सुधा सख़्त नापसंद करने लगी थी। एक तो वो बड़ा बदसूरत था। किसी ज़माने में उसका रंग गोरा ज़रूर रहा होगा। मगर अब तो पुराने ताँबे का सा था और मोटी नाक पर मुसलसल शराबनोशी से नीली वरीदों का जाल सा फैला था और सुधा को अपने नए मैनेजर की नाक देखकर हमेशा गुमान होता कि ये नाक नहीं एक इंजीर है जो अभी बातें करते करते उसके सामने फट जाएगा। उसके गाल जबड़ों पर लटक गए थे। आँखों के नीचे स्याह गढ़े पड़ गए थे। सर के बाल उड़ गए थे और जब वो बात करता था तो ऐसा मालूम होता था जैसे कोई मेंढ़क किसी काई भरे तालाब के अंदर से बोल रहा हो। अजीब सी घिन आती थी सुधा को उससे। लेकिन मुसीबत ये थी कि अब दफ़्तर में इतने साल से काम करते करते वो हेड स्टेनो बन चुकी थी और उसे दिनभर मैनेजर के कमरे में रहना पड़ता था और इससे उसे इंतिहाई कोफ़्त होती थी। लेकिन इससे ज़्यादा कोफ़्त उसे ये सोच कर होती थी कि उसने इस बदसूरत इन्सान को इससे पहले भी कहीं देखा है। जैसे ये सूरत जानी-पहचानी हो। मगर कहाँ? ज़ेह्न और हाफ़िज़े पर ज़ोर देने से भी उसकी याद न आती थी। <br />
<br />
उंह देखा होगा, इस मर घल्ले को कनॉट पैलेस में चक्कर काटते हुए कहीं। सुधा अपने आपको समझाते हुए कहती, मगर फिर कभी वही मैनेजर किसी फाईल को ख़ुद उठा कर सुधा की मेज़ पर रखते हुए, अपने हाथों से ऐसी जुंबिश करता कि सुधा का ज़ेह्न बेचैन हो जाता और वो सोचने लगती। कौन था वो? किससे इसकी ये हरकत मिलती है। क्या मेरे मरहूम बाप से? मेरे किसी भाई से? जैसे ये हरकत मुझे कुछ... याद दिलाती हो? मगर क्या? ग़ौर करने पर भी वो किसी नतीजे पर न पहुंच सकती और फिर अपना काम करने लगती। मगर दिन भर उसके दिल में एक ख़लिश सी होती रहती! <br />
<br />
पहली तारीख़ को जब तनख़्वाह बट चुकी और लोग अपने अपने घरों को चले गए तो नए मैनेजर ने सुधा को किसी काम से रोक लिया और उसे अपनी मेज़ के सामने कुर्सी पर बिठा लिया। फिर उसने एक कैबिनट खोल कर उसमें से एक गिलास निकाला और व्हिस्की की बोतल और सोडा... और पहला पैग वो गटागट चढ़ा गया। सुधा उसे हैरत से देखने लगी और ग़ुस्से से उठकर जाने लगी कि मैनेजर ने निहायत नर्मी से उसका हाथ पकड़ कर उसे जाने से बाज़ रखा और बोला, <br />
<br />
आज जब तुम्हारी तरक़्क़ी की फाईल मेरे सामने आई तो मुझे मालूम हुआ कि इस दफ़्तर में सबसे पुरानी मुलाज़िम तुम हो, ये बड़ी ख़ुशी की बात है। <br />
<br />
सुधा चुप रही। <br />
<br />
तुम्हारा नाम सुधा है ना? मैनेजर बड़ी बेचैनी से बोला। <br />
<br />
सुधा बड़ी हैरत से उसकी तरफ़ देखने लगी। इतने दिन से मेरे साथ काम कर रहा है, क्या ये मेरा नाम भी नहीं जानता? आख़िर उसे क्या हुआ है? <br />
<br />
मेरा मतलब है... मैनेजर दूसरे पैग का एक बड़ा घूँट पी कर बोला, तुम वही सुधा हो ना, जिसके बाप का नाम जीवन राम है? <br />
<br />
सुधा बड़ी तुर्शरोंई से बोली, हाँ, मेरे बाप का नाम भी फाईल में लिखा गया है, फिर मुझसे पूछने की ज़रूरत क्या है? वो तक़रीबन उठते उठते बोली। <br />
<br />
बैठो बैठो... मैनेजर ने फिर उसकी मिन्नत करते हुए कहा। <br />
<br />
तुमने मुझे पहचाना नहीं? वो उसकी तरफ़ ग़ौर से देखते हुए कहने लगा। <br />
<br />
नहीं..! वो ग़ुस्से से बोली। <br />
<br />
तुम अपने बाप के साथ मुहल्ला जिनदां में रहती थीं ना? <br />
<br />
हाँ! <br />
<br />
मैं एक रोज़ तुम्हारे घर आया था। तुम्हें देखा भी था। तुमसे बातें भी की थीं। बुड्ढे मैनेजर ने सुधा से कहा, अब तुम एक ख़ूबसूरत औरत बन चुकी हो, मगर जब तुम ऐसी न थीं। जब तुम एक मामूली सी लड़की थीं और मैंने तुम्हें देखा था और तुमसे बातें भी की थीं। <br />
<br />
कब? कब..? सुधा बेचैनी से बोली। <br />
<br />
बूढ्ढा मैनेजर देर तक सुधा को देखता रहा। आख़िर आहिस्ते से बोला, <br />
<br />
मैं मोती हूँ ... <br />
<br />
सुधा सन्नाटे में आ गई। <br />
<br />
मैं बड़ा... मैं बड़ा बदनसीब था जो तुमसे शादी न की... मैं तुम्हें अच्छी तरह से देख न सका, समझ न सका। इन चंद लम्हों में कोई क्या जान सकता है। क्योंकि एक सूरत जिल्द के अंदर भी तो पोशीदा रहती है... मैं नौजवान था। दौलत और गोरे रंग का लालची। जो बीवी मुझे मिली, वो दौलत भी लाई थी और सफ़ेद चमड़ा भी और इसके साथ एक मग़रूर, बदमिज़ाज ज़ालिम और बेवफ़ा तबीयत भी लाई थी। चंद सालों ही में मेरे पाँच बच्चे हो गए। उनमें से कितने मेरे थे? मैं कह नहीं सकता। मगर लोग तरह तरह की बातें बनाते थे और मैं सुनता था और पीता था और दूसरी औरतों के पास जाता था... फिर ज़हर... बीमारी का, और शराब का, और नाकामी का, और बेमहरी का, मेरी रग-रग में फैल गया और मैं वक़्त से पहले बूढ़ा हो गया और बुझ गया... अब वो मर चुकी है। इसलिए मैं उसे कुछ न कहूँगा और उसे कहूं भी क्या...? क़सूर तो मेरा है। मेरी इन आँखों का जो तुम्हें पहचान न सकीं... मेरी आँखों ने एक हीरा देखा और पत्थर समझ कर फेंक दिया... क्या तुम मुझे किसी तरह माफ़ नहीं कर सकतीं? क्या तुम मुझसे शादी नहीं कर सकतीं? मेरी उम्र ज़्यादा नहीं है। मुझे तो मुहब्बत भी नहीं मिली... जिसके लिए मैं सारी उम्र तरसता रहा। <br />
<br />
वो कहे जा रहा था और वो फटी फटी निगाहों से उसे देख रही थी और उसका जी चाहता था कि वो उससे कहे, अब तुम आए हो? बूढ़े बदसूरत और गंजे हो कर, ख़ौफ़नाक बीमारियों का शिकार... अब तुम मुझसे शादी के लिए कह रहे हो? मगर मैंने तो अपनी सारी ज़िंदगी तुम्हें दे दी और तुम्हें मालूम तक न हुआ कि मैंने अपनी सारी जवानी तुम्हारे तसव्वुर में खो दी और ज़िंदगी की हर बहार तुम्हारे ख़्याल में गंवा दी और शबाब की हर मचलती हुई आरज़ू तुम्हारी एक निगाह के लिए लुटा दी। ज़िंदगी भर मैं सड़कों पर अकेली चलती रही, तुम्हारे साये के साथ। अंधेरे पार्कों में बैठी रही तुम्हारे तसव्वुर के साथ। मैंने ख़ुद अपने हाथ से ख़र्च कर के तुमसे साड़ियों के तोहफ़े लिए। तुम्हारा ज़ेवर पहना, अपनी मेहनत का ख़ून कर के सिनेमा देखा और अपने साथ की सीट ख़ाली रखकर। मेरा बाप मर गया। मेरी माँ मर गई और मेरी कोख के बच्चे मुझे दूर ही दूर से बुलाते रहे और मैं किसी के पास न गई। तुम्हारे ख़्याल को हिर्ज़-ए-जाँ बनाए हुए, अपने कंवारपन के चालीस साल, आँखें, कान और होंट बंद कर के तुम्हारी आरज़ू में बता दिए थे... मैं कितनी ख़ुश थी? कितनी मगन थी? मैंने तो तुमसे कभी कुछ न मांगा। न शादी का फेरा, न सुहाग की रात, न बच्चे का तबस्सुम! बस... सिर्फ़ एक तसव्वुर, एक झलक, एक अक्स-ए-रुख़-ए-यार ही तुमसे मुस्तआर लिया था और तुम आज उसे भी जहन्नुम की चिता में जलाने के लिए मेरे शहर में चले आए हो? <br />
<br />
मगर सुधा, मोती से कुछ न कह सकी। वो मेज़ पर सर रखकर फूट-फूटकर रोने लगी और जब मोती ने उसका हाथ थामना चाहा तो वो ग़ुस्से से झुँझला गई और उसका हाथ झटक कर कमरे से बाहर चली गई। बाहर निकल कर सीढ़ीयों से नीचे उतर गई। मोती उसे बुलाता ही रहा। वो भाग कर सड़क पर जा पहुंची। सड़क पर अंधेरा था मगर फिर भी बिजली की बत्तीयों की इतनी रोशनी थी कि लोग उसके आँसू देख लेते मगर उसने किसी की परवाह न की और वो रोते हुए आगे बढ़ गई। आसिफ़ अली पार्क के क़रीब पहुंच कर वो ठिटकी। एक लम्हे के लिए उसे ख़्याल आया कि वो पार्क के अंदर जा कर, किसी पेड़ के तने से सर टेक कर बैठ जाये। मगर फिर उसने सोचा, बेसूद है, सब बेसूद है। मेरे ख़यालों का शहज़ादा अब वहां न आएगा। अब वो कभी मेरे पास न आएगा। <br />
<br />
जब वो ये कुछ सोच रही थी तो उसने अपनी मांग का सींदूर मिटा डाला और सुहाग बिंदिया खुरच ली और पार्क की रेलिंग पर अपनी सारी चूड़ियां तोड़ डालीं। इस यक़ीन के साथ कि अब वो सारी उम्र के लिए बेवा हो चुकी है।</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AA%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A5%87_%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%81%E0%A4%A6_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A4_/_%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%A8_%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%B0&diff=44163पूरे चाँद की रात / कृश्न चन्दर2024-03-18T20:21:37Z<p>अनिल जनविजय: '{{GKCatKahani}} अप्रैल का महीना था। बादाम की डालियां फूलों स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
<hr />
<div>{{GKCatKahani}}<br />
अप्रैल का महीना था। बादाम की डालियां फूलों से लद गई थीं और हवा में बर्फ़ीली ख़ुनकी के बावजूद बहार की लताफ़त आ गई थी। बुलंद-ओ-बाला तंगों के नीचे मख़मलीं दूब पर कहीं कहीं बर्फ़ के टुकड़े सपीद फूलों की तरह खिले हुए नज़र आ रहे थे। अगले माह तक ये सपीद फूल इसी दूब में जज़्ब हो जाऐंगे और दूब का रंग गहरा सब्ज़ हो जाएगा और बादाम की शाख़ों पर हरे हरे बादाम पुखराज के नगीनों की तरह झिलमिलाएंगे और नीलगूं पहाड़ों के चेहरों से कोहरा दूर होता जाएगा और इस झील के पुल के पार पगडंडी की ख़ाक मुलाइम भेड़ों की जानी-पहचानी बा आ आ आ से झनझना उठेगी और फिर इन बुलंद-ओ-बाला तंगों के नीचे चरवाहे भेड़ों के जिस्मों से सर्दियों की पली हुई मोटी मोटी गफ़ ऊन गरमियों में कुतरते जाऐंगे और गीत गाते जाऐंगे। <br />
<br />
लेकिन अभी अप्रैल का महीना था। अभी तंगों पर पत्तियाँ ना फूटी थीं। अभी पहाड़ों पर बर्फ़ का कोहरा था। अभी पगडंडी का सीना भेड़ों की आवाज़ से गूँजा ना था। अभी सम्मल की झील पर कंवल के चराग़ रौशन ना हुए थे। झील का गहरा सब्ज़ पानी अपने सीने के अंदर उन लाखों रूपों को छुपाए बैठा था जो बहार की आमद पर यकायक उस की सतह पर एक मासूम और बेलौस हंसी की तरह खिल जाऐंगे। पुल के किनारे किनारे बादाम के पेड़ों की शाख़ों पर शगूफ़े चमकने लगे थे। अप्रैल में ज़मिस्तान की आख़िरी शब में जब बादाम के फूल जागते हैं और बहार के नक़ीब बन कर झील के पानी में अपनी किश्तियां तैराते हैं। फूलों के नन्हे नन्हे शिकारे सतह-ए-आब पर रक़्साँ-ओ-लर्ज़ां बहार की आमद के मुंतज़िर हैं। <br />
<br />
पुल के जंगले का सहारा लेकर में एक अरसे से उस का इंतेज़ार कर रहा था। सै पहर ख़त्म हो गई। शाम आ गई, झील वलर को जाने वाले हाऊस बोट, पुल की संगलाख़ी मेहराबों के बीच में से गुज़र गए और अब वो उफ़ुक़ की लकीर पर काग़ज़ की नाव की तरह कमज़ोर और बेबस नज़र आ रहे थे। शाम का क़िरमज़ी रंग आसमान के इस किनारे से उस किनारे तक फैलता गया और क़िरमज़ी से सुरमई और सुरमई से सियाह होता गया। हत्ता कि बादाम के पेड़ों की क़तार की ओट में पगडंडी भी सो गई और फिर रात के सन्नाटे में पहला तारा किसी मुसाफ़िर के गीत की तरह चमक उठा। हवा की ख़ुनकी तेज़-तर होती गई और नथने उस के बर्फ़ीले लम्स से सुन्न हो गए। <br />
<br />
और फिर चांद निकल आया। <br />
<br />
और फिर वो आ गई। <br />
<br />
तेज़ तेज़ क़दमों से चलती हुई, बल्कि पगडंडी के ढलान पर दौड़ती हुई, वो बिलकुल मेरे क़रीब आ के रुक गई। उसने आहिस्ता से कहा। <br />
<br />
हाय! <br />
<br />
उस की सांस तेज़ी से चल रही थी, फिर रुक जाती, फिर तेज़ी से चलने लगती। उसने मेरे शाने को अपनी उंगलीयों से छुवा और फिर अपना सर वहां रख दिया और उस के गहरे सियाह बालों का परेशान घना जंगल दूर तक मेरी रूह के अंदर फैलता चला गया और मैंने उस से कहा “सै पहर से तुम्हारा इंतिज़ार कर रहा हूँ।” <br />
<br />
उसने हंसकर कहा। “अब रात हो गई है, बड़ी अच्छी रात है।” <br />
<br />
उसने अपना कमज़ोर नन्हा छोटा सा हाथ मेरे दूसरे शाने पर रख दिया और जैसे बादाम के फूलों से भरी शाख़ झुक कर मेरे कंधे पर सो गई। <br />
<br />
देर तक वो ख़ामोश रही। देर तक मैं ख़ामोश रहा। फिर वो आप ही आप हंसी, बोली “अब्बा मेरे पगडंडी के मोड़ तक मेरे साथ आए थे, क्यों कि मैंने कहा, मुझे डर लगता है। आज मुझे अपनी सहेली रज्जो के घर सोना है, सोना नहीं जागना है। क्योंकि बादाम के पहले शगूफ़ों की ख़ुशी में हम सब सहेलियाँ रात-भर जागेंगी और गीत गाएँगी और मैं तो सै पहर से तैयारी कर रही थी, इधर आने की। लेकिन धान साफ़ करना था और कपड़ों का ये जोड़ा जो कल धोया था आज सूखा ना था। उसे आग पर सुखाया और अम्मां जंगल से लकड़ियाँ चुनने गई थीं वो अभी आई ना थीं और जब तक वो ना आतीं मैं मक्की के भुट्टे और ख़ुश्क ख़ूबानीयाँ और जरवालो तुम्हारे लिए कैसे ला सकती हूँ। देखो ये सब कुछ लाई हूँ तुम्हारे लिए। हाय तुम सच-मुच ख़फ़ा खड़े हो। मेरी तरफ़ देखो में आ गई हूँ। आज पूरे चांद की रात है। आओ किनारे लगी हुई कश्ती खोलें और झील की सैर करें।” <br />
<br />
उसने मेरी आँखों में देखा और मैंने उस की मुहब्बत और हैरत में गुम पुतलीयों को देखा, जिनमें उस वक़्त चांद चमक रहा था और ये चांद मुझसे कह रहा था, जाओ कश्ती खोल के झील के पानी पर सैर करो। आज बादाम के पीले शगूफ़ों का मुसर्रत भरा त्यौहार है। आज उसने तुम्हारे लिए अपनी सहेलीयों अपने अब्बा, अपनी नन्ही बहन और अपने बड़े भाई सबको फ़रेब में रखा है, क्योंकि आज पूरे चांद की रात है और बादाम के सपीद ख़ुश्क शगूफ़े बर्फ़ के गालों की तरह चारों तरफ़ फैले हुए हैं और कश्मीर के गीत उस की छातीयों में बच्चे के दूध की तरह उमड़ आए हैं। उस की गर्दन में तुमने मोतीयों की ये सत-लड़ी देखी। ये सुर्ख़ सत-लड़ी उस के गले में डाल दी और उस से कहा, “तो आज रात-भर जागेगी। आज कश्मीर की बहार की पहली रात है। आज तेरे गले में कश्मीर के गीत यूं खिलेंगे, जैसे चाँदनी-रात में ज़ाफ़रान के फूल खिलते हैं। ये सुर्ख़ सत-लड़ी पहन ले।” <br />
<br />
चांद ने ये सब कुछ उस की हैरान पुतलीयों से झांक के देखा फिर यकायक कहीं किसी पेड़ पर एक बुलबुल नग़मासरा हो उठी और कश्तियों में चिराग़ झिलमिलाने लगे और तंगों से परे बस्ती में गीतों की मद्धम सदा बुलंद हुई। गीत और बच्चों के क़हक़हे और मर्दों की भारी आवाज़ें और नन्हे बच्चों के रोने की मीठी सदाएँ और छतों से ज़िन्दगी का आहिस्ता-आहिस्ता सुलगता हुआ धुआँ और शाम के खाने की महक, मछली और भात और कड़म के साग का नरम नमकीन और लतीफ़ ज़ायक़ा और पूरे चांद की रात का बहार आफ़रीं जोबन। मेरा ग़ुस्सा धुल गया। मैंने उस का हाथ अपने हाथ में ले लिया और उस से कहा, “आओ चलें झील पर।” <br />
<br />
पुल गुज़र गया। पगडंडी गुज़र गई, बादाम के दरख़्तों की क़तार ख़त्म हो गई। तल्ला गुज़र गया। अब हम झील के किनारे किनारे चल रहे थे। झाड़ियों में मेंढ़क बोल रहे थे। मेंढ़क और झींगुर और बीनड़े, उनकी बेहंगम सदाओं का शोर भी एक नग़मा बन गया था। एक ख़्वाब-नाक सिम्फ़नी और सोई हुई झील के बीच में चांद की कश्ती खड़ी थी। साकिन चुप-चाप, मुहब्बत के इंतेज़ार में, हज़ारों साल से इसी तरह खड़ी थी। मेरी और उस की मुहब्बत की मुन्तज़िर, तुम्हारी और तुम्हारे महबूब की मुस्कुराहट की मुन्तज़िर, इन्सान के इन्सान को चाहने की आरज़ू की मुन्तज़िर। ये पूरे चांद की हसीन पाकीज़ा रात किसी कुँवारी के बे छूए जिस्म की तरह मुहब्बत के मुक़द्दस लम्स की मुन्तज़िर है। <br />
<br />
कश्ती ख़ूबानी के एक पेड़ से बंधी थी। जो बिलकुल झील के किनारे उगा था। यहां पर ज़मीन बहुत नर्म थी और चांदनी पत्तों की ओट से छनती हुई आ रही थी और मेंढ़क हौले हौले गा रहे थे और झील का पानी बार-बार किनारे को चूमता जाता था और उस के चूमने की सदा बार-बार हमारे कानों में आ रही थी। मैंने दोनों हाथ, उस की कमर में डाल दिए और उसे ज़ोर ज़ोर से अपने सीने से लगा लिया। झील का पानी बार-बार किनारे को चूम रहा था। पहले मैंने उस की आँखें चूमीं और झील की सतह पर लाखों कंवल खिल गए। फिर मैंने उस के रुख़्सार चूमे और नरम हवाओं के लतीफ़ झोंके यकायक बुलंद होके सदहा गीत गाने लगे। फिर मैंने उस के होंट चूमे और लाखों मंदिरों, मस्जिदों और कलीसाओं में दुआओं का शोर बुलंद हुआ और ज़मीन के फूल और आसमान के तारे और हवाओं में उड़ने वाले बादल सब मिल के नाचने लगे। फिर मैंने उस की ठोढ़ी को चूमा और फिर उस की गर्दन के पेचो ख़म को, और कंवल खिलते खिलते सिमटते गए कलीयों की तरह और गीत बुलंद हो हो के मद्धम होते गए और नाच धीमा पड़ता पड़ता रुक गया। अब वही मेंढ़क की आवाज़ थी। वही झील के नरम नरम बोसे और कोई छाती से लगा सिसकियाँ ले रहा था। <br />
<br />
मैंने आहिस्ता से कश्ती खोली। वो कश्ती में बैठ गई। मैंने चप्पू अपने हाथ में ले लिया और कश्ती को खे कर झील के मर्कज़ में ले गया। यहां कश्ती आप ही आप खड़ी हो गई। ना इधर बहती थी ना उधर। मैंने चप्पू उठा कर कश्ती में रख लिया। उसने पोटली खोली। उस में से जरवालो निकाल कर मुझे दिए। ख़ुद भी खाने लगी। जर वालो ख़ुशक थे और खट्टे मीठे। <br />
<br />
“वो बोली। ये पिछली बार के हैं।” <br />
<br />
मैं जरवालो खाता रहा और उस की तरफ़ देखता रहा। <br />
<br />
वो आहिस्ता से बोली। “पिछली बहार में तुम ना थे।” <br />
<br />
पिछली बहार में, मैं ना था। और जरवालो के पेड़ फूलों से भर गए थे और ज़रा सी शाख़ हिलाने पर फूल टूट कर सतह-ए-ज़मीन पर मोतीयों की तरह बिखर जाते थे। पिछली बहार में, मैं ना था और जर वालो के पेड़ फलों से लदे फंदे थे। सब्ज़ सब्ज़ जरवालो। सख़्त खट्टे जरवालो जो नमक मिर्च लगा के खाए जाते थे और ज़बान सी सी करती थी और नाक बहने लगती थी और फिर भी खट्टे जरवालो खाए जाते थे। पिछली बहार में, मैं ना था। और ये सब्ज़ सब्ज़ जरवालो, पक के पीले और सुनहरे और सुर्ख़ होते गए और डाल डाल में मुसर्रत के सुर्ख़ शगूफ़े झूम रहे थे और मुसर्रत भरी आँखें, चमकती हुई मासूम आँखें उन्हें झूमता हुआ देखकर रक़्स सा करने लगतीं। पिछली बहार में, मैं ना था और सुर्ख़ सुर्ख़ जरवालो ख़ूबसूरत हाथों ने इकट्ठे कर लिए। ख़ूबसूरत लबों ने उनका ताज़ा रस चूसा और उन्हें अपने घर की छत पर ले जाकर सूखने के लिए रख दिया कि जब ये जरवालो सूख जाऐंगे, जब एक बहार गुज़र जाएगी और दूसरी बहार आने को होगी तो मैं आऊँगा और उनकी लज़्ज़त से लुत्फ़ अंदोज़ हो सकूँगा। <br />
<br />
जरवालो खा के हमने ख़ुश्क ख़ूबानीयाँ खाईं। ख़ूबानी पहले तो बहुत मीठी मालूम ना होती मगर जब दहन के लुआब में घुल जाती तो शहद-ओ-शकर का मज़ा देने लगतीं। <br />
<br />
“नर्म नर्म बहुत मीठी हैं ये।” मैंने कहा। उसने एक गुठली को दाँतों से तोड़ा और ख़ूबानी का बीज निकाल के मुझे दिया। “खाओ।” <br />
<br />
बीज बादाम की तरह मीठा था। <br />
<br />
“ऐसी ख़ूबानीयाँ मैंने कभी नहीं खाईं।” <br />
<br />
उसने कहा। “ये हमारे आँगन का पेड़ है। हमारे हाँ ख़ूबानी का एक ही पेड़ है। मगर इतनी बड़ी और सुर्ख़ और मीठी ख़ूबानीयाँ होती हैं उस की कि मैं क्या कहूं। जब ख़ूबानीयाँ पक जाती हैं तो मेरी सारी सहेलियाँ इकट्ठी हो जाती हैं और ख़ूबानीयाँ खिलाने को कहती हैं। पिछली बिहार में...” <br />
<br />
और मैंने सोचा, पिछली बिहार में, मैं ना था। मगर ख़ूबानी का पेड़ आँगन में इसी तरह खड़ा था। पिछली बिहार में वो नाज़ुक नाज़ुक पत्तों से भर गया था। फिर उनमें कच्ची ख़ूबानियों के सब्ज़ और नोकीले फल लगे थे। अभी इन ख़ूबानियों में गुठली पैदा ना हुई थी और ये कच्चे खट्टे फल दोपहर के खाने के साथ चटनी का काम देते थे। पिछली बहार में, मैं ना था और फिर इन ख़ूबानियों में गुठलियां पैदा हो गई थीं और ख़ूबानियों का रंग हल्का सुनहरा होने लगा था और गुठलियों के अंदर नरम नरम बीज अपने ज़ायक़े में सब्ज़ बादामों को भी मात करते थे। पिछली बहार में, मैं ना था। और ये सुर्ख़ सुर्ख़ ख़ूबानीयाँ जो अपनी रंगत में कश्मीरी दोशीज़ाओं की तरह सबीह थीं और ऐसी ही रसदार। सब्ज़ सब्ज़ पत्तों के झूमरों से झाँकती नज़र आती थीं। फिर अलहड़ लड़कियां आँगन में नाचने लगतीं और छोटा भाई दरख़्त के ऊपर चढ़ गया और ख़ूबानीयाँ तोड़ तोड़ कर अपनी बहन की सहेलीयों के लिए फेंकता गया। कितनी मीठी थीं, वो पिछली बहार की रस-भरी ख़ूबानीयाँ। जब मैं ना था... <br />
<br />
ख़ूबानीयाँ खा के उसने मकई का भुट्ठा निकाला। ऐसी सोंधी सोंधी ख़ुशबू थी। सुनहरा सेंका हुआ भुट्टा और करकरे दाने साफ़-शफ़्फ़ाफ़ मोतीयों की सी जिला लिए हुए और ज़ाइक़े में बेहद शीरीं। <br />
<br />
वो बोली, “ये मिस्री मकई के भुट्ठे हैं।” <br />
<br />
“बेहद मीठे।” मैंने भुट्ठा खाते हुए कहा। <br />
<br />
वो बोली। “पिछली फ़सल के रखे थे, घड़ों में छिपा के। अम्मां की आँख से ओझल।” <br />
<br />
मैंने भुट्ठा एक जगह से खाया। दानों की चंद क़तारें रहने दें, फिर उसने उसी जगह से खाया और दानों की चंद क़तारें मेरे लिए रहने दें। जिन्हें मैं खाने लगा और इस तरह हम दोनों एक ही भुट्ठे से खाते गए और मैंने सोचा, ये मिस्री मकई के भुट्ठे कितने मीठे हैं। ये पिछली फ़सल के भुट्ठे। जब तू थी लेकिन मैं ना था। जब तेरे बाप ने हल चलाया था खेतों में। गोड़ी की थी, बीज बोए थे, बादलों ने पानी दिया था। ज़मीन ने सब्ज़ सब्ज़ रंग के छोटे छोटे पौदे उगाए थे। जिनमें तू ने निलाई की थी। फिर पौदे बड़े हो गए थे और उनके सरों पर सरीयाँ निकल आई थीं और हवा में झूमने लगी थीं और तू मकई के पौदों पर हरे हरे भुट्ठे देखने जाती थी। जब मैं ना था। लेकिन भुट्ठों के अंदर दाने पैदा हो रहे थे, दूध भरे दाने, जिनकी नाज़ुक जिल्द के ऊपर अगर ज़रा सा भी नाख़ुन लगा जाये तो दूध बाहर निकल आता है। ऐसे नर्म-ओ-नाज़ुक भुट्ठे इस धरती ने उगाए थे और मैं ना था। और फिर ये भुट्ठे जवान और तवाना हो गए और उनका रस पुख़्ता हो गया। पुख़्ता और सख़्त। अब नाख़ुन लगाने से कुछ ना होता था। अपने नाख़ुन ही के टूटने का एहतिमाल था। भुट्ठों की मूँछें जो पहले पीली थीं, अब सुनहरी और आख़िर में स्याही माइल होती गईं। मकई के भुट्ठों का रंग ज़मीन की तरह भूरा होता गया। मैं जब भी ना आया था और फिर खेतों में खलियान लगे और खलियानों में बैल चले और भुट्ठों से दाने अलग हो गए और तू ने अपनी सहेलीयों के साथ मुहब्बत के गीत गाये और थोड़े से भुट्ठे छुपा के और सेंक के अलग रख दिए। जब मैं ना था, धरती थी, तख़लीक़ थी, मुहब्बत के गीत थे। आग पर सेंके हुए भुट्ठे थे। लेकिन मैं ना था। <br />
<br />
मैंने मुसर्रत से उस की तरफ़ देखा और कहा, “आज पूरे चांद की रात को जैसे हर बात पूरी हो गई है। कल तक पूरी ना थी, आज पूरी है।” <br />
<br />
उसने भुट्ठा मेरे मुँह से लगा दिया। उस के होंटों का गर्म गर्म लम्स अभी तक इस भुट्ठे पर था। मैंने कहा “मैं तुम्हें चूम लूं?” <br />
<br />
वो बोली। “हश, कश्ती डूब जाएगी।” <br />
<br />
“तो फिर क्या करें?” मैंने पूछा। <br />
<br />
वो बोली, “डूब जाने दो।” <br />
<br />
वो पूरे चांद की रात मुझे अब तक नहीं भूलती। मेरी उम्र सत्तर बरस के क़रीब है, लेकिन वो पूरे चांद की रात मेरे ज़हन में इस तरह चमक रही है जैसे अभी वो कल आई थी। ऐसी पाकीज़ा मुहब्बत मैंने आज तक नहीं की होगी। उसने भी नहीं की होगी। वो जादू वो कुछ और था। जिसने पूरे चांद की रात को हम दोनों को एक दूसरे से यूं मिला दिया कि वो फिर घर नहीं गई। उसी रात मेरे साथ भाग आई और हम पाँच छः दिन मुहब्बत में खोए हुए बच्चों की तरह इधर उधर जंगलों के किनारे नदी नालों पर अखरोटों के साये तले घूमते रहे, दुनिया-ओ-माफ़ीहा से बे-ख़बर। फिर मैंने इसी झील के किनारे एक छोटा सा घर ख़रीद लिया और उस में हम दोनों रहने लगे। कोई एक महीने के बाद में श्रीनगर गया और उस से ये कह के गया कि तीसरे दिन लौट आऊँगा। तीसरे दिन में लौट आया तो क्या देखता हूँ कि वो एक नौजवान से घुल मिल के बातें कर रही है। वो दोनों एक ही रकाबी में खाना खा रहे थे। एक दूसरे के मुँह में लुक़्मे डालते जाते हैं और हंसते जाते हैं। मैंने उन्हें देख लिया। लेकिन उन्होंने मुझे नहीं देखा। वो अपनी मुसर्रत में इस क़दर महव थे कि उन्होंने मुझे नहीं देखा। और मैंने सोचा कि ये पिछली बहार या उस से भी पिछली बहार का महबूब है, जब मैं ना था और फिर शायद और आगे भी कितनी ही ऐसी बहारें आयेंगी , कितनी ही पूरे चांद की रातें, जब मुहब्बत एक फ़ाहिशा औरत की तरह बेक़ाबू हो जाएगी और उर्यां हो के रक़्स करने लगेगी। आज तेरे घर में ख़िज़ां आ गई है। जैसे हर बहार के बाद आती है। अब तेरा यहां क्या काम। इस लिए में ये सोच कर उनसे मिले बग़ैर ही वापिस चला गया और फिर अपनी पहली बहार से कभी नहीं मिला। <br />
<br />
और अब मैं अड़तालीस बरस के बाद लौट के आया हूँ। मेरे बेटे मेरे साथ हैं। मेरी बीवी मर चुकी है लेकिन मेरे बेटों की बीवीयां और उनके बच्चे मेरे साथ हैं और हम लोग सैर करते करते सम्मल झील के किनारे आ निकले हैं और अप्रैल का महीना है और सै पहर से शाम हो गई है और मैं देर तक पुल के किनारे खड़ा बादाम के पेड़ों की क़तारें देखता जाता हूँ और ख़ुनुक हवा में सफ़ैद शगूफ़ों के गुच्छे लहराते जाते हैं और पगडंडी की ख़ाक पर से किसी के जाने-पहचाने क़दमों की आवाज़ सुनाई नहीं देती। एक हसीन दोशीज़ा लड़की हाथों में एक छोटी सी पोटली दबाए पुल पर से भागती हुई गुज़र जाती है और मेरा दिल धक से रह जाता है। दूर पार तंगों से परे बस्ती में कोई बीवी अपने ख़ाविंद को आवाज़ दे रही है। वो उसे खाने पर बुला रही है। कहीं से एक दरवाज़ा बंद होने की सदा आती है और एक रोता हुआ बच्चा यकायक चुप हो जाता है। छतों से धुआँ निकल रहा है और परिंदे शोर मचाते हुए एक दम दरख़्तों की घनी शाख़ों में अपने पर फड़फड़ाते हैं और फिर एक दम चुप हो जाते हैं। ज़रूर कोई मांझी गा रहा है और उस की आवाज़ गूँजती गूँजती उफ़ुक़ के उस पार गुम होती जा रही है। <br />
<br />
मैं पुल को पार कर के आगे बढ़ता हूँ। मेरे बेटे और उनकी बीवीयां और बच्चे मेरे पीछे आरहे हैं। वो अलग अलग टोलियों में बटे हुए हैं। यहां पर बादाम के पेड़ों की क़तार ख़त्म हो गई। तल्ला भी ख़त्म हो गया। झील का किनारा है। ये ख़ूबानी का दरख़्त है, लेकिन कितना बड़ा हो गया है। मगर कश्ती, ये कश्ती है। मगर क्या ये वही कश्ती है। सामने वो घर है। मेरी पहली बहार का घर। मेरी पूरे चांद की रात की मुहब्बत। <br />
<br />
घर में रोशनी है। बच्चों की सदाएँ हैं। कोई भारी आवाज़ में गाने लगता है। कोई बुढ़िया उसे चीख़ कर चुप करा देती है। मैं सोचता हूँ, आधी सदी हो गई। मैंने इस घर को नहीं देखा। देख लेने में क्या हर्ज है। आख़िर मैंने उसे ख़रीदा था। देखा जाये तो मैं अभी तक उस का मालिक हूँ। देख लेने में हर्ज ही किया है। मैं घर के अंदर चला जाता हूँ। <br />
<br />
बड़े अच्छे प्यारे बच्चे हैं। एक जवान औरत अपने ख़ाविंद के लिए रकाबी में खाना रख रही है। मुझे देखकर ठिटक जाती है। दो बच्चे लड़ रहे थे। मुझे देखकर हैरत से चुप हो जाते हैं। बुढ़िया जो अभी ग़ुस्सा में डाँट रही थी, थम के पास आ के खड़ी हो जाती है, कहती है, “कौन हो तुम?” <br />
<br />
मैंने कहा, “ये घर मेरा है।” <br />
<br />
वो बोली, “तुम्हारे बाप का है।” <br />
<br />
मैंने कहा, “मेरे बाप का नहीं है, मेरा है। कोई अड़तालीस साल हुए, मैंने इसे ख़रीदा था। बस इस वक़्त तो यूं ही में इसे देखने के लिए चला आया। आप लोगों को निकालने के लिए नहीं आया हूँ। ये घर तो बस समझिए अब आप ही का है। मैं तो यूंही।” <br />
<br />
में ये कह कर लौटने लगा। बुढ़िया की उंगलियां सख़्ती से थम पर जम गईं। उसने सांस ज़ोर से अंदर को खींची। <br />
<br />
बोली, “तो तुम हो, अब इतने बरस के बाद कोई कैसे पहचाने।” <br />
<br />
वो थम से लगी देर तक ख़ामोश खड़ी रही। मैं नीचे आँगन में चुप-चाप खड़ा उस की तरफ़ देखता रहा। फिर वो आप ही आप हंस दी। <br />
<br />
बोली, “आओ मैं तुम्हें अपने घर के लोगों से मिलाऊं, देखो ये मेरा बड़ा बेटा है। ये इस से छोटा है, ये बड़े बेटे की बीवी है। ये मेरा बड़ा पोता है, सलाम करो बेटा। ये पोती, ये मेरा ख़ाविंद है। शश, उसे जगाना नहीं। परसों से उसे बुख़ार आ रहा है। सोने दो उसे।” <br />
<br />
वो बोली, “तुम्हारी क्या ख़ातिर करूँ।” <br />
<br />
मैंने दीवार पर खूँटी से टँगे हुए मकई के भुट्ठों को देखा। सेंके हुए भुट्ठे। सुनहरे मोतीयों के से शफ़्फ़ाफ़ दाने। <br />
<br />
हम दोनों मुस्कुरा दिए। <br />
<br />
वो बोली, “मेरे तो बहुत से दाँत झड़ चुके हैं, जो हैं भी वो काम नहीं करते।” <br />
<br />
मैंने कहा, “यही हाल मेरा भी है, भुट्ठा ना खा सकूँगा।” <br />
<br />
मुझे घर के अंदर घुसते देखकर मेरे घर के अफ़राद भी अंदर चले आए थे। अब ख़ूब गहमा गहमी थी। बच्चे एक दूसरे से बहुत जल्द मिल-जुल गए। हम दोनों आहिस्ता-आहिस्ता बाहर चले आए। आहिस्ता-आहिस्ता झील के किनारे चलते गए। <br />
<br />
वो बोली, “मैंने छः बरस तुम्हारा इंतेज़ार किया। तुम उस रोज़ क्यों नहीं आए?” <br />
<br />
मैंने कहा, “मैं आया था। मगर तुम्हें किसी दूसरे नौजवान के साथ देखकर वापस चला गया था।” <br />
<br />
“क्या कहते हो?” वो बोली। <br />
<br />
“हाँ तुम उस के साथ खाना खा रही थीं, एक ही रकाबी में और वो तुम्हारे मुँह में और तुम उस के मुँह में लुक़्मे डाल रही थीं।” <br />
<br />
वो एक दम चुप हो गई। फिर ज़ोर ज़ोर से हँसने लगी। ज़ोर ज़ोर से हँसने लगी। <br />
<br />
“क्या हुआ?” मैं ने हैरान हो कर पूछा। <br />
<br />
वो बोली, “अरे वो तो मेरा सगा भाई था।” <br />
<br />
वो फिर ज़ोर ज़ोर से हँसने लगी। “वो मुझसे मिलने के लिए आया था, उसी रोज़ तुम भी आने वाले थे। वो वापस जा रहा था। मैंने उसे रोक लिया कि तुमसे मिल के जाये। तुम फिर आए ही नहीं।” <br />
<br />
वो एक दम संजीदा हो गई। “छः बरस मैंने तुम्हारा इंतिज़ार किया। तुम्हारे जाने के बाद मुझे ख़ुदा ने बेटा दिया, तुम्हारा बेटा। मगर एक साल बाद वो भी मर गया। चार साल और मैंने तुम्हारी राह देखी मगर तुम नहीं आए। फिर मैंने शादी कर ली।” <br />
<br />
दो बच्चे बाहर निकल आए। खेलते खेलते एक बच्चा दूसरी बच्ची को मकई का भुट्टा खिला रहा था। <br />
<br />
उसने कहा, “वो मेरा पोता है।” <br />
<br />
मैंने कहा, “वो मेरी पोती है।” <br />
<br />
वो दोनों भागते भागते झील के किनारे दूर तक चले गए। ज़िन्दगी के दो ख़ूबसूरत मुरक़्क़े। हम देर तक उन्हें देखते रहे। वो मेरे क़रीब आ गई। बोली, “आज तुम आए हुए हो तो मुझे अच्छा लग रहा है। मैंने अब अपनी ज़िंदगी बना ली है। इस की सारी ख़ुशीयां और ग़म देखे हैं। मेरा हरा-भरा घर है और आज तुम भी आए हो, मुझे ज़रा भी बुरा नहीं लग रहा है।” <br />
<br />
मैंने कहा, “यही हाल मेरा है। सोचता था ज़िन्दगी भर तुम्हें नहीं मिलूँगा। इसी लिए इतने बरस इधर कभी नहीं आया। अब आया हूँ तो ज़रा रत्ती भर भी बुरा नहीं लग रहा।” <br />
<br />
हम दोनों चुप हो गए। बच्चे खेलते खेलते हमारे पास आ गए। उसने मेरी पोती को उठा लिया, मैंने उस के पोते को उसने मेरी पोती को चूमा, मैंने उस के पोते को, और हम दोनों ख़ुशी से एक दूसरे को देखने लगे। इस की पुतलियों में चांद चमक रहा था और वो चांद हैरत और मुसर्रत से कह रहा था, “इन्सान मर जाते हैं, लेकिन ज़िंदगी नहीं मरती। बहार ख़त्म हो जाती है लेकिन फिर दूसरी बहार आ जाती है। छोटी छोटी मुहब्बतें भी ख़त्म हो जाती हैं लेकिन ज़िंदगी की बड़ी और अज़ीम सच्ची मुहब्बत हमेशा क़ायम रहती है। तुम दोनों पिछली बहार में ना थे। ये बहार तुमने देखी, इस से अगली बहार में तुम ना होगे। लेकिन ज़िंदगी फिर भी होगी और जवानी भी होगी और ख़ूबसूरती और रानाई और मासूमियत भी।” <br />
<br />
बच्चे हमारी गोद से उतर पड़े क्योंकि वो अलग से खेलना चाहते थे। वो भागते हुए ख़ूबानी के दरख़्त के क़रीब चले गए। जहां कश्ती बंधी थी। <br />
<br />
मैंने पूछा, “ये वही दरख़्त है?” <br />
<br />
उसने मुस्कुरा कर कहा, “नहीं ये दूसरा दरख़्त है।”</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%8B_%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A4%BE_%E0%A4%A6%E0%A5%8B%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4_/_%E0%A4%87%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%A4_%E0%A4%9A%E0%A5%81%E0%A4%97%E0%A4%BC%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%88&diff=44055मण्टो मेरा दोस्त / इस्मत चुग़ताई2023-12-06T14:58:50Z<p>अनिल जनविजय: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
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एडेल्फ़ी चैम्बर की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए मुझे घबराहट-सी हो रही थी, जैसे कभी इम्तिहान के हाल में दाख़िल होने से पहले हुआ करती थी। मुझे वैसे ही नए आदमियों से मिलते घबराहट हुआ करती थी, लेकिन यहाँ तो वो “नया आदमी” मण्टो था, जिससे मैं पहली बार मिलने जा रही थी। मेरी घबराहट वहशत की हदों को छूने लगी। मैंने शाहिद से कहा “चलो वापिस चलें, शायद मण्टो घर पर न हो।” मगर शाहिद ने मेरी उम्मीदों पर पानी फेर दिया ।<br />
<br />
“वो शाम को घर पर ही रहता है, क्योंकि वो रोज़ शाम को पीता है।”<br />
<br />
यह लीजिए, मरे पर सौ दर्रे, एक तो मण्टो और वो भी पीता हुआ मण्टो । मगर मैंने जी कड़ा कर लिया। ऐसा भी क्या, मुझे खा तो नहीं जाएगा, होने दो जो उसकी ज़ुबान की नोक पर डाँक है, मैं बुलबुला तो हूँ नहीं, जो फूँक मारी तो बैठ जाऊँगी। चरचराती, गर्द-आलूदा सीढ़ियाँ तय करके हम दोनों दूसरी मंज़िल पर पहुँचे, फ़्लैट का दरवाज़ा नीम-वा (आधा खुला हुआ) था, ड्रॉइंगरूम नुमा कमरे में एक कोने में सोफ़ा सेट पड़ा था। दूसरी तरफ़ एक बड़ा सा सफ़ेद और सादा पलंग पड़ा था। खिड़की से मिली हुई एक लदी-फदी बड़ी सी मेज़ के सामने एक बड़ी सी कुर्सी में एक बारीक मकोड़े की शक़्ल का इनसान उकड़ूँ मारे बैठा हुआ था। “आएँ आएँ” बड़ी खंदा-पेशानी (हँसमुख भाव) से मण्टो खड़ा हो गया । मण्टो हमेशा कुर्सी पर उकड़ूँ बैठा करता था और बहुत मुख़्तसर नज़र आता था, लेकिन जब खड़ा होता था तो खिंचकर उसका क़द ख़ासा निकल आता था। और बाज़ वक़्त जब मण्टो यूँ रेंगकर खड़ा होता था, तो बड़ा ज़हरीला मालूम होता था। उसके जिस्म पर खद्दर का कुरता-पैजामा और जवाहरकट सदरी थी। <br />
<br />
‘अरे, मैं समझता था कि आप निहायत काली-दुबली, सूखी मरियल सी होंगी ।’ — उसने दाँत निकालकर हँसते हुए कहा। <br />
<br />
‘और मैं समझती थी आप निहायत दबंग क़िस्म के, गल्हैर चिंघाड़ते हुए पंजाबी होंगे ।’ — मैंने सोचा, रसीद देते चलो, कहीं यह एकदम न हाप्टे पर ले ले ।<br />
<br />
और दूसरे लम्हे हम दोनों पूरी तन देही से जुटकर बहस करने लगे, जैसे इतने अरसे एक-दूसरे से नावाक़िफ़ रहकर हमने बड़ा घाटा उठाया हो और उसे पूरा करना हो। दो तीन बार बात उलझ गई, लेकिन ज़रा सा तकल्लुफ़ बाक़ी था लिहाज़ा, दूसरी मुलाक़ात के लिए उठा रखी । कई घण्टे हमारे जबड़े मशीनों की तरह मुख़्तलिफ़ मौज़ूआत पर जुमले करते रहे। और हमने जल्दी मालूम किया कि मेरी तरह मण्टो भी बातें काटने का आदी है। पूरी बात सुनने से पहले वो बोल उठता है। और जो रहा-सहा तकल्लुफ़ था वो भी ग़ायब हो गया। बातों ने बहस और बहस ने बा-क़ायदा नोक-झोंक की सूरत इख़्तियार कर ली और सिर्फ चन्द घण्टों की जान-पहचान के बल-बूते पर हम ने एक-दूसरे को निहायत अदबी क़िस्म लफ़्ज़ों में अहमक़, झक्की और कज-बहस कह डाला।<br />
<br />
घमसान के बीच में मैं ने एक बार किनारे होकर ग़ौर से देखा। मोटे-मोटे शीशों के पीछे लपकती हुई बड़ी-बड़ी स्याह पुतलियों वाली आँखें, जिन्हें देख कर मुझे बेसाख़्ता मोर के पर याद आ गए । मोर के पर और आँखों का क्या जोड़? यह मुझे कभी न मालूम हो सका, मगर जब भी मैंने उन आँखों को देखा मुझे मोर के पर याद आ गए । शायद र’ऊनत (अकड़) और गुस्ताख़ी के साथ-साथ उनमें बेसाख़्ता शिगुफ़्तगी (ख़ुश-मिज़ाजी) मुझे मोर के पैरों की याद दिलाती थी। उन आँखों को देखकर मेरा दिल धक् से रह गया। इन्हें तो मैंने कहीं देखा है । बहुत क़रीब से देखा है क़हक़हा लगाते संजीदगी से मुस्कुराते तंज़ के नश्तर बरसते और फिर निज़ा (मौत, मरने के पहले की हालत) के आलम में पथराते ! वही नाज़ुक हाथ पैर, सिर पर टोकरा भर बाल, पिचके ज़र्द - ज़र्द गाल और कुछ बेतुके से दाँत, पीते - पीते अचानक मण्टो को उच्छू लगा और वह खाँसने लगा, मेरा माथा ठनका । यह खाँसी तो जानी - पहचानी सी थी। उसे तो मैंने बचपन से सुना था। मुझे कोफ़्त होने लगी। न जाने किस बात पर मैंने कहा — “यह बिलकुल ग़लत।” और हम बाक़ायदा लड़ पड़े।<br />
<br />
“आप कज-बहसी (बेकार की बहस) कर रही हैं।”<br />
<br />
“हिमाक़त है यह।”<br />
<br />
“धांदली है इस्मत बहन ।”<br />
<br />
“आप मुझे बहन क्यों कह रहे हैं?” — मैंने चिढ़ कर कहा।<br />
<br />
“बस यूँ ही। अमूनन मैं औरतों को बहन कम कहता हूँ। मैं अपनी बहन को भी बहन नहीं कहता।”<br />
<br />
“तो फिर मुझे चिढ़ाने को कह रहे हैं ।”<br />
<br />
“नहीं तो वो कैसे जाना आप ने ?”<br />
<br />
“इसलिए कि मेरे भाई मुझे हमेशा जलाते, चिढ़ाते और मारते-पीटते रहे या पकड़कर पिटवाते रहे।” मण्टो ज़ोर से हँसा ।<br />
<br />
“तब तो मैं ज़रूर आपको बहन ही कहूँगा ।”<br />
<br />
“तो इतना याद रखिए कि मेरे बारे में मेरे भाइयों के ख़यालात भी कुछ ख़ुशगवार नहीं हैं। यह आपको खाँसी है, इसका इलाज क्यों नहीं करते ?”<br />
<br />
“इलाज ? डॉक्टर गधे होते हैं । तीन साल हुए, डॉक्टरों ने कहा था साल भर में मर जाओगे, तुम्हें टीबी है। साफ़ ज़ाहिर है कि मैंने न मरकर उन की पेशे-गोई को सच्चा साबित न होने दिया। और अब तो, बस, मैं डॉक्टरों को अहमक़ समझता हूँ। उनसे तो मेस्मेरिज़्म और जादू करने वाले ज़्यादा अक़लमन्द होते हैं।”<br />
<br />
“यही आपसे पहले एक बुज़ुर्ग फ़रमाया करते थे ।”<br />
<br />
“कौन बुज़ुर्ग?”<br />
<br />
“मेरे भाई, अज़ीम बेग़, नौ मन मिटटी के नीचे आराम फ़रमा रहे हैं ।”<br />
<br />
थोड़ी देर हम अज़ीम बेग़ के फ़न पर बहस करते रहे। आए थे सिर्फ़ मुलाक़ात करने, लेकिन बातों में रात के ग्यारह बज गए । शाहिद जो हमारी झड़पें अलग-थलग बैठे देख रहे थे, भूख से तंग आ चुके थे। मलाड़ पहुँचते- पहुँचते एक बज जाएगा, लिहाज़ा खाना खा ही लिया जाए । मण्टो ने मुझे अलमारी से प्लेटें और चमचे निकालने को कहा और ख़ुद होटल से रोटी लेने चला गया ।<br />
<br />
ज़रा, उस बरनी से आचार निकाल लीजिए। मण्टो ने तेज़ी से मेज़ पर खाना लगाया और कुर्सी पर उकड़ूँ बैठ गया । वही मेज़ जो दमभर पहले अदबी कारगुज़ारियों का मैदान बनी हुई थी, एक दम खाने की मेज़ की ख़िदमात अंजाम देने लगी और बग़ैर किसी से “पहले आप” कहे हम लोगों ने खाना शुरू कर दिया ।<br />
<br />
बरसों से इसी खाने की आदी हूँ ।<br />
<br />
खाने के दरमियान गर्मागर्म मुबाहिसा चलता रहा। घूम फिरकर वो “लिहाफ़” के बख़िया उधेड़ने लगता, जो उन दिनों मेरी दुखती रग बना हुआ था । मैंने बहुत टालना चाहा मगर वो ढिटाई से अड़ा रहा और उसका एक-एक तार घसीट डाला। उसे बड़ा धक्का लगा यह सुनकर कि मुझे “लिहाफ़” लिखने पर अफ़सोस है, उसने जो जली-कटी सुना डालीं और मुझे निहायत बुज़दिल और कम नज़र कह डाला।<br />
<br />
मैं “लिहाफ़” को अपना शाहकार मानने को तैयार नहीं थी और मण्टो मुस्सिर (अपनी बात पर अड़ा) था। थोड़ी ही देर में “लिहाफ़” से भी बढ़-चढ़ कर हमने बहस कर डाली निहायत खुलकर। और मुझे ताज्जुब हुआ कि मण्टो गन्दी से गन्दी और बेहूदा से बेहूदा बात धड़ से इस माक़ूलियत और भोलेपन से कह जाता है कि ज़रा झिझक महसूस नहीं होती या वो मोहलत देता ही नहीं। उसकी बातों पर घिन्न या ग़ुस्सा नहीं आता। चलते वक़्त उस ने सफ़ीया का ज़िक्र किया। इतनी देर हम बैठे रहे और मण्टो को सफ़ीया की याद ने कई बार सताया ।<br />
<br />
“सफ़ीया बहुत अच्छी लड़की है ।”<br />
<br />
“आप उससे मिलकर बहुत ख़ुश होंगी ।”<br />
<br />
“बहुत याद आ रही है तो उसे बुला क्यों नहीं लेते?” — मैंने कहा ।<br />
<br />
“अरे…. क्या समझती हो, उसके बग़ैर सो नहीं सकता।” वो अपनी असलियत पर उतरने लगा ।<br />
<br />
“नींद तो सूली पर भी आ जाती है।” — मैंने बात टाली और वो हँस पड़ा ।<br />
<br />
“आपको सफ़ीया से बहुत मुहब्बत है ?” — मैंने राज़दारी के अन्दाज़ में पूछा ।<br />
<br />
“मुहब्बत !” — वो चीख पड़ा, जैसे मैंने उसे गाली दी हो ।<br />
<br />
“मुझे उस से क़तई मुहब्बत नहीं।” — उसने कड़वा मुँह बनाकर बड़ी पुतलियाँ घुमाईं। मैं मुहब्बत का क़ायल नहीं ।<br />
<br />
“अरे आपने कभी किसी से मुहब्बत ही नहीं की?” — मैंने मस्नू’ई (बनावटी) हैरत से कहा — “नहीं ।”<br />
<br />
“और आपके कभी गुलसए भी नहीं निकले। ख़सरा भी नहीं हुई। मगर काली खाँसी तो ज़रूर हुई होगी ।”<br />
<br />
वो हँस पड़ा ।<br />
<br />
“मुहब्बत से आपका मतलब क्या है? मुहब्बत तो एक बड़ी लम्बी-चौड़ी चीज़ है। मुहब्बत माँ से भी होती है । बहन और बेटी से भी… बीवी से भी मुहब्बत होती है । मेरे एक दोस्त को अपनी कुतिया से मुहब्बत है । हाँ, मुझे अपने बेटे से मुहब्बत थी।<br />
<br />
वो बेटे के ख़याल पर उचककर कुर्सी पर ऊँचा हो गया । ख़ुदा की क़सम ! इतना सा, पैरों चलता था। बड़ा शरीर था। घुटनों चलता था तो फ़र्श की दराज़ों में से मिटटी निकालकर खा लिया करता था। मेरा कहना बड़ा मानता था।<br />
<br />
आम बापों की तर्ज़ मंटो ने अपने बेटे का अजीबो-ग़रीब होने का यक़ीन दिलाना शुरू किया।<br />
“आप यक़ीन कीजिए कि छह-सात दिन का था कि मैं उसे अपने साथ सुलाने लगा। मैं उसे ख़ुद तेल मलकर<br />
नहलाता। महीने का भी नहीं था कि ठहाका मार कर हँसने लगा। बस सफ़ीया को कुछ नहीं करना पड़ता<br />
था। दूध पिलाने के सिवा उस का कोई काम न करती। रात को बस पड़ी सोई रहती। मैं चुपचाप बच्चे को दूध<br />
पिलवा देता। दूध पिलवाने से पहले यूडी-कूलन से या स्परिट से साफ़ कर लेना चाहिए, नहीं तो बच्चे के मुँह<br />
में डेन हो जाते हैं।” - वो बड़ी संजीदगी से बोला और मैं हैरत से उसे देखती रही कि यह कैसा मर्द है जो बच्चे<br />
पालने में मुश्ताक़ है।<br />
“मगर वो मर गया।”, मंटो ने मस्नूई मसर्रत (बनावटी ख़ुशी) चेहरे पर लाकर कहा, “अच्छा जो मर गया। मुझे तो<br />
उसने आया बना डाला था। अगर वो आज ज़िंदा होता तो मैं उसके पोतड़े धोता होता, निकम्मा हो कर रह<br />
जाता, मुझ से कोई काम थोड़े होता। सचमुच इस्मत बहन मुझे उस से इश्क़ था।” चलते-चलते उस ने फिर कहा<br />
कि सफ़ीया आने वाली है, बस जी ख़ुश हो जाएगा आपका उस से मिल कर।”<br />
और वाक़ई सफ़ीया से मिलकर मेरा जी ख़ुश हो गया। मिनटों में हमारी इतनी घुट गई कि सिर जोड़ कर<br />
पोशीदा बातें होने लगीं, जो सिर्फ़ औरतें ही कहती हैं, जो मर्दों के कानों के लिए नहीं होतीं। मुझे और सफ़ीया<br />
<br />
को यूँ सिर जोड़ के खुसर-पुसर करते देख कर मंटो जल गया और ताने देने लगा। उसने पिछले कमरे की चूबी<br />
दीवार (लकड़ी की दीवार) से कान लगाकर हमारी सारी सरगोशियाँ सुन ली थीं। वो शरीर बच्चे की तरह<br />
बोला, “तौबा, तौबा! मेरे फ़रिश्तों को भी ख़बर नहीं कि औरतें भी इतनी गन्दी-गन्दी बातें करती हैं।”<br />
<br />
सफ़ीया के शर्म से गाल लाल हो गए। और आप से तो इस्मत बहन मुझे क़तई उम्मीद थी कि यूँ मुहल्ले की<br />
जाहिल औरतों की तरह बातें करेंगी। कब शादी हुई, शादी की रात कैसे गुज़री, बच्चा कब और कैसे पैदा<br />
हुआ।<br />
तौबा है, वो चिढ़ाने लगा।<br />
मैंने फ़ौरन लगाम लगाई। हद्द है मंटो साहब, मैं आपको इतना तंग नज़र न समझती थी। और आप भी इन<br />
बातों को गन्दी बातें कहते हैं। इन में गन्दगी क्या है? बच्चे की पैदाइश दुनिया का हसीन तरीन हादिसा है और<br />
यह कानाफूसी ही तो हमारा ट्रेनिंग स्कूल है। क्या समझते हैं आप, क्या कालेज में बच्चे देना सिखाया गया है।<br />
वहाँ के बूढ़े प्रोफ़ेसर भी आप की तरह नाक-भौं चढ़ा कर तौबा-तौबा कहते रहे, मुहल्ले की औरतों ही से हमने<br />
ज़िन्दगी के अहमतरीन राज़ जाने हैं।<br />
“यह सफ़ीया सख़्त ज़ाहिल है। अदब-वदब कुछ नहीं समझती, हर बात पर थू-थू करती है। आपकी तहरीरों से<br />
सख़्त ख़फ़ा है। आपका जी नहीं घबराता, इससे घंटे बातों कर के कि क़ोरमे में कितनी हल्दी, उरद की दाल के<br />
दही बड़े… “<br />
ऐ मंटो साहब, क़ोरमे में हल्दी कहाँ पड़ती है। सफ़ीया ने हैबतज़दा (आतंकित) होकर कहा। और मंटो लड़<br />
पड़ा।<br />
वो बज़िद था कि हल्दी हर खाने में पड़नी चाहिए और जो नहीं पड़ती तो यह सरासर ज़ुल्म और नाइंसाफ़ी है।<br />
“मेरा एक राजपूत दोस्त था, वो घी और हल्दी पी कर जाड़ों में कसरत किया करता था। पूरा पहलवान था।”<br />
और हम मुसिर्र (अड़े हुए) थे कि आपका दोस्त घी और हल्दी छोड़ कर कीचड़ पीता था। हम किसी शर्त पर<br />
हल्दी डालने को तैयार नहीं और मंटो को क़ायल होना पड़ा।<br />
<br />
मैं और सफ़ीया अगर पॉँच मिनट के इरादे से भी मिलते तो पाँच घंटे का प्रोग्राम हो जाता, मंटो से बहस करके<br />
ऐसा मालूम होता जैसे ज़हनी क़ुवत्तों पर धार रखी जा रही है। जाला साफ़ हो रहा है, दिमाग़ में झाड़ू-सी दी जा<br />
रही है और बाज़ औक़ात (वक़्त का बहुवचन) बहसें इतनी तवील और घनदार हो जातीं कि मालूम होता बहुत<br />
से कच्चे सूत की पूनियाँ उलझ गई हैं और वाक़ई सोचने और समझने की क़ुव्वत पर झाड़ू फिर गई। मगर<br />
दोनों बहसे जाते, उलझे जाते, बदमज़गी पैदा होने लगती। मुझे शिकस्त को छुपाने का मलका (हुनर) था मगर<br />
मंटो रुआँसा हो जाता। आँखें मोर पंखों की तरह तन कर फैल जातीं, नथुने फड़कने लगते। मुँह कड़वा-कसैला<br />
हो जाता और वो झुँझला कर अपनी हिमायत में शाहिद को पुकारता। और जंग अदब या फ़लसफ़े से पलट<br />
कर घरेलू सूरत अख़्तियार कर लेती। मंटो भन्ना कर चला जाता। शहीद मुझ से लड़ते कि तुम मेरे दोस्त से<br />
इतनी बदतमीज़ी से क्यों बातें करती हो। मंटो आज ख़फ़ा हो कर गया है, अब वो हमारे यहाँ नहीं आएगा और<br />
न मेरी हिम्मत है कि उसके यहाँ जाऊँ, वह बद्तमीज़ आदमी है। कुछ कह बैठेगा तो मेरी उस की पुरानी दोस्ती<br />
ख़त्म हो जाएगी।<br />
और मुझे कभी महसूस होता कि वाक़ई मैंने मंटो को कड़वी बात कह दी। मुमकिन है रूठ जाए और सफ़ीया<br />
की दोस्ती भी ख़त्म हो जाए। जो अब मंटो से ज़्यादा गहरी हो गई थी। मंटो की ख़ुद्दारी र’उनत की सरहदों को<br />
पहुँची हुई थी। वो अपने दोस्तों पर रौब जमाने का बड़ा शौक़ीन था। और अगर… दोस्तों के सामने जिन को वह<br />
मरऊब (मुतास्सिर, प्रभावित) कर चुका हो कोई उस का मज़ाक़ बना दे तो वह बुरी तरह चिढ़ जाया करता था।<br />
उस का ख़याल था कि आपस में वह और मैं एक दूसरे को कह-सुन सकते हैं मगर “आम लोगों” के सामने<br />
एक दूसरे पर चोटें नहीं करनी चाहिएँ। वह ज़्यादातर अपने मिलने वालों की ज़हनी सतह को अपने से नीचा<br />
समझता था।<br />
<br />
लेकिन सुब्ह लड़ाई होती और इत्तिफ़ाक़ से शाम को फिर मुलाक़ात हो जाती तो वह इस क़दर जोश से<br />
मिलता जैसे कुछ हुआ ही न हो! वैसे ही घुलमिल कर बातें होतीं। थोड़ी देर हम एक दूसरे से बड़े और ज़रूरत से<br />
<br />
ज़्यादा नरमी से बोलते। हर बात पर हाँ में हाँ मिलाते। मगर मेरा जल्दी ही इस तस्बी से दिल उकता जाता और<br />
उस का भी और फिर चलने लगती दोनों तरफ से आतिशबाज़ी और गोलियों की मुस्तैदी आ जाती। कभी<br />
लोग हम दोनों को यूँ उलझा कर मज़ा लेने लगते और हम सुलह कर एक दूसरे से मिल जाते। हम बहस करते<br />
थे अपनी दिलचस्पी के लिए न कि इस के लिए कि बटेर बन के लुत्फ़ पैदा करते। मंटो की यही राय थी कि<br />
घर पर चाहे जितनी उलटी-सीधी बहस कर लें मगर मह्किलों में हमें मोर्चा बना कर जाना चाहिए और हमारा<br />
मोर्चा इतना मज़बूत होगा कि लोगों के छक्के छुड़ा देगा। मगर मुझे अमूनन मोर्चे से अपनी वफ़ादारी का<br />
एहसास न रहता और मोर्चा भिड़ों के छत्ते की तरह फुंकारने लगता।<br />
<br />
यह मुझे कभी न मालूम हो सका कि मंटो पीकर बहकता है या बहक कर पीता है।मैंने उस की चाल में<br />
लड़खड़ाहट या ज़बान में लकनत न पाई। मुझे तो कभी कोई फ़र्क़ ही नहीं महसूस हुआ। हाँ बस इतना मालूम<br />
होता था कि जब ज़्यादा पिए तो यह यक़ीन दिलाने की कोशिश करता था कि वह बिलकुल नशे में नहीं और<br />
जान को आ जाता था।<br />
“मैं आप से सच कहता हूँ इस्मत बहन। मैं बिलकुल नशे में नहीं और मैं आज पीना छोड़ सकता हूँ। मैं जब चाहूँ<br />
पीना छोड़ दूँ आप शर्त लगाएँ।”<br />
“मैं शर्त नहीं लगाऊँगी क्योंकि आप हर जाएँगे। आप पीना नहीं छोड़ सकते… और आप नशे में हैं।”<br />
क्या-क्या मंटो सबूत देता कि वह नशे में नहीं और इसी वक़्त पीना छोड़ सकता है। सिर्फ़ शर्त लगाने की देर<br />
है। एक दिन तंग आकर मुझे शर्त लगनी पड़ी और मंटो शर्त हार गया। मैं जीत गई। मगर क्या? शर्त तो लगी<br />
थी लेकिन कोई मुक़र्रर न हुई थी। उस के बाद मंटो को जब बहुत चढ़ी जाती और वह शर्त लगाने पर अड़<br />
जाता और सिवाय लगा ने के गलू ख़ुलासी नज़र न आती तो हार कर मुझे शर्त लगाना ही पड़ती।<br />
<br />
मंटो को ख़ुद-सताई की आदत थी। मगर अमूनन मेरे सामने होने पर साथ मुझे भी घसीट लिया करता था।<br />
<br />
और उस वक़्त मेरे और अपने सिवा दुनिया में किसी को अदीब न मानता। ख़ास तौर पर कृष्ण चन्दर और<br />
देवेन्द्र सत्यार्थी के ख़िलाफ़ हो जाता। अगर उन की तारीफ़ करो तो सुलग उठता। मैं कहती आप कोई<br />
तनक़ीद-निगार आलोचक) तो हैं नहीं जो आप की बात मानी जाए और वह तनक़ीद निगारों को जली-कटी<br />
सुनाने लगता। एक सिरे से उनके वजूद को कम क़ाइल समझता ख़ास तौर पर अदब के लिए।<br />
“बकवास करते हैं यह लोग।” वह जल कर कहता। जो यह कहते हैं बस उसका उल्टा करते जाओ यही लोग जो<br />
एतराज़ करते हैं छुप-छुप कर मेरी कहानियाँ पढ़ते हैं और उन से कुछ सीखने के बजाय लुत्फ़ अन्दोज़ होते हैं<br />
और फिर उस लुत्फ़ की याद पुर नादम हो कर ऊलजुलूल लिखते हैं। वह कभी इतना चिढ़ जाता कि मैं उसे<br />
तसल्ली देने को कहती जब आप को यक़ीन है कि यह उलजुलूल लिखते तो आप उन का जवाब क्यों देने<br />
लगते हैं। अगर तनक़ीद से आप को मदद नहीं मिलती तो न लीजिए मगर राय-ए-उलमा को मत’ऊन (रुसवा)<br />
न कीजिए। मगर वो भन्नाता रहा।<br />
एक दिन बड़ी संजीदा सूरत बनाए आए और कहने लगे।<br />
“मुक़दमा दायर करेंगे।”<br />
मैंने कहा, “क्यों”<br />
कहने लगे “हम यानी मैं और आप इस मर्दवर्द ने मेरी और आप की कहानियाँ एक मजमूए (संकलन) में यह<br />
लिख कर छापी हैं कि फ़हश अश्लील) हैं; ऐसे अदब से मुल्क को बचाना चाहिए। अब उस कमबख़्त से पूछो<br />
कि कैसी उलटी बात कर रहा है। एक तो वो उन्हें किताब में छाप कर मुश्तहर कर रहा है दूसरे पैसे कमाने का<br />
अलग इंतज़ाम कर रहा है। उस ने हमारी इजाज़त के बग़ैर क्यों कहानियाँ छापी हैं उसे नोटिस दिलवा रहा हूँ<br />
कि हरजाना दे। फिर न जाने भूलभाल गए।<br />
मंटो अपनी डींगों से ज़्यादा मेरे सामने दोस्तों की शेख़ी बघारा करता था। रफ़ीक़ ग़ज़नवी से कुछ अजीब<br />
क़िस्म की मुहब्बत थी जो समझ में न आती। जब उस का तज़किरा (ज़िक्र) किया यही कहा, “बड़ा बदमाश<br />
लफ़ंगा है एक-एक कर के चार बहनों से शादी कर चुका है। लाहौर की कोई रंडी ऐसी नहीं जिस की उस ने<br />
अपने जूते पर नाक न घिसवाई हो।”<br />
<br />
बिलकुल रफ़ीक़ का ऐसे ज़िक्र करता जैसे बच्चे बड़े भैया का ज़िक्र करते हैं। उस के इश्क़ों के क़िस्से<br />
तफ़सीलियों से सुनाया करता। एक दिन मुझे उस से मिलाने को कहा। मैंने कहा क्या करुँगी मिल कर, आप<br />
तो कहते हैं लफ़ंगा है वो।<br />
कहने लगे अरे जब ही तो मिला रहा हूँ। यह आप से किस ने कहा कि लफ़ंगा और बदमाश बुरा आदमी होता<br />
है। रफ़ीक़ निहायत शरीफ़ आदमी है।<br />
मैंने कहा, “मंटो साहब लफ़ंगा, शरीफ़, बदमाश यह आख़िर कैसा आदमी है, मेरी समझ में नहीं आता। आप<br />
मुझे जितना ज़हीन और तजरबेकार समझते हैं, शायद मैं वैसी नहीं।<br />
“आप बनती हैं।” मंटो ने बुरा मान कहा कि जभी तो आप को रफ़ीक़ से मिलाना चाहता हूँ..... बड़ा दिलचस्प<br />
आदमी है। कोई औरत बग़ैर आशिक़ हुए नहीं रह सकती।<br />
“मैं भी तो औरत हूँ।” मैंने फ़िक्रमंद बन कर कहा। और वह खिसियाना हो गया।<br />
“मैं आप को अपनी बहन समझता हूँ।”<br />
“मगर आप की बहन भी तो औरत हो सकती है।” मंटो ने क़हक़हा लगाया।<br />
“हो सकती है! यह ख़ूब कहा” मगर मंटो को ज़िद हो गयी। “आप को उस से मिलना पड़ेगा। देखिए तो सही।”<br />
“मैं उसे स्टेशन पर देख चुकी हूँ। आप ने कान भर दिए थे कि मैं भाग आई कि कहीं कमबख़्त पर आशिक़ न<br />
होना पड़े।”<br />
और रफ़ीक़ से मिलने के बाद मुझे मालूम हो गया कि मंटो का मुतालआ कितना गहरा है। बावजूद दुनिया के<br />
सातों ऐब करने के रफ़ीक़ में वह सारी खूबियाँ मौजूद हैं जो एक मुहज़्ज़ब इनसान में होना चाहिएँ। वह एक<br />
अजीब बदमाश हो सकता है। साथ ही निहायत ईमानदार और शरीफ़ भी। यह कैसे और क्यों? यह मैंने<br />
समझने की कोशिश न की यह मंटो का मैदान है वह दुनिया के ठुकराई घूरे पे फेंकी हुई ग़लाज़त में से मोती<br />
चुन कर निकाल लाता है। घोरा कुरेदने का उसे शौक़ है क्योंकि दुनिया के सँवारने वालों पे उसे भरोसा नहीं।<br />
उन की अक़्ल और फ़ैसले पर भरोसा नहीं। उन की शरीफ़ और पाकबाज़ बीवियों के दिल के चोर पकड़ लेता<br />
<br />
है और कोठे में रहने वाली रंडी के दिल के तक़द्दुस (पवित्रता) से मवाज़ना (तुलना) करता है। इत्र में डूबी हुई ऐश<br />
पसंद दुल्हन से मैल और पसीने सड़ती हुई घाटिन ज़्यादा ख़ुशबूदार मालूम होती है। “बू” में हालाँकि जिस्म ही<br />
जिस्म है। ग़ौर से देखिए तो जिस्म के अंदर रूह भी है। बेश परस्त तब्क़ा की फटे हुए दूध की तरह फुलकेदार<br />
रूह और कुचले हुए तबक़े की तसन्नु (दिखावा) से दूर असलियत। अगर तब्क़ाती तफ़रीक़ (वर्गीय भिन्नता) का<br />
सवाल नहीं तो हम इसे क़त्तई तौर पर जिस्मानी सवाल भी नहीं कह सकते। मंटो के ज़हन में ज़रूर दो तबकों<br />
के फ़र्क़ का ख़याल था और वह उस बुत को जिसकी दुनिया पूजा करे, ज़मीन पर पटख़ने में बड़ी बहादुरी<br />
महसूस करता था।<br />
वो हमेशा अपने बदमाश दोस्तों के कारनामे फ़ख़्रिया सुनाया करता। एक दिन मैंने जलाने को कह दिया लोग<br />
झूठ बोलते हैं। असल में न हज़ारों रंडियों से उन का ताल्लुक़ रहा और न ही उन्होंने कभी किसी औरत की<br />
आबरू-रेज़ी की और वो तरह-तरह से मुझे यक़ीन दिलाने लगा कि यह लोग वाक़ई बदमाशियाँ करते हैं इतनी<br />
ही नहीं, बल्कि उस से ज़्यादा।<br />
“सब झूठ!” मैं धांधली करने लगी।<br />
“अरे आप को यक़ीन क्यों नहीं आता। बाज़ार में जो चाहे जा सकता है।”<br />
“मगर उन लोगों की हिम्मत नहीं जो तवायफ़ों के कोठे पर जा सकें। बहुत करते होंगे गाना सुन कर चले आते<br />
होंगे।”<br />
“मगर मैं ख़ुद गया हूँ रंडी के कोठे पर।”<br />
“गाना सुनने।” मैंने चिढ़ाया।<br />
“जी नहीं। अपने दाम वसूल करने, और हमेशा मेरे दाम वसूल हो गए। फिर भी मैंने कहा, “मैं नहीं यक़ीन<br />
करती।”<br />
“वो क्यों?” वो उठकर बिलकुल मेरे सामने क़ालीन पर उकड़ूँ बैठ गया।<br />
“बस मेरी मर्ज़ी। आप मेरे ऊपर रोब डालना चाहते हैं।”<br />
“भई ख़ुदा की क़सम मैं कहता हूँ मैं गया हूँ।”<br />
<br />
“ख़ुदा पर आप को यक़ीन नहीं बेकार उसे न घसीटिये।”<br />
ख़ूब क़हक़हे लगाए और फिर चुपके से कहा, “मगर अब तो मान जाओ।”<br />
मैंने कहा, “क़तई नहीं।”<br />
मुझे नहीं मालूम मंटो को तजुर्बा था या जो कुछ उसने रंडी के बारे में लिखा वो उसके अपने उसूल और यक़ीन<br />
की बिना पर है क्योंकि अगर वो रंडी के कोठे पर गया भी होगा तो वहाँ रंडी से ज़्यादा उस ने एक औरत का<br />
दिल देखा होगा जो बावजूद यह कि मोरी का कीड़ा है मगर ज़िन्दगी की क़द्रों को प्यार करती है। अच्छे और<br />
बुरे को नापने के जो पैमाने आम तौर पर बना दिए गए हैं वो उन्हें तोड़-फोड़ कर अपनी बनाई तौल से उन का<br />
अंदाजा लगाता था, ख़ोशिया जैसे ढीट और निकम्मे इनसान की रगे-हमीयत (निष्ठा भाव- sense of honour)<br />
भी फड़क सकती है।<br />
“गोपी नाथ” जैसा रक़ीक़ (नरम, कोमल) इनसान भी देवताओं पर बाज़ी लगा सकता है, बुलंद-ओ-महान<br />
देवता भी सरनिगूँ (झुक) हो सकते हैं। क़ौमी रज़ाकार बदकार भी हो सकते हैं और लाश से ज़िना (सम्भोग)<br />
करनेवाला ख़ुद लाश भी बन सकता है।<br />
कभी-कभी मेरा और मंटो का झगड़ा इतना सख़्त हो जाता कि डोर टूटती मालूम होती। एक दिन किसी बात<br />
पर ऐसा चिढ़ा कि आँखों में ख़ून उतर आया, दाँत पीस कर बोला, “आप औरत हैं वरना ऐसी बात कहता कि<br />
दाँत खट्टे हो जाते।”<br />
“दिल का अरमान निकाल लीजिए, मुरव्वत की ज़रूरत नहीं।” मैंने चिढ़ाया।<br />
“अब जाने भी दीजिए कोई मर्द होता तो बताते।”<br />
“बता भी दीजिए। ऐसे कौन-कौन से तीर तरकश में बाक़ी रह गए हैं निकाल भी दीजिए।”<br />
“आप झेंप जाएंगी।”<br />
“क़सम ख़ुदा की नहीं झेपूँगी।”<br />
“तो आप औरत नहीं।”<br />
<br />
“क्यों क्या औरत के लिए झेंपना अशद (बहुत) ज़रूरी है। चाहे झेंप आए या न आए? बड़ा अफ़सोस है मंटो<br />
साहब आप भी औरतों और मर्दों के लिए अलग-अलग उसूल बनाते हैं। मैं समझती थी आप “आम लोगों”<br />
की सतह से बुलंद हैं।”, मैंने मस्का लगाया।<br />
“तो फिर कहिये न वो झेंपा देने वाली बात।”<br />
“अपने मरहूम (मृत) बच्चे की क़सम खाता हूँ मैं एक बार नहीं बल्कि…”<br />
“मरहूम बच्चे को अब झूठी क़सम खा कर क्या नुक़सान पहुँचा सकते हैं।”<br />
और मंटो वहीं फसकड़ा (पालथी) मारकर बैठ गया कि आज तो मनवा कर रहूँगा कि मैं रंडीबाज़ हूँ।<br />
सफ़ीया की गवाही दिलवाई। मैंने दो मिनट में सफ़ीया को चित कर दिया कि मुमकिन है यह तुमसे कह कर<br />
गए हों कि रंडी के यहाँ जा रहे हैं। और अगर गए भी हों तो सलाम कर के चले आए होंगे। सफ़ीया चुप-सी हो<br />
गयी। “अब यह तो नहीं कह सकती कि सलाम कर के आ गए या…” वो अजब गोमगो (असमंजस) में रह गयी।<br />
मंटो ने जोश में कुछ ज़्यादा तेज़ी से पी डाली और बुरी तरह लड़ने लगा कि यह तो आज मनवाकर छोड़ूँगा कि<br />
मैं पक्का रंडीबाज़ हूँ और मैंने कह दिया आज इधर की दुनिया उधर हो जाए मैं मान के दूँगी नहीं।<br />
एक तो नशा दूसरे मंटो के मिज़ाज की जबिल्ली (स्वाभाविक) तल्ख़ी। अगर बस चलता तो मेरा मुँह नोच<br />
लेता।<br />
सफ़ीया ने बिसूरकर (सिसककर) कहा, “बहन मान जाओ।” शाहिद ने कहा बस अब घर चलो। मगर मंटो ने<br />
शाहिद की टाँग लेनी शुरू की और कह दिया कि बग़ैर क़ायल हुए जाने नहीं दूँगा। ख़ासा हंगामा हो गया।<br />
बड़ी संजीदगी से मंटो ने शाहिद से कहा चलो रंडी के यहाँ अभी इसी वक़्त आज मैं क़ायल न कर दूँ तो मैंने माँ<br />
का दूध नहीं, सुअर का दूध पिया। मगर मैंने और चिढ़ाया, “आप जाएँ-वाएँगे नहीं यहीं भायकला ब्रिज पर घूम<br />
कर आ जाएँगे और हम यक़ीन नहीं करेंगे क्या फ़ायदा।”<br />
अब तो मंटो के सिर में लगी एड़ी में जाकर शायद ही बुझी हो। ग़ुस्सा ज़ब्त करके पूछा, “फिर कैसे यक़ीन<br />
दिलाया जाए?”<br />
मैंने कहा, “हमें यानी मुझे और सफ़ीया को भी साथ ले चलिए।”<br />
<br />
“मैं नहीं जाऊँगी,”, सफ़ीया बिगड़ी। “तुम्हारा तो दिमाग़ खराब हुआ है तुम ही जाओ।”<br />
“जाएगी कैसे नहीं,” मंटो ग़ुर्राया।<br />
“चलो, चलो” …. सफ़ीया को हमने आँख मारी और चारों चले। दरवाज़े से हम दोनों तो निकल आए। मंटो को<br />
सफ़ीया ने न जाने कैसे क़ाबू में किया। दूसरी दफ़ा जब मुलाक़ात हुई तो मैंने पूछा, “अभी भी ग़ुस्सा हैं?<br />
“नहीं। अब ग़ुस्सा उतर गया।”, वह हँस कर बोला।<br />
अच्छा दोस्ती में ही बताइए वो कौन सी ख़तरनाक बात थी। “कुछ नहीं अब कुछ याद नहीं रहा। कोई ख़ास<br />
बात नहीं थी। शायद कोई मोटी-सी गाली देता बस।”<br />
“बस?”, मैंने नाउम्मीद हो कर कहा।<br />
“या शायद किसी के झाँपड़ मारता।” नादम हो कर बोला।<br />
“मुझ पर कुछ असर न होता मैंने ऐसी खेम-शेम गालियाँ सुनी हैं कि हद नहीं और मेरे थप्पड़ भी ख़ासे ज़ोर के<br />
पड़ जाते हैं। मगर पहली दफ़ा आप ने औरत समझ कर रिआयत की मेरे भाई तो लगा चुके हैं कई बार।” और<br />
हमारा मिलाप हो गया।<br />
एक दिन दफ़्तर में गर्मी से परेशान होकर मैंने सोचा जाकर मंटो के यहाँ आराम कर लूँ फिर वापस मलाड़<br />
जाऊँ। दरवाज़ा हस्बे-मामूल (हमेशा की तरह) खुला हुआ था, जाकर देखा तो सफ़ीया मुँह फुलाए लेटी है।<br />
मंटो हाथ में झाड़ू<br />
लिए सटासट पलंग के नीचे हाथ मार रहा है। और नाक पर कुर्ते का दामन रखे मेज़ के नीचे झाड़ू चला रहा है।<br />
यह क्या कर रहे हैं। मैंने मेज़ के नीचे झाँक कर पूछा।<br />
क्रिकेट खेल रहा हूँ। मंटो ने बड़ी-बड़ी मोरपंख जैसी पुतलियाँ घुमा कर जवाब दिया।<br />
“यह लीजिए! हमने सोचा था ज़रा आप के यहाँ आराम करेंगे तो आप लोग रूठे बैठे हैं। मैंने वापस जाने की<br />
धमकी दी।<br />
“अरे!” सफ़ीया उठ बैठी। “आओ, आओ।”<br />
“काहे का झगड़ा था?” मैंने पूछा।<br />
<br />
“कुछ नहीं मैंने कहा खाना पकाना गृहस्थी वग़ैरह मर्दों का काम नहीं। बस जैसे तुमसे उलझते हैं मुझ से भी<br />
उलझ पड़े कि क्यों नहीं मर्दों का काम मैं अभी झाड़ू दे सकता हूँ। मैंने बहुत रोका तो और लड़े, कहने लगे ऐसा<br />
ही है तो तलाक़ ले ले।” सफ़ीया ने बिसूरकर कहा।<br />
मंटो से झाड़ू छुड़ाने के लिए मैंने बनकर खाँसना शुरू किया। “सुबह ही सुबह म्युनिसिपेलिटी के भंगी ने सहन<br />
(चौक, आँगन) साफ़ करने के बहाने धूल हलक़ में झोंकी अब आप अरमान निकाल लीजिए।”<br />
“गर्मी से जान निकल रही है।”<br />
जल्दी से झाड़ू छोड़कर मंटो होटल से बर्फ़ लाने चला गया। सफ़ीया हंडिया बघारने चली गयी। बर्फ़ लाकर<br />
मंटो ने तौलिया दीवार पर मार-मारकर बर्फ़ तोड़ी और प्लेट में भरकर सामने रख दी और उकड़ूँ बैठ गया।<br />
“और सुनाइए।”<br />
उसने हस्बे-आदत कहा। हांडी के बघार से मुझे ज़ोर से उबकाई आयी। “उफ़्फ़ुह सफ़ीया क्या मुर्दा जला रही<br />
है।” मैंने नाक बंद करके कहा। मंटो ने चौंक कर मुझे देखा सिर से पैर तक बड़ी-बड़ी पुतलियाँ घुमाईं और<br />
छलांग मार कर झपटा। बावर्चीख़ाने में सफ़ीया चीख़ती रही और उसने फिर लोटा पानी पतीली में झोंक<br />
दिया। वापस आकर वो सहमा-सहमा सा कुर्सी पर बैठ गया और फिर झेंप कर हँस दिया।<br />
मैं बेवक़ूफ़ों की तरह देखती रही।<br />
सफ़ीया बड़बड़ाती आयी तो उसे ज़ोर से डाँटा और फिर बड़े शर्मीले अंदाज़ से बोला, “आप के पेट में बच्चा है?<br />
जैसे बच्चा मेरे नहीं ख़ुद उनके पेट में हो।”<br />
“मैंने फ़ौरन ताड़ लिया। जब सफ़ीया के पेट में बच्चा था तो उसे भी बघार से उबकाई आती थी।”<br />
“मंटो साहब ख़ुदा के लिए दाइयों जैसी बातें बातें न करें।” मैंने चिढ़ाकर कहा। वो ज़ोर से हँसा।<br />
“अरे वाह। इस में क्या बुराई है। अरे आप को खटई जैसी चीज़ें भाती होंगी। मैं अभी कैरियाँ लाता हूँ।” वो<br />
लपक कर नीचे गया और कुर्ते के दामन में बच्चों की तरह कैरियाँ भर के ले आया। कैरियाँ छीलकर बड़ी<br />
नफ़ासत से नमक-मिर्च लगाकर मुझे दीं और ख़ुद उकड़ूँ बैठ मुझे ग़ौर से देखकर मुस्कुराता रहा।<br />
<br />
“सफ़ीया अरे सफ़िया” वो चिल्लाया। सफ़ीया धुँए से अटी आँखें आँचल से पोंछती आयी। “क्या है मंटो<br />
साहब कितना चिल्लाते हो।”<br />
“अरे बेवक़ूफ़। इनका पैर भारी है।” उसने सफ़ीया की कमर में हाथ डालकर कहा।<br />
“उफ़ गन्दगी की इंतिहा है। जभी तो आप को लोग फ़हश-निगार कहते हैं।”, मेरे इस बिगड़ने पर मंटो ख़ूब<br />
चहका और बड़ी-बूढ़ियों जैसे मशवरे देने लगा।<br />
पेट पर ज़ैतून के तेल की मालिश से खरोंचे नहीं पड़ेंगी।”<br />
“निहार (बासी) मुँह सेब का मुरब्बा खाने से उबकाई नहीं आती।”<br />
“खोपरा खाने से बच्चा गोरा होगा और आसानी से होगा।”<br />
“जाड़े में बर्फ़ न चबाइएगा, नले सूख़ जाते हैं। क्यों सफ़ीया?”<br />
“हटो मंटो साहब कैसी बातें करते हो।” सफ़ीया खिसिया कर रह गयी। और जब सीमा पैदा हुई तो सफ़ीया मेरे<br />
पास बैठी काँपती रही। मगर बच्ची को देखकर मंटो को अपना बेटा बहुत याद आया। वो देर तक मुझे उसकी<br />
छोटी-छोटी शरारतें बताता रहा। सफ़ीया का दिल पिघल गया और साल के अंदर-अंदर मंटो की बड़ी बेटी<br />
पैदा हो गयी। पूना से आने के बाद मुझे मालूम हुआ, मैं फ़ौरन गई, पर मंटो ने मकान बदल लिया था। ढूँढ़ढांढ़<br />
कर नए मकान पहुँची तो देखा ड्राइंग रूम में अलगनी पर पोतड़े निचोड़-निचोड़ कर फैला रहे हैं। नया मकान<br />
बहुत छोटा और बग़ैर हवा का था। मंटो ने इसलिए बदल लिया कि उसका फ़र्श गन्दा था, बच्ची घुटनों चलती<br />
तो फाँस लग जाती। और मिट्टी चाट जाती। यहाँ निकहत मज़े से फ़र्श पर खेल सकेगी। हालाँकि निकहत चंद<br />
हफ़्तों की थी।<br />
<br />
मुझे बच्चे सख़्त नापसंद हैं। मंटो संजीदगी से कहता। जान को चिमट जाते हैं, मुझे उन से इसलिए डर लगता<br />
है। हर वक़्त उन्हीं का ख़याल रहता है, किसी काम में दिल नहीं लगता। वो दूध की बोतल धोकर फ़लसफ़े<br />
छाँटता। मेरी भतीजी मीनू उसे बड़ी प्यारी थी। घंटों उस के साथ गुड़ियों और हिंडोलों की बाते किया करता।<br />
फ़रमाइश पर खिड़की से बाँस डालकर उसके लिए इमलियाँ तोड़कर नीचे से कुर्ते के दामन में समेट लाता।<br />
<br />
सीमा को पॉट पर बैठाकर शी-शी करता। और बच्चों का बहुत शाकी (किसी अप्रिय आचरण या व्यवहार या<br />
बात के विरूद्ध अप्रसन्नता या खेद प्रकट करने वाला) था क्योंकि वो उनकी मुहब्बत में बेबस हो जाता था।<br />
<br />
एक दिन जब हम मलाड़ में रहते थे, रात के कोई साढ़े बारह होंगे कि दरवाज़े पर दस्तक हुई। मालूम हुआ<br />
सफ़ीया साँस फूली हुई सी खड़ी हैं। मैंने पूछा क्या हुआ? बोली, “मैंने मना किया कि ऐसी हालत में किसी के<br />
घर नहीं जाना चाहिए मगर वो कहाँ सुनते हैं। मंटो निदा जी और ख़ुर्शीद अनवर के साथ आ गए।<br />
“यह सफ़ीया कौन होती है मना करने वाली।” हाथ में बोतल और गिलास लिए तीनो अंदर आए। शाहिद ने<br />
पार्टी को लाबेक (एक प्रार्थना- मैं आपकी ख़िदमत में हाज़िर हूँ) कहा। तय हुआ बहुत भूखे हैं, होटल सब बंद<br />
हो चुके हैं। रेल का वक़्त गुज़र गया। कुछ मिल जाए तो ख़ुद पका कर खा लें। बस आटा-दाल दे दो। ख़ुद<br />
बावर्चीख़ाने में जाकर पका लेंगे।<br />
सफ़ीया को मर्दों का रोटी पकाना न भाया। मगर वो कहाँ मानते थे। बावर्चीख़ाने पर चढ़ाई कर दी। मंटो<br />
आटा गूँधने लगे। निदा जी अंगीठी पर टूट पड़े और ख़ुर्शीद अनवर को आलू छीलने के लिए दे दिए गए जो<br />
छीलने से ज़्यादा कच्चे खाने पर मुस्सिर (तुले हुए) थे और फिर बोतल भी बावर्चीख़ाने में आ गई। यह लोग<br />
चौका मर कर वहीं बैठ गए और कच्चे-पके पराठे पकाते गए, खाते गए। मंटो ने आटा बहुत अच्छा गूँधा था<br />
और बड़े सलीक़े से रोटी पका ली और फिर झट से पुदीने की चटनी में डाली। खाना खाकर यह लोग वहीं<br />
फैल कर सो भी जाते अगर ज़बरदस्ती बरामदे तक न घसीटा जाता। यह ज़िन्दगी थी जो मंटो को सब से<br />
ज़्यादा दिलचस्प मालूम होती थी। उस ज़माने में लाहौर गवर्नमेंट ने मेरे और मंटो पर मुक़दमा चला दिया।<br />
मंटो की देरीना (पुरानी) आरज़ू बर आई। लाहौर में भी लुत्फ़ आ गया। ख़ूब दावतें उड़ाईं। इसी बहाने लाहौर<br />
की ज़ियारत (तीर्थयात्रा) हो गई। ज़री के जूते ख़रीदने हम दोनों साथ गए। मंटो के पैर नाज़ुक और सफ़ेद थे।<br />
जैसे कँवल के फूल, ज़री के जूते बहुत जँचने लगे।<br />
“मेरे पैर बड़े भद्दे हैं। मैं नहीं ख़रीदूँगी। इतने ख़ूबसूरत जूते।”, मैंने कहा।<br />
“और मेरे पैर इतने ज़नाने हैं कि मुझे इन से शर्म आती हैं।” मगर हमने कई जूते ख़रीदे।<br />
<br />
“आप के पैर बहुत ख़ूबसूरत हैं।” — मैंने कहा ।<br />
<br />
“बकवास हैं मेरे पैर। लाइए बदल लें ।”<br />
<br />
“बदलना ही है तो लाइए सिर बदल लें,” — मैंने राय दी ।<br />
<br />
“बख़ुदा मुझे कोई एतराज़ नहीं” — मण्टो ने चहककर कहा ।<br />
<br />
मुहब्बत के मसले पर कितनी ही झड़पें हुईं, मगर हम किसी फ़ैसले पर नहीं पहुँच सके ।<br />
<br />
वो यही कहता — “मुहब्बत क्या होती है। मुझे अपने ज़री के जूते से मुहब्बत है। रफ़ीक़ को अपनी पाँचवीं बीवी से मुहब्बत है ।”<br />
<br />
“मेरा मतलब उस इश्क़ से है जो एक नौजवान को एक दोशीज़ा से हो जाता है ।”<br />
<br />
“हाँ…. मैं समझ गया ।” — मण्टो ने दूर माज़ी के धुँधलके में कुछ टटोलकर सोचते हुए ज़रूर कहा । <br />
<br />
“कश्मीर में एक चरवाही थी ।“<br />
<br />
“फिर ?”, मैंने दास्तान सुनने वालों की तरह हुंकारा दिया ।<br />
<br />
“आप मुझे इतनी गन्दी बातें तो बता देते हैं और आज आप शरमा रहे हैं ।” <br />
<br />
“कौन गधा शरमा रहा है ।” — मण्टो ने वाक़ई शरमाकर कहा… बड़ी मुश्किल से उसने बताया कि बस. जब वो मवेशी हाँकने के लिए अपनी लकड़ी ऊपर उठाती थी तो उसकी सफ़ेद कुहनी दिखाई दे जाती थी । <br />
<br />
“मैं कुछ बीमार था । रोज़ एक कम्बल लेकर पहाड़ी पर जाकर लेट जाया करता था। और साँस रोके उस लम्हे का इन्तज़ार करता था, जब वो हाथ ऊपर करे तो आस्तीन सरक जाए और मुझे उस की सफ़ेद कुहनी दिखाई दे जाए।”<br />
<br />
“कुहनी ?”, मैंने हैरत से पूछा।<br />
<br />
"हाँ, मैंने सिवाय कुहनी के उसके जिस्म का और कोई हिस्सा नहीं देखा। ढीले-ढाले कपड़े पहने रहती थी, उसके जिस्म का कोई ख़त नहीं दिखाई देता था । मगर उसके जिस्म की जुम्बिश पर मेरी आँखें कुहनी की झलक देखने के लिए लपकती थीं ।<br />
<br />
“फिर क्या हुआ?”<br />
<br />
फिर एक दिन मैं कम्बल पर लेटा था । वो मुझसे थोड़ी दूर आकर बैठ गई । वो अपने गिरेबान में कुछ छिपाने लगी। मैंने पूछा, मुझे दिखाओ तो शर्म से उसका चेहरा गुलाबी हो गया । और बोली कुछ भी नहीं । बस, मुझे ज़िद हो गई. मैंने कहा जब तक तुम दिखाओगी नहीं, जाने नहीं दूँगा। वो रुआँसी हो गई, मगर मैं भी ज़िद पर अड़ गया। और आख़िर को रद-ओ-कद (हुज्जत) के बाद उसने मुट्ठी खोलकर हथेली मेरे सामने कर दी और ख़ुद शर्म से घुटनों में मुँह दे लिया।<br />
<br />
क्या था उसकी हथेली पर — मैंने बेसब्री से पूछा ।<br />
<br />
“मिस्री की डली ! उसकी गुलाबी हथेली पर बर्फ़ के टुकड़े की तरह पड़ी झिलमिला रही थी ।”<br />
<br />
“फिर आपने क्या किया।”<br />
<br />
“मैं देखता रह गया । वो कुछ सोच में डूब गई ।"<br />
<br />
“फिर ?”<br />
<br />
फिर वो उठकर भाग गई । थोड़ी दूर से पलट आई और मिस्री की डली मेरी गोद में डालकर नज़रों से ओझल हो गई। मिस्री की डली बहुत दिनों तक मेरी क़मीज़ की जेब में पड़ी रही। फिर मैंने उसे दराज़ में डाल दिया और कुछ दिन बाद चीटियाँ खा गईं।<br />
<br />
“और लड़की ?”<br />
<br />
“कौनसी लड़की ?”— वो चौंका ।<br />
<br />
“वही जिसने आप को मिस्री की डली थमाई थी ।”<br />
<br />
“उसे मैंने फिर नहीं देखा ।”<br />
<br />
“किस क़दर फसफसा है आपका इश्क़ !” — मैंने नाउम्मीदी से चिढ़ के कहा। मुझे तो बड़े किसी शोला-बादामान क़िस्म के इश्क़ की उम्मीद थी ।”<br />
<br />
“क़त्तई फसफसा नहीं।” — मण्टो लड़ पड़ा ।<br />
<br />
“बिलकुल रद्दी था, थर्ड रेट, मरघुल्ला इश्क़ । मिस्री की डली लेकर चले आए । बड़ा तीर मारा ।”<br />
<br />
“तो और क्या करता । उसके साथ सो जाता। एक हरामी पिल्ला उस की गोद में छोड़कर आज उसकी याद में अपनी मर्दानगी की डींगें मारता।” — वो बिगड़ा ।<br />
<br />
“ठीक कहते हैं आप । मिस्री की डली किड़किडा के खाने की नहीं, धीरे-धीरे चूसने की चीज़ है ।”<br />
<br />
यह वही मण्टो था । फ़हश (अश्लील) निगार । गन्दा ज़हन । जिस ने “ठण्डा गोश्त” लिखा था । लेकिन मिर्ज़ा ग़ालिब में चौदहवीं बेग़म मिर्ज़ा ग़ालिब की महबूबा हो या न हो, उस का फैसला नहीं किया जा सकता, मगर मण्टो के ख़यालों की लड़की ज़रूर है, जिसे वो हाथ नहीं लगाना चाहता । जिस की कुहनी की झलक देखने के लिए वो सारी ज़िन्दगी बैठ सकता है। यह था वो तज़ाद (विसंगति) जो मंटो की मुख़्तलिफ़ कहानियों में मुख़्तलिफ़ औक़ात में ज़ाहिर होता था । एक तरफ़ वो “नया क़ानून” लिखता है और दूसरी तरफ़ “बू”... दोनों में वो खुद को ग़र्क़ (बरबाद) करके लिखता है। लोगों को एक फ़हश निगार याद रह जाता है और<br />
वाक़्या निगार को वो भूल जाते हैं । क़सद (साज़िश, षडयन्त्र) क्या हुआ! ? एक ही बात है ।<br />
<br />
मुल्क में फ़साद शुरू हो गए । बटवारे के बाद उस को भी पयाम किए जाने लगे । मण्टो उस वक़्त फ़िल्मिस्तान में क़रीब-क़रीब मुस्तक़िल था। वो बड़ा ख़ुश नज़र आता था। मद्दाह सराई (स्तुतिगान) जो उसकी ज़िन्दगी का सहारा थी उसे मिलती थी कि उसकी फ़िल्म ’आठ दिन’ कामयाब न हुई । न जाने क्यों वो फ़िल्मिस्तान छोड़कर अशोक कुमार के साथ बम्बई टाकीज़ चला गया । उसे अशोक कुमार बहुत पसन्द था। मुखर्जी ने न जाने उस से क्या कह दिया था कि वो एकदम उसके ख़िलाफ़ हो गया — बकवास है मुखर्जी, फ्रॉड है पक्का ! — वो तल्ख़ी से कहता ।<br />
<br />
बम्बई टाकीज़ में जाकर उसने मुझे भी कम्पनी में एक साल के बाद सीनियर यू डिपार्टमेण्ट में काम दिलवा दिया और बहुत ही ख़ुश हुआ — “अब हम दोनों मिलकर कहानी लिखेंगे । तहलका मचेगा । मेरी और आपकी कहानी, अशोक कुमार हीरो । बस, फिर देखिएगा ।”<br />
<br />
एक कहानी मण्टो की ज़ेरे-ग़ौर थी। अशोक कुमार को वो पसन्द थी। उससे पहले उसे “मजबूर” की कहानी पसन्द थी फिर दिल से उतर गई और मण्टो की कहानी पसन्द आई। मेरे आने के बाद उसे मेरी कहानी ’ज़िद्दी’ पसन्द आ गई। ख़ैर, मण्टो को नागवारा न गुज़रा। अब अशोक कुमार ने मुझे मण्टो की कहानी पर काम करने को कहा और मण्टो को मेरी कहानी पर ! नतीजा यह कि मण्टो मुझे और मैं मण्टो से शाकी होने लगे। उधर कमाल अमरोही “महल” की कहानी लेकर आ गए और अशोक कुमार को पसन्द आ गई और हम दोनों की कहानी खटाई में पड़ गई। अब सिर्फ़ इज़्ज़त का सवाल होता तो और बात थी, वहाँ तो यह हाल हो गया कि हमारी कहानी नहीं बन रही है तो हम किसी शुमार-ओ-क़तार ही में नहीं । हमसे कह दिया गया था कि चैन से बैठो ।<br />
तनख़्वाह मिलती रहेगी, क्योंकि कॉन्ट्रैक्ट हो चुका है, लेकिन कहानी हमारी नहीं बनेगी। लिहाज़ा मेरी और शाहिद की पूरी कोशिशें अपनी कहानी ’ज़िद्दी’ को बनवाने की तरफ़ लग गईं और बग़ैर अशोक कुमार के दूसरे दर्जे की तस्वीरों की क़तार में ज़िद्दी बनाई जाने लगी। मगर मण्टो की कहानी रह गई ! मण्टो दिन भर अपने कमरे में बैठा अपनी कहानी की उधेड़बुन किया करता, कभी अंजाम को आग़ाज़ बनाकर लिखता, कभी आग़ाज़ को अंजाम बनाकर, कभी वस्त (बीच) से शुरू करके आग़ाज़ पर ख़त्म करता और कभी वस्त को अंजाम बना देता। बावजूद हज़ारों आपरेशनों के कहानी की कोई शक़्ल अशोक कुमार को पसन्द न आई। मगर मण्टो यही कहता —<br />
<br />
“आप गांगुली को नहीं समझतीं, मैं समझता हूँ। वो मेरी कहानी में ज़रूर काम करेगा।”<br />
<br />
“आप की कहानी में उसका रोल रोमाण्टिक नहीं, बाप का है, वो कभी नहीं करेगा।” <br />
<br />
और मण्टो से फिर लड़ाई होने लगती । मगर अदबी ज़बान से यहाँ अपनी फ़िक्र पड़ी थी। और वही हुआ कि ’ज़िद्दी’ और ’महल’ बन गईं । मण्टो की कहानी रह गई । मण्टो को इस की उम्मीद न थी और उसे बड़ी ज़िल्लत महसूस हुई । वो सब कुछ झेल सकता था, बेक़द्री नहीं झेल सकता था । उधर मुल्क के हालात बिलकुल ही बद्तर हो गए । उसके बीवी-बच्चे उसे पाकिस्तान बुलाने लगे। मण्टो ने हमसे भी चलने को कहा। पाकिस्तान में हसीन मुस्तक़बिल है। वहाँ से भागे हुए लोगों की कोठियाँ मिलेंगी। वहाँ हम ही हम होंगे। बहुत जल्द तरक़्क़ी कर जाएँगे। मेरे जवाब पर मण्टो मुझसे वाक़ई बद-दिल हो गया। इतनी लड़ाइयाँ और झगड़े मेरे उससे हुए मगर यों किसी संजीदा उसूल पर बहस न हुई।<br />
<br />
और उस वक़्त मुझे मालूम हुआ कि मण्टो कितना बुज़दिल है। किसी क़ीमत पर भी वो अपनी जान बचाने को तैयार है। अपना मुस्तक़बिल बनाने के लिए वो भागे हुए लोगों की ज़िन्दगी की कमाई पर दाँत लगाए बैठा है। और मुझे उस से नफ़रत-सी हो गई।<br />
<br />
और एक दिन वो बग़ैर इत्तिला किए और मिले पाकिस्तान चला गया । मुझे बड़ी हतक (अपमान) महसूस हुई । फिर जब उसका ख़त आया कि वो बहुत ख़ुश है, बहुत उम्दा मकान मिला है, कुशादा (खुला हुआ) और ख़ूबसूरत, क़ीमती सामान से आरस्ता (सुसज्जित) । हमें उसने फिर हिलाया था । “ज़िद्दी” ख़त्म हो गई थी और हमने आरज़ू शुरू कर दी थी। बुरे वक़्त आए थे और चले गए थे । उसके फिर दो ख़त आए। उस ने बुलाया था ।<br />
<br />
एक सिनेमा अलॉट करवाने की उम्मीद दिलाई थी । मुझे बड़ा दुख हुआ। उसकी मुहब्बत का पहले भी यक़ीन था। मगर अब तो और भी मान जाना पड़ा। मगर मैंने उसके ख़त फाड़ दिए, इस बात से चिढ़कर कि वो मेरे उसूलों की क़द्र क्यों नहीं करता । मैंने उसे जाने से नहीं रोका, फिर वो मुझे अपने रास्ते पर क्यों घसीट रहा है ।<br />
<br />
फिर सुना मण्टो बहुत ख़ुश है ।<br />
<br />
मकान छिन गया, मगर दूसरा भी ख़ासा अच्छा है ।<br />
<br />
एक लड़की और पैदा हुई ।<br />
<br />
और साल गुज़रते गए। एक लड़की और पैदा हुई । मण्टो का एक ख़त आया — “कोशिश करके मुझे हिन्दुस्तान बुलवा लो।”<br />
<br />
फिर मालूम हुआ मंटो पर मुक़दमा चला और जेल हो गई । हम हाथ पर हाथ रखे बैठे रहे । किसी ने एहतिजाज (विरोध) भी न किया । बल्कि कुछ ऐसा लोगों का रवैय्या था कि अच्छा हुआ जेल हो गई । अब दिमाग़ दुरुस्त हो जाएगा। न कहीं जलसे हुए, न मीटिंगें हुईं, न रेज़ॉल्यूशन पास हुए ।<br />
<br />
फिर मालूम हुआ कि दिमाग़ चल निकला और पागलख़ाने में यार-दोस्त पहुँचा आए हैं। मगर एक दिन मण्टो का ख़त आया। बिलकुल होशो-हवास में लिखा था कि अब बिलकुल ठीक हूँ । अगर मुखर्जी से कहकर बम्बई बुलवा लो तो बहुत अच्छा हो । उस के बाद अरसे तक कोई ख़ैर-खबर नहीं मिली । न ही मेरे ख़त का जवाब आया। फिर सुना कि दोबारा पागलख़ाने चले गए । अब मण्टो की ख़बरों से डर-सा लगने लगा। पूछने की हिम्मत न पड़ती थी। ख़ुदा जाने उसका अगला क़दम कहाँ पड़ा हो। मगर पागलख़ाने से आगे जो क़दम पड़ता है, वो लौट कर नहीं आता। पाकिस्तान से आने वाले लोगों से भी इतनी कड़वी ख़बरें सुनीं कि जी ऊब गया। बेतरह पीने लगे हैं। अपने-पराए हर-एक से पैसा माँग बैठते हैं। अख़बारवाले बिठाकर सामने मज़मून लिखवाते हैं, पेशगी पैसा दो तो सब खा जाते हैं।<br />
<br />
मण्टो का आख़िरी ख़त आया, जिसमें एक मज़मून अपने ऊपर लिखने को कहा था। बेसाख़्ता, मेरी मनहूस ज़बान से निकल गया कि अब तो मरने के बाद ही मज़मून लिखूँगी ।<br />
<br />
और आज मण्टो के मरने के बाद लिख रही हूँ । मण्टो ही नहीं, अरसा हुआ, मेरे और मण्टो के दरमियान बहुत कुछ मर चुका था। आज सिर्फ एक कसक ज़िन्दा है । यह पता नहीं चलता कि किस बात की कसक है । क्या इस बात की नदामत (शर्मिंदगी) है कि वो मर चुका है और मैं ज़िन्दा हूँ ? यह मेरे सीने पर फिर क़र्ज़ जैसा बोझ क्यों है ? मुझे तो मण्टो का कोई क़र्ज़ा याद नहीं। और उस का क़र्ज़ा भी क्या था, यही न कि उस ने मुझे बहन कहा था। मगर बहनें तो खड़ी भाइयों को दम तोड़ता देखती हैं और कुछ नहीं कर पातीं। मरने वाले ज़ख़्म लगा जाते हैं जो न दिखता है न रिसता है, ख़ामोश सुलगता रहता है ।<br />
<br />
आज मुझे सफ़ीया बेतरह याद आ रही है । जी चाहता है एक बार सिर जोड़कर हम दोनों बातें कर सकें जैसे बरसों हुए एडल्फ़ी चेम्बर में किया करते थे। मगर वो थी सुहागरात और पहलू बैठी के बच्चे की बातें, यह हैं मौत की बातें। इसीलिए डरती हूँ और मेरा क़लम ख़ुश्क हो जाता है — न जाने, इन चन्द सालों में उस पर क्या गुज़री है । किस दिल से पूछूँ कि जब सारी दुनिया ने मण्टो को फ़रामोश कर दिया, तब भी तुम्हारी मुहब्बत उस तूफ़ानी हस्ती को सहारा चट्टान बनकर देती रही। या तुम्हारा प्यार थककर निढाल हो चुका था। क्या ये बारह-तेरह बरस का भूचाल तुम्हें झिंझोड़ कर पस्त कर गया या तुम अब भी अपने मण्टो साहब की सफ़ीया रहीं। पास- पड़ोस के मुहज़्ज़ब (शालीन) लोग और रिश्तेदार, जब उस की बद-रवी (बुरी राह चलना) पर नाक-भौं चढ़ाते थे, तो तुम क्या करती थीं ? उन खामोश गेसुओं का तुम्हारे पास क्या जवाब था, जो बेमुरव्वती और लापरवाही से तुम्हारे इर्द-गिर्द मण्डलाया करती थीं। दम तो घुट जाता था। क्या उसने तुम्हारी प्यार भरी गोद में दम तोड़ा या वो तनहा और भरे ख़ानदान में अकेला ही सिधारा। क्या बच्चियाँ अपने बाप को पागल. मुफ़लिस, शराबी समझती थीं। उसने तुम्हें तंगदस्ती और नदामत के सिवाय क्या कुछ भी नहीं दिया। मुझे कुछ भी तो नहीं मालूम। न जाने क्यों, उस की तहरीरों में अपनी ज़िन्दगी का धुंधला-सा भी अक्स नहीं है। वो अपनी मुश्किलों को अपनी कमज़ोरी पर महमूल (लादता) करता रहा। उसने उन्हें ऐब की तरह छिपाया उसे गज़्वा (धर्मयुद्ध) था कि चाहे तो वो दमभर में लाखों कमा कर फेंक दे। जभी तो उसे यक़ीन न आया था कि वो फ़ाक़े भी कर सकता है और उसका क़लम बेकसी से घुटता रहता है। तुम आजिज़ तो नहीं आ गईं अदीबों से ! यों ही ख़ुद घुटते हैं और अपनों को दलदल में घसीटते हैं ! …. और फिर एक दिन अकेला छोड़कर चल देते हैं ।<br />
<br />
तो बहन, यह अदीबों की ही आदत नहीं, हमारे देश के लाखों करोड़ों इनसान इसी तरह ज़िन्दगी में नाकामी और नामुरादी का शिकार होते हैं। चाहे वो अदीब हों या क्लर्क ! उनकी यही ज़िन्दगी है और कम-ओ-बेश यही अंजाम । जो ज़्यादा हस्सास (ख़ुद्दार, संवेदनशील) होते हैं, वो पागल हो जाते हैं और ढीट सिसकते रहते हैं ।<br />
<br />
न जाने दिल क्यों कहता है कि मण्टो की इस जवाँमिर्गी में मेरा भी हाथ है । मेरे दामन पर भी ख़ून के नज़र न आने वाले छींटें हैं, जो सिर्फ़ मेरा दिल देख सकता है । वो दुनिया जिस ने उसे मरने दिया मेरी ही तो दुनिया है । आज उसे मरने दिया और कल यों ही मुझे भी मर जाने की इजाज़त होगी । और फिर लोग मातम करेंगे । मेरे बच्चों का बोझ उनके सीने पर चट्टान बन जाएगा। जलसे करेंगे, चन्दा जमा करेंगे और उन जलसों में अदीम- उलफ़ुरसती (व्यस्तता) की वजह से कोई न आ सकेगा। वक़्त गुजर जाएगा। सीने का बोझ आहिस्ता-आहिस्ता हलका हो जाएगा और वो सब कुछ भूल जाएँगे ।</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%8B_%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A4%BE_%E0%A4%A6%E0%A5%8B%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4_/_%E0%A4%87%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%A4_%E0%A4%9A%E0%A5%81%E0%A4%97%E0%A4%BC%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%88&diff=44054मण्टो मेरा दोस्त / इस्मत चुग़ताई2023-12-06T14:41:01Z<p>अनिल जनविजय: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
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एडेल्फ़ी चैम्बर की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए मुझे घबराहट-सी हो रही थी, जैसे कभी इम्तिहान के हाल में दाख़िल होने से पहले हुआ करती थी। मुझे वैसे ही नए आदमियों से मिलते घबराहट हुआ करती थी, लेकिन यहाँ तो वो “नया आदमी” मण्टो था, जिससे मैं पहली बार मिलने जा रही थी। मेरी घबराहट वहशत की हदों को छूने लगी। मैंने शाहिद से कहा “चलो वापिस चलें, शायद मण्टो घर पर न हो।” मगर शाहिद ने मेरी उम्मीदों पर पानी फेर दिया ।<br />
<br />
“वो शाम को घर पर ही रहता है, क्योंकि वो रोज़ शाम को पीता है।”<br />
<br />
यह लीजिए, मरे पर सौ दर्रे, एक तो मण्टो और वो भी पीता हुआ मण्टो । मगर मैंने जी कड़ा कर लिया। ऐसा भी क्या, मुझे खा तो नहीं जाएगा, होने दो जो उसकी ज़ुबान की नोक पर डाँक है, मैं बुलबुला तो हूँ नहीं, जो फूँक मारी तो बैठ जाऊँगी। चरचराती, गर्द-आलूदा सीढ़ियाँ तय करके हम दोनों दूसरी मंज़िल पर पहुँचे, फ़्लैट का दरवाज़ा नीम-वा (आधा खुला हुआ) था, ड्रॉइंगरूम नुमा कमरे में एक कोने में सोफ़ा सेट पड़ा था। दूसरी तरफ़ एक बड़ा सा सफ़ेद और सादा पलंग पड़ा था। खिड़की से मिली हुई एक लदी-फदी बड़ी सी मेज़ के सामने एक बड़ी सी कुर्सी में एक बारीक मकोड़े की शक़्ल का इनसान उकड़ूँ मारे बैठा हुआ था। “आएँ आएँ” बड़ी खंदा-पेशानी (हँसमुख भाव) से मण्टो खड़ा हो गया । मण्टो हमेशा कुर्सी पर उकड़ूँ बैठा करता था और बहुत मुख़्तसर नज़र आता था, लेकिन जब खड़ा होता था तो खिंचकर उसका क़द ख़ासा निकल आता था। और बाज़ वक़्त जब मण्टो यूँ रेंगकर खड़ा होता था, तो बड़ा ज़हरीला मालूम होता था। उसके जिस्म पर खद्दर का कुरता-पैजामा और जवाहरकट सदरी थी। <br />
<br />
‘अरे, मैं समझता था कि आप निहायत काली-दुबली, सूखी मरियल सी होंगी ।’ — उसने दाँत निकालकर हँसते हुए कहा। <br />
<br />
‘और मैं समझती थी आप निहायत दबंग क़िस्म के, गल्हैर चिंघाड़ते हुए पंजाबी होंगे ।’ — मैंने सोचा, रसीद देते चलो, कहीं यह एकदम न हाप्टे पर ले ले ।<br />
<br />
और दूसरे लम्हे हम दोनों पूरी तन देही से जुटकर बहस करने लगे, जैसे इतने अरसे एक-दूसरे से नावाक़िफ़ रहकर हमने बड़ा घाटा उठाया हो और उसे पूरा करना हो। दो तीन बार बात उलझ गई, लेकिन ज़रा सा तकल्लुफ़ बाक़ी था लिहाज़ा, दूसरी मुलाक़ात के लिए उठा रखी । कई घण्टे हमारे जबड़े मशीनों की तरह मुख़्तलिफ़ मौज़ूआत पर जुमले करते रहे। और हमने जल्दी मालूम किया कि मेरी तरह मण्टो भी बातें काटने का आदी है। पूरी बात सुनने से पहले वो बोल उठता है। और जो रहा-सहा तकल्लुफ़ था वो भी ग़ायब हो गया। बातों ने बहस और बहस ने बा-क़ायदा नोक-झोंक की सूरत इख़्तियार कर ली और सिर्फ चन्द घण्टों की जान-पहचान के बल-बूते पर हम ने एक-दूसरे को निहायत अदबी क़िस्म लफ़्ज़ों में अहमक़, झक्की और कज-बहस कह डाला।<br />
<br />
घमसान के बीच में मैं ने एक बार किनारे होकर ग़ौर से देखा। मोटे-मोटे शीशों के पीछे लपकती हुई बड़ी-बड़ी स्याह पुतलियों वाली आँखें, जिन्हें देख कर मुझे बेसाख़्ता मोर के पर याद आ गए । मोर के पर और आँखों का क्या जोड़? यह मुझे कभी न मालूम हो सका, मगर जब भी मैंने उन आँखों को देखा मुझे मोर के पर याद आ गए । शायद र’ऊनत (अकड़) और गुस्ताख़ी के साथ-साथ उनमें बेसाख़्ता शिगुफ़्तगी (ख़ुश-मिज़ाजी) मुझे मोर के पैरों की याद दिलाती थी। उन आँखों को देखकर मेरा दिल धक् से रह गया। इन्हें तो मैंने कहीं देखा है । बहुत क़रीब से देखा है क़हक़हा लगाते संजीदगी से मुस्कुराते तंज़ के नश्तर बरसते और फिर निज़ा (मौत, मरने के पहले की हालत) के आलम में पथराते ! वही नाज़ुक हाथ पैर, सिर पर टोकरा भर बाल, पिचके ज़र्द - ज़र्द गाल और कुछ बेतुके से दाँत, पीते - पीते अचानक मण्टो को उच्छू लगा और वह खाँसने लगा, मेरा माथा ठनका । यह खाँसी तो जानी - पहचानी सी थी। उसे तो मैंने बचपन से सुना था। मुझे कोफ़्त होने लगी। न जाने किस बात पर मैंने कहा — “यह बिलकुल ग़लत।” और हम बाक़ायदा लड़ पड़े।<br />
<br />
“आप कज-बहसी (बेकार की बहस) कर रही हैं।”<br />
<br />
“हिमाक़त है यह।”<br />
<br />
“धांदली है इस्मत बहन ।”<br />
<br />
“आप मुझे बहन क्यों कह रहे हैं?” — मैंने चिढ़ कर कहा।<br />
<br />
“बस यूँ ही। अमूनन मैं औरतों को बहन कम कहता हूँ। मैं अपनी बहन को भी बहन नहीं कहता।”<br />
<br />
“तो फिर मुझे चिढ़ाने को कह रहे हैं ।”<br />
<br />
“नहीं तो वो कैसे जाना आप ने ?”<br />
<br />
“इसलिए कि मेरे भाई मुझे हमेशा जलाते, चिढ़ाते और मारते-पीटते रहे या पकड़कर पिटवाते रहे।” मण्टो ज़ोर से हँसा ।<br />
<br />
“तब तो मैं ज़रूर आपको बहन ही कहूँगा ।”<br />
<br />
“तो इतना याद रखिए कि मेरे बारे में मेरे भाइयों के ख़यालात भी कुछ ख़ुशगवार नहीं हैं। यह आपको खाँसी है, इसका इलाज क्यों नहीं करते ?”<br />
<br />
“इलाज ? डॉक्टर गधे होते हैं । तीन साल हुए, डॉक्टरों ने कहा था साल भर में मर जाओगे, तुम्हें टीबी है। साफ़ ज़ाहिर है कि मैंने न मरकर उन की पेशे-गोई को सच्चा साबित न होने दिया। और अब तो, बस, मैं डॉक्टरों को अहमक़ समझता हूँ। उनसे तो मेस्मेरिज़्म और जादू करने वाले ज़्यादा अक़लमन्द होते हैं।”<br />
<br />
“यही आप से पहले एक बुज़ुर्ग फ़रमाया करते थे।”<br />
“कौन बुज़ुर्ग?”<br />
“मेरे भाई, अज़ीम बेग़, नौ मन मिटटी के नीचे आराम फ़रमा रहे हैं।”<br />
थोड़ी देर हम अज़ीम बेग़ के फ़न पर बहस करते रहे। आए थे सिर्फ़ मुलाक़ात करने, लेकिन बातों में रात के<br />
ग्यारह बज गए। शाहिद जो हमारी झड़पें अलग-थलग बैठे देख रहे थे। भूख से तंग आ चुके थे। मलाड़ पहुँचते-<br />
पहुँचते एक बज जाएगा, लिहाज़ा खाना खा ही लिया जाए। मंटो ने मुझे अलमारी से प्लेटें और चमचे<br />
निकालने को कहा और ख़ुद होटल से रोटी लेने चला गया।<br />
<br />
ज़रा उस बरनी से आचार निकाल लीजिये। मंटो ने तेज़ी से मेज़ पर खाना लगाया और कुर्सी पर उकड़ूँ बैठ<br />
गया। वही मेज़ जो दम भर पहले अदबी कारगुज़ारियों का मैदान बनी हुई थी, एक दम खाने की मेज़ की<br />
ख़िदमात अंजाम देने लगी और बग़ैर किसी से “पहले आप” कहे हम लोगों ने खाना शुरू कर दिया।<br />
बरसों से इसी खाने की आदी हूँ।<br />
खाने के दरमियान गर्मागर्म मुबाहिसा चलता रहा। घूम फिर कर “लिहाफ़” के बख़िया उधेड़ने लगता जो उन<br />
दिनों मेरी दुखती रग बना हुआ था। मैंने बहुत टालना चाहा मगर वो ढिटाई से अड़ा रहा और उस का एक-एक<br />
तार घसीट डाला। उसे बड़ा धक्का लगा यह सुन कर कि मुझे “लिहाफ़” लिखने पर अफ़सोस है, उसने जो<br />
जली-कटी सुना डालीं और मुझे निहायत बुज़दिल और कम नज़र कह डाला।<br />
मैं “लिहाफ़” को अपना शाहकार मानने को तैयार नहीं थी और मंटो मुस्सिर (अपनी बात पर अड़ा) था। थोड़ी<br />
ही देर में “लिहाफ़” से भी बढ़-चढ़ कर हमने बहस कर डाली निहायत खुल कर। और मुझे ताज्जुब हुआ कि<br />
मंटो गन्दी से गन्दी और बेहूदा से बेहूदा बात धड़ से इस माक़ूलियत और भोलेपन से कह जाता है कि ज़रा<br />
झिझक महसूस नहीं होती या वो मोहलत देता ही नहीं। उस की बातों पर घिन्न या ग़ुस्सा नहीं आता। चलते<br />
वक़्त उस ने सफ़ीया का ज़िक्र किया। इतनी देर हम बैठे रहे और मंटो को सफ़ीया की याद ने कई बार<br />
सताया।<br />
“सफ़ीया बहुत अच्छी लड़की है।”<br />
“आप उस से मिलकर बहुत ख़ुश होंगी।”<br />
“बहुत याद आ रही है तो उसे बुला क्यों नहीं लेते?” मैंने कहा।<br />
“अरे…. क्या समझती हो उस के बग़ैर सो नहीं सकता।” वो अपनी असलियत पर उतरने लगा।<br />
“नींद तो सूली पर भी आ जाती है।” मैंने बात टाली और वो हँस पड़ा।<br />
“आप को सफ़ीया से बहुत मुहब्बत है?” मैंने राज़दारी के अंदाज़ में पूछा।<br />
“मुहब्बत!” वो चीख पड़ा, जैसे मैंने उसे गाली दी हो।<br />
“मुझे उस से क़तई मुहब्बत नहीं।” उसने कड़वा मुँह बना कर बड़ी पुतलियाँ घुमाईं। मैं मुहब्बत का क़ायल नहीं।<br />
<br />
“अरे आप ने कभी किसी से मुहब्बत ही नहीं की?” मैंने मस्नू’ई (बनावटी) हैरत से कहा। “नहीं।”<br />
“और आप के कभी गुलसए भी नहीं निकले। ख़सरा भी नहीं हुई। मगर काली खाँसी तो ज़रूर हुई होगी।”<br />
वो हँस पड़ा।<br />
“मुहब्बत से आपका मतलब क्या है?” मुहब्बत तो एक बड़ी लम्बी-चौड़ी चीज़ है। मुहब्बत माँ से भी होती है।<br />
बहन और बेटी से भी… बीवी से भी मुहब्बत होती है। मेरे एक दोस्त को अपनी कुतिया से मुहब्बत है। हाँ, मुझे<br />
अपने बेटे से मुहब्बत थी।<br />
वो बेटे के ख़याल पर उचक कर कुर्सी पर ऊँचा हो गया। ख़ुदा की क़सम इतना सा पैरों चलता था। बड़ा शरीर<br />
था। घुटनों चलता था तो फर्श की दराज़ों में से मिटटी निकाल कर खा लिया करता था। मेरा कहना बड़ा<br />
मानता था।<br />
आम बापों की तर्ज़ मंटो ने अपने बेटे का अजीबो-ग़रीब होने का यक़ीन दिलाना शुरू किया।<br />
“आप यक़ीन कीजिए कि छह-सात दिन का था कि मैं उसे अपने साथ सुलाने लगा। मैं उसे ख़ुद तेल मलकर<br />
नहलाता। महीने का भी नहीं था कि ठहाका मार कर हँसने लगा। बस सफ़ीया को कुछ नहीं करना पड़ता<br />
था। दूध पिलाने के सिवा उस का कोई काम न करती। रात को बस पड़ी सोई रहती। मैं चुपचाप बच्चे को दूध<br />
पिलवा देता। दूध पिलवाने से पहले यूडी-कूलन से या स्परिट से साफ़ कर लेना चाहिए, नहीं तो बच्चे के मुँह<br />
में डेन हो जाते हैं।” - वो बड़ी संजीदगी से बोला और मैं हैरत से उसे देखती रही कि यह कैसा मर्द है जो बच्चे<br />
पालने में मुश्ताक़ है।<br />
“मगर वो मर गया।”, मंटो ने मस्नूई मसर्रत (बनावटी ख़ुशी) चेहरे पर लाकर कहा, “अच्छा जो मर गया। मुझे तो<br />
उसने आया बना डाला था। अगर वो आज ज़िंदा होता तो मैं उसके पोतड़े धोता होता, निकम्मा हो कर रह<br />
जाता, मुझ से कोई काम थोड़े होता। सचमुच इस्मत बहन मुझे उस से इश्क़ था।” चलते-चलते उस ने फिर कहा<br />
कि सफ़ीया आने वाली है, बस जी ख़ुश हो जाएगा आपका उस से मिल कर।”<br />
और वाक़ई सफ़ीया से मिलकर मेरा जी ख़ुश हो गया। मिनटों में हमारी इतनी घुट गई कि सिर जोड़ कर<br />
पोशीदा बातें होने लगीं, जो सिर्फ़ औरतें ही कहती हैं, जो मर्दों के कानों के लिए नहीं होतीं। मुझे और सफ़ीया<br />
<br />
को यूँ सिर जोड़ के खुसर-पुसर करते देख कर मंटो जल गया और ताने देने लगा। उसने पिछले कमरे की चूबी<br />
दीवार (लकड़ी की दीवार) से कान लगाकर हमारी सारी सरगोशियाँ सुन ली थीं। वो शरीर बच्चे की तरह<br />
बोला, “तौबा, तौबा! मेरे फ़रिश्तों को भी ख़बर नहीं कि औरतें भी इतनी गन्दी-गन्दी बातें करती हैं।”<br />
<br />
सफ़ीया के शर्म से गाल लाल हो गए। और आप से तो इस्मत बहन मुझे क़तई उम्मीद थी कि यूँ मुहल्ले की<br />
जाहिल औरतों की तरह बातें करेंगी। कब शादी हुई, शादी की रात कैसे गुज़री, बच्चा कब और कैसे पैदा<br />
हुआ।<br />
तौबा है, वो चिढ़ाने लगा।<br />
मैंने फ़ौरन लगाम लगाई। हद्द है मंटो साहब, मैं आपको इतना तंग नज़र न समझती थी। और आप भी इन<br />
बातों को गन्दी बातें कहते हैं। इन में गन्दगी क्या है? बच्चे की पैदाइश दुनिया का हसीन तरीन हादिसा है और<br />
यह कानाफूसी ही तो हमारा ट्रेनिंग स्कूल है। क्या समझते हैं आप, क्या कालेज में बच्चे देना सिखाया गया है।<br />
वहाँ के बूढ़े प्रोफ़ेसर भी आप की तरह नाक-भौं चढ़ा कर तौबा-तौबा कहते रहे, मुहल्ले की औरतों ही से हमने<br />
ज़िन्दगी के अहमतरीन राज़ जाने हैं।<br />
“यह सफ़ीया सख़्त ज़ाहिल है। अदब-वदब कुछ नहीं समझती, हर बात पर थू-थू करती है। आपकी तहरीरों से<br />
सख़्त ख़फ़ा है। आपका जी नहीं घबराता, इससे घंटे बातों कर के कि क़ोरमे में कितनी हल्दी, उरद की दाल के<br />
दही बड़े… “<br />
ऐ मंटो साहब, क़ोरमे में हल्दी कहाँ पड़ती है। सफ़ीया ने हैबतज़दा (आतंकित) होकर कहा। और मंटो लड़<br />
पड़ा।<br />
वो बज़िद था कि हल्दी हर खाने में पड़नी चाहिए और जो नहीं पड़ती तो यह सरासर ज़ुल्म और नाइंसाफ़ी है।<br />
“मेरा एक राजपूत दोस्त था, वो घी और हल्दी पी कर जाड़ों में कसरत किया करता था। पूरा पहलवान था।”<br />
और हम मुसिर्र (अड़े हुए) थे कि आपका दोस्त घी और हल्दी छोड़ कर कीचड़ पीता था। हम किसी शर्त पर<br />
हल्दी डालने को तैयार नहीं और मंटो को क़ायल होना पड़ा।<br />
<br />
मैं और सफ़ीया अगर पॉँच मिनट के इरादे से भी मिलते तो पाँच घंटे का प्रोग्राम हो जाता, मंटो से बहस करके<br />
ऐसा मालूम होता जैसे ज़हनी क़ुवत्तों पर धार रखी जा रही है। जाला साफ़ हो रहा है, दिमाग़ में झाड़ू-सी दी जा<br />
रही है और बाज़ औक़ात (वक़्त का बहुवचन) बहसें इतनी तवील और घनदार हो जातीं कि मालूम होता बहुत<br />
से कच्चे सूत की पूनियाँ उलझ गई हैं और वाक़ई सोचने और समझने की क़ुव्वत पर झाड़ू फिर गई। मगर<br />
दोनों बहसे जाते, उलझे जाते, बदमज़गी पैदा होने लगती। मुझे शिकस्त को छुपाने का मलका (हुनर) था मगर<br />
मंटो रुआँसा हो जाता। आँखें मोर पंखों की तरह तन कर फैल जातीं, नथुने फड़कने लगते। मुँह कड़वा-कसैला<br />
हो जाता और वो झुँझला कर अपनी हिमायत में शाहिद को पुकारता। और जंग अदब या फ़लसफ़े से पलट<br />
कर घरेलू सूरत अख़्तियार कर लेती। मंटो भन्ना कर चला जाता। शहीद मुझ से लड़ते कि तुम मेरे दोस्त से<br />
इतनी बदतमीज़ी से क्यों बातें करती हो। मंटो आज ख़फ़ा हो कर गया है, अब वो हमारे यहाँ नहीं आएगा और<br />
न मेरी हिम्मत है कि उसके यहाँ जाऊँ, वह बद्तमीज़ आदमी है। कुछ कह बैठेगा तो मेरी उस की पुरानी दोस्ती<br />
ख़त्म हो जाएगी।<br />
और मुझे कभी महसूस होता कि वाक़ई मैंने मंटो को कड़वी बात कह दी। मुमकिन है रूठ जाए और सफ़ीया<br />
की दोस्ती भी ख़त्म हो जाए। जो अब मंटो से ज़्यादा गहरी हो गई थी। मंटो की ख़ुद्दारी र’उनत की सरहदों को<br />
पहुँची हुई थी। वो अपने दोस्तों पर रौब जमाने का बड़ा शौक़ीन था। और अगर… दोस्तों के सामने जिन को वह<br />
मरऊब (मुतास्सिर, प्रभावित) कर चुका हो कोई उस का मज़ाक़ बना दे तो वह बुरी तरह चिढ़ जाया करता था।<br />
उस का ख़याल था कि आपस में वह और मैं एक दूसरे को कह-सुन सकते हैं मगर “आम लोगों” के सामने<br />
एक दूसरे पर चोटें नहीं करनी चाहिएँ। वह ज़्यादातर अपने मिलने वालों की ज़हनी सतह को अपने से नीचा<br />
समझता था।<br />
<br />
लेकिन सुब्ह लड़ाई होती और इत्तिफ़ाक़ से शाम को फिर मुलाक़ात हो जाती तो वह इस क़दर जोश से<br />
मिलता जैसे कुछ हुआ ही न हो! वैसे ही घुलमिल कर बातें होतीं। थोड़ी देर हम एक दूसरे से बड़े और ज़रूरत से<br />
<br />
ज़्यादा नरमी से बोलते। हर बात पर हाँ में हाँ मिलाते। मगर मेरा जल्दी ही इस तस्बी से दिल उकता जाता और<br />
उस का भी और फिर चलने लगती दोनों तरफ से आतिशबाज़ी और गोलियों की मुस्तैदी आ जाती। कभी<br />
लोग हम दोनों को यूँ उलझा कर मज़ा लेने लगते और हम सुलह कर एक दूसरे से मिल जाते। हम बहस करते<br />
थे अपनी दिलचस्पी के लिए न कि इस के लिए कि बटेर बन के लुत्फ़ पैदा करते। मंटो की यही राय थी कि<br />
घर पर चाहे जितनी उलटी-सीधी बहस कर लें मगर मह्किलों में हमें मोर्चा बना कर जाना चाहिए और हमारा<br />
मोर्चा इतना मज़बूत होगा कि लोगों के छक्के छुड़ा देगा। मगर मुझे अमूनन मोर्चे से अपनी वफ़ादारी का<br />
एहसास न रहता और मोर्चा भिड़ों के छत्ते की तरह फुंकारने लगता।<br />
<br />
यह मुझे कभी न मालूम हो सका कि मंटो पीकर बहकता है या बहक कर पीता है।मैंने उस की चाल में<br />
लड़खड़ाहट या ज़बान में लकनत न पाई। मुझे तो कभी कोई फ़र्क़ ही नहीं महसूस हुआ। हाँ बस इतना मालूम<br />
होता था कि जब ज़्यादा पिए तो यह यक़ीन दिलाने की कोशिश करता था कि वह बिलकुल नशे में नहीं और<br />
जान को आ जाता था।<br />
“मैं आप से सच कहता हूँ इस्मत बहन। मैं बिलकुल नशे में नहीं और मैं आज पीना छोड़ सकता हूँ। मैं जब चाहूँ<br />
पीना छोड़ दूँ आप शर्त लगाएँ।”<br />
“मैं शर्त नहीं लगाऊँगी क्योंकि आप हर जाएँगे। आप पीना नहीं छोड़ सकते… और आप नशे में हैं।”<br />
क्या-क्या मंटो सबूत देता कि वह नशे में नहीं और इसी वक़्त पीना छोड़ सकता है। सिर्फ़ शर्त लगाने की देर<br />
है। एक दिन तंग आकर मुझे शर्त लगनी पड़ी और मंटो शर्त हार गया। मैं जीत गई। मगर क्या? शर्त तो लगी<br />
थी लेकिन कोई मुक़र्रर न हुई थी। उस के बाद मंटो को जब बहुत चढ़ी जाती और वह शर्त लगाने पर अड़<br />
जाता और सिवाय लगा ने के गलू ख़ुलासी नज़र न आती तो हार कर मुझे शर्त लगाना ही पड़ती।<br />
<br />
मंटो को ख़ुद-सताई की आदत थी। मगर अमूनन मेरे सामने होने पर साथ मुझे भी घसीट लिया करता था।<br />
<br />
और उस वक़्त मेरे और अपने सिवा दुनिया में किसी को अदीब न मानता। ख़ास तौर पर कृष्ण चन्दर और<br />
देवेन्द्र सत्यार्थी के ख़िलाफ़ हो जाता। अगर उन की तारीफ़ करो तो सुलग उठता। मैं कहती आप कोई<br />
तनक़ीद-निगार आलोचक) तो हैं नहीं जो आप की बात मानी जाए और वह तनक़ीद निगारों को जली-कटी<br />
सुनाने लगता। एक सिरे से उनके वजूद को कम क़ाइल समझता ख़ास तौर पर अदब के लिए।<br />
“बकवास करते हैं यह लोग।” वह जल कर कहता। जो यह कहते हैं बस उसका उल्टा करते जाओ यही लोग जो<br />
एतराज़ करते हैं छुप-छुप कर मेरी कहानियाँ पढ़ते हैं और उन से कुछ सीखने के बजाय लुत्फ़ अन्दोज़ होते हैं<br />
और फिर उस लुत्फ़ की याद पुर नादम हो कर ऊलजुलूल लिखते हैं। वह कभी इतना चिढ़ जाता कि मैं उसे<br />
तसल्ली देने को कहती जब आप को यक़ीन है कि यह उलजुलूल लिखते तो आप उन का जवाब क्यों देने<br />
लगते हैं। अगर तनक़ीद से आप को मदद नहीं मिलती तो न लीजिए मगर राय-ए-उलमा को मत’ऊन (रुसवा)<br />
न कीजिए। मगर वो भन्नाता रहा।<br />
एक दिन बड़ी संजीदा सूरत बनाए आए और कहने लगे।<br />
“मुक़दमा दायर करेंगे।”<br />
मैंने कहा, “क्यों”<br />
कहने लगे “हम यानी मैं और आप इस मर्दवर्द ने मेरी और आप की कहानियाँ एक मजमूए (संकलन) में यह<br />
लिख कर छापी हैं कि फ़हश अश्लील) हैं; ऐसे अदब से मुल्क को बचाना चाहिए। अब उस कमबख़्त से पूछो<br />
कि कैसी उलटी बात कर रहा है। एक तो वो उन्हें किताब में छाप कर मुश्तहर कर रहा है दूसरे पैसे कमाने का<br />
अलग इंतज़ाम कर रहा है। उस ने हमारी इजाज़त के बग़ैर क्यों कहानियाँ छापी हैं उसे नोटिस दिलवा रहा हूँ<br />
कि हरजाना दे। फिर न जाने भूलभाल गए।<br />
मंटो अपनी डींगों से ज़्यादा मेरे सामने दोस्तों की शेख़ी बघारा करता था। रफ़ीक़ ग़ज़नवी से कुछ अजीब<br />
क़िस्म की मुहब्बत थी जो समझ में न आती। जब उस का तज़किरा (ज़िक्र) किया यही कहा, “बड़ा बदमाश<br />
लफ़ंगा है एक-एक कर के चार बहनों से शादी कर चुका है। लाहौर की कोई रंडी ऐसी नहीं जिस की उस ने<br />
अपने जूते पर नाक न घिसवाई हो।”<br />
<br />
बिलकुल रफ़ीक़ का ऐसे ज़िक्र करता जैसे बच्चे बड़े भैया का ज़िक्र करते हैं। उस के इश्क़ों के क़िस्से<br />
तफ़सीलियों से सुनाया करता। एक दिन मुझे उस से मिलाने को कहा। मैंने कहा क्या करुँगी मिल कर, आप<br />
तो कहते हैं लफ़ंगा है वो।<br />
कहने लगे अरे जब ही तो मिला रहा हूँ। यह आप से किस ने कहा कि लफ़ंगा और बदमाश बुरा आदमी होता<br />
है। रफ़ीक़ निहायत शरीफ़ आदमी है।<br />
मैंने कहा, “मंटो साहब लफ़ंगा, शरीफ़, बदमाश यह आख़िर कैसा आदमी है, मेरी समझ में नहीं आता। आप<br />
मुझे जितना ज़हीन और तजरबेकार समझते हैं, शायद मैं वैसी नहीं।<br />
“आप बनती हैं।” मंटो ने बुरा मान कहा कि जभी तो आप को रफ़ीक़ से मिलाना चाहता हूँ..... बड़ा दिलचस्प<br />
आदमी है। कोई औरत बग़ैर आशिक़ हुए नहीं रह सकती।<br />
“मैं भी तो औरत हूँ।” मैंने फ़िक्रमंद बन कर कहा। और वह खिसियाना हो गया।<br />
“मैं आप को अपनी बहन समझता हूँ।”<br />
“मगर आप की बहन भी तो औरत हो सकती है।” मंटो ने क़हक़हा लगाया।<br />
“हो सकती है! यह ख़ूब कहा” मगर मंटो को ज़िद हो गयी। “आप को उस से मिलना पड़ेगा। देखिए तो सही।”<br />
“मैं उसे स्टेशन पर देख चुकी हूँ। आप ने कान भर दिए थे कि मैं भाग आई कि कहीं कमबख़्त पर आशिक़ न<br />
होना पड़े।”<br />
और रफ़ीक़ से मिलने के बाद मुझे मालूम हो गया कि मंटो का मुतालआ कितना गहरा है। बावजूद दुनिया के<br />
सातों ऐब करने के रफ़ीक़ में वह सारी खूबियाँ मौजूद हैं जो एक मुहज़्ज़ब इनसान में होना चाहिएँ। वह एक<br />
अजीब बदमाश हो सकता है। साथ ही निहायत ईमानदार और शरीफ़ भी। यह कैसे और क्यों? यह मैंने<br />
समझने की कोशिश न की यह मंटो का मैदान है वह दुनिया के ठुकराई घूरे पे फेंकी हुई ग़लाज़त में से मोती<br />
चुन कर निकाल लाता है। घोरा कुरेदने का उसे शौक़ है क्योंकि दुनिया के सँवारने वालों पे उसे भरोसा नहीं।<br />
उन की अक़्ल और फ़ैसले पर भरोसा नहीं। उन की शरीफ़ और पाकबाज़ बीवियों के दिल के चोर पकड़ लेता<br />
<br />
है और कोठे में रहने वाली रंडी के दिल के तक़द्दुस (पवित्रता) से मवाज़ना (तुलना) करता है। इत्र में डूबी हुई ऐश<br />
पसंद दुल्हन से मैल और पसीने सड़ती हुई घाटिन ज़्यादा ख़ुशबूदार मालूम होती है। “बू” में हालाँकि जिस्म ही<br />
जिस्म है। ग़ौर से देखिए तो जिस्म के अंदर रूह भी है। बेश परस्त तब्क़ा की फटे हुए दूध की तरह फुलकेदार<br />
रूह और कुचले हुए तबक़े की तसन्नु (दिखावा) से दूर असलियत। अगर तब्क़ाती तफ़रीक़ (वर्गीय भिन्नता) का<br />
सवाल नहीं तो हम इसे क़त्तई तौर पर जिस्मानी सवाल भी नहीं कह सकते। मंटो के ज़हन में ज़रूर दो तबकों<br />
के फ़र्क़ का ख़याल था और वह उस बुत को जिसकी दुनिया पूजा करे, ज़मीन पर पटख़ने में बड़ी बहादुरी<br />
महसूस करता था।<br />
वो हमेशा अपने बदमाश दोस्तों के कारनामे फ़ख़्रिया सुनाया करता। एक दिन मैंने जलाने को कह दिया लोग<br />
झूठ बोलते हैं। असल में न हज़ारों रंडियों से उन का ताल्लुक़ रहा और न ही उन्होंने कभी किसी औरत की<br />
आबरू-रेज़ी की और वो तरह-तरह से मुझे यक़ीन दिलाने लगा कि यह लोग वाक़ई बदमाशियाँ करते हैं इतनी<br />
ही नहीं, बल्कि उस से ज़्यादा।<br />
“सब झूठ!” मैं धांधली करने लगी।<br />
“अरे आप को यक़ीन क्यों नहीं आता। बाज़ार में जो चाहे जा सकता है।”<br />
“मगर उन लोगों की हिम्मत नहीं जो तवायफ़ों के कोठे पर जा सकें। बहुत करते होंगे गाना सुन कर चले आते<br />
होंगे।”<br />
“मगर मैं ख़ुद गया हूँ रंडी के कोठे पर।”<br />
“गाना सुनने।” मैंने चिढ़ाया।<br />
“जी नहीं। अपने दाम वसूल करने, और हमेशा मेरे दाम वसूल हो गए। फिर भी मैंने कहा, “मैं नहीं यक़ीन<br />
करती।”<br />
“वो क्यों?” वो उठकर बिलकुल मेरे सामने क़ालीन पर उकड़ूँ बैठ गया।<br />
“बस मेरी मर्ज़ी। आप मेरे ऊपर रोब डालना चाहते हैं।”<br />
“भई ख़ुदा की क़सम मैं कहता हूँ मैं गया हूँ।”<br />
<br />
“ख़ुदा पर आप को यक़ीन नहीं बेकार उसे न घसीटिये।”<br />
ख़ूब क़हक़हे लगाए और फिर चुपके से कहा, “मगर अब तो मान जाओ।”<br />
मैंने कहा, “क़तई नहीं।”<br />
मुझे नहीं मालूम मंटो को तजुर्बा था या जो कुछ उसने रंडी के बारे में लिखा वो उसके अपने उसूल और यक़ीन<br />
की बिना पर है क्योंकि अगर वो रंडी के कोठे पर गया भी होगा तो वहाँ रंडी से ज़्यादा उस ने एक औरत का<br />
दिल देखा होगा जो बावजूद यह कि मोरी का कीड़ा है मगर ज़िन्दगी की क़द्रों को प्यार करती है। अच्छे और<br />
बुरे को नापने के जो पैमाने आम तौर पर बना दिए गए हैं वो उन्हें तोड़-फोड़ कर अपनी बनाई तौल से उन का<br />
अंदाजा लगाता था, ख़ोशिया जैसे ढीट और निकम्मे इनसान की रगे-हमीयत (निष्ठा भाव- sense of honour)<br />
भी फड़क सकती है।<br />
“गोपी नाथ” जैसा रक़ीक़ (नरम, कोमल) इनसान भी देवताओं पर बाज़ी लगा सकता है, बुलंद-ओ-महान<br />
देवता भी सरनिगूँ (झुक) हो सकते हैं। क़ौमी रज़ाकार बदकार भी हो सकते हैं और लाश से ज़िना (सम्भोग)<br />
करनेवाला ख़ुद लाश भी बन सकता है।<br />
कभी-कभी मेरा और मंटो का झगड़ा इतना सख़्त हो जाता कि डोर टूटती मालूम होती। एक दिन किसी बात<br />
पर ऐसा चिढ़ा कि आँखों में ख़ून उतर आया, दाँत पीस कर बोला, “आप औरत हैं वरना ऐसी बात कहता कि<br />
दाँत खट्टे हो जाते।”<br />
“दिल का अरमान निकाल लीजिए, मुरव्वत की ज़रूरत नहीं।” मैंने चिढ़ाया।<br />
“अब जाने भी दीजिए कोई मर्द होता तो बताते।”<br />
“बता भी दीजिए। ऐसे कौन-कौन से तीर तरकश में बाक़ी रह गए हैं निकाल भी दीजिए।”<br />
“आप झेंप जाएंगी।”<br />
“क़सम ख़ुदा की नहीं झेपूँगी।”<br />
“तो आप औरत नहीं।”<br />
<br />
“क्यों क्या औरत के लिए झेंपना अशद (बहुत) ज़रूरी है। चाहे झेंप आए या न आए? बड़ा अफ़सोस है मंटो<br />
साहब आप भी औरतों और मर्दों के लिए अलग-अलग उसूल बनाते हैं। मैं समझती थी आप “आम लोगों”<br />
की सतह से बुलंद हैं।”, मैंने मस्का लगाया।<br />
“तो फिर कहिये न वो झेंपा देने वाली बात।”<br />
“अपने मरहूम (मृत) बच्चे की क़सम खाता हूँ मैं एक बार नहीं बल्कि…”<br />
“मरहूम बच्चे को अब झूठी क़सम खा कर क्या नुक़सान पहुँचा सकते हैं।”<br />
और मंटो वहीं फसकड़ा (पालथी) मारकर बैठ गया कि आज तो मनवा कर रहूँगा कि मैं रंडीबाज़ हूँ।<br />
सफ़ीया की गवाही दिलवाई। मैंने दो मिनट में सफ़ीया को चित कर दिया कि मुमकिन है यह तुमसे कह कर<br />
गए हों कि रंडी के यहाँ जा रहे हैं। और अगर गए भी हों तो सलाम कर के चले आए होंगे। सफ़ीया चुप-सी हो<br />
गयी। “अब यह तो नहीं कह सकती कि सलाम कर के आ गए या…” वो अजब गोमगो (असमंजस) में रह गयी।<br />
मंटो ने जोश में कुछ ज़्यादा तेज़ी से पी डाली और बुरी तरह लड़ने लगा कि यह तो आज मनवाकर छोड़ूँगा कि<br />
मैं पक्का रंडीबाज़ हूँ और मैंने कह दिया आज इधर की दुनिया उधर हो जाए मैं मान के दूँगी नहीं।<br />
एक तो नशा दूसरे मंटो के मिज़ाज की जबिल्ली (स्वाभाविक) तल्ख़ी। अगर बस चलता तो मेरा मुँह नोच<br />
लेता।<br />
सफ़ीया ने बिसूरकर (सिसककर) कहा, “बहन मान जाओ।” शाहिद ने कहा बस अब घर चलो। मगर मंटो ने<br />
शाहिद की टाँग लेनी शुरू की और कह दिया कि बग़ैर क़ायल हुए जाने नहीं दूँगा। ख़ासा हंगामा हो गया।<br />
बड़ी संजीदगी से मंटो ने शाहिद से कहा चलो रंडी के यहाँ अभी इसी वक़्त आज मैं क़ायल न कर दूँ तो मैंने माँ<br />
का दूध नहीं, सुअर का दूध पिया। मगर मैंने और चिढ़ाया, “आप जाएँ-वाएँगे नहीं यहीं भायकला ब्रिज पर घूम<br />
कर आ जाएँगे और हम यक़ीन नहीं करेंगे क्या फ़ायदा।”<br />
अब तो मंटो के सिर में लगी एड़ी में जाकर शायद ही बुझी हो। ग़ुस्सा ज़ब्त करके पूछा, “फिर कैसे यक़ीन<br />
दिलाया जाए?”<br />
मैंने कहा, “हमें यानी मुझे और सफ़ीया को भी साथ ले चलिए।”<br />
<br />
“मैं नहीं जाऊँगी,”, सफ़ीया बिगड़ी। “तुम्हारा तो दिमाग़ खराब हुआ है तुम ही जाओ।”<br />
“जाएगी कैसे नहीं,” मंटो ग़ुर्राया।<br />
“चलो, चलो” …. सफ़ीया को हमने आँख मारी और चारों चले। दरवाज़े से हम दोनों तो निकल आए। मंटो को<br />
सफ़ीया ने न जाने कैसे क़ाबू में किया। दूसरी दफ़ा जब मुलाक़ात हुई तो मैंने पूछा, “अभी भी ग़ुस्सा हैं?<br />
“नहीं। अब ग़ुस्सा उतर गया।”, वह हँस कर बोला।<br />
अच्छा दोस्ती में ही बताइए वो कौन सी ख़तरनाक बात थी। “कुछ नहीं अब कुछ याद नहीं रहा। कोई ख़ास<br />
बात नहीं थी। शायद कोई मोटी-सी गाली देता बस।”<br />
“बस?”, मैंने नाउम्मीद हो कर कहा।<br />
“या शायद किसी के झाँपड़ मारता।” नादम हो कर बोला।<br />
“मुझ पर कुछ असर न होता मैंने ऐसी खेम-शेम गालियाँ सुनी हैं कि हद नहीं और मेरे थप्पड़ भी ख़ासे ज़ोर के<br />
पड़ जाते हैं। मगर पहली दफ़ा आप ने औरत समझ कर रिआयत की मेरे भाई तो लगा चुके हैं कई बार।” और<br />
हमारा मिलाप हो गया।<br />
एक दिन दफ़्तर में गर्मी से परेशान होकर मैंने सोचा जाकर मंटो के यहाँ आराम कर लूँ फिर वापस मलाड़<br />
जाऊँ। दरवाज़ा हस्बे-मामूल (हमेशा की तरह) खुला हुआ था, जाकर देखा तो सफ़ीया मुँह फुलाए लेटी है।<br />
मंटो हाथ में झाड़ू<br />
लिए सटासट पलंग के नीचे हाथ मार रहा है। और नाक पर कुर्ते का दामन रखे मेज़ के नीचे झाड़ू चला रहा है।<br />
यह क्या कर रहे हैं। मैंने मेज़ के नीचे झाँक कर पूछा।<br />
क्रिकेट खेल रहा हूँ। मंटो ने बड़ी-बड़ी मोरपंख जैसी पुतलियाँ घुमा कर जवाब दिया।<br />
“यह लीजिए! हमने सोचा था ज़रा आप के यहाँ आराम करेंगे तो आप लोग रूठे बैठे हैं। मैंने वापस जाने की<br />
धमकी दी।<br />
“अरे!” सफ़ीया उठ बैठी। “आओ, आओ।”<br />
“काहे का झगड़ा था?” मैंने पूछा।<br />
<br />
“कुछ नहीं मैंने कहा खाना पकाना गृहस्थी वग़ैरह मर्दों का काम नहीं। बस जैसे तुमसे उलझते हैं मुझ से भी<br />
उलझ पड़े कि क्यों नहीं मर्दों का काम मैं अभी झाड़ू दे सकता हूँ। मैंने बहुत रोका तो और लड़े, कहने लगे ऐसा<br />
ही है तो तलाक़ ले ले।” सफ़ीया ने बिसूरकर कहा।<br />
मंटो से झाड़ू छुड़ाने के लिए मैंने बनकर खाँसना शुरू किया। “सुबह ही सुबह म्युनिसिपेलिटी के भंगी ने सहन<br />
(चौक, आँगन) साफ़ करने के बहाने धूल हलक़ में झोंकी अब आप अरमान निकाल लीजिए।”<br />
“गर्मी से जान निकल रही है।”<br />
जल्दी से झाड़ू छोड़कर मंटो होटल से बर्फ़ लाने चला गया। सफ़ीया हंडिया बघारने चली गयी। बर्फ़ लाकर<br />
मंटो ने तौलिया दीवार पर मार-मारकर बर्फ़ तोड़ी और प्लेट में भरकर सामने रख दी और उकड़ूँ बैठ गया।<br />
“और सुनाइए।”<br />
उसने हस्बे-आदत कहा। हांडी के बघार से मुझे ज़ोर से उबकाई आयी। “उफ़्फ़ुह सफ़ीया क्या मुर्दा जला रही<br />
है।” मैंने नाक बंद करके कहा। मंटो ने चौंक कर मुझे देखा सिर से पैर तक बड़ी-बड़ी पुतलियाँ घुमाईं और<br />
छलांग मार कर झपटा। बावर्चीख़ाने में सफ़ीया चीख़ती रही और उसने फिर लोटा पानी पतीली में झोंक<br />
दिया। वापस आकर वो सहमा-सहमा सा कुर्सी पर बैठ गया और फिर झेंप कर हँस दिया।<br />
मैं बेवक़ूफ़ों की तरह देखती रही।<br />
सफ़ीया बड़बड़ाती आयी तो उसे ज़ोर से डाँटा और फिर बड़े शर्मीले अंदाज़ से बोला, “आप के पेट में बच्चा है?<br />
जैसे बच्चा मेरे नहीं ख़ुद उनके पेट में हो।”<br />
“मैंने फ़ौरन ताड़ लिया। जब सफ़ीया के पेट में बच्चा था तो उसे भी बघार से उबकाई आती थी।”<br />
“मंटो साहब ख़ुदा के लिए दाइयों जैसी बातें बातें न करें।” मैंने चिढ़ाकर कहा। वो ज़ोर से हँसा।<br />
“अरे वाह। इस में क्या बुराई है। अरे आप को खटई जैसी चीज़ें भाती होंगी। मैं अभी कैरियाँ लाता हूँ।” वो<br />
लपक कर नीचे गया और कुर्ते के दामन में बच्चों की तरह कैरियाँ भर के ले आया। कैरियाँ छीलकर बड़ी<br />
नफ़ासत से नमक-मिर्च लगाकर मुझे दीं और ख़ुद उकड़ूँ बैठ मुझे ग़ौर से देखकर मुस्कुराता रहा।<br />
<br />
“सफ़ीया अरे सफ़िया” वो चिल्लाया। सफ़ीया धुँए से अटी आँखें आँचल से पोंछती आयी। “क्या है मंटो<br />
साहब कितना चिल्लाते हो।”<br />
“अरे बेवक़ूफ़। इनका पैर भारी है।” उसने सफ़ीया की कमर में हाथ डालकर कहा।<br />
“उफ़ गन्दगी की इंतिहा है। जभी तो आप को लोग फ़हश-निगार कहते हैं।”, मेरे इस बिगड़ने पर मंटो ख़ूब<br />
चहका और बड़ी-बूढ़ियों जैसे मशवरे देने लगा।<br />
पेट पर ज़ैतून के तेल की मालिश से खरोंचे नहीं पड़ेंगी।”<br />
“निहार (बासी) मुँह सेब का मुरब्बा खाने से उबकाई नहीं आती।”<br />
“खोपरा खाने से बच्चा गोरा होगा और आसानी से होगा।”<br />
“जाड़े में बर्फ़ न चबाइएगा, नले सूख़ जाते हैं। क्यों सफ़ीया?”<br />
“हटो मंटो साहब कैसी बातें करते हो।” सफ़ीया खिसिया कर रह गयी। और जब सीमा पैदा हुई तो सफ़ीया मेरे<br />
पास बैठी काँपती रही। मगर बच्ची को देखकर मंटो को अपना बेटा बहुत याद आया। वो देर तक मुझे उसकी<br />
छोटी-छोटी शरारतें बताता रहा। सफ़ीया का दिल पिघल गया और साल के अंदर-अंदर मंटो की बड़ी बेटी<br />
पैदा हो गयी। पूना से आने के बाद मुझे मालूम हुआ, मैं फ़ौरन गई, पर मंटो ने मकान बदल लिया था। ढूँढ़ढांढ़<br />
कर नए मकान पहुँची तो देखा ड्राइंग रूम में अलगनी पर पोतड़े निचोड़-निचोड़ कर फैला रहे हैं। नया मकान<br />
बहुत छोटा और बग़ैर हवा का था। मंटो ने इसलिए बदल लिया कि उसका फ़र्श गन्दा था, बच्ची घुटनों चलती<br />
तो फाँस लग जाती। और मिट्टी चाट जाती। यहाँ निकहत मज़े से फ़र्श पर खेल सकेगी। हालाँकि निकहत चंद<br />
हफ़्तों की थी।<br />
<br />
मुझे बच्चे सख़्त नापसंद हैं। मंटो संजीदगी से कहता। जान को चिमट जाते हैं, मुझे उन से इसलिए डर लगता<br />
है। हर वक़्त उन्हीं का ख़याल रहता है, किसी काम में दिल नहीं लगता। वो दूध की बोतल धोकर फ़लसफ़े<br />
छाँटता। मेरी भतीजी मीनू उसे बड़ी प्यारी थी। घंटों उस के साथ गुड़ियों और हिंडोलों की बाते किया करता।<br />
फ़रमाइश पर खिड़की से बाँस डालकर उसके लिए इमलियाँ तोड़कर नीचे से कुर्ते के दामन में समेट लाता।<br />
<br />
सीमा को पॉट पर बैठाकर शी-शी करता। और बच्चों का बहुत शाकी (किसी अप्रिय आचरण या व्यवहार या<br />
बात के विरूद्ध अप्रसन्नता या खेद प्रकट करने वाला) था क्योंकि वो उनकी मुहब्बत में बेबस हो जाता था।<br />
<br />
एक दिन जब हम मलाड़ में रहते थे, रात के कोई साढ़े बारह होंगे कि दरवाज़े पर दस्तक हुई। मालूम हुआ<br />
सफ़ीया साँस फूली हुई सी खड़ी हैं। मैंने पूछा क्या हुआ? बोली, “मैंने मना किया कि ऐसी हालत में किसी के<br />
घर नहीं जाना चाहिए मगर वो कहाँ सुनते हैं। मंटो निदा जी और ख़ुर्शीद अनवर के साथ आ गए।<br />
“यह सफ़ीया कौन होती है मना करने वाली।” हाथ में बोतल और गिलास लिए तीनो अंदर आए। शाहिद ने<br />
पार्टी को लाबेक (एक प्रार्थना- मैं आपकी ख़िदमत में हाज़िर हूँ) कहा। तय हुआ बहुत भूखे हैं, होटल सब बंद<br />
हो चुके हैं। रेल का वक़्त गुज़र गया। कुछ मिल जाए तो ख़ुद पका कर खा लें। बस आटा-दाल दे दो। ख़ुद<br />
बावर्चीख़ाने में जाकर पका लेंगे।<br />
सफ़ीया को मर्दों का रोटी पकाना न भाया। मगर वो कहाँ मानते थे। बावर्चीख़ाने पर चढ़ाई कर दी। मंटो<br />
आटा गूँधने लगे। निदा जी अंगीठी पर टूट पड़े और ख़ुर्शीद अनवर को आलू छीलने के लिए दे दिए गए जो<br />
छीलने से ज़्यादा कच्चे खाने पर मुस्सिर (तुले हुए) थे और फिर बोतल भी बावर्चीख़ाने में आ गई। यह लोग<br />
चौका मर कर वहीं बैठ गए और कच्चे-पके पराठे पकाते गए, खाते गए। मंटो ने आटा बहुत अच्छा गूँधा था<br />
और बड़े सलीक़े से रोटी पका ली और फिर झट से पुदीने की चटनी में डाली। खाना खाकर यह लोग वहीं<br />
फैल कर सो भी जाते अगर ज़बरदस्ती बरामदे तक न घसीटा जाता। यह ज़िन्दगी थी जो मंटो को सब से<br />
ज़्यादा दिलचस्प मालूम होती थी। उस ज़माने में लाहौर गवर्नमेंट ने मेरे और मंटो पर मुक़दमा चला दिया।<br />
मंटो की देरीना (पुरानी) आरज़ू बर आई। लाहौर में भी लुत्फ़ आ गया। ख़ूब दावतें उड़ाईं। इसी बहाने लाहौर<br />
की ज़ियारत (तीर्थयात्रा) हो गई। ज़री के जूते ख़रीदने हम दोनों साथ गए। मंटो के पैर नाज़ुक और सफ़ेद थे।<br />
जैसे कँवल के फूल, ज़री के जूते बहुत जँचने लगे।<br />
“मेरे पैर बड़े भद्दे हैं। मैं नहीं ख़रीदूँगी। इतने ख़ूबसूरत जूते।”, मैंने कहा।<br />
“और मेरे पैर इतने ज़नाने हैं कि मुझे इन से शर्म आती हैं।” मगर हमने कई जूते ख़रीदे।<br />
<br />
“आप के पैर बहुत ख़ूबसूरत हैं।”, मैंने कहा।<br />
“बकवास हैं मेरे पैर। लाइए बदल लें।”<br />
“बदलना ही हैं तो लाइए सिर बदल लें,” मैंने राय दी।<br />
“बख़ुदा मुझे कोई एतराज़ नहीं”, मंटो ने चहक कर कहा।<br />
मुहब्बत के मसले पर कितनी ही झड़पें हुईं मगर हम किसी फ़ैसले पर नहीं पहुँच सके।<br />
वो यही कहता, “मुहब्बत क्या होती है। मुझे अपने ज़री के जूते से मुहब्बत है। रफ़ीक़ को अपनी पाँचवीं बीवी से<br />
मुहब्बत है।”<br />
“मेरा मतलब उस इश्क़ से है जो एक नौजवान को एक दोशीज़ा से हो जाता है।”<br />
“हाँ…. मैं समझ गया।”, मंटो ने दूर माज़ी के धुंधलके में कुछ टटोल कर सोचते हुए ज़रूर कहा। “कश्मीर में एक<br />
चरवाही थी। “<br />
“फिर?”, मैंने दास्तान सुनने वालों की तरह हुंकारा दिया।<br />
“आप मुझे इतनी गन्दी बातें तो बता देते हैं और आज आप शरमा रहे हैं।” “कौन गधा शरमा रहा है।”, मंटो ने<br />
वाक़ई शरमा कर कहा… बड़ी मुश्किल से उसने बताया कि बस जब वो मवेशी हाँकने के लिए अपनी लकड़ी<br />
ऊपर उठाती थी तो उस की सफ़ेद कुहनी दिखाई दे जाती थी। “मैं कुछ बीमार था। रोज़ एक कम्बल लेकर<br />
पहाड़ी पर जाकर लेट जाया करता था। और साँस रोके उस लम्हे का इंतज़ार करता था जब वो हाथ ऊपर करे<br />
तो आस्तीन सरक जाए और मुझे उस की सफ़ेद कुहनी दिखाई दे जाए।”<br />
<br />
“कुहनी?”, मैंने हैरत से पूछा।<br />
<br />
"हाँ, मैंने सिवाय कुहनी के उसके जिस्म का और कोई हिस्सा नहीं देखा। ढीले-ढाले कपडे पहने रहती थी, उसके जिस्म का कोई ख़त नहीं दिखाई देता था । मगर उसके जिस्म की जुम्बिश पर मेरी आँखें कुहनी की झलक देखने के लिए लपकती थीं ।<br />
<br />
“फिर क्या हुआ?”<br />
<br />
फिर एक दिन मैं कम्बल पर लेटा था । वो मुझसे थोड़ी दूर आकर बैठ गई । वो अपने गिरेबान में कुछ छिपाने लगी। मैंने पूछा, मुझे दिखाओ तो शर्म से उसका चेहरा गुलाबी हो गया । और बोली कुछ भी नहीं । बस, मुझे ज़िद हो गई. मैंने कहा जब तक तुम दिखाओगी नहीं, जाने नहीं दूँगा। वो रुआँसी हो गई, मगर मैं भी ज़िद पर अड़ गया। और आख़िर को रद-ओ-कद (हुज्जत) के बाद उसने मुट्ठी खोलकर हथेली मेरे सामने कर दी और ख़ुद शर्म से घुटनों में मुँह दे लिया।<br />
<br />
क्या था उस की हथेली पर — मैंने बेसब्री से पूछा ।<br />
<br />
“मिस्री की डली ! उसकी गुलाबी हथेली पर बर्फ़ के टुकड़े की तरह पड़ी झिलमिला रही थी ।”<br />
<br />
“फिर आपने क्या किया।”<br />
<br />
“मैं देखता रह गया । वो कुछ सोच में डूब गई ।"<br />
<br />
“फिर ?”<br />
<br />
फिर वो उठकर भाग गई । थोड़ी दूर से पलट आई और मिस्री की डली मेरी गोद में डालकर नज़रों से ओझल हो गई। मिस्री की डली बहुत दिनों तक मेरी क़मीज़ की जेब में पड़ी रही। फिर मैंने उसे दराज़ में डाल दिया और कुछ दिन बाद चीटियाँ खा गईं।<br />
<br />
“और लड़की ?”<br />
<br />
“कौन सी लड़की ?”— वो चौंका ।<br />
<br />
“वही जिस ने आप को मिस्री की डली थमाई थी ।”<br />
<br />
“उसे मैंने फिर नहीं देखा ।”<br />
<br />
“किस क़दर फसफसा है आपका इश्क़ !” — मैंने नाउम्मीदी से चिढ़ के कहा। मुझे तो बड़े किसी शोला-बादामान क़िस्म के इश्क़ की उम्मीद थी ।”<br />
<br />
“क़त्तई फसफसा नहीं।” — मण्टो लड़ पड़ा ।<br />
<br />
“बिलकुल रद्दी था, थर्ड रेट, मरघुल्ला इश्क़ । मिस्री की डली लेकर चले आए । बड़ा तीर मारा ।”<br />
<br />
“तो और क्या करता । उसके साथ सो जाता। एक हरामी पिल्ला उस की गोद में छोड़कर आज उसकी याद में अपनी मर्दानगी की डींगें मारता।” — वो बिगड़ा ।<br />
<br />
“ठीक कहते हैं आप । मिस्री की डली किड़किडा के खाने की नहीं, धीरे-धीरे चूसने की चीज़ है ।”<br />
<br />
यह वही मण्टो था । फ़हश (अश्लील) निगार । गन्दा ज़हन । जिस ने “ठण्डा गोश्त” लिखा था । लेकिन मिर्ज़ा ग़ालिब में चौदहवीं बेग़म मिर्ज़ा ग़ालिब की महबूबा हो या न हो, उस का फैसला नहीं किया जा सकता, मगर मण्टो के ख़यालों की लड़की ज़रूर है, जिसे वो हाथ नहीं लगाना चाहता । जिस की कुहनी की झलक देखने के लिए वो सारी ज़िन्दगी बैठ सकता है। यह था वो तज़ाद (विसंगति) जो मंटो की मुख़्तलिफ़ कहानियों में मुख़्तलिफ़ औक़ात में ज़ाहिर होता था । एक तरफ़ वो “नया क़ानून” लिखता है और दूसरी तरफ़ “बू”... दोनों में वो खुद को ग़र्क़ (बरबाद) करके लिखता है। लोगों को एक फ़हश निगार याद रह जाता है और<br />
वाक़्या निगार को वो भूल जाते हैं । क़सद (साज़िश, षडयन्त्र) क्या हुआ! ? एक ही बात है ।<br />
<br />
मुल्क में फ़साद शुरू हो गए । बटवारे के बाद उस को भी पयाम किए जाने लगे । मण्टो उस वक़्त फ़िल्मिस्तान में क़रीब-क़रीब मुस्तक़िल था। वो बड़ा ख़ुश नज़र आता था। मद्दाह सराई (स्तुतिगान) जो उसकी ज़िन्दगी का सहारा थी उसे मिलती थी कि उसकी फ़िल्म ’आठ दिन’ कामयाब न हुई । न जाने क्यों वो फ़िल्मिस्तान छोड़कर अशोक कुमार के साथ बम्बई टाकीज़ चला गया । उसे अशोक कुमार बहुत पसन्द था। मुखर्जी ने न जाने उस से क्या कह दिया था कि वो एकदम उसके ख़िलाफ़ हो गया — बकवास है मुखर्जी, फ्रॉड है पक्का ! — वो तल्ख़ी से कहता ।<br />
<br />
बम्बई टाकीज़ में जाकर उसने मुझे भी कम्पनी में एक साल के बाद सीनियर यू डिपार्टमेण्ट में काम दिलवा दिया और बहुत ही ख़ुश हुआ — “अब हम दोनों मिलकर कहानी लिखेंगे । तहलका मचेगा । मेरी और आपकी कहानी, अशोक कुमार हीरो । बस, फिर देखिएगा ।”<br />
<br />
एक कहानी मण्टो की ज़ेरे-ग़ौर थी। अशोक कुमार को वो पसन्द थी। उससे पहले उसे “मजबूर” की कहानी पसन्द थी फिर दिल से उतर गई और मण्टो की कहानी पसन्द आई। मेरे आने के बाद उसे मेरी कहानी ’ज़िद्दी’ पसन्द आ गई। ख़ैर, मण्टो को नागवारा न गुज़रा। अब अशोक कुमार ने मुझे मण्टो की कहानी पर काम करने को कहा और मण्टो को मेरी कहानी पर ! नतीजा यह कि मण्टो मुझे और मैं मण्टो से शाकी होने लगे। उधर कमाल अमरोही “महल” की कहानी लेकर आ गए और अशोक कुमार को पसन्द आ गई और हम दोनों की कहानी खटाई में पड़ गई। अब सिर्फ़ इज़्ज़त का सवाल होता तो और बात थी, वहाँ तो यह हाल हो गया कि हमारी कहानी नहीं बन रही है तो हम किसी शुमार-ओ-क़तार ही में नहीं । हमसे कह दिया गया था कि चैन से बैठो ।<br />
तनख़्वाह मिलती रहेगी, क्योंकि कॉन्ट्रैक्ट हो चुका है, लेकिन कहानी हमारी नहीं बनेगी। लिहाज़ा मेरी और शाहिद की पूरी कोशिशें अपनी कहानी ’ज़िद्दी’ को बनवाने की तरफ़ लग गईं और बग़ैर अशोक कुमार के दूसरे दर्जे की तस्वीरों की क़तार में ज़िद्दी बनाई जाने लगी। मगर मण्टो की कहानी रह गई ! मण्टो दिन भर अपने कमरे में बैठा अपनी कहानी की उधेड़बुन किया करता, कभी अंजाम को आग़ाज़ बनाकर लिखता, कभी आग़ाज़ को अंजाम बनाकर, कभी वस्त (बीच) से शुरू करके आग़ाज़ पर ख़त्म करता और कभी वस्त को अंजाम बना देता। बावजूद हज़ारों आपरेशनों के कहानी की कोई शक़्ल अशोक कुमार को पसन्द न आई। मगर मण्टो यही कहता —<br />
<br />
“आप गांगुली को नहीं समझतीं, मैं समझता हूँ। वो मेरी कहानी में ज़रूर काम करेगा।”<br />
<br />
“आप की कहानी में उसका रोल रोमाण्टिक नहीं, बाप का है, वो कभी नहीं करेगा।” <br />
<br />
और मण्टो से फिर लड़ाई होने लगती । मगर अदबी ज़बान से यहाँ अपनी फ़िक्र पड़ी थी। और वही हुआ कि ’ज़िद्दी’ और ’महल’ बन गईं । मण्टो की कहानी रह गई । मण्टो को इस की उम्मीद न थी और उसे बड़ी ज़िल्लत महसूस हुई । वो सब कुछ झेल सकता था, बेक़द्री नहीं झेल सकता था । उधर मुल्क के हालात बिलकुल ही बद्तर हो गए । उसके बीवी-बच्चे उसे पाकिस्तान बुलाने लगे। मण्टो ने हमसे भी चलने को कहा। पाकिस्तान में हसीन मुस्तक़बिल है। वहाँ से भागे हुए लोगों की कोठियाँ मिलेंगी। वहाँ हम ही हम होंगे। बहुत जल्द तरक़्क़ी कर जाएँगे। मेरे जवाब पर मण्टो मुझसे वाक़ई बद-दिल हो गया। इतनी लड़ाइयाँ और झगड़े मेरे उससे हुए मगर यों किसी संजीदा उसूल पर बहस न हुई।<br />
<br />
और उस वक़्त मुझे मालूम हुआ कि मण्टो कितना बुज़दिल है। किसी क़ीमत पर भी वो अपनी जान बचाने को तैयार है। अपना मुस्तक़बिल बनाने के लिए वो भागे हुए लोगों की ज़िन्दगी की कमाई पर दाँत लगाए बैठा है। और मुझे उस से नफ़रत-सी हो गई।<br />
<br />
और एक दिन वो बग़ैर इत्तिला किए और मिले पाकिस्तान चला गया । मुझे बड़ी हतक (अपमान) महसूस हुई । फिर जब उसका ख़त आया कि वो बहुत ख़ुश है, बहुत उम्दा मकान मिला है, कुशादा (खुला हुआ) और ख़ूबसूरत, क़ीमती सामान से आरस्ता (सुसज्जित) । हमें उसने फिर हिलाया था । “ज़िद्दी” ख़त्म हो गई थी और हमने आरज़ू शुरू कर दी थी। बुरे वक़्त आए थे और चले गए थे । उसके फिर दो ख़त आए। उस ने बुलाया था ।<br />
<br />
एक सिनेमा अलॉट करवाने की उम्मीद दिलाई थी । मुझे बड़ा दुख हुआ। उसकी मुहब्बत का पहले भी यक़ीन था। मगर अब तो और भी मान जाना पड़ा। मगर मैंने उसके ख़त फाड़ दिए, इस बात से चिढ़कर कि वो मेरे उसूलों की क़द्र क्यों नहीं करता । मैंने उसे जाने से नहीं रोका, फिर वो मुझे अपने रास्ते पर क्यों घसीट रहा है ।<br />
<br />
फिर सुना मण्टो बहुत ख़ुश है ।<br />
<br />
मकान छिन गया, मगर दूसरा भी ख़ासा अच्छा है ।<br />
<br />
एक लड़की और पैदा हुई ।<br />
<br />
और साल गुज़रते गए। एक लड़की और पैदा हुई । मण्टो का एक ख़त आया — “कोशिश करके मुझे हिन्दुस्तान बुलवा लो।”<br />
<br />
फिर मालूम हुआ मंटो पर मुक़दमा चला और जेल हो गई । हम हाथ पर हाथ रखे बैठे रहे । किसी ने एहतिजाज (विरोध) भी न किया । बल्कि कुछ ऐसा लोगों का रवैय्या था कि अच्छा हुआ जेल हो गई । अब दिमाग़ दुरुस्त हो जाएगा। न कहीं जलसे हुए, न मीटिंगें हुईं, न रेज़ॉल्यूशन पास हुए ।<br />
<br />
फिर मालूम हुआ कि दिमाग़ चल निकला और पागलख़ाने में यार-दोस्त पहुँचा आए हैं। मगर एक दिन मण्टो का ख़त आया। बिलकुल होशो-हवास में लिखा था कि अब बिलकुल ठीक हूँ । अगर मुखर्जी से कहकर बम्बई बुलवा लो तो बहुत अच्छा हो । उस के बाद अरसे तक कोई ख़ैर-खबर नहीं मिली । न ही मेरे ख़त का जवाब आया। फिर सुना कि दोबारा पागलख़ाने चले गए । अब मण्टो की ख़बरों से डर-सा लगने लगा। पूछने की हिम्मत न पड़ती थी। ख़ुदा जाने उसका अगला क़दम कहाँ पड़ा हो। मगर पागलख़ाने से आगे जो क़दम पड़ता है, वो लौट कर नहीं आता। पाकिस्तान से आने वाले लोगों से भी इतनी कड़वी ख़बरें सुनीं कि जी ऊब गया। बेतरह पीने लगे हैं। अपने-पराए हर-एक से पैसा माँग बैठते हैं। अख़बारवाले बिठाकर सामने मज़मून लिखवाते हैं, पेशगी पैसा दो तो सब खा जाते हैं।<br />
<br />
मण्टो का आख़िरी ख़त आया, जिसमें एक मज़मून अपने ऊपर लिखने को कहा था। बेसाख़्ता, मेरी मनहूस ज़बान से निकल गया कि अब तो मरने के बाद ही मज़मून लिखूँगी ।<br />
<br />
और आज मण्टो के मरने के बाद लिख रही हूँ । मण्टो ही नहीं, अरसा हुआ, मेरे और मण्टो के दरमियान बहुत कुछ मर चुका था। आज सिर्फ एक कसक ज़िन्दा है । यह पता नहीं चलता कि किस बात की कसक है । क्या इस बात की नदामत (शर्मिंदगी) है कि वो मर चुका है और मैं ज़िन्दा हूँ ? यह मेरे सीने पर फिर क़र्ज़ जैसा बोझ क्यों है ? मुझे तो मण्टो का कोई क़र्ज़ा याद नहीं। और उस का क़र्ज़ा भी क्या था, यही न कि उस ने मुझे बहन कहा था। मगर बहनें तो खड़ी भाइयों को दम तोड़ता देखती हैं और कुछ नहीं कर पातीं। मरने वाले ज़ख़्म लगा जाते हैं जो न दिखता है न रिसता है, ख़ामोश सुलगता रहता है ।<br />
<br />
आज मुझे सफ़ीया बेतरह याद आ रही है । जी चाहता है एक बार सिर जोड़कर हम दोनों बातें कर सकें जैसे बरसों हुए एडल्फ़ी चेम्बर में किया करते थे। मगर वो थी सुहागरात और पहलू बैठी के बच्चे की बातें, यह हैं मौत की बातें। इसीलिए डरती हूँ और मेरा क़लम ख़ुश्क हो जाता है — न जाने, इन चन्द सालों में उस पर क्या गुज़री है । किस दिल से पूछूँ कि जब सारी दुनिया ने मण्टो को फ़रामोश कर दिया, तब भी तुम्हारी मुहब्बत उस तूफ़ानी हस्ती को सहारा चट्टान बनकर देती रही। या तुम्हारा प्यार थककर निढाल हो चुका था। क्या ये बारह-तेरह बरस का भूचाल तुम्हें झिंझोड़ कर पस्त कर गया या तुम अब भी अपने मण्टो साहब की सफ़ीया रहीं। पास- पड़ोस के मुहज़्ज़ब (शालीन) लोग और रिश्तेदार, जब उस की बद-रवी (बुरी राह चलना) पर नाक-भौं चढ़ाते थे, तो तुम क्या करती थीं ? उन खामोश गेसुओं का तुम्हारे पास क्या जवाब था, जो बेमुरव्वती और लापरवाही से तुम्हारे इर्द-गिर्द मण्डलाया करती थीं। दम तो घुट जाता था। क्या उसने तुम्हारी प्यार भरी गोद में दम तोड़ा या वो तनहा और भरे ख़ानदान में अकेला ही सिधारा। क्या बच्चियाँ अपने बाप को पागल. मुफ़लिस, शराबी समझती थीं। उसने तुम्हें तंगदस्ती और नदामत के सिवाय क्या कुछ भी नहीं दिया। मुझे कुछ भी तो नहीं मालूम। न जाने क्यों, उस की तहरीरों में अपनी ज़िन्दगी का धुंधला-सा भी अक्स नहीं है। वो अपनी मुश्किलों को अपनी कमज़ोरी पर महमूल (लादता) करता रहा। उसने उन्हें ऐब की तरह छिपाया उसे गज़्वा (धर्मयुद्ध) था कि चाहे तो वो दमभर में लाखों कमा कर फेंक दे। जभी तो उसे यक़ीन न आया था कि वो फ़ाक़े भी कर सकता है और उसका क़लम बेकसी से घुटता रहता है। तुम आजिज़ तो नहीं आ गईं अदीबों से ! यों ही ख़ुद घुटते हैं और अपनों को दलदल में घसीटते हैं ! …. और फिर एक दिन अकेला छोड़कर चल देते हैं ।<br />
<br />
तो बहन, यह अदीबों की ही आदत नहीं, हमारे देश के लाखों करोड़ों इनसान इसी तरह ज़िन्दगी में नाकामी और नामुरादी का शिकार होते हैं। चाहे वो अदीब हों या क्लर्क ! उनकी यही ज़िन्दगी है और कम-ओ-बेश यही अंजाम । जो ज़्यादा हस्सास (ख़ुद्दार, संवेदनशील) होते हैं, वो पागल हो जाते हैं और ढीट सिसकते रहते हैं ।<br />
<br />
न जाने दिल क्यों कहता है कि मण्टो की इस जवाँमिर्गी में मेरा भी हाथ है । मेरे दामन पर भी ख़ून के नज़र न आने वाले छींटें हैं, जो सिर्फ़ मेरा दिल देख सकता है । वो दुनिया जिस ने उसे मरने दिया मेरी ही तो दुनिया है । आज उसे मरने दिया और कल यों ही मुझे भी मर जाने की इजाज़त होगी । और फिर लोग मातम करेंगे । मेरे बच्चों का बोझ उनके सीने पर चट्टान बन जाएगा। जलसे करेंगे, चन्दा जमा करेंगे और उन जलसों में अदीम- उलफ़ुरसती (व्यस्तता) की वजह से कोई न आ सकेगा। वक़्त गुजर जाएगा। सीने का बोझ आहिस्ता-आहिस्ता हलका हो जाएगा और वो सब कुछ भूल जाएँगे ।</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%8B_%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A4%BE_%E0%A4%A6%E0%A5%8B%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4_/_%E0%A4%87%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%A4_%E0%A4%9A%E0%A5%81%E0%A4%97%E0%A4%BC%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%88&diff=44051मण्टो मेरा दोस्त / इस्मत चुग़ताई2023-12-02T21:24:29Z<p>अनिल जनविजय: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार= |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatSansmaran}} एडेल्फ़...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
<hr />
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एडेल्फ़ी चैम्बर की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए मुझे घबराहट-सी हो रही थी। जैसे कभी इम्तिहान के हाल में दाख़िल<br />
होने से पहले हुआ करती थी। मुझे वैसे ही नए आदमियों से मिलते घबराहट हुआ करती थी। लेकिन यहाँ तो<br />
वो “नया आदमी” मंटो था जिस से मैं पहली बार मिलने जा रही थी। मेरी घबराहट वहशत की हदों को छूने<br />
लगी। मैंने शाहिद से कहा “चलो वापिस चलें, शायद मंटो घर पर न हो।” मगर शाहिद ने मेरी उम्मीदों पर पानी<br />
फेर दिया।<br />
“वो शाम को घर पर ही रहता है। क्योंकि वो रोज़ शाम को पीता है।”<br />
<br />
यह लीजिए मरे पर सौ दर्रे, एक तो मंटो और वो भी पीता हुआ मंटो। मगर मैंने जी कड़ा कर लिया। ऐसा भी<br />
क्या, मुझे खा तो नहीं जाएगा, होने दो जो उसकी ज़ुबान की नोक पर डांक है, मैं बुलबुला तो हूँ नहीं, जो फूँक<br />
मारी तो बैठ जाऊँगी। चरचराती, गर्द-आलूदा सीढ़ियाँ तय करके हम दोनों दूसरी मंज़िल पर पहुंचे, फ़्लैट का<br />
दरवाज़ा नीम-वा (आधा खुला हुआ) था, ड्रॉइंग रूम नुमा कमरे में एक कोने में सोफ़ा सेट पड़ा था। दूसरी तरफ़<br />
एक बड़ा सा सफ़ेद और सादा पलंग पड़ा था। खिड़की से मिली हुई एक लदी-फदी बड़ी सी मेज़ के सामने<br />
एक बड़ी सी कुर्सी में एक बारीक मकोड़े की शक्ल का इनसान उकड़ूँ मारे बैठा हुआ था। “आएँ आएँ” बड़ी<br />
खंदा-पेशानी (हँसमुख भाव) से मंटो खड़ा हो गया। मंटो हमेशा कुर्सी पर उकड़ूँ बैठा करता था और बहुत<br />
मुख़्तसर नज़र आता था लेकिन जब खड़ा होता था तो खिंच कर उसका क़द ख़ासा निकल आता था। और<br />
बाज़ वक़्त जब मंटो यूँ रेंग कर खड़ा होता था तो बड़ा ज़हरीला मालूम होता था। उसके जिस्म पर खद्दर का<br />
कुरता पैजामा और जवाहर कट सदरी थी।<br />
‘अरे मैं समझता था कि आप निहायत काली-दुबली, सूखी मरियल सी होंगी।’ - उसने दाँत निकाल कर हँसते<br />
हुए कहा। ‘और मैं समझती थी आप निहायत दबंग क़िस्म के, गल्हैर चिंघाड़ते हुए पंजाबी होंगे।’ - मैंने सोचा<br />
रसीद देते चलो, कहीं यह एकदम न हाप्टे पर ले ले।<br />
<br />
और दूसरे लम्हे हम दोनों पूरी तन देही से जुट कर बहस करने लगे जैसे इतने अरसे एक-दूसरे से नावाक़िफ़<br />
रह कर हमने बड़ा घाटा उठाया हो और उसे पूरा करना हो। दो तीन बार बात उलझ गयी लेकिन ज़रा सा<br />
तकल्लुफ़ बाक़ी था लिहाज़ा, दूसरी मुलाक़ात के लिए उठा रखी, कई घंटे हमारे जबड़े मशीनों की तरह<br />
मुख्तलिफ मौज़ूआत पर जुमले करते रहे। और हम ने जल्दी मालूम किया कि मेरी तरह मंटो भी बातें काटने<br />
का आदी है। पूरी बात सुनने से पहले वो बोल उठता है। और जो रहा-सहा तकल्लुफ़ था वो भी ग़ायब हो<br />
गया। बातों ने बहस और बहस ने बा-क़ायदा नोक-झोंक की सूरत इख़्तियार कर ली और सिर्फ चंद घंटों की<br />
जान-पहचान के बल-बूते पर हम ने एक-दूसरे को निहायत अदबी क़िस्म लफ़्ज़ों में अहमक़, झक्की और<br />
कज-बहस कह डाला।<br />
<br />
घमसान के बीच में मैं ने एक बार किनारे हो कर ग़ौर से देखा। मोटे-मोटे शीशों के पीछे लपकती हुई बड़ी-बड़ी<br />
स्याह पुतलियों वाली आँखें, जिन्हें देख कर मुझे बेसाख़्ता मोर के पर याद आ गए, मोर के पर और आँखों का<br />
क्या जोड़? यह मुझे कभी न मालूम हो सका मगर जब भी मैं ने उन आँखों को देखा मुझे मोर के पर याद आ<br />
गए। शायद र’ऊनत (अकड़) और गुस्ताख़ी के साथसाथ उन में बेसाख़्ता शिगुफ़्तगी (ख़ुश-मिज़ाजी) मुझे मोर<br />
के पैरों की याद दिलाती थी। उन आँखों को देख कर मेरा दिल धक् से रह गया। इन्हें तो मैंने कहीं देखा है।<br />
बहुत क़रीब से देखा है क़हक़हा लगाते संजीदगी से मुस्कुराते तंज़ के नश्तर बरसते और फिर निज़ा (मौत,<br />
मरने के पहले की हालत) के आलम में पथराते! वही नाज़ुक हाथ पैर, सिर पर टोकरा भर बाल, पिचके ज़र्द-<br />
ज़र्द गाल और कुछ बेतुके से दाँत, पीते-पीते अचानक मंटो को उच्छू लगा और वह खाँसने लगा, मेरा माथा<br />
ठनका। यह खाँसी तो जानी पहचानी सी थी। उसे तो मैंने बचपन से सुना था। मुझे कोफ़्त होने लगी।<br />
न जाने किस बात पर मैंने कहा।<br />
“यह बिलकुल ग़लत।” और हम बाक़ायदा लड़ पड़े।<br />
“आप कज-बहसी (बेकार की बहस) कर रही हैं।”<br />
“हिमाक़त है यह।”<br />
<br />
“धांदली है इस्मत बहन।”<br />
“आप मुझे बहन क्यों कह रहे हैं?” मैंने चिढ़ कर कहा।<br />
“बस यूँ ही। अमूनन मैं औरतों को बहन कम कहता हूँ। मैं अपनी बहन को भी बहन नहीं कहता।”<br />
“तो फिर मुझे चिढ़ाने को कह रहे हैं।”<br />
“नहीं तो वो कैसे जाना आप ने?”<br />
“इस लिए कि मेरे भाई मुझे हमेशा जलाते, चिढ़ाते और मारते-पीटते रहे या पकड़ कर पिटवाते रहे।” मंटो ज़ोर<br />
से हँसा।<br />
“तब तो मैं ज़रूर आप को बहन ही कहूँगा।”<br />
“तो इतना याद रखिये कि मेरे बारे में मेरे भाइयों के ख़यालात भी कुछ ख़ुशगवार नहीं हैं। यह आप को खाँसी<br />
है, इस का इलाज क्यों नहीं करते?”<br />
“इलाज? डॉक्टर गधे होते हैं। तीन साल हुए, डॉक्टरों ने कहा था साल भर में मर जाओगे, तुम्हें टीबी है। साफ़<br />
ज़ाहिर है कि मैंने न मर कर उन की पेशे-गोई को सच्चा साबित न होने दिया। और अब तो बस मैं डॉक्टरों को<br />
अहमक़ समझता हूँ। उनसे तो मेस्मेरिज़्म और जादू करने वाले ज़्यादा अक़लमंद होते हैं।”<br />
“यही आप से पहले एक बुज़ुर्ग फ़रमाया करते थे।”<br />
“कौन बुज़ुर्ग?”<br />
“मेरे भाई, अज़ीम बेग़, नौ मन मिटटी के नीचे आराम फ़रमा रहे हैं।”<br />
थोड़ी देर हम अज़ीम बेग़ के फ़न पर बहस करते रहे। आए थे सिर्फ़ मुलाक़ात करने, लेकिन बातों में रात के<br />
ग्यारह बज गए। शाहिद जो हमारी झड़पें अलग-थलग बैठे देख रहे थे। भूख से तंग आ चुके थे। मलाड़ पहुँचते-<br />
पहुँचते एक बज जाएगा, लिहाज़ा खाना खा ही लिया जाए। मंटो ने मुझे अलमारी से प्लेटें और चमचे<br />
निकालने को कहा और ख़ुद होटल से रोटी लेने चला गया।<br />
<br />
ज़रा उस बरनी से आचार निकाल लीजिये। मंटो ने तेज़ी से मेज़ पर खाना लगाया और कुर्सी पर उकड़ूँ बैठ<br />
गया। वही मेज़ जो दम भर पहले अदबी कारगुज़ारियों का मैदान बनी हुई थी, एक दम खाने की मेज़ की<br />
ख़िदमात अंजाम देने लगी और बग़ैर किसी से “पहले आप” कहे हम लोगों ने खाना शुरू कर दिया।<br />
बरसों से इसी खाने की आदी हूँ।<br />
खाने के दरमियान गर्मागर्म मुबाहिसा चलता रहा। घूम फिर कर “लिहाफ़” के बख़िया उधेड़ने लगता जो उन<br />
दिनों मेरी दुखती रग बना हुआ था। मैंने बहुत टालना चाहा मगर वो ढिटाई से अड़ा रहा और उस का एक-एक<br />
तार घसीट डाला। उसे बड़ा धक्का लगा यह सुन कर कि मुझे “लिहाफ़” लिखने पर अफ़सोस है, उसने जो<br />
जली-कटी सुना डालीं और मुझे निहायत बुज़दिल और कम नज़र कह डाला।<br />
मैं “लिहाफ़” को अपना शाहकार मानने को तैयार नहीं थी और मंटो मुस्सिर (अपनी बात पर अड़ा) था। थोड़ी<br />
ही देर में “लिहाफ़” से भी बढ़-चढ़ कर हमने बहस कर डाली निहायत खुल कर। और मुझे ताज्जुब हुआ कि<br />
मंटो गन्दी से गन्दी और बेहूदा से बेहूदा बात धड़ से इस माक़ूलियत और भोलेपन से कह जाता है कि ज़रा<br />
झिझक महसूस नहीं होती या वो मोहलत देता ही नहीं। उस की बातों पर घिन्न या ग़ुस्सा नहीं आता। चलते<br />
वक़्त उस ने सफ़ीया का ज़िक्र किया। इतनी देर हम बैठे रहे और मंटो को सफ़ीया की याद ने कई बार<br />
सताया।<br />
“सफ़ीया बहुत अच्छी लड़की है।”<br />
“आप उस से मिलकर बहुत ख़ुश होंगी।”<br />
“बहुत याद आ रही है तो उसे बुला क्यों नहीं लेते?” मैंने कहा।<br />
“अरे…. क्या समझती हो उस के बग़ैर सो नहीं सकता।” वो अपनी असलियत पर उतरने लगा।<br />
“नींद तो सूली पर भी आ जाती है।” मैंने बात टाली और वो हँस पड़ा।<br />
“आप को सफ़ीया से बहुत मुहब्बत है?” मैंने राज़दारी के अंदाज़ में पूछा।<br />
“मुहब्बत!” वो चीख पड़ा, जैसे मैंने उसे गाली दी हो।<br />
“मुझे उस से क़तई मुहब्बत नहीं।” उसने कड़वा मुँह बना कर बड़ी पुतलियाँ घुमाईं। मैं मुहब्बत का क़ायल नहीं।<br />
<br />
“अरे आप ने कभी किसी से मुहब्बत ही नहीं की?” मैंने मस्नू’ई (बनावटी) हैरत से कहा। “नहीं।”<br />
“और आप के कभी गुलसए भी नहीं निकले। ख़सरा भी नहीं हुई। मगर काली खाँसी तो ज़रूर हुई होगी।”<br />
वो हँस पड़ा।<br />
“मुहब्बत से आपका मतलब क्या है?” मुहब्बत तो एक बड़ी लम्बी-चौड़ी चीज़ है। मुहब्बत माँ से भी होती है।<br />
बहन और बेटी से भी… बीवी से भी मुहब्बत होती है। मेरे एक दोस्त को अपनी कुतिया से मुहब्बत है। हाँ, मुझे<br />
अपने बेटे से मुहब्बत थी।<br />
वो बेटे के ख़याल पर उचक कर कुर्सी पर ऊँचा हो गया। ख़ुदा की क़सम इतना सा पैरों चलता था। बड़ा शरीर<br />
था। घुटनों चलता था तो फर्श की दराज़ों में से मिटटी निकाल कर खा लिया करता था। मेरा कहना बड़ा<br />
मानता था।<br />
आम बापों की तर्ज़ मंटो ने अपने बेटे का अजीबो-ग़रीब होने का यक़ीन दिलाना शुरू किया।<br />
“आप यक़ीन कीजिए कि छह-सात दिन का था कि मैं उसे अपने साथ सुलाने लगा। मैं उसे ख़ुद तेल मलकर<br />
नहलाता। महीने का भी नहीं था कि ठहाका मार कर हँसने लगा। बस सफ़ीया को कुछ नहीं करना पड़ता<br />
था। दूध पिलाने के सिवा उस का कोई काम न करती। रात को बस पड़ी सोई रहती। मैं चुपचाप बच्चे को दूध<br />
पिलवा देता। दूध पिलवाने से पहले यूडी-कूलन से या स्परिट से साफ़ कर लेना चाहिए, नहीं तो बच्चे के मुँह<br />
में डेन हो जाते हैं।” - वो बड़ी संजीदगी से बोला और मैं हैरत से उसे देखती रही कि यह कैसा मर्द है जो बच्चे<br />
पालने में मुश्ताक़ है।<br />
“मगर वो मर गया।”, मंटो ने मस्नूई मसर्रत (बनावटी ख़ुशी) चेहरे पर लाकर कहा, “अच्छा जो मर गया। मुझे तो<br />
उसने आया बना डाला था। अगर वो आज ज़िंदा होता तो मैं उसके पोतड़े धोता होता, निकम्मा हो कर रह<br />
जाता, मुझ से कोई काम थोड़े होता। सचमुच इस्मत बहन मुझे उस से इश्क़ था।” चलते-चलते उस ने फिर कहा<br />
कि सफ़ीया आने वाली है, बस जी ख़ुश हो जाएगा आपका उस से मिल कर।”<br />
और वाक़ई सफ़ीया से मिलकर मेरा जी ख़ुश हो गया। मिनटों में हमारी इतनी घुट गई कि सिर जोड़ कर<br />
पोशीदा बातें होने लगीं, जो सिर्फ़ औरतें ही कहती हैं, जो मर्दों के कानों के लिए नहीं होतीं। मुझे और सफ़ीया<br />
<br />
को यूँ सिर जोड़ के खुसर-पुसर करते देख कर मंटो जल गया और ताने देने लगा। उसने पिछले कमरे की चूबी<br />
दीवार (लकड़ी की दीवार) से कान लगाकर हमारी सारी सरगोशियाँ सुन ली थीं। वो शरीर बच्चे की तरह<br />
बोला, “तौबा, तौबा! मेरे फ़रिश्तों को भी ख़बर नहीं कि औरतें भी इतनी गन्दी-गन्दी बातें करती हैं।”<br />
<br />
सफ़ीया के शर्म से गाल लाल हो गए। और आप से तो इस्मत बहन मुझे क़तई उम्मीद थी कि यूँ मुहल्ले की<br />
जाहिल औरतों की तरह बातें करेंगी। कब शादी हुई, शादी की रात कैसे गुज़री, बच्चा कब और कैसे पैदा<br />
हुआ।<br />
तौबा है, वो चिढ़ाने लगा।<br />
मैंने फ़ौरन लगाम लगाई। हद्द है मंटो साहब, मैं आपको इतना तंग नज़र न समझती थी। और आप भी इन<br />
बातों को गन्दी बातें कहते हैं। इन में गन्दगी क्या है? बच्चे की पैदाइश दुनिया का हसीन तरीन हादिसा है और<br />
यह कानाफूसी ही तो हमारा ट्रेनिंग स्कूल है। क्या समझते हैं आप, क्या कालेज में बच्चे देना सिखाया गया है।<br />
वहाँ के बूढ़े प्रोफ़ेसर भी आप की तरह नाक-भौं चढ़ा कर तौबा-तौबा कहते रहे, मुहल्ले की औरतों ही से हमने<br />
ज़िन्दगी के अहमतरीन राज़ जाने हैं।<br />
“यह सफ़ीया सख़्त ज़ाहिल है। अदब-वदब कुछ नहीं समझती, हर बात पर थू-थू करती है। आपकी तहरीरों से<br />
सख़्त ख़फ़ा है। आपका जी नहीं घबराता, इससे घंटे बातों कर के कि क़ोरमे में कितनी हल्दी, उरद की दाल के<br />
दही बड़े… “<br />
ऐ मंटो साहब, क़ोरमे में हल्दी कहाँ पड़ती है। सफ़ीया ने हैबतज़दा (आतंकित) होकर कहा। और मंटो लड़<br />
पड़ा।<br />
वो बज़िद था कि हल्दी हर खाने में पड़नी चाहिए और जो नहीं पड़ती तो यह सरासर ज़ुल्म और नाइंसाफ़ी है।<br />
“मेरा एक राजपूत दोस्त था, वो घी और हल्दी पी कर जाड़ों में कसरत किया करता था। पूरा पहलवान था।”<br />
और हम मुसिर्र (अड़े हुए) थे कि आपका दोस्त घी और हल्दी छोड़ कर कीचड़ पीता था। हम किसी शर्त पर<br />
हल्दी डालने को तैयार नहीं और मंटो को क़ायल होना पड़ा।<br />
<br />
मैं और सफ़ीया अगर पॉँच मिनट के इरादे से भी मिलते तो पाँच घंटे का प्रोग्राम हो जाता, मंटो से बहस करके<br />
ऐसा मालूम होता जैसे ज़हनी क़ुवत्तों पर धार रखी जा रही है। जाला साफ़ हो रहा है, दिमाग़ में झाड़ू-सी दी जा<br />
रही है और बाज़ औक़ात (वक़्त का बहुवचन) बहसें इतनी तवील और घनदार हो जातीं कि मालूम होता बहुत<br />
से कच्चे सूत की पूनियाँ उलझ गई हैं और वाक़ई सोचने और समझने की क़ुव्वत पर झाड़ू फिर गई। मगर<br />
दोनों बहसे जाते, उलझे जाते, बदमज़गी पैदा होने लगती। मुझे शिकस्त को छुपाने का मलका (हुनर) था मगर<br />
मंटो रुआँसा हो जाता। आँखें मोर पंखों की तरह तन कर फैल जातीं, नथुने फड़कने लगते। मुँह कड़वा-कसैला<br />
हो जाता और वो झुँझला कर अपनी हिमायत में शाहिद को पुकारता। और जंग अदब या फ़लसफ़े से पलट<br />
कर घरेलू सूरत अख़्तियार कर लेती। मंटो भन्ना कर चला जाता। शहीद मुझ से लड़ते कि तुम मेरे दोस्त से<br />
इतनी बदतमीज़ी से क्यों बातें करती हो। मंटो आज ख़फ़ा हो कर गया है, अब वो हमारे यहाँ नहीं आएगा और<br />
न मेरी हिम्मत है कि उसके यहाँ जाऊँ, वह बद्तमीज़ आदमी है। कुछ कह बैठेगा तो मेरी उस की पुरानी दोस्ती<br />
ख़त्म हो जाएगी।<br />
और मुझे कभी महसूस होता कि वाक़ई मैंने मंटो को कड़वी बात कह दी। मुमकिन है रूठ जाए और सफ़ीया<br />
की दोस्ती भी ख़त्म हो जाए। जो अब मंटो से ज़्यादा गहरी हो गई थी। मंटो की ख़ुद्दारी र’उनत की सरहदों को<br />
पहुँची हुई थी। वो अपने दोस्तों पर रौब जमाने का बड़ा शौक़ीन था। और अगर… दोस्तों के सामने जिन को वह<br />
मरऊब (मुतास्सिर, प्रभावित) कर चुका हो कोई उस का मज़ाक़ बना दे तो वह बुरी तरह चिढ़ जाया करता था।<br />
उस का ख़याल था कि आपस में वह और मैं एक दूसरे को कह-सुन सकते हैं मगर “आम लोगों” के सामने<br />
एक दूसरे पर चोटें नहीं करनी चाहिएँ। वह ज़्यादातर अपने मिलने वालों की ज़हनी सतह को अपने से नीचा<br />
समझता था।<br />
<br />
लेकिन सुब्ह लड़ाई होती और इत्तिफ़ाक़ से शाम को फिर मुलाक़ात हो जाती तो वह इस क़दर जोश से<br />
मिलता जैसे कुछ हुआ ही न हो! वैसे ही घुलमिल कर बातें होतीं। थोड़ी देर हम एक दूसरे से बड़े और ज़रूरत से<br />
<br />
ज़्यादा नरमी से बोलते। हर बात पर हाँ में हाँ मिलाते। मगर मेरा जल्दी ही इस तस्बी से दिल उकता जाता और<br />
उस का भी और फिर चलने लगती दोनों तरफ से आतिशबाज़ी और गोलियों की मुस्तैदी आ जाती। कभी<br />
लोग हम दोनों को यूँ उलझा कर मज़ा लेने लगते और हम सुलह कर एक दूसरे से मिल जाते। हम बहस करते<br />
थे अपनी दिलचस्पी के लिए न कि इस के लिए कि बटेर बन के लुत्फ़ पैदा करते। मंटो की यही राय थी कि<br />
घर पर चाहे जितनी उलटी-सीधी बहस कर लें मगर मह्किलों में हमें मोर्चा बना कर जाना चाहिए और हमारा<br />
मोर्चा इतना मज़बूत होगा कि लोगों के छक्के छुड़ा देगा। मगर मुझे अमूनन मोर्चे से अपनी वफ़ादारी का<br />
एहसास न रहता और मोर्चा भिड़ों के छत्ते की तरह फुंकारने लगता।<br />
<br />
यह मुझे कभी न मालूम हो सका कि मंटो पीकर बहकता है या बहक कर पीता है।मैंने उस की चाल में<br />
लड़खड़ाहट या ज़बान में लकनत न पाई। मुझे तो कभी कोई फ़र्क़ ही नहीं महसूस हुआ। हाँ बस इतना मालूम<br />
होता था कि जब ज़्यादा पिए तो यह यक़ीन दिलाने की कोशिश करता था कि वह बिलकुल नशे में नहीं और<br />
जान को आ जाता था।<br />
“मैं आप से सच कहता हूँ इस्मत बहन। मैं बिलकुल नशे में नहीं और मैं आज पीना छोड़ सकता हूँ। मैं जब चाहूँ<br />
पीना छोड़ दूँ आप शर्त लगाएँ।”<br />
“मैं शर्त नहीं लगाऊँगी क्योंकि आप हर जाएँगे। आप पीना नहीं छोड़ सकते… और आप नशे में हैं।”<br />
क्या-क्या मंटो सबूत देता कि वह नशे में नहीं और इसी वक़्त पीना छोड़ सकता है। सिर्फ़ शर्त लगाने की देर<br />
है। एक दिन तंग आकर मुझे शर्त लगनी पड़ी और मंटो शर्त हार गया। मैं जीत गई। मगर क्या? शर्त तो लगी<br />
थी लेकिन कोई मुक़र्रर न हुई थी। उस के बाद मंटो को जब बहुत चढ़ी जाती और वह शर्त लगाने पर अड़<br />
जाता और सिवाय लगा ने के गलू ख़ुलासी नज़र न आती तो हार कर मुझे शर्त लगाना ही पड़ती।<br />
<br />
मंटो को ख़ुद-सताई की आदत थी। मगर अमूनन मेरे सामने होने पर साथ मुझे भी घसीट लिया करता था।<br />
<br />
और उस वक़्त मेरे और अपने सिवा दुनिया में किसी को अदीब न मानता। ख़ास तौर पर कृष्ण चन्दर और<br />
देवेन्द्र सत्यार्थी के ख़िलाफ़ हो जाता। अगर उन की तारीफ़ करो तो सुलग उठता। मैं कहती आप कोई<br />
तनक़ीद-निगार आलोचक) तो हैं नहीं जो आप की बात मानी जाए और वह तनक़ीद निगारों को जली-कटी<br />
सुनाने लगता। एक सिरे से उनके वजूद को कम क़ाइल समझता ख़ास तौर पर अदब के लिए।<br />
“बकवास करते हैं यह लोग।” वह जल कर कहता। जो यह कहते हैं बस उसका उल्टा करते जाओ यही लोग जो<br />
एतराज़ करते हैं छुप-छुप कर मेरी कहानियाँ पढ़ते हैं और उन से कुछ सीखने के बजाय लुत्फ़ अन्दोज़ होते हैं<br />
और फिर उस लुत्फ़ की याद पुर नादम हो कर ऊलजुलूल लिखते हैं। वह कभी इतना चिढ़ जाता कि मैं उसे<br />
तसल्ली देने को कहती जब आप को यक़ीन है कि यह उलजुलूल लिखते तो आप उन का जवाब क्यों देने<br />
लगते हैं। अगर तनक़ीद से आप को मदद नहीं मिलती तो न लीजिए मगर राय-ए-उलमा को मत’ऊन (रुसवा)<br />
न कीजिए। मगर वो भन्नाता रहा।<br />
एक दिन बड़ी संजीदा सूरत बनाए आए और कहने लगे।<br />
“मुक़दमा दायर करेंगे।”<br />
मैंने कहा, “क्यों”<br />
कहने लगे “हम यानी मैं और आप इस मर्दवर्द ने मेरी और आप की कहानियाँ एक मजमूए (संकलन) में यह<br />
लिख कर छापी हैं कि फ़हश अश्लील) हैं; ऐसे अदब से मुल्क को बचाना चाहिए। अब उस कमबख़्त से पूछो<br />
कि कैसी उलटी बात कर रहा है। एक तो वो उन्हें किताब में छाप कर मुश्तहर कर रहा है दूसरे पैसे कमाने का<br />
अलग इंतज़ाम कर रहा है। उस ने हमारी इजाज़त के बग़ैर क्यों कहानियाँ छापी हैं उसे नोटिस दिलवा रहा हूँ<br />
कि हरजाना दे। फिर न जाने भूलभाल गए।<br />
मंटो अपनी डींगों से ज़्यादा मेरे सामने दोस्तों की शेख़ी बघारा करता था। रफ़ीक़ ग़ज़नवी से कुछ अजीब<br />
क़िस्म की मुहब्बत थी जो समझ में न आती। जब उस का तज़किरा (ज़िक्र) किया यही कहा, “बड़ा बदमाश<br />
लफ़ंगा है एक-एक कर के चार बहनों से शादी कर चुका है। लाहौर की कोई रंडी ऐसी नहीं जिस की उस ने<br />
अपने जूते पर नाक न घिसवाई हो।”<br />
<br />
बिलकुल रफ़ीक़ का ऐसे ज़िक्र करता जैसे बच्चे बड़े भैया का ज़िक्र करते हैं। उस के इश्क़ों के क़िस्से<br />
तफ़सीलियों से सुनाया करता। एक दिन मुझे उस से मिलाने को कहा। मैंने कहा क्या करुँगी मिल कर, आप<br />
तो कहते हैं लफ़ंगा है वो।<br />
कहने लगे अरे जब ही तो मिला रहा हूँ। यह आप से किस ने कहा कि लफ़ंगा और बदमाश बुरा आदमी होता<br />
है। रफ़ीक़ निहायत शरीफ़ आदमी है।<br />
मैंने कहा, “मंटो साहब लफ़ंगा, शरीफ़, बदमाश यह आख़िर कैसा आदमी है, मेरी समझ में नहीं आता। आप<br />
मुझे जितना ज़हीन और तजरबेकार समझते हैं, शायद मैं वैसी नहीं।<br />
“आप बनती हैं।” मंटो ने बुरा मान कहा कि जभी तो आप को रफ़ीक़ से मिलाना चाहता हूँ..... बड़ा दिलचस्प<br />
आदमी है। कोई औरत बग़ैर आशिक़ हुए नहीं रह सकती।<br />
“मैं भी तो औरत हूँ।” मैंने फ़िक्रमंद बन कर कहा। और वह खिसियाना हो गया।<br />
“मैं आप को अपनी बहन समझता हूँ।”<br />
“मगर आप की बहन भी तो औरत हो सकती है।” मंटो ने क़हक़हा लगाया।<br />
“हो सकती है! यह ख़ूब कहा” मगर मंटो को ज़िद हो गयी। “आप को उस से मिलना पड़ेगा। देखिए तो सही।”<br />
“मैं उसे स्टेशन पर देख चुकी हूँ। आप ने कान भर दिए थे कि मैं भाग आई कि कहीं कमबख़्त पर आशिक़ न<br />
होना पड़े।”<br />
और रफ़ीक़ से मिलने के बाद मुझे मालूम हो गया कि मंटो का मुतालआ कितना गहरा है। बावजूद दुनिया के<br />
सातों ऐब करने के रफ़ीक़ में वह सारी खूबियाँ मौजूद हैं जो एक मुहज़्ज़ब इनसान में होना चाहिएँ। वह एक<br />
अजीब बदमाश हो सकता है। साथ ही निहायत ईमानदार और शरीफ़ भी। यह कैसे और क्यों? यह मैंने<br />
समझने की कोशिश न की यह मंटो का मैदान है वह दुनिया के ठुकराई घूरे पे फेंकी हुई ग़लाज़त में से मोती<br />
चुन कर निकाल लाता है। घोरा कुरेदने का उसे शौक़ है क्योंकि दुनिया के सँवारने वालों पे उसे भरोसा नहीं।<br />
उन की अक़्ल और फ़ैसले पर भरोसा नहीं। उन की शरीफ़ और पाकबाज़ बीवियों के दिल के चोर पकड़ लेता<br />
<br />
है और कोठे में रहने वाली रंडी के दिल के तक़द्दुस (पवित्रता) से मवाज़ना (तुलना) करता है। इत्र में डूबी हुई ऐश<br />
पसंद दुल्हन से मैल और पसीने सड़ती हुई घाटिन ज़्यादा ख़ुशबूदार मालूम होती है। “बू” में हालाँकि जिस्म ही<br />
जिस्म है। ग़ौर से देखिए तो जिस्म के अंदर रूह भी है। बेश परस्त तब्क़ा की फटे हुए दूध की तरह फुलकेदार<br />
रूह और कुचले हुए तबक़े की तसन्नु (दिखावा) से दूर असलियत। अगर तब्क़ाती तफ़रीक़ (वर्गीय भिन्नता) का<br />
सवाल नहीं तो हम इसे क़त्तई तौर पर जिस्मानी सवाल भी नहीं कह सकते। मंटो के ज़हन में ज़रूर दो तबकों<br />
के फ़र्क़ का ख़याल था और वह उस बुत को जिसकी दुनिया पूजा करे, ज़मीन पर पटख़ने में बड़ी बहादुरी<br />
महसूस करता था।<br />
वो हमेशा अपने बदमाश दोस्तों के कारनामे फ़ख़्रिया सुनाया करता। एक दिन मैंने जलाने को कह दिया लोग<br />
झूठ बोलते हैं। असल में न हज़ारों रंडियों से उन का ताल्लुक़ रहा और न ही उन्होंने कभी किसी औरत की<br />
आबरू-रेज़ी की और वो तरह-तरह से मुझे यक़ीन दिलाने लगा कि यह लोग वाक़ई बदमाशियाँ करते हैं इतनी<br />
ही नहीं, बल्कि उस से ज़्यादा।<br />
“सब झूठ!” मैं धांधली करने लगी।<br />
“अरे आप को यक़ीन क्यों नहीं आता। बाज़ार में जो चाहे जा सकता है।”<br />
“मगर उन लोगों की हिम्मत नहीं जो तवायफ़ों के कोठे पर जा सकें। बहुत करते होंगे गाना सुन कर चले आते<br />
होंगे।”<br />
“मगर मैं ख़ुद गया हूँ रंडी के कोठे पर।”<br />
“गाना सुनने।” मैंने चिढ़ाया।<br />
“जी नहीं। अपने दाम वसूल करने, और हमेशा मेरे दाम वसूल हो गए। फिर भी मैंने कहा, “मैं नहीं यक़ीन<br />
करती।”<br />
“वो क्यों?” वो उठकर बिलकुल मेरे सामने क़ालीन पर उकड़ूँ बैठ गया।<br />
“बस मेरी मर्ज़ी। आप मेरे ऊपर रोब डालना चाहते हैं।”<br />
“भई ख़ुदा की क़सम मैं कहता हूँ मैं गया हूँ।”<br />
<br />
“ख़ुदा पर आप को यक़ीन नहीं बेकार उसे न घसीटिये।”<br />
ख़ूब क़हक़हे लगाए और फिर चुपके से कहा, “मगर अब तो मान जाओ।”<br />
मैंने कहा, “क़तई नहीं।”<br />
मुझे नहीं मालूम मंटो को तजुर्बा था या जो कुछ उसने रंडी के बारे में लिखा वो उसके अपने उसूल और यक़ीन<br />
की बिना पर है क्योंकि अगर वो रंडी के कोठे पर गया भी होगा तो वहाँ रंडी से ज़्यादा उस ने एक औरत का<br />
दिल देखा होगा जो बावजूद यह कि मोरी का कीड़ा है मगर ज़िन्दगी की क़द्रों को प्यार करती है। अच्छे और<br />
बुरे को नापने के जो पैमाने आम तौर पर बना दिए गए हैं वो उन्हें तोड़-फोड़ कर अपनी बनाई तौल से उन का<br />
अंदाजा लगाता था, ख़ोशिया जैसे ढीट और निकम्मे इनसान की रगे-हमीयत (निष्ठा भाव- sense of honour)<br />
भी फड़क सकती है।<br />
“गोपी नाथ” जैसा रक़ीक़ (नरम, कोमल) इनसान भी देवताओं पर बाज़ी लगा सकता है, बुलंद-ओ-महान<br />
देवता भी सरनिगूँ (झुक) हो सकते हैं। क़ौमी रज़ाकार बदकार भी हो सकते हैं और लाश से ज़िना (सम्भोग)<br />
करनेवाला ख़ुद लाश भी बन सकता है।<br />
कभी-कभी मेरा और मंटो का झगड़ा इतना सख़्त हो जाता कि डोर टूटती मालूम होती। एक दिन किसी बात<br />
पर ऐसा चिढ़ा कि आँखों में ख़ून उतर आया, दाँत पीस कर बोला, “आप औरत हैं वरना ऐसी बात कहता कि<br />
दाँत खट्टे हो जाते।”<br />
“दिल का अरमान निकाल लीजिए, मुरव्वत की ज़रूरत नहीं।” मैंने चिढ़ाया।<br />
“अब जाने भी दीजिए कोई मर्द होता तो बताते।”<br />
“बता भी दीजिए। ऐसे कौन-कौन से तीर तरकश में बाक़ी रह गए हैं निकाल भी दीजिए।”<br />
“आप झेंप जाएंगी।”<br />
“क़सम ख़ुदा की नहीं झेपूँगी।”<br />
“तो आप औरत नहीं।”<br />
<br />
“क्यों क्या औरत के लिए झेंपना अशद (बहुत) ज़रूरी है। चाहे झेंप आए या न आए? बड़ा अफ़सोस है मंटो<br />
साहब आप भी औरतों और मर्दों के लिए अलग-अलग उसूल बनाते हैं। मैं समझती थी आप “आम लोगों”<br />
की सतह से बुलंद हैं।”, मैंने मस्का लगाया।<br />
“तो फिर कहिये न वो झेंपा देने वाली बात।”<br />
“अपने मरहूम (मृत) बच्चे की क़सम खाता हूँ मैं एक बार नहीं बल्कि…”<br />
“मरहूम बच्चे को अब झूठी क़सम खा कर क्या नुक़सान पहुँचा सकते हैं।”<br />
और मंटो वहीं फसकड़ा (पालथी) मारकर बैठ गया कि आज तो मनवा कर रहूँगा कि मैं रंडीबाज़ हूँ।<br />
सफ़ीया की गवाही दिलवाई। मैंने दो मिनट में सफ़ीया को चित कर दिया कि मुमकिन है यह तुमसे कह कर<br />
गए हों कि रंडी के यहाँ जा रहे हैं। और अगर गए भी हों तो सलाम कर के चले आए होंगे। सफ़ीया चुप-सी हो<br />
गयी। “अब यह तो नहीं कह सकती कि सलाम कर के आ गए या…” वो अजब गोमगो (असमंजस) में रह गयी।<br />
मंटो ने जोश में कुछ ज़्यादा तेज़ी से पी डाली और बुरी तरह लड़ने लगा कि यह तो आज मनवाकर छोड़ूँगा कि<br />
मैं पक्का रंडीबाज़ हूँ और मैंने कह दिया आज इधर की दुनिया उधर हो जाए मैं मान के दूँगी नहीं।<br />
एक तो नशा दूसरे मंटो के मिज़ाज की जबिल्ली (स्वाभाविक) तल्ख़ी। अगर बस चलता तो मेरा मुँह नोच<br />
लेता।<br />
सफ़ीया ने बिसूरकर (सिसककर) कहा, “बहन मान जाओ।” शाहिद ने कहा बस अब घर चलो। मगर मंटो ने<br />
शाहिद की टाँग लेनी शुरू की और कह दिया कि बग़ैर क़ायल हुए जाने नहीं दूँगा। ख़ासा हंगामा हो गया।<br />
बड़ी संजीदगी से मंटो ने शाहिद से कहा चलो रंडी के यहाँ अभी इसी वक़्त आज मैं क़ायल न कर दूँ तो मैंने माँ<br />
का दूध नहीं, सुअर का दूध पिया। मगर मैंने और चिढ़ाया, “आप जाएँ-वाएँगे नहीं यहीं भायकला ब्रिज पर घूम<br />
कर आ जाएँगे और हम यक़ीन नहीं करेंगे क्या फ़ायदा।”<br />
अब तो मंटो के सिर में लगी एड़ी में जाकर शायद ही बुझी हो। ग़ुस्सा ज़ब्त करके पूछा, “फिर कैसे यक़ीन<br />
दिलाया जाए?”<br />
मैंने कहा, “हमें यानी मुझे और सफ़ीया को भी साथ ले चलिए।”<br />
<br />
“मैं नहीं जाऊँगी,”, सफ़ीया बिगड़ी। “तुम्हारा तो दिमाग़ खराब हुआ है तुम ही जाओ।”<br />
“जाएगी कैसे नहीं,” मंटो ग़ुर्राया।<br />
“चलो, चलो” …. सफ़ीया को हमने आँख मारी और चारों चले। दरवाज़े से हम दोनों तो निकल आए। मंटो को<br />
सफ़ीया ने न जाने कैसे क़ाबू में किया। दूसरी दफ़ा जब मुलाक़ात हुई तो मैंने पूछा, “अभी भी ग़ुस्सा हैं?<br />
“नहीं। अब ग़ुस्सा उतर गया।”, वह हँस कर बोला।<br />
अच्छा दोस्ती में ही बताइए वो कौन सी ख़तरनाक बात थी। “कुछ नहीं अब कुछ याद नहीं रहा। कोई ख़ास<br />
बात नहीं थी। शायद कोई मोटी-सी गाली देता बस।”<br />
“बस?”, मैंने नाउम्मीद हो कर कहा।<br />
“या शायद किसी के झाँपड़ मारता।” नादम हो कर बोला।<br />
“मुझ पर कुछ असर न होता मैंने ऐसी खेम-शेम गालियाँ सुनी हैं कि हद नहीं और मेरे थप्पड़ भी ख़ासे ज़ोर के<br />
पड़ जाते हैं। मगर पहली दफ़ा आप ने औरत समझ कर रिआयत की मेरे भाई तो लगा चुके हैं कई बार।” और<br />
हमारा मिलाप हो गया।<br />
एक दिन दफ़्तर में गर्मी से परेशान होकर मैंने सोचा जाकर मंटो के यहाँ आराम कर लूँ फिर वापस मलाड़<br />
जाऊँ। दरवाज़ा हस्बे-मामूल (हमेशा की तरह) खुला हुआ था, जाकर देखा तो सफ़ीया मुँह फुलाए लेटी है।<br />
मंटो हाथ में झाड़ू<br />
लिए सटासट पलंग के नीचे हाथ मार रहा है। और नाक पर कुर्ते का दामन रखे मेज़ के नीचे झाड़ू चला रहा है।<br />
यह क्या कर रहे हैं। मैंने मेज़ के नीचे झाँक कर पूछा।<br />
क्रिकेट खेल रहा हूँ। मंटो ने बड़ी-बड़ी मोरपंख जैसी पुतलियाँ घुमा कर जवाब दिया।<br />
“यह लीजिए! हमने सोचा था ज़रा आप के यहाँ आराम करेंगे तो आप लोग रूठे बैठे हैं। मैंने वापस जाने की<br />
धमकी दी।<br />
“अरे!” सफ़ीया उठ बैठी। “आओ, आओ।”<br />
“काहे का झगड़ा था?” मैंने पूछा।<br />
<br />
“कुछ नहीं मैंने कहा खाना पकाना गृहस्थी वग़ैरह मर्दों का काम नहीं। बस जैसे तुमसे उलझते हैं मुझ से भी<br />
उलझ पड़े कि क्यों नहीं मर्दों का काम मैं अभी झाड़ू दे सकता हूँ। मैंने बहुत रोका तो और लड़े, कहने लगे ऐसा<br />
ही है तो तलाक़ ले ले।” सफ़ीया ने बिसूरकर कहा।<br />
मंटो से झाड़ू छुड़ाने के लिए मैंने बनकर खाँसना शुरू किया। “सुबह ही सुबह म्युनिसिपेलिटी के भंगी ने सहन<br />
(चौक, आँगन) साफ़ करने के बहाने धूल हलक़ में झोंकी अब आप अरमान निकाल लीजिए।”<br />
“गर्मी से जान निकल रही है।”<br />
जल्दी से झाड़ू छोड़कर मंटो होटल से बर्फ़ लाने चला गया। सफ़ीया हंडिया बघारने चली गयी। बर्फ़ लाकर<br />
मंटो ने तौलिया दीवार पर मार-मारकर बर्फ़ तोड़ी और प्लेट में भरकर सामने रख दी और उकड़ूँ बैठ गया।<br />
“और सुनाइए।”<br />
उसने हस्बे-आदत कहा। हांडी के बघार से मुझे ज़ोर से उबकाई आयी। “उफ़्फ़ुह सफ़ीया क्या मुर्दा जला रही<br />
है।” मैंने नाक बंद करके कहा। मंटो ने चौंक कर मुझे देखा सिर से पैर तक बड़ी-बड़ी पुतलियाँ घुमाईं और<br />
छलांग मार कर झपटा। बावर्चीख़ाने में सफ़ीया चीख़ती रही और उसने फिर लोटा पानी पतीली में झोंक<br />
दिया। वापस आकर वो सहमा-सहमा सा कुर्सी पर बैठ गया और फिर झेंप कर हँस दिया।<br />
मैं बेवक़ूफ़ों की तरह देखती रही।<br />
सफ़ीया बड़बड़ाती आयी तो उसे ज़ोर से डाँटा और फिर बड़े शर्मीले अंदाज़ से बोला, “आप के पेट में बच्चा है?<br />
जैसे बच्चा मेरे नहीं ख़ुद उनके पेट में हो।”<br />
“मैंने फ़ौरन ताड़ लिया। जब सफ़ीया के पेट में बच्चा था तो उसे भी बघार से उबकाई आती थी।”<br />
“मंटो साहब ख़ुदा के लिए दाइयों जैसी बातें बातें न करें।” मैंने चिढ़ाकर कहा। वो ज़ोर से हँसा।<br />
“अरे वाह। इस में क्या बुराई है। अरे आप को खटई जैसी चीज़ें भाती होंगी। मैं अभी कैरियाँ लाता हूँ।” वो<br />
लपक कर नीचे गया और कुर्ते के दामन में बच्चों की तरह कैरियाँ भर के ले आया। कैरियाँ छीलकर बड़ी<br />
नफ़ासत से नमक-मिर्च लगाकर मुझे दीं और ख़ुद उकड़ूँ बैठ मुझे ग़ौर से देखकर मुस्कुराता रहा।<br />
<br />
“सफ़ीया अरे सफ़िया” वो चिल्लाया। सफ़ीया धुँए से अटी आँखें आँचल से पोंछती आयी। “क्या है मंटो<br />
साहब कितना चिल्लाते हो।”<br />
“अरे बेवक़ूफ़। इनका पैर भारी है।” उसने सफ़ीया की कमर में हाथ डालकर कहा।<br />
“उफ़ गन्दगी की इंतिहा है। जभी तो आप को लोग फ़हश-निगार कहते हैं।”, मेरे इस बिगड़ने पर मंटो ख़ूब<br />
चहका और बड़ी-बूढ़ियों जैसे मशवरे देने लगा।<br />
पेट पर ज़ैतून के तेल की मालिश से खरोंचे नहीं पड़ेंगी।”<br />
“निहार (बासी) मुँह सेब का मुरब्बा खाने से उबकाई नहीं आती।”<br />
“खोपरा खाने से बच्चा गोरा होगा और आसानी से होगा।”<br />
“जाड़े में बर्फ़ न चबाइएगा, नले सूख़ जाते हैं। क्यों सफ़ीया?”<br />
“हटो मंटो साहब कैसी बातें करते हो।” सफ़ीया खिसिया कर रह गयी। और जब सीमा पैदा हुई तो सफ़ीया मेरे<br />
पास बैठी काँपती रही। मगर बच्ची को देखकर मंटो को अपना बेटा बहुत याद आया। वो देर तक मुझे उसकी<br />
छोटी-छोटी शरारतें बताता रहा। सफ़ीया का दिल पिघल गया और साल के अंदर-अंदर मंटो की बड़ी बेटी<br />
पैदा हो गयी। पूना से आने के बाद मुझे मालूम हुआ, मैं फ़ौरन गई, पर मंटो ने मकान बदल लिया था। ढूँढ़ढांढ़<br />
कर नए मकान पहुँची तो देखा ड्राइंग रूम में अलगनी पर पोतड़े निचोड़-निचोड़ कर फैला रहे हैं। नया मकान<br />
बहुत छोटा और बग़ैर हवा का था। मंटो ने इसलिए बदल लिया कि उसका फ़र्श गन्दा था, बच्ची घुटनों चलती<br />
तो फाँस लग जाती। और मिट्टी चाट जाती। यहाँ निकहत मज़े से फ़र्श पर खेल सकेगी। हालाँकि निकहत चंद<br />
हफ़्तों की थी।<br />
<br />
मुझे बच्चे सख़्त नापसंद हैं। मंटो संजीदगी से कहता। जान को चिमट जाते हैं, मुझे उन से इसलिए डर लगता<br />
है। हर वक़्त उन्हीं का ख़याल रहता है, किसी काम में दिल नहीं लगता। वो दूध की बोतल धोकर फ़लसफ़े<br />
छाँटता। मेरी भतीजी मीनू उसे बड़ी प्यारी थी। घंटों उस के साथ गुड़ियों और हिंडोलों की बाते किया करता।<br />
फ़रमाइश पर खिड़की से बाँस डालकर उसके लिए इमलियाँ तोड़कर नीचे से कुर्ते के दामन में समेट लाता।<br />
<br />
सीमा को पॉट पर बैठाकर शी-शी करता। और बच्चों का बहुत शाकी (किसी अप्रिय आचरण या व्यवहार या<br />
बात के विरूद्ध अप्रसन्नता या खेद प्रकट करने वाला) था क्योंकि वो उनकी मुहब्बत में बेबस हो जाता था।<br />
<br />
एक दिन जब हम मलाड़ में रहते थे, रात के कोई साढ़े बारह होंगे कि दरवाज़े पर दस्तक हुई। मालूम हुआ<br />
सफ़ीया साँस फूली हुई सी खड़ी हैं। मैंने पूछा क्या हुआ? बोली, “मैंने मना किया कि ऐसी हालत में किसी के<br />
घर नहीं जाना चाहिए मगर वो कहाँ सुनते हैं। मंटो निदा जी और ख़ुर्शीद अनवर के साथ आ गए।<br />
“यह सफ़ीया कौन होती है मना करने वाली।” हाथ में बोतल और गिलास लिए तीनो अंदर आए। शाहिद ने<br />
पार्टी को लाबेक (एक प्रार्थना- मैं आपकी ख़िदमत में हाज़िर हूँ) कहा। तय हुआ बहुत भूखे हैं, होटल सब बंद<br />
हो चुके हैं। रेल का वक़्त गुज़र गया। कुछ मिल जाए तो ख़ुद पका कर खा लें। बस आटा-दाल दे दो। ख़ुद<br />
बावर्चीख़ाने में जाकर पका लेंगे।<br />
सफ़ीया को मर्दों का रोटी पकाना न भाया। मगर वो कहाँ मानते थे। बावर्चीख़ाने पर चढ़ाई कर दी। मंटो<br />
आटा गूँधने लगे। निदा जी अंगीठी पर टूट पड़े और ख़ुर्शीद अनवर को आलू छीलने के लिए दे दिए गए जो<br />
छीलने से ज़्यादा कच्चे खाने पर मुस्सिर (तुले हुए) थे और फिर बोतल भी बावर्चीख़ाने में आ गई। यह लोग<br />
चौका मर कर वहीं बैठ गए और कच्चे-पके पराठे पकाते गए, खाते गए। मंटो ने आटा बहुत अच्छा गूँधा था<br />
और बड़े सलीक़े से रोटी पका ली और फिर झट से पुदीने की चटनी में डाली। खाना खाकर यह लोग वहीं<br />
फैल कर सो भी जाते अगर ज़बरदस्ती बरामदे तक न घसीटा जाता। यह ज़िन्दगी थी जो मंटो को सब से<br />
ज़्यादा दिलचस्प मालूम होती थी। उस ज़माने में लाहौर गवर्नमेंट ने मेरे और मंटो पर मुक़दमा चला दिया।<br />
मंटो की देरीना (पुरानी) आरज़ू बर आई। लाहौर में भी लुत्फ़ आ गया। ख़ूब दावतें उड़ाईं। इसी बहाने लाहौर<br />
की ज़ियारत (तीर्थयात्रा) हो गई। ज़री के जूते ख़रीदने हम दोनों साथ गए। मंटो के पैर नाज़ुक और सफ़ेद थे।<br />
जैसे कँवल के फूल, ज़री के जूते बहुत जँचने लगे।<br />
“मेरे पैर बड़े भद्दे हैं। मैं नहीं ख़रीदूँगी। इतने ख़ूबसूरत जूते।”, मैंने कहा।<br />
“और मेरे पैर इतने ज़नाने हैं कि मुझे इन से शर्म आती हैं।” मगर हमने कई जूते ख़रीदे।<br />
<br />
“आप के पैर बहुत ख़ूबसूरत हैं।”, मैंने कहा।<br />
“बकवास हैं मेरे पैर। लाइए बदल लें।”<br />
“बदलना ही हैं तो लाइए सिर बदल लें,” मैंने राय दी।<br />
“बख़ुदा मुझे कोई एतराज़ नहीं”, मंटो ने चहक कर कहा।<br />
मुहब्बत के मसले पर कितनी ही झड़पें हुईं मगर हम किसी फ़ैसले पर नहीं पहुँच सके।<br />
वो यही कहता, “मुहब्बत क्या होती है। मुझे अपने ज़री के जूते से मुहब्बत है। रफ़ीक़ को अपनी पाँचवीं बीवी से<br />
मुहब्बत है।”<br />
“मेरा मतलब उस इश्क़ से है जो एक नौजवान को एक दोशीज़ा से हो जाता है।”<br />
“हाँ…. मैं समझ गया।”, मंटो ने दूर माज़ी के धुंधलके में कुछ टटोल कर सोचते हुए ज़रूर कहा। “कश्मीर में एक<br />
चरवाही थी। “<br />
“फिर?”, मैंने दास्तान सुनने वालों की तरह हुंकारा दिया।<br />
“आप मुझे इतनी गन्दी बातें तो बता देते हैं और आज आप शरमा रहे हैं।” “कौन गधा शरमा रहा है।”, मंटो ने<br />
वाक़ई शरमा कर कहा… बड़ी मुश्किल से उसने बताया कि बस जब वो मवेशी हाँकने के लिए अपनी लकड़ी<br />
ऊपर उठाती थी तो उस की सफ़ेद कुहनी दिखाई दे जाती थी। “मैं कुछ बीमार था। रोज़ एक कम्बल लेकर<br />
पहाड़ी पर जाकर लेट जाया करता था। और साँस रोके उस लम्हे का इंतज़ार करता था जब वो हाथ ऊपर करे<br />
तो आस्तीन सरक जाए और मुझे उस की सफ़ेद कुहनी दिखाई दे जाए।”<br />
<br />
“कुहनी?”, मैंने हैरत से पूछा।<br />
<br />
"हाँ, मैंने सिवाय कुहनी के उसके जिस्म का और कोई हिस्सा नहीं देखा। ढीले-ढाले कपडे पहने रहती थी, उसके जिस्म का कोई ख़त नहीं दिखाई देता था । मगर उसके जिस्म की जुम्बिश पर मेरी आँखें कुहनी की झलक देखने के लिए लपकती थीं ।<br />
<br />
“फिर क्या हुआ?”<br />
<br />
फिर एक दिन मैं कम्बल पर लेटा था । वो मुझसे थोड़ी दूर आकर बैठ गई । वो अपने गिरेबान में कुछ छिपाने लगी। मैंने पूछा, मुझे दिखाओ तो शर्म से उसका चेहरा गुलाबी हो गया । और बोली कुछ भी नहीं । बस, मुझे ज़िद हो गई. मैंने कहा जब तक तुम दिखाओगी नहीं, जाने नहीं दूँगा। वो रुआँसी हो गई, मगर मैं भी ज़िद पर अड़ गया। और आख़िर को रद-ओ-कद (हुज्जत) के बाद उसने मुट्ठी खोलकर हथेली मेरे सामने कर दी और ख़ुद शर्म से घुटनों में मुँह दे लिया।<br />
<br />
क्या था उस की हथेली पर — मैंने बेसब्री से पूछा ।<br />
<br />
“मिस्री की डली ! उसकी गुलाबी हथेली पर बर्फ़ के टुकड़े की तरह पड़ी झिलमिला रही थी ।”<br />
<br />
“फिर आपने क्या किया।”<br />
<br />
“मैं देखता रह गया । वो कुछ सोच में डूब गई ।"<br />
<br />
“फिर ?”<br />
<br />
फिर वो उठकर भाग गई । थोड़ी दूर से पलट आई और मिस्री की डली मेरी गोद में डालकर नज़रों से ओझल हो गई। मिस्री की डली बहुत दिनों तक मेरी क़मीज़ की जेब में पड़ी रही। फिर मैंने उसे दराज़ में डाल दिया और कुछ दिन बाद चीटियाँ खा गईं।<br />
<br />
“और लड़की ?”<br />
<br />
“कौन सी लड़की ?”— वो चौंका ।<br />
<br />
“वही जिस ने आप को मिस्री की डली थमाई थी ।”<br />
<br />
“उसे मैंने फिर नहीं देखा ।”<br />
<br />
“किस क़दर फसफसा है आपका इश्क़ !” — मैंने नाउम्मीदी से चिढ़ के कहा। मुझे तो बड़े किसी शोला-बादामान क़िस्म के इश्क़ की उम्मीद थी ।”<br />
<br />
“क़त्तई फसफसा नहीं।” — मण्टो लड़ पड़ा ।<br />
<br />
“बिलकुल रद्दी था, थर्ड रेट, मरघुल्ला इश्क़ । मिस्री की डली लेकर चले आए । बड़ा तीर मारा ।”<br />
<br />
“तो और क्या करता । उसके साथ सो जाता। एक हरामी पिल्ला उस की गोद में छोड़कर आज उसकी याद में अपनी मर्दानगी की डींगें मारता।” — वो बिगड़ा ।<br />
<br />
“ठीक कहते हैं आप । मिस्री की डली किड़किडा के खाने की नहीं, धीरे-धीरे चूसने की चीज़ है ।”<br />
<br />
यह वही मण्टो था । फ़हश (अश्लील) निगार । गन्दा ज़हन । जिस ने “ठण्डा गोश्त” लिखा था । लेकिन मिर्ज़ा ग़ालिब में चौदहवीं बेग़म मिर्ज़ा ग़ालिब की महबूबा हो या न हो, उस का फैसला नहीं किया जा सकता, मगर मण्टो के ख़यालों की लड़की ज़रूर है, जिसे वो हाथ नहीं लगाना चाहता । जिस की कुहनी की झलक देखने के लिए वो सारी ज़िन्दगी बैठ सकता है। यह था वो तज़ाद (विसंगति) जो मंटो की मुख़्तलिफ़ कहानियों में मुख़्तलिफ़ औक़ात में ज़ाहिर होता था । एक तरफ़ वो “नया क़ानून” लिखता है और दूसरी तरफ़ “बू”... दोनों में वो खुद को ग़र्क़ (बरबाद) करके लिखता है। लोगों को एक फ़हश निगार याद रह जाता है और<br />
वाक़्या निगार को वो भूल जाते हैं । क़सद (साज़िश, षडयन्त्र) क्या हुआ! ? एक ही बात है ।<br />
<br />
मुल्क में फ़साद शुरू हो गए । बटवारे के बाद उस को भी पयाम किए जाने लगे । मण्टो उस वक़्त फ़िल्मिस्तान में क़रीब-क़रीब मुस्तक़िल था। वो बड़ा ख़ुश नज़र आता था। मद्दाह सराई (स्तुतिगान) जो उसकी ज़िन्दगी का सहारा थी उसे मिलती थी कि उसकी फ़िल्म ’आठ दिन’ कामयाब न हुई । न जाने क्यों वो फ़िल्मिस्तान छोड़कर अशोक कुमार के साथ बम्बई टाकीज़ चला गया । उसे अशोक कुमार बहुत पसन्द था। मुखर्जी ने न जाने उस से क्या कह दिया था कि वो एकदम उसके ख़िलाफ़ हो गया — बकवास है मुखर्जी, फ्रॉड है पक्का ! — वो तल्ख़ी से कहता ।<br />
<br />
बम्बई टाकीज़ में जाकर उसने मुझे भी कम्पनी में एक साल के बाद सीनियर यू डिपार्टमेण्ट में काम दिलवा दिया और बहुत ही ख़ुश हुआ — “अब हम दोनों मिलकर कहानी लिखेंगे । तहलका मचेगा । मेरी और आपकी कहानी, अशोक कुमार हीरो । बस, फिर देखिएगा ।”<br />
<br />
एक कहानी मण्टो की ज़ेरे-ग़ौर थी। अशोक कुमार को वो पसन्द थी। उससे पहले उसे “मजबूर” की कहानी पसन्द थी फिर दिल से उतर गई और मण्टो की कहानी पसन्द आई। मेरे आने के बाद उसे मेरी कहानी ’ज़िद्दी’ पसन्द आ गई। ख़ैर, मण्टो को नागवारा न गुज़रा। अब अशोक कुमार ने मुझे मण्टो की कहानी पर काम करने को कहा और मण्टो को मेरी कहानी पर ! नतीजा यह कि मण्टो मुझे और मैं मण्टो से शाकी होने लगे। उधर कमाल अमरोही “महल” की कहानी लेकर आ गए और अशोक कुमार को पसन्द आ गई और हम दोनों की कहानी खटाई में पड़ गई। अब सिर्फ़ इज़्ज़त का सवाल होता तो और बात थी, वहाँ तो यह हाल हो गया कि हमारी कहानी नहीं बन रही है तो हम किसी शुमार-ओ-क़तार ही में नहीं । हमसे कह दिया गया था कि चैन से बैठो ।<br />
तनख़्वाह मिलती रहेगी, क्योंकि कॉन्ट्रैक्ट हो चुका है, लेकिन कहानी हमारी नहीं बनेगी। लिहाज़ा मेरी और शाहिद की पूरी कोशिशें अपनी कहानी ’ज़िद्दी’ को बनवाने की तरफ़ लग गईं और बग़ैर अशोक कुमार के दूसरे दर्जे की तस्वीरों की क़तार में ज़िद्दी बनाई जाने लगी। मगर मण्टो की कहानी रह गई ! मण्टो दिन भर अपने कमरे में बैठा अपनी कहानी की उधेड़बुन किया करता, कभी अंजाम को आग़ाज़ बनाकर लिखता, कभी आग़ाज़ को अंजाम बनाकर, कभी वस्त (बीच) से शुरू करके आग़ाज़ पर ख़त्म करता और कभी वस्त को अंजाम बना देता। बावजूद हज़ारों आपरेशनों के कहानी की कोई शक़्ल अशोक कुमार को पसन्द न आई। मगर मण्टो यही कहता —<br />
<br />
“आप गांगुली को नहीं समझतीं, मैं समझता हूँ। वो मेरी कहानी में ज़रूर काम करेगा।”<br />
<br />
“आप की कहानी में उसका रोल रोमाण्टिक नहीं, बाप का है, वो कभी नहीं करेगा।” <br />
<br />
और मण्टो से फिर लड़ाई होने लगती । मगर अदबी ज़बान से यहाँ अपनी फ़िक्र पड़ी थी। और वही हुआ कि ’ज़िद्दी’ और ’महल’ बन गईं । मण्टो की कहानी रह गई । मण्टो को इस की उम्मीद न थी और उसे बड़ी ज़िल्लत महसूस हुई । वो सब कुछ झेल सकता था, बेक़द्री नहीं झेल सकता था । उधर मुल्क के हालात बिलकुल ही बद्तर हो गए । उसके बीवी-बच्चे उसे पाकिस्तान बुलाने लगे। मण्टो ने हमसे भी चलने को कहा। पाकिस्तान में हसीन मुस्तक़बिल है। वहाँ से भागे हुए लोगों की कोठियाँ मिलेंगी। वहाँ हम ही हम होंगे। बहुत जल्द तरक़्क़ी कर जाएँगे। मेरे जवाब पर मण्टो मुझसे वाक़ई बद-दिल हो गया। इतनी लड़ाइयाँ और झगड़े मेरे उससे हुए मगर यों किसी संजीदा उसूल पर बहस न हुई।<br />
<br />
और उस वक़्त मुझे मालूम हुआ कि मण्टो कितना बुज़दिल है। किसी क़ीमत पर भी वो अपनी जान बचाने को तैयार है। अपना मुस्तक़बिल बनाने के लिए वो भागे हुए लोगों की ज़िन्दगी की कमाई पर दाँत लगाए बैठा है। और मुझे उस से नफ़रत-सी हो गई।<br />
<br />
और एक दिन वो बग़ैर इत्तिला किए और मिले पाकिस्तान चला गया । मुझे बड़ी हतक (अपमान) महसूस हुई । फिर जब उसका ख़त आया कि वो बहुत ख़ुश है, बहुत उम्दा मकान मिला है, कुशादा (खुला हुआ) और ख़ूबसूरत, क़ीमती सामान से आरस्ता (सुसज्जित) । हमें उसने फिर हिलाया था । “ज़िद्दी” ख़त्म हो गई थी और हमने आरज़ू शुरू कर दी थी। बुरे वक़्त आए थे और चले गए थे । उसके फिर दो ख़त आए। उस ने बुलाया था ।<br />
<br />
एक सिनेमा अलॉट करवाने की उम्मीद दिलाई थी । मुझे बड़ा दुख हुआ। उसकी मुहब्बत का पहले भी यक़ीन था। मगर अब तो और भी मान जाना पड़ा। मगर मैंने उसके ख़त फाड़ दिए, इस बात से चिढ़कर कि वो मेरे उसूलों की क़द्र क्यों नहीं करता । मैंने उसे जाने से नहीं रोका, फिर वो मुझे अपने रास्ते पर क्यों घसीट रहा है ।<br />
<br />
फिर सुना मण्टो बहुत ख़ुश है ।<br />
<br />
मकान छिन गया, मगर दूसरा भी ख़ासा अच्छा है ।<br />
<br />
एक लड़की और पैदा हुई ।<br />
<br />
और साल गुज़रते गए। एक लड़की और पैदा हुई । मण्टो का एक ख़त आया — “कोशिश करके मुझे हिन्दुस्तान बुलवा लो।”<br />
<br />
फिर मालूम हुआ मंटो पर मुक़दमा चला और जेल हो गई । हम हाथ पर हाथ रखे बैठे रहे । किसी ने एहतिजाज (विरोध) भी न किया । बल्कि कुछ ऐसा लोगों का रवैय्या था कि अच्छा हुआ जेल हो गई । अब दिमाग़ दुरुस्त हो जाएगा। न कहीं जलसे हुए, न मीटिंगें हुईं, न रेज़ॉल्यूशन पास हुए ।<br />
<br />
फिर मालूम हुआ कि दिमाग़ चल निकला और पागलख़ाने में यार-दोस्त पहुँचा आए हैं। मगर एक दिन मण्टो का ख़त आया। बिलकुल होशो-हवास में लिखा था कि अब बिलकुल ठीक हूँ । अगर मुखर्जी से कहकर बम्बई बुलवा लो तो बहुत अच्छा हो । उस के बाद अरसे तक कोई ख़ैर-खबर नहीं मिली । न ही मेरे ख़त का जवाब आया। फिर सुना कि दोबारा पागलख़ाने चले गए । अब मण्टो की ख़बरों से डर-सा लगने लगा। पूछने की हिम्मत न पड़ती थी। ख़ुदा जाने उसका अगला क़दम कहाँ पड़ा हो। मगर पागलख़ाने से आगे जो क़दम पड़ता है, वो लौट कर नहीं आता। पाकिस्तान से आने वाले लोगों से भी इतनी कड़वी ख़बरें सुनीं कि जी ऊब गया। बेतरह पीने लगे हैं। अपने-पराए हर-एक से पैसा माँग बैठते हैं। अख़बारवाले बिठाकर सामने मज़मून लिखवाते हैं, पेशगी पैसा दो तो सब खा जाते हैं।<br />
<br />
मण्टो का आख़िरी ख़त आया, जिसमें एक मज़मून अपने ऊपर लिखने को कहा था। बेसाख़्ता, मेरी मनहूस ज़बान से निकल गया कि अब तो मरने के बाद ही मज़मून लिखूँगी ।<br />
<br />
और आज मण्टो के मरने के बाद लिख रही हूँ । मण्टो ही नहीं, अरसा हुआ, मेरे और मण्टो के दरमियान बहुत कुछ मर चुका था। आज सिर्फ एक कसक ज़िन्दा है । यह पता नहीं चलता कि किस बात की कसक है । क्या इस बात की नदामत (शर्मिंदगी) है कि वो मर चुका है और मैं ज़िन्दा हूँ ? यह मेरे सीने पर फिर क़र्ज़ जैसा बोझ क्यों है ? मुझे तो मण्टो का कोई क़र्ज़ा याद नहीं। और उस का क़र्ज़ा भी क्या था, यही न कि उस ने मुझे बहन कहा था। मगर बहनें तो खड़ी भाइयों को दम तोड़ता देखती हैं और कुछ नहीं कर पातीं। मरने वाले ज़ख़्म लगा जाते हैं जो न दिखता है न रिसता है, ख़ामोश सुलगता रहता है ।<br />
<br />
आज मुझे सफ़ीया बेतरह याद आ रही है । जी चाहता है एक बार सिर जोड़कर हम दोनों बातें कर सकें जैसे बरसों हुए एडल्फ़ी चेम्बर में किया करते थे। मगर वो थी सुहागरात और पहलू बैठी के बच्चे की बातें, यह हैं मौत की बातें। इसीलिए डरती हूँ और मेरा क़लम ख़ुश्क हो जाता है — न जाने, इन चन्द सालों में उस पर क्या गुज़री है । किस दिल से पूछूँ कि जब सारी दुनिया ने मण्टो को फ़रामोश कर दिया, तब भी तुम्हारी मुहब्बत उस तूफ़ानी हस्ती को सहारा चट्टान बनकर देती रही। या तुम्हारा प्यार थककर निढाल हो चुका था। क्या ये बारह-तेरह बरस का भूचाल तुम्हें झिंझोड़ कर पस्त कर गया या तुम अब भी अपने मण्टो साहब की सफ़ीया रहीं। पास- पड़ोस के मुहज़्ज़ब (शालीन) लोग और रिश्तेदार, जब उस की बद-रवी (बुरी राह चलना) पर नाक-भौं चढ़ाते थे, तो तुम क्या करती थीं ? उन खामोश गेसुओं का तुम्हारे पास क्या जवाब था, जो बेमुरव्वती और लापरवाही से तुम्हारे इर्द-गिर्द मण्डलाया करती थीं। दम तो घुट जाता था। क्या उसने तुम्हारी प्यार भरी गोद में दम तोड़ा या वो तनहा और भरे ख़ानदान में अकेला ही सिधारा। क्या बच्चियाँ अपने बाप को पागल. मुफ़लिस, शराबी समझती थीं। उसने तुम्हें तंगदस्ती और नदामत के सिवाय क्या कुछ भी नहीं दिया। मुझे कुछ भी तो नहीं मालूम। न जाने क्यों, उस की तहरीरों में अपनी ज़िन्दगी का धुंधला-सा भी अक्स नहीं है। वो अपनी मुश्किलों को अपनी कमज़ोरी पर महमूल (लादता) करता रहा। उसने उन्हें ऐब की तरह छिपाया उसे गज़्वा (धर्मयुद्ध) था कि चाहे तो वो दमभर में लाखों कमा कर फेंक दे। जभी तो उसे यक़ीन न आया था कि वो फ़ाक़े भी कर सकता है और उसका क़लम बेकसी से घुटता रहता है। तुम आजिज़ तो नहीं आ गईं अदीबों से ! यों ही ख़ुद घुटते हैं और अपनों को दलदल में घसीटते हैं ! …. और फिर एक दिन अकेला छोड़कर चल देते हैं ।<br />
<br />
तो बहन, यह अदीबों की ही आदत नहीं, हमारे देश के लाखों करोड़ों इनसान इसी तरह ज़िन्दगी में नाकामी और नामुरादी का शिकार होते हैं। चाहे वो अदीब हों या क्लर्क ! उनकी यही ज़िन्दगी है और कम-ओ-बेश यही अंजाम । जो ज़्यादा हस्सास (ख़ुद्दार, संवेदनशील) होते हैं, वो पागल हो जाते हैं और ढीट सिसकते रहते हैं ।<br />
<br />
न जाने दिल क्यों कहता है कि मण्टो की इस जवाँमिर्गी में मेरा भी हाथ है । मेरे दामन पर भी ख़ून के नज़र न आने वाले छींटें हैं, जो सिर्फ़ मेरा दिल देख सकता है । वो दुनिया जिस ने उसे मरने दिया मेरी ही तो दुनिया है । आज उसे मरने दिया और कल यों ही मुझे भी मर जाने की इजाज़त होगी । और फिर लोग मातम करेंगे । मेरे बच्चों का बोझ उनके सीने पर चट्टान बन जाएगा। जलसे करेंगे, चन्दा जमा करेंगे और उन जलसों में अदीम- उलफ़ुरसती (व्यस्तता) की वजह से कोई न आ सकेगा। वक़्त गुजर जाएगा। सीने का बोझ आहिस्ता-आहिस्ता हलका हो जाएगा और वो सब कुछ भूल जाएँगे ।</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%87%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%A4_%E0%A4%9A%E0%A5%81%E0%A4%97%E0%A4%BC%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%88&diff=44050इस्मत चुग़ताई2023-12-02T20:36:47Z<p>अनिल जनविजय: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=Ismat-chugtai.jpg<br />
|नाम=इस्मत चुग़ताई<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=15 अगस्त 1915<br />
|जन्मस्थान=बदायूं, उत्तर प्रदेश, भारत<br />
|मृत्यु=24 अक्तूबर 1991 <br />
|कृतियाँ=[[ज़िद्दी / इस्मत चुग़ताई | ज़िद्दी]] (1941), कलियाँ, चोटें, एक रात, छुई-मुई दो हाथ दोज़खी, शैतान, कुँवारी <br />
|विविध=<br />
|जीवनी=[[इस्मत चुग़ताई / परिचय]]<br />
}}<br />
{{GKCatUttarPradesh}}<br />
{{GKCatMahilaRachnakaar}}<br />
===कहानियाँ===<br />
* [[चिड़ी की दुक्की / इस्मत चुग़ताई]] (कहानी संग्रह) <br />
* [[चौथी का जोडा / इस्मत चुग़ताई]]<br />
* [[जडें / इस्मत चुग़ताई]]<br />
* [[लिहाफ़ / इस्मत चुग़ताई]]<br />
* [[भाभी / इस्मत चुग़ताई]]<br />
* [[हिन्दुस्तान छोड़ दो / इस्मत चुग़ताई]]<br />
* [[टेढ़ी लकीर / इस्मत चुग़ताई]]<br />
<br />
===उपन्यास===<br />
* '''[[जंगली कबूतर / इस्मत चुग़ताई]]'''<br />
* '''[[ज़िद्दी / इस्मत चुग़ताई]]'''<br />
* '''[[एक कतरा खून / इस्मत चुग़ताई]]'''<br />
<br />
===संस्मरण===<br />
* '''[[मण्टो मेरा दोस्त / इस्मत चुग़ताई]]'''</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AB%E0%A4%BC_/_%E0%A4%87%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%A4_%E0%A4%9A%E0%A5%81%E0%A4%97%E0%A4%BC%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%88&diff=44049लिहाफ़ / इस्मत चुग़ताई2023-12-02T20:32:05Z<p>अनिल जनविजय: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=इस्मत चुग़ताई <br />
}}<br />
[[Category:कहानी]]<br />
<br />
'''(उनकी कहानी लिहाफ़ के लिए लाहौर हाईकोर्ट में उनपर मुक़दमा चला। जो बाद में ख़ारिज हो गया)'''<br />
<br />
जब मैं जाड़ों में लिहाफ़ ओढ़ती हूँ तो पास की दीवार पर उसकी परछाई हाथी की तरह झूमती हुई मालूम होती है और एकदम से मेरा दिमाग बीती हुई दुनिया के पर्दों में दौड़ने-भागने लगता है । न जाने क्या कुछ याद आने लगता है ।<br />
<br />
माफ़ कीजिएगा, मैं आपको ख़ुद अपने लिहाफ़ क़ा रूमानअंगेज़ ज़िक़्र बताने नहीं जा रही हूँ, न लिहाफ़ से किसी किस्म का रूमान जोड़ा ही जा सकता है। मेरे ख़याल में कम्बल कम आरामदेह सही, मगर उसकी परछाई इतनी भयानक नहीं होती जितनी - जब लिहाफ़ क़ी परछाई दीवार पर डगमगा रही हो। यह तब का जिक्र है, जब मैं छोटी-सी थी और दिन-भर भाइयों और उनके दोस्तों के साथ मार-कुटाई में गुज़ार दिया करती थी। कभी - कभी मुझे ख़याल आता कि मैं कमबख़्त इतनी लड़ाका क्यों थी? उस उम्र में जबकि मेरी और बहनें आशिक़ जमा कर रही थीं, मैं अपने-पराये हर लड़के और लड़की से जूतम-पैजार में मशगूल थी। यही वजह थी कि अम्माँ जब आगरा जाने लगीं तो हफ़्ता-भर के लिए मुझे अपनी एक मुँहबोली बहन के पास छोड़ गईं । उनके यहाँ, अम्माँ ख़ूब जानती थी कि चूहे का बच्चा भी नहीं और मैं किसी से भी लड़-भिड़ न सकूँगी। सज़ा तो ख़ूब थी मेरी ! हाँ, तो अम्माँ मुझे बेगम जान के पास छोड़ गईं। वही बेगम जान जिनका लिहाफ़ अब तक मेरे जहन में गर्म लोहे के दाग की तरह महफूज़ है। ये वो बेगम जान थीं जिनके ग़रीब माँ-बाप ने नवाब साहब को इसलिए दामाद बना लिया कि गो वह पकी उम्र के थे मगर निहायत नेक। कभी कोई रण्डी या बाज़ारू औरत उनके यहाँ नजर न आई। ख़ुद हाजी थे और बहुतों को हज करा चुके थे ।<br />
<br />
मगर उन्हें एक निहायत अजीबो-ग़रीब शौक था। लोगों को कबूतर पालने का जुनून होता है, बटेरें लड़ाते हैं, मुर्गबाज़ी क़रते हैं - इस किस्म के वाहियात खेलों से नवाब साहब को नफ़रत थी। उनके यहाँ तो, बस, तालिब इल्म रहते थे। नौजवान, गोरे-गोरे, पतली कमरों के लड़के, जिनका खर्च वे ख़ुद बर्दाश्त करते थे ।<br />
<br />
मगर बेगम जान से शादी करके तो वे उन्हें कुल साजाे-सामान के साथ ही घर में रखकर भूल गए । और वह बेचारी दुबली-पतली नाजुक़-सी बेगम तन्हाई के ग़म में घुलने लगीं । न जाने उनकी ज़िन्दगी कहाँ से शुरू होती है ? वहाँ से, जब वह पैदा होने की ग़लती कर चुकी थीं, या वहाँ से, जब एक नवाब की बेगम बनकर आईं और छपरखट पर ज़िन्दगी गुज़ारने लगीं, या जब से नवाब साहब के यहाँ लड़कों का ज़ोर बँधा। उनके लिए मुरग्गन हलवे और लजीज़ ख़ाने जाने लगे और बेगम जान दीवानख़ाने की दरारों में से उनकी लचकती कमरोंवाले लडक़ों की चुस्त पिण्डलियाँ और मोअत्तर बारीक शबनम के कुर्ते देख-देखकर अंगारों पर लोटने लगीं ।<br />
<br />
या जब से वह मन्नतों-मुरादों से हार गयीं, चिल्ले बँधे और टोटके और रातों की वजीफ़ाख्वानी भी चित हो गयी। कहीं पत्थर में जोंक लगती है! नवाब साहब अपनी जगह से टस-से-मस न हुए। फिर बेगम जान का दिल टूट गया और वह इल्म की तरफ मोतवज्जा हुई। लेकिन यहाँ भी उन्हें कुछ न मिला। इश्किया नावेल और जज्बाती अशआर पढक़र और भी पस्ती छा गयी। रात की नींद भी हाथ से गयी और बेगम जान जी-जान छोडक़र बिल्कुल ही यासो-हसरत की पोट बन गयीं।<br />
<br />
चूल्हे में डाला था ऐसा कपडा-लत्ता। कपडा पहना जाता है किसी पर रोब गाँठने के लिए। अब न तो नवाब साहब को फुर्सत कि शबनमी कुर्तों को छोडक़र जरा इधर तवज्जा करें और न वे उन्हें कहीं आने-जाने देते। जब से बेगम जान ब्याहकर आयी थीं, रिश्तेदार आकर महीनों रहते और चले जाते, मगर वह बेचारी कैद की कैद रहतीं।<br />
<br />
उन रिश्तेदारों को देखकर और भी उनका खून जलता था कि सबके-सब मजे से माल उडाने, उम्दा घी निगलने, जाडे क़ा साजाे-सामान बनवाने आन मरते और वह बावजूद नयी रूई के लिहाफ के, पडी सर्दी में अकडा करतीं। हर करवट पर लिहाफ नयीं-नयीं सूरतें बनाकर दीवार पर साया डालता। मगर कोई भी साया ऐसा न था जो उन्हें जिन्दा रखने लिए काफी हो। मगर क्यों जिये फिर कोई? जिन्दगी! बेगम जान की जिन्दगी जो थी! जीना बंदा था नसीबों में, वह फिर जीने लगीं और खूब जीं।<br />
<br />
रब्बो ने उन्हें नीचे गिरते-गिरते सँभाल लिया। चटपट देखते-देखते उनका सूखा जिस्म भरना शुरू हुआ। गाल चमक उठे और हुस्न फूट निकला। एक अजीबो-गरीब तेल की मालिश से बेगम जान में जिन्दगी की झलक आयी। माफ क़ीजियेगा, उस तेल का नुस्खा आपको बेहतरीन-से-बेहतरीन रिसाले में भी न मिलेगा।<br />
<br />
जब मैंने बेगम जान को देखा तो वह चालीस-बयालीस की होंगी। ओफ्फोह! किस शान से वह मसनद पर नीमदराज थीं और रब्बो उनकी पीठ से लगी बैठी कमर दबा रही थी। एक ऊदे रंग का दुशाला उनके पैरों पर पडा था और वह महारानी की तरह शानदार मालूम हो रही थीं। मुझे उनकी शक्ल बेइन्तहा पसन्द थी। मेरा जी चाहता था, घण्टों बिल्कुल पास से उनकी सूरत देखा करूँ। उनकी रंगत बिल्कुल सफेद थी। नाम को सुर्खी का जिक़्र नहीं। और बाल स्याह और तेल में डूबे रहते थे। मैंने आज तक उनकी माँग ही बिगडी न देखी। क्या मजाल जो एक बाल इधर-उधर हो जाये। उनकी आँखें काली थीं और अबरू पर के जायद बाल अलहदा कर देने से कमानें-सीं खिंची होती थीं। आँखें जरा तनी हुई रहती थीं। भारी-भारी फूले हुए पपोटे, मोटी-मोटी पलकें। सबसे जियाद जो उनके चेहरे पर हैरतअंगेज ज़ाजिबे-नजर चीज थी, वह उनके होंठ थे। अमूमन वह सुर्खी से रंगे रहते थे। ऊपर के होंठ पर हल्की-हल्की मँूछें-सी थीं और कनपटियों पर लम्बे-लम्बे बाल। कभी-कभी उनका चेहरा देखते-देखते अजीब-सा लगने लगता था - कम उम्र लडक़ों जैसा।<br />
<br />
उनके जिस्म की जिल्द भी सफेद और चिकनी थी। मालूम होता था किसी ने कसकर टाँके लगा दिये हों। अमूमन वह अपनी पिण्डलियाँ खुजाने के लिए किसोलतीं तो मैं चुपके-चुपके उनकी चमक देखा करती। उनका कद बहुत लम्बा था और फिर गोश्त होने की वजह से वह बहुत ही लम्बी-चौडी मालूम होतीं थीं। लेकिन बहुत मुतनासिब और ढला हुआ जिस्म था। बडे-बडे चिकने और सफेद हाथ और सुडौल कमर ..तो रब्बो उनकी पीठ खुजाया करती थी। यानी घण्टों उनकी पीठ खुजाती - पीठ खुजाना भी जिन्दगी की जरूरियात में से था, बल्कि शायद जरूरियाते-जिन्दगी से भी ज्यादा।<br />
<br />
रब्बो को घर का और कोई काम न था। बस वह सारे वक्त उनके छपरखट पर चढी क़भी पैर, कभी सिर और कभी जिस्म के और दूसरे हिस्से को दबाया करती थी। कभी तो मेरा दिल बोल उठता था, जब देखो रब्बो कुछ-न-कुछ दबा रही है या मालिश कर रही है। <br />
<br />
कोई दूसरा होता तो न जाने क्या होता? मैं अपना कहती हूँ, कोई इतना करे तो मेरा जिस्म तो सड-ग़ल के खत्म हो जाय। और फिर यह रोज-रोज क़ी मालिश काफी नहीं थीं। जिस रोज बेगम जान नहातीं, या अल्लाह! बस दो घण्टा पहले से तेल और खुशबुदार उबटनों की मालिश शुरू हो जाती। और इतनी होती कि मेरा तो तखय्युल से ही दिल लोट जाता। कमरे के दरवाजे बन्द करके अँगीठियाँ सुलगती और चलता मालिश का दौर। अमूमन<br />
सिर्फ रब्बो ही रही। बाकी की नौकरानियाँ बडबडातीं दरवाजे पर से ही, जरूरियात की चीजें देती जातीं।<br />
<br />
बात यह थी कि बेगम जान को खुजली का मर्ज था। बिचारी को ऐसी खुजली होती थी कि हजारों तेल और उबटने मले जाते थे, मगर खुजली थी कि कायम। डाक्टर -हकीम कहते, ''कुछ भी नहीं, जिस्म साफ चट पडा है। हाँ, कोई जिल्द के अन्दर बीमारी हो तो खैर।'' नहीं भी, ये डाक्टर तो मुये हैं पागल! कोई आपके दुश्मनों को मर्ज है? अल्लाह रखे, खून में गर्मी है! रब्बो मुस्कराकर कहती, महीन-महीन नजरों से बेगम जान को घूरती! ओह यह रब्बो! जितनी यह बेगम जान गोरी थीं उतनी ही यह काली। जितनी बेगम जान सफेद थीं, उतनी ही यह सुर्ख। बस जैसे तपाया हुआ लोहा। हल्के-हल्के चेचक के दाग। गठा हुआ ठोस जिस्म। फुर्तीले छोटे-छोटे हाथ। कसी हुई छोटी-सी तोंद। बडे-बडे फ़ूले हुए होंठ, जो हमेशा नमी में डूबे रहते और जिस्म में से अजीब घबरानेवाली बू के शरारे निकलते रहते थे। और ये नन्हें-नन्हें फूले हुए हाथ किस कदर फूर्तीले थे! अभी कमर पर, तो वह लीजिए फिसलकर गये कूल्हों पर! वहाँ से रपटे रानों पर और फिर दौडे टखनों की तरफ! मैं तो जब कभी बेगम जान के पास बैठती, यही देखती कि अब उसके हाथ कहाँ हैं और क्या कर रहें हैं?<br />
<br />
गर्मी-जाडे बेगम जान हैदराबादी जाली कारगे के कुर्ते पहनतीं। गहरे रंग के पाजामे और सफेद झाग-से कुर्ते। और पंखा भी चलता हो, फिर भी वह हल्की दुलाई जरूर जिस्म पर ढके रहती थीं। उन्हें जाडा बहुत पसन्द था। जाडे में मुझे उनके यहाँ अच्छा मालूम होता। वह हिलती-डुलती बहुत कम थीं। कालीन पर लेटी हैं, पीठ खुज रही हैं, खुश्क मेवे चबा रही हैं और बस! रब्बो से दूसरी सारी नौकरियाँ खार खाती थीं। चुडैल बेगम जान के साथ खाती, साथ उठती-बैठती और माशा अल्लाह! साथ ही सोती थी! रब्बो और बेगम जान आम जलसों और मजमूओं की दिलचस्प गुफ्तगू का मौजँू थीं। जहाँ उन दोनों का जिक़्र आया और कहकहे उठे। लोग न जाने क्या-क्या चुटकुले गरीब पर उडाते, मगर वह दुनिया में किसी से मिलती ही न थी। वहाँ तो बस वह थीं और उनकी खुजली!<br />
<br />
मैंने कहा कि उस वक्त मैं काफी छोटी थी और बेगम जान पर फिदा। वह भी मुझे बहुत प्यार करती थीं। इत्तेफाक से अम्माँ आगरे गयीं। उन्हें मालूम था कि अकेले घर में भाइयों से मार-कुटाई होगी, मारी-मारी फिरूँगी, इसलिए वह हफ्ता-भर के लिए बेगम जान के पास छोड ग़यीं। मैं भी खुश और बेगम जान भी खुश। आखिर को अम्माँ की भाभी बनी हुई थीं।<br />
<br />
सवाल यह उठा कि मैं सोऊँ कहाँ? कुदरती तौर पर बेगम जान के कमरे में। लिहाजा मेरे लिए भी उनके छपरखट से लगाकर छोटी-सी पलँगडी ड़ाल दी गयी। दस-ग्यारह बजे तक तो बातें करते रहे। मैं और बेगम जान चांस खेलते रहे और फिर मैं सोने के लिए अपने पलंग पर चली गयी। और जब मैं सोयी तो रब्बो वैसी ही बैठी उनकी पीठ खुजा रही थी। भंगन कहीं की! मैंने सोचा। रात को मेरी एकदम से आँख खुली तो मुझे अजीब तरह का डर लगने लगा। कमरे में घुप अँधेरा। और उस अँधेरे में बेगम जान का लिहाफ ऐसे हिल रहा था, जैसे उसमें हाथी<br />
<br />
बन्द हो!<br />
''बेगम जान!'' मैंने डरी हुई आवाज निकाली। हाथी हिलना बन्द हो गया। लिहाफ नीचे दब गया।<br />
''क्या है? सो जाओ।''<br />
बेगम जान ने कहीं से आवाज दी।<br />
''डर लग रहा है।''<br />
मैंने चूहे की-सी आवाज से कहा।<br />
''सो जाओ। डर की क्या बात है? आयतलकुर्सी पढ लो।''<br />
''अच्छा।''<br />
मैंने जल्दी-जल्दी आयतलकुर्सी पढी। मगर यालमू मा बीन पर हर दफा आकर अटक गयी। हालाँकि मुझे वक्त पूरी आयत याद है।<br />
<br />
''तुम्हारे पास आ जाऊँ बेगम जान?''<br />
''नहीं बेटी, सो रहो।'' जरा सख्ती से कहा।<br />
और फिर दो आदमियों के घुसुर-फुसुर करने की आवाज सुनायी देने लगी। हाय रे! यह दूसरा कौन? मैं और भी डरी।<br />
''बेगम जान, चोर-वोर तो नहीं?''<br />
''सो जाओ बेटा, कैसा चोर?''<br />
रब्बो की आवाज आयी। मैं जल्दी से लिहाफ में मुँह डालकर सो गयी।<br />
सुबह मेरे जहन में रात के खौफनाक नज्ज़ारे का खयाल भी न रहा। मैं हमेशा की वहमी हूँ। रात को डरना, उठ-उठकर भागना और बडबडाना तो बचपन में रोज ही होता था। सब तो कहते थे, मुझ पर भूतों का साया हो गया है। लिहाजा मुझे खयाल भी न रहा। सुबह को लिहाफ बिल्कुल मासूम नजर आ रहा था।<br />
<br />
मगर दूसरी रात मेरी आँख खुली तो रब्बो और बेगम जान में कुछ झगडा बडी ख़ामोशी से छपरखट पर ही तय हो रहा था। और मेरी खाक समझ में न आया कि क्या फैसला हुआ? रब्बो हिचकियाँ लेकर रोयी, फिर बिल्ली की तरह सपड-सपड रकाबी चाटने-जैसी आवाजें आने लगीं, ऊँह! मैं तो घबराकर सो गयी।<br />
<br />
आज रब्बो अपने बेटे से मिलने गयी हुई थी। वह बडा झगडालू था। बहुत कुछ बेगम जान ने किया - उसे दुकान करायी, गाँव में लगाया, मगर वह किसी तरह मानता ही नहीं था। नवाब साहब के यहाँ कुछ दिन रहा, खूब जोडे-बागे भी बने, पर न जाने क्यों ऐसा भागा कि रब्बो से मिलने भी न आता। लिहाजा रब्बो ही अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ उससे मिलने गयी थीं। बेगम जान न जाने देतीं, मगर रब्बो भी मजबूर हो गयी। सारा दिन बेगम जान परेशान रहीं। उनका जोड-ज़ोड टूटता रहा। किसी का छूना भी उन्हें न भाता था। उन्होंने खाना भी न खाया और सारा दिन उदास पडी रहीं।<br />
''मैं खुजा दूँ बेगम जान?''<br />
मैंने बडे शौक से ताश के पत्ते बाँटते हुए कहा। बेगम जान मुझे गौर से देखने लगीं।<br />
''मैं खुजा दूँ? सच कहती हूँ!''<br />
मैंने ताश रख दिये।<br />
मैं थोडी देर तक खुजाती रही और बेगम जान चुपकी लेटी रहीं। दूसरे दिन रब्बो को आना था, मगर वह आज भी गायब थी। बेगम जान का मिजाज चिडचिडा होता गया। चाय पी-पीकर उन्होंने सिर में दर्द कर लिया। मैं फिर खुजाने लगी उनकी पीठ-चिकनी मेज क़ी तख्ती-जैसी पीठ। मैं हौले-हौले खुजाती रही। उनका काम करके कैसी खुशी होती थी!<br />
''जरा जाेर से खुजाओ। बन्द खोल दो।'' बेगम जान बोलीं, ''इधर ..एे है, जरा शाने से नीचे ..हाँ ...वाह भइ वाह! हा!हा!'' वह सुरूर में ठण्डी-ठण्डी साँसें लेकर इत्मीनान जाहिर करने लगीं।<br />
<br />
''और इधर ...'' हालाँकि बेगम जान का हाथ खूब जा सकता था, मगर वह मुझसे ही खुजवा रही थीं और मुझे उल्टा फख्र हो रहा था। ''यहाँ ..ओई! तुम तो गुदगुदी करती हो ..वाह!'' वह हँसी। मैं बातें भी कर रही थी और खुजा भी रही थी।<br />
''तुम्हें कल बाजार भेजँूगी। क्या लोगी? वही सोती-जागती गुडिया?''<br />
''नहीं बेगम जान, मैं तो गुडिया नहीं लेती। क्या बच्चा हूँ अब मैं?''<br />
''बच्चा नहीं तो क्या बूढी हो गयी?'' वह हँसी ''गुडिया नहीं तो बनवा लेना कपडे, पहनना खुद। मैं दूँगी तुम्हें बहुत-से कपडे। सुनां?'' उन्होंने करवट ली।<br />
''अच्छा।'' मैंने जवाब दिया।<br />
''इधर ..'' उन्होंने मेरा हाथ पकडक़र जहाँ खुजली हो रही थी, रख दिया। जहाँ उन्हें खुजली मालूम होती, वहाँ मेरा हाथ रख देतीं। और मैं बेखयाली में, बबुए के ध्यान में डूबी मशीन की तरह खुजाती रही और वह मुतवातिर बातें करती रहीं।<br />
''सुनो तो ...तुम्हारी फ्राकें कम हो गयी हैं। कल दर्जी को दे दूँगी, कि नयी सी लाये। तुम्हारी अम्माँ कपडा दे गयी हैं।''<br />
''वह लाल कपडे क़ी नहीं बनवाऊँगी। चमारों-जैसा है!'' मैं बकवास कर रही थी और हाथ न जाने कहाँ-से-कहाँ पहुँचा। बातों-बातों में मुझे मालूम भी न हुआ। <br />
बेगम जान तो चुप लेटी थीं। ''अरे!'' मैंने जल्दी से हाथ खींच लिया।<br />
<br />
''ओई लडक़ी! देखकर नहीं खुजाती! मेरी पसलियाँ नोचे डालती है!''<br />
बेगम जान शरारत से मुस्करायीं और मैं झेंप गयी।<br />
''इधर आकर मेरे पास लेट जा।''<br />
''उन्होंने मुझे बाजू पर सिर रखकर लिटा लिया।<br />
''अब है, कितनी सूख रही है। पसलियाँ निकल रही हैं।'' उन्होंने मेरी पसलियाँ गिनना शुरू कीं।<br />
''ऊँ!'' मैं भुनभुनाायी।<br />
''ओइ! तो क्या मैं खा जाऊँगी? कैसा तंग स्वेटर बना है! गरम बनियान भी नहीं पहना तुमने!''<br />
मैं कुलबुलाने लगी।<br />
''कितनी पसलियाँ होती हैं?'' उन्होंने बात बदली।<br />
''एक तरफ नौ और दूसरी तरफ दस।''<br />
मैंने स्कूल में याद की हुई हाइजिन की मदद ली। वह भी ऊटपटाँग।<br />
''हटाओ तो हाथ ...हाँ, एक ...दो ..तीन ..''<br />
मेरा दिल चाहा किसी तरह भागूँ ...और उन्होंने जोर से भींचा।<br />
''ऊँ!'' मैं मचल गयी।<br />
बेगम जान जोर-जोर से हँसने लगीं।<br />
<br />
अब भी जब कभी मैं उनका उस वक्त का चेहरा याद करती हूँ तो दिल घबराने लगता है। उनकी आँखों के पपोटे और वजनी हो गये। ऊपर के होंठ पर सियाही घिरी हुई थी। बावजूद सर्दी के, पसीने की नन्हीं-नन्हीं बूँदें होंठों और नाक पर चमक रहीं थीं। उनके हाथ ठण्डे थे, मगर नरम-नरम जैसे उन पर की खाल उतर गयी हो। उन्होंने शाल उतार दी थी और कारगे के महीन कुर्तो में उनका जिस्म आटे की लोई की तरह चमक रहा था। भारी जडाऊ सोने के बटन गरेबान के एक तरफ झूल रहे थे। शाम हो गयी थी और कमरे में अँधेरा घुप हो रहा था। मुझे एक नामालूम डर से दहशत-सी होने लगी। बेगम जान की गहरी-गहरी आँखें!<br />
<br />
मैं रोने लगी दिल में। वह मुझे एक मिट्टी के खिलौने की तरह भींच रही थीं। उनके गरम-गरम जिस्म से मेरा दिल बौलाने लगा। मगर उन पर तो जैसे कोई भूतना सवार था और मेरे दिमाग का यह हाल कि न चीखा जाये और न रो सकँू।<br />
<br />
थोडी देर के बाद वह पस्त होकर निढाल लेट गयीं। उनका चेहरा फीका और बदरौनक हो गया और लम्बी-लम्बी साँसें लेने लगीं। मैं समझी कि अब मरीं यह। और वहाँ से उठकर सरपट भागी बाहर।<br />
<br />
शुक्र है कि रब्बो रात को आ गयी और मैं डरी हुई जल्दी से लिहाफ ओढ सो गयी। मगर नींद कहाँ? चुप घण्टों पडी रही।<br />
<br />
अम्माँ किसी तरह आ ही नहीं रही थीं। बेगम जान से मुझे ऐसा डर लगता था कि मैं सारा दिन मामाओं के पास बैठी रहती। मगर उनके कमरे में कदम रखते दम निकलता था। और कहती किससे, और कहती ही क्या, कि बेगम जान से डर लगता है? तो यह बेगम जान मेरे ऊपर जान छिडक़ती थीं ...<br />
<br />
आज रब्बो में और बेगम जान में फिर अनबन हो गयी। मेरी किस्मत की खराबी कहिए या कुछ और, मुझे उन दोनों की अनबन से डर लगा। क्योंकि फौरन ही बेगम जान को खयाल आया कि मैं बाहर सर्दी में घूम रही हूँ और मरूँगी निमोनिया में!<br />
''लडक़ी क्या मेरी सिर मुँडवायेगी? जो कुछ हो-हवा गया और आफत आयेगी।''<br />
<br />
उन्होंने मुझे पास बिठा लिया। वह खुद मुँह-हाथ सिलप्ची में धो रही थीं। चाय तिपाई पर रखी थी।<br />
<br />
''चाय तो बनाओ। एक प्याली मुझे भी देना।'' वह तौलिया से मुँह खुश्क करके बोली, ''मैं जरा कपडे बदल लँू।''<br />
<br />
वह कपडे बदलती रहीं और मैं चाय पीती रही। बेगम जान नाइन से पीठ मलवाते वक्त अगर मुझे किसी काम से बुलाती तो मैं गर्दन मोडे-मोडे जाती और वापस भाग आती। अब जो उन्होंने कपडे बदले तो मेरा दिल उलटने लगा। मुँह मोडे मैं चाय पीती रही।<br />
<br />
''हाय अम्माँ!'' मेरे दिल ने बेकसी से पुकारा, ''आखिर ऐसा मैं भाइयों से क्या लडती हूँ जो तुम मेरी मुसीबत ..''<br />
<br />
अम्माँ को हमेशा से मेरा लडक़ों के साथ खेलना नापसन्द है। कहो भला लडक़े क्या शेर-चीते हैं जो निगल जायेंगे उनकी लाडली को? और लडक़े भी कौन, खुद भाई और दो-चार सडे-सडाये जरा-जरा-से उनके दोस्त! मगर नहीं, वह तो औरत जात को सात तालों में रखने की कायल और यहाँ बेगम जान की वह दहशत, कि दुनिया-भर के गुण्डों से नहीं।<br />
<br />
बस चलता तो उस वक्त सड़क़ पर भाग जाती, पर वहाँ न टिकती। मगर लाचार थी। मजबूरन कलेजे पर पत्थर रखे बैठी रही।<br />
<br />
कपडे बदल, सोलह सिंगार हुए, और गरम-गरम खुशबुओं के अतर ने और भी उन्हें अंगार बना दिया। और वह चलीं मुझ पर लाड उतारने।<br />
''घर जाऊँगी।''<br />
मैं उनकी हर राय के जवाब में कहा और रोने लगी।<br />
''मेरे पास तो आओ, मैं तुम्हें बाजार ले चलँूगी, सुनो तो।''<br />
<br />
मगर मैं खली की तरह फैल गयी। सारे खिलौने, मिठाइयाँ एक तरफ और घर जाने की रट एक तरफ।<br />
''वहाँ भैया मारेंगे चुडैल!'' उन्होंने प्यार से मुझे थप्पड लगाया।<br />
''पडे मारे भैया,'' मैंने दिल में सोचा और रूठी, अकडी बैठी रही।<br />
''कच्ची अमियाँ खट्टी होती हैं बेगम जान!''<br />
जली-कटी रब्बों ने राय दी।<br />
और फिर उसके बाद बेगम जान को दौरा पड ग़या। सोने का हार, जो वह थोडी देर पहले मुझे पहना रही थीं, टुकडे-टुकडे हो गया। महीन जाली का दुपट्टा तार-तार। और वह माँग, जो मैंने कभी बिगडी न देखी थी, झाड-झंखाड हो गयी।<br />
''ओह! ओह! ओह! ओह!'' वह झटके ले-लेकर चिल्लाने लगीं। मैं रपटी बाहर।<br />
<br />
बडे ज़तनों से बेगम जान को होश आया। जब मैं सोने के लिए कमरे में दबे पैर जाकर झाँकी तो रब्बो उनकी कमर से लगी जिस्म दबा रही थी।<br />
''जूती उतार दो।'' उसने उनकी पसलियाँ खुजाते हुए कहा और मैं चुहिया की तरह लिहाफ में दुबक गयी।<br />
<br />
सर सर फट खच!<br />
<br />
बेगम जान का लिहाफ अँधेरे में फिर हाथी की तरह झूम रहा था।<br />
''अल्लाह! आँ!'' मैंने मरी हुई आवाज निकाली। लिहाफ में हाथी फुदका और बैठ गया। मैं भी चुप हो गयी। हाथी ने फिर लोट मचाई। मेरा रोआँ-रोआँ काँपा। आज मैंने दिल में ठान लिया कि जरूर हिम्मत करके सिरहाने का लगा हुआ बल्ब जला दूँ। हाथी फिर फडफ़डा रहा था और जैसे उकडँू बैठने की कोशिश कर रहा था। चपड-चपड क़ुछ खाने की आवाजें आ रही थीं - जैसे कोई मजेदार चटनी चख रहा हो। अब मैं समझी! यह बेगम जान ने आज कुछ नहीं खाया।<br />
<br />
और रब्बो मुई तो है सदा की चट्टू! जरूर यह तर माल उडा रही है। मैंने नथुने फुलाकर सूँ-सूँ हवा को सूँघा। मगर सिवाय अतर, सन्दल और हिना की गरम-गरम खुशबू के और कुछ न महसूस हुआ।<br />
<br />
लिहाफ फ़िर उमँडना शुरू हुआ। मैंने बहुतेरा चाहा कि चुपकी पडी रहूँ, मगर उस लिहाफ ने तो ऐसी अजीब-अजीब शक्लें बनानी शुरू कीं कि मैं लरज गयी। <br />
मालूम होता था, गों-गों करके कोई बडा-सा मेंढक फूल रहा है और अब उछलकर मेरे ऊपर आया!<br />
<br />
''आ ... न ...अम्माँ!'' मैं हिम्मत करके गुनगुनायी, मगर वहाँ कुछ सुनवाई न हुई और लिहाफ मेरे दिमाग में घुसकर फूलना शुरू हुआ। मैंने डरते-डरते पलंग के दूसरी तरफ पैर उतारे और टटोलकर बिजली का बटन दबाया। हाथी ने लिहाफ के नीचे एक कलाबाजी लगायी और पिचक गया। कलाबाजी लगाने मे लिहाफ का कोना फुट-भर उठा -<br />
अल्लाह! मैं गडाप से अपने बिछौने में ! ! !</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%B2_%E0%A4%9C%E0%A5%80_:_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%9B_%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%82_/_%E0%A4%AD%E0%A5%80%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%AE_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%A8%E0%A5%80&diff=44024राहुल जी : कुछ यादें / भीष्म साहनी2023-11-22T16:29:47Z<p>अनिल जनविजय: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=भीष्म साहनी |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatSan...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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|रचनाकार=भीष्म साहनी<br />
|अनुवाद=<br />
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}}<br />
{{GKCatSansmaran}}<br />
अब तो ज़माना बीत गया। राहुल जी के देहावसान को भी बीस बरस से अधिक का समय बीत चुका है, पर अभी भी उनका सौम्य चेहरा और प्रभावशाली व्यक्तित्त्व कभी कभी आँखों के सामने घूम जाता है। जब भी उन्हें याद करो, उनका निखरा निखरा व्यक्तित्त्व ही सबसे पहले आँखों के सामने आता है।<br />
<br />
समय बीत जाने पर भी राहुल जी की कल्पना हम अभी भी एक पौराणिक नायक की भाँति ही करते हैं, क्योंकि अपने जीवनकाल में ही — उन बीते दिनों में जब न साधन हुआ करते थे और न ही कहीं से अनुदान मिला करते थे — राहुल जी ने ऐसे कारनामे कर दिखाए, जो एक साधारण व्यक्ति की सामर्थ्य के बाहर थे।<br />
<br />
मैं दसेक साल से कम उम्र का बालक रहा होऊँगा, जब मैंने राहुल जी को पहली बार देखा था। तब वे राहुल सांकृत्यायन नहीं थे, तब वे रामोदार दास थे। ऐसा ही मुझे याद पड़ता है।<br />
<br />
वे हमारे शहर रावलपिण्डी आए थे और हमारी पाठशाला में ही, जहाँ आर्यसमाज का सत्संग हुआ करता था, उनका व्याख्यान हुआ था। मैं चकित और मंत्रमुग्ध सा उन्हें देखता रह गया।<br />
<br />
उनका व्याख्यान तो मेरे पल्ले क्या पड़ता, दस बरस का बालक गम्भीर विषयों को कितना कुछ जान और समझ सकता है, पर उनका अत्यन्त सुन्दर और प्रभावशाली चेहरा और क़द-बुत मुझे बड़े आकर्षक लगे थे। अगर मैं भूल नहीं करता, तो वे उन दिनों आर्यसमाज से सक्रिय रूप से जुड़े हुए थे। वे प्रचारक न भी रहे हों, तो भी आर्यसमाज के उद्देश्यों, मान्यताओं आदि से उत्प्रेरित थे, क्योंकि आर्यसमाज मन्दिर में बड़ी श्रद्धा और आदर के साथ उनके व्याख्यान का आयोजन किया गया था। मैं तो उन दिनों, सचमुच, बहुत छोटा था, पर राहुल जी की उम्र भी उन दिनों 25-30 से ज़्यादा नहीं रही होगी।<br />
<br />
मैंने देखा तो बहुत से महापुरुषों को है, पर दूर दूर से ही। कभी कभार ही ऐसा सौभाग्य प्राप्त हुआ होगा कि उनके निकट बैठ पाया होऊँ या उनके साथ दो बातें ही की हों। ऐसे मौक़े मिले हैं, पर वे भी क्षणिक ही। ज़्यादातर तो मैं दूर से ही उन्हें देखकर धन्य धन्य होता रहा हूँ।<br />
<br />
राहुल जी के साथ मिल-बैठने का मौक़ा मिला था — पर उस समय जब वे अपने जीवन के अन्तिम चरण में पहुँच चुके थे और बीमार होकर मसक्वा के एक अस्पताल में पड़े हुए थे।<br />
<br />
ख़ैर, बचपन बीत जाने पर, जब मैं कॉलेज में पढ़ रहा था, तब राहुल जी के फिर दर्शन हुए। यह श्रीनगर (कश्मीर) की बात है। सन पैंतीस (1935) के आस-पास के दिन रहे होंगे। राहुल जी अब रामोदार दास नहीं रहे थे। वे और उनका एक जर्मन साथी श्रीनगर के आर्यसमाज मन्दिर में एक दोपहर अपनी प्रस्तावित तिब्बत-यात्रा के बारे में कुछ कहने आए थे। मन्दिर में गिने-चुने लोग ही रहे होंगे, और शायद ज़्यादा लोग आए भी होते तो वे भी राहुल जी के काम के महत्त्व को समझ पाने में असमर्थ ही होते। <br />
<br />
राहुल जी की जिज्ञासा उन्हें बहुत दूर तक ले जा चुकी थी और जोखिम उठाकर वे लगभग अकेले जिस कठिन प्रयास मार्ग पर निकल पड़े थे, वह शायद उनके श्रोताओं की पकड़ में नहीं आता। तभी मैंने जाना कि ज्ञान की भूख भी मनुष्य में उन्माद की सी स्थिति पैदा कर सकती है।<br />
<br />
राहुल जी की कभी न शान्त होने वाली जिज्ञासा ही उन्हें तरह तरह के जोखिम उठाने पर बाध्य कर रही थी और उनके व्यक्तित्त्व में नए नए आयाम जोड़ रही थी। उन्होंने उस अवसर पर कोई व्याख्यान नहीं दिया, बस, अपने साथी से परिचित कराया और तिब्बत यात्रा की अपनी योजना का ब्यौरा दिया। अगर मुझे ठीक याद पड़ता है तो उन दोनों में से एक चीवर वेश में था — राहुल जी ने तो शायद सफ़ेद कपड़े पहन रखे थे, पर उनका जर्मन साथी चीवर वेश में था। दोनों को ही देखकर बौद्ध-भिक्षुओं का सा भाव मन में आता था।<br />
<br />
बाद में, शायद साल-दो साल बाद सुनने को मिला था — सम्भव है, इससे भी अधिक या कुछ कम समय बीता हो — कि राहुल जी तिब्बत से भारी संख्या में बहुमूल्य पाण्डुलिपियाँ लेकर आए थे।<br />
<br />
इसके कुछ ही अरसे बाद राहुल जी की पुस्तकें हाथ में आने लगीं — कुछ उपन्यास और कुछ दार्शनिक ग्रन्थ।<br />
<br />
जब मैं सारनाथ की यात्रा पर गया तो एक मित्र ने बताया कि राहुल जी अमुक कमरे में ठहरे हुए हैं। मेरा बड़ा मन हुआ कि उनका दरवाज़ा खटखटाऊँ, उनके दर्शन कर लूँ, पर मैं उनसे कहता क्या — कि मैंने आपको रावलपिण्डी में देखा था, जब मैं दस साल का बच्चा था और श्रीनगर में भी जब आप तिब्बत की यात्रा पर जा रहे थे। यह तो कोई बात नहीं बनती। यह एक चिन्तक के काम में बाधा डालना होगा।<br />
<br />
तभी उस मित्र ने यह भी बताया था कि कुछ अरसा पहले नेहरू जी सारनाथ आए थे। राहुल जी की आर्थिक-स्थिति अच्छी नहीं थी और नेहरू जी इस बात को जानते थे, पर अपनी ओर से ’सहायता’ देने की ’धृष्टता’ कैसे करते। नेहरू जी ने अपनी जीवनी की एक प्रति, जो उनके पास थी, राहुल जी को भेंट की और विदा लेकर चले गए। बाद एं राहुल जी उस पुस्तक के पन्ने पलटने लगे तो उन्हें पन्नों के बीच एक जगह पर सौ रुपये का नोट रखा मिला।<br />
<br />
वर्षों बाद राहुल जी को मैंने मुम्बई में देखा। वे कम्युनिस्ट पार्टी के दफ़्तर में बैठे थे। तब राहुल जी मार्क्सवाद में आस्था रखने लगे थे और ख़ूब लिख रहे थे। मैं वहाँ पर अपने भाई से मिलने गया था। वह बँटवारे से कुछ दिन पहले की बात रही होगी। भाई ने ही बताया था कि तीसरी मंज़िल पर अमुक कमरे में राहुल जी बैठे हैं — दाएँ बाजू की दीवार के साथ टेक लगाकर वे फ़र्श पर बैठे हुए हैं, जाओ, जाकर मिल आओ।<br />
<br />
और सचमुच राहुल जी वहाँ आलथी-पालथी मारकर बैठे थे। वे कोई किताब बाँच रहे थे। उनका बदन पहले से कुछ ढल गया था, पर चेहरा पहले की तरह ही सुन्दर और सौम्य था। मैंने उनकी एक झलक ली और नीचे उतर आया।<br />
<br />
आख़िरी बार राहुल जी को मैंने मसक्वा (मास्को) में देखा, और तब मैं उनके पास बैठा भी, और बड़े चाव से उनका हाथ भी अपने हाथ में लिया। पर मेरे लिए यह मुलाक़ात बड़ी दुखद रही, क्योंकि राहुल जी इलाज के लिए मसक्वा आए थे और उनकी हालत अच्छी नहीं थी। वे बहुत दुबले भी हो गए थे, हालाँकि उनकी मुस्कान अभी भी पहले की तरह ही निखरी निखरी और आकर्षक थी। वे बार बार अपनी चेतना खो बैठते थे, कुछ सोच-सोचकर भावुक हो उठते थे और रोने लगते थे।<br />
<br />
मैंने उन्हें बताया कि कब मैंने अपने बचपन में पहली बार उन्हें देखा था। मेरी बातें सुनते हुए, वे एकटक मुझे ताक रहे थे। मुझे लगा कि जैसे बीसियों बरस पहले के वे दिन उन्हें भी याद हो आए हों, या उनके मन में उन दिनों की धूमिल सी याद उभरने लगी है। फिर जब मैंने उन्हें उनकी तिब्बत की यात्रा की याद दिलाई, तो वे रो पड़े और उनके गालों पर झर झर आँसू बहने लगे। उनकी पत्नी उनके सिरहाने बैठी थीं और बार-बार उनके आँसू पोंछ रही थीं। न जाने किस याद ने उन्हें इतना ज़्यादा भाव-विह्वल कर दिया था या शायद बीमारी के कारण उनकी मानसिक अवस्था ही कुछ ऐसी हो गई थी।<br />
<br />
निश्चय ही, मुझे भी उस समय धक्का सा लगा था कि राहुल जी में कितना बड़ा परिवर्तन आ गया है। पहले वाला राहुल तो अब इस राहुल में ढूँढ़े नहीं मिल रहा था।<br />
<br />
पर यह मेरी भूल थी। राहुल जी शीघ्र ही मसक्वा छोड़कर वापिस भारत चले गए। भारत पहुँचने के कुछ ही अरसा बाद उनका देहान्त हो गया। तब तक मैं यह बात समझ चुका था कि मैंने मसक्वा में उन्हें जिस रूप में देखा था, वह उनका असली रूप नहीं था।<br />
<br />
उनका असली रूप तो उस जिज्ञासु यात्री वाला ही था, जिस रूप में वे आजीवन एक जगह से दूसरी जगह पर भटकते रहे थे, एक के बाद दूसरा ग्रन्थ लिखते रहे थे, निर्भीक, धुन के पक्के, अपनी मान्यताओं पर सदा विचार करते रहने वाले और उनमें ज़रूरी बदलाव करने का साहस रखने वाले, ख़ुद ग़रीबी में जीकर देश भर का ज्ञानकोष समृद्ध करने वाले। वे उस विरल व्यक्तित्त्व के धनी थे, जो हमारे देश में सदियों में कभी-कभी ही उभरता है।<br />
<br />
काश, कि ज़माना दूसरा होता। काश, कि उनके रहते सरकार ने और उनकी प्रतिभा को पहचानने वाली अन्य संस्थाओं ने उनके खोज-कार्य को सहज बनाने के लिए उनके प्रति सहायता का हाथ बढ़ाया होता। तब मन के अन्दर तो वे फिर भी वैसे के वैसे बेचैन बने रहते, उनकी जिज्ञासा उन्हें चैन से नहीं बैठने देती, पर वे शायद अधिक धर्य से, ज़्यादा जम-बैठकर काम कर पाते।<br />
<br />
उन्होंने कई ऐसे काम भी अपने हाथों में ले लिए थे, जो किसी भी अकेले आदमी के बस के नहीं थे। यदि उन्हें सहायता मिली होती तो ये काम अधिक सुव्यवस्थित ढंग से हो पाते।<br />
<br />
अब हम उनकी देन का मूल्य ऊँचा आँकते हैं, पर सबसे बड़ी बात यह है कि उनका जीवन और व्यक्तित्त्व सतत प्रेरणा के स्रोत हैं। जिन्हें हम मानवीय क्षमताओं की सीमा मानते हैं, राहुल जी बार-बार उन्हें तोड़कर आगे बढ़ते रहे।</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AD%E0%A5%80%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%AE_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%A8%E0%A5%80&diff=44023भीष्म साहनी2023-11-22T16:28:01Z<p>अनिल जनविजय: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=BHISHMA_SAHNI.jpg<br />
|नाम=भीष्म साहनी<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=08 अगस्त 1915 <br />
|मृत्यु=11 जुलाई 2003<br />
|जन्मस्थान=रावलपिंडी (अब पाकिस्तान में)<br />
|कृतियाँ=झरोखे, कड़ियाँ, तमस, बसन्ती (सभी उपन्यास); भटकती राख, भाग्यरेखा, पहला पाठ, पटरियाँ, वाङ्चू (सभी कहानी-संग्रह); हानूश (नाटक)" तलस्तोय के उपन्यास ’पुनरुत्थान’ का अँग्रेज़ी से अनुवाद।<br />
|विविध='तमस' पर [[साहित्य अकादमी पुरस्कार]], [[राष्ट्रीय मैथिलीशरण गुप्त सम्मान]] सहित अनेक [[प्रतिष्ठित पुरस्कार एवं सम्मान]] से सम्मानित। ।<br />
|जीवनी=[[भीष्म साहनी / परिचय]]<br />
}}<br />
====कहानियाँ====<br />
* [[गंगो का जाया / भीष्म साहनी]]<br />
* [[गुलेलबाज़ लड़का / भीष्म साहनी]]<br />
* [[फ़ैसला / भीष्म साहनी]]<br />
* [[चीफ़ की दावत / भीष्म साहनी]]<br />
* [[चीलें / भीष्म साहनी]]<br />
* [[ओ हरामजादे! / भीष्म साहनी]]<br />
* [[वाड.चू / भीष्म साहनी]]<br />
* [[अमृतसर आ गया है / भीष्म साहनी]]<br />
* [[झूमर / भीष्म साहनी]]<br />
* [[दो गौरैया / भीष्म साहनी]]<br />
* [[त्रास / भीष्म साहनी]]<br />
* [[मरने से पहले / भीष्म साहनी]]<br />
* [[माता-विमाता / भीष्म साहनी]]<br />
* [[साग-मीट / भीष्म साहनी]]<br />
* [[ख़ून का रिश्ता / भीष्म साहनी]]<br />
* [[यादें / भीष्म साहनी]]<br />
* निमित्त / भीष्म साहनी<br />
* खिलौने / भीष्म साहनी<br />
* मेड इन इटली / भीष्म साहनी<br />
* भटकाव / भीष्म साहनी<br />
* रामचन्दानी / भीष्म साहनी<br />
* शोभायात्रा / भीष्म साहनी<br />
* धरोहर / भीष्म साहनी<br />
* लीला नन्दलाल की / भीष्म साहनी<br />
* अनूठे साक्षात / भीष्म साहनी<br />
* भटकाव / भीष्म साहनी<br />
* [[भाग्य रेखा / भीष्म साहनी]]<br />
<br />
====उपन्यास====<br />
* [[बसन्ती / भीष्म साहनी]]<br />
* [[मेरे साक्षात्कार / भीष्म साहनी]]<br />
* तमस / भीष्म साहनी<br />
* झरोखे / भीष्म साहनी<br />
* कड़ियाँ / भीष्म साहनी<br />
====लेख====<br />
* [[मेरी कथायात्रा के निष्कर्ष / भीष्म साहनी]]<br />
* [['हानूश' का जन्म / भीष्म साहनी]]<br />
====संस्मरण====<br />
* [[राहुल जी : कुछ यादें / भीष्म साहनी]]<br />
====भीष्म साहनी के बारे में====<br />
* [[हशमत की नज़र में / कृष्णा सोबती / भीष्म साहनी]]</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A6%E0%A5%82%E0%A4%A7_%E0%A4%94%E0%A4%B0_%E0%A4%A6%E0%A4%B5%E0%A4%BE_/_%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A5%87%E0%A4%AF&diff=43738दूध और दवा / मार्कण्डेय2023-08-04T20:18:37Z<p>अनिल जनविजय: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=मार्कण्डेय |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatKaha...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=मार्कण्डेय<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
बात बहुत छोटी-सी है, नाजुक और लचीली, पर मौका पाते ही सिर तान लेती है। कोई काम शुरू करने, सोने या पल-भर को आराम से पहले लगता है, कुछ देर इस प्यारी बात के साथ रहना कितना अच्छा है! वैसे मुझे काम करना, करते रहना और करते-करते उसी में खो जाना प्रिय है। इसी की बात भी मैं लोगों से करता हूं और दूसरों से यही चाहता भी हूं, पर यह सब तभी होता है, जब मेरे चारों ओर लोग होते हैं। ऐसा नहीं कि लोगों में मेरे बीवी-बच्चे शामिल नहीं हैं। कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं किसी भीड़ में खड़ा हूं और असह्य ध्वनियां मेरे कानों के परदे को छेदने लगती हैं। मैं भाग कर अपने कमरे में घुस जाना चाहता हूं, पर उसकी बड़ी-बड़ी, आंसुओं में डूबी हुई आंखें... 'मैं क्या करूं इनका? देखते हो, अब मुन्नी भी दूध के लिए जिद करती है!'... ऐसा नहीं कि बात मेरे मन में गहरे तक नहीं उतरती, मैं तो मुन्नी को स्कूल जाने के लिए एक छोटी मोटर खरीदना चाहता हूं। हल्के, गुलाबी रंग के फ्रॉक में लड़खड़ाती, दौड़ती मुन्नी को देखने की मेरी कैसी विचित्र लालसा है, जो कभी पूरी होती ही नहीं दिखाई देती!<br />
<br />
सुबह-सुबह बिस्तर से उठते ही वह जोर-जोर से चीखने लगती है, जब उसकी मांड़े से सूजी आंखें और भी सूजी होती हैं। कई बार मन में डाक्टर की बात उठती है, डर लगता है, कहीं मुन्नी की मां की पतली, लंबी, किश्ती-सी आंखों का पुराना छेद फिर न खुल जाए और सवेरे-सवेरे डूबने-औराने की मर्मान्तक पीड़ा में मुझे लिखना-पढ़ना छोड़ कर सड़क का चक्कर काटना पड़े! मैं चुपचाप एक निश्चय करके कमरे में चला जाता हूं... पहले डाक्टर का इंतजाम कर के ही उससे चर्चा करूंगा। पर फिर वही नन्ही-सी बात!... तुम्हें खोजने लगता हूं, तुम, जो इस कड़ी जमीन की चुभन से पल-भर को उठा कर मुझे एक सुनहले, झिलमिलाते लोक में खींच ले जाती हो... तुम्हारे सीने के बीच, मुलायम, उजले देह-भाग में मुंह डाल कर पल-भर को सांस लेना कितना अच्छा लगता है मुझे! शायद तुम्हें याद होगा... बात मकड़ी के जाले की तरह तनने लगती है, लेकिन घंटों और घंटों आंखें बंद रखने पर भी शिकार कोई नहीं फंसता और मैं बीवियों और मजदूरों के बारे में सोचने लगता हूं!... आखिर इन दोनों को हरदम शिकायतें क्यों रहती हैं। क्यों इन दोनों के सीने में खारे पानी का इतना विशाल समुद्र फफाया रहता है, मृत्यु की आखिरी कराह की तरह इस समुद्र की लहरें चीख़ती हैं, पर किसी खोखले श्राप की तरह मिथ्या बन कर बिखर जाती हैं। मैं इन विनाशकारी लहरों को दुनिया को निगल जाते देखने के लिए व्याकुल हो उठता हूं, पर हल्की-सी मुस्कुराहट या वह भी नहीं तो बस मुलायम कलाइयों की पकड़ और उस समय कुछ भी और न सुनने की बात... जाने भी दो!... कमर के नीचे नंगी, खुली... मैं इस असामयिक मृत्यु से बचना चाहता हूं, पर कोई चारा नहीं। मुन्नी की मां के जीने का यही सहारा है और मेरे पास उन मृत्यु की घाटियों के सूनेपन को दूर करने का यही उपाय। वह विश्वास नहीं करती, पर मैं सच कहता हूं कि मुझे इतना बहुत अच्छा लगता है! इसलिए मैं समझ नहीं पाता कि स्त्रियां और मजदूर मालिकों को क्यों ओढ़े हुए हैं, महज इतनी-सी बात के लिए, या मुन्नी की आंखों के मांड़े की दवा या उसके दूध के लिए! <br />
<br />
... यह प्रश्न उसके साथ नहीं उठते क्या आखिर? क्या उसे बच्चे नहीं हो सकते या उसे दूध पीने वाले बच्चे नहीं होंगे? धीरे-धीरे यह 'क्यों धुंधलाता है; पानी, सिर्फ़ एक बूंद; स्याही, जाने कैसी फैल कर एक झील, भूरी आंखों की तरह, वह भी सतही, उथली... अछूता, कच्चा, नुकीला फूल, आसमान में उड़ने वाली लरजती पतंग की लंबी पूंछ... किसी बंगले के फटे, पुराने पर्दे... मुल्क में बनी और भूख... वे मित्र जिन्हें नौकरी के लिए पत्र लिखे हैं, जो चाहें तो मैं भी उन्हीं की तरह का लगूं, बेएतबार और ऊंचे दर्जे का नौकरी देने वाला मुलाज़िम... लेकिन वह नौकरी से चढ़ती है, - तुम नौकरी करोगे? फिर तो मोटर, बंगले और सुख की अनेक कोटियां हैं। मेरे लिए जगह कहां होगी? मैं ग़रीब बाप की बेटी हूं।- अजीब बात है, तुम भूख में जी सकती हो, लेकिन वह तो कहती है कि उसके सीने में एक भयंकर ज्वालामुखी दबा पड़ा है, जो कभी भी नहीं भड़केगा, मुन्नी की माँ यह भी जानती है। पर क्यों नहीं भड़केगा, क्यों उसके लावे से मेरा घर आंगन नहीं पट जाएगा? इसलिए न कि मैं लिखूंगा और लिखने से पैसे मिलेंगे और पैसे उसे ठंडा करते रहेंगे। वह यही तो कहती है कि पैसा दिल को ठंडा और शरीर को गर्म रखने की अद्भुत दवा है- ग़रीब दुनिया का सबसे अच्छा इंसान है। ग़रीब लड़की की मोहब्बत दुनिया की सबसे पवित्र निधि!- कभी-कभी वह स्कूल टीचर की तरह बोलती है। आखिर यह सब और है ही क्या?<br />
<br />
मुन्नी जब जन्मी थी, तो उसके लिए मैंने एक झूला ख़रीदा था। बहुत सारे कपड़े बने थे और उसे दूध में ग्लूकोज और शहद दी जाती थी।... फ्रेंच सीखेगी मेरी बेटी, मैं चाहता हूं, वह पेंटर बने... सिर्फ तीस रूपये तो लगते हैं उसके दूध के। तीस में ऐसा क्या रक्खा है?... साल ही भर बाद रुनकू आया तो कितना उत्साह था!... कोई बात नहीं, दोनों के लिए एक गाड़ी होगी, दोनों कान्वेंट जाएंगे।... लेकिन यह क्या फिज़ूल की बातें हैं, बेओर-छोर की। मैं झटके से उठ बैठता हूं और लिखने की कॉपी के मसौदे कई बार उलट-पुलट कर देखने लगता हूं। कई अच्छी चीजें लिखे बग़ैर पड़ी रह गयी हैं। पर इसी समय उन्हें उठाया तो नहीं जा सकता। मामूली स्तर पर बात बनाने से मुझे चिढ़ है, लेकिन सहसा मुझे मकड़ी के नन्हें तार की स्मृति फिर हो आती है और मैं बिस्तर छोड़ कर उठ खड़ा होता हूं, कहीं जाला फिर न तनने लगे! मुन्नी की माँ ऐसे ही समय आ जाती है, "कहीं बाहर जा रहे हो क्या?" एक तेज़ भनक दिमाग़ में बज उठती है, पर मैं उस पर तुरंत हाथ रख देता हूं। कोई कड़वी चीज निगलता हूं, "हां, कोई काम है क्या?"<br />
<br />
"नहीं तो, ऐसे ही पूछ लिया। अभी तो धूप बहुत तेज़ है, कुछ रुक जाते!"<br />
<br />
और वह कह ही क्या सकती है? थकी भी तो है, बेहद। रुनकू ने सारी दोपहरी परेशान किया है। चौका-बरतन, सामान की संभाल-सहेज, कपड़ों की सफ़ाई; अभी तो उसे पिला कर सुलाया है। ब्लाउज़ के बटन खुले ही हैं।<br />
"मुन्नी भी सो रही है क्या?"<br />
<br />
"नहीं, सब जग रहे हैं।" वह उगती हुई हंसी को दबाती है, चेहरे पर खून की पतली-सी छलक होती है और फिर क्षण ही भर में सूख कर धीरे-धीरे गाढ़ी होने लगती है। वह दरवाज़ा छोड़ कर कमरे में आती है, "आज मुन्नी की आंखों में बहुत दर्द है। चेहरा सुर्ख़ हो गया है। अभी-अभी तो सिर में तेल डाल कर बहुत देर तक सहलाती रही हूं, तब जा कर सोई है।"<br />
<br />
वह चारपाई पर बैठ जाती है। मैं पास आ कर कहता हूं, ब्लाउज़ के बटन तो ठीक कर लो, तुम्हें अब ठीक से बाडी पहनना चाहिए।"<br />
<br />
वह बटन बंद करते-करते बोलने लगती है, "अब इसके सुख की कल्पना मेरे पास नहीं है, न ही तुम्हारे मन में है और अगर है, तो नहीं होनी चाहिए।"<br />
<br />
उसका बदन गर्म होने लगता है... मेरे सीने में एक बंद ज्वालामुखी है, जो कभी नहीं भड़केगा, यह मैं जानती हूं।... ऐसी ही बातचीत के धरातल पर वह ज्वालामुखी तक पहुंचती है। और मुझे ऐसी ही मंत्र-सी बातचीत से डर लगता है। मैं ईंधन नहीं डालता और वह उठ खड़ी होती है। कहीं जैसे कोई दर्द रेंग गया हो। मैं चाहता हूं, जाते-जाते उससे कुछ कह कर जाऊं, पर ऐसे समय कुछ कहने का मतलब है, कुछ सुनने की संभावना।<br />
<br />
शायद जिस तरह उसे मालूम है कि मैं कहां जाता हूं, उसी तरह मुझे भी मालूम है कि मैं कहीं नहीं जा रहा हूं, पर जा रहा हूं, यह ठीक है।<br />
<br />
मेरे घर के सामने एक चौड़ा नाला है और उसके परे कटीली झाड़ी का एक बड़ा सा गुंबद। मैंने कभी इसमें एक खरगोश के जोड़े को घुसते देखा था। वैसे मैं पल भर की पिछली बात को भूल जाता हूं, पर उसे आज भी नहीं भूला। घर से निकलता हूं, तो पल-भर रुक कर उधर जरूर देख लेता हूं। स्कूल से लड़कियों को ढोने वाली गाड़ियां बोलती हैं। तीर की तरह सड़क को चीरती हुई चिड़िया उड़ जाती है, पर वह खरगोश का जोड़ा!... मुन्नी अब तक उठ कर मुझे जरूर ढूंढ़ गई होगी और फिर अपने कमरे में जा कर लौटी होगी। मेरी मेज़ की गर्द-भरी सतह पर अपने हाथ की थाप बनाने के लिए या तो कुर्सी पर चढ़ गई होगी या लुढ़क कर गिरी होगी तो उसकी मां कुर्सी को दो चपत मार कर उसे चुप कराने के बाद समझा रही होगी कि आखिर उसे इस मैच पर रोज़ अपने हाथों के निशान छोड़ने से मिलता क्या है!<br />
<br />
"पापा छे कैछे कहूँगी कि मैं तुम्हें खोजती थी?" वह रोज़ कहती है और मैं रोज़ झूठला देता हूं। लेकिन वह मानती नहीं, मेरी उंगली पकड़ कर मेज़ के पास तक खींच ले जाती है। मेरी आंखों में धुंधलके की एक परत छा जाती है।<br />
<br />
उसकी मां कहती है, "खिड़की कितनी ही बंद रखो, गर्द आ ही कर मानती है।" और मैं... देखता हूं कि मुन्नी की हथेली की थाप बढ़ती ही जा रही है। कभी-कभी इन हाथों की रेखाओं में मनुष्यता का पूरा भविष्य पढ़ा गया है। और कभी आग की बेतरतीब लहरें किसी अनहोनी से वस्तु सत्य के वीरान अंधेरे से दौड़ दौड़ कर मेरे सीने से सटी चली आती हैं। चौकड़ी भरते हिरणों की लंबी कतारें और पीछे लोलुप, अंधा दुष्यंत...<br />
<br />
मैं खुद अपने आगे खड़ा हूं, मान्यताओं की सलीब पर टंगा हुआ, लहूलुहान!... पत्थर का एक बहुत बड़ा ढेर है और लोग आंखें मूंद कर पत्थर मारते हैं... लोग फूल चढ़ा रहे हैं मान्यताओं पर... आदमी को बार-बार की नोची-छिछड़ी को दांतों से नोच-नोच कर फेंक रहे हैं... लोग नंगी औरत के कोमल शरीर को खुरदुरे जूट के रस्सों से जकड़ कर बांध रहे हैं... सिर्फ़ एक लाचारी का आरोप... आदमी नहीं, टूटा हुआ, पुराना खंडहर... आखिर क्यों? फिर मैं शिकायतों के बारे में सोचता हूं, पर बीवियों और मजदूरों की नहीं, अपनी ही... तुम रुक कर कुछ पूछ नहीं सकती थी, तुम्हें इतना भी ख्याल नहीं कि मैं इतनी तेज धूप में कितनी दूर चल कर आया हूं। तुम्हें पता है, हम कितने दिन पर एक दूसरे को देख रहे हैं। शायद तुम इसीलिए नहीं रुक सकी कि तुम्हारे साथ तुम्हारी सखी थी और उस पर तुम यह जाहिर होने देना नहीं चाहती थी कि तुम मुझे जानती हो!... गोल गोल चक्कर खा कर हवा ऊपर को उड़ गई है और सड़क के किनारे खड़े मौलश्री के पेड़ की तमाम सूखी पत्तियों के पर लग गए हैं। इनके साथ उस कोने की धूल भी है, जहां पार्क में बच्चों के खेलने ने घास को उड़ा दिया है और इस लंबे यूकेलिप्टस की छरहरी शाखें अब भी थरथरा रही हैं।<br />
<br />
मैं धीरे-धीरे चल रहा हूं। चारों ओर कब्रिस्तान है। सड़क के नीचे, और ऊपर की हवा तक में बातों के टूटे-फूटे अस्थि-पंजर उभर आए हैं। मैं सिर्फ़ चुभन, टीस और प्रताड़ना को चुन-चुन कर अपने तरकश में भरता जाता हूं। एक विकलांग, विक्षिप्त योद्धा की तरह मैं पसीने और गर्द से लथपथ हो रहा हूं। हवा एकदम चुपचाप खड़ी है, मौलसिरी की पत्तियां दम साधे हैं, यूकेलिप्टस की लम्बी शाखें मर गई हैं और बच्चों के पार्क की बेघास की उजली ज़मीन घिसी हुई, निर्जीव हड्डी की तरह चमक रही है। मैं चाहता हूं, हवा फिर गोल-गोल चक्कर खा कर ऊपर उठे और फिर वही साल-भर पुराना सब-कुछ आज घट जाये, मौलसिरी की पत्तियों, यूकेलिप्टस की डालों, पार्क की जमीन और मेरे साथ...<br />
<br />
मैं थक कर टूक-टूक हो रहा हूं। पल-भर कहीं बैठना चाहता हूं और कुछ देर सब बाहर का ही देखना चाहता हूं, जैसे कोई मकान का दरवाज़ा लगा कर बरामदे में आ जाए। लेकिन अब बहुत देर हो गई है, लौटने में काफ़ी समय लगेगा।... लगता है, वह घर से निकल नहीं पायी... क्यों नहीं निकल पायी? उसे निकलना चाहिए था। उसे लोहे की जूतियां पहन कर कांटो को कुचलते हुए आना चाहिए था, लेकिन वह कहती है, "मैं खून से लथपथ होना चाहती हूं, मैं उन सारे दागों को अपने शरीर पर मुखर रखना चाहती हूं, मैं सारे घावों की मवाद और गंदगी को लोगों को दिखाना चाहती हूं! देखो, सत्य यह है, तुम्हारी सच्चाइयों की तस्वीर यह है! तुमने घर को इसलिए स्वर्ग बना रखा है कि तुम्हारी बीवी तुम्हारी कमाई खाती है और एक खरीदे हुए दास से भी बदतर ढंग से तुम्हारी सेवा करती है। तुम्हें अगर यह पता लग जाये कि वह तुम्हें नहीं किसी और को चाहती है, तो तुम हवा में नजर आते हो, क्योंकि तुम्हें अपने से ज्यादा अपने पैसों पर भरोसा है। यही एक पुरानी टकौरी है तुम्हारे पास"... एक नन्हा सा ऑक्सीजन बैलून हवा में उड़ता चला जाता है, उसमें तुम बैठी हो,... गरदन दर्द करने लगती है देखते-देखते, लेकिन तुम किसी मायाविनी की तरह पीछे से हंसती हुई गोद में बैठ जाती हो, "मुझे प्यार करो, मेरे जाने का समय हो गया, मैं चाहती हूं, इसकी याद बनी रह जाय!" पर मुन्नी का बैलून तो मेरे कमरे की निचली छत ही में अटका रह जाता है। वह पैर पटकने लगती है, "पापा! उतालो इसे! देखो ये छत चुला लही है मेला गुब्बाला, तुम्हीं ने छिखाया है!"<br />
<br />
"मैं कैसे पहुँचूँ इतनी ऊँचाई तक ?"<br />
<br />
"अच्छा, मुझे कन्धे पल उठाओ !"<br />
<br />
"फिर भी तो नहीं पहुँचोगी।"<br />
<br />
"कुल्छी पल खले हो जाओ !"<br />
<br />
उसकी माँ बिगड़ती हुई आती है, "यह क्या तमाशा है ! अभी तो आँख ही गई है, अब हाथ-पाँव भी तोड़ कर बैठेगी?"<br />
<br />
<br />
मैं चुपचाप खड़ा हूं और वह मुन्नी के उतरने का इंतजार करती है। लेकिन यह तो ऑक्सीजन ही निकल गयी गुब्बारे से! "मुन्नी!... मुन्नी!"<br />
<br />
"अब जाने भी दो ! और हां, कल रात कुछ लिख रहे थे, वे काग़ज़ कहाँ गए?"<br />
<br />
...मुन्नी की दवा और दूध... चुपके से मन में कुछ काँपता है — मैं ऐसी ही नन्हीं-नन्हीं बातों को ले कर परेशान होता हूँ।<br />
<br />
उसका स्वर कानों में बज उठता है, "आख़िर इसमें क्या ऐसा रखा है, जो तुम्हें विचलित कर देता है? मैं रुकी नहीं, कुछ कहा नहीं, तो क्या ऐसा आसमान फट पड़ा? मैं पूछती हूं कि मुन्नी के दूध और दवाइयों का क्या हुआ? तुम कुछ लिखकर मुझे देने वाले थे न ?"<br />
<br />
और इतने ही समय में यह कुछ धीमी-सी हो गयी है। मैं चुप जो रह गया।<br />
<br />
"क्या सोच रहे हो? मैंने तो समझा कोई कहानी लिख रहे थे। आज किसी को दे कर कुछ रुपए लाते तो अच्छा था। कल दो रूपये का सामान मंगाया था, आज-भर और चलेगा।"<br />
<br />
इस नन्हे-से अवसर से संभल गया हूं, इसलिए बात बनने में देर नहीं लगती, "वह तो पत्र था। तुम्हें गोदावरी ने लिखा था न कि किताबें भिजवा दो, वही प्रकाशक को लिखा कि उसे भेज दें!... अरे रुको, देखो, वह क्या है?"<br />
<br />
"कहाँ ?"<br />
<br />
"रुको तो ! अरे, यह तो वही तिल है !"<br />
<br />
अंगुलियाँ काँप जाती हैं । चेहरे पर चुनचुनाहट की तरह कुछ बहुत नन्हा-नन्हा उग आता है, एक अजीब-सी ख़ुशी की लहर —<br />
<br />
"हटो भी, खिड़की खुली है!"<br />
<br />
... मेरे सीने में एक ज्वालामुखी है, जो कभी नहीं भड़केगा, यह मैं जानती हूँ ।<br />
<br />
...मैं समझ नहीं पाता कि स्त्रियाँ और मज़दूर आख़िर मालिकों को क्यों ओढ़े हुए हैं, महज़ इतनी सी बात के लिए या मुन्नी की आँखों के माड़े की दवा या उसके दूध के लिए !</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A5%87%E0%A4%AF&diff=43737मार्कण्डेय2023-08-04T20:07:37Z<p>अनिल जनविजय: /* कहानियाँ */</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=मार्कंडेय.jpg<br />
|नाम=मार्कण्डेय<br />
|उपनाम=--<br />
|जन्म=5 मई 1930<br />
|मृत्यु=18 मार्च 2010<br />
|जन्मस्थान=गाँव बराई, जौनपुर, उत्तरप्रदेश <br />
|कृतियाँ=अग्निबीज, सेमल के फूल (उपन्यास), सपने तुम्हारे थे (कविता-संग्रह), पत्थर और परछाइयाँ (एकांकियों का संग्रह), <br />
|विविध=पहली चर्चित कहानी गुलरा के बाबा। 'नई कहानी' आन्दोलन के एक पुरोधा।<br />
|जीवनी=[[मार्कण्डेय / परिचय]]<br />
}}<br />
===कहानियाँ===<br />
* [[हंसा जाई अकेला / मार्कण्डेय]]<br />
* [[गरीबों की बस्ती / मार्कण्डेय]]<br />
* [[दूध और दवा / मार्कण्डेय]]<br />
<br />
===पत्र===<br />
* [[मार्कण्डेय के नाम पत्र / इसराइल]]<br />
* [[मार्कण्डेय के नाम पत्र / ओमप्रकाश ग्रेवाल]]<br />
* [[मार्कण्डेय के नाम पत्र / श्रीकांत वर्मा]]</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A5%87%E0%A4%B2-%E0%A4%AA%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0_/_%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%B2%E0%A4%BF_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80&diff=43736बेल-पत्र / गीतांजलि श्री2023-08-04T15:03:32Z<p>अनिल जनविजय: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=गीतांजलि श्री<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
सब्ज़ी बाज़ार में फ़ातिमा का पैर 'छप' से किसी गिलगिली चीज़ पर पड़ गया।<br />
<br />
"ओफ्..." घिन के साथ उसने पैर को अलग झटका।<br />
<br />
“कुछ नहीं है, रीलैक्स," ओम ने झुककर देखा और दिलासा दिया, “गोबर है, बस।"<br />
<br />
पता नहीं क्यों, फ़ातिमा के अन्दर ऐसा तेज़ गुस्सा फूटा, "देखो, होगा गोबर तुम्हारे लिए पाक। मेरे लिए वह उतना ही घिनौना है जितनी घोड़े की लीद।"<br />
<br />
ओम के भीतर तक कुछ हिल गया, “फ़ातिमा, पागल हो जाओगी। इस तरह करोगी तो हर इशारे का दो में से एक ही मतलब होगा, हिन्दू या मुसलमान।"<br />
<br />
“अब भी सँभल जाओ," ओम कराह उठा, “तुम जिस कीच में फँस रही हो वह अभी नरम है, अभी उसमें से निकल सकती हो। पर फ़ातिमा, समझोगी नहीं तो फँसती जाओगी, और फिर वह पदार्थ ठोस हो जाएगा...तुम उसमें अटक जाओगी, हिल नहीं पाओगी, अकड़ी रह जाओगी..."<br />
<br />
दोनों स्कूटर पर सवार घर लौट आए।<br />
<br />
अन्दर शन्नो चाची आई थीं, “यह लो बेटा, शिरडी गई थी, साईं बाबा का परशाद है। बहू, यह धागा बँधवा लो।"<br />
<br />
फ़ातिमा ने चुपचाप धागा बँधवा लिया।<br />
<br />
उसकी आँखों में अनोखी चमक थी।<br />
<br />
उसी शाम उसने अपना सूटकेस खोला। अम्मी ने गुलाबी और हरे गोटेदार साटिन में कुशन और जा-नमाज़ लपेट दी थीं। फ़ातिमा ने खिड़की के नीचे, कमरे के एक तरफ़ वह चीजें लगा दी। नमाज़ पढ़ी और आसन एक कोने से ज़रा-सा मोड़ दिया।<br />
<br />
रात को ओम ने अपना हाथ धीरे-से फ़ातिमा के कन्धे पर रखा। फ़ातिमा ने मुँह फेर लिया। ओम ने और नज़दीक खिसककर कहा, “फ़ातिमा, यह क्या कर रही हो?"<br />
<br />
फ़ातिमा घायल जीव की तरह छिटककर अलग हो गई, "मैं कुछ नहीं कर रही हूँ। उल्टा चोर कोतवाल को..." वह चीख़ते-से स्वर में बोली।<br />
<br />
अजीब-सी हो रही थी फ़ातिमा, मानो एक बारीक़-सी पर्त के नीचे बस 'हिस्टीरिया' ही 'हिस्टीरिया' दबा पड़ा हो। जब तक चुप्पी ठीक है, पर ज़रा-सी आवाज़ हुई कि पर्त चटकी और चीत्कार बाहर फूटा।<br />
<br />
ओम ने उसका हाथ हलके से दबाया, “प्यारी, मैं क्या कर रहा हूँ ? तुम तो हर बात का मतलब निकालने लगी हो। इतनी जल्दी बुरा मान जाती हो। पहले हम हर तरह की बात पर हँस लेते थे।"<br />
<br />
फ़ातिमा के आँसू छलक पड़े, “पहले की बात मत करो। पहले हम कुछ और ही थे।" उसने सिसकी के साथ अपना मुँह तकिए में दबा दिया।<br />
<br />
ओम ने उसे कस के चिपटा लिया।<br />
<br />
“छोड़ दो मुझे, छोड़ दो !" वह रोती हुई उसकी बाँहों से निकलने को तड़पने लगी।<br />
<br />
"नहीं," ओम ने बाँहें और कसते हुए कहा, "नहीं फ़ातिमा, कैसे छोड़ सकता हूँ तुम्हें। प्लीज़...! तुम समझ ही नहीं रही..."<br />
<br />
समझ तो वह भी नहीं रहा था। उसकी मति मारी गई थी। मुँह फाड़े कोई लहर आई थी और उसे मध्य सागर में, अनजान अँधेरों में गोते खाने पटक गई थी। यह सब क्यों हो रहा है ? यह सब क्या हो रहा है ? उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। _ सिसकती फ़ातिमा को सीने से लगाए वह मद्धिम चाँदनी में चुपचाप पड़ा रहा। पलंग के बगल में खड़े ‘कैबिनेट' पर चाँद इशारा कर रहा था। फ़ातिमा ङ्केकी कॉलेज की तस्वीर धुधली-सी शालार रही थी । दुबली-सी लाड़ी, जींस पर कुर्ता लटकाए, कुर्ते पर एक लम्बी चोटी झुलाती, हँसमुख चेहरेवाली, चपल नयनोंवाली। तब फ़ातिमा कितनी शोख हुआ करती थी। और निडर । और बागी। होस्टल लाउंज में ही अपने अब्बा से लड़ पड़ी थी-'समाज...मज़हब...धमकाइए मत मुझे...सारी दुनिया घटिया नियम अख्तियार करे तो भी वे सही नहीं हो जाएँगे।' दोनों ने मिलकर सबका सामना किया था। जान की धमकी देनेवाले अनाम ख़तों को हिकारत से फाड़कर फेंक दिया था। ओम की नौकरी चली गई। उस पर आरोप लगे कि वह घमंडी है और ऑफ़िस का माल निजी इस्तेमाल में लाता है। मित्रों के संग दोनों हँसे थे, क्योंकि वाकई ओम ऑफिस का कागज़, जब-तब अपने लेख टाइप करने के लिए उठा लाता था। एक के बाद एक बवाल हुआ। शहर-भर में हंगामा फैला। फ़ातिमा को तो उसके अब्बा ने ताले-चाभी में बन्द कर दिया। पर वह खिड़की से कूदकर भाग आई थी और दोनों ने शादी कर डाली थी।<br />
<br />
ओम ने गहरी साँस ली। ऐसा लगा था कि एक डरावने दौर का अन्त हुआ था, एक खतरनाक कहानी खत्म हुई थी। पर न जाने कैसे उस कहानी का अन्त एक नई शुरुआत बन गया।<br />
<br />
सवेरे आँख खुली तो फ़ातिमा नमाज़ पढ़ रही थी।<br />
<br />
“ये क्या ?" ओम के तन-बदन में आग लग गई। उसने झपटकर जा-नमाज़ खींच ली और फ़ातिमा को घसीटकर खड़ा कर दिया, “ये क्या कर रही हो ?" वह दाँत पीसकर बोला, “अब यही कसर बाकी है ?"<br />
<br />
“छोड़ दो मुझे !" फ़ातिमा की आवाज़ काँप रही थी। उसकी आँखों का दृढ़ संकल्प देखकर ओम थर्रा उठा। फ़ातिमा झटके से वापस जा बैठी।<br />
<br />
नाश्ते पर दोनों चुप थे। ओम अपने चेहरे के आगे से अखबार हटाता तो केवल एक और कौर मुँह में डालने के लिए। जब फ़ातिमा खाली प्लेटें उठाने लगी तब उससे नहीं रहा गया।<br />
<br />
"रुको।"<br />
<br />
फ़ातिमा ठिठक गई, सिर बिना उसकी तरफ़ घुमाए।<br />
<br />
"जाओ," ओम गुर्राकर बोला, “जब सुनने से पहले ही तय कर चुकी हो कि सुनोगी नहीं तो क्या फायदा ?"<br />
<br />
फ़ातिमा सट्-सट् साड़ी फड़फड़ाती रसोई में घुस गई। वह वाकई कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी। सारा दर्द, सारी कुंठा, उसने अब इसी एक बिन्दु पर न्योछावर करने की कसम खा ली थी-अपनी एक पहचान पर, क्योंकि उसे लग गया था कि कोई उसे पहचानता नहीं है, मानता नहीं है। या तो बस बर्दाश्त करता है या फिर ज़लील करता है। उसे अपनी अस्मिता की खोज हो आई। ठीक है, वह भी दिखा देगी वह क्या है।<br />
<br />
ओम का हाथ फिर उसके कन्धे पर था। “फ़ातिमा !" उसकी आवाज़ रुंधी-रुंधी थी।<br />
<br />
फ़ातिमा तड़प उठी। ओम की कोमलता वह सह नहीं सकती। इसी तरह वह हिलगा देता है। वह उम्मीद और विश्वास में बैठ जाती है कि उसे मंजूर किया जा रहा है। नहीं चाहिए यह नरमी। चीख लो। मार लो। पर...।<br />
<br />
“फ़ातिमा, कुछ तो सोचो। तुम समझती क्यों नहीं हो कि क्या कर रही हो ? सारा जग इठलाएगा कि उन्हें तो हमेशा पता था तेल और पानी का मेल कब हो पाया है।...तुम सँभलती क्यों नहीं...? हमने एक-दूसरे से प्यार किया है। धर्म से परे।...तुमने क्यों ठान लिया है कि दुनिया के रचे झूठे भँवर में हम फँस जाएँ ?...तुली हुई हो हमें हिन्दू-मुसलमान दिखाने में।...फ़ातिमा, तुम जहर को मरहम समझ रही हो। प्लीज फ़ातिमा, प्लीज...। जिसमें से लड़कर निकल आए थे उस गढ़े में गिर जाना चाहती हो ?...हम तो बेइंसाफी से लड़नेवालों के लिए एक ताकत बन गए थे, 'सिंबल', 'सिंबल' ऑफ विक्टरी..."<br />
<br />
फ़ातिमा तिलमिला उठी, “हाँ-हाँ 'सिंबल' हैं। बस 'सिंबल' बनके रह गए हैं। मुर्दा 'सिंबल'। और कुछ नहीं रहे। जैसे तिरंगे झंडे पर बना चक्र।...ओम, मैं इनसान हूँ, फरिश्ता नहीं। सुना ? समझे ?...सुन लो ओम, मुझे मेरी दुनिया चाहिए, इनसानोंवाली।...डू यू अंडरस्टैंड...। जिसमें तरह-तरह के रिश्ते हैं, दूर के, करीब के। मुझे चार जिगरी दोस्तों के सहारे नहीं जीना है। ओम...ओम, तुम बेवकूफ हो...ज़िन्दगी एक ज़रा-से 'इंटीमेट' घेरे में नहीं जी जाती। हर पल की यह 'इंटीमेसी'...सब इतने नज़दीक...सब एक-दूसरे के बारे में सब कुछ जानते हुए...। ओम, मेरा दम घुटता है। साँस लेने के लिए थोड़ा दूर होना पड़ता है। मुझे यह चाहिए...यह सब चाहिए...।"<br />
<br />
ओम उत्तेजित होकर बोला, 'सब' किसे कह रही हो ? इस तरह क्या तुम 'सब' पा जाओगी ? फ़ातिमा, तुम अपने आपको भी खो दोगी। जिसे 'सब' समझ रही हो वे हैं बेजान सिंबल्स।...तुम डर गई हो...।<br />
<br />
फ़ातिमा झटके से वहाँ से चली गई।<br />
<br />
वह सच ही बहुत डरने लगी थी। बेकार में ही घबराहट की लहर उसके बदन में सिहर उठती। रातों को नींद खुलती तो वही जानी-पहचानी आवाजें-नल से गिरती टप-टप बूँदें, हवा से धीमे-धीमे खड़खड़ाती खिड़की, दूर सड़क पर जाती ट्रक की आवाज़-वह अँधेरे में ही डरकर झाँकने लगती...कौन है, क्या है...?<br />
<br />
कभी ख्वाब देखती-अम्मी के कमरे में दाखिल हुई। अम्मी चुपचाप काम कर रही हैं। कहीं जानेवाली हैं। चेहरे पर भाव शान्त संयमित है; और फ़ातिमा उनसे कहने को तड़प रही है, उनकी सुनने को बिलख रही है। पर अम्मी बात ही नहीं करतीं, पथराई-सी हैं। उनका क्या होगा ? फ़ातिमा डरने लगती, अजीब-सी घुटन उसे डसने लगती, वह टूटती जाती। टूट रही है, चीख रही है। चेहरे की हर बनावट उस चीख में बिगड़ रही है।<br />
<br />
अचानक वह जाग जाती। उस चीखते, विकृत चेहरे पर पड़ा यह शान्त, स्थिर, सिलवटरहित सोकर जागा चेहरा...। वह और भी अधिक डर जाती।<br />
<br />
फ़ातिमा कुर्सी पर बैठ गई। पस्त। उसकी हिम्मत चूर हो गई थी। अपने किए के नतीजे को नहीं जानना चाहती थी। आदर्श लड़ाई अब बहुत हुई। उसे लग रहा था उसमें सिर उठाने की ताकत नहीं रही। हर पौधे को पनपने के लिए मिट्टी चाहिए, हवा-पानी चाहिए। वह मुरझाने लगी थी। ओम कहता था, उसे कोई हक नहीं कि हर झोंके पे ज़रा और झुक जाए, इतनी कमज़ोर साबित हो। समाज से लोहा लिया है तो बंजर ज़मीन पर उगना पड़ेगा। नहीं तो पहले ही किसी बेल की तरह कहीं पेड़ या दीवार से क्यों नहीं चिपट गईं?<br />
<br />
बहुत हो गईं ये कोरी बातें। फ़ातिमा का सिर भन्ना उठा। उसे लगा किसी और ज़िन्दगी में वह अपनी इस कमज़ोरी को कोस लेगी। अभी तो बस वह अपनी एक जगह चाहती है, अपनी पहचान माँगती है, अपनों को पाने के लिए तड़प रही है।<br />
<br />
किसी ने घंटी बजाई। फ़ातिमा ने नज़र उठाई। शन्नो चाची थीं।<br />
<br />
सोमवार था। चाची हर सोमवार आ जाती थीं। अम्मा के नाम पूजा कर जाती थीं।<br />
<br />
दो बरस अम्मा मुँह फुला के बैठ गई थीं। पर बेटे से कौन माँ अलग हो पाती है। देखते ही देखते सारी अकड़ चम्पत हो गई और बेटे के घर आना-जाना शुरू हो गया। तभी शन्नो चाची भी आने लगीं।<br />
<br />
अम्मा तो फ़ातिमा को जी-जान से प्यार भी करने लगीं।<br />
<br />
कभी शन्नो चाची ने आँखें मटकाकर कहा था, "क्यों री, तेरी बहू की आवाज़ तो बड़ी सुरीली है। वरना मैं तो आवाज़ से हिन्दू-मुसलमान बता देती हूँ।"<br />
<br />
अम्मा ने फ़ातिमा के गाल पर हाथ फेर के कहा था,-"मेरी बहू किसी कोने से मुसलमान है ही नहीं।"<br />
<br />
फ़ातिमा ने पूछ लिया,-"मैं भी तो सुनूँ आवाज़ में क्या रहस्य है ?"<br />
<br />
चाची ने हाथ नचाया, "भई मुसलमानिन हमेशा भोंडी आवाज़ ही पाती है। आदमियों-जैसी ! भारी !...वह मालिन नहीं आती है ?"<br />
<br />
फ़ातिमा ने तपाक से कह दिया, “आवाज़ तो आवाज़ ठहरी, हिन्दुओं के तो आदमी ही औरतों-जैसे हैं, पिद्दे...से !"<br />
<br />
बाद में ओम और फ़ातिमा अपनी मित्रमंडली में इस किस्से पर ठहाके मारके हँसे थे। ओम के पाँच फुट सात इंच के पुरुषत्व की लम्बी खिंचाई की गई थी। फ़ातिमा ने खुद को फ़तेह खाँ फ़नकार कहकर कोई जोशीला गाना सुना दिया था।<br />
<br />
आए दिन ऐसे किस्से होते थे जिनको लेकर मित्रों में छेड़छाड़ चलती। सब मिलकर संसार की रीतियों पर ताज्जुब करते। ओम के बाबा कहा करते थे कि राह चलते कभी साँप और मुसलमान मिल जाए तो पहले मुसलमान का खात्मा करो, फिर साँप का ! ओम तब बनिए और पठान का चुटकुला सुनाता कि बनिया पठान के सीने पर सवार घूसे पे घूसे जमाए जा रहा है और फफक-फफककर रो रहा है कि रुके तो कैसे, क्योंकि वह रुका नहीं कि पठान उठकर उसे वह पटकेगा...वह पटकेगा...!<br />
<br />
कभी ओम फ़ातिमा को चिढ़ाता, “इधर आ मुसलटी, देखें तो तेरे बदन से कैसी बू आ रही है, पानी से बैर करनेवाली ?"<br />
<br />
फ़ातिमा इतरा के अलग हो जाती, “जा-जा काफ़िर, दो बूंद छिड़क ले और स्वच्छता का राग अलाप। बड़ा आया, ढोंगी धर्मात्मा कहीं का !"<br />
<br />
तब और दोस्त मिल जाते, “ना-ना भाभी, नहाने की बात तो छोड़। वह तो गनीमत है इतनी गर्मी है कि तुम्हें भी नहाना पड़ता है। पर उसका क्या जो हर मांस खानेवाले जानवर की बू होती है ?"<br />
<br />
"हैं ? यह क्या बकवास है ?"<br />
<br />
सब हँसते, “क्यों हमारी गाय महकती है ? कभी नहीं। और शेर ? और मुसलटा ?"<br />
<br />
“और घोड़ा ?" फ़ातिमा ताली पीटकर हँसती।<br />
<br />
सब मज़े में झूम उठते। कभी लोगों के दिमाग पर हँसकर, कभी चौंककर । क्या-क्या नहीं प्रचलित कर देते हैं, कुछ भी मान लेते हैं।<br />
<br />
पर शन्नो चाची तो शहद से लीपकर व्यंग्य कसती थीं। उन्हें तो 'फ़िट' करना ही था। लेकिन अम्मा कभी ऐसा-वैसा नहीं बोलती थीं। उन्होंने तो बस एक बार बहू बना लिया तो फिर स्नेह ही बरसाया।<br />
<br />
फिर अचानक उनका देहान्त हो गया। ओम एकदम टूट गया। अम्मा को याद करके नन्हे-से बच्चे की तरह रो पड़ता। फ़ातिमा भी रोने लगती। अम्मा याद आतीं। फिर अम्मी और अब्बा का ख़याल भी आ जाता। न जाने किस हाल में होंगे। इधर-उधर से कोई उड़ती खबर आ जाती थी। ख़ालूजान के पास गए हैं...नदीम की शादी कर दी...मोतिया का ऑपरेशन हुआ है..., वगैरह। एकदम कट चुकी थी उनसे फ़ातिमा। कभी...कुछ हो गया तो...?<br />
<br />
ओम ने अम्मा की तस्वीर फ्रेम करा के टाँग ली। शन्नो चाची ने उसी के बगल के आले पर उनके सबसे प्रिय भगवान-शंकर-का फोटो खड़ा कर दिया। कभी-कभार आती तो हाथ जोड़ लेतीं। देखते ही देखते वह कोना एक पूजा-स्थल बन गया। पार्वती और गणेश भी आ गए। सामने पीतल की एक तश्तरी में शिवलिंग, गंगाजल, अगरबत्ती और दीया सज गए।<br />
<br />
अम्मा की याद से कुछ ऐसी जुड़ गई थी यह पूजा कि ओम ने कभी उँगली नहीं उठाई। फ़ातिमा और वह आरती भी ले लेते और शन्नो चाची के कहने पर आले की तरफ़ जूता-चप्पल पहनकर न जाते।<br />
<br />
बहुत दिनों तक चाची नहीं आती हैं तो ओम अधीर लगने लगता है, फ़ातिमा को ऐसा वहम था। एक ऐसे ही दिन उसने पूछा, “मैं फूल बदल दूँ ?"<br />
<br />
ओम क्षण-भर चुप रहकर बोला था, “ठीक है, अम्मा को अच्छा लगता था।"<br />
<br />
फ़ातिमा ने नहाकर चाची की तरह सिर पर पल्लू डाल लिया। केले के पत्ते पर गुड़हल, गुलाब और मोगरा धो लाई और शिवजी के लिए बेल-पत्र । दूध से शिवलिंग को नहलाया, फूल-पत्र चढ़ाए, दीया जलाया। उसके मन से हूक-सी उठी-'अम्मा...अम्मी...अब्बा...!'<br />
<br />
अगली बार चाची आईं तो पूछने लगीं, “यह पूजा किसने की ?"<br />
<br />
“मैंने।" फ़ातिमा ने बताया।<br />
<br />
चाची कुछ बोली नहीं, पर हर सोमवार को आने लगीं।<br />
<br />
“क्यों बहू, ओम ऑफिस गया ?"<br />
<br />
"हाँ चाची।"<br />
<br />
"और तूने वह धागा तो नहीं उतारा ? हाँ उतारना नहीं, तेरी गोद भरेगी।"<br />
<br />
“धागे से नहीं चाची, हमारी मर्जी से भरेगी।"<br />
<br />
"अरे तो मर्जी तो है ही।" चाची ने पूजा के आले पर से घी उतारा और चढ़ावे के लिए थोड़ा-सा हलुवा बनाया। पूजा की।<br />
<br />
किसी जन्माष्टमी में नीचे के आले को साफ करके कृष्ण-झाँकी भी बना गई थीं। तभी फ़ातिमा ने, जैसे अम्मा बनाती थीं, वैसे सिंघाड़े का हलुवा बनाया था। शाम को ओम की तरफ़ बढ़ाया तो उसने पूछा, “क्या शन्नो चाची बना गईं ? तुमने ?...इतना आसान थोड़े है। एक दिन में नहीं आ जाता।"<br />
<br />
शन्नो चाची पूजा करके चली गईं। फ़ातिमा भी बैंक के लिए चल पड़ी। फुटपाथ पर लोगों की भरमार थी। फ़ातिमा को लगा, वह सबके रास्ते में आ रही है और सब उस पर मन ही मन भन्ना रहे हैं। अपराध-बोध से वह कभी बाईं ओर झुकती, कभी दाहिने को हटती, और एकाएक रुक जाती...भीड़ को गुजर जाने दो...।<br />
<br />
वह भीड़ से बेहद घबराने लगी थी। लोगों से घबराने लगी थी। कभी कोई जाननेवाला दिख जाता तो अव्वल तो वह उसे पहचानती ही नहीं और अगर पहचान लेती तो दुविधा-भरी एक मुस्कान के साथ कतरा के बगल से निकल जाती कि न जाने सामनेवाला उसे पहचान भी रहा है...पहचानना भी चाहता है...?<br />
<br />
ओम झल्ला उठता, “कहीं जाते हैं तो बोलने की कोशिश भी नहीं करती हो। लोग समझेंगे खिलजी खानदान का होने का गरूर है, बादशाहत का गुमान पाले हुए हो।"<br />
<br />
"तो मत ले जाओ मुझे कहीं।" फ़ातिमा बात निपटा देती।<br />
<br />
ओम अक्सर अकेले ही जाता। फ़ातिमा से कह-कहके हार गया कि लोग हर बात का टेढ़ा मतलब ही निकालेंगे और निकालेंगे ज़रूर। उसी दिन की, मनचन्दा बता रहा था, बाला ने कह दिया था-"देखो, नहीं आईं न शहज़ादी। समझ रही होंगी कि बेटे का जन्मदिन तो बहाना है, दुर्गा-पूजा का जमघट होगा असल में। अजी मानो न मानो, मुसलमान होता ही है ज़्यादा मुसलमान । हम तो सिद्दीकी के घर हर ईद पर जाते हैं। जबकि हमें मालूम है वह छुप के गाय काटते हैं ।"<br />
<br />
लोग कैसा कैसा बोलकर महफ़िल में रंग लाते हैं, इसका ओम और फ़ातिमा को पुराना तजुरबा था। वह तो शादी की खबर उड़ी-भर थी कि जग-भर अपने-अपने परमेश्वर का दूत बन बैठा और ओम और फ़ातिमा का रक्षक भी।<br />
<br />
“अरे भाई चुप कैसे बैठें, एक शरीफ लड़का बरबाद हुआ जा रहा है...वह चंडाल निकाह किए बगैर नहीं माननेवाली...।"<br />
<br />
“अमाँ फला-फलाँ की यह जुर्रत ? हमारी लड़की उठाएँगे ? देख लेंगे...।"<br />
<br />
और तो और, अम्मा बेचारी की मौत पर भी अफवाहों का बाजार गर्म था"देखा ना, निकाह किया, बेटे का धर्म लिया, माँ रो-रो के जान दे बैठी...।"<br />
<br />
मनचन्दा बता रहा था कि इकहत्तर में तो यह शोहरत थी कि फ़ातिमा के बाप पाकिस्तान के एजेंट हैं। शादी का विरोध तो नाटक है, लड़की को दुश्मनों की मदद की खातिर काफ़िर से ब्याहा है, ओम की कम्पनी, शायद डनलप के तकियों और गढ्दों में एफ.बी.आई. की फ़ाइलें सिलती थी !<br />
<br />
फ़ातिमा चैक भुनाकर लौट आई।<br />
<br />
शाम को ओम जल्दी घर आ गया। "चलो डमरूपार्क चलें।"<br />
<br />
वहाँ पहुँचकर दोनों एक घने पेड़ के नीचे, उसके चौड़े तने से टेक लगाए बैठ गए। फ़ातिमा जमीन पर पड़ी एक टहनी से खेलने लगी। अचानक किसी सड़की कुत्ते की, उसी टहनी पर, उसी तने से लग के, एक टाँग उठाके क्रिया करने की तस्वीर बेवजह उसके मन में कौंध गई। उसने चीखकर टहनी गिरा दी।<br />
<br />
“क्या हुआ...क्या हुआ ?" ओम भी हड़बड़ा गया।<br />
<br />
"व...वो..." फ़ातिमा ने बड़ी-बड़ी आँखें उधर कीं। और फिर खिलखिलाकर हँस पड़ी। सरिता-सी कल-कल करती उन्मुक्त हँसी।<br />
<br />
"फ़ातिमा !" ओम ने उसे गले लगा लिया।<br />
<br />
हँसते-हँसते फ़ातिमा रो पड़ी।<br />
<br />
“ओम, मुझे अच्छा नहीं लगता। बिलकुल अच्छा नहीं लगता।"<br />
<br />
"क्या बात है, फ़ातिमा ! मेरी जान, अब तो खुश हो जाओ। सब तो अच्छा हो रहा है। तुम अम्मी के भी पास जाने लगी हो।"<br />
<br />
अब्बा का तार आया था। उन्हें अस्पताल में भर्ती कर दिया गया था। सख्त बीमार थे। फ़ातिमा बदहवास हाल में मैके पहुंची थी। शादी के बाद पहली बार। बहुत रोना-धोना हुआ। अब्बा जान अच्छे हो गए। पर मुहर्रम शुरू हो गया था। फ़ातिमा ने ओम को लिखा- “अब्बा घर लौट आए हैं। अब कोई खतरा नहीं है। पर मुहर्रम शुरू हो गया है। उसके बाद ही आ पाऊँगी। अभी छोड़कर जाना ठीक नहीं लगता।"<br />
<br />
मिलते ही दोनों में झगड़ा हो गया। ओम बरस पड़ा, “यह हमारा समझौता था कि धर्म से कोई साबिका नहीं होगा, उसके पचड़ों में बिलकुल नहीं पड़ेंगे।"<br />
<br />
फ़ातिमा ने आश्चर्य से कहा था, "तुम तो गज़ब ही करते हो ओम। मुझे धर्म से अभी भी कुछ वास्ता नहीं है। अब्बा बीमार थे। अम्मी का जी हल्का हो पाया। मेरे नौहे पढ़ लेने से उन्हें राहत मिली। बस। मैंने कोई समझौता नहीं तोड़ा।"<br />
<br />
"वाह-वाह," ओम ने लाल-पीले होकर ताना कसा, "तुम रोज़ा रखो, मातम करो, और फिर मासूमियत से कहो, क्या गलत किया ? फिर क्यों न अम्मी के दिल के सुकून के लिए निकाह भी कर लिया होता ? वही क्या ग़लत होता ?"<br />
<br />
फ़ातिमा ने बहुत गहराइयों से ओम की तरफ़ देखा। दो क्षण बाद शान्त स्वर में बोली, “हाँ शायद गलत नहीं होता। हमें फ़र्क न पड़ता पर अम्मी और अब्बा को इज्जत मिल जाती, हमसे रिश्ता कायम रखने का ज़रिया मिल जाता। मुझे इस तरह अलग होने को मजबूर नहीं होना पड़ता।...भाई की शादी तक में शरीक नहीं हो पाई।...तुम्हारे...हिन्दुत्व की वजह से।"<br />
<br />
ओम सन्नाटे में आ गया, “अरे ! दो दिन उस माहौल में लौटी और दिमाग फिर गया ? मैंने क्या निकाह से मना किया था ? या किसी भी किस्म की धार्मिक रस्म से ? बोलो। मन्दिर, मस्जिद, गिरजा..." ।<br />
<br />
“खूब रही," फ़ातिमा बीच ही में बोल उठी, “अब मन्दिर और फेरों की बात होगी। मन्दिर पर कौन-सा कलंक लग रहा था ? तुम जानते हो, अच्छी तरह से, जानते हो कि हमारे इस समाज में जो भी जाता है, लड़की का जाता है। लड़का सिर्फ़ लेता है।...तुम्हारे हिन्दू मज़हब की तरह...दूर-दूर तक अपना साया बिछाता है, अपनी छत्रछाया में दूसरों को पालता है...या डसता है... I...पर यह तो खूब रही कि अपने फैलाव से बेख़बर हैं और कोई दूसरा ज़रा-सी पनाह माँगे, होने का हक माँगे, थोड़ी जमीन चाहे तो भड़क उठें कि ऐसा है तो फिर हमें भी हिस्सा चाहिए ! उल्लू न बनाओ। तुम्हारा क्या बदला या बिगड़ा ?"<br />
<br />
ओम का हाथ उठ गया था, "अब ऐसी दलीलें दी जाएँगी? और यह जताओगी कि जैसे मैं तुम्हें उठा के ले आया ? अपनी रज़ामन्दी का जिम्मा लेते अब डर लगने लगा है।"<br />
<br />
फातिमा रोने लगी। पर बोलती रही, "रज़ामन्दी ? क्या तुमने कोई रास्ता छोड़ा था ? या तो इस तरह आओ, वरना जाओ, फूटो, मरो। छोड़ना क्या आसान होता है ?"<br />
<br />
“फातिमा", ओम चिल्ला पड़ा था, "इस तरह हमारे अतीत को मत झुठलाओ, हमारे प्यार को दुषित मत करो।" डमरूपार्क में दोनों अपने अतीत को असली और नकली गाँठों से उलझाए बैठे रहे।<br />
<br />
ओम ने फातिमा को गोद में लिटा लिया, “अब क्या है ? अब तो तुम हर साल नौहे पढ़ने अपने घर जाती हो।"<br />
<br />
फातिमा भर्राई आवाज़ में बोली, "जाती ही तो हँ बस । क्या नाता रख पाई हँ किसी से ? क्या दे पाती हैं उन्हें ?...ओम, मैंने समाज से लड़ाई की थी, वह मुझे बदनाम करे, मेरा बहिष्कार करे, मैं सब सह सकती थी। पर माँ-बाप से अलग होना..."<br />
<br />
ओम विचारमग्न हो गया। माँ-बाप से अलग कौन-सा समाज होता है ? है कोई समाज ?<br />
<br />
उसने दृढ़ स्वर में कहा, "नहीं, फातिमा, हम शिकायत नहीं कर सकते। जगदीश काका को याद करो।"<br />
<br />
जगदीश काका फातिमा को अंग्रेजी पढ़ाते थे। वह अकेले बुजर्ग थे जो उन दोनों की शादी में शरीक हए थे। शादी से पहले उन्हें नसीहत भी दे चुके थे- “देखो, इस समाज की ताकत को मामूली न समझो। उसके बारे में अपनी नीयत तय कर लो। खूब थू-थू होगी, यह समझ लो। उससे घबराते हो तो सोच लो। दुनिया के आगे चाहे मुस्काता मुखौटा चढ़ा लोगे, अन्दर चूर-चूर होते जाओगे। झेल सकते हो, हिम्मत है, तो आगे बढ़ो, हम सब तुम्हारे साथ हैं । यह नकली भेदभाव तुम बच्चों के मिटाए ही मिटेंगे। पर फिर ठीक से समझ लो, जाने दो जो जाता है...नाम, खानदान...किसी का गम न करो।'<br />
<br />
“फातिमा,” ओम ने उसका सिर अपने दोनों हाथों में ले लिया, "समाज को हरा दिया और अब लड़खड़ा रही हो !"<br />
<br />
"तम्हें क्या," फातिमा ने उसके हाथ हटाकर कहा, "तुम्हारी माँ, तुम्हारे रिश्तेदार, सब तुम्हारे ही रहे। तुम अपने ही रहे।"<br />
<br />
ओम ने ज़रा झुंझलाकर कहा, "तुम्हारी अम्मी चाहकर भी तुम्हें न मान पाईं तो यह उनकी कमज़ोरी है, मेरी माँ को क्यों कोस रही हो ?"<br />
<br />
फातिमा को बुरा लगने लगा । वह उठकर बैठ गई, “तुम नहीं समझ सकते। लड़के हो...हिन्दू हो।...तुम्हें क्या डर ?"<br />
<br />
"ओफ्फो!" ओम ने सिर पकड़ लिया, “ अब इस तरह बातें होंगी । जबसमाज के घटिया कानूनों से ऊपर उठ गए तो उनकी तुला पर हमें क्योंकर तौलोगी? लड़का, लड़की, हिन्दू-मुसलमान !"<br />
<br />
"कहना आसान है," फातिमा का गुस्सा बढ़ने लगा, “तुम ऊपर उठ गए और अलग हो गए । तुम्हें शुरू से यह छुट थी। पर मुझे तो हर कदम पर समाज के बाण सहने पड़ते हैं। जमादारिन है तो मुझसे पूछती है, तुम्हारे आगे तो मुँह नहीं खोलती। तुम्हारे उस जिगरी दोस्त की पढ़ी-लिखी बीवी तक, तुमसे वहीं पुराने अदब से बोलती है पर मुझसे 'हैलो' भी नहीं करती। कोई उससे पूछे तो सहीं कि यह सब नापसन्द है तो मुझ पर ही ज़ाहिर करने की तमीज़ क्यों ? जैसे मैंने ही तो यह सब किया है, तुम तो दूध के धुले, मासूम बेचारे हो।...धोबी तक जानपूछ कर मेरा काम देर से करता है... " फातिमा की सिसकियाँ बँधने लगीं।<br />
<br />
"छोड़ो फातिमा," ओम ने टोका, "हमने लोगों से कब कोई दूसरी उम्मीद की थी ? उनकी निर्दयता, उनकी संकीर्णता, लगातार तो देखते रहे हैं। छोड़ो उनकी। क्यों इन छोटी-छोटी लड़ाइयों में सिर खपाती हो?"<br />
<br />
“यही तो मैं समझ चुकी हँ," फातिमा चीख उठी, आपे में नहीं रही, "कि यह छोटी-छोटी लड़ाइयाँ ही असली हैं । बड़ी लड़ाई लड़ना आसान है । उन्हें गर्व से लड़ते हैं हम, अभिमान से मर-मिटते हैं उनके लिए। पर यह छोटी लड़ाइयाँ... कीड़े की तरह घिनौनी-दीमक की तरह लग जाती हैं, खोखला करती जाती हैं... इतनी छोटी होती हैं कि बड़ी-बड़ी स्वाभिमानी रोबदार लड़ाइयों से जोड़ कर देखना मुश्किल हो जाता है।...तुम्हारी लड़ाई बड़ी है। लड़ो और चाटो बड़ी लड़ाई की बड़ी जीत को। उसकी तो हार में भी घमंड है । पर मैं...मुझे...इन छोटी-छोटी लड़ाइयों ने बड़ी के लिए सत नहीं छोड़ी है...मैं..."<br />
<br />
"यह हमारी हार है फातिमा ! कोई वजह नहीं कि हम हारे तुम...त्...त... तुम..."ओम घोर निराशा में हकलाने लगा।<br />
<br />
“मैं अब कुछ नहीं जानती । बन्द करो।" फातिमा त्रस्त हो चुकी थी।<br />
<br />
ओम का हृदय कराह उठा । फातिमा डूब जाओगी। हम दोनों मिट जाएँगे। अपनी कमज़ोरी से बेइंसाफी को बढ़ावा दे रहे हैं। अन्यायियों को मसाला मिलेगा, वे चटखारे ले-लेकर दुनिया को यह मिसाल सबूत के तौर पर पेश करेंगे।<br />
<br />
किसी तरह सँभलना...सँभालना...होगा । जगदीश काका... । क्या करें ? कहाँ जाएँ?<br />
<br />
शहर छोड़ दें ? कुछ रोज़ के लिए सुस्ताने निकल जाएँ ? ऊटी ? दूसरा हनीमून ?<br />
<br />
ऊटी ही तो जा रहे थे जब वह मोटी मिली थी जो मुल्ला को देखकर भयभीत हो गई थी। लेडीज़ केबिन को रेलवेवालों ने जनरल डब्बा बना दिया था। उसी में ओम और फातिमा को जगह मिली थी। ओम अभी प्लेटफार्म पर खड़ा था और फातिमा सामान के साथ अन्दर बैठी थी। सामने गहनों के भार से हाँफती एक मोटी बैठी थी जो 'लेडीज़, लेडीज़' चीख पड़ी थी, जैसे ही एक मुल्ला अपनी पलटन लेकर डब्बे में घुसे । फातिमा ने मामला स्पष्ट किया तो उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। मल्ला-टोली सामान रखकर बाहर निकल गई तो मोटी फुसफुसाने लगी थी, 'बेटी, यह तो खतरनाक बात है।'<br />
<br />
फातिमा ने सांत्वना दी कि नहीं बहत लोग साथ हैं, घबराने की क्या बात है ? पर मोटी के तो होश फाख्ता हो रहें थे। नहीं बेटी, यह 'एम' लोग हैं।' उसने नज़रें चारों तरफ दौड़ाकर हाँफते हए बताया था और फिर जो उनकी बदमाशियों का ब्यौरा दिया था उसमें कोई करतूत नहीं छोड़ी थी जो इन लोगों का तरीका न हो । फातिमा ने बहस की थी, 'मुझे भी अन्दाज़ है, मैं खुद 'एम' हँ।' मोटी को रात-भर नींद नहीं आई होगी। सवेरे-सवेरे फातिमा गठरी की तरह सिमटकरठंड में ठिठी जा रही थी कि ऊपर की 'बर्थ' से मुल्ला का चैदह-पंद्रह बरस का लड़का उतरकर बोला था, 'दीदी, चादर ले लो, मेरे पास दो हैं।' मोटी भयभीत नज़रों से देख रही थी।<br />
<br />
"चलो घर चलें।" ओम ने फातिमा का हाथ पकड़ लिया। फाटक पर उसने फातिमा को रोक लिया। आस-पास कोई नहीं था। ओम ने फातिमा की आँखों में झाँका । वहाँ अँधेरा ही अँधेरा था।<br />
<br />
“फातिमा, चलो कहीं चलें । मैं छुट्टी ले लूँगा। ऊटी चलेंगे। फातिमा मैं तुम्हें खुश देखना चाहता हूँ। फिर से । हरा-भरा... ।"<br />
<br />
ओम की भतीजी की शादी में फातिमा ने हरी साड़ी पहन ली थी। अनायास ही ओम के मुँह से निकल पड़ा था-'यह क्या मुसलमानी रंग उठा लाईं ?'<br />
<br />
फातिमा के होंठ काँपने लगे थे-'चुप हो जाओ ओम, बस इसी वक्त चुप हो जाओ।'<br />
<br />
ओम उसे बताना चाहता था कि उसका ऐसा-वैसा कोई मतलब नहीं था। यह सब अनजाने में, न जाने कहाँ की सुनी-सुनाई बातें, कहाँ की बसी–बसाई प्रतिक्रियाएँ हैं जो यों ही, सहज भाव से अनायास निकल आती हैं। ओम फातिमा के पीड़ित मन को फिर से 'मुसलमानी हरा' कर देना चाहता था।<br />
<br />
"हँसो ना मेरी जान ।”<br />
<br />
फातिमा की आँखों में गाँठे भरी पड़ी थीं। कैसे सुलझेंगी, इतनी उलझ चुकी थीं। ओम को लगा कि अब चाहे सुलझाने के लिए खींचो, या छोड़ दो या कसती जाने दो, नतीजा एक ही होगा-टूट जाएंगी।<br />
<br />
नमाज़ का वक़्त हो गया था। फ़ातिमा अन्दर चली गईं।<br />
<br />
ओम अब चुप नहीं रह पाया। उसने लपककर उसे पकड़ा, "तो यही कहो न कि अब इसी पर्दे में जाओगी और मैं दख़ल न दूँ।"<br />
<br />
फ़ातिमा की तो नाक पर जैसे गुस्सा रखा रहता था, "और तुम जो दीया जलवाते हो?"<br />
<br />
"मैं...मैं जलवाता हँ ? झूठ-सच किसी से मतलब नहीं तुम्हें ? अब आनेवालों से कह दूँ कि घर में घुसकर अपने भगवान का नाम न लो ?"<br />
<br />
"नहीं, मत कहो। किसी से न कहो। मुझसे भी नहीं।"<br />
<br />
ओम स्तब्ध उसे देखता रह गया।<br />
<br />
जा-नमाज़ का कोना मोड़कर फ़ातिमा फिर बाहर निकल गई। सरपट-सरपट भागती-सी चाल में जा रही थी, लेकिन ऐसे नहीं जैसे किसी काम की जल्दी हो और गाड़ी छूट रही हो, बल्कि ऐसे जैसे किसी से भाग रही हो । भयभीत-सी। बौखलाई-सी। चेहरे के हर कण को अन्दर छिपी किसी बेचैनी में कसके मानो बाँध लिया हो कि कोई उड़ता भाव न आ जाए, किसी को मालूम न हो जाए, और ज़्यादा कसे फ़ीते की वस्तु की तरह उसका चेहरा तनते-तनते सिकुड़ गया...</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A4%A6-%E0%A4%AC%E0%A5%82_/_%E0%A4%B6%E0%A5%87%E0%A4%96%E0%A4%B0_%E0%A4%9C%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A5%80&diff=43735बद-बू / शेखर जोशी2023-08-04T15:02:31Z<p>अनिल जनविजय: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=शेखर जोशी |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatKahani}}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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एक साथी ने उसकी परेशानी का कारण भाँप लिया था, ‘ऐसे नहीं उतरेगा मास्टर! आओ, तेल में धो लो’, कहकर उस साथी ने उसे अपने साथ चले आने का संकेत किया।<br />
<br />
एक बड़े टब में घटिया किस्म का केरोसीन तेल रखा हुआ था। दोनों ने अपने हाथों को कुहनी-कुहनी भर उसमें डुबा कर मला। अब हथेलियों और बाँहों में लिपटी सारी चिकनी कालिख धुल गयी थी, परंतु उसे लगा जैसे दोनों बाँहों में अदृश्य चीटियाँ रेंग रही हों। केरोसिन तेल की गंध के कारण उसका जी मिचला उठा। इस खीझ और गंध से मुक्ति पाने के लिए वह नल की ओर चल दिया।<br />
<br />
अंतिम साइरन बज चुका था। पानी के प्रत्येक नल पर बीसियों कामगार घिरे हुए थे, कुछ लोग हाथों में साबुन मल रहे थे और शेष मल चुकने पर हाथों को पानी से धोने के लिए अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे। उसे देखकर सबकी अजनबी निगाहें उसकी ओर लग गयी। एक-दो मजदूरों ने सौजन्य प्रदर्शन के लिए अपनी बारी आने से पहले ही उसे पानी लेने को बढ़ावा दिया। किंचित संकोच के बाद उसने आगे बढ़ कर पानी ले लिया। यह संकोच स्वाभाविक था। अपनी बारी आने से पहले पानी लेने का प्रयत्न करने वालों को उत्साहित करने की इच्छा किसी के मन में न थी, यह वह दो क्षण पहले विभिन्न स्वरों में सुन चुका था।<br />
<br />
परंतु उसे पानी लेते देख कर किसी ने आपत्ति नहीं की। एक बार हाथ अच्छी तरह धो लेने पर उसने उन्हें नाक तक ले जाकर सूँघा। केरोसीन की गंध अभी छूटी नहीं थी। दुबारा साबुन से धो लेने पर भी उसे वैसी ही गंध का आभास हुआ, फिर एक बार और साबुन जेब से निकाल कर उसने हाथों में मलना शुरू कर दिया।<br />
<br />
घासी रस ले-लेकर एक किस्सा सुनाने लगा और सारा समूह अपनी व्यस्तता भूल कर उसकी बात सुनता रहा—<br />
<br />
एक गाँव के मेहतर की लौंडिया थी। उसकी शादी हुई शहर में। जैसा तुम जानो, गाँव के मेहतरों को तो कभी गंदा उठाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। नयी-नयी शहर में गयी तो दिन-रात नाक चढ़ा के अपने खसम से कहा करे—बदबू आती है, बदबू आती है। मालिक क्या करता। उसकी खातिर पेशा तो छोड़ नहीं सकता था। धीरे-धीरे लौंडिया भी काम पर जाने लगी। साल-छ: महीने के बाद मेहतर की सासू शहर देखने आयी। रास्ते में ही हाथ में झाड़ू बाल्टी लिये बेटी मिल गयी। माँ पहले तो लाड़ से बेटी से गले मिली और फिर नाक पर आँचल रख लिया।<br />
<br />
बेटी ने पूछा, ‘ऐ अम्मा, नाक-मुँह क्यों बंद कर लिया?’<br />
<br />
माँ बोली, ‘बेटी, बदबू आती है।’<br />
<br />
बेटी अचम्भे से बोली, ‘कैसी बदबू? मुझे तो कुछ नहीं मालूम देती।’<br />
<br />
नल के इर्द-गिर्द घिरे हुए सभी कामगरों के थके चेहरों पर भी उसकी बात सुनकर हँसी खिल गयी। घासी ने ही फिर बात को स्पष्ट किया, ‘ये भाई भी अभी हाथ नाक पै ले जा-जा के सूँघ रहे थे तभी किस्सा याद आया। पहले-पहल हम भी ऐसे ही सूँघा करें थे। पर अब तो ससुरा पता नहीं लगता। कितना बार तो साबुन नहीं मिलता, ऐसे ही पोंछ-पोंछ कर रोटी खाने बैठ जाते हैं।’<br />
<br />
संकेत उसी की ओर था। परिहास के उत्तर में गम्भीर हो जाना उसे उचित न लगा। सभी की हँसी में उसने अपना योग भी दे दिया। परंतु घासी की बात पर उसे आश्चर्य हो रहा था। तेल की ऐसी तीखी दुर्गंध को साबुन से छुटाये बिना आदमी कैसे भला चैन से रह सकेगा। इसका उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था।<br />
<br />
कपड़े बदल कर वह लाइन में जा लगा। इकहरी पंक्ति के प्रारम्भ में हेड फोरमैन के साथ एक गोरखा सिपाही खड़ा था। प्रत्येक मजदूर अपना रोटी का खाली डिब्बा खोल कर उसे दिखाता और फिर दोनों हाथ ऊँचे उठा कर तलाशी देने की मुद्रा में खड़ा हो जाता। गोरखा सर्चर मजदूर की छाती, कमर और जेबों को टटोल कर आगे बढ़ जाने का संकेत कर देता। जल्दी घर पहुँचने की इच्छा रखने वालों को पंक्ति की धीमी गति के कारण झुँझलाहट हो रही थी। ऐसी झुँझलाहट में कभी-कभी लोग पंक्ति में अपने से आगे व्यक्ति को ठेल देते। बीच-बीच में मोटा फोरमैन उनकी इस जल्दबाजी को कोई भद्दी, अश्लील व्याख्या कर हँस देता था। उसे फोरमैन का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा। परंतु उसने सुना, पंक्ति में से ही कोई कह रहा था, ‘फोरमैन जी बड़े रंगीले आदमी हैं।’सम्मति प्रकट करने वाला एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति था जो अब भी कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि से फोरमैन की ओर देख रहा था कि जैसे फोरमैन ने यह मजाक कर के उन पर बड़ी कृपा कर दी हो।<br />
<br />
उसकी तलाशी देने की बारी आ गयी थी। ठिगने सिपाही ने अपनी एड़ी उठा कर बड़ी कठिनाई से उसकी तलाशी ली। सिपाही के इस आयास को देख कर उसका मन हँसने को हुआ परंतु मन पर अवसाद की धुंध इतनी गहरी छा गयी थी कि वह हँस न सका। बड़े फाटक से पहले फिर इकहरी पंक्ति बन गयी थी। परंतु इस बार पंक्ति के परले सिरे पर खड़ा हुआ सिपाही तलाशी नहीं ले रहा था, वरन् वह यह देखने के लिए खड़ा था कि कोई भी व्यक्ति कठघरे में आड़ी गिरी हुई लकड़ी को लाँघे बिना न चला जाये। अन्य सभी मजदूरों की भाँति वह भी आड़ी गिरी हुई लकड़ी को लाँघ कर बाहर चला गया। पीछे मुड़ कर उसने फिर एक बार कठघरे की ओर देखा- लोग अब भी एक-एक कर कूदते हुए चले आ रहे थे। इस उछल-वूâद का प्रयोजन वह नहीं समझ पाया। गेट से बाहर निकल कर उसने अनुभव किया जैसे वह बंद कोठरी से निकलकर खुली हवा में चला आया हो।<br />
<br />
‘क्या आफत बना रखी है!’ अनायास ही उसके मुँह से निकल गया।<br />
<br />
अनजाने में ही कहे गये ये शब्द साथ चलने वाले एक बुजुर्ग के कानों तक पहुँच गये थे। उन्होंने धीरे से अपनी राय प्रकट की, ‘नये आये लगते हो? पहले-पहल ऐसा ही लगता है, धीरे-धीरे आदत पड़ जायेगी।’ आकाश की ओर अँगुली उठा कर उन्होंने बात आगे बढ़ाई, ‘उस नीली छतरी वाले का शुक्र करो कि यहाँ काम मिल गया। अच्छे-भले पढ़े-लिखे लोग धक्के खाते फिरते हैं; हमारे पड़ोस में एक लड़का....,बुजुर्ग अपने अनुभव की पोटली खोल कर बहुत कुछ बिखेरना चाहते थे, लेकिन उसका मन उनकी बातों में नहीं लगा, कनखियों से उसने उनकी ओर देखा। उस ऊपर वाले के अहसान का बोझ उठाते-उठाते ही जैसे उनकी कमर टेढ़ी हो गयी थी। वह चाल तेज कर आगे बढ़ गया।<br />
<br />
रास्ते-भर उसके दिमाग में वही सब-कुछ घूमता रहा जो वह दिन-भर में देख- सुन चुका था। घासी और उस बुजुर्ग आदमी की बात याद आने पर वह सोचने लगा, ‘क्या सच ही एक दिन वह भी सब कुछ सहने का आदी हो जायेगा और नीली छतरी वाले के अहसानों का बोझ उसकी कमर को भी वैसे ही झुका देगा।’<br />
<br />
कारखाने में यह उसका पहला दिन था।<br />
<br />
फिर एक-एक कई दिन बीत गये। परंतु घुटन और अवसाद की छाया दिनोंदिन बोझिल होती गयी।<br />
<br />
शहर के बाहरी भाग में स्थित कारखाने की पहली सीटी पर प्रतिदिन कामगार लोग अपनी-अपनी गृहस्थी छोड़ कर, हाथों में रोटी-चबैना की पोटली या डिब्बा लटकाये अपनी सुध-बुध खो कर तेज कदमों से कारखाने की ओर चले आते। दिन-भर कारखाने की खटर-पटर में मशीनों और औजारों से जूझकर थकी-लस्त देह वालों का यह काफिला साँझ के धुँधलके में अपने घरों की ओर चल देता। सर्दी, गरमी, बरसात में कभी भी इस क्रम में कोई बाधा न पड़ती।<br />
<br />
कारखाने में अपने-अपने अड्डे पर काम करते हुए लोगों को हर रोज सुबह से शाम तक एक ही स्थान में, उन्हीं चिर-परिचित मुद्राओं में देख कर उसे ऐसा लगता जैसे वह वर्षों से उन्हें उसी स्थान पर इसी रूप में देखता आ रहा हो। इस नीरस जिंदगी में कोई हलचल हो भी जाती तो उसका प्रभाव अधिक देर तक नहीं टिकता। तालाब में ठहरे हुए जल में कंकड़ फेंक देने पर जिस तरह क्षणिक हलचल होती है वह प्रतिक्रिया वहाँ किसी नयी घटना की होती। एक-दो दिन तक कारखाने में उस घटना की चर्चा रहती और फिर सब-कुछ पूर्ववत, शांत हो जाता। साथी कामगरों के चेहरों पर असहनीय कष्टों और दैन्य की एक गहरी छाप थी, जो आपस की बात-चीत या हँसी-मजाक के क्षणों में भी स्पष्ट झलक पड़ती थी। किसी प्रकार की नवीनता के प्रति सबके मन में एक विचित्र शंका-भाव जड़ जमाये बैठा रहता। शायद यही कारण था कि अचानक ही एक छोटी-सी घटना के पश्चात उसके साथियों का व्यवहार उसके प्रति शंकालु हो उठा था।<br />
<br />
यों घटना कुछ विशेष नहीं थी। उस दिन कारखाने में हर जगह बीड़ी का तूफान मचा हुआ था-<br />
<br />
‘अबे हद हो गयी यार! साला बुधुन सुलगती बीड़ी निगल गया।’<br />
<br />
‘हम वहीं खड़े थे भाई! साहब ने मुँह खुलवाया, मुँह में नहीं थी।’<br />
<br />
‘कमाल है! साले को सरकस में जाना चाहिए।’<br />
<br />
चीफ साहब के आदेश पर सभी मजदूर एक स्थान पर एकत्रित हो गये थे। साहब के निकट ही बुद्धन सिर झुकाए खड़ा था। उपस्थित समूह को नसीहत देते हुए साहब ने बताया कि किस तरह उन्होंने पीछे से जाकर बुद्धन को कारखाने के अंदर बीड़ी पीते हुए पकड़ा और किस प्रकार चतुराई से उसने बीड़ी मुँह के अंदर ही डाल कर गायब कर ली थी।<br />
<br />
साहब बोले, ‘कारखाने में इतनी कीमती चीजें पड़ी रहती हैं, किसी भी वक्त आग लग सकती है, एक आदमी की वजह से लाखों रुपये का नुकसान हो सकता है। हम ऐसी गलतियों पर कड़ी-से-कड़ी सजा दे सकते हैं।’<br />
<br />
बुद्धन को कड़ी चेतावनी के साथ एक रुपये का दण्ड देने की साहब ने घोषण कर दी, तभी भीड़ में से किसी ने ऊँचे स्वर में कहा, ‘साहब, आग तो सभी की बीड़ी-सिगरेट से लग सकती है।’<br />
<br />
सैकड़ों विस्मित आँखें उस ओर उठ गयीं जिधर से आवाज आयी थी। साहब कुछ कहें इससे पहले वही व्यक्ति फिर बोला, ‘अफसर साहबान तो कारखाने में मुँह में सिगरेट दाबे घूमते रहते हैं!’<br />
<br />
भीड़ में एक भायनक खमोशी छा गयी। इस मुँहजोर नये आदमी की उद्दंडता देखकर साहब का मुँह तमतमा उठा। बड़ी कठिनाई से उनके मुँह से निकला, ‘ठीक है, हम देखेंगे’ और जाते-जाते उन्होंने तीखी दृष्टि से उसकी ओर देखा जैसे उसकी मुखाकृति को अच्छी तरह पहचान लेने का प्रयत्न कर रहे हों।<br />
<br />
चीफ साहब अपने चैम्बर की ओर चल दिये। भीड़ छँट गयी। हवा में चारों ओर कानाफूसी के विचित्र स्वर फैलने लगे। बुद्धन की ओर से हटकर लोगों का ध्यान अब उसकी ओर केन्द्रित हो गया था।<br />
<br />
उस दिन छुट्टी के बाद लौटते हुए दो-तीन नौजवान उसके साथ हो लिये। प्रत्यक्ष रूप में किसी ने भी बीड़ी वाली घटना को लेकर उसकी सराहना नहीं की, यद्यपि उनके व्यवहार और उनकी बातों से उसे लगा जैसे उन्हें यह अच्छा लगा हो और वे उसके अधिक निकट आना चाहते हों। कठघरे से निकल कर एक नौजवान बुदबुदाया, ‘सालों को शक रहता है कि हम टाँगों के साथ कुछ बाँधे ले जा रहे हैं, इसलिए अब यह उछल-कूद का खेल कराने लगे हैं।’<br />
<br />
‘इनका बस चले तो ये गेट तक हमारी नागा साधुओं की-सी बारात बना कर भेजा करें’, दूसरे ने उसकी बात का समर्थन किया।<br />
<br />
‘खीर खाये बामणी, फाँसी चढ़े शेख, नहीं देखा तो यहाँ आकर देख! छोटे साहब की गाड़ी के पिस्टन अंदर बदले गये हैं, खुद मैंने अपनी आँखों से देखा’,पहले वाले व्यक्ति ने आवेश में आकर कहा।<br />
<br />
‘चुप’, दूसरे नौजवान ने फुसफुसा कर उसे टोक दिया, ‘टेलीफून जा रहा है।’<br />
<br />
एक चुस्त चालाक आदमी उनके साथ-साथ चलने लगा था। तभी दोनों जवानों ने अपनी बीवियों के बारे में बातें शुरू कर दीं।<br />
<br />
इस घटना के बाद कुछ लोगों की दबी-दबी सहानुभूति पा जाने पर उसे ऐसा अनुभव हुआ जैसे किसी अँधेरे, बंद तहखाने में प्रकाश की हल्की किरण का आसरा उसे मिल गया हो। पर सभी कामगरों की आँखों में सहानुभूति का यह भाव नहीं था। अनेक सहकर्मी इस घटना के पश्चात उसके प्रति रूखा व्यवहार करने लगे थे, और कुछ ऐसी भी आँखे थीं जिनमें अचानक ही ईर्ष्या और उपेक्षा की भावना उभर आयी थी। ऐसी ही एक जोड़ा आँखें एक दिन छु्ट्टी के बाद मार्ग में बहुत दूर तक उसका पीछा करती रहीं थी। उसे लगा जैसे साथ में चलने वाला वह व्यक्ति उससे कुछ कहने के लिए अकुला रहा है। उन दोनों के साथ-साथ मजदूरों का झुण्ड हाथों में थैला या टिफिन का खाली डिब्बा लटकाए चला जा रहा था। एक नयी उम्र के शरारती कारीगर बीरू ने अपने से आगे चलने वाले अधेड़ उम्र के लालमणि के कुर्ते का पिछला हिस्सा उठाकर सिगरेट के खाली पैकेट फँसा दिया था, पीछे चलने वाली भीड़ लालमणि के कुर्ते की पूँछनुमा बनावट और इस संबंध में उसकी अज्ञानता का आनंद ले रही थी। तभी किसी ने उसके साथ चलने वाले आदमी को लक्ष्य कर आवाज दी-<br />
<br />
‘नेता जी, जैराम जी की!’<br />
<br />
साथ चलने वाले व्यक्ति को ईष्र्यालु दृष्टि का रहस्य उसकी समझ में आ गया। उत्तर में ‘नेता’ ने व्यंग्यपूर्ण स्वर में कहा, ‘काहे शर्मिंदा करते हो भाई, अब तो कारखाने में बड़े-बड़े नेता पैदा हो गयें हैं। हम किस खेत की मूली हैं!’<br />
<br />
जिस बात की उसे आशंका थी वही हुआ। शायद रात की सारी रिपोर्ट चीफ साहब के पास पहुँच गयी थी। चपरासी ने साहब के कमरे का द्वार खोलकर उसे उनके सामने पहुँचा दिया, फिर द्वार पूर्ववत बंद हो गया। साहब ने अपने हाथों से स्टूल उठाकर उसके बैठने के लिए आगे बढ़ा दिया और फिर नर्मी से बोले, ‘हम तुम्हारी भलाई के लिए ही कह रहे हैं। जमाना बुरा है। बाल-बच्चों वाले आदमी को ऐसी बातों में नहीं पड़ना चाहिए।’<br />
<br />
अपने कथन की प्रतिक्रिया जानने के लिए साहब ने उसकी ओर देखा। उनके हाथ मेज पर बिछे कपड़े की सलवटों को सहलाने में व्यस्त थे। साहब की ओर देखकर इस प्रश्न का उत्तर उनकी आँखों में ही झाँक पाने का उसका मन हुआ। परंतु काले चश्मे में अपारदर्शी शीशों के पीछे छिपी आँखों के स्थान पर केवल अंधकार घिरा हुआ था।<br />
<br />
‘ऐसा कोई खतरनाक काम तो मैंने नहीं किया साहब’, उसने पेपरवेट के फूलों पर अपनी नज़र जमा कर उत्तर दिया।<br />
<br />
‘हम जानते हैं, सब कुछ जानते हैं। कल रात तुम्हारे घर मीटिंग हुई थी या नहीं?’ मानसिक उत्तेजना के कारण साहब दोनों हाथों की अँगुलियों को आपस में उलझाते हुए बोले।<br />
<br />
‘दो-चार यार-दोस्त बैठने के लिए आ जायें तो उसे मीटिंग कौन कहेगा साहब?’ उसने बात का महत्त्व कम करने की कोशिश में मुस्कराने का अभिनय किया।<br />
<br />
‘सुनो जवान! यार-दोस्त की महफिल में गप्पें होती हैं, ताश खेले जाते हैं, शराब पी जाती है; लेकिन स्कीमें नहीं बनतीं।’ इस बार स्वर कुछ अधिक सधा हुआ था।<br />
<br />
‘साहब, लोगों को मकान की परेशानी है, छुट्टियों का ठीक हिसाब नहीं, छोटी-छोटी बातों पर जुर्माना हो जाता है। यही बातें आपसे अर्ज करनी थीं। यहीं वहाँ भी सोच रहे थे।’ स्वर में दीनता थी परंतु साहब के चेहरे पर टिकी हुई उसकी तीखी दृष्टि अनजान में ही जैसे इस अभिनय को झुठला रही थी।<br />
<br />
‘मैं कौन होता हूँ, जो तुम लोग मुझसे यह कहने के लिए आते हो? मैं भी तो भाई, तुम्हीं लोगों की तरह एक छोटा-मोटा नौकर हूँ’, अपनी दोनों हथेलियों को मेज पर फैलाकर साहब ने कृत्रिम मुस्कान का ऋण लौटा दिया और अपनी कुर्सी पर अधिक आश्वस्त होकर बैठ गये। उनके सामने बैठे हुए व्यक्ति को यह समझौता स्वीकार न हुआ। कृत्रिमता के आवरण को पूरी तरह उतार कर दृढ़ स्वर में वह बोला, ‘तो जो हमारी बात सुनेगा उसी से कहेंगे साहब।’<br />
<br />
एकाएक साहब बौखला कर कुर्सी पर उछल पड़े, ‘तुम बाहर की पार्टियों के एजेंट हो, ऐसे लोग ही हड़ताल करवाते हैं। मैं एक-एक को सीधा करवा दूँगा। मैं जानता हूँ तुम्हारे गुट में कौन-कौन हैं। आइंदा ऐसी बातें मैं नहीं सुनना चाहता।’<br />
<br />
वह चीफ के कमरे से निकल कर अपने काम पर लौटा तो मिस्त्री पास बैठ कर समझाने लगा, ‘इस दुनिया में सबसे मेल-जोल रखकर चलना पड़ता है। नदी किनारे की घास पानी के साथ थोड़ा झुक लेती है और फिर उठ खड़ी होती है। लेकिन बड़े -बड़े पेड़ धार के सामने अड़ते हैं और टूट जाते हैं। साहब ने तुम्हारी बदली कास्टिक टैंक पर कर दी है, बड़ा सख्त काम है, अब भी साहब को खुश कर सको तो बदली रूक सकती हैं।’<br />
<br />
उत्तर में उसने कुछ नहीं कहा। उठ कर कास्टिक टैंक पर चला गया। टैंक पर काम करने वाले मजदूरों ने उसे देखकर भी अनदेखा कर दिया। उसे ऐसा लगा कि जैसे वे लोग जान-बूझकर उससे पृथक रहने का प्रयत्न कर रहे हों। पुराने पेंट और जंग लगे हुए सामान को कास्टिक में धोया जा रहा था। आगे बढ़ कर उसने भी उन्हीं की तरह काम शुरू कर दिया। शाम तक काम का यही क्रम चलता रहा। घर लौटकर उसने अनुभव किया—हाथ-पैरों में विचित्र प्रकार की जलन हो रही थी।<br />
<br />
<br />
<br />
घर पहुँचते-पहुँचते अँधेरा घिर गया था। हाथ-मुँह धो कर उसने जल्दी-जल्दी खाना खाया और फिर बच्चे को लेकर आँगन में झिलंगी चारपाई पर आ बैठा। साँझ अत्यधिक उदास हो आयी थी। बच्चे ने कुछ देर तक उससे खेलने का प्रयत्न किया, लेकिन पिता की ओर से विशेष प्रोत्साहन न पाने पर वह कब माँ के पास चला गया, इसका उसे ध्यान न रहा। जिनकी उसे प्रतीक्षा थी उनमें से कोई भी न आया था, केवल हरीराम ने आकर अब तक दो-तीन बीड़ियाँ फूँक ली थीं।<br />
<br />
हरीराम की ओर से ही दो-तीन बार बातचीत शुरू करने का प्रयत्न किया जा चुका था, लेकिन उसके अटूट मौन के कारण हर बार वह प्रयत्न विफल सिद्ध हुआ था। इस बार फिर हरीराम ने ही बात छेड़ी-<br />
<br />
‘घनश्याम की तो बीवी बीमार हो गयी, लेकिन मोहन, राधे, हनीफ वगैरह किसी को तो आना चाहिये।’<br />
<br />
‘शायद उसके बच्चे बीमार हो गये हों’, झुँझला कर उसने उत्तर दिया।<br />
<br />
हरीराम ने फिर बात दुहराई, इस बार स्वर में चाटुता की भरमार थी-<br />
<br />
‘हम तो तुम्हारे पीछे हैं भाई! जैसा तुम कहोगे वैसा करेंगे। मैं तो ठीक टैम पर आ गया था, देख लो।’<br />
<br />
‘तुम ही ठीक टैम पर न आओगे तो चीफ साहब को रिपोर्ट कौन देगा।’ हरीराम की ओर उपेक्षापूर्ण दृष्टि डालकर घृणा से उसने कहा और अपनी साइकिल उठा कर बाहर चल दिया।<br />
<br />
उसके विरूद्ध कब कौन-सा षड्यंत्र रच दिया जाये, इसका उसे संदेह रहने लगा था। छुट्टी होने पर उसने शीघ्रता से थैला कंधे पर डाला। दुपहर में उसने सब रोटियाँ खा लीं थीं पर आज थैला अन्य दिनों की अपेक्षा कुछ भारी था। विस्मय से उसने रोटी के डिब्बे को खोल कर देखा......एक कागज में कुछ पुर्जे लिपटे रखे थे। उसने अनुभव किया कि उसके हृदय की धड़कन तेज हो गयी है। आवेश में उसकी मुठ्ठी भिच गयी, परंतु फिर संयत हो कर उसने वह सामान पास ही अलमारी में डाल दिया।<br />
<br />
बाहर पंक्ति के पहले सिरे पर फोरमैन चिल्ला-चिल्ला कर लोगों को अपने डिब्बे-थैले खोल कर दिखाने का आदेश दे रहा था। उसकी बारी आ गयी थी। फोरमैन ने स्वयं डिब्बा थैला हाथों में लेकर देखा, असंतोष के कारण उसका मुँह फीका पड़ गया। सर्चर को सबकी जेंबे टटोलने का उसने आदेश दिया, उसकी जेबें भी स्वयं फोरमैन ने टटोली, परंतु फोरमैन के चेहरे पर फिर निराशा छा गयी। जाते-जाते उसने फोरमैन की ओर देखा। फोरमैन ने आँखें भूमि की ओर झुका ली थीं। गर्व से छाती उठाकर वह बड़े गेट की ओर चल दिया।<br />
<br />
प्रात: काल अंतिम साइरन हो जाने पर गेट बंद हो जाना चाहिए, परंतु आधा घंटा उसके खोले जाने की प्रतीक्षा करनी पड़ती है, परंतु व्यावहारिक रूप में ऐसा नहीं होता। साइरन सुनकर दूर से पैदल आने वाले दौड़ लगाना शुरू कर देते हैं। साइकिलों के पैडिल दुगनी गति से चलने लगते हैं। लोग हाँफते-हाँफते दो-तीन मिनट में अंदर पहुँच जाते हैं। पकी उम्र के बड़े-बूढ़े अंदर आ कर घड़ी भर दम लेने के बाद ही हाजिरी पर जा पाते हैं। परंतु उस दिन वर्कर्स मैनेजर ने साइरन के बाद ही गेट बंद करवा दिया। वह गेट से बीस-तीस गज की दूरी पर ही था परंतु वहाँ पहुँचने से पहले ही चौकीदार ने जाली खोल दी।<br />
<br />
अभी बीस-पच्चीस आदमी और भी थे जो हाँफते हुए चले आ रहे थे। निकट आकर सभी उदास हो गये। आधा घंटा देर में आने का दंड छ:-आठ आना से कम नहीं होता।<br />
<br />
पिछली बार वेतन के दिन घर जाने पर पत्नी ने उससे पूछा था, ‘कितने हैं?’<br />
<br />
‘चौवन आठ आने।’<br />
<br />
‘अच्छा! मैंने पूरे पचपन का हिसाब लगाया था। बबुआ की टोपी इस महीने भी रह गई।’<br />
<br />
हाँफते हुए लोगों में से कितनों के बबुओं की टोपी इस बार भी रह जाएगी, उसने सोचा। परंतु तभी उसने जो कुछ सुना उसे सुनकर उसे ऐसा लगा जैसे सारा दोष अकेले उसी का हो। वही झुकी कमर वाले बुजुर्ग हाँफते हुए कह रहे थे, ‘घोड़े के पीछे और अफ़सर के आगे कौन समझदार जाएगा? एक आदमी के कारण इतने लोगों का नुकसान हो गया, ऐसे लड़ने-भिड़ने को ही जवानी बना रखी हो तो आदमी दंगल करे, अखाड़े में जाए। नौकरी में तो नौकर की तरह रहना चाहिए।’<br />
<br />
उसका मन हुआ कि बुजुर्ग के पास जाकर कुछ बात करे। पर न जाने क्यों वह ऐसा न कर सका।<br />
<br />
दिन-भर वह यंत्रवत् काम करता रहा। थकान के कारण शरीर चूर-चूर हो रहा था। परंतु बैठकर सुस्ता लेने को भी उसका मन नहीं हुआ। कैन्टीन में जाकर उसने चाय ली और अनुभव किया कि चाय फीकी है। पहले किसी दिन ऐसी बात होती तो वह कैन्टीन मैनेजर से शिकायत करता परंतु आज आधी चाय छोड़ कर चला आया। ग्रीज और तेल लगा हुआ सामान उठाने के कारण हाथ गंदगी से भर गये थे; साइरन की आवाज उसके कानों में पड़ी तो उसने कान बंद किया। ऐसा लगता था कि साइरन यदि किसी कारण से न बजता तो वह उसी प्रकार यंत्रवत् काम करता रहता।<br />
<br />
जल्दी-जल्दी में उसने दोनों हाथ केरोसीन तेल में धो डाले। साबुन का डिब्बा टटोलकर देखा तो वह खाली था। भूमि पर से थोड़ी मिट्टी उठाकर वह नल की ओर चल दिया। पिछले तीन-चार महीनों की नौकरी में आज वह पहली बार मिट्टी से हाथ धो रहा था। भुरभुरी मिट्टी को पानी के साथ लगाकर उसने हाथों में मला और फिर दोनों हाथ नल के नीचे लगा दिए। पानी के साथ मिट्टी की पतली पर्त भी बह चली। दूसरी मिट्टी लगाने से पहले उसने हाथों को सूँघा और अनुभव किया कि हाथों की गंध मिट चुकी है। सहसा एक विचित्र आतंक से उसका समूचा शरीर सिहर उठा। उसे लगा जैसे आज वह घासी की तरह इस बदबू का आदी हो गया है। उसने चाहा कि एक बार फिर हाथों को सूँघ ले लेकिन उसका साहस न हुआ। परंतु फिर बड़ी मुश्किल से वह दोनों हाथों को नाक तक ले गया और इस बार उसके हर्ष की सीमा न रही। पहली बार उसे भ्रम हुआ था। हाथों में केरोसीन तेल की बदबू अब भी आ रही थी।</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B6%E0%A5%87%E0%A4%96%E0%A4%B0_%E0%A4%9C%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A5%80&diff=43734शेखर जोशी2023-08-04T14:59:30Z<p>अनिल जनविजय: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=Shekhar Joshi.jpg <br />
|नाम=शेखर जोशी<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=10 सितम्बर 1932 <br />
|जन्मस्थान=ओलिया गाँव, ज़िला अल्मोड़ा, उत्तराखण्ड, भारत।<br />
|मृत्यु=04 अक्तूबर 2022 <br />
|कृतियाँ=कोसों का घटवार, साथ के लोग, हलवाहा, नौरंगी बीमार है, मेरा पहाड़ (कहानी-संग्रह) पेड़ की याद (शब्द-चित्र)<br />
|विविध=1955 में ‘धर्मयुग’ कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार। उत्तर प्रदेश हिन्दी-संस्थान का [[महावीर प्रसाद द्विवेदी पुरस्कार]] (1987), साहित्य भूषण(1995), पहल सम्मान(1997) [[राष्ट्रीय मैथिलीशरण गुप्त सम्मान]] सहित अनेक [[प्रतिष्ठित पुरस्कार एवं सम्मान]] से सम्मानित। शेखर जोशी की कहानियों का अंग्रेज़ी, चेक, पोलिश, रूसी और जापानी भाषाओं में अनुवाद हुआ है। उनकी कहानी ’दाज्यू’ पर बाल- फिल्म सोसायटी द्वारा फिल्म का निर्माण किया गया है। <br />
|जीवनी=[[शेखर जोशी / परिचय]]<br />
}}<br />
{{GKCatUttarakhand}}<br />
'''कहानियाँ'''<br />
* [[कोसी का घटवार / शेखर जोशी]]<br />
* [[दाज्यू / शेखर जोशी]]<br />
* [[बद-बू / शेखर जोशी]]<br />
* साथ के लोग / शेखर जोशी<br />
* नौरंगी बीमार है / शेखर जोशी<br />
* प्रथम साक्षात्कार / शेखर जोशी<br />
* बिरादरी / शेखर जोशी<br />
* गाइड / शेखर जोशी<br />
* निर्णय / शेखर जोशी<br />
* नेकलेस / शेखर जोशी<br />
* क़िस्सागो / शेखर जोशी<br />
* संवादहीन / शेखर जोशी<br />
* विडुवा / शेखर जोशी<br />
* आशीर्वचन / शेखर जोशी<br />
* बच्चे का सपना / शेखर जोशी <br />
* हलवाहा / शेखर जोशी <br />
'''शब्दचित्र'''<br />
* एक पेड़ की याद / शेखर जोशी</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B6%E0%A5%87%E0%A4%96%E0%A4%B0_%E0%A4%9C%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A5%80&diff=43733शेखर जोशी2023-08-04T14:55:07Z<p>अनिल जनविजय: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=Shekhar Joshi.jpg <br />
|नाम=शेखर जोशी<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=10 सितम्बर 1932 <br />
|जन्मस्थान=ओलिया गाँव, ज़िला अल्मोड़ा, उत्तराखण्ड, भारत।<br />
|मृत्यु=04 अक्तूबर 2022 <br />
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|विविध=1955 में ‘धर्मयुग’ कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार। उत्तर प्रदेश हिन्दी-संस्थान का [[महावीर प्रसाद द्विवेदी पुरस्कार]] (1987), साहित्य भूषण(1995), पहल सम्मान(1997) [[राष्ट्रीय मैथिलीशरण गुप्त सम्मान]] सहित अनेक [[प्रतिष्ठित पुरस्कार एवं सम्मान]] से सम्मानित। शेखर जोशी की कहानियों का अंग्रेज़ी, चेक, पोलिश, रूसी और जापानी भाषाओं में अनुवाद हुआ है। उनकी कहानी ’दाज्यू’ पर बाल- फिल्म सोसायटी द्वारा फिल्म का निर्माण किया गया है। <br />
|जीवनी=[[शेखर जोशी / परिचय]]<br />
}}<br />
{{GKCatUttarakhand}}<br />
'''कहानियाँ'''<br />
* [[कोसी का घटवार / शेखर जोशी]]<br />
* [[दाज्यू / शेखर जोशी]]<br />
* साथ के लोग / शेखर जोशी<br />
* नौरंगी बीमार है / शेखर जोशी<br />
* प्रथम साक्षात्कार / शेखर जोशी<br />
* बिरादरी / शेखर जोशी<br />
* गाइड / शेखर जोशी<br />
* निर्णय / शेखर जोशी<br />
* नेकलेस / शेखर जोशी<br />
* क़िस्सागो / शेखर जोशी<br />
* संवादहीन / शेखर जोशी<br />
* विडुवा / शेखर जोशी<br />
* आशीर्वचन / शेखर जोशी<br />
* बच्चे का सपना / शेखर जोशी <br />
* हलवाहा / शेखर जोशी <br />
'''शब्दचित्र'''<br />
* एक पेड़ की याद / शेखर जोशी</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Shekhar_Joshi.jpg&diff=43732चित्र:Shekhar Joshi.jpg2023-08-04T14:54:39Z<p>अनिल जनविजय: </p>
<hr />
<div></div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A5%87%E0%A4%B2-%E0%A4%AA%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0_/_%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%B2%E0%A4%BF_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80&diff=43731बेल-पत्र / गीतांजलि श्री2023-08-04T14:36:05Z<p>अनिल जनविजय: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
सब्ज़ी बाज़ार में फ़ातिमा का पैर 'छप' से किसी गिलगिली चीज़ पर पड़ गया।<br />
<br />
"ओफ्..." घिन के साथ उसने पैर को अलग झटका।<br />
<br />
“कुछ नहीं है, रीलैक्स," ओम ने झुककर देखा और दिलासा दिया, “गोबर है, बस।"<br />
<br />
पता नहीं क्यों, फ़ातिमा के अन्दर ऐसा तेज़ गुस्सा फूटा, "देखो, होगा गोबर तुम्हारे लिए पाक। मेरे लिए वह उतना ही घिनौना है जितनी घोड़े की लीद।"<br />
<br />
ओम के भीतर तक कुछ हिल गया, “फ़ातिमा, पागल हो जाओगी। इस तरह करोगी तो हर इशारे का दो में से एक ही मतलब होगा, हिन्दू या मुसलमान।"<br />
<br />
“अब भी सँभल जाओ," ओम कराह उठा, “तुम जिस कीच में फँस रही हो वह अभी नरम है, अभी उसमें से निकल सकती हो। पर फ़ातिमा, समझोगी नहीं तो फँसती जाओगी, और फिर वह पदार्थ ठोस हो जाएगा...तुम उसमें अटक जाओगी, हिल नहीं पाओगी, अकड़ी रह जाओगी..."<br />
<br />
दोनों स्कूटर पर सवार घर लौट आए।<br />
<br />
अन्दर शन्नो चाची आई थीं, “यह लो बेटा, शिरडी गई थी, साईं बाबा का परशाद है। बहू, यह धागा बँधवा लो।"<br />
<br />
फ़ातिमा ने चुपचाप धागा बँधवा लिया।<br />
<br />
उसकी आँखों में अनोखी चमक थी।<br />
<br />
उसी शाम उसने अपना सूटकेस खोला। अम्मी ने गुलाबी और हरे गोटेदार साटिन में कुशन और जा-नमाज़ लपेट दी थीं। फ़ातिमा ने खिड़की के नीचे, कमरे के एक तरफ़ वह चीजें लगा दी। नमाज़ पढ़ी और आसन एक कोने से ज़रा-सा मोड़ दिया।<br />
<br />
रात को ओम ने अपना हाथ धीरे-से फ़ातिमा के कन्धे पर रखा। फ़ातिमा ने मुँह फेर लिया। ओम ने और नज़दीक खिसककर कहा, “फ़ातिमा, यह क्या कर रही हो?"<br />
<br />
फ़ातिमा घायल जीव की तरह छिटककर अलग हो गई, "मैं कुछ नहीं कर रही हूँ। उल्टा चोर कोतवाल को..." वह चीख़ते-से स्वर में बोली।<br />
<br />
अजीब-सी हो रही थी फ़ातिमा, मानो एक बारीक़-सी पर्त के नीचे बस 'हिस्टीरिया' ही 'हिस्टीरिया' दबा पड़ा हो। जब तक चुप्पी ठीक है, पर ज़रा-सी आवाज़ हुई कि पर्त चटकी और चीत्कार बाहर फूटा।<br />
<br />
ओम ने उसका हाथ हलके से दबाया, “प्यारी, मैं क्या कर रहा हूँ ? तुम तो हर बात का मतलब निकालने लगी हो। इतनी जल्दी बुरा मान जाती हो। पहले हम हर तरह की बात पर हँस लेते थे।"<br />
<br />
फ़ातिमा के आँसू छलक पड़े, “पहले की बात मत करो। पहले हम कुछ और ही थे।" उसने सिसकी के साथ अपना मुँह तकिए में दबा दिया।<br />
<br />
ओम ने उसे कस के चिपटा लिया।<br />
<br />
“छोड़ दो मुझे, छोड़ दो !" वह रोती हुई उसकी बाँहों से निकलने को तड़पने लगी।<br />
<br />
"नहीं," ओम ने बाँहें और कसते हुए कहा, "नहीं फ़ातिमा, कैसे छोड़ सकता हूँ तुम्हें। प्लीज़...! तुम समझ ही नहीं रही..."<br />
<br />
समझ तो वह भी नहीं रहा था। उसकी मति मारी गई थी। मुँह फाड़े कोई लहर आई थी और उसे मध्य सागर में, अनजान अँधेरों में गोते खाने पटक गई थी। यह सब क्यों हो रहा है ? यह सब क्या हो रहा है ? उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। _ सिसकती फ़ातिमा को सीने से लगाए वह मद्धिम चाँदनी में चुपचाप पड़ा रहा। पलंग के बगल में खड़े ‘कैबिनेट' पर चाँद इशारा कर रहा था। फ़ातिमा ङ्केकी कॉलेज की तस्वीर धुधली-सी शालार रही थी । दुबली-सी लाड़ी, जींस पर कुर्ता लटकाए, कुर्ते पर एक लम्बी चोटी झुलाती, हँसमुख चेहरेवाली, चपल नयनोंवाली। तब फ़ातिमा कितनी शोख हुआ करती थी। और निडर । और बागी। होस्टल लाउंज में ही अपने अब्बा से लड़ पड़ी थी-'समाज...मज़हब...धमकाइए मत मुझे...सारी दुनिया घटिया नियम अख्तियार करे तो भी वे सही नहीं हो जाएँगे।' दोनों ने मिलकर सबका सामना किया था। जान की धमकी देनेवाले अनाम ख़तों को हिकारत से फाड़कर फेंक दिया था। ओम की नौकरी चली गई। उस पर आरोप लगे कि वह घमंडी है और ऑफ़िस का माल निजी इस्तेमाल में लाता है। मित्रों के संग दोनों हँसे थे, क्योंकि वाकई ओम ऑफिस का कागज़, जब-तब अपने लेख टाइप करने के लिए उठा लाता था। एक के बाद एक बवाल हुआ। शहर-भर में हंगामा फैला। फ़ातिमा को तो उसके अब्बा ने ताले-चाभी में बन्द कर दिया। पर वह खिड़की से कूदकर भाग आई थी और दोनों ने शादी कर डाली थी।<br />
<br />
ओम ने गहरी साँस ली। ऐसा लगा था कि एक डरावने दौर का अन्त हुआ था, एक खतरनाक कहानी खत्म हुई थी। पर न जाने कैसे उस कहानी का अन्त एक नई शुरुआत बन गया।<br />
<br />
सवेरे आँख खुली तो फ़ातिमा नमाज़ पढ़ रही थी।<br />
<br />
“ये क्या ?" ओम के तन-बदन में आग लग गई। उसने झपटकर जा-नमाज़ खींच ली और फ़ातिमा को घसीटकर खड़ा कर दिया, “ये क्या कर रही हो ?" वह दाँत पीसकर बोला, “अब यही कसर बाकी है ?"<br />
<br />
“छोड़ दो मुझे !" फ़ातिमा की आवाज़ काँप रही थी। उसकी आँखों का दृढ़ संकल्प देखकर ओम थर्रा उठा। फ़ातिमा झटके से वापस जा बैठी।<br />
<br />
नाश्ते पर दोनों चुप थे। ओम अपने चेहरे के आगे से अखबार हटाता तो केवल एक और कौर मुँह में डालने के लिए। जब फ़ातिमा खाली प्लेटें उठाने लगी तब उससे नहीं रहा गया।<br />
<br />
"रुको।"<br />
<br />
फ़ातिमा ठिठक गई, सिर बिना उसकी तरफ़ घुमाए।<br />
<br />
"जाओ," ओम गुर्राकर बोला, “जब सुनने से पहले ही तय कर चुकी हो कि सुनोगी नहीं तो क्या फायदा ?"<br />
<br />
फ़ातिमा सट्-सट् साड़ी फड़फड़ाती रसोई में घुस गई। वह वाकई कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी। सारा दर्द, सारी कुंठा, उसने अब इसी एक बिन्दु पर न्योछावर करने की कसम खा ली थी-अपनी एक पहचान पर, क्योंकि उसे लग गया था कि कोई उसे पहचानता नहीं है, मानता नहीं है। या तो बस बर्दाश्त करता है या फिर ज़लील करता है। उसे अपनी अस्मिता की खोज हो आई। ठीक है, वह भी दिखा देगी वह क्या है।<br />
<br />
ओम का हाथ फिर उसके कन्धे पर था। “फ़ातिमा !" उसकी आवाज़ रुंधी-रुंधी थी।<br />
<br />
फ़ातिमा तड़प उठी। ओम की कोमलता वह सह नहीं सकती। इसी तरह वह हिलगा देता है। वह उम्मीद और विश्वास में बैठ जाती है कि उसे मंजूर किया जा रहा है। नहीं चाहिए यह नरमी। चीख लो। मार लो। पर...।<br />
<br />
“फ़ातिमा, कुछ तो सोचो। तुम समझती क्यों नहीं हो कि क्या कर रही हो ? सारा जग इठलाएगा कि उन्हें तो हमेशा पता था तेल और पानी का मेल कब हो पाया है।...तुम सँभलती क्यों नहीं...? हमने एक-दूसरे से प्यार किया है। धर्म से परे।...तुमने क्यों ठान लिया है कि दुनिया के रचे झूठे भँवर में हम फँस जाएँ ?...तुली हुई हो हमें हिन्दू-मुसलमान दिखाने में।...फ़ातिमा, तुम जहर को मरहम समझ रही हो। प्लीज फ़ातिमा, प्लीज...। जिसमें से लड़कर निकल आए थे उस गढ़े में गिर जाना चाहती हो ?...हम तो बेइंसाफी से लड़नेवालों के लिए एक ताकत बन गए थे, 'सिंबल', 'सिंबल' ऑफ विक्टरी..."<br />
<br />
फ़ातिमा तिलमिला उठी, “हाँ-हाँ 'सिंबल' हैं। बस 'सिंबल' बनके रह गए हैं। मुर्दा 'सिंबल'। और कुछ नहीं रहे। जैसे तिरंगे झंडे पर बना चक्र।...ओम, मैं इनसान हूँ, फरिश्ता नहीं। सुना ? समझे ?...सुन लो ओम, मुझे मेरी दुनिया चाहिए, इनसानोंवाली।...डू यू अंडरस्टैंड...। जिसमें तरह-तरह के रिश्ते हैं, दूर के, करीब के। मुझे चार जिगरी दोस्तों के सहारे नहीं जीना है। ओम...ओम, तुम बेवकूफ हो...ज़िन्दगी एक ज़रा-से 'इंटीमेट' घेरे में नहीं जी जाती। हर पल की यह 'इंटीमेसी'...सब इतने नज़दीक...सब एक-दूसरे के बारे में सब कुछ जानते हुए...। ओम, मेरा दम घुटता है। साँस लेने के लिए थोड़ा दूर होना पड़ता है। मुझे यह चाहिए...यह सब चाहिए...।"<br />
<br />
ओम उत्तेजित होकर बोला, 'सब' किसे कह रही हो ? इस तरह क्या तुम 'सब' पा जाओगी ? फ़ातिमा, तुम अपने आपको भी खो दोगी। जिसे 'सब' समझ रही हो वे हैं बेजान सिंबल्स।...तुम डर गई हो...।<br />
<br />
फ़ातिमा झटके से वहाँ से चली गई।<br />
<br />
वह सच ही बहुत डरने लगी थी। बेकार में ही घबराहट की लहर उसके बदन में सिहर उठती। रातों को नींद खुलती तो वही जानी-पहचानी आवाजें-नल से गिरती टप-टप बूँदें, हवा से धीमे-धीमे खड़खड़ाती खिड़की, दूर सड़क पर जाती ट्रक की आवाज़-वह अँधेरे में ही डरकर झाँकने लगती...कौन है, क्या है...?<br />
<br />
कभी ख्वाब देखती-अम्मी के कमरे में दाखिल हुई। अम्मी चुपचाप काम कर रही हैं। कहीं जानेवाली हैं। चेहरे पर भाव शान्त संयमित है; और फ़ातिमा उनसे कहने को तड़प रही है, उनकी सुनने को बिलख रही है। पर अम्मी बात ही नहीं करतीं, पथराई-सी हैं। उनका क्या होगा ? फ़ातिमा डरने लगती, अजीब-सी घुटन उसे डसने लगती, वह टूटती जाती। टूट रही है, चीख रही है। चेहरे की हर बनावट उस चीख में बिगड़ रही है।<br />
<br />
अचानक वह जाग जाती। उस चीखते, विकृत चेहरे पर पड़ा यह शान्त, स्थिर, सिलवटरहित सोकर जागा चेहरा...। वह और भी अधिक डर जाती।<br />
<br />
फ़ातिमा कुर्सी पर बैठ गई। पस्त। उसकी हिम्मत चूर हो गई थी। अपने किए के नतीजे को नहीं जानना चाहती थी। आदर्श लड़ाई अब बहुत हुई। उसे लग रहा था उसमें सिर उठाने की ताकत नहीं रही। हर पौधे को पनपने के लिए मिट्टी चाहिए, हवा-पानी चाहिए। वह मुरझाने लगी थी। ओम कहता था, उसे कोई हक नहीं कि हर झोंके पे ज़रा और झुक जाए, इतनी कमज़ोर साबित हो। समाज से लोहा लिया है तो बंजर ज़मीन पर उगना पड़ेगा। नहीं तो पहले ही किसी बेल की तरह कहीं पेड़ या दीवार से क्यों नहीं चिपट गईं?<br />
<br />
बहुत हो गईं ये कोरी बातें। फ़ातिमा का सिर भन्ना उठा। उसे लगा किसी और ज़िन्दगी में वह अपनी इस कमज़ोरी को कोस लेगी। अभी तो बस वह अपनी एक जगह चाहती है, अपनी पहचान माँगती है, अपनों को पाने के लिए तड़प रही है।<br />
<br />
किसी ने घंटी बजाई। फ़ातिमा ने नज़र उठाई। शन्नो चाची थीं।<br />
<br />
सोमवार था। चाची हर सोमवार आ जाती थीं। अम्मा के नाम पूजा कर जाती थीं।<br />
<br />
दो बरस अम्मा मुँह फुला के बैठ गई थीं। पर बेटे से कौन माँ अलग हो पाती है। देखते ही देखते सारी अकड़ चम्पत हो गई और बेटे के घर आना-जाना शुरू हो गया। तभी शन्नो चाची भी आने लगीं।<br />
<br />
अम्मा तो फ़ातिमा को जी-जान से प्यार भी करने लगीं।<br />
<br />
कभी शन्नो चाची ने आँखें मटकाकर कहा था, "क्यों री, तेरी बहू की आवाज़ तो बड़ी सुरीली है। वरना मैं तो आवाज़ से हिन्दू-मुसलमान बता देती हूँ।"<br />
<br />
अम्मा ने फ़ातिमा के गाल पर हाथ फेर के कहा था,-"मेरी बहू किसी कोने से मुसलमान है ही नहीं।"<br />
<br />
फ़ातिमा ने पूछ लिया,-"मैं भी तो सुनूँ आवाज़ में क्या रहस्य है ?"<br />
<br />
चाची ने हाथ नचाया, "भई मुसलमानिन हमेशा भोंडी आवाज़ ही पाती है। आदमियों-जैसी ! भारी !...वह मालिन नहीं आती है ?"<br />
<br />
फ़ातिमा ने तपाक से कह दिया, “आवाज़ तो आवाज़ ठहरी, हिन्दुओं के तो आदमी ही औरतों-जैसे हैं, पिद्दे...से !"<br />
<br />
बाद में ओम और फ़ातिमा अपनी मित्रमंडली में इस किस्से पर ठहाके मारके हँसे थे। ओम के पाँच फुट सात इंच के पुरुषत्व की लम्बी खिंचाई की गई थी। फ़ातिमा ने खुद को फ़तेह खाँ फ़नकार कहकर कोई जोशीला गाना सुना दिया था।<br />
<br />
आए दिन ऐसे किस्से होते थे जिनको लेकर मित्रों में छेड़छाड़ चलती। सब मिलकर संसार की रीतियों पर ताज्जुब करते। ओम के बाबा कहा करते थे कि राह चलते कभी साँप और मुसलमान मिल जाए तो पहले मुसलमान का खात्मा करो, फिर साँप का ! ओम तब बनिए और पठान का चुटकुला सुनाता कि बनिया पठान के सीने पर सवार घूसे पे घूसे जमाए जा रहा है और फफक-फफककर रो रहा है कि रुके तो कैसे, क्योंकि वह रुका नहीं कि पठान उठकर उसे वह पटकेगा...वह पटकेगा...!<br />
<br />
कभी ओम फ़ातिमा को चिढ़ाता, “इधर आ मुसलटी, देखें तो तेरे बदन से कैसी बू आ रही है, पानी से बैर करनेवाली ?"<br />
<br />
फ़ातिमा इतरा के अलग हो जाती, “जा-जा काफ़िर, दो बूंद छिड़क ले और स्वच्छता का राग अलाप। बड़ा आया, ढोंगी धर्मात्मा कहीं का !"<br />
<br />
तब और दोस्त मिल जाते, “ना-ना भाभी, नहाने की बात तो छोड़। वह तो गनीमत है इतनी गर्मी है कि तुम्हें भी नहाना पड़ता है। पर उसका क्या जो हर मांस खानेवाले जानवर की बू होती है ?"<br />
<br />
"हैं ? यह क्या बकवास है ?"<br />
<br />
सब हँसते, “क्यों हमारी गाय महकती है ? कभी नहीं। और शेर ? और मुसलटा ?"<br />
<br />
“और घोड़ा ?" फ़ातिमा ताली पीटकर हँसती।<br />
<br />
सब मज़े में झूम उठते। कभी लोगों के दिमाग पर हँसकर, कभी चौंककर । क्या-क्या नहीं प्रचलित कर देते हैं, कुछ भी मान लेते हैं।<br />
<br />
पर शन्नो चाची तो शहद से लीपकर व्यंग्य कसती थीं। उन्हें तो 'फ़िट' करना ही था। लेकिन अम्मा कभी ऐसा-वैसा नहीं बोलती थीं। उन्होंने तो बस एक बार बहू बना लिया तो फिर स्नेह ही बरसाया।<br />
<br />
फिर अचानक उनका देहान्त हो गया। ओम एकदम टूट गया। अम्मा को याद करके नन्हे-से बच्चे की तरह रो पड़ता। फ़ातिमा भी रोने लगती। अम्मा याद आतीं। फिर अम्मी और अब्बा का ख़याल भी आ जाता। न जाने किस हाल में होंगे। इधर-उधर से कोई उड़ती खबर आ जाती थी। ख़ालूजान के पास गए हैं...नदीम की शादी कर दी...मोतिया का ऑपरेशन हुआ है..., वगैरह। एकदम कट चुकी थी उनसे फ़ातिमा। कभी...कुछ हो गया तो...?<br />
<br />
ओम ने अम्मा की तस्वीर फ्रेम करा के टाँग ली। शन्नो चाची ने उसी के बगल के आले पर उनके सबसे प्रिय भगवान-शंकर-का फोटो खड़ा कर दिया। कभी-कभार आती तो हाथ जोड़ लेतीं। देखते ही देखते वह कोना एक पूजा-स्थल बन गया। पार्वती और गणेश भी आ गए। सामने पीतल की एक तश्तरी में शिवलिंग, गंगाजल, अगरबत्ती और दीया सज गए।<br />
<br />
अम्मा की याद से कुछ ऐसी जुड़ गई थी यह पूजा कि ओम ने कभी उँगली नहीं उठाई। फ़ातिमा और वह आरती भी ले लेते और शन्नो चाची के कहने पर आले की तरफ़ जूता-चप्पल पहनकर न जाते।<br />
<br />
बहुत दिनों तक चाची नहीं आती हैं तो ओम अधीर लगने लगता है, फ़ातिमा को ऐसा वहम था। एक ऐसे ही दिन उसने पूछा, “मैं फूल बदल दूँ ?"<br />
<br />
ओम क्षण-भर चुप रहकर बोला था, “ठीक है, अम्मा को अच्छा लगता था।"<br />
<br />
फ़ातिमा ने नहाकर चाची की तरह सिर पर पल्लू डाल लिया। केले के पत्ते पर गुड़हल, गुलाब और मोगरा धो लाई और शिवजी के लिए बेल-पत्र । दूध से शिवलिंग को नहलाया, फूल-पत्र चढ़ाए, दीया जलाया। उसके मन से हूक-सी उठी-'अम्मा...अम्मी...अब्बा...!'<br />
<br />
अगली बार चाची आईं तो पूछने लगीं, “यह पूजा किसने की ?"<br />
<br />
“मैंने।" फ़ातिमा ने बताया।<br />
<br />
चाची कुछ बोली नहीं, पर हर सोमवार को आने लगीं।<br />
<br />
“क्यों बहू, ओम ऑफिस गया ?"<br />
<br />
"हाँ चाची।"<br />
<br />
"और तूने वह धागा तो नहीं उतारा ? हाँ उतारना नहीं, तेरी गोद भरेगी।"<br />
<br />
“धागे से नहीं चाची, हमारी मर्जी से भरेगी।"<br />
<br />
"अरे तो मर्जी तो है ही।" चाची ने पूजा के आले पर से घी उतारा और चढ़ावे के लिए थोड़ा-सा हलुवा बनाया। पूजा की।<br />
<br />
किसी जन्माष्टमी में नीचे के आले को साफ करके कृष्ण-झाँकी भी बना गई थीं। तभी फ़ातिमा ने, जैसे अम्मा बनाती थीं, वैसे सिंघाड़े का हलुवा बनाया था। शाम को ओम की तरफ़ बढ़ाया तो उसने पूछा, “क्या शन्नो चाची बना गईं ? तुमने ?...इतना आसान थोड़े है। एक दिन में नहीं आ जाता।"<br />
<br />
शन्नो चाची पूजा करके चली गईं। फ़ातिमा भी बैंक के लिए चल पड़ी। फुटपाथ पर लोगों की भरमार थी। फ़ातिमा को लगा, वह सबके रास्ते में आ रही है और सब उस पर मन ही मन भन्ना रहे हैं। अपराध-बोध से वह कभी बाईं ओर झुकती, कभी दाहिने को हटती, और एकाएक रुक जाती...भीड़ को गुजर जाने दो...।<br />
<br />
वह भीड़ से बेहद घबराने लगी थी। लोगों से घबराने लगी थी। कभी कोई जाननेवाला दिख जाता तो अव्वल तो वह उसे पहचानती ही नहीं और अगर पहचान लेती तो दुविधा-भरी एक मुस्कान के साथ कतरा के बगल से निकल जाती कि न जाने सामनेवाला उसे पहचान भी रहा है...पहचानना भी चाहता है...?<br />
<br />
ओम झल्ला उठता, “कहीं जाते हैं तो बोलने की कोशिश भी नहीं करती हो। लोग समझेंगे खिलजी खानदान का होने का गरूर है, बादशाहत का गुमान पाले हुए हो।"<br />
<br />
"तो मत ले जाओ मुझे कहीं।" फ़ातिमा बात निपटा देती।<br />
<br />
ओम अक्सर अकेले ही जाता। फ़ातिमा से कह-कहके हार गया कि लोग हर बात का टेढ़ा मतलब ही निकालेंगे और निकालेंगे ज़रूर। उसी दिन की, मनचन्दा बता रहा था, बाला ने कह दिया था-"देखो, नहीं आईं न शहज़ादी। समझ रही होंगी कि बेटे का जन्मदिन तो बहाना है, दुर्गा-पूजा का जमघट होगा असल में। अजी मानो न मानो, मुसलमान होता ही है ज़्यादा मुसलमान । हम तो सिद्दीकी के घर हर ईद पर जाते हैं। जबकि हमें मालूम है वह छुप के गाय काटते हैं ।"<br />
<br />
लोग कैसा कैसा बोलकर महफ़िल में रंग लाते हैं, इसका ओम और फ़ातिमा को पुराना तजुरबा था। वह तो शादी की खबर उड़ी-भर थी कि जग-भर अपने-अपने परमेश्वर का दूत बन बैठा और ओम और फ़ातिमा का रक्षक भी।<br />
<br />
“अरे भाई चुप कैसे बैठें, एक शरीफ लड़का बरबाद हुआ जा रहा है...वह चंडाल निकाह किए बगैर नहीं माननेवाली...।"<br />
<br />
“अमाँ फला-फलाँ की यह जुर्रत ? हमारी लड़की उठाएँगे ? देख लेंगे...।"<br />
<br />
और तो और, अम्मा बेचारी की मौत पर भी अफवाहों का बाजार गर्म था"देखा ना, निकाह किया, बेटे का धर्म लिया, माँ रो-रो के जान दे बैठी...।"<br />
<br />
मनचन्दा बता रहा था कि इकहत्तर में तो यह शोहरत थी कि फ़ातिमा के बाप पाकिस्तान के एजेंट हैं। शादी का विरोध तो नाटक है, लड़की को दुश्मनों की मदद की खातिर काफ़िर से ब्याहा है, ओम की कम्पनी, शायद डनलप के तकियों और गढ्दों में एफ.बी.आई. की फ़ाइलें सिलती थी !<br />
<br />
फ़ातिमा चैक भुनाकर लौट आई।<br />
<br />
शाम को ओम जल्दी घर आ गया। "चलो डमरूपार्क चलें।"<br />
<br />
वहाँ पहुँचकर दोनों एक घने पेड़ के नीचे, उसके चौड़े तने से टेक लगाए बैठ गए। फ़ातिमा जमीन पर पड़ी एक टहनी से खेलने लगी। अचानक किसी सड़की कुत्ते की, उसी टहनी पर, उसी तने से लग के, एक टाँग उठाके क्रिया करने की तस्वीर बेवजह उसके मन में कौंध गई। उसने चीखकर टहनी गिरा दी।<br />
<br />
“क्या हुआ...क्या हुआ ?" ओम भी हड़बड़ा गया।<br />
<br />
"व...वो..." फ़ातिमा ने बड़ी-बड़ी आँखें उधर कीं। और फिर खिलखिलाकर हँस पड़ी। सरिता-सी कल-कल करती उन्मुक्त हँसी।<br />
<br />
"फ़ातिमा !" ओम ने उसे गले लगा लिया।<br />
<br />
हँसते-हँसते फ़ातिमा रो पड़ी।<br />
<br />
“ओम, मुझे अच्छा नहीं लगता। बिलकुल अच्छा नहीं लगता।"<br />
<br />
"क्या बात है, फ़ातिमा ! मेरी जान, अब तो खुश हो जाओ। सब तो अच्छा हो रहा है। तुम अम्मी के भी पास जाने लगी हो।"<br />
<br />
अब्बा का तार आया था। उन्हें अस्पताल में भर्ती कर दिया गया था। सख्त बीमार थे। फ़ातिमा बदहवास हाल में मैके पहुंची थी। शादी के बाद पहली बार। बहुत रोना-धोना हुआ। अब्बा जान अच्छे हो गए। पर मुहर्रम शुरू हो गया था। फ़ातिमा ने ओम को लिखा- “अब्बा घर लौट आए हैं। अब कोई खतरा नहीं है। पर मुहर्रम शुरू हो गया है। उसके बाद ही आ पाऊँगी। अभी छोड़कर जाना ठीक नहीं लगता।"<br />
<br />
मिलते ही दोनों में झगड़ा हो गया। ओम बरस पड़ा, “यह हमारा समझौता था कि धर्म से कोई साबिका नहीं होगा, उसके पचड़ों में बिलकुल नहीं पड़ेंगे।"<br />
<br />
फ़ातिमा ने आश्चर्य से कहा था, "तुम तो गज़ब ही करते हो ओम। मुझे धर्म से अभी भी कुछ वास्ता नहीं है। अब्बा बीमार थे। अम्मी का जी हल्का हो पाया। मेरे नौहे पढ़ लेने से उन्हें राहत मिली। बस। मैंने कोई समझौता नहीं तोड़ा।"<br />
<br />
"वाह-वाह," ओम ने लाल-पीले होकर ताना कसा, "तुम रोज़ा रखो, मातम करो, और फिर मासूमियत से कहो, क्या गलत किया ? फिर क्यों न अम्मी के दिल के सुकून के लिए निकाह भी कर लिया होता ? वही क्या ग़लत होता ?"<br />
<br />
फ़ातिमा ने बहुत गहराइयों से ओम की तरफ़ देखा। दो क्षण बाद शान्त स्वर में बोली, “हाँ शायद गलत नहीं होता। हमें फ़र्क न पड़ता पर अम्मी और अब्बा को इज्जत मिल जाती, हमसे रिश्ता कायम रखने का ज़रिया मिल जाता। मुझे इस तरह अलग होने को मजबूर नहीं होना पड़ता।...भाई की शादी तक में शरीक नहीं हो पाई।...तुम्हारे...हिन्दुत्व की वजह से।"<br />
<br />
ओम सन्नाटे में आ गया, “अरे ! दो दिन उस माहौल में लौटी और दिमाग फिर गया ? मैंने क्या निकाह से मना किया था ? या किसी भी किस्म की धार्मिक रस्म से ? बोलो। मन्दिर, मस्जिद, गिरजा..." ।<br />
<br />
“खूब रही," फ़ातिमा बीच ही में बोल उठी, “अब मन्दिर और फेरों की बात होगी। मन्दिर पर कौन-सा कलंक लग रहा था ? तुम जानते हो, अच्छी तरह से, जानते हो कि हमारे इस समाज में जो भी जाता है, लड़की का जाता है। लड़का सिर्फ़ लेता है।...तुम्हारे हिन्दू मज़हब की तरह...दूर-दूर तक अपना साया बिछाता है, अपनी छत्रछाया में दूसरों को पालता है...या डसता है... I...पर यह तो खूब रही कि अपने फैलाव से बेख़बर हैं और कोई दूसरा ज़रा-सी पनाह माँगे, होने का हक माँगे, थोड़ी जमीन चाहे तो भड़क उठें कि ऐसा है तो फिर हमें भी हिस्सा चाहिए ! उल्लू न बनाओ। तुम्हारा क्या बदला या बिगड़ा ?"<br />
<br />
ओम का हाथ उठ गया था, "अब ऐसी दलीलें दी जाएँगी? और यह जताओगी कि जैसे मैं तुम्हें उठा के ले आया ? अपनी रज़ामन्दी का जिम्मा लेते अब डर लगने लगा है।"<br />
<br />
फातिमा रोने लगी। पर बोलती रही, "रज़ामन्दी ? क्या तुमने कोई रास्ता छोड़ा था ? या तो इस तरह आओ, वरना जाओ, फूटो, मरो। छोड़ना क्या आसान होता है ?"<br />
<br />
“फातिमा", ओम चिल्ला पड़ा था, "इस तरह हमारे अतीत को मत झुठलाओ, हमारे प्यार को दुषित मत करो।" डमरूपार्क में दोनों अपने अतीत को असली और नकली गाँठों से उलझाए बैठे रहे।<br />
<br />
ओम ने फातिमा को गोद में लिटा लिया, “अब क्या है ? अब तो तुम हर साल नौहे पढ़ने अपने घर जाती हो।"<br />
<br />
फातिमा भर्राई आवाज़ में बोली, "जाती ही तो हँ बस । क्या नाता रख पाई हँ किसी से ? क्या दे पाती हैं उन्हें ?...ओम, मैंने समाज से लड़ाई की थी, वह मुझे बदनाम करे, मेरा बहिष्कार करे, मैं सब सह सकती थी। पर माँ-बाप से अलग होना..."<br />
<br />
ओम विचारमग्न हो गया। माँ-बाप से अलग कौन-सा समाज होता है ? है कोई समाज ?<br />
<br />
उसने दृढ़ स्वर में कहा, "नहीं, फातिमा, हम शिकायत नहीं कर सकते। जगदीश काका को याद करो।"<br />
<br />
जगदीश काका फातिमा को अंग्रेजी पढ़ाते थे। वह अकेले बुजर्ग थे जो उन दोनों की शादी में शरीक हए थे। शादी से पहले उन्हें नसीहत भी दे चुके थे- “देखो, इस समाज की ताकत को मामूली न समझो। उसके बारे में अपनी नीयत तय कर लो। खूब थू-थू होगी, यह समझ लो। उससे घबराते हो तो सोच लो। दुनिया के आगे चाहे मुस्काता मुखौटा चढ़ा लोगे, अन्दर चूर-चूर होते जाओगे। झेल सकते हो, हिम्मत है, तो आगे बढ़ो, हम सब तुम्हारे साथ हैं । यह नकली भेदभाव तुम बच्चों के मिटाए ही मिटेंगे। पर फिर ठीक से समझ लो, जाने दो जो जाता है...नाम, खानदान...किसी का गम न करो।'<br />
<br />
“फातिमा,” ओम ने उसका सिर अपने दोनों हाथों में ले लिया, "समाज को हरा दिया और अब लड़खड़ा रही हो !"<br />
<br />
"तम्हें क्या," फातिमा ने उसके हाथ हटाकर कहा, "तुम्हारी माँ, तुम्हारे रिश्तेदार, सब तुम्हारे ही रहे। तुम अपने ही रहे।"<br />
<br />
ओम ने ज़रा झुंझलाकर कहा, "तुम्हारी अम्मी चाहकर भी तुम्हें न मान पाईं तो यह उनकी कमज़ोरी है, मेरी माँ को क्यों कोस रही हो ?"<br />
<br />
फातिमा को बुरा लगने लगा । वह उठकर बैठ गई, “तुम नहीं समझ सकते। लड़के हो...हिन्दू हो।...तुम्हें क्या डर ?"<br />
<br />
"ओफ्फो!" ओम ने सिर पकड़ लिया, “ अब इस तरह बातें होंगी । जबसमाज के घटिया कानूनों से ऊपर उठ गए तो उनकी तुला पर हमें क्योंकर तौलोगी? लड़का, लड़की, हिन्दू-मुसलमान !"<br />
<br />
"कहना आसान है," फातिमा का गुस्सा बढ़ने लगा, “तुम ऊपर उठ गए और अलग हो गए । तुम्हें शुरू से यह छुट थी। पर मुझे तो हर कदम पर समाज के बाण सहने पड़ते हैं। जमादारिन है तो मुझसे पूछती है, तुम्हारे आगे तो मुँह नहीं खोलती। तुम्हारे उस जिगरी दोस्त की पढ़ी-लिखी बीवी तक, तुमसे वहीं पुराने अदब से बोलती है पर मुझसे 'हैलो' भी नहीं करती। कोई उससे पूछे तो सहीं कि यह सब नापसन्द है तो मुझ पर ही ज़ाहिर करने की तमीज़ क्यों ? जैसे मैंने ही तो यह सब किया है, तुम तो दूध के धुले, मासूम बेचारे हो।...धोबी तक जानपूछ कर मेरा काम देर से करता है... " फातिमा की सिसकियाँ बँधने लगीं।<br />
<br />
"छोड़ो फातिमा," ओम ने टोका, "हमने लोगों से कब कोई दूसरी उम्मीद की थी ? उनकी निर्दयता, उनकी संकीर्णता, लगातार तो देखते रहे हैं। छोड़ो उनकी। क्यों इन छोटी-छोटी लड़ाइयों में सिर खपाती हो?"<br />
<br />
“यही तो मैं समझ चुकी हँ," फातिमा चीख उठी, आपे में नहीं रही, "कि यह छोटी-छोटी लड़ाइयाँ ही असली हैं । बड़ी लड़ाई लड़ना आसान है । उन्हें गर्व से लड़ते हैं हम, अभिमान से मर-मिटते हैं उनके लिए। पर यह छोटी लड़ाइयाँ... कीड़े की तरह घिनौनी-दीमक की तरह लग जाती हैं, खोखला करती जाती हैं... इतनी छोटी होती हैं कि बड़ी-बड़ी स्वाभिमानी रोबदार लड़ाइयों से जोड़ कर देखना मुश्किल हो जाता है।...तुम्हारी लड़ाई बड़ी है। लड़ो और चाटो बड़ी लड़ाई की बड़ी जीत को। उसकी तो हार में भी घमंड है । पर मैं...मुझे...इन छोटी-छोटी लड़ाइयों ने बड़ी के लिए सत नहीं छोड़ी है...मैं..."<br />
<br />
"यह हमारी हार है फातिमा ! कोई वजह नहीं कि हम हारे तुम...त्...त... तुम..."ओम घोर निराशा में हकलाने लगा।<br />
<br />
“मैं अब कुछ नहीं जानती । बन्द करो।" फातिमा त्रस्त हो चुकी थी।<br />
<br />
ओम का हृदय कराह उठा । फातिमा डूब जाओगी। हम दोनों मिट जाएँगे। अपनी कमज़ोरी से बेइंसाफी को बढ़ावा दे रहे हैं। अन्यायियों को मसाला मिलेगा, वे चटखारे ले-लेकर दुनिया को यह मिसाल सबूत के तौर पर पेश करेंगे।<br />
<br />
किसी तरह सँभलना...सँभालना...होगा । जगदीश काका... । क्या करें ? कहाँ जाएँ?<br />
<br />
शहर छोड़ दें ? कुछ रोज़ के लिए सुस्ताने निकल जाएँ ? ऊटी ? दूसरा हनीमून ?<br />
<br />
ऊटी ही तो जा रहे थे जब वह मोटी मिली थी जो मुल्ला को देखकर भयभीत हो गई थी। लेडीज़ केबिन को रेलवेवालों ने जनरल डब्बा बना दिया था। उसी में ओम और फातिमा को जगह मिली थी। ओम अभी प्लेटफार्म पर खड़ा था और फातिमा सामान के साथ अन्दर बैठी थी। सामने गहनों के भार से हाँफती एक मोटी बैठी थी जो 'लेडीज़, लेडीज़' चीख पड़ी थी, जैसे ही एक मुल्ला अपनी पलटन लेकर डब्बे में घुसे । फातिमा ने मामला स्पष्ट किया तो उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। मल्ला-टोली सामान रखकर बाहर निकल गई तो मोटी फुसफुसाने लगी थी, 'बेटी, यह तो खतरनाक बात है।'<br />
<br />
फातिमा ने सांत्वना दी कि नहीं बहत लोग साथ हैं, घबराने की क्या बात है ? पर मोटी के तो होश फाख्ता हो रहें थे। नहीं बेटी, यह 'एम' लोग हैं।' उसने नज़रें चारों तरफ दौड़ाकर हाँफते हए बताया था और फिर जो उनकी बदमाशियों का ब्यौरा दिया था उसमें कोई करतूत नहीं छोड़ी थी जो इन लोगों का तरीका न हो । फातिमा ने बहस की थी, 'मुझे भी अन्दाज़ है, मैं खुद 'एम' हँ।' मोटी को रात-भर नींद नहीं आई होगी। सवेरे-सवेरे फातिमा गठरी की तरह सिमटकरठंड में ठिठी जा रही थी कि ऊपर की 'बर्थ' से मुल्ला का चैदह-पंद्रह बरस का लड़का उतरकर बोला था, 'दीदी, चादर ले लो, मेरे पास दो हैं।' मोटी भयभीत नज़रों से देख रही थी।<br />
<br />
"चलो घर चलें।" ओम ने फातिमा का हाथ पकड़ लिया। फाटक पर उसने फातिमा को रोक लिया। आस-पास कोई नहीं था। ओम ने फातिमा की आँखों में झाँका । वहाँ अँधेरा ही अँधेरा था।<br />
<br />
“फातिमा, चलो कहीं चलें । मैं छुट्टी ले लूँगा। ऊटी चलेंगे। फातिमा मैं तुम्हें खुश देखना चाहता हूँ। फिर से । हरा-भरा... ।"<br />
<br />
ओम की भतीजी की शादी में फातिमा ने हरी साड़ी पहन ली थी। अनायास ही ओम के मुँह से निकल पड़ा था-'यह क्या मुसलमानी रंग उठा लाईं ?'<br />
<br />
फातिमा के होंठ काँपने लगे थे-'चुप हो जाओ ओम, बस इसी वक्त चुप हो जाओ।'<br />
<br />
ओम उसे बताना चाहता था कि उसका ऐसा-वैसा कोई मतलब नहीं था। यह सब अनजाने में, न जाने कहाँ की सुनी-सुनाई बातें, कहाँ की बसी–बसाई प्रतिक्रियाएँ हैं जो यों ही, सहज भाव से अनायास निकल आती हैं। ओम फातिमा के पीड़ित मन को फिर से 'मुसलमानी हरा' कर देना चाहता था।<br />
<br />
"हँसो ना मेरी जान ।”<br />
<br />
फातिमा की आँखों में गाँठे भरी पड़ी थीं। कैसे सुलझेंगी, इतनी उलझ चुकी थीं। ओम को लगा कि अब चाहे सुलझाने के लिए खींचो, या छोड़ दो या कसती जाने दो, नतीजा एक ही होगा-टूट जाएंगी।<br />
<br />
नमाज़ का वक़्त हो गया था। फ़ातिमा अन्दर चली गईं।<br />
<br />
ओम अब चुप नहीं रह पाया। उसने लपककर उसे पकड़ा, "तो यही कहो न कि अब इसी पर्दे में जाओगी और मैं दख़ल न दूँ।"<br />
<br />
फ़ातिमा की तो नाक पर जैसे गुस्सा रखा रहता था, "और तुम जो दीया जलवाते हो?"<br />
<br />
"मैं...मैं जलवाता हँ ? झूठ-सच किसी से मतलब नहीं तुम्हें ? अब आनेवालों से कह दूँ कि घर में घुसकर अपने भगवान का नाम न लो ?"<br />
<br />
"नहीं, मत कहो। किसी से न कहो। मुझसे भी नहीं।"<br />
<br />
ओम स्तब्ध उसे देखता रह गया।<br />
<br />
जा-नमाज़ का कोना मोड़कर फ़ातिमा फिर बाहर निकल गई। सरपट-सरपट भागती-सी चाल में जा रही थी, लेकिन ऐसे नहीं जैसे किसी काम की जल्दी हो और गाड़ी छूट रही हो, बल्कि ऐसे जैसे किसी से भाग रही हो । भयभीत-सी। बौखलाई-सी। चेहरे के हर कण को अन्दर छिपी किसी बेचैनी में कसके मानो बाँध लिया हो कि कोई उड़ता भाव न आ जाए, किसी को मालूम न हो जाए, और ज़्यादा कसे फ़ीते की वस्तु की तरह उसका चेहरा तनते-तनते सिकुड़ गया...</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A5%87%E0%A4%B2-%E0%A4%AA%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0_/_%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%B2%E0%A4%BF_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80&diff=43730बेल-पत्र / गीतांजलि श्री2023-08-04T14:33:09Z<p>अनिल जनविजय: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार= |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatKahani}} सब्जी बाज...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
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}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
सब्जी बाज़ार में फ़ातिमा का पैर 'छप' से किसी गिलगिली चीज़ पर पड़ गया।<br />
<br />
"ओफ्..." घिन के साथ उसने पैर को अलग झटका।<br />
<br />
“कुछ नहीं है, रीलैक्स," ओम ने झुककर देखा और दिलासा दिया, “गोबर है बस।"<br />
<br />
पता नहीं क्यों फ़ातिमा के अन्दर ऐसा तेज़ गुस्सा फूटा, "देखो, होगा गोबर तुम्हारे लिए पाक। मेरे लिए वह उतना ही घिनौना है जितनी घोड़े की लीद।"<br />
<br />
ओम के भीतर तक कुछ हिल गया, “फ़ातिमा पागल हो जाओगी। इस तरह करोगी तो हर इशारे का दो में से एक ही मतलब होगा, हिन्दू या मुसलमान।"<br />
<br />
“अब भी सँभल जाओ," ओम कराह उठा, “तुम जिस कीच में फँस रही हो वह अभी नरम है, अभी उसमें से निकल सकती हो। पर फ़ातिमा, समझोगी नहीं तो फँसती जाओगी, और फिर वह पदार्थ ठोस हो जाएगा...तुम उसमें अटक जाओगी, हिल नहीं पाओगी, अकड़ी रह जाओगी..."<br />
<br />
दोनों स्कूटर पर सवार घर लौट आए।<br />
<br />
अन्दर शन्नो चाची आई थीं, “यह लो बेटा, शिरडी गई थी, साईं बाबा का परशाद है। बहू, यह धागा बँधवा लो।"<br />
<br />
फ़ातिमा ने चुपचाप धागा बँधवा लिया।<br />
<br />
उसकी आँखों में अनोखी चमक थी।<br />
<br />
उसी शाम उसने अपना सूटकेस खोला। अम्मी ने गुलाबी और हरे गोटेदार साटिन में कुशन और जा-नमाज़ लपेट दी थीं। फ़ातिमा ने खिड़की के नीचे, कमरे के एक तरफ़ वह चीजें लगा दी। नमाज़ पढ़ी और आसन एक कोने से ज़रा-सा मोड़ दिया।<br />
<br />
रात को ओम ने अपना हाथ धीरे-से फ़ातिमा के कन्धे पर रखा। फ़ातिमा ने मुँह फेर लिया। ओम ने और नज़दीक खिसककर कहा, “फ़ातिमा, यह क्या कर रही हो?"<br />
<br />
फ़ातिमा घायल जीव की तरह छिटककर अलग हो गई, "मैं कुछ नहीं कर रही हूँ। उल्टा चोर कोतवाल को..." वह चीखते-से स्वर में बोली।<br />
<br />
अजीब-सी हो रही थी फ़ातिमा, मानो एक बारीक़-सी पर्त के नीचे बस 'हिस्टीरिया' ही 'हिस्टीरिया' दबा पड़ा हो। जब तक चुप्पी ठीक है, पर ज़रा-सी आवाज़ हुई कि पर्त चटकी और चीत्कार बाहर फूटा।<br />
<br />
ओम ने उसका हाथ हलके से दबाया, “प्यारी, मैं क्या कर रहा हूँ ? तुम तो हर बात का मतलब निकालने लगी हो। इतनी जल्दी बुरा मान जाती हो। पहले हम हर तरह की बात पर हँस लेते थे।"<br />
<br />
फ़ातिमा के आँसू छलक पड़े, “पहले की बात मत करो। पहले हम कुछ और ही थे।" उसने सिसकी के साथ अपना मुँह तकिए में दबा दिया।<br />
<br />
ओम ने उसे कस के चिपटा लिया।<br />
<br />
“छोड़ दो मुझे, छोड़ दो !" वह रोती हुई उसकी बाँहों से निकलने को तड़पने लगी।<br />
<br />
"नहीं," ओम ने बाँहें और कसते हुए कहा, "नहीं फ़ातिमा, कैसे छोड़ सकता हूँ तुम्हें। प्लीज़...! तुम समझ ही नहीं रही..."<br />
<br />
समझ तो वह भी नहीं रहा था। उसकी मति मारी गई थी। मुँह फाड़े कोई लहर आई थी और उसे मध्य सागर में, अनजान अँधेरों में गोते खाने पटक गई थी। यह सब क्यों हो रहा है ? यह सब क्या हो रहा है ? उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। _ सिसकती फ़ातिमा को सीने से लगाए वह मद्धिम चाँदनी में चुपचाप पड़ा रहा। पलंग के बगल में खड़े ‘कैबिनेट' पर चाँद इशारा कर रहा था। फ़ातिमा ङ्केकी कॉलेज की तस्वीर धुधली-सी शालार रही थी । दुबली-सी लाड़ी, जींस पर कुर्ता लटकाए, कुर्ते पर एक लम्बी चोटी झुलाती, हँसमुख चेहरेवाली, चपल नयनोंवाली। तब फ़ातिमा कितनी शोख हुआ करती थी। और निडर । और बागी। होस्टल लाउंज में ही अपने अब्बा से लड़ पड़ी थी-'समाज...मज़हब...धमकाइए मत मुझे...सारी दुनिया घटिया नियम अख्तियार करे तो भी वे सही नहीं हो जाएँगे।' दोनों ने मिलकर सबका सामना किया था। जान की धमकी देनेवाले अनाम ख़तों को हिकारत से फाड़कर फेंक दिया था। ओम की नौकरी चली गई। उस पर आरोप लगे कि वह घमंडी है और ऑफ़िस का माल निजी इस्तेमाल में लाता है। मित्रों के संग दोनों हँसे थे, क्योंकि वाकई ओम ऑफिस का कागज़, जब-तब अपने लेख टाइप करने के लिए उठा लाता था। एक के बाद एक बवाल हुआ। शहर-भर में हंगामा फैला। फ़ातिमा को तो उसके अब्बा ने ताले-चाभी में बन्द कर दिया। पर वह खिड़की से कूदकर भाग आई थी और दोनों ने शादी कर डाली थी।<br />
<br />
ओम ने गहरी साँस ली। ऐसा लगा था कि एक डरावने दौर का अन्त हुआ था, एक खतरनाक कहानी खत्म हुई थी। पर न जाने कैसे उस कहानी का अन्त एक नई शुरुआत बन गया।<br />
<br />
सवेरे आँख खुली तो फ़ातिमा नमाज़ पढ़ रही थी।<br />
<br />
“ये क्या ?" ओम के तन-बदन में आग लग गई। उसने झपटकर जा-नमाज़ खींच ली और फ़ातिमा को घसीटकर खड़ा कर दिया, “ये क्या कर रही हो ?" वह दाँत पीसकर बोला, “अब यही कसर बाकी है ?"<br />
<br />
“छोड़ दो मुझे !" फ़ातिमा की आवाज़ काँप रही थी। उसकी आँखों का दृढ़ संकल्प देखकर ओम थर्रा उठा। फ़ातिमा झटके से वापस जा बैठी।<br />
<br />
नाश्ते पर दोनों चुप थे। ओम अपने चेहरे के आगे से अखबार हटाता तो केवल एक और कौर मुँह में डालने के लिए। जब फ़ातिमा खाली प्लेटें उठाने लगी तब उससे नहीं रहा गया।<br />
<br />
"रुको।"<br />
<br />
फ़ातिमा ठिठक गई, सिर बिना उसकी तरफ़ घुमाए।<br />
<br />
"जाओ," ओम गुर्राकर बोला, “जब सुनने से पहले ही तय कर चुकी हो कि सुनोगी नहीं तो क्या फायदा ?"<br />
<br />
फ़ातिमा सट्-सट् साड़ी फड़फड़ाती रसोई में घुस गई। वह वाकई कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी। सारा दर्द, सारी कुंठा, उसने अब इसी एक बिन्दु पर न्योछावर करने की कसम खा ली थी-अपनी एक पहचान पर, क्योंकि उसे लग गया था कि कोई उसे पहचानता नहीं है, मानता नहीं है। या तो बस बर्दाश्त करता है या फिर ज़लील करता है। उसे अपनी अस्मिता की खोज हो आई। ठीक है, वह भी दिखा देगी वह क्या है।<br />
<br />
ओम का हाथ फिर उसके कन्धे पर था। “फ़ातिमा !" उसकी आवाज़ रुंधी-रुंधी थी।<br />
<br />
फ़ातिमा तड़प उठी। ओम की कोमलता वह सह नहीं सकती। इसी तरह वह हिलगा देता है। वह उम्मीद और विश्वास में बैठ जाती है कि उसे मंजूर किया जा रहा है। नहीं चाहिए यह नरमी। चीख लो। मार लो। पर...।<br />
<br />
“फ़ातिमा, कुछ तो सोचो। तुम समझती क्यों नहीं हो कि क्या कर रही हो ? सारा जग इठलाएगा कि उन्हें तो हमेशा पता था तेल और पानी का मेल कब हो पाया है।...तुम सँभलती क्यों नहीं...? हमने एक-दूसरे से प्यार किया है। धर्म से परे।...तुमने क्यों ठान लिया है कि दुनिया के रचे झूठे भँवर में हम फँस जाएँ ?...तुली हुई हो हमें हिन्दू-मुसलमान दिखाने में।...फ़ातिमा, तुम जहर को मरहम समझ रही हो। प्लीज फ़ातिमा, प्लीज...। जिसमें से लड़कर निकल आए थे उस गढ़े में गिर जाना चाहती हो ?...हम तो बेइंसाफी से लड़नेवालों के लिए एक ताकत बन गए थे, 'सिंबल', 'सिंबल' ऑफ विक्टरी..."<br />
<br />
फ़ातिमा तिलमिला उठी, “हाँ-हाँ 'सिंबल' हैं। बस 'सिंबल' बनके रह गए हैं। मुर्दा 'सिंबल'। और कुछ नहीं रहे। जैसे तिरंगे झंडे पर बना चक्र।...ओम, मैं इनसान हूँ, फरिश्ता नहीं। सुना ? समझे ?...सुन लो ओम, मुझे मेरी दुनिया चाहिए, इनसानोंवाली।...डू यू अंडरस्टैंड...। जिसमें तरह-तरह के रिश्ते हैं, दूर के, करीब के। मुझे चार जिगरी दोस्तों के सहारे नहीं जीना है। ओम...ओम, तुम बेवकूफ हो...ज़िन्दगी एक ज़रा-से 'इंटीमेट' घेरे में नहीं जी जाती। हर पल की यह 'इंटीमेसी'...सब इतने नज़दीक...सब एक-दूसरे के बारे में सब कुछ जानते हुए...। ओम, मेरा दम घुटता है। साँस लेने के लिए थोड़ा दूर होना पड़ता है। मुझे यह चाहिए...यह सब चाहिए...।"<br />
<br />
ओम उत्तेजित होकर बोला, 'सब' किसे कह रही हो ? इस तरह क्या तुम 'सब' पा जाओगी ? फ़ातिमा, तुम अपने आपको भी खो दोगी। जिसे 'सब' समझ रही हो वे हैं बेजान सिंबल्स।...तुम डर गई हो...।<br />
<br />
फ़ातिमा झटके से वहाँ से चली गई।<br />
<br />
वह सच ही बहुत डरने लगी थी। बेकार में ही घबराहट की लहर उसके बदन में सिहर उठती। रातों को नींद खुलती तो वही जानी-पहचानी आवाजें-नल से गिरती टप-टप बूँदें, हवा से धीमे-धीमे खड़खड़ाती खिड़की, दूर सड़क पर जाती ट्रक की आवाज़-वह अँधेरे में ही डरकर झाँकने लगती...कौन है, क्या है...?<br />
<br />
कभी ख्वाब देखती-अम्मी के कमरे में दाखिल हुई। अम्मी चुपचाप काम कर रही हैं। कहीं जानेवाली हैं। चेहरे पर भाव शान्त संयमित है; और फ़ातिमा उनसे कहने को तड़प रही है, उनकी सुनने को बिलख रही है। पर अम्मी बात ही नहीं करतीं, पथराई-सी हैं। उनका क्या होगा ? फ़ातिमा डरने लगती, अजीब-सी घुटन उसे डसने लगती, वह टूटती जाती। टूट रही है, चीख रही है। चेहरे की हर बनावट उस चीख में बिगड़ रही है।<br />
<br />
अचानक वह जाग जाती। उस चीखते, विकृत चेहरे पर पड़ा यह शान्त, स्थिर, सिलवटरहित सोकर जागा चेहरा...। वह और भी अधिक डर जाती।<br />
<br />
फ़ातिमा कुर्सी पर बैठ गई। पस्त। उसकी हिम्मत चूर हो गई थी। अपने किए के नतीजे को नहीं जानना चाहती थी। आदर्श लड़ाई अब बहुत हुई। उसे लग रहा था उसमें सिर उठाने की ताकत नहीं रही। हर पौधे को पनपने के लिए मिट्टी चाहिए, हवा-पानी चाहिए। वह मुरझाने लगी थी। ओम कहता था, उसे कोई हक नहीं कि हर झोंके पे ज़रा और झुक जाए, इतनी कमज़ोर साबित हो। समाज से लोहा लिया है तो बंजर ज़मीन पर उगना पड़ेगा। नहीं तो पहले ही किसी बेल की तरह कहीं पेड़ या दीवार से क्यों नहीं चिपट गईं?<br />
<br />
बहुत हो गईं ये कोरी बातें। फ़ातिमा का सिर भन्ना उठा। उसे लगा किसी और ज़िन्दगी में वह अपनी इस कमज़ोरी को कोस लेगी। अभी तो बस वह अपनी एक जगह चाहती है, अपनी पहचान माँगती है, अपनों को पाने के लिए तड़प रही है।<br />
<br />
किसी ने घंटी बजाई। फ़ातिमा ने नज़र उठाई। शन्नो चाची थीं।<br />
<br />
सोमवार था। चाची हर सोमवार आ जाती थीं। अम्मा के नाम पूजा कर जाती थीं।<br />
<br />
दो बरस अम्मा मुँह फुला के बैठ गई थीं। पर बेटे से कौन माँ अलग हो पाती है। देखते ही देखते सारी अकड़ चम्पत हो गई और बेटे के घर आना-जाना शुरू हो गया। तभी शन्नो चाची भी आने लगीं।<br />
<br />
अम्मा तो फ़ातिमा को जी-जान से प्यार भी करने लगीं।<br />
<br />
कभी शन्नो चाची ने आँखें मटकाकर कहा था, "क्यों री, तेरी बहू की आवाज़ तो बड़ी सुरीली है। वरना मैं तो आवाज़ से हिन्दू-मुसलमान बता देती हूँ।"<br />
<br />
अम्मा ने फ़ातिमा के गाल पर हाथ फेर के कहा था,-"मेरी बहू किसी कोने से मुसलमान है ही नहीं।"<br />
<br />
फ़ातिमा ने पूछ लिया,-"मैं भी तो सुनूँ आवाज़ में क्या रहस्य है ?"<br />
<br />
चाची ने हाथ नचाया, "भई मुसलमानिन हमेशा भोंडी आवाज़ ही पाती है। आदमियों-जैसी ! भारी !...वह मालिन नहीं आती है ?"<br />
<br />
फ़ातिमा ने तपाक से कह दिया, “आवाज़ तो आवाज़ ठहरी, हिन्दुओं के तो आदमी ही औरतों-जैसे हैं, पिद्दे...से !"<br />
<br />
बाद में ओम और फ़ातिमा अपनी मित्रमंडली में इस किस्से पर ठहाके मारके हँसे थे। ओम के पाँच फुट सात इंच के पुरुषत्व की लम्बी खिंचाई की गई थी। फ़ातिमा ने खुद को फ़तेह खाँ फ़नकार कहकर कोई जोशीला गाना सुना दिया था।<br />
<br />
आए दिन ऐसे किस्से होते थे जिनको लेकर मित्रों में छेड़छाड़ चलती। सब मिलकर संसार की रीतियों पर ताज्जुब करते। ओम के बाबा कहा करते थे कि राह चलते कभी साँप और मुसलमान मिल जाए तो पहले मुसलमान का खात्मा करो, फिर साँप का ! ओम तब बनिए और पठान का चुटकुला सुनाता कि बनिया पठान के सीने पर सवार घूसे पे घूसे जमाए जा रहा है और फफक-फफककर रो रहा है कि रुके तो कैसे, क्योंकि वह रुका नहीं कि पठान उठकर उसे वह पटकेगा...वह पटकेगा...!<br />
<br />
कभी ओम फ़ातिमा को चिढ़ाता, “इधर आ मुसलटी, देखें तो तेरे बदन से कैसी बू आ रही है, पानी से बैर करनेवाली ?"<br />
<br />
फ़ातिमा इतरा के अलग हो जाती, “जा-जा काफ़िर, दो बूंद छिड़क ले और स्वच्छता का राग अलाप। बड़ा आया, ढोंगी धर्मात्मा कहीं का !"<br />
<br />
तब और दोस्त मिल जाते, “ना-ना भाभी, नहाने की बात तो छोड़। वह तो गनीमत है इतनी गर्मी है कि तुम्हें भी नहाना पड़ता है। पर उसका क्या जो हर मांस खानेवाले जानवर की बू होती है ?"<br />
<br />
"हैं ? यह क्या बकवास है ?"<br />
<br />
सब हँसते, “क्यों हमारी गाय महकती है ? कभी नहीं। और शेर ? और मुसलटा ?"<br />
<br />
“और घोड़ा ?" फ़ातिमा ताली पीटकर हँसती।<br />
<br />
सब मज़े में झूम उठते। कभी लोगों के दिमाग पर हँसकर, कभी चौंककर । क्या-क्या नहीं प्रचलित कर देते हैं, कुछ भी मान लेते हैं।<br />
<br />
पर शन्नो चाची तो शहद से लीपकर व्यंग्य कसती थीं। उन्हें तो 'फ़िट' करना ही था। लेकिन अम्मा कभी ऐसा-वैसा नहीं बोलती थीं। उन्होंने तो बस एक बार बहू बना लिया तो फिर स्नेह ही बरसाया।<br />
<br />
फिर अचानक उनका देहान्त हो गया। ओम एकदम टूट गया। अम्मा को याद करके नन्हे-से बच्चे की तरह रो पड़ता। फ़ातिमा भी रोने लगती। अम्मा याद आतीं। फिर अम्मी और अब्बा का ख़याल भी आ जाता। न जाने किस हाल में होंगे। इधर-उधर से कोई उड़ती खबर आ जाती थी। ख़ालूजान के पास गए हैं...नदीम की शादी कर दी...मोतिया का ऑपरेशन हुआ है..., वगैरह। एकदम कट चुकी थी उनसे फ़ातिमा। कभी...कुछ हो गया तो...?<br />
<br />
ओम ने अम्मा की तस्वीर फ्रेम करा के टाँग ली। शन्नो चाची ने उसी के बगल के आले पर उनके सबसे प्रिय भगवान-शंकर-का फोटो खड़ा कर दिया। कभी-कभार आती तो हाथ जोड़ लेतीं। देखते ही देखते वह कोना एक पूजा-स्थल बन गया। पार्वती और गणेश भी आ गए। सामने पीतल की एक तश्तरी में शिवलिंग, गंगाजल, अगरबत्ती और दीया सज गए।<br />
<br />
अम्मा की याद से कुछ ऐसी जुड़ गई थी यह पूजा कि ओम ने कभी उँगली नहीं उठाई। फ़ातिमा और वह आरती भी ले लेते और शन्नो चाची के कहने पर आले की तरफ़ जूता-चप्पल पहनकर न जाते।<br />
<br />
बहुत दिनों तक चाची नहीं आती हैं तो ओम अधीर लगने लगता है, फ़ातिमा को ऐसा वहम था। एक ऐसे ही दिन उसने पूछा, “मैं फूल बदल दूँ ?"<br />
<br />
ओम क्षण-भर चुप रहकर बोला था, “ठीक है, अम्मा को अच्छा लगता था।"<br />
<br />
फ़ातिमा ने नहाकर चाची की तरह सिर पर पल्लू डाल लिया। केले के पत्ते पर गुड़हल, गुलाब और मोगरा धो लाई और शिवजी के लिए बेल-पत्र । दूध से शिवलिंग को नहलाया, फूल-पत्र चढ़ाए, दीया जलाया। उसके मन से हूक-सी उठी-'अम्मा...अम्मी...अब्बा...!'<br />
<br />
अगली बार चाची आईं तो पूछने लगीं, “यह पूजा किसने की ?"<br />
<br />
“मैंने।" फ़ातिमा ने बताया।<br />
<br />
चाची कुछ बोली नहीं, पर हर सोमवार को आने लगीं।<br />
<br />
“क्यों बहू, ओम ऑफिस गया ?"<br />
<br />
"हाँ चाची।"<br />
<br />
"और तूने वह धागा तो नहीं उतारा ? हाँ उतारना नहीं, तेरी गोद भरेगी।"<br />
<br />
“धागे से नहीं चाची, हमारी मर्जी से भरेगी।"<br />
<br />
"अरे तो मर्जी तो है ही।" चाची ने पूजा के आले पर से घी उतारा और चढ़ावे के लिए थोड़ा-सा हलुवा बनाया। पूजा की।<br />
<br />
किसी जन्माष्टमी में नीचे के आले को साफ करके कृष्ण-झाँकी भी बना गई थीं। तभी फ़ातिमा ने, जैसे अम्मा बनाती थीं, वैसे सिंघाड़े का हलुवा बनाया था। शाम को ओम की तरफ़ बढ़ाया तो उसने पूछा, “क्या शन्नो चाची बना गईं ? तुमने ?...इतना आसान थोड़े है। एक दिन में नहीं आ जाता।"<br />
<br />
शन्नो चाची पूजा करके चली गईं। फ़ातिमा भी बैंक के लिए चल पड़ी। फुटपाथ पर लोगों की भरमार थी। फ़ातिमा को लगा, वह सबके रास्ते में आ रही है और सब उस पर मन ही मन भन्ना रहे हैं। अपराध-बोध से वह कभी बाईं ओर झुकती, कभी दाहिने को हटती, और एकाएक रुक जाती...भीड़ को गुजर जाने दो...।<br />
<br />
वह भीड़ से बेहद घबराने लगी थी। लोगों से घबराने लगी थी। कभी कोई जाननेवाला दिख जाता तो अव्वल तो वह उसे पहचानती ही नहीं और अगर पहचान लेती तो दुविधा-भरी एक मुस्कान के साथ कतरा के बगल से निकल जाती कि न जाने सामनेवाला उसे पहचान भी रहा है...पहचानना भी चाहता है...?<br />
<br />
ओम झल्ला उठता, “कहीं जाते हैं तो बोलने की कोशिश भी नहीं करती हो। लोग समझेंगे खिलजी खानदान का होने का गरूर है, बादशाहत का गुमान पाले हुए हो।"<br />
<br />
"तो मत ले जाओ मुझे कहीं।" फ़ातिमा बात निपटा देती।<br />
<br />
ओम अक्सर अकेले ही जाता। फ़ातिमा से कह-कहके हार गया कि लोग हर बात का टेढ़ा मतलब ही निकालेंगे और निकालेंगे ज़रूर। उसी दिन की, मनचन्दा बता रहा था, बाला ने कह दिया था-"देखो, नहीं आईं न शहज़ादी। समझ रही होंगी कि बेटे का जन्मदिन तो बहाना है, दुर्गा-पूजा का जमघट होगा असल में। अजी मानो न मानो, मुसलमान होता ही है ज़्यादा मुसलमान । हम तो सिद्दीकी के घर हर ईद पर जाते हैं। जबकि हमें मालूम है वह छुप के गाय काटते हैं ।"<br />
<br />
लोग कैसा कैसा बोलकर महफ़िल में रंग लाते हैं, इसका ओम और फ़ातिमा को पुराना तजुरबा था। वह तो शादी की खबर उड़ी-भर थी कि जग-भर अपने-अपने परमेश्वर का दूत बन बैठा और ओम और फ़ातिमा का रक्षक भी।<br />
<br />
“अरे भाई चुप कैसे बैठें, एक शरीफ लड़का बरबाद हुआ जा रहा है...वह चंडाल निकाह किए बगैर नहीं माननेवाली...।"<br />
<br />
“अमाँ फला-फलाँ की यह जुर्रत ? हमारी लड़की उठाएँगे ? देख लेंगे...।"<br />
<br />
और तो और, अम्मा बेचारी की मौत पर भी अफवाहों का बाजार गर्म था"देखा ना, निकाह किया, बेटे का धर्म लिया, माँ रो-रो के जान दे बैठी...।"<br />
<br />
मनचन्दा बता रहा था कि इकहत्तर में तो यह शोहरत थी कि फ़ातिमा के बाप पाकिस्तान के एजेंट हैं। शादी का विरोध तो नाटक है, लड़की को दुश्मनों की मदद की खातिर काफ़िर से ब्याहा है, ओम की कम्पनी, शायद डनलप के तकियों और गढ्दों में एफ.बी.आई. की फ़ाइलें सिलती थी !<br />
<br />
फ़ातिमा चैक भुनाकर लौट आई।<br />
<br />
शाम को ओम जल्दी घर आ गया। "चलो डमरूपार्क चलें।"<br />
<br />
वहाँ पहुँचकर दोनों एक घने पेड़ के नीचे, उसके चौड़े तने से टेक लगाए बैठ गए। फ़ातिमा जमीन पर पड़ी एक टहनी से खेलने लगी। अचानक किसी सड़की कुत्ते की, उसी टहनी पर, उसी तने से लग के, एक टाँग उठाके क्रिया करने की तस्वीर बेवजह उसके मन में कौंध गई। उसने चीखकर टहनी गिरा दी।<br />
<br />
“क्या हुआ...क्या हुआ ?" ओम भी हड़बड़ा गया।<br />
<br />
"व...वो..." फ़ातिमा ने बड़ी-बड़ी आँखें उधर कीं। और फिर खिलखिलाकर हँस पड़ी। सरिता-सी कल-कल करती उन्मुक्त हँसी।<br />
<br />
"फ़ातिमा !" ओम ने उसे गले लगा लिया।<br />
<br />
हँसते-हँसते फ़ातिमा रो पड़ी।<br />
<br />
“ओम, मुझे अच्छा नहीं लगता। बिलकुल अच्छा नहीं लगता।"<br />
<br />
"क्या बात है, फ़ातिमा ! मेरी जान, अब तो खुश हो जाओ। सब तो अच्छा हो रहा है। तुम अम्मी के भी पास जाने लगी हो।"<br />
<br />
अब्बा का तार आया था। उन्हें अस्पताल में भर्ती कर दिया गया था। सख्त बीमार थे। फ़ातिमा बदहवास हाल में मैके पहुंची थी। शादी के बाद पहली बार। बहुत रोना-धोना हुआ। अब्बा जान अच्छे हो गए। पर मुहर्रम शुरू हो गया था। फ़ातिमा ने ओम को लिखा- “अब्बा घर लौट आए हैं। अब कोई खतरा नहीं है। पर मुहर्रम शुरू हो गया है। उसके बाद ही आ पाऊँगी। अभी छोड़कर जाना ठीक नहीं लगता।"<br />
<br />
मिलते ही दोनों में झगड़ा हो गया। ओम बरस पड़ा, “यह हमारा समझौता था कि धर्म से कोई साबिका नहीं होगा, उसके पचड़ों में बिलकुल नहीं पड़ेंगे।"<br />
<br />
फ़ातिमा ने आश्चर्य से कहा था, "तुम तो गज़ब ही करते हो ओम। मुझे धर्म से अभी भी कुछ वास्ता नहीं है। अब्बा बीमार थे। अम्मी का जी हल्का हो पाया। मेरे नौहे पढ़ लेने से उन्हें राहत मिली। बस। मैंने कोई समझौता नहीं तोड़ा।"<br />
<br />
"वाह-वाह," ओम ने लाल-पीले होकर ताना कसा, "तुम रोज़ा रखो, मातम करो, और फिर मासूमियत से कहो, क्या गलत किया ? फिर क्यों न अम्मी के दिल के सुकून के लिए निकाह भी कर लिया होता ? वही क्या ग़लत होता ?"<br />
<br />
फ़ातिमा ने बहुत गहराइयों से ओम की तरफ़ देखा। दो क्षण बाद शान्त स्वर में बोली, “हाँ शायद गलत नहीं होता। हमें फ़र्क न पड़ता पर अम्मी और अब्बा को इज्जत मिल जाती, हमसे रिश्ता कायम रखने का ज़रिया मिल जाता। मुझे इस तरह अलग होने को मजबूर नहीं होना पड़ता।...भाई की शादी तक में शरीक नहीं हो पाई।...तुम्हारे...हिन्दुत्व की वजह से।"<br />
<br />
ओम सन्नाटे में आ गया, “अरे ! दो दिन उस माहौल में लौटी और दिमाग फिर गया ? मैंने क्या निकाह से मना किया था ? या किसी भी किस्म की धार्मिक रस्म से ? बोलो। मन्दिर, मस्जिद, गिरजा..." ।<br />
<br />
“खूब रही," फ़ातिमा बीच ही में बोल उठी, “अब मन्दिर और फेरों की बात होगी। मन्दिर पर कौन-सा कलंक लग रहा था ? तुम जानते हो, अच्छी तरह से, जानते हो कि हमारे इस समाज में जो भी जाता है, लड़की का जाता है। लड़का सिर्फ़ लेता है।...तुम्हारे हिन्दू मज़हब की तरह...दूर-दूर तक अपना साया बिछाता है, अपनी छत्रछाया में दूसरों को पालता है...या डसता है... I...पर यह तो खूब रही कि अपने फैलाव से बेख़बर हैं और कोई दूसरा ज़रा-सी पनाह माँगे, होने का हक माँगे, थोड़ी जमीन चाहे तो भड़क उठें कि ऐसा है तो फिर हमें भी हिस्सा चाहिए ! उल्लू न बनाओ। तुम्हारा क्या बदला या बिगड़ा ?"<br />
<br />
ओम का हाथ उठ गया था, "अब ऐसी दलीलें दी जाएँगी? और यह जताओगी कि जैसे मैं तुम्हें उठा के ले आया ? अपनी रज़ामन्दी का जिम्मा लेते अब डर लगने लगा है।"<br />
<br />
फातिमा रोने लगी। पर बोलती रही, "रज़ामन्दी ? क्या तुमने कोई रास्ता छोड़ा था ? या तो इस तरह आओ, वरना जाओ, फूटो, मरो। छोड़ना क्या आसान होता है ?"<br />
<br />
“फातिमा", ओम चिल्ला पड़ा था, "इस तरह हमारे अतीत को मत झुठलाओ, हमारे प्यार को दुषित मत करो।" डमरूपार्क में दोनों अपने अतीत को असली और नकली गाँठों से उलझाए बैठे रहे।<br />
<br />
ओम ने फातिमा को गोद में लिटा लिया, “अब क्या है ? अब तो तुम हर साल नौहे पढ़ने अपने घर जाती हो।"<br />
<br />
फातिमा भर्राई आवाज़ में बोली, "जाती ही तो हँ बस । क्या नाता रख पाई हँ किसी से ? क्या दे पाती हैं उन्हें ?...ओम, मैंने समाज से लड़ाई की थी, वह मुझे बदनाम करे, मेरा बहिष्कार करे, मैं सब सह सकती थी। पर माँ-बाप से अलग होना..."<br />
<br />
ओम विचारमग्न हो गया। माँ-बाप से अलग कौन-सा समाज होता है ? है कोई समाज ?<br />
<br />
उसने दृढ़ स्वर में कहा, "नहीं, फातिमा, हम शिकायत नहीं कर सकते। जगदीश काका को याद करो।"<br />
<br />
जगदीश काका फातिमा को अंग्रेजी पढ़ाते थे। वह अकेले बुजर्ग थे जो उन दोनों की शादी में शरीक हए थे। शादी से पहले उन्हें नसीहत भी दे चुके थे- “देखो, इस समाज की ताकत को मामूली न समझो। उसके बारे में अपनी नीयत तय कर लो। खूब थू-थू होगी, यह समझ लो। उससे घबराते हो तो सोच लो। दुनिया के आगे चाहे मुस्काता मुखौटा चढ़ा लोगे, अन्दर चूर-चूर होते जाओगे। झेल सकते हो, हिम्मत है, तो आगे बढ़ो, हम सब तुम्हारे साथ हैं । यह नकली भेदभाव तुम बच्चों के मिटाए ही मिटेंगे। पर फिर ठीक से समझ लो, जाने दो जो जाता है...नाम, खानदान...किसी का गम न करो।'<br />
<br />
“फातिमा,” ओम ने उसका सिर अपने दोनों हाथों में ले लिया, "समाज को हरा दिया और अब लड़खड़ा रही हो !"<br />
<br />
"तम्हें क्या," फातिमा ने उसके हाथ हटाकर कहा, "तुम्हारी माँ, तुम्हारे रिश्तेदार, सब तुम्हारे ही रहे। तुम अपने ही रहे।"<br />
<br />
ओम ने ज़रा झुंझलाकर कहा, "तुम्हारी अम्मी चाहकर भी तुम्हें न मान पाईं तो यह उनकी कमज़ोरी है, मेरी माँ को क्यों कोस रही हो ?"<br />
<br />
फातिमा को बुरा लगने लगा । वह उठकर बैठ गई, “तुम नहीं समझ सकते। लड़के हो...हिन्दू हो।...तुम्हें क्या डर ?"<br />
<br />
"ओफ्फो!" ओम ने सिर पकड़ लिया, “ अब इस तरह बातें होंगी । जबसमाज के घटिया कानूनों से ऊपर उठ गए तो उनकी तुला पर हमें क्योंकर तौलोगी? लड़का, लड़की, हिन्दू-मुसलमान !"<br />
<br />
"कहना आसान है," फातिमा का गुस्सा बढ़ने लगा, “तुम ऊपर उठ गए और अलग हो गए । तुम्हें शुरू से यह छुट थी। पर मुझे तो हर कदम पर समाज के बाण सहने पड़ते हैं। जमादारिन है तो मुझसे पूछती है, तुम्हारे आगे तो मुँह नहीं खोलती। तुम्हारे उस जिगरी दोस्त की पढ़ी-लिखी बीवी तक, तुमसे वहीं पुराने अदब से बोलती है पर मुझसे 'हैलो' भी नहीं करती। कोई उससे पूछे तो सहीं कि यह सब नापसन्द है तो मुझ पर ही ज़ाहिर करने की तमीज़ क्यों ? जैसे मैंने ही तो यह सब किया है, तुम तो दूध के धुले, मासूम बेचारे हो।...धोबी तक जानपूछ कर मेरा काम देर से करता है... " फातिमा की सिसकियाँ बँधने लगीं।<br />
<br />
"छोड़ो फातिमा," ओम ने टोका, "हमने लोगों से कब कोई दूसरी उम्मीद की थी ? उनकी निर्दयता, उनकी संकीर्णता, लगातार तो देखते रहे हैं। छोड़ो उनकी। क्यों इन छोटी-छोटी लड़ाइयों में सिर खपाती हो?"<br />
<br />
“यही तो मैं समझ चुकी हँ," फातिमा चीख उठी, आपे में नहीं रही, "कि यह छोटी-छोटी लड़ाइयाँ ही असली हैं । बड़ी लड़ाई लड़ना आसान है । उन्हें गर्व से लड़ते हैं हम, अभिमान से मर-मिटते हैं उनके लिए। पर यह छोटी लड़ाइयाँ... कीड़े की तरह घिनौनी-दीमक की तरह लग जाती हैं, खोखला करती जाती हैं... इतनी छोटी होती हैं कि बड़ी-बड़ी स्वाभिमानी रोबदार लड़ाइयों से जोड़ कर देखना मुश्किल हो जाता है।...तुम्हारी लड़ाई बड़ी है। लड़ो और चाटो बड़ी लड़ाई की बड़ी जीत को। उसकी तो हार में भी घमंड है । पर मैं...मुझे...इन छोटी-छोटी लड़ाइयों ने बड़ी के लिए सत नहीं छोड़ी है...मैं..."<br />
<br />
"यह हमारी हार है फातिमा ! कोई वजह नहीं कि हम हारे तुम...त्...त... तुम..."ओम घोर निराशा में हकलाने लगा।<br />
<br />
“मैं अब कुछ नहीं जानती । बन्द करो।" फातिमा त्रस्त हो चुकी थी।<br />
<br />
ओम का हृदय कराह उठा । फातिमा डूब जाओगी। हम दोनों मिट जाएँगे। अपनी कमज़ोरी से बेइंसाफी को बढ़ावा दे रहे हैं। अन्यायियों को मसाला मिलेगा, वे चटखारे ले-लेकर दुनिया को यह मिसाल सबूत के तौर पर पेश करेंगे।<br />
<br />
किसी तरह सँभलना...सँभालना...होगा । जगदीश काका... । क्या करें ? कहाँ जाएँ?<br />
<br />
शहर छोड़ दें ? कुछ रोज़ के लिए सुस्ताने निकल जाएँ ? ऊटी ? दूसरा हनीमून ?<br />
<br />
ऊटी ही तो जा रहे थे जब वह मोटी मिली थी जो मुल्ला को देखकर भयभीत हो गई थी। लेडीज़ केबिन को रेलवेवालों ने जनरल डब्बा बना दिया था। उसी में ओम और फातिमा को जगह मिली थी। ओम अभी प्लेटफार्म पर खड़ा था और फातिमा सामान के साथ अन्दर बैठी थी। सामने गहनों के भार से हाँफती एक मोटी बैठी थी जो 'लेडीज़, लेडीज़' चीख पड़ी थी, जैसे ही एक मुल्ला अपनी पलटन लेकर डब्बे में घुसे । फातिमा ने मामला स्पष्ट किया तो उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। मल्ला-टोली सामान रखकर बाहर निकल गई तो मोटी फुसफुसाने लगी थी, 'बेटी, यह तो खतरनाक बात है।'<br />
<br />
फातिमा ने सांत्वना दी कि नहीं बहत लोग साथ हैं, घबराने की क्या बात है ? पर मोटी के तो होश फाख्ता हो रहें थे। नहीं बेटी, यह 'एम' लोग हैं।' उसने नज़रें चारों तरफ दौड़ाकर हाँफते हए बताया था और फिर जो उनकी बदमाशियों का ब्यौरा दिया था उसमें कोई करतूत नहीं छोड़ी थी जो इन लोगों का तरीका न हो । फातिमा ने बहस की थी, 'मुझे भी अन्दाज़ है, मैं खुद 'एम' हँ।' मोटी को रात-भर नींद नहीं आई होगी। सवेरे-सवेरे फातिमा गठरी की तरह सिमटकरठंड में ठिठी जा रही थी कि ऊपर की 'बर्थ' से मुल्ला का चैदह-पंद्रह बरस का लड़का उतरकर बोला था, 'दीदी, चादर ले लो, मेरे पास दो हैं।' मोटी भयभीत नज़रों से देख रही थी।<br />
<br />
"चलो घर चलें।" ओम ने फातिमा का हाथ पकड़ लिया। फाटक पर उसने फातिमा को रोक लिया। आस-पास कोई नहीं था। ओम ने फातिमा की आँखों में झाँका । वहाँ अँधेरा ही अँधेरा था।<br />
<br />
“फातिमा, चलो कहीं चलें । मैं छुट्टी ले लूँगा। ऊटी चलेंगे। फातिमा मैं तुम्हें खुश देखना चाहता हूँ। फिर से । हरा-भरा... ।"<br />
<br />
ओम की भतीजी की शादी में फातिमा ने हरी साड़ी पहन ली थी। अनायास ही ओम के मुँह से निकल पड़ा था-'यह क्या मुसलमानी रंग उठा लाईं ?'<br />
<br />
फातिमा के होंठ काँपने लगे थे-'चुप हो जाओ ओम, बस इसी वक्त चुप हो जाओ।'<br />
<br />
ओम उसे बताना चाहता था कि उसका ऐसा-वैसा कोई मतलब नहीं था। यह सब अनजाने में, न जाने कहाँ की सुनी-सुनाई बातें, कहाँ की बसी–बसाई प्रतिक्रियाएँ हैं जो यों ही, सहज भाव से अनायास निकल आती हैं। ओम फातिमा के पीड़ित मन को फिर से 'मुसलमानी हरा' कर देना चाहता था।<br />
<br />
"हँसो ना मेरी जान ।”<br />
<br />
फातिमा की आँखों में गाँठे भरी पड़ी थीं। कैसे सुलझेंगी, इतनी उलझ चुकी थीं। ओम को लगा कि अब चाहे सुलझाने के लिए खींचो, या छोड़ दो या कसती जाने दो, नतीजा एक ही होगा-टूट जाएंगी।<br />
<br />
नमाज़ का वक़्त हो गया था। फ़ातिमा अन्दर चली गईं।<br />
<br />
ओम अब चुप नहीं रह पाया। उसने लपककर उसे पकड़ा, "तो यही कहो न कि अब इसी पर्दे में जाओगी और मैं दख़ल न दूँ।"<br />
<br />
फ़ातिमा की तो नाक पर जैसे गुस्सा रखा रहता था, "और तुम जो दीया जलवाते हो?"<br />
<br />
"मैं...मैं जलवाता हँ ? झूठ-सच किसी से मतलब नहीं तुम्हें ? अब आनेवालों से कह दूँ कि घर में घुसकर अपने भगवान का नाम न लो ?"<br />
<br />
"नहीं, मत कहो। किसी से न कहो। मुझसे भी नहीं।"<br />
<br />
ओम स्तब्ध उसे देखता रह गया।<br />
<br />
जा-नमाज़ का कोना मोड़कर फ़ातिमा फिर बाहर निकल गई। सरपट-सरपट भागती-सी चाल में जा रही थी, लेकिन ऐसे नहीं जैसे किसी काम की जल्दी हो और गाड़ी छूट रही हो, बल्कि ऐसे जैसे किसी से भाग रही हो । भयभीत-सी। बौखलाई-सी। चेहरे के हर कण को अन्दर छिपी किसी बेचैनी में कसके मानो बाँध लिया हो कि कोई उड़ता भाव न आ जाए, किसी को मालूम न हो जाए, और ज़्यादा कसे फ़ीते की वस्तु की तरह उसका चेहरा तनते-तनते सिकुड़ गया...</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%B2%E0%A4%BF_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80&diff=43729गीतांजलि श्री2023-08-04T14:30:17Z<p>अनिल जनविजय: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=Geetanjali Shree.jpg <br />
|नाम=गीतांजलि श्री<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=12 जून 1957<br />
|जन्मस्थान= मैनपुरी, उत्तर प्रदेश <br />
|कृतियाँ= पाँच उपन्यास — 'माई`, 'हमारा शहर उस बरस`, 'तिरोहित`,'ख़ाली जगह' और 'रेत-समाधि'। पाँच कहानी संग्रह — 'अनुगूँज`,'वैराग्य`,'मार्च, माँ और साकूरा', 'यहाँ हाथी रहते थे' और 'प्रतिनिधि कहानियाँ'।<br />
|विविध=दिल्ली की हिन्दी अकादमी ने गीतांजलि श्री को सन 2000-2001 के साहित्यकार सम्मान से अलंकृत किया। 1994 में उन्हें अपने कहानी संग्रह ’अनुगूँज’ के लिए यू०के० इन्दु शर्मा कथा सम्मान से सम्मानित किया गया। इसके अलावा इनको द्विजदेव सम्मान और जापान फाउण्डेशन, चार्ल्स वॉलेस ट्रस्ट, भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय और नॉन्त स्थित उच्च अध्ययन संस्थान की फ़ेलोशिप मिली है। ये स्कॉटलैण्ड, स्विट्ज़रलैण्ड और फ्रांस में ’राईटर इन रेज़िडेंसी’ भी रही हैं। सन 2022 में इन्हें अन्तरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। लेखिका गीतांजलि श्री अन्तरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार पाने वाली हिन्दी की पहली लेखक हैं।<br />
|जीवनी=[[गीतांजलि श्री / परिचय]]<br />
}}<br />
{{GKCatMahilaRachnakaar}}<br />
{{GKCatUttarPradesh}}<br />
===कहानियाँ===<br />
* [[इति / गीतांजलि श्री]]<br />
* [[चकरघिन्नी / गीतांजलि श्री]]<br />
* [[बेल-पत्र / गीतांजलि श्री]]<br />
* वैराग्य / गीतांजलि श्री<br />
* तिरोहित / गीतांजलि श्री</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%B2%E0%A4%BF_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80&diff=43728गीतांजलि श्री2023-08-04T14:26:38Z<p>अनिल जनविजय: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=Geetanjali Shree.jpg <br />
|नाम=गीतांजलि श्री<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=12 जून 1957<br />
|जन्मस्थान= मैनपुरी, उत्तर प्रदेश <br />
|कृतियाँ= पाँच उपन्यास — 'माई`, 'हमारा शहर उस बरस`, 'तिरोहित`,'ख़ाली जगह' और 'रेत-समाधि'। पाँच कहानी संग्रह — 'अनुगूँज`,'वैराग्य`,'मार्च, माँ और साकूरा', 'यहाँ हाथी रहते थे' और 'प्रतिनिधि कहानियाँ'।<br />
|विविध=दिल्ली की हिन्दी अकादमी ने गीतांजलि श्री को सन 2000-2001 के साहित्यकार सम्मान से अलंकृत किया। 1994 में उन्हें अपने कहानी संग्रह ’अनुगूँज’ के लिए यू०के० इन्दु शर्मा कथा सम्मान से सम्मानित किया गया। इसके अलावा इनको द्विजदेव सम्मान और जापान फाउण्डेशन, चार्ल्स वॉलेस ट्रस्ट, भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय और नॉन्त स्थित उच्च अध्ययन संस्थान की फ़ेलोशिप मिली है। ये स्कॉटलैण्ड, स्विट्ज़रलैण्ड और फ्रांस में ’राईटर इन रेज़िडेंसी’ भी रही हैं। सन 2022 में इन्हें अन्तरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। लेखिका गीतांजलि श्री अन्तरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार पाने वाली हिन्दी की पहली लेखक हैं।<br />
|जीवनी=[[गीतांजलि श्री / परिचय]]<br />
}}<br />
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===कहानियाँ===<br />
* [[इति / गीतांजलि श्री]]<br />
* [[चकरघिन्नी / गीतांजलि श्री]]<br />
* वैराग्य / गीतांजलि श्री<br />
* तिरोहित / गीतांजलि श्री</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%B2%E0%A4%BF_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80&diff=43727गीतांजलि श्री2023-08-04T14:14:26Z<p>अनिल जनविजय: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
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|चित्र=Geetanjali Shree.jpg <br />
|नाम=गीतांजलि श्री<br />
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===कहानियाँ===<br />
* [[इति / गीतांजलि श्री]]<br />
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* वैराग्य / गीतांजलि श्री<br />
* तिरोहित / गीतांजलि श्री</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Geetanjali_Shree.jpg&diff=43726चित्र:Geetanjali Shree.jpg2023-08-04T14:13:35Z<p>अनिल जनविजय: </p>
<hr />
<div></div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%BC%E0%A5%87%E0%A4%AC_/_%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0&diff=43725पाज़ेब / जैनेन्द्र कुमार2023-08-04T14:04:23Z<p>अनिल जनविजय: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=जैनेन्द्र कुमार |अनुवाद= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=जैनेन्द्र कुमार <br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
बाजार में एक नई तरह की पाज़ेब चली है। पैरों में पड़कर वे बड़ी अच्छी मालूम होती हैं। उनकी कड़ियाँ आपस में लचक के साथ जुड़ी रहती हैं कि पाज़ेब का मानो निज का आकार कुछ नहीं है, जिस पांव में पड़े उसी के अनुकूल ही रहती हैं। पास-पड़ोस में तो सब नन्हीं-बड़ी के पैरों में आप वही पाज़ेब देख लीजिए। एक ने पहनी कि फिर दूसरी ने भी पहनी। देखा-देखी में इस तरह उनका न पहनना मुश्किल हो गया है। <br />
<br />
हमारी मुन्नी ने भी कहा कि बाबूजी,हम पाज़ेब पहनेंगे। बोलिए भला कठिनाई से चार बरस की उम्र और पाज़ेब पहनेगी। <br />
<br />
मैंने कहा,कैसी पाज़ेब? <br />
<br />
बोली,वही जैसी रुकमन पहनती है,जैसी शीला पहनती है। <br />
<br />
मैंने कहा,अच्छा-अच्छा। <br />
<br />
बोली,मैं तो आज ही मँगा लूँगी। <br />
<br />
मैंने कहा, अच्छा भाई आज सही। <br />
<br />
उस वक्त तो खैर मुन्नी किसी काम में बहल गई। लेकिन जब दोपहर आई मुन्नी की बुआ,तब वह मुन्नी सहज मानने वाली न थी। बुआ ने मुन्नी को मिठाई खिलाई और गोद में लिया और कहा कि अच्छा,तो तेरी पाज़ेब अबके इतवार को जरूर लेती आऊँगी। <br />
<br />
इतवार को बुआ आई और पाज़ेब ले आई। मुन्नी पहनकर खुशी के मारे यहाँ-से-वहाँ ठुमकती फिरी। रुकमन के पास गई और कहा-देख रुकमन, मेरी पाज़ेब। शीला को भी अपनी पाज़ेब दिखाई। सबने पाज़ेब पहनी देखकर उसे प्यार किया और तारीफ़ की। सचमुच वह चाँदी कि सफेद दो-तीन लड़ियाँ-सी टखनों के चारों ओर लिपटकर, चुपचाप बिछी हुई, बहुत ही सुघड़ लगती थी, और बच्ची की खुशी का ठिकाना न था। और हमारे महाशय आशुतोष, जो मुन्नी के बड़े भाई थे, पहले तो मुन्नी को सजी-बजी देखकर बड़े खुश हुए। वह हाथ पकड़कर अपनी बढ़िया मुन्नी को पाज़ेब-सहित दिखाने के लिए आस-पास ले गए। मुन्नी की पाज़ेब का गौरव उन्हें अपना भी मालूम होता था। वह खूब हँसे और ताली पीटी, लेकिन थोड़ी देर बाद वह ठुमकने लगे कि मुन्नी को <br />
<br />
पाज़ेब दी, सो हम भी बाईसिकिल लेंगे। बुआ ने कहा कि अच्छा बेटा अबके जन्म दिन को तुझे बाईसिकिल दिलवाएँगे। <br />
<br />
आशुतोष बाबू ने कहा कि हम तो अभी लेंगे। <br />
<br />
बुआ ने कहा, 'छी-छी, तू कोई लड़की है? जिद तो लड़कियाँ किया करती हैं। और लड़कियाँ रोती हैं। <br />
<br />
कहीं बाबू साहब लोग रोते हैं? <br />
<br />
आशुतोष बाबू ने कहा कि तो हम बाईसिकिल जरूर लेंगे जन्म-दिन वाले रोज बुआ ने कहा कि हाँ, यह बात पक्की रही, जन्म दिन पर तुमको बाईसिकिल मिलेगी। इस तरह वह इतवार का दिन हँसी-खुशी पूरा हुआ। शाम होने पर बच्चों की बुआ चली गई। पाज़ेब का शौक घड़ीभर का था। वह फिर उतारकर रख-रखा दी गई; जिससे कहीं खो न जाए। पाज़ेब वह बारीक और सुबुक काम की थी और खासे दाम लग गए थे। <br />
<br />
श्रीमतीजी ने हमसे कहा, क्यों जी, लगती तो अच्छी है, मैं भी अपने लिए बनवा लूँ? <br />
<br />
मैंने कहा कि क्यों न बनवाओं! तुम कौन चार बरस की नहीं हो? <br />
<br />
खैर, यह हुआ। पर मैं रात को अपनी मेज पर था कि श्रीमती ने आकर कहा कि तुमने पाज़ेब तो नहीं देखी? <br />
<br />
मैंने आश्चर्य से कहा कि क्या मतलब? <br />
<br />
बोली कि देखो,यहाँ मेज-वेज पर तो नहीं है? एक तो है पर दूसरे पैर की मिलती नहीं है। जाने कहाँ गई? <br />
<br />
मैंने कहा कि जाएगी कहाँ? यहीं-कहीं देख लो। मिल जाएगी। <br />
<br />
उन्होंने मेरे मेज के कागज उठाने- धरने शुरू किए और आलमारी की किताबें टटोल डालने का भी मनसूबा दिखाया। <br />
<br />
मैंने कहा कि यह क्या कर रही हो? यहाँ वह कहाँ से आएगी? <br />
<br />
जवाब में वह मुझी से पूछने लगी कि फिर कहाँ है? <br />
<br />
मैंने कहा तुम्हीं ने तो रखी थी। कहाँ रखी थी? <br />
<br />
बतलाने लगी कि दोपहर के बाद कोई दो बजे उतारकर दोनों को अच्छी तरह सँभालकर उस नीचे वाले बाक्स में रख दी थीं। अब देखा तो एक है,दूसरी गायब है। <br />
<br />
मैंने कहा कि तो चलकर वह इस कमरे में कैसे आ जाएगी? भूल हो गई होगी। एक रखी होगी,एक वहीं-कहीं फर्श पर छूट गई होगी। देखो,मिल जाएगी। कहीं जा नहीं सकती। <br />
<br />
इस पर श्रीमती कहा-सुनी करने लगीं कि तुम तो ऐसे ही हो। खुद लापरवाह हो,दोष उल्टे मुझे देते हो। कह तो रही हूँ कि मैंने दोनों सँभालकर रखी थीं। <br />
<br />
मैंने कहा कि सँभालकर रखी थीं,तो फिर यहाँ-वहाँ क्यों देख रही थी? जहाँ रखी थीं वहीं से ले लो न। वहाँ नहीं है तो फिर किसी ने निकाली ही होगी। <br />
<br />
श्रीमती बोलीं कि मेरा भी यही ख्याल हो रहा है। हो न हो, बंसी नौकर ने निकाली हो। मैंने रखी,तब वह वहाँ मौजूद था। <br />
<br />
मैंने कहा,तो उससे पूछा? <br />
<br />
बोलीं, वह तो साफ इंकार कर रहा है। <br />
<br />
मैंने कहा, तो फिर? <br />
<br />
श्रीमती जोर से बोली, तो फिर मैं क्या बताऊँ? तुम्हें तो किसी बात की फिकर है नही। डाँटकर कहते क्यों नहीं हो, उसे बंसी को बुलाकर? जरूर पाज़ेब उसी ने ली है। <br />
<br />
मैंने कहा कि अच्छा, तो उसे क्या कहना होगा? यह कहूँ कि ला भाई पाज़ेब दे दे! <br />
<br />
श्रीमती झल्ला कर बोलीं कि हो चुका सब कुछ तुमसे। तुम्हीं ने तो उस नौकर की जात को शहजोर बना रखा है। <br />
<br />
डाँट न फटकार,नौकर ऐसे सिर न चढ़ेगा तो क्या होगा? <br />
<br />
बोलीं कि कह तो रही हूँ कि किसी ने उसे बक्स से निकाला ही है। और सोलह में पंद्रह आने यह बंसी है। सुनते हो न, वही है। <br />
<br />
मैंने कहा कि मैंने बंसी से पूछा था। उसने नहीं ली मालूम होती। <br />
<br />
इस पर श्रीमती ने कहा कि तुम नौकरों को नहीं जानते। वे बड़े छंटे होते हैं। बंसी चोर जरूर है। नहीं तो क्या फरिश्ते लेने आते? <br />
<br />
मैंने कहा कि तुमने आशुतोष से भी पूछा? <br />
<br />
बोलीं,पूछा था। वह तो खुद ट्रंक और बक्स के नीचे घुस घुसकर खोज लगाने में मेरी मदद करता रहा है। वह नहीं ले सकता। <br />
<br />
मैंने कहा, उसे पतंग का बड़ा शौक है। <br />
<br />
बोलीं कि तुम तो उसे बताते-बरजते कुछ हो नहीं। उमर होती जा रही है। वह यों ही रह जाएगा। तुम्हीं हो उसे पतंग की शह देने वाले। <br />
<br />
मैंने कहा कि जो कहीं पाज़ेब ही पड़ी मिल गई हो तो? <br />
<br />
बोलीं, नहीं, नहीं! मिलती तो वह बता न देता? <br />
<br />
खैर,बातों-बातों में मालूम हुआ कि उस शाम आशुतोष पतंग और डोर का पिन्ना नया लाया है। <br />
<br />
श्रीमती ने कहा कि यह तुम्हीं हो जिसने पतंग की उसे इजाज़त दी। बस सारे दिन पतंग-पतंग। यह नहीं कि कभी उसे बिठाकर सबक की भी कोई बात पूछो। मैं सोचती हूँ कि एक दिन तोड़-ताड़ दूँ उसकी सब डोर और पतंग। <br />
<br />
मैंने कहा कि खैर; छोड़ो। कल सवेरे पूछ-ताछ करेंगे। <br />
<br />
सवेरे बुलाकर मैंने गंभीरता से उससे पूछा कि क्यों बेटा,एक पाज़ेब नहीं मिल रही है,तुमने तो नहीं देखी? वह गुम हो गया। जैसे नाराज़ हो। उसने सिर हिलाया कि उसने नहीं ली। पर मुँह नहीं खोला। <br />
<br />
मैंने कहा कि देखो बेटे, ली हो तो कोई बात नहीं, सच बता देना चाहिए। उसका मुँह और भी फूल आया। और वह गुमसुम बैठा रहा। <br />
<br />
मेरे मन में उस समय तरह-तरह के सिद्धांत आए। मैंने स्थिर किया कि अपराध के प्रति करुणा ही होनी चाहिए। <br />
<br />
रोष का अधिकार नहीं है। प्रेम से ही अपराध-वृति को जीता जा सकता है। आतंक से उसे दबाना ठीक नहीं है। बालक का स्वभाव कोमल होता है और सदा ही उससे स्नेह से व्यवहार करना चाहिए, इत्यादि। <br />
<br />
मैंने कहा कि बेटा आशुतोष, तुम घबराओ नहीं। सच कहने में घबराना नहीं चाहिए। ली हो तो खुल कर कह दो, बेटा! <br />
<br />
हम कोई सच कहने की सजा थोड़े ही दे सकते हैं। बल्कि बोलने पर तो इनाम मिला करता है। <br />
<br />
आशुतोष तब बैठा सुनता रहा। उसका मुँह सूजा था। वह सामने मेरी आँखों में नहीं देख रहा था। रह-रहकर उसके माथे पर बल पड़ते थे। <br />
<br />
क्यों बेटे,तुमने ली तो नहीं? <br />
<br />
उसने सिर हिलाकर क्रोध से अस्थिर और तेज आवाज़ में कहा कि मैंने नहीं ली, नहीं ली, नहीं ली। यह कहकर वह रोने को हो आया, पर रोया नहीं। आँखों में आँसू रोक लिए। उस वक्त मुझे प्रतीत हुआ, उग्रता दोष का लक्षण है। <br />
<br />
मैंने कहा, देखो बेटा, डरो नहीं; अच्छा जाओ, ढूँढो; शायद कहीं पड़ी हुई वह पाज़ेब मिल जाए। मिल जाएगी तो हम तुम्हें इनाम देंगे। <br />
<br />
वह चला गया और दूसरे कमरे में जाकर पहले तो एक कोने में खड़ा हो गया। कुछ देर चुपचाप खड़े रहकर वह फिर यहाँ-वहाँ पाज़ेब की तलाश में लग गया। <br />
<br />
श्रीमती आकर बोलीं, आशू से तुमने पूछ लिया? क्या ख्याल है? <br />
<br />
मैंने कहा कि संदेह तो मुझे होता है। नौकर का तो काम यह है नहीं! <br />
<br />
श्रीमती ने कहा, नहीं जी, आशू भला क्यों लेगा? <br />
<br />
मैं कुछ बोला नहीं। मेरा मन जाने कैसे गंभीर प्रेम के भाव से आशुतोष के प्रति उमड़ रहा था। मुझे ऐसा मालूम होता था कि ठीक इस समय आशुतोष को हमें अपनी सहानुभूति से वंचित नहीं करना चाहिए। बल्कि कुछ अतिरिक्त स्नेह इस समय बालक को मिलना चाहिए। मुझे यह एक भारी दुर्घटना मालूम होती थी। मालूम होता था कि अगर आशुतोष ने चोरी की है तो उसका इतना दोष नहीं है; बल्कि यह हमारे ऊपर बड़ा भारी इल्ज़ाम है। बच्चे में चोरी की आदत भयावह हो सकती है,लेकिन बच्चे के लिए वैसी लाचारी उपस्थित हो आई, यह और भी कहीं भयावह है। यह हमारी आलोचना है। हम उस चोरी से बरी नहीं हो सकते। <br />
<br />
मैंने बुलाकर कहा, अच्छा सुनो। देखो, मेरी तरफ देखो, यह बताओ कि पाज़ेब तुमने छुन्नू को दी है न? <br />
<br />
वह कुछ देर कुछ नहीं बोला। उसके चेहरे पर रंग आया और गया। मैं एक-एक छाया ताड़ना चाहता था। <br />
<br />
मैंने आश्वासन देते हुए कहा कि डरने की कोई बात नहीं। हाँ, हाँ, बोलो डरो नहीं। ठीक बताओ, बेटे! कैसा हमारा सच्चा बेटा है! <br />
<br />
मानो बड़ी कठिनाई के बाद उसने अपना सिर हिलाया। <br />
<br />
मैंने बहुत खुश होकर कहा कि दी है न छुन्नू को? उसने सिर हिला दिया। <br />
<br />
अत्यंत सांत्वना के स्वर में स्नेहपूर्वक मैंने कहा कि मुँह से बोलो। छुन्नू को दी है? <br />
<br />
उसने कहा, हाँ- आँ। <br />
<br />
मैंने अत्यंत हर्ष के साथ दोनों बाँहों में लेकर उसे उठा लिया। कहा कि ऐसे ही बोल दिया करते हैं अच्छे लड़के। आशू हमारा राजा बेटा है। गर्व के भाव से उसे गोद में लिए लिए मैं उसकी माँ की तरफ गया। उल्लासपूर्वक बोला कि देखो हमारे बेटे ने सच कबूल किया है। पाज़ेब उसने छुन्नू को दी है। सुनकर माँ उसकी बहुत खुश हो आईं। उन्होंने उसे चूमा। बहुत शाबाशी दी और उसकी बलैयाँ लेने लगी! <br />
<br />
आशुतोष भी मुस्करा आया, अगरचे एक उदासी भी उसके चेहरे से दूर नहीं हुई थी। <br />
<br />
उसके बाद अलग ले जाकर मैंने बड़े प्रेम से पूछा कि पाज़ेब छुन्नू के पास है न? जाओ, माँग ला सकते हो उससे? <br />
<br />
आशुतोष मेरी ओर देखता हुआ बैठा रहा। मैंने कहा कि जाओ बेटे! ले आओ। उसने जवाब में मुँह नहीं खोला। <br />
<br />
मैंने आग्रह किया तो वह बोला कि छुन्नू के पास नहीं हुई तो वह कहाँ से देगा? <br />
<br />
मैंने कहा कि तो जिसको उसने दी होगी उसका नाम बता देगा। सुनकर वह चुप हो गया। मेरे बार-बार कहने पर वह यही कहता रहा कि पाज़ेब छुन्नू के पास न हुई तो वह देगा कहाँ से? <br />
<br />
अंत में हारकर मैंने कहा कि वह कहीं तो होगी। अच्छा,तुमने कहाँ से उठाई थी? <br />
<br />
पड़ी मिली थी। <br />
<br />
और फिर नीचे जाकर वह तुमने छुन्नू को दिखाई? <br />
<br />
हाँ! <br />
<br />
फिर उसी ने कहा कि इसे बेचेंगे! <br />
<br />
हाँ! <br />
<br />
कहाँ बेचने को कहा? <br />
<br />
कहा मिठाई लाएँगे? <br />
<br />
नहीं,पतंग लाएँगे? <br />
<br />
हाँ! <br />
<br />
सो पाज़ेब छुन्नू के पास रह गई? <br />
<br />
हाँ! <br />
<br />
तो उसी के पास होनी चाहिए न! या पतंग वाले के पास होगी! जाओ,बेटा,उससे ले आओ। कहना,हमारे बाबूजी तुम्हें इनाम देंगे। <br />
<br />
वह जाना नहीं चाहता था। उसने फिर कहा कि छुन्नू के पास नहीं हुई तो कहाँ से देगा! <br />
<br />
मुझे उसकी जिद बुरी मालूम हुई। मैंने कहा कि तो कहीं तुमने उसे गाड़ दिया है? क्या किया है? बोलते क्यों नहीं? <br />
<br />
वह मेरी ओर देखता रहा, और कुछ नहीं बोला। <br />
<br />
मैंने कहा,कुछ कहते क्यों नहीं? <br />
<br />
वह गुमसुम रह गया। और नहीं बोला। <br />
<br />
मैंने डपटकर कहा कि जाओ,जहाँ हो वहीं से पाज़ेब लेकर आओ। <br />
<br />
जब वह अपनी जगह से नहीं उठा और नहीं गया तो मैंने उसे कान पकड़कर उठाया। कहा कि सुनते हो? जाओ, पाज़ेब लेकर आओ। नहीं तो घर में तुम्हारा काम नहीं है। उस तरह उठाया जाकर वह उठ गया और कमरे से बाहर निकल गया। निकलकर बरामदे के एक कोने में रूठा मुँह बनाकर खड़ा रह गया। <br />
<br />
मुझे बड़ा क्षोभ हो रहा था। यह लड़का सच बोलकर अब किस बात से घबरा रहा है, यह मैं कुछ समझ न सका। मैंने बाहर आकर धीरे से कहा कि जाओ भाई, जाकर छुन्नू से कहते क्यों नहीं हो? <br />
<br />
पहले तो उसने कोई जवाब नहीं दिया और जवाब दिया तो बार-बार कहने लगा कि छुन्नू के पास नहीं हुई तो वह कहाँ से देगा? <br />
<br />
मैंने कहा कि जितने में उसने बेची होगी वह दाम दे देंगे। समझे न जाओ, तुम कहो तो। <br />
<br />
छुन्नू की माँ तो कह रही है कि उसका लड़का ऐसा काम नहीं कर सकता। उसने पाज़ेब नहीं देखी। <br />
<br />
जिस पर आशुतोष की माँ ने कहा कि नहीं तुम्हारा छुन्नू झूठ बोलता है। क्यों रे आशुतोष, तैने दी थी न? <br />
<br />
आशुतोष ने धीरे से कहा, हाँ, दी थी। <br />
<br />
दूसरे ओर से छुन्नू बढ़कर आया और हाथ फटकारकर बोला कि मुझे नहीं दी। क्यों रे, मुझे कब दी थी? <br />
<br />
आशुतोष ने जिद बाँधकर कहा कि दी तो थी। कह दो, नहीं दी थी? <br />
<br />
नतीजा यह हुआ कि छुन्नू की माँ ने छुन्नू को खूब पीटा और खुद भी रोने लगी। कहती जाती कि हाय रे, अब हम चोर हो गए। कुलच्छनी औलाद जाने कब मिटेगी? <br />
<br />
बात दूर तक फैल चली। पड़ोस की स्त्रियों में पवन पड़ने लगी। और श्रीमती ने घर लौटकर कहा कि छुन्नू और उसकी माँ दोनों एक-से हैं। मैंने कहा कि तुमने तेजा-तेजी क्यों कर डाली? ऐसी कोई बात भला सुलझती है! <br />
<br />
बोली कि हाँ, मैं तेज बोलती हूँ। अब जाओ ना, तुम्हीं उनके पास से पाज़ेब निकालकर लाते क्यों नहीं? तब जानूँ, जब पाज़ेब निकलवा दो। <br />
<br />
मैंने कहा कि पाज़ेब से बढ़कर शांति है। और अशांति से तो पाज़ेब मिल नहीं जाएगी। <br />
<br />
श्रीमती बुदबुदाती हुई नाराज़ होकर मेरे सामने से चली गईं। <br />
<br />
थोड़ी देर बाद छुन्नू की माँ हमारे घर आई। श्रीमती उन्हें लाई थी। अब उनके बीच गर्मी नहीं थी, उन्होंने मेरे सामने आकर कहा कि छुन्नू तो पाज़ेब के लिए इनकार करता है। वह पाज़ेब कितने की थी, मैं उसके दाम भर सकती हूँ। <br />
<br />
मैंने कहा, यह आप क्या कहती है! बच्चे-बच्चे हैं। आपने छुन्नू से सहूलियत से पूछा भी! <br />
<br />
उन्होंने उसी समय छुन्नू को बुलाकर मेरे सामने कर दिया। कहा कि क्यों रे, बता क्यों नहीं देता जो तैने पाज़ेब देखी हो? <br />
<br />
छुन्नू ने जोर से सिर हिलाकर इनकार किया और बताया कि पाज़ेब आशुतोष के हाथ में मैंने देखी थी और वह पतंग वालों को दे आया है। मैंने खूब देखी थी, वह चाँदी की थी। <br />
<br />
तुम्हें ठीक मालूम है? <br />
<br />
हाँ, वह मुझसे कह रहा था कि तू भी चल। पतंग लाएँगे। <br />
<br />
पाज़ेब कितनी बड़ी थी? बताओ तो। <br />
<br />
छुन्नू ने उसका आकार बताया, जो ठीक ही था। <br />
<br />
मैंने उसकी माँ की तरफ देखकर कहा देखिए न पहले यही कहता था कि मैंने पाज़ेब देखी तक नहीं। अब कहता है कि देखी है। <br />
<br />
माँ ने मेरे सामने छुन्नू को खींचकर तभी धम्म-धम्म पीटना शुरू कर दिया। कहा कि क्यों रे, झूठ बोलता है? <br />
<br />
तेरी चमड़ी न उधेड़ी तो मैं नहीं। <br />
<br />
मैंने बीच-बचाव करके छुन्नू को बचाया। वह शहीद की भाँति पिटता रहा था। रोया बिल्कुल नहीं और एक कोने में खड़े आशुतोष को जाने किस भाव से देख रहा था। <br />
<br />
खैर, मैंने सबको छुट्टी दी। कहा, जाओ बेटा छुन्नू खेलो। उसकी माँ को कहा, आप उसे मारिएगा नहीं। और पाज़ेब कोई ऐसी बड़ी चीज़ नहीं है। <br />
<br />
छुन्नू चला गया। तब, उसकी माँ ने पूछा कि आप उसे कसूरवार समझतें हैं? <br />
<br />
मैंने कहा कि मालूम तो होता है कि उसे कुछ पता है। और वह मामले में शामिल है। <br />
<br />
इस पर छुन्नू की माँ ने पास बैठी हुई मेरी पत्नी से कहा, चलो बहनजी, मैं तुम्हें अपना सारा घर दिखाए देती हूँ। <br />
<br />
एक-एक चीज़ देख लो। होगी पाज़ेब तो जाएगी कहाँ? <br />
<br />
मैंने कहा, छोड़िए भी। बेबात को बात बढ़ाने से क्या फायदा। सो ज्यों-त्यों मैंने उन्हें दिलासा दिया। नहीं तो वह छुन्नू को पीट-पाट हाल-बेहाल कर डालने का प्रण ही उठाए ले रही थी। <br />
<br />
कुलच्छनी, आज उसी धरती में नहीं गाड़ दिया तो,मेरा नाम नहीं। <br />
<br />
खैर, जिस-तिस भाँति बखेड़ा टाला। मैं इस झँझट में दफ्तर भी समय पर नहीं जा सका। जाते वक्त श्रीमती को कह गया कि देखो, आशुतोष को धमकाना मत। प्यार से सारी बातें पूछना। धमकाने से बच्चे बिगड़ जाते हैं, और हाथ कुछ नहीं आता। समझी न? <br />
<br />
शाम को दफ्तर से लौटा तो श्रीमती से सूचना दी कि आशुतोष ने सब बतला दिया है। ग्यारह आने पैसे में वह पाज़ेब पतंग वाले को दे दी है। पैसे उसने थोड़े-थोड़े करके देने को कहे हैं। पाँच आने जो दिए वह छुन्नू के पास हैं। <br />
<br />
इस तरह रत्ती-रत्ती बात उसने कह दी है। कहने लगी कि मैंने बड़े प्यार से पूछ-पूछकर यह सब उसके पेट में से निकाला है। दो-तीन घंटे में मगज़ मारती रही। हाय राम, बच्चे का भी क्या जी होता है। <br />
<br />
मैं सुनकर खुश हुआ। मैंने कहा कि चलो अच्छा है,अब पाँच आने भेजकर पाज़ेब मँगवा लेंगे। लेकिन यह पतंग वाला भी कितना बदमाश है, बच्चों के हाथ से ऐसी चीजें लेता है। उसे पुलिस में दे देना चाहिए। उचक्का कहीं का! <br />
<br />
फिर मैंने पूछा कि आशुतोष कहाँ है? <br />
<br />
उन्होंने बताया कि बाहर ही कहीं खेल-खाल रहा होगा। <br />
<br />
मैंने कहा कि बंसी, जाकर उसे बुला तो लाओ। <br />
<br />
बंसी गया और उसने आकर कहा कि वे अभी आते हैं। <br />
<br />
क्या कर रहा है? <br />
<br />
छुन्नू के साथ गिल्ली-डंडा खेल रहे हैं। <br />
<br />
थोड़ी देर में आशुतोष आया। तब मैंने उसे गोद में लेकर प्यार किया। आते-आते उसका चेहरा उदास हो गया और गोद में लेने पर भी वह कोई विशेष प्रसन्न नहीं मालूम नहीं हुआ। उसकी माँ ने खुश होकर कहा कि आशुतोष ने सब बातें अपने आप पूरी-पूरी बता दी हैं। हमारा आशुतोष बड़ा सच्चा लड़का है। <br />
<br />
आशुतोष मेरी गोद में टिका रहा। लेकिन अपनी बड़ाई सुनकर भी उसको कुछ हर्ष नहीं हुआ,ऐसा प्रतीत होता था। मैंने कहा कि आओ चलो। अब क्या बात है। क्यों हज़रत, तुमको पाँच ही आने तो मिले हैं न? हम से पाँच आने माँग लेते तो क्या हम न देते? सुनो,अब से ऐसा मत करना, बेटे! <br />
<br />
कमरे में जाकर मैंने उससे फिर पूछताछ की, क्यों बेटा, पतंग वाले ने पाँच आने तुम्हें दिए न? <br />
<br />
हाँ! <br />
<br />
और वह छुन्नू के पास हैं न! <br />
<br />
हाँ! <br />
<br />
अभी तो उसके पास होंगे न! <br />
<br />
नहीं <br />
<br />
खर्च कर दिए! <br />
<br />
नहीं <br />
<br />
नहीं खर्च किए? <br />
<br />
हाँ <br />
<br />
खर्च किए, कि नहीं खर्च किए? <br />
<br />
उस ओर से प्रश्न करने वह मेरी ओर देखता रहा,उत्तर नहीं दिया। <br />
<br />
बताओं खर्च कर दिए कि अभी हैं? <br />
<br />
जवाब में उसने एक बार 'हाँ' कहा तो दूसरी बात नहीं कहा। <br />
<br />
मैंने कहा,तो यह क्यों नहीं कहते कि तुम्हें नहीं मालूम है? <br />
<br />
हाँ। <br />
<br />
बेटा,मालूम है न? <br />
<br />
हाँ। <br />
<br />
पतंग वाले से पैसे छुन्नू ने लिए हैं न? <br />
<br />
हाँ <br />
<br />
तुमने क्यों नहीं लिए? <br />
<br />
वह चुप। <br />
<br />
इकन्नियाँ कितनी थी,बोलो? <br />
<br />
दो। <br />
<br />
बाकी पैसे थे? <br />
<br />
हाँ <br />
<br />
दुअन्नी थी! <br />
<br />
हाँ। <br />
<br />
मुझे क्रोध आने लगा। डपटकर कहा कि सच क्यों नहीं बोलते जी? सच बताओ कितनी इकन्नियाँ थी और कितना क्या था। <br />
<br />
वह खड़ा रहा, नहीं बोला। <br />
<br />
बोलते क्यों नहीं? <br />
<br />
वह नहीं बोला। <br />
<br />
सुनते हो! बोला- नहीं तो--- <br />
<br />
आशुतोष डर गया। और कुछ नहीं बोला। <br />
<br />
सुनते नहीं, मैं क्या कह रहा हूँ? <br />
<br />
इस बार भी वह नहीं बोला तो मैंने कान पकड़कर उसके कान खींच लिए। वह बिना आँसू लाए गुम-सुम खड़ा रहा। <br />
<br />
अब भी नहीं बोलोगे? <br />
<br />
वह डर के मारे पीला हो आया। लेकिन बोल नहीं सका। मैंने जोर से बुलाया बंसी यहाँ आओ, इनको ले जाकर कोठरी में बंद कर दो। <br />
<br />
बंसी नौकर उसे उठाकर ले गया और कोठरी में मूंद दिया। <br />
<br />
दस मिनट बाद फिर उसे पास बुलवाया। उसका मुँह सूजा हुआ था। बिना कुछ बोले उसके ओंठ हिल रहे थे। कोठरी में बंद होकर भी वह रोया नहीं। <br />
<br />
मैंने कहा, क्यों रे, अब तो अकल आई? <br />
<br />
वह सुनता हुआ गुमसुम खड़ा रहा। <br />
<br />
अच्छा, पतंग वाला कौन सा? दाई तरफ़ का चौराहे वाला? <br />
<br />
उसने कुछ ओठों में ही बड़बड़ा दिया। जिसे मैं कुछ समझ न सका। <br />
<br />
वह चौराहे वाला? बोलो--- <br />
<br />
हाँ। <br />
<br />
देखो, अपने चाचा के साथ चले जाओ। बता देना कि कौन सा है। फिर उसे स्वयं भुगत लेंगे। समझते हो न? <br />
<br />
यह कहकर मैंने अपने भाई को बुलवाया। सब बात समझाकर कहा, देखो,पाँच आने के पैसे ले जाओ। पहले तुम दूर रहना। आशुतोष पैसे ले जाकर उसे देगा और अपनी पाज़ेब माँगेगा। अव्वल तो यह पाज़ेब लौटा ही देगा। नहीं तो उसे डाँटना और कहना कि तुझे पुलिस के सुपुर्द कर दूँगा। बच्चों से माल ठगता है? समझे? नरमी की जरूरत नहीं हैं। <br />
<br />
और आशुतोष, अब जाओ। अपने चाचा के साथ जाओ। वह अपनी जगह पर खड़ा था। सुनकर भी टस-से-मस होता दिखाई नहीं दिया। <br />
<br />
नहीं जाओगे! <br />
<br />
उसने सिर हिला दिया कि नहीं जाऊँगा। <br />
<br />
मैंने तब उसे समझाकर कहा कि भैया घर की चीज है, दाम लगे हैं। भला पाँच आने में रुपयों का माल किसी के हाथ खो दोगे! जाओ, चाचा के संग जाओ। तुम्हें कुछ नहीं कहना होगा। हाँ, पैसे दे देना और अपनी चीज वापस माँग लेना। दे तो दे, नहीं दे तो नहीं दे। तुम्हारा इससे कोई सरोकार नहीं। सच है न, बेटे! अब जाओ। <br />
<br />
पर वह जाने को तैयार ही नहीं दिखा। मुझे लड़के की गुस्ताखी पर बड़ा बुरा मालूम हुआ। बोला, इसमें बात क्या है? <br />
<br />
इसमें मुश्किल कहाँ है? समझाकर बात कर रहे है सो समझता ही नहीं, सुनता ही नहीं। मैंने कहा कि, क्यों रे नहीं जाएगा? <br />
<br />
उसने फिर सिर हिला दिया कि नहीं जाऊँगा। <br />
<br />
मैंने प्रकाश, अपने छोटे भाई को बुलाया। कहा, प्रकाश, इसे पकड़कर ले जाओ। <br />
<br />
प्रकाश ने उसे पकड़ा और आशुतोष अपने हाथ-पैरों से उसका प्रतिकार करने लगा। वह साथ जाना नहीं चाहता था। मैंने अपने ऊपर बहुत जब्र करके फिर आशुतोष को पुचकारा, कि जाओ भाई! डरो नहीं। अपनी चीज़ घर में आएगी। <br />
<br />
इतनी-सी बात समझते नहीं। प्रकाश इसे गोद में उठाकर ले जाओ और जो चीज माँगे उसे बाजार में दिला देना। जाओ भाई आशुतोष! <br />
<br />
पर उसका मुँह फूला हुआ था। जैसे-तैसे बहुत समझाने पर वह प्रकाश के साथ चला। ऐसे चला मानो पैर उठाना उसे भारी हो रहा हो। आठ बरस का यह लड़का होने को आया फिर भी देखो न कि किसी भी बात की उसमें समझ नहीं हैं। मुझे जो गुस्सा आया कि क्या बतलाऊं! लेकिन यह याद करके कि गुस्से से बच्चे सँभलने की जगह बिगड़ते हैं, मैं अपने को दबाता चला गया। खैर, वह गया तो मैंने चैन की सांस ली। <br />
<br />
लेकिन देखता क्या <br />
<br />
मैंने पूछा, क्यों? <br />
<br />
बोला कि आशुतोष भाग आया है। <br />
<br />
मैंने कहा कि अब वह कहाँ है? <br />
<br />
वह रूठा खड़ा है,घर में नहीं आता। <br />
<br />
जाओ, पकड़कर तो लाओ। <br />
<br />
वह पकड़ा हुआ आया। मैंने कहा, क्यों रे, तू शरारत से बाज नहीं आएगा? बोल, जाएगा कि नहीं? <br />
<br />
वह नहीं बोला तो मैंने कस कर उसके दो चाँटे दिए। थप्पड़ लगते ही वह एक दम चीखा,पर फ़ौरन चुप हो गया। वह वैसे ही मेरे सामने खड़ा रहा। कि कुछ देर में प्रकाश लौट आया है। <br />
<br />
मैंने उसे देखकर मारे गुस्से से कहा कि ले जाओ इसे मेरे सामने से। जाकर कोठरी में बंद कर दो। <br />
<br />
दुष्ट! इस बार वह आध-एक घंटे बंद रहा। मुझे ख़याल आया कि मैं ठीक नहीं कर रहा हूँ, लेकिन जैसे कोई दूसरा रास्ता न दिखता था। मार-पीटकर मन को ठिकाना देने की आदत पड़ कई थी, और कुछ अभ्यास न था। <br />
<br />
ख़ैर, मैंने इस बीच प्रकाश को कहा कि तुम दोनों पतंग वाले के पास जाओ। मालूम करना कि किसने पाज़ेब ली है। होशियारी से मालूम करना। मालूम होने पर रेख़्ता करना। मुरव्वत की <br />
<br />
जरूरत नहीं। समझे। प्रकाश गया और लौटने पर बताया कि उसके पास पाज़ेब नहीं है। <br />
<br />
सुनकर मैं झल्ला आया,कहा कि तुमसे कुछ काम नहीं हो सकता। जरा सी बात नहीं हुई,तुमसे क्या उम्मीद रखी जाए? वह अपनी सफाई देने लगा। मैंने कहा, बस, तुम जाओ। <br />
<br />
प्रकाश मेरा बहुत लिहाज़ मानता था। वह मुँह डालकर चला गया। कोठरी खुलवाने पर आशुतोष को फर्श पर सोता पाया। उसके चेहरे पर अब भी आँसू नहीं थे। सच पूछो तो मुझे उस समय बालक पर करुणा हुई। लेकिन आदमी में एक ही साथ जाने क्या-क्या विरोधी भाव उठते हैं! मैंने उसे जगाया। वह हड़बड़ाकर उठा। मैंने कहा, कहो, क्या हालत है? <br />
<br />
थोड़ी देर तक वह समझा ही नहीं। फिर शायद पिछला सिलसिला याद आया। झट उसके चेहरे पर वहीं जिद, अकड़ ओर प्रतिरोध के भाव दिखाई देने लगे। <br />
<br />
मैंने कहा कि या तो राजी-राजी चले जाओ नहीं तो इस कोठरी में फिर बंद किए देते हैं। आशुतोष पर इसका विशेष प्रभाव पड़ा हो, ऐसा मालूम नहीं हुआ। <br />
<br />
ख़ैर, उसे पकड़कर लाया और समझाने लगा। मैंने निकालकर उसे एक रुपया दिया और कहा, बेटा, इसे पतंग वाले को दे देना और पाज़ेब माँग लेना कोई घबराने की बात नहीं। तुम समझदार लड़के हो। <br />
<br />
उसने कहा कि जो पाज़ेब उसके पास नहीं हुई तो वह कहाँ से देगा? <br />
<br />
इसका क्या मतलब, तुमने कहा न कि पाँच आने में पाज़ेब दी है। न हो तो छुन्नू को भी साथ ले लेना। समझे? वह चुप हो गया। आख़िर समझाने पर जाने को तैयार हुआ। मैंने प्रेमपूर्वक उसे प्रकाश के साथ जाने को कहा। <br />
<br />
उसका मुँह भारी देखकर डाँटने वाला ही था कि इतने में सामने उसकी बुआ दिखाई दी। बुआ ने आशुतोष के सिर पर हाथ रख कर पूछा कि कहाँ जा रहे हो, मैं तो तुम्हारे लिए केले और मिठाई लाई हूँ। आशुतोष का चेहरा रूठा ही रहा। मैंने बुआ से कहा कि उसे रोको मत, जाने दो। <br />
<br />
आशुतोष रुकने को उद्यत था। वह चलने में आनाकानी दिखाने लगा। बुआ ने पूछा, क्या बात है? <br />
<br />
मैंने कहा, कोई बात नहीं, जाने दो न उसे <br />
<br />
पर आशुतोष मचलने पर आ गया था। मैंने डाँटकर कहा, प्रकाश, इसे ले क्यों नहीं जाते हो? <br />
<br />
बुआ ने कहा कि बात क्या है? क्या बात है? <br />
<br />
मैंने पुकारा, बंसी, तू भी साथ जा। बीच से लौटने न पाए। सो मेरे आदेश पर दोनों आशुतोष को जबरदस्ती उठाकर सामने से ले गए। बुआ ने कहा, क्यों उसे सता रहे हो? <br />
<br />
मैंने कहा कि कुछ नहीं, ज़रा यों ही- फिर मैं उनके साथ इधर-उधर की बातें ले बैठा। राजनीति राष्ट्र की ही नहीं होती, मुहल्ले में भी राजनीति होती है। यह भार स्त्रियों पर टिकता है। कहाँ क्या हुआ, क्या होना चाहिए इत्यादि चर्चा स्त्रियों को लेकर रँग फैलाती है। इसी प्रकार कुछ बातें हुईं, फिर छोटा-सा बक्सा सरका कर बोली, इनमें वह कागज है जो तुमने माँगें थे। और यहाँ—यह कह कर उन्होंने अपने बास्कट की जेब में हाथ डालकर पाज़ेब निकालकर सामने की, जैसे सामने बिच्छू हों। मैं भयभीत भाव से कह उठा कि यह क्या? बोली कि उस रोज़ भूल से यह एक पाज़ेब मेरे साथ चली गई थी।</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0&diff=43724जैनेन्द्र कुमार2023-08-04T14:01:30Z<p>अनिल जनविजय: /* कहानियाँ */</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=Jainendra_kumar.jpg <br />
|नाम=आनंदीलाल <br />
|उपनाम=[[जैनेन्द्र कुमार]]<br />
|जन्म=02 जनवरी 1905<br />
|जन्मस्थान=कौड़ियागंज गांव अलीगढ़, उत्तर प्रदेश भारत ।<br />
|मृत्यु= 24 दिसम्बर 1988<br />
|कृतियाँ='परख', 'सुनीता' (उपन्यास) [[ऋषभचरण जैन]] के साथ उपन्यास 'तपोभूमि' (सह लेखन) साहित्य और समीक्षा। <br />
|विविध=भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के असहयोग आंदोलन में भाग लिया. उपन्यास 'मुक्तिबोध' को [[साहित्य अकादमी पुरस्कार]]1966 <br />
|जीवनी=[[जैनेन्द्र कुमार / परिचय]]<br />
}}<br />
{{GKCatUttarPradesh}}<br />
* [[जाह्नवी / जैनेन्द्र कुमार]] (कहानी संग्रह)<br />
==कहानियाँ ==<br />
* [[कफ़न प्रेमचन्द / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[पत्नी / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[तत्सत् / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[एक रात / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[पाज़ेब / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
<br />
==उपन्यास==<br />
* [[मुक्तिबोध / जैनेन्द्र कुमार]] <br />
===अनुवाद===<br />
* [[कितनी जमीन? / लेव तोल्सतोय / जैनेन्द्र कुमार]] <br />
==संस्मरण==<br />
* [[एक शांत नास्तिक संत : प्रेमचंद / जैनेन्द्र कुमार| कथा सम्राट प्रेमचंद से जुडा मार्मिक संस्मरण]]<br />
===अन्य===<br />
* [[बाजार का जादू / जैनेन्द्र कुमार]]</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%85%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A7_/_%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A5%80%E0%A4%B5&diff=43723अपराध / संजीव2023-08-03T18:43:35Z<p>अनिल जनविजय: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=संजीव |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatKahani}} रात...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=संजीव<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
रात के ख़ौफ़नाक अँधेरे को चीरते हुए मेरी ट्रेन भागती जा रही है। एक अँधेरी सुरंग है कि मेरे समूचे अस्तित्व को निगलती जा रही है। यूँ मैंने सारी खिड़कियाँ बंद कर ली हैं, फिर भी एक शोर है कि जिस्म के पुर्ज़े-पुर्ज़े धमक रहे हैं, यादों का एक क़ाफ़िला है कि मेरे मरु-मन का ज़र्रा-ज़र्रा कुनमुनाकर ताकने लगता है। <br />
<br />
ज़ेहन में धीरे-धीरे आकार ले रही है एक हवेली...क़स्बे में व्यवस्था और सत्ता की प्रतीक मेरी हवेली—'कंचनजंघा'। धीरे-धीरे कई चेहरे उभर रहे हैं, प्रभुसत्ता रोबीले सेशन जज-पापा, एस.पी.—बड़े भैया, जिलाधीश—छोटे भैया, गृह विभाग के सचिव—जीजा, उनके प्रभाव का एहसास कराती हुई गवीली बहन, सबके अपने-अपने पोस्टेड जिलों में चले जाने पर उदास राजमाता की तरह मम्मी, न जाने कितने मंत्रियों, अफ़सरों और ऊँचे ओहदे वालों के गड्डमड्ड चेहरे! एक अजीब-सा खिंचाव, एक अजीब-सा ख़ौफ़ समाया रहता है यहाँ के लोगों में कंचनजंघा के प्रति। मैंने बचपन से ही इस खिंचाव का अनुभव किया है। कपड़े की बॉल और पीढ़े का बल्ला बनाकर खेले जा रहे क्रिकेट या काँच की गोलियों जैसे खेल, गवर्नेस, ख़ानसामा, दाइयाँ, ट्यूटर्स, सेंट-विसेंट और सेंट पैट्रिक्स स्कूलों में पलते मेरे वजूद को देखकर थम जाते और वे मुझे टुकुर-टुकुर ताकने लगते। ऐसा लगता, मुझे मेरी इच्छा के विरुद्ध कुछ इतर, कुछ विशिष्ट बनाने का षड्यंत्र चल रहा है और एक अस्वीकार समाता रहा अवचेतन में। पापा कहते, 'जाने किस धातु का बना है!' पूरे परिवार में 'सिद्धार्थ' की उपाधि से मैं आभूषित था। <br />
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“ख़ैर, एक लड़का ऐसा ही सही!” और माँ सबकी चिंताओं पर स्टॉप लगा दिया करतीं। <br />
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प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाख़िले के बाद पहली बार परिवार की तमाम बंदिशों से मिली आज़ादी, जगह-जगह दीवारों पर लिखे—पॉलिटिकल पावर फ्लोज़ फ़्रॉम द बरेल ऑफ़ द गन!...नक्सलबाड़ीर पोथ आमादेर पोथ!...जैसे नारे। माओ की लाल किताब, कॉलेज स्ट्रीट के फुटपाथों तथा कॉलेज स्क्वायर पार्क के 'गोलदीघी' के होने वाले हेतमपुर, विद्यासागर, यादवपुर, शिवपुर इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रों के बीच के घुमंतू चर्चे! ...ऐसे गर्म-परिवेश में पकने लगा था मेरा झिझक-भरा शाँत व्यक्तित्व। कुछ ही दिनों में मन के अवचेतन में दबा अस्वीकार सर उठाने लगा। क्लास तो हम नाममात्र को करते। हाँ, इस बीच बहुत-सा बाहरी साहित्य पढ़ने को मिला। मार्क्स, ऐंगेल्स, हेगेल, लेनिन और माओ पर विस्तृत चर्चाओं में शामिल होने का मौक़ा मिला और बुर्जुआ, पेटी बुर्जुआ, रिवीजनिस्ट, प्रतिक्रियावादी, होमोसेपियंस, लाल सलाम आदि नए-नए शब्द आ जुड़े मेरे शब्दकोश में और इन्हीं के साथ-साथ परिचय के फैलते दायरे में आ जुड़ा सचिन-संघमित्रा का परिवार, जहाँ अकसर ही मेरी शामें गुज़रने लगीं। उनके पिता 'कल्याणी सेनिटोरियम' में क्षय का उपचार करा रहे थे और उनकी अनुपस्थिति हमारे लिए वरदान साबित हो रही थी। कभी-कभी हमारे वाद-विवाद अतिरेक में इतने तीव्र हो उठते कि बग़ल के कक्ष में पढ़ती हुई संघमित्रा ग़ुस्से से उफनती हुई, भड़भड़ाकर किवाड़ खोलकर, धम-धम पाँव पटकती हुई हमारे बीच आ खड़ी होती, 'आई से स्टॉप दिस नॉनसेंस! अपने कैरियर के साथ-साथ मेरा कैरियर भी ले डूबेगा। बुलबुल!' सचिन को वह उसके बुलाने वाले नाम 'बुलबुल' से ही बुलाया करती थी... और हम सन्नाटा खींच लिया करते। वार्तालाप की चिंन्दियाँ बिखर जातीं। <br />
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वह मेडिकल की ओर मेधावी छात्र थी, सचिन से एक साल बड़ी होने का लाभ उठाकर गार्जियन की तरह डाँटा करती। इम्तिहान वग़ैरा के चक्कर न होते तो वह दरवाज़े पर खड़ी-खड़ी हमारी बातें सुनती और मूड में आने पर हमारी पूरी बटालियन पर अकेले ही तिलमिला देने वाला सधा वार करती, जो अपना कैरियर नहीं बना सका, वह सोसाइटी और देश का क्या बनाएगा?' <br />
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“दीदी, तूमी बूझबेना। एइजे पूँजीवादी, सोमोन्तोवादी शिक्षा-व्योवस्था...!” <br />
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“चुप कोर! प्रोतिभा थाकले जे कोने जाएगा थेके स्कोप कोरे नेवा जाए आर ना थाकले...” <br />
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“थाक! थाक!” <br />
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और दोनों भाई-बहन मुँह फुला लिया करते। <br />
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उन दिनों संघमित्रा को मैं कनखियों से देख लिया करता और यदाकदा वह इसे मार्क कर लिया करती। मगर किसी बेतकल्लुफ़ी के अभाव में उसका अस्तित्व मेरे मन में अँखुआ नहीं पाया था। आख़िर वह झिझक भी टूट गई 'दीघा' की पिकनिक पर। वहाँ पहली बार मैं उसके व्यक्तित्व के सौंदर्य के घटक पर अभिभूत हुआ। <br />
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मैं पानी के अंदर जाने से डर रहा था और वह ताने दे बैठी थी, 'यह हिम्मत है और चले हो बग़ावत करने!' मैंने बताया, 'मेरी मम्मी को किसी साधु ने बताया था कि मेरी मौत पानी में होगी। इसीलिए वहाँ पास ही गंगा और यहाँ गोलदीघी के पास रहकर भी तैरना सीख नहीं सका आज तक।' वह हँसते-हँसते गिर पड़ी थी मेरे बदन पर, “...ओह! ...ओह!! ...डोंट माइंड!” फिर सचिन को इशारा करते हुए बोली, 'एई जे तुमार 'जोद्धारा' ...की बोलो तोमारा ...लाल सिपाई!' सचिन अपनी शिकस्त से उबरने के लिए बोला, 'दीदी कितनी बड़ी ‘जोद्धा' है... जानते हो? पहली बार लैब में मुर्दे की चीर-फाड़ देखकर बेहोश हो गई थी।'—'सच!' मैंने चिढ़ाया तो वह छिछले पानी में मुझे ढकेलती हुई मारने दौड़ पड़ी। <br />
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“सत्ता पा जाने पर तुम भी वैसे ही ढल जाओगे... जे जाय लोंका, सेइ होय रावोन!” आँचल निचोड़ते हुए वह कहने लगी, “देखती हूँ, बड़े आए हो ख़ूनी क्रांति करने वाले, समाज और व्यवस्था बदलने वाले, डिस्पैरिटी मिटाने वाले! अरे, मैं कहती हूँ, चूल्हे में डालो मार्क्स, लेनिन, माओ, चाओ को! आदमी अपनी प्रवृत्ति से ही हिंसक होता है, अपराधवृत्ति ख़त्म करनी है तो जींस बदल डालो... जींस!” <br />
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पूजा की छुट्टियों में घर आया तो पापा सारा-कुछ सूँघ बैठे थे। आते वक़्त उन्होंने साफ़तौर पर मुझे बता दिया कि पढ़ना है तो ढंग से पढ़ो, वरना छोड़कर चले आओ। मम्मी ने तो मुझसे आश्वासन ही ले लिया कि मैं अपने पाँव डगमगाने नहीं दूँगा। लेकिन कलकत्ता आने पर 'फिर बेताल डाल पर' वाली बात हो जाया करती। मैं न भी जाता तो संघमित्रा मुझे हॉस्टल में ही बुलाने चली आती। मैं जब कहता, 'विरोक्तो कोरो न रानी!' (उसका पुकारने का नाम रानी था) तो वह ठिठोली कर बैठती, एसो आमार राजकुमार, एसो ना!' और मेरी मोर्चाबंदी भरभराकर गिर जाती। <br />
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मेरे साहित्यिक रुझान पर दोनों ही कुढ़ा करते। सचिन बिगड़कर बोलता, भावुकता, चेतना का अपव्यय है, डिस्ट्रैक्शन है। ये लफ़्फ़ाज़, कामचोर, माटी के शेर, क्रांति का साहित्य लिखने वाले इन लोगों को फ़ील्ड में ले जाया जाए तो पेशाब कर दें। इन सबों को खेतों और फ़ैक्टरियों में लगा देना चाहिए!' फिर वह वियतनाम, कंबोडिया, लाओस, कोरिया, चिली, क्यूबा, रूस, चीन आदि की बातें ले बैठता। संघमित्रा तो अकसर इससे भी बुरी खिंचाई पर उतर आती, “तुम्हारे जैसे नाइंटी परसेंट साहित्यकार घोर कामी, सुविधावादी और भ्रष्ट होते हैं। तुम तो विभीषण हो इस दल में... बन सकोगे मुकुंद दास... छेड़े दाउ बोंगो नारी, आर पोड़ो ना रेशमी चूड़ी... यू आर ए पेटी बुर्जुआ!” <br />
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“देखते जाओ... मेरा पहला वार होगा मेरी हवेली पर...!” मैं कॉलर हिला दिया करता और इस पर दोनों हँस पड़ते। <br />
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धीरे-धीरे सचिन की गतिविधियाँ बढ़ती गईं। इस बीच ‘ख़त्म करो' अभियान भी चल निकला। दो-एक बार वह मुझे भी उत्तरी बंगाल के ग़रीब किसानों के बीच व्यवस्था से मोहभंग कराने के उद्देश्य से ले गया। हड्डियों पर मढ़े हुए चाम। धँसी पनीली आँखें, मैले-चिथड़े, शोषण की जड़ तक देखती हुई मेरी दृष्टि पारदर्शी हो उठी। अगर मैं नक्सल नहीं हुआ तो संघमित्रा की वजह से, जो वहाँ से लौटने पर मेरी नज़र उतारने के लिए नेशनल म्यूज़ियम, ट्रॉपिकल मेडिसिन, ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ़िज़िकल हाइजिन एण्ड मेडिकल साइंसेज़ या और नहीं तो गंगा के किनारे पड़े बैंचों पर बैठाकर मुझे जीवों और सभ्यता का विकास समझाया करती। बातों ही बातों में उसने एक दिन बताया था कि वह सचमुच खोज करना चाहती है जींस पर और एक उत्साही निरपेक्ष अध्यापक की तरह बिना लज्जा के जेनेटिक्स और मनुष्य के अंग-प्रत्यंग की बहुत-सारी बातें बता डाली थीं। <br />
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सचिन ने बाद में क्लासें करना छोड़ ही दिया था। मैंने संघमित्रा से शिकायत की तो उसके आते ही वह फ़ट पड़ी, क्यों रुलाते हो बुलबुल! जानते हो, बाबा टी.बी. के पेशेंट हैं, मैं उन्हें यह सब बता नहीं सकती। इसीलिए न...!' लेकिन सचिन को न रानी के आँसू रोक पाए, न परिवार की ज़िम्मेदारी। थ्योरेटिकल परीक्षाओं में भी वह अनुपस्थित रहा तो आख़िरी पर्चा देते ही पता करने उनके घर जा पहुँचा। शाम की मरकरी नियोन की शोख़ बत्तियाँ जल उठी थीं सड़कों पर। मगर उस मकान में मात्र धुँधली रौशनी मातम-सी बरस रही थी। <br />
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“दीदी तोमाके जेतेड़ होवे!' सचिन रानी से अनुनय कर रहा था, और हात-टा एक बारेकई उड़े गेछ। होय तो ब्लीडिंग होएई मारा जाबे।” <br />
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“आर काउ के पाओ नी?” रानी बोली। <br />
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“काउ के नीये गेले सोबी फास होये जाबे जे...” <br />
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फिर मेरे कंधे पर हाथ रखकर, 'वेट टिल आई रिटर्न!' कहकर रानी जो गई तो आज तक इंतिज़ार कराती रही। <br />
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बाद के चंद साल संक्रमण के साल रहे। टेररिस्ट सचिन पर तरह-तरह के मुक़दमों के फंदे लटक गए थे और संघमित्रा का नाम पार्टी के प्रवर संगठनकर्ताओं में गिना जाने लगा था। उसके विषय में तरह-तरह के मिथ प्रचलित हो चले थे... कि ख़ून करने में उसे कैसी ख़ुशी होती है!... अब फलाँ-फलाँ पूँजीपति, राजनेता, अफ़सर और पार्टी के विश्वासघातक उसकी सूची में है!... फलाँ-फलाँ घूसख़ोर अफ़सर और ऊँची फ़ीस लेने वाले डॉक्टर और वकील को तो धमकी का ख़त भी आ चुका है!... एक मुर्दे को चीरते देखकर बेहोश हो जाने वाली संघमित्रा कहाँ से कहाँ पहुँच गई थी! <br />
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मेरी स्थिति कुछ विचित्र थी। पापा ने ज़बरदस्ती 'प्रेसिडेंसी' छुड़वा दिया था। साइंस छोड़कर, आर्ट्स लेकर सोशोलॉजी में मैं एम.ए. कर चुका था और कई तरह के संकर संस्कार मुझे आधा तीतर, आधा बटेर बनाकर छोड़ गए थे। घर की समृद्ध परंपरा छोड़कर मैं यूनियन लीडरी, समाज-सेवा और प्राध्यापकी-तीनों को ही अपने प्रयोग का क्षेत्र बनाए हुए था। संघमित्रा से मिलने के लिए मैंने टाटा के जादूगोड़ा के जंगल, आंध्र के जंगल और धान के खेत, मध्य प्रदेश के बीहड़... कहाँ के चक्कर नहीं लगाए। मगर तब तक शायद वह भावनाओं, आवेगों से ऊपर उठ चुकी थी। शायद मेरी यूनियन, सोशल सर्विस और लेक्चररशिप हताशा के ज़ख़्म को ढकने के साधन-मात्र थे। माँ ने साफ़तौर पर ऐलान कर दिया था कि मुझे हर हालत में उनके पास रहना है। इतनी बड़ी हवेली अकेले भाँय-भाँय करती है और मैं हर हालत में वहाँ बना हुआ था। पिताजी कूड़े से भी काम लायक़ चीज़ें निकाल लिया करते थे। यह उनकी बणिक-बुद्धि कहूँ या विलक्षण बुद्धिमत्ता, वह हर चीज़ को कैश कराना जानते थे। अपने स्वभाव के विपरीत मुझे उन्होंने आड़े-उलटे प्रोत्साहन देना शुरू किया। उनकी कृपा से प्रारंभिक चरणों में ही सफलताएँ मिलती गईं और अब मैं कई यूनियनों का अध्यक्ष बन बैठा था। लेकिन पापा के लिए ये मात्र मील के पत्थर थे, मंज़िल नहीं। उनका इरादा था कि आगामी चुनावों में मुझे कहीं से खड़ा करवा देंगे। शायद प्रांतीय या केंद्रीय नेतृत्व के सामने की पंक्ति में आने की जो रिक्तता मेरे अक्षय-वट परिवार में रह गई थी, वह मुझसे पूरी की जानी थी। लेकिन इन सबसे उदासीन रहकर जब मुझे अपनी लेक्चररशिप और यूनियन वग़ैरा में ज़ियादा व्यस्त पाने लगे तो एक दिन ब्रेनवाश के लिए मेरे सोशोलॉजी विभाग के हेड के हाथों एक नए पर्चे के रूप में उनकी नई योजना सामने थी। <br />
<br />
“इस पर साइन कर दो।” वो बोले। <br />
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“यह क्या है?” <br />
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“तुम्हें शोध करने की अनुमति देने के लिए दरख़्वास्त...मेरे गाइडेंस में।” <br />
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“लेकिन...!” मैं उलझन में पड़ गया। <br />
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“बिला वजह माथापच्ची कर रहे हो। विषय तुम्हारे परिवार के लोग रोज़ ही मथा करते हैं। तुम्हें बस इतना करना है कि पुरानी थीसिसें देख-सुनकर कुछ नए नोट्स जोड़कर लिख डालना है।” <br />
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“कौन-सा विषय है?” मैं उत्सुक हुआ। <br />
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“क्राइम!” <br />
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न जाने क्यों अंग्रेज़ी का यह शब्द सुनते ही बहेलिए द्वारा मिथुन-युगल क्रोंच को मारने की दर्दनाक और दहशत-भरी आवाज़ कानों में घुल उठती है...जैसे परिंदों के शोर से जंगल गूँज उठा हो और टप-टप ताज़ा रक्त टपक रहा हो। <br />
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मैंने अतिरेक में उनका हाथ पकड़ लिया, “मैं करूँगा, ज़रूर करूँगा मगर एक शर्त... थीसिसें देख-सुनकर नहीं, स्वयं स्वतंत्र सर्वेक्षण और अध्ययन करके।” <br />
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“ठीक है।” इस बार सामने बैठे पापा स्वयं बोल उठे। सामयिक रूप से मेरा ध्यान हटा पाने में सफल होकर वे राहत की नि:श्वास फेंक बैठे थे। <br />
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अपराध और अपराधी की प्रकृति और प्रकार, व्यक्तिगत और परिवेशगत संस्कार और उद्दीपनाएँ, मनोवैज्ञानिक तथा समाजशास्त्रीय विवेचन और विश्लेषण करने हेतु मैं एक थाने से दूसरे थाने की फ़ाइलों में बिखरी आँकड़ों की सांख्यिकी में भटक रहा था कि एक दिन एक थाने के बाहर सचिन के पिता राखाल बाबू ने पकड़ लिया। वे काफ़ी बदहवास लग रहे थे। उन्होंने बताया कि... अभी-अभी सचिन को पकड़कर इसी थाने में ले आया गया है। बहुत मारा है, पुलिस ने... कहते हुए आँखों से आँसू गिरने लगे उनके। मैंने दारोग़ा को अपना परिचय देते हुए इस मामले में सहानुभूति बरतने का अनुरोध किया। दारोग़ा मुझे लिए-लिए अंदर आए। सचिन को उनके कमरे में ले आया गया। उन्होंने नीचे पाँव हिलाते हुए नेतानुमा आदर्शवादिता वाले अंदाज़-ए-बयाँ में कहा, “तुम लोग कल के भविष्य हो। मुझे युवा शक्ति का इस प्रकार अपव्यय होना बिलकुल पसंद नहीं। ये बिलावजह का ख़ून-ख़राबा और अपराधकर्म छोड़कर आदर्श नागरिक क्यों नहीं बनते?” <br />
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सचिन, जिसके चेहरे पर पीटे जाने की स्पष्ट छाप थी, चुपचाप सीलिंग फ़ैन का नाचना देखता रहा। फिर नाक का ख़ून बाँहों से पोंछकर तिरस्कार-भरे स्वर में बोल पड़ा, “आपको यह बात समझ में नहीं आएगी दारोग़ाजी, आप अपने लड़के को भेज दीजिए, उसे समझा दूँगा।” <br />
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दारोग़ाजी एकबारगी अप्रतिहत हो उठे। उन्होंने थूक निगला और कंधे उचकाकर झेंप झाड़ते-से बोले, “दैन आ'म हेल्पलेस!” <br />
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वह थाना भैया के अधिकार-क्षेत्र में आता था। मैंने राखाल बाबू को यह आश्वासन देकर विदा किया कि भैया से कहकर सचिन के लिए कोई कोर-कसर उठा नहीं रखूँगा। भैया के पास पहुँचा तो उन्हें बात करने-भर की फ़ुरसत नहीं थी। कोई पार्टी चल रही थी वहाँ, किसी मंत्री के दौरे के बाद। संभवतः आमंत्रित मेहमान पुलिस विभाग के ही लोग थे। मेरा परिचय और रिसर्च का उद्देश्य जानते ही चर्चा उतर पड़ी पुलिस पर... कि विदेशों में पुलिस को कितना वेतन, अत्याधुनिक उपकरण और सुविधाएँ तथा सम्मान प्राप्त हैं। <br />
<br />
“मगर यहाँ की तरह वहाँ के पुलिस स्टेशन अपराध के ब्रीडिंग स्टेशन तो नहीं है!” मैंने हस्तक्षेप किया। मेरी बात को एक वरिष्ठ अधिकारी ने 'हो-हो-हो-हो' हँसकर उड़ाते हुए कहा, “अमाँ यार, हमीं पर सारी तोहमतें क्यों? हम तो नाचने वाले हैं, नचाने वाला कोई और है।” <br />
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“कुछ इसी से मिलती-जुलती बात वे अपराधी भी कह रहे थे, जिनसे शोध के दौरान मैं मिला।” <br />
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“क्या?” मेरी बात पर तक़रीबन सारे लोग मेरे आस-पास जमा हो गए थे। <br />
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“कहते थे...हम तो वेश्या है। सब छुप-छुपकर मिलते हैं और अपना उल्लू सीधा करते हैं। <br />
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मगर बाहर शान दिखाने के लिए हमें गाली देते हैं।” <br />
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“राइट! अब हमारा ही देखा जाए। एक ओर तो हमारी अक्षमता के लिए हमें कोसा जाता है, दूसरी ओर हमारे काम में टाँग अड़ाई जाती है। एक उदाहरण लीजिए—हमने किसी गुंडे को पकड़ा। अब हर गुंड किसी-न-किसी एम.एल.ए., एम.पी., सेक्रेटराया मिनिस्टर वग़ैरा का आदमी, या आदमी का आदमी निकल आता है। फ़ोन पर फ़ोन! आख़िर वह बेदाग़ छूट जाता है... फिर क्या रह गई हमारी इज़्ज़त! कभी-कभी तो ईमानदारी की क़ीमत हमें सस्पेंशन में चुकानी पड़ जाती है।” <br />
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“एक तरफ़ कहेंगे, पुलिस को अपना आचरण बदलना चाहिए, दूसरी तरफ़ गंदे से गंदे काम के लिए इस्तेमाल करेंगे।” दूसरे कद्दावर अधिकारी ने कहा। <br />
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“यानी पुलिस अपने ग़लत कामों के लिए स्वयं दोषी नहीं है... यही न?” <br />
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इस पर एक सन्नाटा-सा खिंच गया। शराब के नशे में एक इंस्पेक्टर बहकने लगा, “अरे साब! सत्ता के इस थोड़े-से सुख में हमने अपना क्या-क्या नहीं गँवाया... जाति, धर्म, ईमान, सभ्यता, संस्कृति!... कहने को तो अपने थाने के सामने हमने भी लिखकर टॅगवा दिया है—“हम आपके सेवक हैं, हमारे योग्य कोई सेवा?” मगर सेवक की विनम्रता से काम करें तो हो गई छुट्टी। हमें ऑड, यूड, क्रूड बनकर स्लैंग। लैंग्वेजेज़ इस्तेमाल करनी पड़ती हैं, जल्लाद की तरह पेश आना पड़ता है, इसलिए एक अलग ही डिक्शनरी होती है हमारी, एक अलग ही आचार-संहिता होती है और अलग ही चरित्र होता है हमारा। सब-कुछ अलिखित, पर व्यावहारिक!” <br />
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काफ़ी रात गए भीड़ छँटी तो भाभी ने टोका, “कब तक छुटुवा घूमते रहोगे सिद्धार्थ! तुम्हारी यधोधरा रानी कब आएँगी?” <br />
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“रानी!” ज़ेहन में नाच उठी “रानी” ऐसो आमार राजकुमार, ऐसो ना...! एक मदिरिल सपना अंगड़ाई लेता हुआ पानी में रूपहले बिंब-सा थरथराया। सोचा, सचिन की बात भैया से शुरू कर दूँ, मगर इस बीच फ़ोन घनघना उठा और ऐसी बेवक़ूफ़ी करने से बच गया। भैया फ़ोन अटेंड करके आए तो कपड़े बदलने लगे, बोले, “तुम आए, कोई बात भी न हो सकी और उधर बुलावा आ गया... कोई ख़ून हो गया है.... फ़ौरन पहुँचना है... कहाँ यह सोने की रात... ढीले कपड़े पहने वे मंत्री लोग सो रहे होंगे, जिनकी सुरक्षा-व्यवस्था के लिए सात दिनों से मुझे तथा डी.एम. को चैन नहीं था... और कहाँ ये पम्प-शू नुमा भारी बूट, क्रीज़दार चुभती पैंट और शर्ट, स्टार्स, बेल्ट, रिवॉल्वर वग़ैरा लेकर ख़ूनी डाकुओं, ख़तरनाक नक्सलियों के पीछे मारा-मारा फिरूँ... तुम्हें कैसे बताऊँ!” <br />
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भाभी का मज़ाकिया मूड उखड़ चुका था। वे बोलीं, “देखो, अपने को बचाना। बाहर तुलसी-चौरा पर मत्था टेकते जाना!” और भैया, भाभी की आज्ञा का पालन करते हुए चले गए। एक मातमी तनाव तन उठा। भाभी बड़ी देर तक रुआँसी, उनकी ख़ैर मनाती हुई, जिस-तिस को कोसती रहीं... ये आठ-नौ सौ की तनख़्वाह पर रात-रात भर ख़तरनाक अपराधियों का पीछा करना... लानत है ऐसी नौकरी पर! ब्लैक करने वाले सेठ, महीने-भर में लखपति बनने वाले इनकम टैक्स, सेल्स टैक्स, व्हीकल्स लाइसेंस वाले आराम से सो रहे होंगे। वे नेता तक किसी ख़रीदी हुई कनीज़ को चिपटाए, नर्म बिछौने पर सो रहे होंगे, जिनके लिए सारे प्रोग्राम साइडट्रैक करके उनकी सुरक्षा के लिए बैंड बजाने वालों की तरह ग़ुलाम बनकर आगे-पीछे चलना पड़ा। और वे... ऐसे में कहीं कुछ हो गया तो...? देवरजी, तुम चाहे कुछ भी बनना, पुलिस अफ़सर क़तई मत बनना।” <br />
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शुक्र था कि भैया सुबह तक सही-सलामत आ गए। थकावट के बावजूद मूड अच्छा देखकर जाते-जाते मैंने सचिन की बात छेड़ ही दी। मैंने उसके निर्दोष और ईमानदार होने की बात कहकर सचिन की रिहाई की बात की तो उनका मूड उखड़ गया। <br />
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“कल से ही देख रहा हूँ, मेरी नौकरी खाने पर तुले हो। इन चोर-डकैतों के लिए मैं हस्तक्षेप करूँ, तुम्हें हो क्या गया है?” वे घुड़क उठे। <br />
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मन में तो आया कि पूछूँ, अगर किसी मिनिस्टर ने किसी गुंडे के लिए यही बात कही होती तो वे क्या करते! मगर चुप रह गया। बाद में सुना, एक पूरे के पूरे नक्सल गाँव को आग लगा देने के पुरस्कार स्वरूप उनकी तरक़्क़ी हो गई थी। <br />
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याद आते हैं न्यायालयों के आँकड़े बटोरते वे भटकते हुए दिन। ग्राम पंचायतों के बने-बनाए फ़ार्मूलाबद्ध न्याय प्रहसन, दीवानी और फ़ौजदारी की रबर से भी लचीली और खिंचती हुई कार्रवाइयाँ। ऊँची कुर्सी पर बैठे अपनी तमाम ताम-झाम के बावजूद श्रीहीन जज, सरकारी और मुद्दई पक्ष के वकीलों के बहसने और विहँसने की कलाएँ। न्याय-मंदिरों के कितने ही मंज़र किसी डॉक्यूमेंटरी फ़िल्म की तरह यादों के परदे पर उभरने लगते हैं... न्याय की प्रत्याशा में आगत... ऊबती, मुरझाती भीड़, मिठाइयों की दुकानों पर डकारती और ललकारती हुई नकली गवाहों की टोलियाँ, पुराने परचे और काग़ज़ातों के बंडल सँभाले अहलमद और मुनीम, रंडियों के दलालों की तरह आसामी फँसाते हुए वकीलों के दलाल, काले कोट पहने हुए वकीलों की चहलक़दमी, 'बीच-बीच में आसामी हाज़िर हो' की आवाज़ लगाता कोर्ट अर्दली, ड्रायर खोलकर दो-दो रुपयों पर फ़र्ज़ी मुक़दमों की तारीख़ बढ़ाते पेशकार। <br />
<br />
वे सर्दियों के दिन थे। कटखनी शीतलहर चल रही थी। मैं कचहरी के बाहर धूप में पापा के एक मित्र से बात कर रहा था कि एक रिक्शा रुका आकर मेरे पास। देखा तो जर्जर-क्लांत राखाल बाबू उतर रहे थे। काँपते हुए उन्होंने एक नज़र चारों तरफ़ का मुआयना किया, फिर एक कोने में मुझे ले आए। <br />
<br />
“बड़ी मुश्किल से मिले... कहाँ-कहाँ नहीं पता लगाया मैंने!” <br />
<br />
“कोई नई बात...?” <br />
<br />
“हाँ, सचिन का मुक़दमा तुम्हारे बाबा (पापा) के पास आए, ऐसी व्यवस्था मैंने कर ली है।” <br />
<br />
“अच्छा!” <br />
<br />
“बाक़ी तुम्हें देखना है। मैं मरने के पहले उसे निर्दोष देखना चाहता हूँ। मेरा बेटा, मेरी बेटी निर्दोष हैं।” <br />
<br />
“आपको सेनिटोरियम छोड़कर इस तरह नहीं आना चाहिए था, उनके लिए भी आपको ज़िंदा रहना है।” उन्हें रिक्शे पर बैठाकर मैं उसी दिन पापा के पास चला आया। <br />
<br />
पापा मुझे आया देखकर ख़ुश हुए। शोध के विषय में मेरी प्रगति पर संतोष ज़ाहिर करते हुए, 'न्याय' के प्रति मेरे दृष्टिकोण का समर्थन करते हुए बोले, “देश-भर में जाने कितना अन्याय होता है और उसमें से जाने कितने आ पाते हैं हमारे पास और जाने कितनों का सही फ़ैसला कर पाते हैं हम! अब देखो, वकील न्याय के देवदूत हैं और इनका चरित्र...! जो जितने भयंकर अपराधी को, जितनी जल्दी निरपराध सिद्ध कर दे, वह उतना ही सफल वकील है। फिर जज का दिल और दिमाग़, न्याय की व्यवस्था भी कम करामाती नहीं है। एक कोर्ट से जो हार जाए, दूसरी कोर्ट से जीत जाता है। पेनलकोड में कई धाराएँ तक त्रुटिपूर्ण हैं।” <br />
<br />
“यानी न्याय वह तरल पदार्थ है जिसे जिस पात्र में ढाल दें, वैसा ही ढल जाएगा।” <br />
<br />
“साहित्य में तुम्हें ज़ोर आज़माना चाहिए।” पापा हँस पड़े थे। <br />
<br />
“और सोने और चाँदी के पात्रों में यह ज़ियादा शोभता है।” पापा की हँसी मुरझाने लगी। वे चौकन्ने हो गए, “कुछ कहना चाहते हो?” <br />
<br />
“पच्चीस तारीख़ को जिसका मुक़दमा आपकी आदलत में पेश होने वाला है, अपराधी नहीं है। मानवता के प्रति पूरी तरह निष्ठावान युवक है।” <br />
<br />
“यू मीन दैट नक्सलाइट?” <br />
<br />
“जी, चूँकि आप एक पिता है, अतः पिता के दिल का दर्द समझते हैं। टी.बी. से मरणासन्न पिता की एक ही ख़्वाहिश है कि वह अपने निर्दोष बेटे को निर्दोष बरी देखकर मरे।” <br />
<br />
पापा ने सिगार जला लिया। कुछ देर तक ख़ाली-ख़ाली आँखों से दीवारों पर देखते रहे, फिर एक सधी हुई आवाज़ में बोले, “बेटे, हम जिसे न्याय कहते हैं, वह तथ्य-सापेक्ष है, सत्य सापेक्ष नहीं है। तथ्य का प्रमाण स्वयं में सामर्थ्य-सापेक्ष है, अतः निर्णय लचीला होता है। हमारा तो यूँ जान लो, बस एक दायरा होता है... पुलिस एफ.आई.आर. प्रस्तुत करती है, चार्जशीट पेश करती है, गवाह होते हैं, अपराध के सबूत, अभियुक्त की सफ़ाई का दौर आता है, वकील होते हैं, कानून की किताबें होती हैं। इन सबमें से परत-दर-परत जो निष्कर्ष छन-छनकर आता है, हम वही निर्णय तो दे सकते हैं... और फिर तुम जिसकी सिफ़ारिश करने आए हो, उसका तो मुक़ाबला ही सत्ता से है, जो हमेशा न्यायपालिका पर हावी रहती है!” <br />
<br />
“यानी आपके सिद्धांत बाँझ है?” <br />
<br />
पापा गंभीर हो गए। बोले, “देखो, ख़ून मेरी रगों में भी बहता है, पर मैं तुम्हारी तरह मूर्ख और भावनाजीवी नहीं। तुम्हें मालूम नहीं होगा, सी.बी.आई. वाले कब के तुम्हारे विरुद्ध क़दम उठा चुके होते... बचते आए हो तो अपने जीजाजी के चलते। लेकिन यही रवैया रहा तो...आई फ़ाइनली वार्न यू टु मेंड योरसेल्फ!” बुझा सिगार फेंककर वह उठकर बेचैनी में चलने लगे और मैं सर पकड़कर बैठ गया। <br />
<br />
मुक़दमे का निर्णायक दिन भी आ गया। वकील के लाख समझाने के बावजूद सचिन ने एक शब्द तक न कहा अपनी सफ़ाई में, सिवाय उस बयान के, जो जब भी यादों को कुरेदता है तो हर्फ़-दर-हर्फ़ विस्फोट करता शोलों के अंबार भर देता है ज़ेहन में, “मुझे इस पूँजीवादी, प्रतिक्रियावादी, न्याय-व्यवस्था में विश्वास नहीं है। आम जनता भी जिसे न्याय का मंदिर कहती है, वह लुटेरों, पंडों और जूता-चोरों से भरा पड़ा है। यहाँ आते ही चपरासी, अहलमद, नाज़िर, पेशकार, क़ानूनगो से लेकर काला लिबादा ओढ़े वकील और गीता तथा गंगाजल की क़समें खाकर झूठी गवाहियाँ देने वाले गवाह, ये तमाम कुत्ते नोचने-खसोटने लगते हैं उसे। ये लाल थाने, लाल जेलखाने और लाल कचहरियाँ... इन पर कितने बेक़सूरों का ख़ून पुता है। वकीलों और जजों का काला गाउन न जाने कितने ख़ून के धब्बों को छुपाए हुए है! परिवर्तन के महान रास्ते में एक मुकाम ऐसा भी आएगा, जिस दिन इन्हें अपना चरित्र बदलना होगा, वरना इनकी रोबीली बुलंदियाँ धूल चाटती नज़र आएँगी!” <br />
<br />
वकील ज़ोरों से चीख पड़ा, “योर ऑनर, दिस इज क्लियरली द कॅण्टेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट!” <br />
<br />
बाहर शोर मच गया। जज की कुर्सी पर बैठे पापा चीख पड़े, “ऑर्डर! ऑर्डर!!” और मुद्दई पक्ष का वकील सचिन को पागल साबित करने में लग गया, ताकि उसे बचा सके। <br />
<br />
सचिन को अपराधी करार देते हुए सज़ा हो गई। फ़ैसला सुनते ही मेरे पास ही बैठे राखाल बाबू फफक-फफक कर रो पड़े। मुझे याद है, मैंने उन्हें सहारा देकर रिक्शे पर बैठाया था। बाद में हमने सुना कि जेल से जाते समय, रास्ते में ही पेशाब करने के बहाने, जंगलों में सचिन ऐसा ग़ायब हुआ कि पुलिस ढूँढ़ती रह गई। रोग और चिन्ता से जर्जर राखाल बाबू यह सदमा बरदाश्त न कर पाए और 'रानी' और 'बुलबुल' को निर्दोष देखने का सपना लिए हुए ही दुनिया से चले गए। पुलिस उनकी मृत्यु के दो दिन बाद तक सेनिटोरियम के चारों ओर सादे लिबास में घूमती रही, मगर न रानी आई, ना बुलबुल! लाश जब सड़ने लगी तो पुलिस की मदद से सेनिटोरियम वालों ने ही उसकी अन्त्येष्टि की। <br />
<br />
और अब नारी-निकेतन, बाल अपराध सुधार-गृह, रिफ़ॉर्मेटरीज़ होते हुए कारागृह! ऊँची-ऊँची दीवारें, सलाख़ोंदार मज़बूत फाटक, अपराधी-क़ैदियों का समुद्र! कोने-कोने पर ऊँचे मचानों पर बंदूक़ साधे ऊँघते सिपाही! विभिन्न सूत्रों से पता लगा था कि सचिन नाम का एक बंगाली युवक और संघमित्रा नाम की एक औरत, कुछ दिन हुए ट्राँसफ़र होकर, सेंट्रल जेल में आए हैं। जल्द ही मैंने शोध के निमित्त सेंट्रल जेल जाने की अनुमति प्राप्त कर ली। <br />
<br />
विशाल रक़बे में बिखरी दुर्भेद्य बदसूरत दीवारों से घिरी केंद्रीय कारा! कारा अधीक्षक, जो मेरे मजिस्ट्रेट भैया के मित्र थे, मुझे बताते चल रहे थे, यह जेल भारत की सबसे बड़ी जेलों से एक सेल्यूलर जेल है। साइकिल स्पोक्स की आकृति में फैले हुए सेल धुरी पर केन्द्रीभूत हो उठते हैं, जहाँ से कंट्रोल टावर इन सब पर निगरानी रख सकता है। ये रहे कारख़ाने... कपड़े, दरियाँ, काठ और लोहे के छिटपुट सामान बनाते हुए, ये रही लायब्रेरी, वह रहा मेडिकल, यह रहा पागलों का दड़बा, यह विशाल भीड़, जो देख रहे हो... ये रहे हाजती। उधर उन अलग-अलग क़तारों में रहते हैं स्टेट प्रिजनर्स... बड़े-बड़े नेता, विद्वान, लेखक रह चुके हैं यहाँ!' एक नज़र मेरे ऊपर पड़े प्रभाव का मुआयना करके वे फिर शुरू हो गए, “ये पार्टीशन जनाना सेल के लिए है। कोई पसंद आए तो बोलना।” अपने ही मज़ाक पर वे 'खीं-खीं' करते हुए हँस पड़े और दीवार के पास मेरी कल्पना में संघमित्रा उभरने लगी... मगर तत्क्षण ही स्वराघात से टूट गई। <br />
<br />
“यह रहा 'टी-सेल'... सबसे ख़तरनाक अपराधी यहाँ रखे जाते हैं। किस प्रकार के कितने क़ैदी हैं, उनकी संख्या तुम्हें इस सूची से मिल जाएगी।” उन्होंने दीवार पर टॅगी सूची की ओर इशारा किया, “ये जगह-जगह टँगी हुई हैं। मुझे, अफ़सोस है, तुम्हें हम फाँसी के किसी क़ैदी से नहीं मिलवा सकेंगे।” हँसते हुए उन्होंने सूची में मृत्युदंड दंडित क़ैदियों के आगे इशारा किया, वहाँ क्रॉस लगा हुआ है। कंट्रोलिंग टावर पर से उन्होंने मुझे दूर स्थित फाँसी के मंच और वीरान कंडेम्ड सेल भी दिखाए। <br />
<br />
“कहाँ-कहाँ जाना है, क्या-क्या सवाल कर सकते हो, इसकी शर्तें तुम्हें दी जा चुकी है, फिर भी एहतियात के तौर पर बता दूँ, सेल नंबर 15, 16, 17 में मत जाना... नक्सली सेल है।' <br />
<br />
कुछ ही दिनों में उन सबसे ऊब गया। सफ़ेद धोती, हाफ़ क़मीज़, टख़नों तक का पाजामा...मेरी पारदर्शिनी नज़र इनमें अपराध के चिन्ह ढूँढ़ने में असफल रही। यह सवाल बराबर कोंचता रहा कि आख़िर कौन-सी मजबूरी है कि लोग अपराध में प्रवृत्त हो जाते हैं... और वह कौन-सी विभाजन-रेखा है, जिसके तहत ये शिनाख़्त किए जा सकते हैं। सारा मामला सरसों में भूत जैसा विरोधाभासों से ग्रस्त था। नारी निकेतन, बाल अपराध सुधार-गृह और रिफ़ॉर्मेटरीज़ के सिद्धांतों और आचरणों में गहरी खाई थी। क़ैदियों के नाम पर मिलने वाला राशन खाते हुए जेल के कर्मचारी, के भेंट बन-बनकर राज करते हुए धाकड़ दादा क़ैदी, उसके तथा जेल के ज़रख़रीद ग़ुलाम बने रिसते और पिसते हुए पिद्दी क़ैदी, वही वर्ग-विभाजन, वही वर्ण-विभाजन, जेल की बदसूरत ऊँची प्राचीरों में घुटकर रह जाने वाली यातनाओं की चीख़ें और अलमारियों में क़रीने से सजी, पर जाले की ज़ंजीरों में बँधी जेल मैनुअल्स की पोथयाँ! वह सेल्यूलर जेल मुझे मकड़ी के जाले जैसा लगा। रेशे-रेशे में आ बिंधे थे इंसान और बीच में मकड़ी के स्थान पर खड़ा था कंट्रोलिंग टावर! <br />
<br />
जज़्बातों की तरह जलते हुए दिन क़ैदियों के समुद्र में डूबते-उतराते, संतरण करते हुए बुझ रहे थे और दुःस्वप्नों जैसी नाउम्मीद लंबी रातें पुलिस मैनुअल्स, जेल मैनुअल्स, सोशोलॉजी, साइकोलॉजी, आँकड़ों, ग्राफ़ों में तिरोहित हो रही थीं। मेरी एक खोज पूरी हो रही थी और एक का कूल-किनारा भी नज़र नहीं आ रहा था। डेस्परेट होकर एक दिन जेल सुपरिटेंडेंट के दफ़्तर में जा पहुँचा। वे उस समय एक नवागत नक्सली क़ैदी से जाने क्या उगलवाने के चक्कर में परेशान हो रहे थे। मेरे सामने एक ही ज़ोरों का मुक्का उसके जड़ों पर पड़ा और उसका चश्मा दूर जा छिटका। वे फिर से बड़ी निर्दयतापूर्वक उसके बालों को पकड़कर नचाने लगे। मुझे देखा तो वापस ले जाने का हुक्म देकर बैठ गए। नक्सली युवक अपना ख़ून पोंछने की बजाय अपना चश्मा टटोलने लगा। चश्मे के अभाव में उसकी स्थिति अंधे जैसी हो रही थी। मुझसे रहा न गया। मैंने स्वयं चश्मा उठाकर उसे दिया, तो पता चला, उसके काँच दरक चुके थे। <br />
<br />
“साले ने मूड ऑफ़ कर दिया। हाँ, तुम कहो अपनी...” जेल अधीक्षक प्रकृतिस्थ होने की कोशिश में मुस्काए। <br />
<br />
“मुझे संघमित्रा और सचिन से मिलना है... ज़रूरी तफ़तीश के लिए।” <br />
<br />
“सचिन से तो नहीं मिल सकते, ऊपर से बिना अनुमति प्राप्त किए। हाँ, संघमित्रा को बुलवाए देता हूँ।” उनके हुक्म पर थोड़ी देर में एक मेट एक युवती को लेकर उपस्थित हुआ। <br />
<br />
“लो, आ गई!” वे भद्दे अंदाज में मुस्कुराए। <br />
<br />
“इसे वापस पहुँचाने को कह दीजिए।” मैं झुंझला पड़ा, “मुझे जिस संघमित्रा की तलाश थी, वह यह नहीं।” <br />
<br />
“बड़ा संगीन अपराध किया है उसने तुम्हारे साथ... ऐसा लगता है। मगर तुम उसे जेल में क्यों ढूँढ़ते फिर रहे हो?” <br />
<br />
“फिर बताऊँगा कभी।” निराशा में मेरे होंठ जड़ हो रहे थे। संघमित्रा मेरे लिए अब भी मरीचिका ही थी। <br />
<br />
आख़िर वे क्षण आ गए, जबकि प्रतिबंधित सेलों का तिलिस्म सैलाब बनकर जेल की दीवारों के बाहर बहने लगा। दीवाली की रात थी वह। क्रेकर और आतिशबाज़ियाँ छूट रही थीं। मगर जेल के अंदर भला क्यों...? और वह दहशत-भरी पगली घंटी पर पगलाता हुआ पुलिस दस्ता! अंदर के कई फाटक तोड़कर नक्सली अब सदर फाटक पर बम बरसा रहे थे। पुलिस के सिपाहियों ने कई एक को ज़मीन पर सुला दिया, मगर वे सामूहिक रूप से पुलिस दस्ते से भिड़ गए और थोड़ी ही देर में बंदूक़ें उनके हाथों में थीं। लगा कि फाटक अब टूटा कि तब। तभी हमने देखा, क़ैदियों की विशाल भीड़, जो बंदूक़ों और अन्य शस्त्रों से लैस थी, नक्सली क़ैदियों पर टूट पड़ी। सदर दरवाज़े के ऊपर के दो मंज़िलों की खिड़की से मैंने वह रोंगटे खड़े कर देने वाली क़ैदियों की लड़ाई देखी। थोड़े ही देर में फूलों और सब्ज़ियों की क्यारियाँ, बजरी की सड़कें लाशों और घायलों से पट गईं। माइक से जब यह ऐलान किया गया कि बाक़ी क़ैदी नक्सल क़ैदियों को उनके सेलों में पहुँचाकर, अपने-अपने वार्डनों के पास गिनती के लिए चले जाएँ, तो घायल और बचे-खुचे नक्सली क़ैदियों को ढोर डंगरे की तरह मारते और हाँफते हुए क़ैदी लौट पड़े। <br />
<br />
थोड़ी देर बाद अधीक्षक महोदय के दफ़्तर में प्रतिबंधित नक्सली सेलों का एक वार्डन पूरी कहानी बताने लगा, “गश्त का सिपाही जमुनालाल जब एक नक्सल क़ैदी नं. सात सौ पचहत्तर...” मैं चौंका, 'सचिन!' 'जो भी हो' उसने बात आगे बढ़ाई, “उसके कमरे को संदिग्ध जान खोलकर देखना चाहा तो उसने जंजीर बँधे हाथों का फँदा लगाकर उसके गले को कस दिया। फिर उसकी जेब से चाबी निकालकर सेल नं. सत्रह को आज़ाद कर दिया। इसी तरह शायद और सेल भी... दीवाली की रात होने के नाते थोड़ी ग़लतफ़हमी भी हुई। साब, अगर मेट ने चालाकी करके बिना पूछे ही तमाम ख़तरनाक अपराधियों को नहीं छोड़ दिया होता, उन्हें ठंडा करने को, तो नाक कट ही गई होती।” <br />
<br />
“स्टील टर्निंग्स तो लेथ और ड्रिल मशीनों से उन्होंने बरामद किया होगा, मगर पिक्रिक एसिड, पोटाश वग़ैरा...??” बम के एक खोल को देखते हुए अधीक्षक ग़ुस्से से पागल हो गए। डर के मारे लोग सन्नाटे में आ गए। वे दहाड़ने लगे, “पुलिस की ज़ात साली ठीक ही घूस के लिए बदनाम है। ज़रा-से पैसों के लिए साले बिक गए, वरना जहाँ परिंदा तक पर नहीं मार सकता, वहाँ बम आ जाए!” धीरे-धीरे लोग खिसक गए। मृत और घायलों को शहर भेज दिया गया और दीवाली की रात मातम की काली रात बनकर डसने लगी हमें। बचपन में यदा-कदा दूर से काली मंदिर की पाठशालाओं को देखा करता था, जहाँ गुरुजी लड़कों से ही श्रेष्ठ हुआ करते थे। और यहाँ चोर, डाकू, व्यभिचारी, सज़ायाफ़्ता क़ैदी, बुद्धिजीवी नक्सलियों को पीट रहे थे। मुझे अपराध और अपराधी का वृत्त फैलता-सा लगा। मन रुआँसा हो चला, न खाना गले से नीचे उतरा, न किसी से बात ही करने को जी चाहा। तन और मन की हरारत टाइफ़ाइड में तब्दील हो गई और मैं एक लंबे अरसे तक बीमारी से निबटने और स्वास्थ्य-लाभ करने में लगा रहा। इस बीच मेरे गाइड 'हेड साहब', शोध को देखकर, 'यूनीक' क़रार दे गए थे। जेल अधीक्षक मेरे पापा के प्रभाव के कारण मुअत्तल होने से बच गए थे। उनकी कृपा से प्राँत की सारी जेलों की महिला क़ैदियों की सूची मैंने देख ली थी। संघमित्रा का पता नहीं चल सका था। शोध का काट समेटने की गरज़ से, जिस दिन पुनः केंद्रीय कारा पहुँचा, तो पापा की जल्दी वापस आ जाने की हिदायती चिट्ठी और नक्सली सेलों में एक बार जाने की अनुमति-पत्र साथ ही मिला। <br />
<br />
मेरे प्रतीक्षित दिवस का एक-एक दृश्य टँगा है आँखों के सामने। मेरे साथ-साथ पुलिस का एक सिपाही, सेल नं. सत्रह का वार्डन और मेट भी चल रहे थे। मेरे हाथों में शोध की फ़ाइल थी। सारे के सारे क़ैदी जवान थे और निचुड़े चेहरों के बावजूद मस्त थे। वे हमें देखकर अजीब ढंग से सीटियाँ बजा रहे थे। कुछ पूछने पर कहते, “कहाँ का पिल्ला टहल रहा है?” बहनोई खोजने चला है शायद!... यह चलेगा...? <br />
<br />
मेट बताने लगा, “इन्क्वायरी कमीशन के सामने भी इनकी यही गंदी हरकतें रही। आप सोच सकते हैं, उसमें क्या हुआ होगा” एक कमरे के सामने रुक गया वार्डन। सलाख़ोंदार फाटक के अंदर से झाँकते सचिन को मैं सहसा पहचान न पाता, अगर वार्डन ने बताया न होता। उसके हाथ-पाँव ज़ंजीरों से बँधे थे। बढ़े हुए रूखे बाल, बढ़ी हुई दाढ़ी, कोटरों में फँसी जलती आँखें और बढ़े हुए नाख़ून... कुल मिलाकर कोढ़ियों की शक्ल दे गए थे। आत्मीयता में डूबते-उतराते मैं बोल पड़ा, “सचिन, मुझे पहचानते हो, मैं...!” <br />
<br />
“हाँ-हाँ, पहचानूँगा क्यों नहीं... ख़ूनी जज का बेटा, लुटेरे और मक्कार एस.पी. और मजिस्ट्रेट का भाई, बदलते भ्रष्ट मंत्रियों के शाश्वत ग़ुलाम सेक्रेटरी का साला!” <br />
<br />
मैं किंचित अप्रतिभ हुआ, पर उसकी बात हँसकर उड़ा दी, “बुलबुल, सच मानो, मेरा कोई बुरा इरादा नहीं है, क्राइम पर शोध कर रहा हूँ। तुम्हारा एक इंटरव्यू...!!” <br />
<br />
“पूछो।” <br />
<br />
फ़ाइल खोल क़लम निकालकर पूरी गंभीरता से मैंने सवाल किया, “लोग व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए या अत्याचार के ख़िलाफ़ अस्त्र उठाते हैं, तुम लोग सामूहिक स्वार्थ और एक्सप्लायटेशन के ख़िलाफ़... मगर करते हो तुम भी अपराध ही। क्या हिंसा से हिंसा को और नफ़रत से नफ़रत को दबाया जा सकता है?” सवाल के शेष होते न होते उसने अभद्रता से पाद दिया। मैं भिन्ना उठा। मुझे नफ़ासत सिखाने वाला सचिन क्या यही था! मैं बिफर पड़ा, “मेरा अपमान करने से सवाल नहीं टल जाएगा बुलबुल, तुम लोग किसी पर तो विश्वास करोगे...! यह संशय का महाभारत कब तक?” <br />
<br />
“माफ़ करना यार, इतना गरिष्ठ सवाल सुनकर पेट में ज़रा गैस हो गई थी। इतनी भारी बातें पच नहीं पातीं?” फिर उसने लहजा बदलते हुए पूछा, “तो तुम पी.एच.डी. पाओगे न?” <br />
<br />
“हाँ!” मैं उसके तेवर को तौलने लगा। <br />
<br />
“फिर कोई ऊँचा ओहदा...?” <br />
<br />
“शायद!” <br />
<br />
“ज़रा फ़ाइल देख सकता हूँ?” <br />
<br />
मैं पहले हिचका। मगर उसकी पुरानी अन्तरंगता का ख़याल करके फ़ाइल उसे दे दी, फिर मन की लालसा ज़बान पर आई, “बुलबुल, प्लीज बताओगे रानी कहाँ है?” मेरी बात जैसे उसने सुनी ही नहीं। फ़ाइल के पन्ने पलटते हुए बोल पड़ा, तो तुमने इतने विभिन्न प्रकार के अपराधियों और क़ैदियों का अध्ययन किया है?... वाह!... और यह दार्शनिक पक्ष... टैपेन, रेकबेस, मारिस, टैफ्ट, कोल्डराइन, प्लेटो... कमाल है! इत्ते-सारे आँकड़े, ग्राफ़्स, काम्पेरेटिव एंड रिलेटिव एनलिसिस... सर्वे... जेल में मिले इन लोगों से?” <br />
<br />
“हाँ!” मैं फूल गया अपनी प्रशंसा पर। मगर एकाएक उसे जैसे सन्निपात हो गया, “तो तुमने इतने क़ैदियों का अपमान किया है!... और इस अपमान को भुनाकर तुम सम्मानित होना चाहते हो!... इसीलिए यह दलाली और सवालों के चोंचले! तुम्हारी नीयत अपराध मिटाने की नहीं, उस पर फलने-फूलने की है! मैं पूछता हूँ, किसने तुम्हें आने दिया अंदर? इसे चिडियाख़ाना समझ रखा है क्या? इजंट टोटली इन्ह्यमेन टू एंज्वाय एंड कैश ए प्रिज़नर्स ट्रेजडी? इजंट मोस्ट हीनियस क्राइम... आई आस्क! आई वोट एलाउ यू!” ...उसने फ़ाइल उठा ली। हाथ की ज़ंजीरें झनक उठी... मेरे दिल की धड़कनें बढ़ गईं। <br />
<br />
“रुको-रुको!” पीछे से कारा अधीक्षक आते हुए बोले, “मुझे मालूम नहीं था कि तुम इनके दोस्त हो। देखो, डोंट बी इंपेशेंट। अफ़सोस है, इतने संगीन अपराध तुमने किए हैं कि कोर्ट से कभी भी फाँसी का परवाना आ सकता है। तुम्हारे सामने तुम्हारे मित्र एक आदर्श हैं। तुम अपराध में प्रवृत्त हो और वह उससे निवृत्ति के उपायों पर शोध कर रहा है। अगर तुम अभी से भी रिपेंट करते हुए अपने आप को सुधारो तो राष्ट्रपति के पास मर्सी पेटीशन के तहत तुम्हें बचा लेने में हम कुछ उठा नहीं रखेंगे।” उनका इतना कहना था कि सचिन के मुँह का बलग़म उनके मुख पर ताले-सा जा चिपका और फ़ाइल मेरे मुँह पर। पन्ने-पन्ने छितरा गए और मैं पागलों की तरह जल्दी-जल्दी बटोरने लगा, अपनी अमूल्य निधि को। <br />
<br />
वार्डन दौड़कर पानी लाने चला गया और मेट और सिपाही, कहीं से दो छड़ लाकर लगे कोंचने और पीटने बेरहमी से उसे... जैसे सर्कस के किसी ख़ँखार पशु के अचानक हिंसक हो उठने पर सर्कस के नौकर किया करते हैं। वह 'घों-घों' करके चीत्कार कर रहा था। कारा अधीक्षक ने ही न छुड़वाया होता तो शायद उसकी जान लेकर छोड़ते। <br />
<br />
सामान जीप में रखा जा चुका था। बस, कारा अधीक्षक की राह देख रहा था। जेलर को कुछ हिदायतें देकर उन्हें लौट आना था। यूँ और दिन होता तो जेल के अंदर ही उनसे मिल आता, पर उस घटना के बाद से मन कैसा कैसा हो गया था और बीच के तीन दिन, शोध के बिखरे कामों को तरतीब देने के उद्देश्य से, मैं अपने मँझले भैया के यहाँ गुज़ारकर आया था। कारा अधीक्षक उदास-सा चेहरा लिए आकर रुके मेरे पास, “जब तुम पहले-पहल आए थे तो मैंने मज़ाक किया था कि मुझे अफ़सोस है, फाँसी के क़ैदी से नहीं मिलवा सकूँगा तुम्हें... मगर तब नहीं जानता था कि जाते समय मज़ाक क्रूर सत्य बनकर सामने आएगा।” <br />
<br />
मैं चुपचाप ताकने लगा उन्हें। <br />
<br />
“सचिन को कंडेम्ड में ले जाया गया है। फाँसी तक वहीं रहेगा वह। मिलोगे नहीं उससे जाते समय?” उनकी आवाज़ भीगी हुई थी। <br />
<br />
मेरे होंठ थरथराए, पर आवाज़ नहीं फूटी। यंत्रचलित-सा उनके पीछे-पीछे चल पड़ा। मैंने ग़ौर किया, मुख्यद्वार से कंट्रोलिंग टावर तक की सभी सूचियों में परिवर्तन कर दिया गया था—मृत्युदंड दंडित क़ैदी, कुल संख्या-एक। <br />
<br />
सचिन मुझे देखते ही सींखचों के पास आ गया, “आज शायद जा रहे हो?” पहल उसी ने की। <br />
<br />
“ ... ” <br />
<br />
“मेरी फाँसी तक नहीं रुकोगे? व्यवस्था की पीठिका पर टँगे मेरे वजूद के सवालिया निशान से कतराने लगा है तुम्हारा शोध!” उसकी व्यंग्य-भरी हँसी निरुत्तर कर गई मुझे। मैं निर्वाक्-निर्निमेष ताकता रहा उसे। <br />
<br />
“रानी को पूछ रहे थे न उस दिन?” <br />
<br />
“हाँ!” मेरी सारी चेतना मिसट आई उसके सवाल पर। <br />
<br />
“शी हैड बीन ब्रूटली बूचर्ड लाँग एगो।” <br />
<br />
“कैसे?” मैं चीख़ पड़ा। <br />
<br />
“उसके गुप्तांग में रूल घुसाकर... मथकर मारा गया।” <br />
<br />
“ओह! ओह!!” करहाते हुए आवेग में मैंने सींखचों को पकड़कर झकझोर देना चाहा, मगर वे सर्द और सख़्त थे। आँखों के आगे अँधेरा छा गया। मेडिकल की मेधावी छात्रा, जेनेटिक्स पर रिसर्च करने का दम भरने वाली रानी, एक सामान्य पुलिस के हाथों...क्राइम! लगा, अभी-अभी क्रोंचवध हुआ है। फ़िज़ा में दूर-दूर तक दहशत-भरी दर्दनाक चीख़ें भर उठी है। <br />
<br />
इसके बाद न कुछ वह बोल पाया, न मैं। उसने मेरा कंधा थपथपाया... और पथराई आँखों से हम जुदा हो गए। <br />
<br />
जेल से अपनी एक पूरी दुनिया गँवाकर लौट रहा हूँ। पता नहीं पापा मेरे शोधकार्य को कैसे भुनाएँगे! मगर शोध अभी हुआ कहाँ पूरा! हाइड्रोजन बम के न्यूक्लियर फ़ीज़न की श्रृंखला की तरह अपराध का रक्तबीज़ फैलता ही जा रहा है... ठहराव? ट्रेन चली जा रही है और शोध के पन्ने फड़फड़ा रहे हैं मेरे दिमाग़ में... अनाक्सिमेंडर काल्डरान के अनुसार क्या यही मान लेना होगा कि मनुष्य का सबसे बड़ा अपराध यही है कि जन्मा होने मात्र से वह दूसरे के अस्तित्व में बाधक है? प्लेटो ने यहाँ तक कहा है कि अपराध भी प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति ही कर सकते हैं। डारविन की थ्योरी ऑफ़ इवोल्यूशन में ज़िंदा रहने के लिए सबलों, समर्थों का निर्बलों, असमर्थों पर यही अपराध-भरा संघर्ष नहीं है? हेगेल ने भी क्या संक्रमण और संधात के इसी नायकत्व को नहीं स्वीकारा? मार्क्स की वस्तु और क्रियाओं के घात-प्रतिघात की बात में इसी संघर्ष का दूसरा रूप नहीं है? आगे बढ़ने की अंधी दौड़ में कौन देखने जाता है कि कौन कुचला गया? शायद रानी ही ठीक कहती थी, अपराध ख़त्म करना है तो नस्ल ही बदल डालो। <br />
<br />
दिमाग़ नाना प्रकार के गड्डमड्ड विचारों से बजबजा उठा है। नाना प्रकार के दृश्यों के बुलबुले उठ-उठकर फूट रहे हैं। आँखों में पूरा का पूरा गाँव धू-धू करके जल रहा है, कंकालनुमा चेहरे किन्हीं अज्ञात पंजों से बचने के लिए बेतहाशा भागे जा रहे हैं, सहमी हुई, कोसती और मनौतियाँ करती भाभी, बड़े और बड़े होते हुए भैया तथा पापा के चेहरे, ठेंठते हुए पुलिस और गुंडे, डकारते हुए नकली गवाह, बाल पकड़ झटके जा रहे... पेट पकड़े नक्सलाइट युवक का दरका चश्मा! ठीक आँखों के सामने रानी तड़प-तड़पकर... ऐंठ-ढेंठकर मर रही है, सचिन को कोंच-कोंचकर मारा जा रहा है। शर्मिंदगी और संत्रास और मातम! इनके ऊपर धीरे-धीरे एक सवालिया निशान की तरह झूल रही है... फाँसी के फंदे में सचिन की लाश! <br />
<br />
मैं पसीना-पसीना हो उठता हूँ। स्वस्थ होने के लिए खिड़की खोलकर बाहर झाँकता हूँ तो लगता है, अँधेरे की सुरंग किसी रक्तस्नान प्रांतर में आकर विलीन हो चली है। गाड़ी धीमे-धीमे गंगा के पुल पर रेंग रही है। यानी चंद मिनटों में मेरे स्टेशन में दाख़िल हो जाएगी। सुबह की लाली से लाल हुई गंगा देखकर लगता है, आदिम पाषाण युग से ख़ून ही बहता रहा है इसमें! क्या है मेरी और मेरे शोध की सामर्थ्य और सीमा? अपराध की लप-लपाती बर्बर लपटों में...उन्हीं लपटों में, जिनमें आहुति बनकर लाखों करोड़ों निरपराध, निष्ठावान तेजस्वी आत्माएँ, मेरा मित्र, मेरी रानी तक समा चुके हैं, अपने हाथ सेंकने के सिवा यह है क्या? इससे बढ़कर गर्हित अपराध और क्या हो सकता है? कर सकूँगा मैं सत्ता, व्यवस्था और समाज के तमाम अपराधी पुर्ज़ों को जेल में? शायद नहीं, क्योंकि मैं पैरासाइट हूँ उनका, क्योंकि वे मेरे अपने पिता, भाई स्वजन, मित्र और औज़ार हैं। फिर यह शोध...? कितना गंदा मज़ाक है यह शोध! मेरे हाथ लहराते हैं और शोध की पूरी फ़ाइल छपाक से गंगा में जा गिरती है। लगता है, सीने पर पड़ा हुआ अपराध का पहाड़ फिसलकर जा गिरा है गंगा में। <br />
<br />
स्टेशन पर उतरते ही अगवानी के लिए आए विभागाध्यक्ष के साथ माँ को देखकर याद आता है...साधु ने शायद ठीक ही कहा था... कि मेरी मौत पानी में होगी!... पूरा भविष्य डुबा दिया है मैंने पानी में और विद्रूप में मेरे होंठ टेढ़े हो उठे हैं।</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AD%E0%A5%88%E0%A4%AF%E0%A4%BE_%E0%A4%8F%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%B8_/_%E0%A4%85%E0%A4%B0%E0%A5%82%E0%A4%A3_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B6&diff=43722भैया एक्सप्रेस / अरूण प्रकाश2023-08-03T18:38:55Z<p>अनिल जनविजय: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=अरूण प्रकाश |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatKah...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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इज़ ही ए भैया? <br />
<br />
ट्रेन की रफ़्तार तेज़ होती जा रही थी। दरवाज़े से लटके रामदेव के लिए धूल भरी तेज़ हवा में आँख खुली रखना मुश्किल था। कब तक लटका रहेगा बंद दरवाज़े पर? रामदेव ने दरवाज़े पर ज़ोर से थाप मारी। उसके कंधे से लटकता झोला गिरते-गिरते बचा। <br />
<br />
कुछ देर बाद दरवाज़ा खुला। वह सँभलता हुआ अंदर घुसा और दरवाज़ा भिड़ाकर डिब्बे के गलियारे में गमछे से मूँगफली के छिलके और सिगरेट के टोंटों को हटाने लगा। दरवाज़ा खोलने वाले फ़ौजी ने घृणा से मुँह बिचकाया 'भैणचो..मरने चले आते हैं! ये रिज़र्वेशन का डिब्बा है। तेरा रिज़र्वेशन है?' <br />
<br />
रामदेव चुप! अठारह साल के साँवले, पतले रामदेव के लिए यह पहली लंबी यात्रा थी। अब तक उसने तिलरथ के अगले स्टेशन बरौनी तक ही रेल यात्रा की थी। रिज़र्वेशन से उसका पाला ही नहीं पड़ा था। पहली दफ़ा वह बिहार तो क्या, अपने जिले से भी बाहर निकला था। अपने भाई विशुनदेव से उसने ज़रूर सुन रखा था कि पंजाब जाने में क्या-क्या परेशानी होती है। दिल्ली होकर पंजाब जाने में सुविधा होती है। और, आसाम मेल दिल्ली जाती है। बरौनी स्टेशन पर डिब्बे में लोग बोरे में सूखी मिर्च की तरह ढूंसे जाते थे। आख़िर ट्रेन खुल गई तो जो डिब्बा सामने आया, उसी में दौड़कर लटक गया था। <br />
<br />
'टिकट है!' रामदेव ने बमुश्किल कहा। <br />
<br />
'टिकट होने से क्या होता है? यह रिज़र्वेशन का डिब्बा है, समझे?' <br />
<br />
अब रामदेव क्या करे, चुप, डरी आँखों से फ़ौजी को देखता रहा। पुरानी बेडौल पैंट और हैंडलूम की बेरंग शर्ट पहनकर रामदेव अपने मोहल्ले में ही आधुनिक होने का स्वांग कर सकता था। इस नई दुनिया में सारी चीज़ें अचंभे से भरी थीं। <br />
<br />
कुर्ते और शलवार में लिपटी, सामने के बर्थ पर लेटी औरत ने अँग्रेज़ी उपन्यास को आँखों के सामने से हटाया और उस फ़ौजी से पूछा, 'सिविल कंपार्टमेंट इज़ लाइक धर्मशाला...इज़ ही ए भैया?' <br />
<br />
'हाँ लगता तो है!' फ़ौजी भुनभुनाकर रामदेव की ओर मुख़ातिब हो गया, 'तुमको कहाँ जाना है?' <br />
<br />
'पंजाब।' <br />
<br />
रामदेव को लगा कि वह यहाँ बैठा रहा तो इन बड़े लोगों की नज़र में चढ़ा रहेगा। वह उठा और बाथरूम के सामने वाले गलियारे में अँगोछा बिछाकर झोले का तकिया बनाकर लेट गया। ट्रेन में घुसने से लेकर पिछले एक सप्ताह तक के दृश्य उसकी आँखों के सामने घूम गए। <br />
<br />
दसवीं का इम्तिहान ख़त्म होते ही माई पंजाब जाने-आने के लिए पैसे का इंतिज़ाम करने लगी थी। गाँव का कोई आदमी मार-काट की वजह से पंजाब जाकर उसके भैया विशुनदेव को ढूँढ़ने को तैयार नहीं था। कई लोगों से मिन्नत करने के बाद, माई रामदेव को ही पंजाब भेजने पर तैयार हो गई। पैसों की समस्या साँप की तरह फ़न काढ़े फुकार रही थी। पुश्तैनी पेशा-अनाज भूनने में क्या रखा है? कनसार में अनाज भुनवाने लोग आते नहीं। मकई की रोटी अशराफ़ लोग खाते नहीं। दाल इतनी महँगी है कि लोग चने की दाल बनवाएँगे कि कनसार में चना भुनवाकर सत्तू बनवाएँगे? उस पर इतनी मेहनत-गाँव के बग़ीचों, बंसवाड़ियों में सूखे पत्ते बटोरकर जमा करो, उन्हें जलाकर अनाज भूनकर पेट की आग ठंडी करो। किसी तरह एक शाम का भोजन जुट पाता। आख़िर माई उपले थापकर, गुल बनाकर बेचने लगी थी। तब किसी तरह भोजन चलने लगा। लेकिन कोई काम आ पड़ता तो क़र्ज़ लेने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता था। इस बार भी पंडितजी ने ही पैसों की मदद की। भैया की शादी में क़र्ज़ बढ़ा तो मुश्किल हो गई। मूल तो मूल, सूद सुरसा की भाँति बढ़ने लगा। आख़िर भैया को थाली-लोटा, कंबल, वंशी लेकर कमाने पंजाब जाना पड़ा। वहाँ से वह पैसा भेजता तो माई सीधा पंडितजी को जाकर देती। क़र्ज़ चुकने को ही था कि अचानक सब कुछ बंद। <br />
<br />
पंजाब में ख़ून-ख़राबे की ख़बर मिलती तो माई के साथ-साथ रामदेव का भी दिल डूबता। माई को पड़ोसी ताने मारते। इतना ही दुख था तो ख़ून-ख़राबे में बेटे को कमाने पंजाब काहे भेजा? अगर विशुनदेव पंजाब नहीं जाता तो वे सब बेघर हो जाते। जनार्दन उनके घर की ज़मीन ख़रीदने की ताक में था। पंडितजी का तक़ाज़ा तेज़ हो रहा था। घर ही बचाने-बसाने विशुनदेव को पंजाब जाना पड़ा था। बहू आती तो कहाँ रहती, क्या खाती? नई ज़िंदगी के कोंपल को माई कैसे मसलने देती? भरे मन से माई ने विशुनदेव को पंजाब जाने दिया था। सब ठीक-ठाक होता जा रहा था कि अचानक सब कुछ बंद। <br />
<br />
लेटे-लेटे रामदेव ने क़मीज़ की चोर जेब में हाथ डाला। जेब में रेलवे टिकट, भाई के पतेवाला पोस्टकार्ड और पैसों को छूकर उसे इत्मीनान हो आया। झोले का तकिया ठीक से जमाकर आँख बंद कर सोने की कोशिश की। ट्रेन की खटर-पटर, गलियारे में फैली बदबू थी ही। डर भी था और इतना था कि नींद में भी पंजाब-सी उथल-पुथल थी। विशुनदेव! ऐ विशुनदेव! <br />
<br />
भैया पंजाब से पिछली दफ़ा लौटा तो वहाँ के क़िस्से ख़ूब सुनाता था। माई भी रोज़ रात उससे पंजाब के बारे में पूछती थी। <br />
<br />
'रोटी खाने? भात नई मिलै छौ?' <br />
<br />
'माई, ऊ लोग सब खाना के रोटी कहै छै! इ बड़का गिलास में चाह! ओह चाह हिया कहाँ?' <br />
<br />
'मर सरधुआ! चाह तो हिमैं बनबे करेई छै!' <br />
<br />
'नइगे माई, ऊ सब बनिहारवाला चाह में अफ़ीम के पानी मिलाए दै छै, वैइसे थकनी हेठ भे जाइछै! अ बनिहार लोग ख़ूब काम कइलक।' <br />
<br />
'कत्ते देर काम करै छहि?' <br />
<br />
'सात बजे भोर सै छ बजे साँझ तक! बीच में रोटी खाइके छुट्टी-एक घंटा।' <br />
<br />
'सब ताश खेललकर, हम्में अपनी बँसुरी-बंजइलौं। हमर मलकिनी ठीक छौ। हाँक पारतौ-ए विशुनदेव! ऐ विशुनदेव! मलकिनी कै हमरी बाँसुरी बजेनाई ख़ूब नीक लगैइछै! विद्यापति, चैतावर सुने लेल पागल। पढ़लो छे गे माई बी.ए.पास!' <br />
<br />
'ख़ूब सुखितगर मालिक छौ?' <br />
<br />
'ख़ूब कि फटफटिया, ट्रैक्टर, जीप महल सन घर। दूगो बेटा। दिल्ली में नौकरी में लागल, टीभी से हो छै!' <br />
<br />
'उ कथी?' <br />
<br />
'जेना रेडियो में ख़ाली गाने बोलई छै ने, टीभी में गाना के साथ-साथ सिनेमा एहन फोटूओ देखेवई छै!' <br />
<br />
'मालिक मारै-पीटे त नईं न छौ!' <br />
<br />
'कखनो-कखनो, गाली हरदम भैनचो... भैनचो बकै छ।' <br />
<br />
'की करभी, पैसा कमेनाइ खेल नईं छै। मन त नईं लागै होतौ?' <br />
<br />
'ग़रीब नईं रहने माई, पंजाब कहियो नईं जैति अइ र इ पैसा...' <br />
<br />
विशुनदेव का गौना सामने था। ख़र्चा जुटाने उसे दूसरी बार भी पंजाब जाना पड़ा। अपने इलाक़े में न साल भर मज़दूरी का उपाय, और मज़दूरी भी पंजाब से आधी। विशुनदेव पंजाब से थोड़ा भविष्य लाने गया था। <br />
<br />
रात में कोई गाड़ी पंजाब नहीं जाती। <br />
<br />
नियॉन लाइट से जगमगाती नई दिल्ली स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पर उतरते ही उसे लगा कि इतने लोगों के समुद्र में वह खो जाएगा। भीड़, धक्कम-मुक्का, अजनबी लोग और इतनी रौशनी! उसने अपने सीने को कसकर दबा लिया ताकि टिकट, पैसा और पते वाला पोस्टकार्ड कोई मार न ले। वह ठिठक गया, पता नहीं गेट किधर है। आख़िर भीड़ में वह घुस गया। ओवर ब्रिज पारकर स्टेशन के बाहर आ गया। <br />
<br />
बाहर टैक्सरी, कार और थ्री व्हीलर की क़तारें। रात का समय। सब कुछ स्वप्न-लोक-सा था जैसा उसने हिंदी फ़िल्मों में देखा था। आसाम मेल रास्ते में ही पाँच घंटे लेट हो गई थी। उसे मालूम था कि दिल्ली से ट्रेन या बस से उसे अमृतसर जाना पड़ेगा। वह मुसाफ़िरख़ाने की ओर बढ़ा। पंजाब जाने वाली गाड़ी के बारे में किससे पूछे, सब तो अफ़सर की तरह लग रहे थे। मुसाफ़िरख़ाने के एक कोने में कुछ साधारण मैले-कुचैले कपड़ों में थकी-बुझी आँखों वाले लोग टिन की बदरंग पेटियों के पास बैठे थे। उन्हीं की तरफ़ बढ़ा। <br />
<br />
'ऊ सामने वाली खिड़की पर जाकर पूछो!' <br />
<br />
खिड़की पर कई लोग जमे थे। जब लोग हटे तो उसने बाबू से पूछा। <br />
<br />
'बाबू, अमृतसरवाली चली गई?' <br />
<br />
'हाँ!' <br />
<br />
'अब दूसरी गाड़ी कब जाएगी!' <br />
<br />
'अब तो भैया, कल जाएगी!' <br />
<br />
'इ तो बड़ा स्टेशन है?' <br />
<br />
आजकल रात में कोई गाड़ी पंजाब नहीं जाती।' <br />
<br />
वह मुड़ा, तो बाबू भी अपने दोस्त से बात करने लगा। <br />
<br />
'सारे हिंदुस्तान को पता है, रात में कोई ट्रेन पंजाब नहीं जाती फिर भी पूछ रहा था!' बाबू के दोस्त के स्वर में उपहास था। <br />
<br />
'बिहारी भैया था!' बाबू फिस्स से हँस पड़ा। <br />
<br />
'जलंधर, लुधियाने, सारे पंजाब में ये लोग भरे हैं।' <br />
<br />
'अरे बिहार से आनेवाली गाड़ी को पंजाब में भैया एक्सप्रेस कहते हैं! उस तरफ़ हर गाड़ी में ये लोग ठूँसे रहेंगे।' <br />
<br />
'वहाँ इन्हें काम नहीं मिलता?' <br />
<br />
'काम मिलता तो पंजाब थोड़े ही मरने जाते! भूख थोड़े ही रुकती है, इसलिए भैया एक्सप्रेस चलती रहेगी... सरकार की पटरी, सरकार की गाड़ी सब है ही!' <br />
<br />
घर पंजाब हो गया है <br />
<br />
'आजकल' रामदेव के लिए बड़ा शब्द है। <br />
<br />
पिछले चार महीने-सोते-जागते पहाड़ की तरह गुज़रे। भैया कैसा होगा? पंजाब में बहा ख़ून का हर क़तरा, वहाँ चली हर गोली माई को लगती। रेडियो विशुनदेव का हाल-चाल थोड़े ही बोलेगा। माई फिर भी पंडित जी के यहाँ रेडियो सुन आती। वह भी चाय की दुकान पर अख़बार पढ़ आता। रजिस्ट्री चिट्ठी लौट आई तो माई रात-भर रोती रही। बेगूसराय जाकर उसी पते पर तार भिजवाया लेकिन कुछ नहीं पता चला। माई मन्नतें माँगती, पंडित जी के पंचाँग से शगुन निकलवाती, रो-धोकर उपले-गुल बेचने फूटलाइज़र टाउनशिप निकल जाती। इतनी मेहनत पर मौसी टोकती तो माई का एक ही जवाब होता, 'एगो बेटा पंजाब में, इ रमुआ पढ़ लिए जे एकरा पंजाब नईं जाए पडैय।' <br />
<br />
भौजी के यहाँ से अक्सर पूछवाया जाता—कोई ख़बर मिली? माई को लगता—शादी टूट जाएगी। कोई कब तक जवान बेटी को घर बिठाए रखेगा। माई को लगता, बेटे का पता नहीं, पतोहू छूट रही है। कोशिश करती कि किसी तरह बिखरते घर को आँचल में समेटे रहे। <br />
<br />
'रमुआ से पुतोहू के बियाह के देबैई', माई से यह सुनते ही रामदेव शर्म से काठ हो गया था। भौजी की साँवली, निर्दोष, बड़ी-बड़ी आँखों वाला चेहरा उसके सामने घूम गया था। अशराफ़ के घर में ऐसा होगा? शादी के बाद भैया पंजाब से लौट आया तो? माई पागल है! <br />
<br />
लेकिन माई ने हारना नहीं सीखा था। जो कुछ बचा था, उसे छाती से चिपकाए रहना चाहती थी। एक चक्कर डाक बाबू के यहाँ लगा लेती। लोभ में बेटे को पंजाब भेज दिया, अब काहे को रोज़ चिट्ठी के लिए पूछती हो?' पोस्टमैन उसे झिड़क देता। <br />
<br />
माई का सूखा शरीर, पंडित जी का सूद, जनार्दन का मंसूबा, भौजी की उदासी, भाई के जीवन का संशय, रोज़ की किचकिच, माई का रुदन...रामदेव को लगता—घर पंजाब हो गया है। रात-रातभर सो नहीं पाता। पढ़ता-लिखता क्या ख़ाक! बस एक चीज़ क़ाबिज़ थी — पंजाब! <br />
<br />
ख़ून की तरह जमा शहर <br />
<br />
अमृतसर आते-आते बस में यात्रियों की बातचीत सुनते-सुनते मन में ऐसा डर बैठ गया कि वह बस से भी डरने लगा। <br />
<br />
बस से उतरते-उतरते फ़ैसला ले लिया—जो भी हो, जैसे-तैसे रात अमृतसर के बस अड्डे पर काट लेगा लेकिन बस से अटारी नहीं जाएगा। साढ़े छह बजे शाम से ही बस अड्डे पर हड़बोंग मची थी। सबको ऐसी जल्दी थी कि जैसे बाढ़ में बाँध टूट गया हो और सब जान बचाने के लिए भाग रहे हों। दुकानें फटाफट बंद हो रही थीं। ठेलेवाले अपनी दुकानें बढ़ा रहे थे। ख़ाली बसों के ड्राइवर-ख़लासी पास के ढाबों में जल्दी-जल्दी खाना खा रहे थे। ढाबे के मालिकों को भी जल्दी थी। इसलिए उनके नौकर भी रेस के घोड़ों की तरह हाँफ़ रहे थे। सबको एक ही डर था...सात बजे कर्फ़्यू लगने वाला था। <br />
<br />
रामदेव ने मूँगफली वाले का अक्षरश: अनुसरण किया। अपना सत्तू घोलकर पी गया और उसी के साथ लेट गया। मूँगफली वाला राँची का ईसाई आदिवासी था। तीन साल पहले घर से भागकर यहाँ आया था। चेहरे पर बढ़ी दाढ़ी और सिर पर गमछे के मुरैठा से उसके सरदार होने का भ्रम होता था। हँसता तो चमकीले दाँत मोतियों की तरह जगमगा उठते। निष्पाप आँखें छलछला आतीं। जेम्स 'अपने देस' के रामदेव जैसे आदमी से मिलकर ख़ुश हो गया था। दोनों गठरी की तरह कोने में दुबके थे। और भी बहुत गठरियाँ थीं। गुमसुम! <br />
<br />
कर्फ़्यू लग चुका था। <br />
<br />
चादर की ओट में रामदेव ने झाँककर देखा। बाहर सब कुछ थमा था। इंजन की तरह दहाड़ता बस अड्डा लाश की तरह ख़ामोश था। न पंछी, न हवा, न कोई पत्ता हरकत कर रहा था। चीख़ भी निकलती तो डर से बर्फ़ हो जाती। चलती गोली हवा में थम जाती। पृथ्वी का घूमना जैसे बंद हो गया था। साँसें बेआवाज़ चल रही थीं। मच्छर थे कि ग़लीज़ में बेफ़िक्री से भिनभिना रहे थे। <br />
<br />
सन्नाटे में ही वर्दीवालों से भरी एक जीप गुज़र गई। रामदेव को लगा कि गर्दन पर से कोई धारदार चाकू गुज़र गया। इधर में ऐसा ही होता है। 'जेम्स फुसफुसाया, 'चुप सो जाओ, पेशाब करने भी मत जाना।' रामदेव सोने की कोशिश करने लगा। दिन-भर की थकान के बावजूद उसे नींद नहीं आ रही थी। <br />
<br />
रात के कोई ग्यारह बजे बस अड्डे पर जैसे कहर टूट पड़ा। वर्दी वाले सबों को बूट की ठोकरों से जगा रहे थे। पचास सवाल। कहाँ से आए हो? क्या मतलब है? डर से कोई हकलाया तो लात, घूसे, बंदूक़ के कुंदे से ठुकाई। तीन नौजवान सरदारों को घसीटते हुए ले गए। बिहार का नाम सुनकर वे आगे बढ़ गए थे। रामदेव फिर भी थर-थर काँपता रहा। जेम्स फिर सो गया जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। लेकिन रामदेव के कानों में उन तीन नौजवानों की चीख़ ज़िद्दी मधुमक्खी की तरह भनभनाती रही। रफ़्ता-रफ़्ता सब चीज़ो की आदत हो जाती है। सो धीरे-धीरे शहर भी ख़ून की तरह जम गया। <br />
<br />
अग्गे पाकिस्तान है! <br />
<br />
स्टेशन पर टिकट लेकर बैठा तो उसे इत्मीनान आया। उसने अपनी जेब से मुड़ा-तुड़ा, बदरंग पोस्टकार्ड निकाला, और पता पढ़ने लगा—विशुनदेव, इंदर सिंह का फ़ार्म, गाँव रानीके, भाया अटारी, जिला अमृतसर (पंजाब)। पढ़कर उसने सामने बैठे बुज़ुर्ग सरदार की ओर बढ़ा दिया ताकि वे रानीके जाने का रास्ता बता दें। <br />
<br />
सरदार जी ने अफ़सोस में सिर हिलाया और कहने लगे, 'मैं हिंदी पढ़ना नहीं जानता। सारी उम्र उर्दू पढ़ी है। बस हिंदी समझ लेता हूँ। बता क्या है?' <br />
<br />
'मुझे रानीके अटारी गाँव जाना है। अनजान आदमी हूँ। बिहार से आया हूँ।' रामदेव का संकोच सरदार जी की आत्मीयता से घुल गया और उसने पूरा पता पढ़ लिया। <br />
<br />
'संतोख सिंह वाला रानीके? अग्गे अटारी स्टेशन आऊँगा, तू उत्थे उतर जाणा। बाहर टाँगेवाले नूँ पुच्छ लईं। तू तो मुंडा-खुंडा है, पजदा-पजदा दो मील चला जाएगा। अच्छा सुण, अंबरसर दे बाहर बुर्जावालियाँ दी बस जांदी ए, तू सीधा रानीके उतर जाणा सी। गां दे बाहर की संतोख सिंह दी दो मंज़िली कोठी नज़र आउगी। उत्थे पुच्छ लेणा। सामने इंदर सिंह दा फ़ार्म है।' <br />
<br />
रामदेव इतना ही समझ पाया कि अटारी स्टेशन से दो मील पर रानीके गाँव है। गाँव के बाहर संतोख सिंह की दो मंज़िली कोठी है। उसके सामने इंदर सिंह का फ़ार्म है। <br />
<br />
'एन्नी दुरो कल्ला किंदा आ गया? बिहार के हो कि यू.पी. के?' <br />
<br />
'बिहार। रानी के गाँव भाई को खोजने जा रहा हूँ।' <br />
<br />
'तेरी तो मूँछे भी नहीं फूटी हैं? पुत्तर हिम्मत ही इंसान दा नाम है।' <br />
<br />
गाड़ी रुकते ही 'अच्छा' कहकर बुज़ुर्ग उतर गए। रामदेव उन्हें जाते, खिड़की से देखता रहा। गाड़ी खिसकी तो टिकट-चेकर सामने था। <br />
<br />
'टिकट?' चेकर ने यांत्रिक लहजे में पूछा। <br />
<br />
'अटारी कितने स्टेशन है?' रामदेव टिकट थमाते हुए पूछ बैठा। <br />
<br />
'पहली बाराँ आया तू?' अगला स्टेशन है। उत्थे उतर जाणा, अग्गे पाकिस्तान है! चेकर टिकट पंच कर आगे बढ़ गया। <br />
<br />
रामदेव सन्न! कहाँ आ गया? पाकिस्तान! <br />
<br />
स्वेरे देखेंगे <br />
<br />
क्रीच...क्री... च। गाड़ी रुक गई। उतरकर स्टेशन के गेट की तरफ़ बढ़ा। बाहर निकलते ही ताँगेवाले ने उससे पूछा, 'पाकिस्तानी गाड़ी है जी? टेम तो उसी का है।' उसने भी पलटकर पूछ लिया, 'रानीके गाँव कौन-सी सड़क जाती है?' <br />
<br />
'सीधी सड़क जाती है... आगे भी पुच्छ लेणा।' <br />
<br />
सूरज सर पर चढ़ गया था। तेज़ चलने की वजह से वह पसीने-पसीने हो रहा था। पर मंज़िल पर पहुँचने की ख़ुशी ने उसे बेफ़िक्र कर दिया था। सड़क के किनारे गेहूँ के कटे, नंगे खेत थे। उसके गाँव की तरह ही थोड़ा तिरछा, औंधा, साफ़ आसमान था। हवा सोई हुई थी, गर्म बगूले सीधा उड़ते और सूखे पत्तों, धूल को ले उड़ते। सुनसान सड़क पर दूर-दूर तक कोई राही नहीं था। चारों तरफ़ तापमान का राज था। रामदेव का ध्यान भाई विशुनदेव की तरफ़ था। रोज़-रोज़ के कर्फ़्यू में चिट्ठी कैसे पहुँचती। भैया भी चिट्ठी का इंतिज़ार करता होगा। भैया उसे देखते ही लिपट जाएगा। वह भी आँसू नहीं रोक सकेगा। भैया तिल का लड्डू देखते ही खिल जाएगा। लेकिन भैया...उससे पहले खाने-पीने को पूछेगा। भैया घुमा-फिराकर भौजी के बारे में भी पूछेगा। वह भाई से जनार्दन से बदला लेने के लिए ज़रूर कहेगा... <br />
<br />
उसे सामने सड़क के किनारे दो मंज़िला मकान दिख गया। एक सरदार जी आगे-आगे जा रहे थे। उसने अपनी चाल तेज़ कर दी। <br />
<br />
'भाई साहब, इंदर सिंह का फ़ार्म किधर है?' उसने पास पहुँचकर पूछा। <br />
<br />
'किसनू मिलना? तू आया कित्थों?' सरदार जी ने ख़ुलासा ही पूछ लिया। पर रामदेव की समझ में ठीक से न आ पाया। <br />
<br />
'बिशुनदेव, बिहारी।' रामदेव अटपटाकर बोला। <br />
<br />
'बात तो पल्ले पैंदी नई, चल सरपंच सरूप को चल, उत्थे जाके गल करी?' सरदार जी ने उसे पीछे-पीछे आने का इशारा किया। <br />
<br />
परेशान रामदेव उनके पीछे-पीछे बढ़ता गया। कुछ दूर जाकर, पुरानी ईंटों वाले महलनुमा घर के सामने जाकर दोनों रुक गए। रास्ते में सरदार जी ने उसका नाम पूछ लिया, अपना नाम भी बता दिया — किरपाल सिंह। किरपाल सिंह ने आवाज़ दी। <br />
<br />
'सरपंच जी, सरपंच जी, थल्ले आओ! एक परदेशी बंदा आया सी!' कुर्ता-पजामा पहने एक लंबा-तगड़ा गोरा-चिट्टा आदमी बाहर आया। उसके चेहरे पर हल्की नुकीली काली पूँछे सज रही थीं। किरपाल सिंह को देखकर मुस्कुराया और उसका हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचने लगा। <br />
<br />
'किरपाल्या, ऐ बंदा कोनी? इनु कित्थों फड़के ले आया?' <br />
<br />
'सरपंच जी, मैं कित्थों ले आऊगा?' ए बंदा किसी दी खोज विच आया सी। हिंदी बोल्दा सी, तुसी समझ लो! गल-बात कर लो!' <br />
<br />
सरपंच सरूप रामदेव की ओर मुड़ा, उसे गहरी नज़रों से देखा। <br />
<br />
'काका, क्या बात है?' <br />
<br />
'मेरा भाई विशुनदेव इंदर सिंह के फ़ार्म पर काम करता है, बहुत दूर बिहार से आया हूँ। ये चिट्ठी है।' रामदेव ने कार्ड सरपंच सरूप के हाथ में थमा दिया। सरपंच सरूप ने पोस्टकार्ड उलट-पुलटकर पढ़ा और रामदेव को वापस थमाते हुए बोला, 'पता तो ठीक है।' <br />
<br />
'किरपाल्या, देख पाई दी खिंच एन्नी दूर ले आई... अरे याद आया सी। एक बिहारी मुडा इंदर दे फ़ार्म ते देख्या सी... चल तुझे इंदर सिंह के पास ले चलता हूँ।' सरपंच सरूप आगे बढ़ा। <br />
<br />
रामदेव उसके पीछे चला। किरपाल सिंह 'अच्छा' कहकर अपनी राह चला गया। तेज़ धूप में चलते दोनों पास ही इंदर सिंह के फ़ार्म पर पहुँचे। <br />
<br />
'स-सिरी अकाल जी!' एक महिला ने शालीनता से कहा। <br />
<br />
सरपंच ने सिर हिलाया। <br />
<br />
'स-सिरी अकाल! इंदर सिंह कहाँ गया?' <br />
<br />
'वो तो कल सवेरे आएँगे जी। अंबरसर में कुछ काम था।' <br />
<br />
'ये मुंडा अपने भाई से मिलने आया है। इसका भाई तेरे फ़ार्म दा काम करता है... क्या नाम बताया?' <br />
<br />
'विशुनदेव, 'रामदेव ने साफ़-साफ़ लहजे में कहा। उसके चेहरे से उत्सुकता का लावा जैसे फूट पड़ना चाहता था। महिला ने उसे ग़ौर से देखा। <br />
<br />
विशुनदेव! इस नाम का एक भैया तो था जी, तीन महीने पहले कपूरथले लौट गया। पिछले साल उसे हम अपने मामा जी के पास से लाए थे... इस साल भी बिहार से आया, पर बोलता था—दिल नईं लगता, तीन महीने पहले कपूरथले लौट गया।' <br />
<br />
सरपंच सरूप ने रामदेव की ओर देखा। उसे लगा कि अब रामदेव रो देगा। <br />
<br />
'देख मनजीत कौर!' सरपंच सरूप ने आजिजी से कहा, 'लड़का बिहार से आया है, परेशान है... इसके पास तेरा ही पता है।' <br />
<br />
'सरदार जी के आने पर बात कर लेणा जी, ज़ियादा वही बतलाएँगे!' कहकर मनजीत कौर मुड़ गई। <br />
<br />
चल मुंड्या! मेरे यहाँ ही रोटी-पानी कर लेना। स्वेरे देखेंगे!' बाँसुरी क्या बोलती है? <br />
<br />
रात धमक आई थी। दालान में किरपाल सिंह और सरपंच सरूप बातें कर रहे थे। घूम-फिरकर बात पंजाब के हालात पर ही चलती। अख़बार, रेडियो के हवाले अफ़वाहों का विश्लेषण चल रहा था। <br />
<br />
दालान के किनारे वाले तख़्त पर चादर से मुँह ढंके लेटा, रामदेव के सामने विशुनदेव का चेहरा बार-बार कौंध रहा था। उसे रह-रहकर रुलाई आ रही थी। सरदारनी पहले तो अच्छे से बोली पर विशुनदेव का ज़िक्र आते ही साफ़ मुकर गई—सरदार जी से बात कर लेना। अगर विशुनदेव तीन महीने पहले कपूरथले चला गया तो वहाँ से चिट्ठी ज़रूर लिखता। जेल में भी होता तो वहीं से लिखता। दो सौ रुपए में वह अपने भाई को कहाँ-कहाँ खोज पाएगा? कहीं भैया...आख़िर रुलाई फूट पड़ी। हिचकियाँ, नाक से बहते पानी और खाँसी ने भेद खोल दिया। <br />
<br />
किरपाल सिंह लपका और रामदेव को झकझोरकर पूछने लगा, 'ए मुंड्या, ए मुंड्या... सरपंच जी देखो! <br />
<br />
सरपंच सरूप भाँप गया। वह उठकर रामदेव के पास आया और दिलासा देने लगा, देख भाई, कल इंदर सिंह से साफ़-साफ़ तेरे भाई का पता पूछ लेंगे। रुपए-पैसे की ज़रूरत हुई तो दे देंगे! तू कपूरथले जाकर भाई से मिल लेना। क्यों किरपाल सिंह?' <br />
<br />
'हंजी, मुंडे नू मदद ज़रूर करनी चाहिए। जे ग्रीब लोग हैं...' <br />
<br />
कब रात गुज़र गई, सोचते-सोचते रामदेव को पता ही नहीं चला। <br />
<br />
सरपंच सरूप को देखते ही इंदर सिंह चिल्लाया, 'आओ महाराज! मनजीत कौर कह रही थी उस बिहारी मुंडे के बारे में। मैं अंबरसर चला गया था। दोनों पुत्तरों पर दिल लगा रहता है। रात जाकर टेलीफ़ोन से बात हुई। जी को चैन आया। स्वेरे वहाँ से चला। बस समझो अभी आ ही रहा हूँ... मैं भी मूरख! चलो अंदर बैठते हैं... कुछ चाय-साय भिजवाना, कह कर इंदर सिंह शुरू हो गया, 'हंजी, लड़का बड़ा भला था। पिछले साल भी मेरे पास था। इस साल आया तो उखड़ा-उखड़ा रहता था। दिल नहीं लगता था। टिक नहीं पाया। चल दिया। कपूरथले मनजीत के मामा के यहाँ गया होगा। ऐसा ही बोल रहा था। दो महीने हो गए... अब आप कहो तो इस मुंडे को ख़र्चा-पानी दे दूँ।' <br />
<br />
इंदर सिंह की वाचालता से सरपंच सरूप शक में पड़ गया। कल मनजीत कौर कह रही थी, लड़के को गए तीन महीने हुए। यह कहता है दो महीने हुए। और यह ख़र्चा-पानी क्यों देना चाहता है? <br />
<br />
'इंदर सिंह, लड़का ज़िंदा है या नहीं?' सरपंच ने सधी आवाज़ में पूछा। <br />
<br />
इंदर सिंह के चेहरे पर जैसे स्याही पुत गई। रामदेव का जी धक्क! इंदर सिंह जबरन अपने चेहरे पर कांइयाँ मुस्कुराहट लाता बोला, 'मरने की बात कहाँ से आ गई?'...लड़का ज़रूर ज़िंदा होगा जी। कपूरथले होगा या और कहीं चला गया होगा! भैया लोगों का क्या ठिकाना? आज यहाँ काम किया, कल वहाँ...' <br />
<br />
सरपंच सरूप के पीछे खड़ा रामदेव सिसकियाँ लेने लगा। मनजीत कौर चाय की ट्रे लेकर कमरे में घुसी। रामदेव को रोता देखकर, पल-भर के लिए ठिठक गई। मनजीत कौर ने गहरी नजरों से पति को देखा और उसके होंठ भिंच गए। यंत्रवत ट्रे को सेंटर टेबल पर रख, तेज़ी से मुड़कर अंदर चली गई। <br />
<br />
सरपंच को साफ़ लगा कि इंदर सिंह झूठ बोल रहा है। मनजीत कौर भी छिपा रही थी। ऐसे झूठ बोलने की ज़रूरत क्या है? विशुनदेव ज़िंदा नहीं है। सरपंच की आत्मा पर ठक से हथौड़े जैसी चोट लगी, वह ग़ुस्से से तिलमिला उठा। <br />
<br />
'साफ़ बता इंदर सिंह, विशुनदेव ज़िंदा है या नहीं? ज़िंदा है तो उसका पता दे!' <br />
<br />
'कह तो दिया, वह यहाँ से चला गया। ज़िंदा ही होगा।' <br />
<br />
'इस लड़के पर रहम कर। इतनी दूर से आया है। झूठ बोलने से क्या फ़ायदा?' <br />
<br />
'ओय सरूपे, तू मुझे झूठा कहेगा?' इंदर सिंह भड़क उठा, ‘सरपंच से हार गया तब भी अकड़ नहीं गई। तू होता कौन है जो मुझसे पूछने चला आया? मैं तुझे कुछ नहीं बताऊँगा! बड़ा आया है लड़के की तरफ़दारी करने वाला!' <br />
<br />
सरूप अवाक! रामदेव बुक्का मारकर रो पड़ा। अचानक रामदेव उठा और इंदर सिंह के पाँव पर गिर पड़ा! <br />
<br />
'मालिक!' रोता रामदेव चीख़ने लगा, ‘बता दीजिए मालिक, मेरा भैया कहाँ हैं?... बहुत उपकार होगा मालिक! बता दीजिए मालिक... मालिक...' <br />
<br />
'तू पत्थर है...इंदर सिंह!' सरपंच सरूप घृणा से उफन उठा, लंबा-चौड़ा फ़ार्म, इतना पैसा, पर इंसानियत ज़रा भी नहीं... परदेशी की तू मदद नहीं कर सकता...ख़ैर चल मुंडे!' <br />
<br />
सरपंच सरूप उठ खड़ा आगे बढ़कर रामदेव को झकझोरकर उठाया। <br />
<br />
'भाई साहब, रुकना!' <br />
<br />
अंदर से मनजीत कौर की तेज़ आवाज़ आई। दरवाज़े से ही मनजीत कौर ने एक झोला सपरंच के पाँव के पास फेंका! उफनती मनजीत कौर पर जैसे दौरा पड़ गया हो! <br />
<br />
'ये विशुनदेव का सामान है... वह दुनिया में नहीं है!' कहते-कहते मनजीत कौर फूट-फूटकर रोने लगी। हिचकियों के बीच उसने कहा, 'मुझसे बोलकर गया था कि अंबरसर से घरवालों के लिए कपड़े लेने जा रहा हूँ, देस जाना है। अंबरसर से लौटकर आता तो यहाँ से पैसे लेकर जाता... तीन बजे दिन में गया। बस बिगड़ने से शाम हो गई। छेड़हट्टा के पास रोककर मार-काट हुई... उसी में...' <br />
<br />
गूँगे रामदेव की आँखों से आँसू लुढ़क रहे थे। सरपंच सरूप मनजीत कौर की बात सुनकर स्तब्ध था और अपराधी की तरह इंदर सिंह की आँखें फ़र्श में गड़ी हुई थीं। <br />
<br />
'मैं तीन दिनों तक रोती रही... मेरे भी बेटे हैं... ये फँस जाने के डर से बात छिपा रहे थे। कल रात-भर हम दोनों झगड़ते रहे—छिपाना क्या, वह भी किसी का बेटा है, भाई है... कल मैं भी झूठ बोली...हमें माफ़ करो सरपंच जी!' मनजीत कौर के अंदर बैठी माँ ने उफान मारा। उसने आगे बढ़कर रामदेव को छाती से लगा लिया। अपनी ओढ़नी से उसके आँसू पोंछने लगी। <br />
<br />
बीच में पड़े विशुनदेव के झोले से उसकी बाँसुरी झाँक रही थी। सब चुप थे। आँसू की तरह बाँसुरी भी जैसे कुछ बोल रही थी। बाँसुरी क्या बोल रही थी, कोई समझ नहीं पाया... <br />
<br />
तू यहाँ कब तक भुगतता रहेगा? <br />
<br />
देर तक उस दिन नहर के किनारे बैठा रहा। नहर का कलकल पानी, आज़ाद हवा... सब बेकार! सरपंच के घर की तरफ़ चल पड़ा। कल उसे रुपए मिल जाएँगे — दो हज़ार। सरपंच साहब उसे अमृतसर में दिल्ली वाली बस में बिठा देंगे। अमृतसर के लिए आज उनको याद दिला देनी चाहिए। वह सोचता आगे बढ़ा जा रहा था कि फ़ौज की तीन जीपें गुज़रीं। लाउड स्पीकर से पंजाबी में कुछ घोषणा की जा रही थी। थोड़ी दूर और गया कि और तीन जीपें गुज़री। रामदेव घबरा गया। जल्दी-जल्दी सरपंच के घर की ओर बढ़ने लगा। <br />
<br />
सरपंच के घर के पास पहुँचकर वह हाँफ़ रहा था। <br />
<br />
'सरपंच साहब, पाकिस्तानी फ़ौज घुस आई क्या?' <br />
<br />
'नहीं, काका,' सरपंच सरूप ने लंबी साँस ली, 'अपनी फ़ौज है... यह बहुत बुरा हुआ!' <br />
<br />
'क्यों?' रामदेव ने हौले से पूछा। <br />
<br />
'तुम क्या समझो? हम बॉर्डर के लोग समझते हैं! फ़ौज आती है, जाती है... पर जो ख़लिश छोड़ जाती है, उसका कोई इलाज नहीं,...चल इंदर सिंह के पास चलते हैं!' <br />
<br />
फँसे रामदेव के लिए कोई उपाय नहीं था। टी.वी. पर जालंधर, लाहौर की ख़बरें सुनते-देखते रहो। कुछ मालूम नहीं, कहाँ क्या हो रहा है। पूरे पंजाब को जैसे सुनबहरी हो गया हो। वाघा, अटारी जैसे फ़ौजी छावनी बनी थीं। घरों में चीख़ डर से दुबकी पड़ी थी। हवा की भी तलाशी चल रही थी। घृणा के अंधड़ में मौन ही पत्तियों की भाषा थी। परिंदे की तरह अफ़वाहें उड़तीं। मौत की ख़बर चीख़ भी नहीं बन सकती थी। लोग कबूतरों की तरह दुबके रहते। रात भी जगी रहती। हरी वर्दी में लोग सन्नाटे को कुचलते रहते। <br />
<br />
तलाशियों ने मालकिन को तोड़ दिया था। इंदर सिंह टी.वी. के पास बैठे रहते। बीच-बीच में रेडियो पर भी ख़बरें सुनते। रामदेव रसोई में जाकर मालकिन की मदद कर देता। रोना एक सिलसिला बन गया था। सरपंच जी ढांढ़स देने आए। <br />
<br />
'किरपाल का भाई अंबरसर में सेवादार था... किरपाल सब्र कर सकता है! दिल्ली में सब ठीक-ठाक है, आख़िर राजधानी है। तू नाहक़ परेशान है, मनजीत कौर! हिम्मत रख!' <br />
<br />
'कैसे चुप हो जाऊँ! एक फूल टूटता है तो हर पत्ता रोएगा... उस पार के गोले दगते थे तो हमारे में जोश होता था। अब तो इधर से ही...कोई इस बार उन्हें बेटों की तरह कलेजे में क्यों नहीं लगाता?... जिनको देख हिम्मत होती थी, वही हमें डराते हैं। बस अब तो वाहे गुरु का आसरा है!' रामदेव को रोती-कलपती मनजीत कौर माई की तरह लगी। दिल्ली में बसे उनके दोनों बेटों का क्या हुआ होगा? <br />
<br />
तूफ़ान की तरह गुज़रे वे दिन। बारह दिन बाद कर्फ़्यू खुला तो आशंका की तेज़ बयार थी। किसका, कौन मरा, कहाँ चला गया? आख़िर इंदर सिंह ने कहा, 'अंबरसर जाना है, तू यहाँ कब तक भुगतता रहेगा?' <br />
<br />
सफ़र तमाम नहीं... <br />
<br />
मलवे के शहर अमृतसर में आतंक का तना हुआ छाता था। आँखों के दिए बुझे-बुझे थे। मरघट-सा सन्नाटा। बस की आरामदेह सीट पर बैठा रामदेव खिड़की से चेहरा सटाए देख रहा था। इंदर सिंह और सरपंच सरूप नीचे खड़े थे। हचके के साथ बस आगे बढ़ी। रामदेव ने झट हाथ जोड़ दिए। <br />
<br />
उनके ओझल होते ही उसने लंबी साँस ली। आँखें बंद करते ही जैसे माई सामने खड़ी हो गई। वह झूठ बोलना चाहता है—भैया का पता नहीं चला। पर दो हज़ार का रुपए क्या करेगा! गोद में पड़ा विशुनदेव का झोला भारी लगने लगा। बाँसुरी झोले से बाहर झाँक रही थी। विशुनदेव का चेहरा उसके सामने घूम गया। अचानक उसका माथा घूमने लगा—आँसुओं में तब मनजीत कौर का चेहरा, किरपाल सिंह, इंदर सिंह का झुर्रियों की तरह लटकता चेहरा सामने आता और ओझल हो जाता...फिर दहाड़ मारकर रोती माई...बिस्तर पर मुँह देकर रोती भौजी... <br />
<br />
उसे ज़ोर से कंपकंपी आई। रोम-रोम खरखरा उठा। 'नहीं!' वह धीरे से बुदबुदाया। आगे की सीट का हैंडिल उसने मज़बूती से पकड़ लिया। गुर्राती बस आगे बढ़ती गई। आगे बढ़ना ही था, भैया एक्सप्रेस का सफ़र तमाम नहीं हुआ था।</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%85%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%A3_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B6&diff=43721अरुण प्रकाश2023-08-03T18:37:04Z<p>अनिल जनविजय: /* कहानियाँ */</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=Arunprakash.jpg<br />
|नाम=अरुण प्रकाश<br />
|उपनाम=--<br />
|जन्म=18 जुलाई 1948<br />
|मृत्यु=18 जून 2012<br />
|जन्मस्थान=बेगूसराय, बिहार <br />
|कृतियाँ=भैया एक्सप्रेस, जलप्रांतर, मंझधार किनारे, लाखों के बोल सहे, विषम राग (सभी कहानी-संग्रह) कोंपल कथा (उपन्यास) रात के बारे में (कविता-संग्रह)<br />
|विविध=हिन्दी अकादमी, दिल्ली का साहित्यकार सम्मान और कृति पुरस्कार, बिहार सरकार का रेणु पुरस्कार, दिनकर सम्मान, सुभाष चन्द्र बोस कथा-सम्मान और कृष्ण प्रताप स्मृति कथा पुरस्कार।<br />
|जीवनी=[[अरुण प्रकाश / परिचय]]<br />
}}<br />
{{GKCatBihar}}<br />
===कहानियाँ===<br />
* [[नहान / अरुण प्रकाश]]<br />
* [[भासा / अरूण प्रकाश]]<br />
* [[जल-प्रांतर / अरूण प्रकाश]]<br />
* [[भैया एक्सप्रेस / अरूण प्रकाश]]<br />
<br />
===संचयन===<br />
* [[चयनम् / अरुण प्रकाश]]<br />
* [[हम इक उम्र से वाकिफ़ है / अरुण प्रकाश]]<br />
* [[डायरी लेखन- एक तरल विधा / अरुण प्रकाश]]</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%BE_%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A4%AC%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE_/_%E0%A4%95%E0%A4%AE%E0%A4%B2%E0%A5%87%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B0&diff=43720राजा निरबंसिया / कमलेश्वर2023-08-03T18:31:37Z<p>अनिल जनविजय: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=कमलेश्वर |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatKahani}} '...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=कमलेश्वर<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
''एक राजा निरबंसिया थे,'' माँ कहानी सुनाया करती थीं। उनके आसपास ही चार-पाँच बच्चे अपनी मुठ्ठियों में फूल दबाए कहानी समाप्त होने पर गौरों पर चढ़ाने के लिए उत्सुक-से बैठ जाते थे। आटे का सुंदर-सा चौक पुरा होता, उसी चौक पर मिट्टी की छः ग़ौरें रखी जातीं, जिनमें से ऊपरवाली के बिंदिया और सिंदूर लगता, बाकी पाँचों नीचे दबी पूजा ग्रहण करती रहतीं। एक ओर दीपक की बाती स्थिर-सी जलती रहती और मंगल-घट रखा रहता, जिस पर रोली से सथिया बनाया जाता। सभी बैठे बच्चों के मुख पर फूल चढ़ाने की उतावली की जगह कहानी सुनने की सहज स्थिरता उभर आती। <br />
<br />
''एक राजा निरबंसिया थे,'' माँ सुनाया करती थीं, ''उनके राज में बड़ी ख़ुशहाली थी। सब वरण के लोग अपना-अपना काम-काज देखते थे। कोई दुखी नहीं दिखाई पड़ता था। राजा के एक लक्ष्मी-सी रानी थी, चंद्रमा-सी सुंदर और राजा को बहुत प्यारी। राजा राज-काज देखते और सुख-से रानी के महल में रहते।'' <br />
<br />
मेरे सामने मेरे ख़यालों का राजा था, राजा जगपती! तब जगपती से मेरी दाँतकाटी दोस्ती थी, दोनों मिडिल स्कूल में पढ़ने जाते। दोनों एक-से घर के थे, इसलिए बराबरी की निभती थी। मैं मैट्रिक पास करके एक स्कूल में नौकर हो गया और जगपती क़स्बे के ही वकील के यहाँ मुहर्रिर। जिस साल जगपती मुहर्रिर हुआ, उसी वर्ष पास के गाँव में उसकी शादी हुई, पर ऐसी हुई कि लोगों ने तमाशा बना देना चाहा। लड़कीवालों का कुछ विश्वास था कि शादी के बाद लड़की की विदा नहीं होगी। <br />
<br />
ब्याह हो जाएगा और सातवीं भांवर तब पड़ेगी, जब पहली विदा की सायत होगी और तभी लड़की अपनी ससुराल जाएगी। जगपती की पत्नी थोड़ी-बहुत पढ़ी-लिखी थी, पर घर की लीक को कौन मेटे! बारात बिना बहू के वापस आ गई और लड़केवालों ने तय कर लिया कि अब जगपती की शादी कहीं और कर दी जाएगी, चाहें कानी-लूली से हो, पर वह लड़की अब घर में नहीं आएगी। लेकिन साल ख़त्म होते-होते सब ठीक-ठाक हो गया। लड़कीवालों ने माफ़ी माँग ली और जगपती की पत्नी अपनी ससुराल आ गई। <br />
<br />
जगपती को जैसे सब कुछ मिल गया और सास ने बहू की बलाइयाँ लेकर घर की सब चाबियाँ सौंप दीं, गृहस्थी का ढंग-बार समझा दिया। जगपती की माँ न जाने कब से आस लगाए बैठीं थीं। उन्होंने आराम की साँस ली। पूजा-पाठ में समय कटने लगा, दोपहरियाँ दूसरे घरों के आँगन में बीतने लगीं। पर साँस का रोग था उन्हें, सो एक दिन उन्होंने अपनी अंतिम घड़ियाँ गिनते हुए चंदा को पास बुलाकर समझाया था—''बेटा, जगपती बड़े लाड-प्यार का पला है। जब से तुम्हारे ससुर नहीं रहे तब से इसके छोटे-छोटे हठ को पूरा करती रही हूँ, अब तुम ध्यान रखना।'' फिर रुककर उन्होंने कहा था, ''जगपती किसी लायक़ हुआ है, तो रिश्तेदारों की आँखों में करकने लगा है। तुम्हारे बाप ने ब्याह के वक़्त नादानी की, जो तुम्हें विदा नहीं किया। मेरे दुश्मन देवर-जेठों को मौक़ा मिल गया। तूमार खड़ा कर दिया कि अब विदा करवाना नाक कटवाना है। जगपती का ब्याह क्या हुआ, उन लोगों की छाती पर साँप लोट गया। सोचा, घर की इज़्ज़त रखने की आड़ लेकर रंग में भंग कर दें। अब बेटा, इस घर की लाज तुम्हारी लाज है। आज को तुम्हारे ससुर होते, तो भला...'' कहते कहते माँ की आँखों में आँसू आ गए, और वे जगपती की देखभाल उसे सौंपकर सदा के लिए मौन हो गई थीं। <br />
<br />
एक अरमान उनके साथ ही चला गया कि जगपती की संतान को, चार बरस इंतिज़ार करने के बाद भी वे गोद में न खिला पाईं। और चंदा ने मन में सब्र कर लिया था, यही सोचकर कि कुल-देवता का अंश तो उसे जीवन-भर पूजने को मिल गया था। घर में चारों तरफ़ जैसे उदारता बिखरी रहती, अपनापा बरसता रहता। उसे लगता, जैसे घर की अंधेरी, एकांत कोठरियों में यह शांत शीतलता है जो उसे भरमा लेती है। घर की सब कुण्डियों की खनक उसके कानों में बस गई थी, हर दरवाज़े की चरमराहट पहचान बन गई थीं। <br />
<br />
''एक रोज़ राजा आखेट को गए,'' माँ सुनाती थीं, ''राजा आखेट को जाते थे, तो सातवें रोज़ ज़रूर महल में लौट आते थे। पर उस दफ़ा जब गए, तो सातवाँ दिन निकल गया, पर राजा नहीं लौटे। रानी को बड़ी चिंता हुई। रानी एक मंत्री को साथ लेकर खोज में निकलीं।'' <br />
<br />
और इसी बीच जगपती को रिश्तेदारी की एक शादी में जाना पड़ा। उसके दूर रिश्ते के भाई दयाराम की शादी थी। कह गया था कि दसवें दिन ज़रूर वापस आ जाएगा। पर छठे दिन ही ख़बर मिली कि बारात घर लौटने पर दयाराम के घर डाका पड़ गया। किसी मुख़बिर ने सारी ख़बरें पहुँचा दी थीं कि लड़कीवालों ने दयाराम का घर सोने-चांदी से पाट दिया है, आख़िर पुश्तैनी ज़मींदार की इकलौती लड़की थी। घर आए मेहमान लगभग विदा हो चुके थे। दूसरे रोज़ जगपती भी चलनेवाला था, पर उसी रात डाका पड़ा। जवान आदमी, भला ख़ून मानता है! डाकेवालों ने जब बंदूक़ें चलाई, तो सबकी घिग्घी बंध गई पर जगपती और दयाराम ने छाती ठोककर लाठियाँ उठा लीं। घर में कोहराम मच गया फिर सन्नाटा छा गया। डाकेवाले बराबर गोलियाँ दाग़ रहे थे। बाहर का दरवाज़ा टूट चुका था। पर जगपती ने हिम्मत बढ़ाते हुए हाँक लगाई, ''ये हवाई बंदूक़ें इन ठेल-पिलाई लाठियों का मुक़ाबला नहीं कर पाएँगी, जवानो।'' <br />
<br />
पर दरवाज़े तड़-तड़ टूटते रहे, और अंत में एक गोली जगपती की जाँघ को पार करती निकल गई, दूसरी उसकी जाँघ के ऊपर कूल्हे में समा कर रह गई। <br />
<br />
चंदा रोती-कलपती और मनौतियाँ मानती जब वहाँ पहुँची, तो जगपती अस्पताल में था। दयाराम के थोड़ी चोट आई थी। उसे अस्पताल से छुट्टी मिल गई थीं। जगपती की देखभाल के लिए वहीं अस्पताल में मरीज़ों के रिश्तेदारों के लिए जो कोठरियाँ बनीं थीं, उन्हीं में चंदा को रुकना पड़ा। क़स्बे के अस्पताल से दयाराम का गाँव चार कोस पड़ता था। दूसरे-तीसरे वहाँ से आदमी आते-जाते रहते, जिस सामान की ज़रूरत होती, पहुँचा जाते। <br />
<br />
पर धीरे-धीरे उन लोगों ने भी ख़बर लेना छोड़ दिया। एक दिन में ठीक होनेवाला घाव तो था नहीं। जाँघ की हड्डी चटख गई थी और कूल्हे में ऑपरेशन से छः इंच गहरा घाव था। <br />
<br />
क़स्बे का अस्पताल था। कम्पाउंडर ही मरीज़ों की देखभाल रखते। बड़ा डॉक्टर तो नाम के लिए था या क़स्बे के बड़े आदमियों के लिए। छोटे लोगों के लिए तो कम्पोटर साहब ही ईश्वर के अवतार थे। मरीज़ों की देखभाल करनेवाले रिश्तेदारों की खाने-पीने की मुश्किलों से लेकर मरीज़ की नब्ज़ तक संभालते थे। छोटी-सी इमारत में अस्पताल आबाद था। रोगियों को सिर्फ़ छः-सात खाटें थी। मरीज़ों के कमरे से लगा दवा बनाने का कमरा था, उसी में एक ओर एक आरामकुर्सी थी और एक नीची-सी मेज़। उसी कुर्सी पर बड़ा डॉक्टर आकर कभी-कभार बैठता था, नहीं तो बचनसिंह कपाउंडर ही जमे रहते। अस्पताल में या तो फ़ौजदारी के शहीद आते या गिर-गिरा के हाथ-पैर तोड़ लेनेवाले एक-आध लोग। छठे-छमासे कोई औरत दिख गई तो दीख गई, जैसे उन्हें कभी रोग घेरता ही नहीं था। कभी कोई बीमार पड़ती तो घरवाले हाल बताके आठ-दस रोज़ क़ी दवा एक साथ ले जाते और फिर उसके जीने-मरने की ख़बर तक न मिलती। <br />
<br />
उस दिन बचनसिंह जगपती के घाव की पट्टी बदलने आया। उसके आने में और पट्टी खोलने में कुछ ऐसी लापरवाही थी, जैसे ग़लत बंधी पगड़ी को ठीक से बांधने के लिए खोल रहा हो। चंदा उसकी कुर्सी के पास ही साँस रोके खड़ी थी। वह और रोगियों से बात करता जा रहा था। इधर मिनट-भर को देखता, फिर जैसे अभ्यस्त-से उसके हाथ अपना काम करने लगते। पट्टी एक जगह ख़ून से चिपक गई थी, जगपती बुरी तरह कराह उठा। चंदा के मुँह से चीख़ निकल गई। बचनसिंह ने सतर्क होकर देखा तो चंदा मुख में धोती का पल्ला खोंसे अपनी भयातुर आवाज़ दबाने की चेष्टा कर रही थी। जगपती एकबारगी मछली-सा तड़पकर रह गया। बचनसिंह की उंगलियाँ थोड़ी-सी थरथराई कि उसकी बाँह पर टप-से चंदा का आँसू चू पड़ा। <br />
<br />
बचनसिंह सिहर-सा गया और उसके हाथों की अभ्यस्त निठुराई को जैसे किसी मानवीय कोमलता ने धीरे-से छू दिया। आहों, कराहों, दर्द-भरी चीख़ों और चटखते शरीर के जिस वातावरण में रहते हुए भी वह बिल्कुल अलग रहता था, फोड़ों को पके आम-सा दबा देता था, खाल को आलू-सा छील देता था। उसके मन से जिस दर्द का अहसास उठ गया था, वह उसे आज फिर हुआ और वह बच्चे की तरह फूँक-फूँककर पट्टी को नम करके खोलने लगा। चंदा की ओर धीरे-से निगाह उठाकर देखते हुए फुसफुसाया, ''च..च रोगी की हिम्मत टूट जाती है ऐसे।'' <br />
<br />
पर जैसे यह कहते-कहते उसका मन ख़ुद अपनी बात से उचंट गया। यह बेपरवाही तो चीख़ और कराहों की एकरसता से उसे मिली थी, रोगी की हिम्मत बढ़ाने की कर्तव्यनिष्ठा से नहीं। जब तक वह घाव की मरहम-पट्टी करता रहा, तब तक किन्हीं दो आँखों की करूणा उसे घेरे रही। <br />
<br />
और हाथ धोते समय वह चंदा की उन चूड़ियों से भरी कलाइयों को बेझिझक देखता रहा, जो अपनी ख़ुशी उससे माँग रही थीं। चंदा पानी डालती जा रही थी और बचनसिंह हाथ धोते-धोते उसकी कलाइयों, हथेलियों और पैरों को देखता जा रहा था। दवाख़ाने की ओर जाते हुए उसने चंदा को हाथ के इशारे से बुलाकर कहा, ''दिल छोटा मत करना जाँघ का घाव तो दस रोज़ में भर जाएगा, कूल्हे का घाव कुछ दिन ज़रूर लेगा। अच्छी से अच्छी दवाई दूँगा। दवाइयाँ तो ऐसी हैं कि मुर्दे को चंगा कर दें। पर हमारे अस्पताल में नहीं आतीं, फिर भी..'' <br />
<br />
''तो किसी दूसरे अस्पताल से नहीं आ सकतीं वो दवाइयाँ?'' चंदा ने पूछा। <br />
<br />
''आ तो सकती हैं, पर मरीज़ को अपना पैसा खरचना पड़ता है उनमें। ''बचनसिंह ने कहा। <br />
<br />
चंदा चुप रह गई तो बचनसिंह के मुँह से अनायास ही निकल पड़ा, ''किसी चीज़ क़ी ज़रूरत हो तो मुझे बताना। रही दवाइयाँ, सो कहीं न कहीं से इंतिज़ाम करके ला दूँगा। महकमे से मँगाएँगे, तो आते-अवाते महीनों लग जाएँगे। शहर के डॉक्टर से मँगवा दूँगा। ताक़त की दवाइयों की बड़ी ज़रूरत है उन्हें। अच्छा, देखा जाएगा।'' कहते-कहते वह रुक गया। <br />
<br />
चंदा से कृतज्ञता भरी नज़रों से उसे देखा और उसे लगा जैसे आँधी में उडते पत्ते को कोई अटकाव मिल गया हो। आकर वह जगपती की खाट से लगकर बैठ गई। उसकी हथेली लेकर वह सहलाती रही। नाख़ूनों को अपने पोरों से दबाती रही। <br />
<br />
धीरे-धीरे बाहर अँधेरा बढ़ चला। बचनसिंह तेल की एक लालटेन लाकर मरीज़ों के कमरे के एक कोने में रख गया। चंदा ने जगपती की कलाई दबाते-दबाते धीरे से कहा, ''कम्पाउंडर साहब कह रहे थे'' और इतना कहकर वह जगपती का ध्यान आकृष्ट करने के लिए चुप हो गई। <br />
<br />
''क्या कह रहे थे?'' जगपती ने अनमने स्वर में बोला। <br />
<br />
''कुछ ताक़त की दवाइयाँ तुम्हारे लिए ज़रूरी हैं!'' <br />
<br />
''मैं जानता हूँ।'' <br />
<br />
''पर...'' <br />
<br />
''देखो चंदा, चादर के बराबर ही पैर फैलाए जा सकते हैं। हमारी औक़ात इन दवाइयों की नहीं है। <br />
<br />
''औक़ात आदमी की देखी जाती है कि पैसे की, तुम तो...'' <br />
<br />
''देखा जाएगा।'' <br />
<br />
''कंपाउंडर साहब इंतिज़ाम कर देंगे, उनसे कहूँगी मैं।'' <br />
<br />
''नहीं चंदा, उधारखाते से मेरा इलाज नहीं होगा चाहे एक के चार दिन लग जाएँ।'' <br />
<br />
''इसमें तो'' <br />
<br />
''तुम नहीं जानतीं, क़र्ज़ कोढ का रोग होता है, एक बार लगने से तन तो ग़लता ही है, मन भी रोगी हो जाता है।'' <br />
<br />
''लेकिन...'' कहते-कहते वह रुक गई। <br />
<br />
जगपती अपनी बात की टेक रखने के लिए दूसरी ओर मुँह घुमाकर लेटा रहा। <br />
<br />
और तीसरे रोज़ जगपती के सिरहाने कई ताक़त की दवाइयाँ रखी थीं, और चंदा की ठहरने वाली कोठरी में उसके लेटने के लिए एक खाट भी पहुँच गई थी। चंदा जब आई, तो जगपती के चेहरे पर मानसिक पीड़ा की असंख्य रेखाएँ उभरी थीं, जैसे वह अपनी बीमारी से लड़ने के अलावा स्वयं अपनी आत्मा से भी लड़ रहा हो। चंदा की नादानी और स्नेह से भी उलझ रहा हो और सबसे ऊपर सहायता करने वाले की दया से जूझ रहा हो। <br />
<br />
चंदा ने देखा तो यह सब सह न पाई। उसके जी में आया कि कह दे, क्या आज तक तुमने कभी किसी से उधार पैसे नहीं लिए? पर वह तो ख़ुद तुमने लिए थे और तुम्हें मेरे सामने स्वीकार नहीं करना पड़ा था। इसीलिए लेते झिझक नहीं लगी, पर आज मेरे सामने उसे स्वीकार करते तुम्हारा झूठा पौरूष तिलमिलाकर जाग पड़ा है। पर जगपती के मुख पर बिखरी हुई पीड़ा में जिस आदर्श की गहराई थी, वह चंदा के मन में चोर की तरह घुस गई, और बड़ी स्वाभाविकता से उसने माथे पर हाथ फेरते हुए कहा, ''ये दवाइयाँ किसी की मेहरबानी नहीं हैं। मैंने हाथ का कड़ा बेचने को दे दिया था, उसी में आई हैं।'' <br />
<br />
''मुझसे पूछा तक नहीं और...'' जगपती ने कहा और जैसे ख़ुद मन की कमज़ोरी को दबा गया—कड़ा बेचने से तो अच्छा था कि बचनसिंह की दया ही ओढ ली जाती। और उसे हल्का-सा पछतावा भी था कि नाहक़ वह रौ में बड़ी-बड़ी बातें कह जाता है, ज्ञानियों की तरह सीख दे देता है। <br />
<br />
और जब चंदा अँधेरा होते उठकर अपनी कोठरी में सोने के लिए जाने को हुई, तो कहते-कहते यह बात दबा गई कि बचनसिंह ने उसके लिए एक खाट का इंतिज़ाम भी कर दिया है। कमरे से निकली, तो सीधी कोठरी में गई और हाथ का कड़ा लेकर सीधे दवाख़ाने की ओर चली गई, जहाँ बचनसिंह अकेला डॉक्टर की कुर्सी पर आराम से टाँगें फैलाए लैम्प की पीली रौशनी में लेटा था। जगपती का व्यवहार चंदा को लग गया था, और यह भी कि वह क्यों बचनसिंह का अहसान अभी से लाद ले, पति के लिए ज़ेवर की कितनी औक़ात है। वह बेधड़क-सी दवाख़ाने में घुस गई। दिन की पहचान के कारण उसे कमरे की मेज़-कुर्सी और दवाओं की अलमारी की स्थिति का अनुमान था, वैसे कमरा अँधेरा ही पड़ा था, क्योंकि लैम्प की रौशनी केवल अपने वृत्त में अधिक प्रकाशवान होकर कोनों के अँधेरे को और भी घनीभूत कर रही थी। बचनसिंह ने चंदा को घुसते ही पहचान लिया। वह उठकर खड़ा हो गया। चंदा ने भीतर क़दम तो रख दिया पर सहसा सहम गई, जैसे वह किसी अँधेरे कुएँ में अपने-आप कूद पड़ी हो, ऐसा कुआँ, जो निरंतर पतला होता गया है और जिसमें पानी की गहराई पाताल की पर्तों तक चली गई हो, जिसमें पड़कर वह नीचे धंसती चली जा रही हो, नीचे ..अँधेरा..एकांत, घुटन..पाप! <br />
<br />
बचनसिंह अवाक ताकता रह गया और चंदा ऐसे वापस लौट पड़ी, जैसे किसी काले पिशाच के पंजों से मुक्ति मिली हो। बचनसिंह के सामने क्षण-भर में सारी परिस्थिति कौंध गई और उसने वहीं से बहुत संयत आवाज़ में ज़बान को दबाते हुए जैसे वायु में स्पष्ट ध्वनित कर दिया—''चंदा!'' वह आवाज़ इतनी बे-आवाज़ थी और निरर्थक होते हुए भी इतनी सार्थक थी कि उस ख़ामोशी में अर्थ भर गया। चंदा रुक गई। बचनसिंह उसके पास जाकर रुक गया। <br />
<br />
सामने का घना पेड़ स्तब्ध खड़ा था, उसकी काली परछाई की परिधि जैसे एक बार फैलकर उन्हें अपने वृत्त में समेट लेती और दूसरे ही क्षण मुक्त कर देती। दवाख़ाने का लैम्प सहसा भभककर रुक गया और मरीज़ों के कमरे से एक कराह की आवाज़ दूर मैदान के छो तक जाकर डूब गई। <br />
<br />
चंदा ने वैसे ही नीचे ताकते हुए अपने को संयत करते हुए कहा, ''यह कड़ा तुम्हें देने आई थी।'' <br />
<br />
''तो वापस क्यों चली जा रही थीं?'' <br />
<br />
चंदा चुप। और दो क्षण रुककर उसने अपने हाथ का सोने का कड़ा धीरे-से उसकी ओर बढ़ा दिया, जैसे देने का साहस न होते हुए भी यह काम आवश्यक था। बचनसिंह ने उसकी सारी काया को एक बार देखते हुए अपनी आँखें उसके सिर पर जमा दीं, उसके ऊपर पड़े कपड़े के पार नरम चिकनाई से भरे लंबे-लंबे बाल थे, जिनकी भाप-सी महक फैलती जा रही थी। वह धीरे-धीरे से बोला, ''लाओ।'' <br />
<br />
चंदा ने कड़ा उसकी ओर बढ़ा दिया। कड़ा हाथ में लेकर वह बोला, ''सुनो।'' <br />
<br />
चंदा ने प्रश्न-भरी नज़रें उसकी ओर उठा दी। उनमें झाँकते हुए, अपने हाथ से उसकी कलाई पकड़ते हुए उसने वह कड़ा उसकी कलाई में पहना दिया। चंदा चुपचाप कोठरी की ओर चल दी और बचनसिंह दवाख़ाने की ओर। <br />
<br />
कालिख बुरी तरह बढ़ गई थी और सामने खड़े पेड़ की काली परछाई गहरी पड़ गई थी। दोनों लौट गए थे। पर जैसे उस कालिख में कुछ रह गया था, छूट गया था। दवाख़ाने का लैम्प जो जलते-जलते एक बार भभका था, उसमें तेल न रह जाने के कारण बत्ती की लौ बीच से फट गई थी, उसके ऊपर धुएँ की लकीरें बल खाती, साँप की तरह अँधेरे में विलीन हो जाती थीं। <br />
<br />
सुबह जब चंदा जगपती के पास पहुँची और बिस्तर ठीक करने लगी तो जगपती को लगा कि चंदा बहुत उदास थी। क्षण-क्षण में चंदा के मुख पर अनगिनत भाव आ-जा रहे थे, जिनमें असमंजस था, पीड़ा थी और निरीहता थी। कोई अदृश्य पाप कर चुकने के बाद हृदय की गहराई से किए गए पश्चाताप जैसी धूमिल चमक? <br />
<br />
''रानी मंत्री के साथ जब निराश होकर लौटीं, तो देखा, राजा महल में उपस्थित थे। उनकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा।'' माँ सुनाया करती थीं, ''पर राजा को रानी का इस तरह मंत्री के साथ जाना अच्छा नहीं लगा। रानी ने राजा को समझाया कि वह तो केवल राजा के प्रति अटूट प्रेम के कारण अपने को न रोक सकी। राजा-रानी एक-दूसरे को बहुत चाहते थे। दोनों के दिलो में एक बात शूल-सी गड़ती रहती कि उनके कोई संतान न थी। राजवंश का दीपक बुझने जा रहा था। संतान के अभाव में उनका लोक-परलोक बिगड़ा जा रहा था और कुल की मर्यादा नष्ट होने की शंका बढ़ती जा रही थी।'' <br />
<br />
दूसरे दिन बचनसिंह ने मरीज़ों की मरहम-पट्टी करते वक़्त बताया था कि उसका तबादला मैनपुरी के सदर अस्पताल में हो गया है और वह परसों यहाँ से चला जाएगा। जगपती ने सुना, तो उसे भला ही लगा। आए दिन रोग घेरे रहते हैं, बचनसिंह उसके शहर के अस्पताल में पहुँचा जा रहा है, तो कुछ मदद मिलती ही रहेगी। आख़िर वह ठीक तो होगा ही और फिर मैनपुरी के सिवा कहाँ जाएगा? पर दूसरे ही क्षण उसका दिल अकथ भारीपन से भर गया। पता नहीं क्यों, चंदा के अस्तित्व का ध्यान आते ही उसे इस सूचना में कुछ ऐसे नुकीले काँटे दिखाई देने लगे, जो उसके शरीर में किसी भी समय चुभ सकते थे, जरा-सा बेख़बर होने पर बींध सकते थे। और तब उसके सामने आदमी के अधिकार की लक्ष्मण-रेखाएँ धुएँ की लकीर की तरह काँपकर मिटने लगीं और मन में छुपे संदेह के राक्षस बाना बदल योगी के रूप में घूमने लगे। <br />
<br />
और पंद्रह-बीस रोज़ बाद जब जगपती की हालत सुधर गई, तो चंदा उसे लेकर घर लौट आई। जगपती चलने-फिरने लायक़ हो गया था। घर का ताला जब खोला, तब रात झुक आई थी। और फिर उनकी गली में तो शाम से ही अँधेरा झरना शुरू हो जाता था। पर गली में आते ही उन्हें लगा, जैसे कि वनवास काटकर राजधानी लौटे हों। नुक्कड़ पर ही जमुना सुनार की कोठरी में सुरही फिंक रही थी, जिसके दराज़दार दरवाज़ों से लालटेन की रौशनी की लकीर झाँक रही थी और कच्ची तम्बाकू का धुंआ रूँधी गली के मुहाने पर बुरी तरह भर गया था। सामने ही मुंशीजी अपनी जिंगला खटिया के गङ्ढे में, कुप्पी के मध्दिम प्रकाश में ख़सरा-खतौनी बिछाए मीज़ान लगाने में मशग़ूल थे। जब जगपती के घर का दरवाज़ा खड़का, तो अँधेरे में उसकी चाची ने अपने जंगले से देखा और वहीं से बैठे-बैठे अपने घर के भीतर ऐलान कर दिया—''राजा निरबंसिया अस्पताल से लौट आए क़ुलमा भी आई हैं।'' <br />
<br />
ये शब्द सुनकर घर के अँधेरे बरोठे में घुसते ही जगपती हाँफकर बैठ गया, झुंझलाकर चंदा से बोला, ''अँधेरे में क्या मेरे हाथ-पैर तुड़वाओगी? भीतर जाकर लालटेन जला लाओ न।'' <br />
<br />
''तेल नहीं होगा, इस वक़्त ज़रा ऐसे ही काम...'' <br />
<br />
''तुम्हारे कभी कुछ नहीं होगा। न तेल न...'' कहते-कहते जगपती एकदम चुप रह गया। और चंदा को लगा कि आज पहली बार जगपती ने उसके व्यर्थ मातृत्व पर इतनी गहरी चोट कर दी, जिसकी गहराई की उसने कभी कल्पना नहीं की थी। दोनों ख़ामोश, बिना एक बात किए अंदर चले गए। <br />
<br />
रात के बढ़ते सन्नाटे में दोनों के सामने दो बातें थीं। जगपती के कानों में जैसे कोई व्यंग्य से कह रहा था—राजा निरबंसिया अस्पताल से आ गए! <br />
<br />
और चंदा के दिल में यह बात चुभ रही थी—तुम्हारे कभी कुछ नहीं होगा। और सिसकती-सिसकती चंदा न जाने कब सो गई। पर जगपती की आँखों में नींद न आई। खाट पर पड़े-पड़े उसके चारों ओर एक मोहक, भयावना-सा जाल फैल गया। लेटे-लेटे उसे लगा, जैसे उसका स्वयं का आकार बहुत क्षीण होता-होता बिंदु-सा रह गया, पर बिंदु के हाथ थे, पैर थे और दिल की धड़कन भी। कोठरी का घुटा-घुटा-सा अंधियारा, मटमैली दीवारें और गहन गुफ़ाओं-सी अलमारियाँ, जिनमें से बार-बार झाँककर देखता था और वह सिहए उठता था फिर जैसे सब कुछ तब्दील हो गया हो। उसे लगा कि उसका आकार बढ़ता जा रहा है, बढ़ता जा रहा है। वह मनुष्य हुआ, लंबा-तगड़ा-तंदुरूस्त पुरूष हुआ, उसकी शिराओं में कुछ फूट पड़ने के लिए व्याकुलता से खौल उठा। उसके हाथ शरीर के अनुपात से बहुत बड़े, डरावने और भयानक हो गए, उनके लंबे-लंबे नाख़ून निकल आए वह राक्षस हुआ, दैत्य हुआ...आदिम, बर्बर! <br />
<br />
और बड़ी तेज़ी से सारा कमरा एकबारगी चक्कर काट गया। फिर सब धीरे-धीरे स्थिर होने लगा और उसकी साँसें ठीक होती जान पड़ीं। फिर जैसे बहुत कोशिश करने पर घिग्घी बंध जाने के बाद उसकी आवाज़ फ़ूटी, ''चंदा!'' <br />
<br />
चंदा की नर्म साँसों की हल्की सरसराहट कमरे में जान डालने लगी। जगपती अपनी पाटी का सहारा लेकर झुका। काँपते पैर उसने ज़मीन पर रखे और चंदा की खाट के पाए से सिर टिकाकर बैठ गया। उसे लगा, जैसे चंदा की इन साँसों की आवाज़ में जीवन का संगीत गूँज रहा है। वह उठा और चंदा के मुख पर झुक गया। उस अँधेरे में आँखें गड़ाए-गड़ाए जैसे बहुत देर बाद स्वयं चंदा के मुख पर आभा फूटकर अपने-आप बिखरने लगी। उसके नक़्श उज्ज्वल हो उठे और जगपती की आँखों को ज्योति मिल गई। वह मुग्ध-सा ताकता रहा। <br />
<br />
चंदा के बिखरे बाल, जिनमें हाल के जन्मे बच्चे के गभुआरे बालों की-सी महक, दूध की कचाइंध, शरीर के रस की-सी मिठास और स्नेह-सी चिकनाहट और वह माथा जिस पर बालों के पास तमाम छोटे-छोटे, नर्म-नर्म-नर्म-से रोएँ- रेशम से और उस पर कभी लगाई गई सेंदूर की बिंदी का हल्का मिटा हुआ-सा आभास। नन्हें-नन्हें निर्द्वन्द्व सोए पलक! और उनकी मासूम-सी काँटों की तरह बरौनियाँ और साँस में घुलकर आती हुई वह आत्मा की निष्कपट आवाज़ की लय फूल की पंखुरी-से पतले-पतले ओंठ, उन पर पड़ी अछूती रेखाएँ, जिनमें सिर्फ़ दूध-सी महक! <br />
<br />
उसकी आँखों के सामने ममता-सी छा गई, केवल ममता, और उसके मुख से अस्फुट शब्द निकल गया, ''बच्ची!'' <br />
<br />
डरते-डरते उसके बालों की एक लट को बड़े जतन से उसने हथेली पर रखा और उंगली से उस पर जैसे लकीरें खींचने लगा। उसे लगा, जैसे कोई शिशु उसके अंक में आने के लिए छटपटाकर, निराश होकर सो गया हो। उसने दोनों हथेलियों को पसारकर उसके सिर को अपनी सीमा में भर लेना चाहा कि कोई कठोर चीज़ उसकी उँगलियों से टकराई। वह जैसे होश में आया। <br />
<br />
बड़े सहारे से उसने चंदा के सिर के नीचे टटोला। एक रूमाल में बंधा कुछ उसके हाथ में आ गया। अपने को संयत करता वह वहीं ज़मीन पर बैठ गया, उसी अँधेरे में उस रूमाल को खोला, तो जैसे साँप सूँघ गया, चंदा के हाथों के दोनों सोने के कड़े उसमें लिपटे थे! <br />
<br />
और तब उसके सामने सब सृष्टि धीरे-धीरे टुकड़े-टुकड़े होकर बिखरने लगी। ये कड़े तो चंदा बेचकर उसका इलाज कर रही थी। वे सब दवाइयाँ और ताक़त के टॉनिक, उसने तो कहा था, ये दवाइयाँ किसी की मेहरबानी नहीं हैं, मैंने हाथ के कड़े बेचने को दे दिए थे पर उसका गला बुरी तरह सूख गया। ज़बान जैसे तालु से चिपककर रह गई। उसने चाहा कि चंदा को झकाझोरकर उठाए, पर शरीर की शक्ति बह-सी गई थी, रक्त पानी हो गया था। थोडा संयत हुआ, उसने वे कड़े उसी रूमाल में लपेटकर उसकी खाट के कोने पर रख दिए और बड़ी मुश्किल से अपनी खाट की पाटी पकड़कर लुढ़क गया। चंदा झूठ बोली! पर क्यों? कड़े आज तक छुपाए रही। उसने इतना बड़ा दुराव क्यों किया? आख़िर क्यों? किसलिए? और जगपती का दिल भारी हो गया। उसे फिर लगा कि उसका शरीर सिमटता जा रहा है और वह एक सींक का बना ढाँचा रह गया नितांत हल्का, तिनके-सा, हवा में उड़कर भटकने वाले तिनके-सा। <br />
<br />
उस रात के बाद रोज़ जगपती सोचता रहा कि चंदा से कड़े माँगकर बेच ले और कोई छोटा-मोटा कारोबार ही शुरू कर दे, क्योंकि नौकरी छूट चुकी थी। इतने दिन की ग़ैरहाज़िरी के बाद वकील साहब ने दूसरा मुहर्रिर रख लिया था। वह रोज़ यही सोचता पर जब चंदा सामने आती, तो न जाने कैसी असहाय-सी उसकी अवस्था हो जाती। उसे लगता, जैसे कड़े माँगकर वह चंदा से पत्नीत्व का पद भी छीन लेगा। मातृत्व तो भगवान ने छीन ही लिया। वह सोचता आख़िर चंदा क्या रह जाएगी? एक स्त्री से यदि पत्नीत्व और मातृत्व छीन लिया गया, तो उसके जीवन की सार्थकता ही क्या? चंदा के साथ वह यह अन्याय कैसे करे? उससे दूसरी आँख की रौशनी कैसे माँग ले? फिर तो वह नितांत अंधी हो जाएगी और उन कड़ों को माँगने के पीछे जिस इतिहास की आत्मा नंगी हो जाएगी, कैसे वह उस लज्जा को स्वयं ही उधारकर ढाँपेगा? <br />
<br />
और वह उन्हीं ख़यालों में डूबा सुबह से शाम तक इधर-उधर काम की टोह में घूमता रहता। किसी से उधार ले ले? पर किस संपत्ति पर? क्या है उसके पास, जिसके आधार पर कोई उसे कुछ देगा? और मुहल्ले के लोग जो एक-एक पाई पर जान देते हैं, कोई चीज़ ख़रीदते वक़्त भाव में एक पैसा कम मिलने पर मीलों पैदल जाकर एक पैसा बचाते हैं, एक-एक पैसे की मसाले की पुडिया बंधवाकर ग्यारह मर्तबा पैसों का हिसाब जोड़कर एकाध पैसा उधारकर, मिन्नतें करते सौदा घर लाते हैं; गली में कोई खोंचेवाला फंस गया, तो दो पैसे की चीज़ को लड़-झगड़कर—चार दाने ज़ियादा पाने की नीयत से दो जगह बँधवाते हैं। भाव के ज़रा-से फ़र्क़ पर घंटों बहस करते हैं, शाम को सड़ी-गली तरकारियों को किफ़ायत के कारण लाते हैं, ऐसे लोगों से किस मुँह से माँगकर वह उनकी ग़रीबी के अहसास पर ठोकर लगाए! पर उस दिन शाम को जब वह घर पहुँचा, तो बरोठे में ही एक साइकिल रखी नज़र आई। दिमाग़ पर बहुत ज़ोर डालने के बाद भी वह आगन्तुक की कल्पना न कर पाया। भीतरवाले दरवाज़े पर जब पहुँचा, तो सहसा हँसी की आवाज़ सुनकर ठिठक गया। उस हँसी में एक अजीब-सा उन्माद था। और उसके बाद चंदा का स्वर—''अब आते ही होंगे, बैठिए न दो मिनट और! अपनी आँख से देख लीजिए और उन्हें समझाते जाइए कि अभी तंदुरूस्ती इस लायक़ नहीं, जो दिन-दिन-भर घूमना बर्दाश्त कर सकें।'' <br />
<br />
''हाँ भई, कमज़ोरी इतनी जल्दी नहीं मिट सकती, ख़याल नहीं करेंगे तो नुक़सान उठाएँगे!'' कोई पुरूष-स्वर था यह। <br />
<br />
जगपती असमंजस में पड़ गया। वह एकदम भीतर घुस जाए? इसमें क्या हर्ज है? पर जब उसने पैर उठाए, तो वे बाहर जा रहे थे। बाहर बरोठे में साइकिल को पकड़ते ही उसे सूझ आई, वहीं से जैसे अनजान बनता बड़े प्रयत्न से आवाज़ क़ो खोलता चिल्लाया, ''अरे चंदा! यह साइकिल किसकी है? कौन मेहरबान...'' <br />
<br />
चंदा उसकी आवाज़ सुनकर कमरे से बाहर निकलकर जैसे ख़ुश-ख़बरी सुना रही थी, ''अपने कम्पाउंडर साहब आए हैं। खोजते-खोजते आज घर का पता पाए हैं, तुम्हारे इंतिज़ार में बैठे हैं।'' <br />
<br />
''कौन बचनसिंह? अच्छा...अच्छा। वही तो मैं कहूँ, भला कौन...'' कहता जगपती पास पहुँचा, और बातों में इस तरह उलझ गया, जैसे सारी परिस्थिति उसने स्वीकार कर ली हो। बचनसिंह जब फिर आने की बात कहकर चला गया, तो चंदा ने बहुत अपनेपन से जगपती के सामने बात शुरू की, ''जाने कैसे-कैसे आदमी होते हैं।'' <br />
<br />
''क्यों, क्या हुआ? कैसे होते हैं आदमी?'' जगपती ने पूछा। <br />
<br />
''इतनी छोटी जान-पहचान में तुम मर्दों के घर में न रहते घुसकर बैठ सकते हो? तुम तो उल्टे पैरों लौट आओगे।'' चंदा कहकर जगपती के मुख पर कुछ इच्छित प्रतिक्रिया देख सकने के लिए गहरी निगाहों से ताकने लगी। <br />
<br />
जगपती ने चंदा की ओर ऐसे देखा, जैसे यह बात भी कहने की या पूछने की है! फिर बोला, ''बचनसिंह अपनी तरह का आदमी है, अपनी तरह का अकेला।'' <br />
<br />
''होगा, पर'' कहते-कहते चंदा रुक गई। <br />
<br />
''आड़े वक़्त काम आने वाला आदमी है, लेकिन उससे फ़ायदा उठा सकना जितना आसान है उतना...मेरा मतलब है कि जिससे कुछ लिया जाएगा, उसे दिया भी जाएगा।'' जगपती ने आँखें दीवार पर गड़ाते हुए कहा। और चंदा उठकर चली गई। <br />
<br />
उस दिन के बाद बचनसिंह लगभग रोज़ ही आने-जाने लगा। जगपती उसके साथ इधर-उधर घूमता भी रहता। बचनसिंह के साथ वह जब तक रहता, अजीब-सी घुटन उसके दिल को बाँध लेती, और तभी जीवन की तमाम विषमताएँ भी उसकी निगाहों के सामने उभरने लगतीं, आख़िर वह स्वयं एक आदमी है, बेकार... यह माना कि उसके सामने पेट पालने की कोई इतनी विकराल समस्या नहीं, वह भूखों नहीं मर रहा है, जाड़े में काँप नहीं रहा है, पर उसके दो हाथ-पैर हैं, शरीर का पिंजरा है, जो कुछ माँगता है, कुछ! और वह सोचता, यह कुछ क्या है? सुख? शायद हाँ, शायद नहीं। वह तो दुःख में भी जी सकने का आदी है, अभावों में जीवित रह सकने वाला आश्चर्यजनक कीड़ा है। तो फिर वासना? शायद हाँ, शायद नहीं। चंदा का शरीर लेकर उसने उस क्षणिकता को भी देखा है। तो फिर धन...शायद हाँ, शायद नहीं। उसने धन के लिए अपने को खपाया है। पर वह भी तो उस अदृश्य प्यास को बुझा नहीं पाया। तो फिर? तो फिर क्या? वह कुछ क्या है, जो उसकी आत्मा में नासूर-सा रिसता रहता है, अपना उपचार माँगता है? शायद काम! हाँ, यही, बिल्कुल यही, जो उसके जीवन की घड़ियों को निपट सूना न छोड़े, जिसमें वह अपनी शक्ति लगा सके, अपना मन डुबो सके, अपने को सार्थक अनुभव कर सके, चाहे उसमें सुख हो या दुख, अरक्षा हो या सुरक्षा, शोषण हो या पोषण...उसे सिर्फ़ काम चाहिए! करने के लिए कुछ चाहिए। यही तो उसकी प्रकृत आवश्यकता है, पहली और आख़िरी माँग है, क्योंकि वह उस घर में नहीं पैदा हुआ, जहाँ सिर्फ़ ज़बान हिलाकर शासन करनेवाले होते हैं। वह उस घर में भी नहीं पैदा हुआ, जहाँ सिर्फ़ माँगकर जीनेवाले होते हैं। वह उस घर का है, जो सिर्फ़ काम करना जानता है, काम ही जिसकी आस है। सिर्फ़ वह काम चाहता है, काम। <br />
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और एक दिन उसकी काम-धाम की समस्या भी हल हो गई। तालाब वाले ऊँचे मैदान के दक्षिण ओर जगपती की लकड़ी क़ी टाल खुल गई। बोर्ड् तक टंग गया। टाल की ज़मीन पर लक्ष्मी-पूजन भी हो गया और हवन भी हुआ। लकड़ी की कोई कमी नहीं थी। गाँव से आनेवाली गाड़ियों को, इस कारोबार में पैरे हुए आदमियों की मदद से मोल-तोल करवा के वहाँ गिरवा दिया गया। गाँठें एक ओर रखी गईं, चैलों का चट्टा करीने से लग गया और गुद्दे चीरने के लिए डाल दिए गए। दो-तीन गाड़ियों का सौदा करके टाल चालू कर दी गई। भविष्य में स्वयं पेड़ ख़रीदकर कटाने का तय किया गया। बड़ी-बड़ी स्कीमें बनीं कि किस तरह जलाने की लकड़ी से बढ़ाते-बढ़ाते एक दिन इमारती लकड़ी क़ी कोठी बनेगी। चीरने की नई मशीन लगेगी। कारबार बढ़ जाने पर बचनसिंह भी नौकरी छोड़कर उसी में लग जाएगा। और उसने महसूस किया कि वह काम में लग गया है, अब चौबीसों घंटे उसके सामने काम है, उसके समय का उपयोग है। दिन-भर में वह एक घंटे के लिए किसी का मित्र हो सकता है, कुछ देर के लिए वह पति हो सकता है, पर बाक़ी समय? दिन और रात के बाक़ी घंटे, उन घंटों के अभाव को सिर्फ़ उसका अपना काम ही भर सकता है और अब वह कामदार था। <br />
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वह कामदार तो था, लेकिन जब टाल की उस ऊँची ज़मीन पर पड़े छप्पर के नीचे तख़्त पर वह गल्ला रखकर बैठता, सामने लगे लकड़ियों के ढेर, कटे हुए पेड़ के तने, जड़ों को लुढ़का हुआ देखता, तो एक निरीहता बरबस उसके दिल को बाँधने लगती। उसे लगता, एक व्यर्थ पिशाच का शरीर टुकड़े-टुकड़े करके उसके सामने डाल दिया गया है। फिर इन पर कुल्हाड़ी चलेगी और इनके रेशे-रेशे अलग हो जाएँगे और तब इनकी ठठरियों को सुखाकर किसी पैसेवाले के हाथ तक पर तौलकर बेच दिया जाएगा। और तब उसकी निगाहें सामने खड़े ताड़ पर अटक जातीं, जिसके बड़े-बड़े पत्तों पर सुर्ख़ गर्दनवाले गिद्ध पर फड़फड़ाकर देर तक ख़ामोश बैठे रहते। ताड़ का काला गडरेदार तना और उसके सामने ठहरी हुई वायु में निस्सहाय काँपती, भारहीन नीम की पत्तियाँ चकराती झड़ती रहतीं धूल-भरी धरती पर लकड़ी की गाड़ियों के पहियों की पड़ी हुई लीक धुंधली-सी चमक उठती और बग़लवाले मूँगफल्ली के पेंच की एकरस खरखराती आवाज़ कानों में भरने लगती। बग़लवाली कच्ची पगडंडी से कोई गुज़रकर, टीले के ढलान से तालाब की निचाई में उतर जाता, जिसके गंदले पानी में कूड़ा तैरता रहता और सूअर कीचड़ में मुँह डालकर उस कूड़े को रौंदते दोपहर सिमटती और शाम की धुन्ध छाने लगती, तो वह लालटेन जलाकर छप्पर के खंभे की कील में टाँग देता और उसके थोड़ी ही देर बाद अस्पतालवाली सड़क से बचनसिंह एक काले धब्बे की तरह आता दिखाई पड़ता। गहरे पड़ते अँधेरे में उसका आकार धीरे-धीरे बढ़ता जाता और जगपती के सामने जब वह आकर खड़ा होता, तो वह उसे बहुत विशाल-सा लगने लगता, जिसके सामने उसे अपना अस्तित्व डूबता महसूस होता। <br />
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एक-आध बिक्री की बातें होतीं और तब दोनों घर की ओर चल देते। घर पहुँचकर बचनसिंह कुछ देर ज़रूर रुकता, बैठता, इधर-उधर की बातें करता। कभी मौक़ा पड़ जाता, तो जगपती और बचनसिंह की थाली भी साथ लग जाती। चंदा सामने बैठकर दोनों को खिलाती। <br />
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बचनसिंह बोलता जाता, ''क्या तरकारी बनी है। मसाला ऐसा पड़ा है कि उसकी भी बहार है और तरकारी का स्वाद भी न मरा। होटलों में या तो मसाला ही मसाला रहेगा या सिर्फ़ तरकारी ही तरकारी। वाह! वाह! क्या बात है अंदाज़ की!'' <br />
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और चंदा बीच-बीच में टोककर बोलती जाती, ''इन्हें तो जब तक दाल में प्याज़ का भुना घी न मिले, तब तक पेट ही नहीं भरता।'' <br />
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या—''सिरका अगर इन्हें मिल जाए, तो समझो, सब कुछ मिल गया। पहले मुझे सिरका न जाने कैसा लगता था, पर अब ऐसा ज़बान पर चढ़ा है कि'' या—''इन्हें काग़ज़-सी पतली रोटी पसंद ही नहीं आती। अब मुझसे कोई पतली रोटी बनाने को कहे, तो बनती ही नहीं, आदत पड़ गई है, और फिर मन ही नहीं करता...'' पर चंदा की आँखें बचनसिंह की थाली पर ही जमीं रहतीं। रोटी निबटी, तो रोटी परोस दी, दाल ख़त्म नहीं हुई, तो भी एक चमचा और परोस दी। और जगपती सिर झुकाए खाता रहता। सिर्फ़ एक गिलास पानी माँगता और चंदा चौंककर पानी देने से पहले कहती, ''अरे तुमने तो कुछ लिया भी नहीं!'' कहते-कहते वह पानी दे देती और तब उसके दिल पर गहरी-सी चोट लगती, न जाने क्यों वह ख़ामोशी की चोट उसे बड़ी पीड़ा दे जाती पर वह अपने को समझा लेती, कोई मेहमान तो नहीं हैं माँग सकते थे। भूख नहीं होगी। <br />
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जगपती खाना खाकर टाल पर लेटने चला जाता, क्योंकि अभी तक कोई चौकीदार नहीं मिला था। छप्पर के नीचे तख़्त पर जब वह लेटता, तो अनायास ही उसका दिल भर-भर आता। पता नहीं कौन-कोन से दर्द एक-दूसरे से मिलकर तरह-तरह की टीस, चटख और ऐंठन पैदा करने लगते। कोई एक रग दुखती तो वह सहलाता भी, जब सभी नसें चटखती हों तो कहाँ-कहाँ राहत का अकेला हाथ सहलाए! <br />
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लेटे-लेटे उसकी निगाह ताड़ के उस ओर बनी पुख़्त क़ब्र पर जम जाती, जिसके सिराहने कंटीला बबूल का एकाकी पेड़ सुन्न-सा खड़ा रहता। जिस क़ब्र पर एक पर्दानशीन औरत बड़े लिहाज़ से आकर सवेरे-सवेरे बेला और चमेली के फूल चढ़ा जाती, घूम-घूमकर उसके फेरे लेती और माथा टेककर कुछ क़दम उदास-उदास-सी चलकर एकदम तेज़ी से मुड़कर बिसातियों के मुहल्ले में खो जाती। शाम होते फिर आती। एक दीया बारती और अगर की बत्तियाँ जलाती, फिर मुड़ते हुए ओढ़नी का पल्ला कंधों पर डालती, तो दीए की लौ काँपती, कभी कांपकर बुझ जाती, पर उसके क़दम बढ़ चुके होते, पहले धीमे, थके, उदास-से और फिर तेज़ सधे सामान्य-से। और वह फिर उसी मुहल्ले में खो जाती और तब रात की तनहाइयों में बबूल के काँटों के बीच, उस साँय-साँय करते ऊँचे-नीचे मैदान में जैसे उस क़ब्र से कोई रूह निकलकर निपट अकेली भटकती रहती। <br />
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तभी ताड़ पर बैठे सुर्ख़ गर्दनवाले गिध्द मनहूस-सी आवाज़ में किलबिला उठते और ताड़ के पत्ते भयानकता से खड़बड़ा उठते। जगपती का बदन काँप जाता और वह भटकती रूह ज़िंदा रह सकने के लिए जैसे क़ब्र की इंटों में, बबूल के साया-तले दुबक जाती। जगपती अपनी टाँगों को पेट से भींचकर, कंबल से मुँह छुपा औंधा लेट जाता। तड़क़े ही ठेके पर लगे लकड़हारे लकड़ी चीरने आ जाते। तब जगपती कंबल लपेट, घर की ओर चला जाता। <br />
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''राजा रोज़ सवेरे टहलने जाते थे,'' माँ सुनाया करती थीं, ''एक दिन जैसे ही महल के बाहर निकलकर आए कि सड़क पर झाड़ू लगानेवाली मेहतरानी उन्हें देखते ही अपना झाडूपंजा पटककर माथा पीटने लगी और कहने लगी, ''हाय राम! आज राजा निरबंसिया का मुँह देखा है, न जाने रोटी भी नसीब होगी कि नहीं न जाने कौन-सी विपत टूट पड़े!'' राजा को इतना दुःख हुआ कि उल्टे पैरों महल को लौट गए। मंत्री को हुक्म दिया कि उस मेहतरानी का घर नाज़ से भर दें। और सब राजसी वस्त्र उतार, राजा उसी क्षण जंगल की ओर चले गए। उसी रात रानी को सपना हुआ कि कल की रात तेरी मनोकामना पूरी करनेवाली है। रानी बहुत पछता रही थी। पर फ़ौरन ही रानी राजा को खोजती-खोजती उस सराय में पहुँच गई, जहाँ वह टिके हुए थे। रानी भेस बदलकर सेवा करने वाली भटियारिन बनकर राजा के पास रात में पहुँची। रातभर उनके साथ रही और सुबह राजा के जगने से पहले सराय छोड़ महल में लौट गई। राजा सुबह उठकर दूसरे देश की ओर चले गए। दो ही दिनों में राजा के निकल जाने की ख़बर राज-भर में फैल गई, राजा निकल गए, चारों तरफ़ यही ख़बर थी।'' <br />
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और उस दिन टोले-मुहल्ले के हर आँगन में बरसात के मेह की तरह यह ख़बर बरसकर फैल गई कि चंदा के बाल-बच्चा होने वाला है। <br />
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नुक्कड़ पर जमुना सुनार की कोठरी में फिंकती सुरही रुक गई। मुंशीजी ने अपना मीज़ान लगाना छोड़ विस्फारित नेत्रों से ताककर ख़बर सुनी। बंसी किरानेवाले ने कुएँ में से आधी गईं रस्सीं खींच, डोल मन पर पटककर सुना। सुदर्शन दर्जी ने मशीन के पहिए को हथेली से रगड़कर रोककर सुना। हंसराज पंजाबी ने अपनी नील-लगी मलगुजी क़मीज़ की आस्तीनें चढ़ाते हुए सुना। और जगपती की बेवा चाची ने औरतों के जमघट में बड़े विश्वास, पर भेद-भरे स्वर में सुनाया—''आज छः साल हो गए शादी को न बाल, न बच्चा, न जाने किसका पाप है उसके पेट में। और किसका होगा सिवा उस मुसटंडे कंपोटर के! न जाने कहाँ से कुलच्छनी इस मुहल्ले में आ गई! इस गली की तो पुश्तों से ऐसी मरजाद रही है कि ग़ैर-मर्द औरत की परछाई तब नहीं देख पाए। यहाँ के मर्द तो बस अपने घर की औरतों को जानते हैं, उन्हें तो पड़ोसी के घर की ज़नानियों की गिनती तक नहीं मालूम।'' यह कहते-कहते उनका चेहरा तमतमा आया और सब औरतें देवलोक की देवियाँ की तरह गंभीर बनीं, अपनी पवित्रता की महानता के बोझ से दबी धीरे-धीरे खिसक गई। <br />
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सुबह यह ख़बर फैलने से पहले जगपती टाल पर चला गया था। पर सुनी उसने भी आज ही थी। दिन-भर वह तख़्त पर कोने की ओर मुँह किए पड़ा रहा। न ठेके की लकड़ियाँ चिराई, न बिक्री की ओर ध्यान दिया, न दोपहर का खाना खाने ही घर गया। जब रात अच्छी तरह फैल गई, वह हिंसक पशु की भांति उठा। उसने अपनी अंगुलियाँ चटकाई, मुठ्ठी बाँधकर बाँह का ज़ोर देखा, तो नसें तनीं और बाह में कठोर कम्पन-सा हुआ। उसने तीन-चार पूरी साँसें खींचीं और मज़बूत क़दमों से घर की ओर चल पड़ा। मैदान ख़त्म हुआ, कंकड़ की सड़क आई, सड़क ख़त्म हुई, गली आई। पर गली के अँधेरे में घुसते वह सहम गया, जैसे किसी ने अदृश्य हाथों से उसे पकड़कर सारा रक्त निचोड़ लिया, उसकी फटी हुई शक्ति की नस पर हिम-शीतल होंठ रखकर सारा रस चूस लिया। और गली के अँधेरे की हिकारत-भरी कालिख और भी भारी हो गई, जिसमें घुसने से उसकी साँस रुक जाएगी, घुट जाएगी। <br />
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वह पीछे मुड़ा, पर रुक गया। फिर कुछ संयत होकर वह चोरों की तरह निःशब्द क़दमों से किसी तरह घर की भीतरी देहरी तक पहुँच गया। <br />
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दाईं ओर की रसोईवाली दहलीज़ में कुप्पी टिमटिमा रही थीं और चंदा अस्त-व्यस्त-सी दीवार से सिर टेके शायद आसमान निहारते-निहारते सो गई थी। कुप्पी का प्रकाश उसके आधे चेहरे को उजागर किए था और आधा चेहरा गहन कालिमा में डूबा अदृश्य था। वह ख़ामोशी से खड़ा ताकता रहा। चंदा के चेहरे पर नारीत्व की प्रौढता आज उसे दिखाई दी। चेहरे की सारी कमनीयता न जाने कहाँ खो गई थी, उसका अछूतापन न जाने कहाँ लुप्त हो गया था। फूला-फूला मुख। जैसे टहनी से तोड़े फूल को पानी में डालकर ताज़ा किया गया हो, जिसकी पंखुरियों में टूटन की सुरमई रेखाएँ पड़ गई हों, पर भीगने से भारीपन आ गया हो। उसके खुले पैर पर उसकी निगाह पड़ी, तो सूजा-सा लगा। एडियाँ भरी, सूजी-सी और नाख़ूनों के पास अजब-सा सूखापन। जगपती का दिल एक बार मसोस उठा। उसने चाहा कि बढ़कर उसे उठा ले। अपने हाथों से उसका पूरा शरीर छू-छूकर सारा कलुष पोंछ दे, उसे अपनी साँसों की अग्नि में तपाकर एक बार फिर पवित्र कर ले, और उसकी आँखों की गहराई में झाँककर कहे—देवलोक से किस शापवश निर्वासित हो तुम इधर आ गई, चंदा? यह शाप तो अमिट था। <br />
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तभी चंदा ने हड़बड़ाकर आँखें खोलीं। जगपती को सामने देख उसे लगा कि वह एकदम नंगी हो गई हो। अतिशय लज्जित हो उसने अपने पैर समेट लिए। घुटनों से धोती नीचे सरकाई और बहुत संयत-सी उठकर रसोई के अँधेरे में खो गई। जगपती एकदम हताश हो, वहीं कमरे की देहरी पर चौखट से सिर टिका बैठ गया। नज़र कमरे में गई, तो लगा कि पराए स्वर यहाँ गूँज रहे हैं, जिनमें चंदा का भी एक है। एक तरफ़ घर के हर कोने से, अँधेरा सैलाब की तरह बढ़ता आ रहा था। एक अजीब निस्तब्धता, असमंजस। गति, पर पथभ्रष्ट! शक्लें, पर आकारहीन। <br />
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''खाना खा लेते,'' चंदा का स्वर कानों में पड़ा। वह अनजाने ऐसे उठ बैठा, जैसे तैयार बैठा हो। उसकी बात की आज तक उसने अवज्ञा न की थी। खाने तो बैठ गया, पर कौर नीचे नहीं सरक रहा था। तभी चंदा ने बड़े सधे शब्दों में कहा, ''कल मैं गाँव जाना चाहती हूँ।'' <br />
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जैसे वह इस सूचना से परिचित था, बोला, ''अच्छा।'' <br />
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चंदा फिर बोली, ''मैंने बहुत पहले घर चिठ्ठी डाल दी थी, भैया कल लेने आ रहे हैं।'' <br />
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''तो ठीक है।'' जगपती वैसे ही डूबा-डूबा बोला। <br />
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चंदा का बाँध टूट गया और वह वहीं घुटनों में मुँह दबाकर कातर-सी फफक-फफककर रो पड़ी। न उठ सकी, न हिल सकी। <br />
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जगपती क्षण-भर को विचलित हुआ, पर जैसे जम जाने के लिए। उसके ओठ फड़के और क्रोध के ज्वालामुखी को जबरन दबाते हुए भी वह फूट पड़ा, ''यह सब मुझे क्या दिखा रही है? बेशर्म! बेग़ैरत! उस वक़्त नहीं सोचा था, जब...ज़ब...मेरी लाश तले...'' <br />
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''तब... तब की बात झूठ है।'', सिसकियों के बीच चंदा का स्वर फूटा, ''लेकिन जब तुमने मुझे बेच दिया...'' <br />
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एक भरपूर हाथ चंदा की कनपटी पर आग सुलगाता पड़ा। और जगपती अपनी हथेली दूसरी से दबाता, खाना छोड़ कोठरी में घुस गया और रात-भर कुंडी चढ़ाए उसी कालिख में घुटता रहा। दूसरे दिन चंदा घर छोड़ अपने गाँव चली गई। <br />
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जगपती पूरा दिन और रात टाल पर ही काट देता, उसी बीराने में, तालाब के बग़ल, क़ब्र, बबूल और ताड़ के पड़ोस में। पर मन मुर्दा हो गया था। ज़बरदस्ती वह अपने को वहीं रोके रहता। उसका दिल होता, कहीं निकल जाए। पर ऐसी कमज़ोरी उसके तन और मन को खोखला कर गई थी कि चाहने पर भी वह जा न पाता। हिकारत-भरी नज़रें सहता, पर वहीं पड़ा रहता। काफ़ी दिनों बाद जब नहीं रह गया, तो एक दिन जगपती घर पर ताला लगा, नज़दीक के गाँव में लकड़ी कटाने चला गया। उसे लग रहा था कि अब वह पंगु हो गया है, बिलकुल लंगड़ा, एक रेंगता कीड़ा, जिसके न आँख है, न कान, न मन, न इच्छा। वह उस बाग में पहुँच गया, जहाँ ख़रीदे पेड़ कटने थे। दो आरेवालों ने पतले पेड़ के तने पर आरा रखा और कर्र-कर्र का अबाध शोर शुरू हो गया। दूसरे पेड़ पर बन्ने और शकूरे की कुल्हाड़ी बज उठी। और गाँव से दूर उस बाग़ में एक लयपूर्ण शोर शुरू हो गया। जड़ पर कुल्हाड़ी पड़ती तो पूरा पेड़ थर्रा जाता। <br />
<br />
क़रीब के खेत की मेढ़ पर बैठे जगपती का शरीर भी जैसे काँप-काँप उठता। चंदा ने कहा था, ''लेकिन जब तुमने मुझे बेच दिया'' क्या वह ठीक कहती थी ! क्या बचनसिंह ने टाल के लिए जो रुपये दिए थे, उसका ब्याज़ इधर चुकता हुआ? क्या सिर्फ़ वही रुपये आग बन गए, जिसकी आँच में उसकी सहनशीलता, विश्वास और आदर्श मोम-से पिघल गए? <br />
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''शकूरे!'' बाग़ से लगे दड़े पर से किसी ने आवाज़ लगाई। शकूरे ने कुल्हाड़ी रोककर वहीं से हाँक लगाई, ''कोने के खेत से लीक बनी है, ज़रा मेड़ मारकर नंघा ला गाड़ी।'' <br />
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जगपती का ध्यान भंग हुआ। उसने मुड़कर दड़े पर आँखें गड़ाईं। दो भैंसा-गाड़ियाँ लकड़ी भरने के लिए आ पहुँची थीं। शकूरे ने जगपती के पास आकर कहा, ''एक गाड़ी का भुर्त तो हो गया, बल्कि डेढ़ का, अब इस पतरिया पेड़ क़ो न छाँट दें?'' <br />
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जगपती ने उस पेड़ की ओर देखा, जिसे काटने के लिए शकूरे ने इशारा किया था। पेड़ की शाख़ हरी पत्तियों से भरी थी। वह बोला, ''अरे, यह तो हरा है अभी इसे छोड़ दो।'' <br />
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''हरा होने से क्या, उखट तो गया है। न फूल का, न फल का। अब कौन इसमें फल-फूल आएँगे, चार दिन में पत्ती झुरा जाएँगी।'' शकूरे ने पेड़ की ओर देखते हुए उस्तादी अंदाज़ से कहा। <br />
<br />
''जैसा ठीक समझो तुम,'' जगपती ने कहा, और उठकर मेड़-मेड़ पक्के कुएँ पर पानी पीने चला गया। <br />
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दोपहर ढलते गाड़ियाँ भरकर तैयार हुईं और शहर की ओर रवाना हो गईं। जगपती को उनके साथ आना पड़ा। गाड़ियाँ लकड़ी से लदीं शहर की ओर चली जा रही थीं और जगपती गर्दन झुकाए कच्ची सड़क की धूल में डूबा, भारी क़दमों से धीरे-धीरे उन्हीं की बजती घण्टियों के साथ निर्जीव-सा बढ़ता जा रहा था। <br />
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''कई बरस बाद राजा परदेस से बहुत-सा धन कमाकर गाड़ी में लादकर अपने देश की ओर लौटे, ''माँ सुनाया करती थीं,'' राजा की गाड़ी का पहिया महल से कुछ दूर पतेल की झाड़ी में उलझ गया। हर तरह कोशिश की, पर पहिया न निकला। तब एक पण्डित ने बताया कि सकट के दिन का जन्मा बालक अगर अपने घर की सुपारी लाकर इसमें छुआ दे, तो पहिया निकल जाएगा। वहीं दो बालक खेल रहे थे। उन्होंने यह सुना तो कूदकर पहुँचे और कहने लगे कि हमारी पैदाइश सकट की है, पर सुपारी तब लाएँगे, जब तुम आधा धन देने का वादा करो। राजा ने बात मान ली। बालक दौड़े-दौड़े घर गए । सुपारी लाकर छुआ दी, फिर घर का रास्ता बताते आगे-आगे चले। आख़िर गाड़ी महल के सामने उन्होंने रोक ली । <br />
<br />
राजा को बड़ा अचरज हुआ कि हमारे ही महल में ये दो बालक कहाँ से आ गए? भीतर पहुँचे, तो रानी ख़ुशी से बेहाल हो गई । <br />
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''पर राजा ने पहले उन बालकों के बारे में पूछा, तो रानी ने कहा कि ये दोनों बालक उन्हीं के राजकुमार हैं। राजा को विश्वास नहीं हुआ। रानी बहुत दुखी हुई।'' <br />
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गाड़ियाँ जब टाल पर आकर लगीं और जगपती तख़्त पर हाथ-पैर ढीले करके बैठ गया, तो पगडण्डी से गुज़रते मुंशीजी ने उसके पास आकर बताया, अभी उस दिन वसूली में तुम्हारी ससुराल के नज़दीक एक गाँव में जाना हुआ, तो पता लगा कि पंद्रह-बीस दिन हुए, चंदा के लड़का हुआ है।'' और फिर जैसे मुहल्ले में सुनी-सुनाई बातों पर पर्दा डालते हुए बोले, ''भगवान के राज में देर है, अँधेर नहीं, जगपती भैया !'' <br />
<br />
जगपती ने सुना तो पहले उसने गहरी नज़रों से मुंशीजी को ताका, पर वह उनके तीर का निशाना ठीक-ठीक नहीं खोज पाया। पर सब कुछ सहन करते हुए बोला, ''देर और अँधेर दोनों हैं !'' <br />
<br />
''अँधेर तो सरासर है, तिरिया चरित्तर है सब ! बड़े-बड़े हार गए हैं,'' कहते-कहते मुंशीजी रुक गए, पर कुछ इस तरह, जैसे कोई बड़ी भेद-भरी बात है, जिसे उनकी गोल होती हुई आँखें समझा देंगी। जगपती मुंशीजी की तरफ़ ताकता रह गया। मिनट-भर मनहूस-सा मौन छाया रहा, उसे तोड़ते हुए मुंशीजी बड़ी दर्द-भरी आवाज़ में बोले, ''सुन तो लिया होगा, तुमने?'' <br />
<br />
''क्या?'' कहने को जगपती कह गया, पर उसे लगा कि अभी मुंशीजी उस गाँव में फैली बातों को ही बड़ी बेदर्दी से कह डालेंगे, उसने नाहक़ पूछा। <br />
<br />
तभी मुंशीजी ने उसकी नाक के पास मुँह ले जाते हुए कहा, ''चंदा दूसरे के घर बैठ रही है, कोई मदसूदन है वहीं का। पर बच्चा दीवार बन गया है। चाहते तो वो यही हैं कि मर जाए तो रास्ता खुले, पर रामजी की मर्ज़ी। सुना है, बच्चा रहते भी वह चंदा को बैठाने को तैयार है।'' <br />
<br />
जगपती की साँस गले में अटककर रह गई। बस, आँखें मुंशीजी के चेहरे पर पथराई-सी जड़ी थीं। <br />
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मुंशीजी बोले, ''अदालत से बच्चा तुम्हें मिल सकता है। अब काहे का शर्म-लिहाज़!'' <br />
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''अपना कहकर किस मुँह से माँगूँ, बाबा? हर तरफ़ तो क़र्ज़ से दबा हूँ, तन से, मन से, पैसे से, इज़्ज़त से, किसके बल पर दुनिया संजोने की कोशिश करूँ?'' कहते-कहते वह अपने में खो गया। <br />
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मुंशीजी वहीं बैठ गए। जब रात झुक आई तो जगपती के साथ ही मुंशीजी भी उठे। उसके कन्धे पर हाथ रखे वे उसे गली तक लाए। अपनी कोठरी आने पर पीठ सहलाकर उन्होंने उसे छोड़ दिया। वह गर्दन झुकाए गली के अँधेरे में उन्हीं ख़यालों में डूबा ऐसे चलता चला आया, जैसे कुछ हुआ ही न हो। पर कुछ ऐसा बोझ था, जो न सोचने देता था और न समझने। जब चाची की बैठक के पास से गुज़रने लगा, तो सहसा उसके कानों में भनक पड़ी—''आ गए सत्यानासी ! कुलबोरन !'' <br />
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उसने ज़रा नज़र उठाकर देखा, तो गली की चाची-भौजाइयाँ बैठक में जमा थीं और चंदा की चर्चा छिड़ी थी। पर वह चुपचाप निकल गया। <br />
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इतने दिनों बाद ताला खोला और बरोठे के अँधेरे में कुछ सूझ न पड़ा, तो एकाएक वह रात उसकी आँखों के सामने घूम गई, जब वह अस्पताल से चंदा के साथ लौटा था। बेवा चाची का वह ज़हर-बुझा तीर, ''आ गए राजा निरबंसिया अस्पताल से।'' और आज ''सत्यानासी ! कुलबोरन !'' और स्वयं उसका वह वाक्य, जो चंदा को छेद गया था, ''तुम्हारे कभी कुछ न होगा ।'' और उस रात की शिशु चंदा ! <br />
<br />
चंदा का लड़का हुआ है। वह कुछ और जनती, आदमी का बच्चा न जनती। वह और कुछ भी जनती, कंकड़-पत्थर ! वह नारी न बनती, बच्ची ही बनी रहती, उस रात की शिशु चंदा । पर चंदा यह सब क्या करने जा रही है? उसके जीते-जी वह दूसरे के घर बैठने जा रही है? कितने बड़े पाप में धकेल दिया चंदा को पर उसे भी तो कुछ सोचना चाहिए। आख़िर क्या? पर मेरे जीते-जी तो यह सब अच्छा नहीं। वह इतनी घृणा बर्दाश्त करके भी जीने को तैयार है, या मुझे जलाने को। वह मुझे नीच समझती है, कायर, नहीं तो एक बार ख़बर तो लेती। बच्चा हुआ तो पता लगता। पर नहीं, वह उसका कौन है? कोई भी नहीं। औलाद ही तो वह स्नेह की धुरी है, जो आदमी-औरत के पहियों को साधकर तन के दलदल से पार ले जाती है नहीं तो हर औरत वेश्या है और हर आदमी वासना का कीड़ा। तो क्या चंदा औरत नहीं रही? वह ज़रूर औरत थी, पर स्वयं मैंने उसे नरक में डाल दिया। वह बच्चा मेरा कोई नहीं, पर चंदा तो मेरी है। एक बार उसे ले आता, फिर यहाँ रात के मोहक अँधेरे में उसके फूल-से अधरों को देखता, निर्द्वन्द्व सोई पलकों को निहारता, साँसों की दूध-सी अछूती महक को समेट लेता। <br />
<br />
आज का अँधेरा ! घर में तेल भी नहीं जो दीया जला ले । और फिर किसके लिए कौन जलाए ? चंदा के लिए पर उसे तो बेच दिया था । सिवा चंदा के कौन-सी सम्पत्ति उसके पास थी, जिसके आधार पर कोई क़र्ज़ देता ? क़र्ज़ न मिलता तो यह सब कैसे चलता ? काम पेड़ कहाँ से कटते ? और तब शकूरे के वे शब्द उसके कानों में गूँज गए, ''हरा होने से क्या, उखट तो गया है।'' वह स्वयं भी तो एक उखटा हुआ पेड़ है, न फल का, न फूल का, सब व्यर्थ ही तो है। जो कुछ सोचा, उस पर कभी विश्वास न कर पाया। चंदा को चाहता रहा, पर उसके दिल में चाहत न जगा पाया। उसे कहीं से एक पैसा माँगने पर डाँटता रहा, पर ख़ुद लेता रहा और आज वह दूसरे के घर बैठ रही है उसे छोड़कर वह अकेला है, हर तरफ़ बोझ है, जिसमें उसकी नस-नस कुचली जा रही हैं, रग-रग फट गई है। और वह किसी तरह टटोल-टटोलकर भीतर घर में पहुँचा। <br />
<br />
''रानी अपने कुल-देवता के मंदिर में पहुँचीं,'' माँ सुनाया करती थीं, ''अपने सतीत्व को सिद्ध करने के लिए उन्होंने घोर तपस्या की। राजा देखते रहे। कुल-देवता प्रसन्न हुए और उन्होंने अपनी दैवी शक्ति से दोनों बालकों को तत्काल जन्मे शिशुओं में बदल दिया। रानी की छातियों में दूध भर आया और उनमें से धार फूट पड़ी, जो शिशुओं के मुँह में गिरने लगी। राजा को रानी के सतीत्व का सबूत मिल गया। उन्होंने रानी के चरण पकड़ लिए और कहा कि तुम देवी हो ! ये मेरे पुत्र हैं ! और उस दिन से राजा ने फिर से राज-काज संभाल लिया।'' <br />
<br />
पर उसी रात जगपती अपना सारा कारोबार त्याग, अफ़ीम और तेल पीकर मर गया क्योंकि चंदा के पास कोई दैवी शक्ति नहीं थी और जगपती राजा नहीं, बचनसिंह कम्पाउण्डर का क़र्ज़दार था। <br />
<br />
''राजा ने दो बातें कीं,'' माँ सुनाती थीं, ''एक तो रानी के नाम से उन्होंने बहुत बड़ा मन्दिर बनवाया और दूसरे, राज के नए सिक्कों पर बड़े राजकुमार का नाम खुदवाकर चालू किया, जिससे राज-भर में अपने उत्तराधिकारी की ख़बर हो जाए।'' <br />
<br />
जगपती ने मरते वक़्त दो परचे छोड़े, एक चंदा के नाम, दूसरा क़ानून के नाम। <br />
<br />
चंदा को उसने लिखा था, ''चंदा, मेरी अंतिम चाह यही है कि तुम बच्चे को लेकर चली आना। अभी एक-दो दिन मेरी लाश की दुर्गति होगी, तब तक तुम आ सकोगी। चंदा, आदमी को पाप नहीं, पश्चाताप मारता है, मैं बहुत पहले मर चुका था। बच्चे को लेकर ज़रूर चली आना।'' <br />
<br />
क़ानून को उसने लिखा था, ''किसी ने मुझे मारा नहीं है, किसी आदमी ने नहीं। मैं जानता हूँ कि मेरे ज़हर की पहचान करने के लिए मेरा सीना चीरा जाएगा। उसमें ज़हर है। मैंने अफ़ीम नहीं, रुपये खाए हैं। उन रुपयों में क़र्ज़ का ज़हर था, उसी ने मुझे मारा है। मेरी लाश तब तक न जलाई जाए, जब तक चंदा बच्चे को लेकर न आ जाए। आग बच्चे से दिलवाई जाए। बस।'' <br />
<br />
माँ जब कहानी समाप्त करती थीं, तो आसपास बैठे बच्चे फूल चढ़ाते थे। <br />
<br />
मेरी कहानी भी ख़त्म हो गई, पर...</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A4%AE%E0%A4%B2%E0%A5%87%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B0&diff=43719कमलेश्वर2023-08-03T18:17:58Z<p>अनिल जनविजय: /* कहानियाँ */</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=Kamleshwar.jpg<br />
|नाम=कमलेश्वर<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=06 जनवरी 1932<br />
|मृत्यु=27 जनवरी 2007<br />
|जन्मस्थान=मैनपुरी, उत्तर प्रदेश, भारत<br />
|कृतियाँ=[[कितने पाकिस्तान / कमलेश्वर|कितने पाकिस्तान]]<br />
|विविध=वर्ष 2003 [[साहित्य अकादमी पुरस्कार]] सहित अनेक [[प्रतिष्ठित पुरस्कार एवं सम्मान]] से सम्मानित। <br />
|जीवनी=[[कमलेश्वर / परिचय]]<br />
}}<br />
{{GKCatUttarPradesh}}<br />
====शोध====<br />
* [[कथा संस्कृति / कमलेश्वर]]<br />
<br />
====उपन्यास====<br />
* '''[[कितने पाकिस्तान / कमलेश्वर]]'''<br />
* [[अनबीता व्यतीत / कमलेश्वर]]<br />
* [[अम्मा / कमलेश्वर]]<br />
* [[काली आँधी / कमलेश्वर]]<br />
* [[एक सड़क सत्तावन गलियाँ / कमलेश्वर]] <br />
* [[अंतिम सफर / कमलेश्वर]] <br />
* खोया हुआ आदमी / कमलेश्वर<br />
* लौटे हुए मुसाफ़िर / कमलेश्वर <br />
* तीसरा आदमी / कमलेश्वर<br />
* चन्द्रकांता / कमलेश्वर<br />
* पति पत्नी और वह / कमलेश्वर<br />
* डाक बंगला / कमलेश्वर<br />
====संस्मरण====<br />
* [[स्मृतिशेष कमलेश्वर / गंगा प्रसाद विमल]]<br />
====कहानियाँ====<br />
* [[गर्मियों के दिन / कमलेश्वर]]<br />
* [[कामरेड / कमलेश्वर]]<br />
* [[क़सबे का आदमी / कमलेश्वर]]<br />
* [[आत्मा की आवाज़ / कमलेश्वर]]<br />
* [[लाश / कमलेश्वर]]<br />
* [[चप्पल / कमलेश्वर]]<br />
* [[देस-परदेस / कमलेश्वर]]<br />
* [[जार्ज पंचम की नाक / कमलेश्वर]]<br />
* [[दिल्ली में एक मौत / कमलेश्वर]]<br />
* बयान / कमलेश्वर<br />
* [[राजा निरबंसिया / कमलेश्वर]]<br />
* मांस का दरिया / कमलेश्वर<br />
* कहानी की तीसरी दुनिया / कमलेश्वर<br />
* राजा निरबंसिया / कमलेश्वर<br />
* साँप / कमलेश्वर<br />
* कुछ नहीं, कोई नहीं / कमलेश्वर<br />
* खोई हुई दिशाएँ / कमलेश्वर<br />
* देवा की माँ / कमलेश्वर<br />
* नीली झील / कमलेश्वर<br />
<br />
====यात्रा-संस्मरण====<br />
* कश्मीर रात के बाद / कमलेश्वर</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%96%E0%A4%BC%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%80_%E0%A4%A6%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%82_!_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%B6%E0%A5%81_%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%A4&diff=43656ख़ाली दीवारें ! / सुधांशु गुप्त2023-07-19T08:49:08Z<p>अनिल जनविजय: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=सुधांशु गुप्त |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=सुधांशु गुप्त<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
घर में चार कमरे हैं। चार कमरों में दो जन रहते हैं-पति-पत्नी। बच्चे बाहर सैटल हो गए हैं। कमरों की दीवारों पर व्हाइट पेण्ट किया हुआ है। अगर किसी दीवार पर उँगली फिराई जाए, तब भी दीवार पर कोई निशान नहीं बनता। आजकल इसी तरह के पेण्ट होते हैं। ताकि दीवारों पर कोई निशान न बने। सारी दीवारें ख़ाली हैं। एकदम ख़ाली। चुप। वे कुछ नहीं कहतीं। न इशारों में और न बोलकर। मुख्य कमरा, जिसे ड्राइंगरूम कह सकते हैं, की एक दीवार पर एक घड़ी लगी हुई है। गोल घड़ी। वह समय बताती रहती है। जब उसका सैल ख़त्म हो जाता है तो वह समय बताना बन्द कर देती है। कुछ दिन बन्द रहती है। जब नया सैल डलता है तो फिर से समय बताना शुरू कर देती है। देखने में घर की दीवारें सुन्दर लगती हैं। बाहर से आने वाला कोई भी व्यक्ति इन्हें देखकर कहता है कि कितना सुन्दर साफ़-सफ़ाई वाला घर है। ये सारी साफ़-सफ़ाई पत्नी ही करती-करवाती है। हर कमरे में ऊपर छत पर एक पँखा लटका हुआ है। लेकिन पँखे और घड़ी भी दीवारों का अकेलापन बढ़ाते हैं, बल्कि कभी-कभी तो लगता है ये दीवारों को चिढ़ा रहे हैं। दीवारों पर कोई कैलण्डर नहीं है, कोई शो पीस नहीं। इतनी ख़ाली दीवारें उसने पहले कभी नहीं देखीं। वह अपने किसी मित्र के यहाँ भी जाता है तो वहाँ की दीवारों को सबसे पहले देखता है। अजीब बात है कि सबके घरों की दीवारें ख़ाली दिखाई पड़ती हैं। वह सोचता है, पता नहीं लोग इतनी ख़ाली दीवारों के बीच कैसे रह लेते हैं। शायद अब कैलेण्डर की ज़रूरत भी ख़त्म हो गई है। तारीख़ और वर्ष हर समय आपके हाथ में रहता है। आप जब चाहें देख लें। कहीं जाने या बाहर देखने की कोई ज़रूरत नहीं है। यह नया मिज़ाज है, नया युग और नए लोग। अब लोग दीवारों को गन्दा करना पसन्द नहीं करते। शायद इसकी ज़रूरत भी नहीं रह गई है। आख़िर इतना पैसा लगाकर दीवारों को साफ़ किया जाता है। सब बहुत ज़्यादा सफ़ाईपसन्द हो गए हैं। उन्हें लगता है कि घर हर समय सुसज्जित होना चाहिए — साफ़-सुथरा। घर साफ़-सुथरे हो रहे हैं, हो गए हैं। वह इतनी सफ़ाई का कभी आदी नहीं रहा। उसे हमेशा से लगता है कि दीवारों पर यदि कोई दाग़, निशान या आकृति न दिखाई पड़े तो वह घर नहीं, मकान ही कहा जाएगा। घर की दीवारों पर अब आपको घर का इतिहास और वर्तमान नहीं मिलेगा। बिलकुल ख़ाली दीवारें हैं। चुप । अब घर की दीवारें घर के बारे में कुछ नहीं बतातीं। आप जो चाहें यहाँ लिख सकते हैं। लेकिन इन ख़ाली दीवारों पर कोई कुछ नहीं लिखता। कोई नहीं चाहता कि उनकी दीवारों से लोग उनके जीवन में ताक-झाँक करें। आख़िर सबकी अपनी निजी ज़िन्दगी है। कोई किसी को कुछ क्यों बताए। कोई किसी से कुछ क्यों पूछे। दीवारें भी, लगता है, मनुष्य के इस खेल में शामिल हो गई हैं। ऐसा ही लगता है। अब ऐसा ही है। <br />
<br />
पहले ऐसा नहीं था। दीवारें बहुत कुछ कहती थीं। आप किसी के घर की दीवारें देखें तो उस घर के बारे में सब कुछ जान सकते थे। तब शायद छिपाने के लिए कुछ था भी नहीं। सब कुछ खुला था। घर भी दीवारें भी। उसे याद है पहले वे पिता के घर में रहते थे। वहाँ की दीवारें बहुत बोलती थीं। उन दीवारों पर बहुत कुछ उकेरा हुआ आसानी से पढ़ा जा सकता था। उसे याद है, जब उनके घर में पहला लैण्डलाइन लगा तो उसका नम्बर घर की लगभग हर दीवार पर लिखा हुआ था — 2142114। ऐसा इसलिए करना पड़ा कि घर के सभी लोगों को नम्बर याद हो जाए। दीवारों पर लिखा वह नम्बर उसने इतनी बार पढ़ा कि आज तीस साल बाद भी उसे याद है। धीरे - धीरे सबको नम्बर याद हो गया। दीवारों पर और भी कई लोगों के लैण्डलाइन नम्बर लिखे होते थे। पता नहीं क्यों उस समय नम्बर डायरियों पर नहीं लिखे जाते थे। ये नम्बर भी पैंसिल से ही लिखे जाते थे। धीरे-धीरे नम्बर धुन्धला पड़ने लगता था। लेकिन नम्बर लिखने की परम्परा बनी रही। हर बार कोई न कोई नया नम्बर दीवार पर लिखा जाता। केवल नम्बर ही नहीं दीवारों पर और भी बहुत कुछ लिखा जाता था। दूधवाले का हिसाब। किस दिन कितना दूध दिया, किस दिन दूध नहीं लिया। और यह सब रसोई में नहीं लिखा होता था। दोनों कमरों में से किसी भी दीवार पर लिखा जा सकता था। घर में दीवारें सबकी थीं। सब दीवारों के थे। सब अपनी अपनी ज़रूरतों के हिसाब से दीवारों का प्रयोग करते थे। लाला के कितने पैसे देने हैं, टिण्डे के कितने और ब्याज पर लिए गए रुपयों का ब्याज किस तारीख़ को दिया गया या दिया जाएगा। दीवारों पर सब कुछ था। बच्चे छोटे थे। उन्हें दीवारों पर ऊटपटाँग लाइनें खींचने से कोई नहीं रोकता था। कई बार ये लाइनें किसी आकृति में बदल जातीं। कभी किसी आदमी की, कभी जानवर की। उस समय दीवार पर कोई न कोई कैलेण्डर ज़रूर लगा रहता था। ये कैलेण्डर एक साल तो दिन और वर्ष बताता, लेकिन एक साल बीतने के बाद भी यह उसी तरह टँगा रहता। कोई इसे उठाकर बाहर नहीं फेंकता। साल ~ख़त्म होने के बाद भी पता नहीं क्यों, उस कैलेंडर में आकर्षण बचा रहता। उसकी जगह नया कैलेण्डर आता, लेकिन वह एक जनवरी को ही आए, यह कतई ज़रूरी नहीं था। उन दिनों वार या तारीख़ देखने की कोई ख़ास आवश्यकता नहीं पड़ती थी। लेकिन कैलेण्डर ख़ाली दीवारों को भरने का काम ज़रूर करता था। दीवारों पर बहुत सी कीलें भी लगी रहतीं। उनपर कभी कपड़े टाँग दिए जाते और कभी वे कीलें ख़ाली रहतीं। लेकिन कीलें भी दीवारों में इस तरह घुलमिल जातीं कि अच्छा लगता। माँ को, बस, एक ही बात ख़राब लगती। दीवारों पर सरसों के तेल के निशान। ये निशान कोई जानबूझकर नहीं बनाता था। बच्चे सरसों को तेल लगाते थे और सिर दीवार से टिकाकर बैठते। लिहाजा दीवार पर उनके सिरों की छाप रह जाती। दीवार पर लगे सरसों के तेल के ये निशान साफ़ नहीं होते थे। ऐसा लगता कि इन्होंने दीवारों पर ही अपने लिए जगह तलाश ली है। एक दिन वह कमरे में बैठा था। अचानक उसने सामने वाली दीवार की तरफ़ देखा। दीवार की पुताई अपनी जगह से उखड़ रही थी। उसके लिए यह कोई नई बात नहीं थी। लेकिन कुछ देर दीवार के उस हिस्से को देखने के बाद उसे महसूस हुआ कि पुताई इस ढंग से उखड़ी है कि वहाँ किसी व्यक्ति की शक्ल उभर आई है। उसने और ध्यान से देखा। उसे वह शक्ल किसी लड़की की लगी। काफ़ी देर वह उस शक्ल को देखता रहा और लड़की को पहचानने की कोशिश करता रहा। उसे बहुत अधिक समय नहीं लगा। वह पहचान गया कि लड़की उसकी कॉलेज की मित्र है। इसके बाद से उसे घर की दीवारें और अधिक प्रिय लगने लगीं। हो सकता है घर के दूसरे सदस्यों को भी दीवारों पर अपनी - अपनी पसन्द के चित्र दिखाई पड़ते हों। एक दिन उसने सोचा कि घर की दीवार पर वह कोना तलाश किया जाए, जहाँ कोई निशान न हो। जहाँ दीवार साफ़ और ख़ाली हो। उसने चारों तरफ़ नज़र घुमाई। लेकिन आश्चर्य हुआ कि उसे कोई भी टुकड़ा ख़ाली दिखाई नहीं दिया। दीवारें कितनी भरी हुई थीं।<br />
<br />
उसने अपने घर की दीवारों को देखा। कहीं कोई भी कोना ऐसा नहीं है जो साफ और खाली न हो। कभी-कभी तो उसे शक होता है कि यहां लोग रहते हैं या नहीं। एक बार वह पड़ोस में रहने वाले तीन-चार वर्ष के बच्चे को अपने घर ले आया। बच्चा काफी देर खेलता रहा। उसके साथ, पत्नी के साथ। वह सोच रहा था कि खाली दीवारों को देखकर वह जरूर दीवारों पर कुछ लिखना चाहेगा। लेकिन बच्चे ने दीवार पर कुछ नहीं लिखा। आजकल बच्चों को इसी तरह प्रशिक्षित किया जाता है। वे दीवारों पर कुछ नहीं लिखते। और मां बाप का तो लिखने का सवाल ही पैदा नहीं होता। वह बच्चा काफी देर घर पर खेलता रहा लेकिन उसने कहीं कोई दीवार गन्दी नहीं की। बच्चा चला गया। यहां रहकर क्या करता। वह दीवार को पहले की तरह ही खाली छोड़ गया था। उसका मन हो रहा था कि बच्चा दीवार पर कुछ लिखता। लेकिन बच्चे ने ऐसा नहीं किया। <br />
वह चाहता है कि पहले की तरह ही दीवार पर कोई कैलेंडर लगा दे। किसी अभिनेत्री का...किसी बच्चे का...या जिस पर कोई लैंडस्केप बना हो। पता नहीं पत्नी को यह सूट करेगा या नहीं। वह दीवार को भरने के लिए कैलेंडर की खोज में शाहदरा चला गया। वहां फुटपाथ पर कई दुकानें सजी हैं। एक दुकान पर देवी-देवताओं के पोस्टर हैं, दूसरी पर फिल्मी अभिनेताओं-अभिनेत्रियों के पोस्टर, एक दुकान पर नवजात बच्चों के खूबसूरत फोटोज़ हैं और एक अन्य दुकान पर लैंडस्केप हैं। वह इस चौथी दुकान पर रुक गया। ध्यान से लैंडस्केप देखने लगा। बहुत सुंदर-सुंदर लैंडस्केप हैं। उसने एक लैंडस्केप देखा। उसमें शाम का दृश्य है। एक वृद्ध समुद्र के किनारे धीरे-धीरे चल रहा है। उसकी शक्ल नहीं दिखाई दे रही। फोटोग्राफर ने पीछे से फोटो खींची है। उसके कदमों के निशान रेत पर बने हुए दीख रहे हैं। शाम का वक्त है। सूरज डूब रहा है। सूरज की लालिमा समुद्र को लाल कर रही है। उसकी किरणें समुद्र के ऊपर मानो कोई रास्ता बना रही हैं। उसने फौरन उसे खरीद लिया। वह कैलेंडर घर ले आया। वह खुश था कि उसे मनपसंद कैलेंडर मिल गया। यह कैलेंडर उनके घर की दीवारों के खालीपन को भर देगा। <br />
घर आकर उसने कैलेंडर पत्नी के हाथ में देते हुए कहा, ‘खाली दीवारें अच्छी नहीं लगतीं, इसलिए एक कैलेंडर ले आया हूं। इसे कहीं लगा लेना....’<br />
पत्नी ने कोई जवाब नहीं दिया। कैलेंडर हाथ से लिया और अंदर पता नहीं कहां ले जाकर रख दिया। <br />
वह दीवारों को देखने लगा। उसे कहीं भी कोई कील नज़र नहीं आई। उसने सोचा फिर पत्नी कैलेंडर को कैसे दीवार पर लगाएगी। अगर लगाना चाहेगी तो लगा ही देगी। वह दो-तीन दिन इंतजार करता रहा। लेकिन कैलेंडर नहीं लगा। दीवारें पहले की तरह ही खाली रहीं। पत्नी किसी बहस में नहीं पड़ती। करती वह वही है, जो उसे करना होता है। कैलेंडर लेते समय भी वह जानती होगी कि इसे किसी दीवार पर नहीं लगाना है। लेकिन सामने मना करने के बजाय उसने कैलेंडर लेकर कहीं रख दिया। वह समझ गया कि यह कैलेंडर अब किसी दीवार पर नहीं लगेगा। <br />
<br />
उसके मन में आया कि क्यों न वह ख़ुद ही दीवार को थोड़ा सा गंदा कर दे। उसने एक पैंसिल उठाई। सोचा कोई नंबर दीवार पर लिखेगा...लेकिन कौन सा नंबर लिखे। सारे नंबर तो मोबाइल में दर्ज हैं। ऐसा कौन सा महत्वपूर्ण नंबर हो सकता है, जो उसे दीवार पर लिखना चाहिए। काफी सोचने के बाद भी उसे ऐसा कोई नंबर ध्यान नहीं आया। उसने दीवार को ऐसे ही छोड़ दिया। पता नहीं अचानक उसे क्या हुआ। वह बाथरूम में गया और वहां जाकर उसने सरसों का तेल अपने बालों पर लगा लिया। वापस आकर वह पलंग पर बैठ गया। वह चाहता था कि सिर दीवार से लगाकर आराम से बैठे। लेकिन जैसे ही वह पलंग पर बैठा पत्नी अंदर से आ गई। उसने आदेशात्मक लहजे में कहा, ‘दीवार से सिर लगाकर मत बैठना, वहां तेल का निशान बन जाएगा। अभी व्हाइट वाश कराई है। तेल का निशान दीवार से आसानी से नहीं मिटता।’ उसने कुछ नहीं कहा। पत्नी अंदर चली गई। वह सिर को दीवार से बचाकर बैठा रहा। दीवार खाली ही रही। वह कमरे में बैठा खाली दीवारों को देख रहा है। दीवारें इस हद तक खाली हैं कि डर लगता है। उसे यह भी समझ आ गया है कि अब उसे इन खाली दीवारों के साथ ही जीना है। अब इन दीवारों को भरने का कोई ज़रिया नहीं बचा है। आखिर एक समय के बाद दीवारें खाली हो ही जाती हैं।</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%B6%E0%A5%81_%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%A4&diff=43655सुधांशु गुप्त2023-07-19T08:24:29Z<p>अनिल जनविजय: /* कुछ प्रतिनिधि रचनाएँ */</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=Sudhanshu Gupt-.jpg.png<br />
|नाम=सुधांशु गुप्त<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=13 नवम्बर 1962<br />
|जन्मस्थान=सहारनपुर, उत्तर प्रदेश <br />
|मृत्यु=<br />
|कृतियाँ=ख़ाली काफ़ी हाउस (कहानी-संग्रह)<br />
|विविध= आजकल रेडियो और टीवी के लिए सीरियल लिखते हैं।<br />
|जीवनी=[[सुधांशु गुप्त / परिचय]]<br />
|अंग्रेज़ीनाम=Sudhanshu Gupt<br />
|shorturl=<br />
|kavitakosh=<br />
|copyright=<br />
}}<br />
{{GKCatUttarPradesh}}<br />
====कुछ प्रतिनिधि रचनाएँ====<br />
* [[यह सपना नहीं है / सुधांशु गुप्त]]<br />
* [[उसके साथ चाय का आख़िरी कप / सुधांशु गुप्त]]<br />
* [[सामान के बीच रखा पियानो / सुधांशु गुप्त]]<br />
* [[धूप का एक टुकड़ा / सुधांशु गुप्त]]<br />
* [[के की डायरी / सुधांशु गुप्त]]<br />
* [[गाँठ / सुधांशु गुप्त]]<br />
* [[स्माइल प्लीज ! / सुधांशु गुप्त]]<br />
* [[मुखौटा / सुधांशु गुप्त]]<br />
* [[प्रतिरोध की कहानी / सुधांशु गुप्त]]<br />
* [[ख़ाली दीवारें ! / सुधांशु गुप्त]]</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A6%E0%A5%82%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%BE_%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8_/_%E0%A4%AE%E0%A4%AE%E0%A4%A4%E0%A4%BE_%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE&diff=43646दूसरा देवदास / ममता कालिया2023-07-15T22:34:02Z<p>अनिल जनविजय: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
https://ncert.nic.in/textbook/pdf/lhat120.pdf<br />
हर की पौड़ी पर साँझ कुछ अलग रंग में उतरती है । दीया-बाती का समय या कह लो आरती की बेला । पाँच बजे जो फूलों के दोने एक-एक रुपये के बिक रहे थे, इस वक्त दो-दो के हो गए हैं । भक्तों को इससे कोई शिकायत नहीं । इतनी बड़ी-बड़ी मनोकामना लेकर आए हुए हैं । एक-दो रुपये का मुँह थोड़े ही देखना है । गंगा सभा के स्वयंसेवक ख़ाकी वरदी में मुस्तैदी से घूम रहे हैं । वे सबसे सीढ़ियों पर बैठने की प्रार्थना कर रहे हैं । शान्त होकर बैठिए, आरती शुरू होने वाली है । कुछ भक्तों ने स्पेशल आरती बोल रखी है । स्पेशल आरती यानी एक सौ एक या एक सौ इक्यावन रुपये वाली । गंगातट पर हर छोटे-बड़े मन्दिर पर लिखा है — ‘गंगा जी का प्राचीन मन्दिर ।’ पण्डितगण आरती के इन्तज़ाम में व्यस्त हैं । पीतल की नीलांजलि में सहस्र बत्तियाँ घी में भिगोकर रखी हुई हैं । सबने देशी घी के डब्बे अपनी ईमानदारी के प्रतीकस्वरूप सजा रखे हैं । गंगा की मूर्ति के साथ-साथ चामुण्डा, बालकृष्ण, राधाकृष्ण, हनुमान, सीताराम की मूर्तियों की शृंगारपूर्ण स्थापना है । जो भी आपका आराध्य हो, चुन लें ।<br />
<br />
आरती से पहले स्नान ! हर-हर बहता गंगाजल, निर्मल, नीला, निष्पाप । औरतें डुबकी लगा रही हैं । बस, उन्होंने तट पर लगे कुण्डों से बँधी ज़ंजीरें पकड़ रखी हैं। पास ही कोई न कोई पण्डा जजमानों के कपड़ों-लत्तों की सुरक्षा कर रहा है । हर एक के पास चन्दन और सिन्दूर की कटोरी है। मर्दों के माथे पर चन्दन तिलक और औरतों के माथे पर सिन्दूर का टीका लगा देते हैं पण्डे । कहीं कोई दादी-बाबा पहला पोता होने की ख़ुशी में आरती करवा रहे हैं, कहीं कोई नई बहू आने की ख़ुशी में । अभी पूरा अन्धेरा नहीं घिरा है । गोधूलि बेला है ।<br />
<br />
यकायक सहस्र दीप जल उठते हैं । पण्डित अपने आसन से उठ खड़े होते हैं । हाथ में अँगोछा लपेट के पञ्चमंज़िली नीलांजलि पकड़ते हैं और शुरू हो जाती है आरती। पहले पुजारियों के भर्राए गले से समवेत स्वर उठता है — जय गंगे माता, जो कोई तुझको ध्याता, सारे सुख पाता, जय गंगे माता । घण्टे -घड़ियाल बजते हैं । मनौतियों के दिये लिए हुए फूलों की छोटी-छोटी किश्तियाँ गंगा की लहरों पर इठलाती हुई आगे बढ़ती हैं । गोताखोर दोने पकड़, उनमें रखा चढ़ावे का पैसा उठाकर मुँह में दबा लेते हैं । एक औरत ने इक्कीस दोने तैराएँ हैं । गंगापुत्र जैसे ही एक दोने से पैसा उठाता है, औरत अगला दोना सरका देती है । गंगापुत्र उसपर लपकता है कि पहले दोने की दीपक से उसके लँगोट में आग की लपट लग जाती है । पास खड़े लोग हँसने लगते हैं । पर गंगापुत्र हतप्रभ नहीं होता । वह झट गंगाजी में बैठ जाता है । गंगा मैया ही उसकी जीविका और जीवन है । इसके रहते वह बीस चक्कर मुँह भर-भर रेज़गारी बटोरता है । उसकी बीवी और बहन कुशाघाट पर रे्गाज़री बेचकर नोट कमाती हैं । एक रुपए के पच्चासी पैसे । कभी-कभी अस्सी भी देती हैं । जैसा दिन हो ।<br />
<br />
पुजारियों का स्वर थकने लगता है तो लता मंगेशकर की सुरीली आवाज़ लाउडस्पीकरों के साथ सहयोग करने लगती है और आरती में यकायक एक स्निग्ध सौन्दर्य की रचना हो जाती है । ‘ओम जय जगदीश हरे’ से हर की पौड़ी गुंजायमान हो जाती है ।<br />
<br />
औरतें ज़्यादातर नहाकर वस्त्र नहीं बदलतीं । गीले कपड़ों में ही खड़ी-खड़ी आरती में शामिल हो जाती हैं। पीतल की पञ्चमंज़िली नीलांजलि गरम हो उठी है । पुजारी नीलांजलि को गंगाजल से स्पर्श कर, हाथ में लिपटे अँगोछे को नामालूम ढंग से गीला कर लेते हैं । दूसरे यह दृश्य देखने पर मालूम होता है वे अपना सम्बोधन गंगाजी के गर्भ तक पहुँचा रहे हैं । पानी पर सहस्र बाती वाले दीपकों की प्रतिच्छवियाँ झिलमिला रही हैं । पूरे वातावरण में अगरु-चन्दन की दिव्य सुगन्ध है । आरती के बाद बारी है संकल्प और मंत्रोच्चार की । भक्त आरती लेते हैं, चढ़ावा चढ़ाते हैं । स्पेशल भक्तों से पुजारी ब्राह्मण-भोज, दान, मिष्ठान की धनराशि कबुलवाते हैं । आरती के क्षण इतने भव्य और दिव्य रहे हैं कि भक्त हुज्जत नहीं करते । ख़ुशी-ख़ुशी दक्षिणा देते हैं । पण्डित जी प्रसन्न होकर भगवान के गले से माला उतार-उतारकर यजमान के गले में डालते हैं । फिर जी खोलकर देते हैं प्रसाद, इतना कि अपना हिस्सा खाकर भी ढेर सा बच रहता है, बाँटने के लिए-मुरमरे, इलायचीदाना, केले और पुष्प ।<br />
<br />
खर्च हुआ पर भक्तों के चेहरे पर कोई मलाल नहीं। कई खर्च सुखदायी होते हैं ।<br />
<br />
कुछ पण्डे अभी भी अपने तख़्त पर जमे हैं । देर से आनेवाले भक्तों का स्नान - ध्यान अभी जारी है। आरती के दोने फिर एक रुपये में बिकने लगे हैं । गंगाजल आकाश के साथ रंग बदल रहा है।<br />
<br />
सम्भव काफ़ी देर से नहा रहा था । जब घाट पर आया तो मंगल पण्डा बोले,— ‘का हो जजमान, बड़ी<br />
देर लगाय दी। हम तो डर गए थे।’<br />
<br />
सम्भव हंसा । उसके एकसार ख़ूबसूरत दाँत साँवले चेहरे पर फब उठे । उसने लापरवाही से कपड़े पहने और जांघिया निचोड़कर थैले में डाला । जब वह कुरते से पोंछकर चश्मा लगा रहा था, पण्डे ने उसके माथे पर चन्दन तिलक लगाने को हाथ बढ़ाया ।<br />
<br />
‘उ हूँ’ — उसने चेहरा हटा लिया तो मंगल पण्डा ने कहा,— ‘चन्दन तिलक के बग़ैर अस्नान अधूरा होता है, बेटा ।’<br />
<br />
सम्भव ने चुपचाप तिलक लगवा लिया । वह वापस सीढ़ियाँ चढ़ ही रहा था कि पौड़ी पर बने एक छोटे से मन्दिर के पुजारी ने आवाज़ लगाई, — ‘अरे दर्शन तो करते जाओ’।<br />
<br />
सम्भव ठिठक गया ।<br />
<br />
उसकी इन चीज़ों में नियमित आस्था तो नहीं थी, पर नानी ने कहा था, ‘मंदिर में बीस आने चढ़ाकर आना।’<br />
संभव ने कुरते की जेब में हाथ डाला। एक रुपए का नोट तो मिल गया चवन्नी के लिए उसे कुछ प्रयत्न करना पड़ा। चवन्नी जेब में नहीं थी। संभव ने थैला खखोरा। पुजारी ने उसकी परेशानी ताड़ ली।<br />
<br />
इधर आओ, हम दें रेजगारी।<br />
<br />
संभव ने झेंपते हुए एक का नोट जेब में रखकर दो का नोट निकाला। पुजारी जी ने चरणामृत दिया और लाल रंग का कलावा बाँधने के लिए हाथ बढ़ाया।<br />
<br />
संभव का ध्यान कलावे की तरफ़ नहीं था। वह गंगा जी की छटा निहार रहा था। तभी एक और दुबली नाज़ुक सी कलाई पुजारी की तरफ़ बढ़ आई। पुजारी ने उस पर कलावा बाँध दिया। उस हाथ ने थाली में सवा पाँच रुपए रखे।<br />
लड़की अब बिलकुल बराबर में खड़ी, आँख मूँदकर अर्चन कर रही थी। संभव ने यकायक मुड़कर उसकी ओर गौर किया। उसके कपड़े एकदम भीगे हुए थे, यहाँ तक कि उसके गुलाबी आँचल से संभव के कुर्ते का एक कोना भी गीला हो रहा था। लड़की के लम्बे गीले बाल पीठ पर काले चमकीले शॉल की तरह लग रहे थे। दीपकों के नीम उजाले में, आकाश और जल की साँवली सन्धि - बेला में, लड़की बेहद सौम्य, लगभग काँस्य प्रतिमा लग रही थी।<br />
<br />
लड़की ने कहा, पण्डित जी, आज तो आरती हो चुकी। क्या करें हमें देर हो गई।<br />
<br />
पुजारी ने उत्साह से कहा, इससे क्या, हम हिंया कराय दें। का कराना है संकल्प, कल्याण-मंत्र, आरती ? जो कहो ।यहीं हम कल आरती की बेला आएँगे। लड़की ने कहा।<br />
<br />
संभव इन्तज़ार में खड़ा था कि पुजारी उसे पचहत्तर पैसे लौटाए। लेकिन पुजारी भूल चुका था।<br />
<br />
जाने कैसे पुजारी ने लड़की के ‘हम’ को युगल अर्थ में लिया कि उसके मुँह से अनायास आशीष निकली, सुखी रहो, फलो - फूलो, जब भी आओ साथ ही आना, गंगा मैया मनोरथ पूरे करें ।<br />
<br />
लड़की और लड़का दोनों अकबका गए।<br />
<br />
लड़की छिटककर दूर खड़ी हो गई।<br />
<br />
लड़के को तुरन्त वहाँ से चल पड़ने की जल्दी हो गई ।<br />
<br />
शायद उनकी चप्पलें एक ही रखवाले के यहाँ रखी हुई थीं । टोकन देकर चप्पलें लेते समय दोनों की निगाहें एक बार फिर टकरा गईं । आँखों का चकाचौंध अभी मिटा नहीं था ।<br />
<br />
संभव आगे बढ़कर कहना चाहता था, देखिए, इसमें मेरी कोई ग़लती नहीं थी। पुजारी ने ग़लत अर्थ ले लिया।<br />
<br />
लड़की कहना चाहती थी, आपको इतना पास नहीं खड़ा होना चाहिए था।<br />
<br />
लड़की ने अपना होंठ दाँतों में दबाकर छोड़ दिया। भूल तो उसी की थी। बाद में तो वही आई थी। अंधेरे से घबराकर कहाँ, कितनी पास खड़ी हुई, उसे कुछ खबर नहीं थी। लेकिन बातचीत के लायक दोनों की मनःस्थिति नहीं थी। पहचान भी नहीं। दोनों ने नज़रें बचाते हुए चप्पलें पहनीं।<br />
<br />
लड़की घबराहट में ठीक से चप्पल पहन नहीं पाई। थोड़ी सी अँगूठे में अटकाकर ही आगे बढ़ गई।<br />
<br />
संभव ने आगे लपककर देखना चाहा कि लड़की किस तरफ़ गई। वह घाट की भीड़ को काटता हुआ सब्ज़ीमण्डी पहुंँच गया। हर की पौड़ी और सब्ज़ीमण्डी के बीच अनेक घुमावदार गलियाँ थीं।<br />
<br />
लड़का देख नहीं पाया कि लड़की कहाँ ओझल हो गई।<br />
<br />
नानी का घर क़रीब आ गया था, लेकिन लड़का घर नहीं गया। वह वापस अनदेखी गलियों में चक्कर लगाता रहा। उसने चूड़ी की समस्त दुकानों पर नज़र दौड़ाई। हर दुकान पर भीड़ थी पर एक भीगी, गुलाबी आकृति नहीं थी। आखिर भटकते-भटकते संभव हार गया। पस्त क़दमों से वह घर की ओर मुड़ा।<br />
<br />
नानी ने द्वार खोलते हुए कहा, फ्कहाँ रह गए थे लल्ला। मैं तो जी में बड़ा काँप रही थी। तुझे<br />
तो तैरना भी न आवे। कहीं पैर फिसल जाता तो मैं तेरी माँ को कौन मुँह दिखाती।<br />
<br />
संभव कुछ नहीं बोला। थैला तख्त पर पटक, पैर धोने नल के पास चला गया।<br />
<br />
नानी बोली, ब्यालू कर ले।<br />
<br />
संभव फिर भी नहीं बोला।<br />
<br />
नानी की आदत थी एक बात को कई-कई बार कहती। संभव तख्त पर लेट गया।<br />
नानी ने कहा, थक गया न। अरे तुझे मेले-ठेले में चलने की आदत थोड़ेई है। कल बैसाखी है, इसलिए भीड़ बहुत बढ़ गई है। अभी तो कल देखना, तिल धरने की जगह नहीं मिलेगी पौड़ी पर।<br />
<br />
चल, उठ । खायबे को खा ले।<br />
<br />
मुझे भूख नहीं है, संभव ने कहा और करवट बदल ली।<br />
<br />
फ्अरे क्या हो गया। अस्नान वेफ बाद भी भूख नाँय चमकी। तभी न इतनी सींक सलाई देही है।<br />
मैंने सबिता से पहले ही कही थी, इसे अवेफले ना भेज। यहाँ जी ना लगे इसका। नानी पास खड़े खटोले पर अधलेटी हो गई। उम्र के साथ-साथ नानी की काया इतनी संक्षिप्त हो गई थी कि वे फैल - पसर कर सोती तो भी उनके लिए खटोला पर्याप्त था। पर उन्हें सिकुड़कर, गठरी बनकर सोने की आदत थी।<br />
<br />
गंगा को छूकर आती हवा से आँगन काफ़ी शीतल था। ऊपर से नानी ने रोज़ की तरह शाम को चौक धो डाला था।<br />
नींद और स्वप्न के बीच संभव की आँखों में घाट की पूरी बात उतर आई। लड़की का आँख मूँदकर अर्चना करना, माथे पर भीगे बालों की लट, कुरते को छूता उसका गुलाबी आँचल और पुजारी से कहता उसका सौम्य स्वर ‘हम कल आएँगे।’<br />
<br />
संभव की आँख खुल गई। यह तो वह भूल ही गया था। लड़की ने कल वहाँ आने का वचन दिया था। संभव आशा आौर उत्साह से उठ बैठा।<br />
<br />
नानी को झकझोरते हुए बोला, फ्नानी, नानी चलो खा लें मुझे भूख लगी है।य् नानी की नींद झूले<br />
वेफ समान थी, कभी गहरी, कभी उथली। उथले झोटे में उन्हें धेवते की सुध आई। वे रसोई से थाली<br />
उठा लाईं।<br />
संभव ने बहुत मगन होकर खाना शुरू किया, फ्वाह नानी! क्या आलू टमाटर बनाया है, माँ तो<br />
ऐसा बिलवुफल नहीं बना सकतीं। ककड़ी का रायता मुझे बहुत पसंद है।य्<br />
खाते-खाते संभव को याद आया आशीर्वचन की दुर्घटना तो बाद में घटी थी। वह कौर हाथ में<br />
लिए बैठा रह गया। उसकी आँखों वेफ बीच आगे वुफछ घंटे पहले का सारा दृश्य घूम गया। पुजारी का<br />
वह मंत्रोच्चार जैसा पवित्रा उद्गार ‘सुखी रहो, पूफलो-पफलो, सारे मनोरथ पूरे हों। जब भी आओ साथ<br />
ही आना।’ लड़की का चिहुँकना, छिटककर दूर खड़े होना, घबराहट में चप्पल भी ठीक से न पहन<br />
पाना और आगे बढ़ जाना।<br />
संभव ने विचलित स्वर में कहा, फ्मुझे भूख नाँय। मैं तो यों ही उठ बैठा था।य्<br />
सारी रात संभव की आँखों में शाम मँडराती रही। उसकी श्यादा उम्र नहीं थी। इसी साल एम.ए.<br />
पूरा किया था। अब वह सिविल सर्विसेश प्रतियोगिताओं में बैठने वाला था। माता-पिता का खयाल<br />
था वह हरिद्वार जाकर गंगा जी वेफ दर्शन कर ले तो बेखटवेफ सिविल सेवा में चुन लिया जाएगा। लड़का<br />
इन टोटकों को नहीं मानता था पर घूमना और नानी से मिलना उसे पसंद था।<br />
अभी तक उसवेफ जीवन में कोई लड़की किसी अहम भूमिका में नहीं आई थी। लड़कियाँ या तो<br />
क्लास में बाँयी तरप़्<br />
ाफ की बेंचों पर बैठनेवाली एक कतार थी या पिफर ताई चाची की लड़कियाँ जिनवेफ<br />
साथ खेलते खाते वह बड़ा हुआ था। इस तरह बिलवुफल अवेफली, अनजान जगह पर, एक अनाम<br />
लड़की का सद्य-स्नात दशा में सामने आना, पुजारी का गलत समझना, आशीर्वाद देना, लड़की का<br />
घबराना और चल देना सब मिलाकर एक नयी निराली अनुभूति थी जिसमें उसे वुफछ सुख और श्यादा<br />
बेचैनी लग रही थी। उसने मन ही मन तय किया कि कल शाम पाँच बजे से ही वह घाट पर जाकर<br />
बैठ जाएगा। पौड़ी पर इस तरह बैठेगा कि कल वाले पुजारी वेफ देवालय पर सीधी आँख पड़े।<br />
उसने तो लड़की का नाम भी नहीं पूछा। वैसे वह हरिद्वार की नहीं लगती थी। वैफसी लगती थी,<br />
संभव ने याद करने की कोशिश की। उसे सिप़्र्<br />
ाफ उसकी दुबली पतली काया, गुलाबी साड़ी, और<br />
भीगी-भीगी श्याम सलोनी आँखें दिखीं। उसे अप़्<br />
ाफसोस था वह उसे ठीक से देख भी नहीं पाया पर<br />
यह तय था कि वह उसे हशारों की भीड़ में भी पहचान लेगा।<br />
अभी चिड़ियों ने आँगन में लगे अमरूद वेफ पेड़ पर चहचहाना शुरू ही किया था कि नानी ने<br />
आवाश दी, फ्लल्ला चलेगा गंगाजी, आज बैसाखी है।य्<br />
2022.23<br />
154 / अंतरा<br />
154/अंतरा<br />
संभव को लगा वह रातभर सोया नहीं है। नानी की मौजूदगी में जैसे उसे संकोच हो रहा था।<br />
उसने कहा, फ्तुम मेरे भी नाम की डुबकी लगा लेना नानी, मैं तो अभी सोउँफगा।य्<br />
नानी द्वार उढ़काकर चली गईं, तो लड़वेफ ने अपनी कल्पना को निर्द्वंद्व छोड़ दिया। आज जब वह<br />
सलोनी उसे दिखेगी तो वह उसवेफ पास जाकर कहेगा, फ्पुजारी जी की नादानी का मुझे बेहद अप़्<br />
ाफसोस<br />
है। यकीन मानिए, पंडित जी मेरे लिए भी उतने ही अनजान हैं। जितने आपवेफ लिए।य्<br />
लड़की कहेगी, फ्कोई बात नहीं।य्<br />
वह पूछेगा, फ्आप दिल्ली से आई हैं?य्<br />
लड़की कहेगी, फ्नहीं हम तो... वेफ हैं।य्<br />
बस उसवेफ हाथ पते की बात लग जाएगी। अगर उसने रुख दिखाया तो वह कहेगा, फ्मेरा नाम<br />
संभव है और आपका?य्<br />
वह क्या कहेगी? उसका नाम क्या होगा। वह बी.ए. में पढ़ रही होगी या एम.ए. में? इन सवालों<br />
वेफ जवाब वह अभी ढूँढ भी नहीं पाया था कि नानी वापस आ गईं।<br />
फ्ले तू अभी तक सुपने ले रहा है, वहाँ लाखन लाख लोग नहान कर लिए। अरे कभी तो बड़ों<br />
का कहा कर लो।य् लड़वेफ की तंद्रा नष्ट हो गई। नानी उवाच वेफ बीच सपने नौ दो ग्यारह हो गए।<br />
लड़वेफ ने उठते-उठते तय किया कि इस वक्त वह घाट तक चला तो जाएगा, पर नहाएगा नहीं।<br />
हाथ-मुँह धोकर प्रार्थना कर लेगा। वुफछ देर पौड़ी पर बैठ गंगा की जलराशि निहारेगा। लौटते हुए<br />
मथुरा जी की प्राचीन दुकान से गरम जलेबी खरीदेगा और वापस आ जाएगा। उसने वुफरते की जेब<br />
में बीस का नोट डाला और चल दिया।<br />
वास्तव में पौड़ी पर आज अद्भुत भीड़ थी। गंगा वेफ घाट से भी चौड़ा मानव-रेला दिखाई दे रहा<br />
था। भोर की आरती हो चुकी थी। लेकिन भजन शोर-शोर से चले जा रहे थे। नारियल, पूफल और<br />
प्रसाद की घनघोर बिक्री थी।<br />
भीड़ लड़के ने दिल्ली में भी देखी थी, बल्कि रोज़ देखता था। दफ़्तर जाती भीड़, ख़रीद-फ़रोख़्त करती भीड़, तमाशा देखती भीड़, सड़क क्रॉस करती भीड़। लेकिन इस भीड़ का अन्दाज़ निराला था।<br />
<br />
इस भीड़ में एकसूत्रता थी। न यहाँ जाति का महत्त्व था, न भाषा का, महत्त्व उद्देश्य का था और वह सबका समान था, जीवन के प्रति कल्याण की कामना। इस भीड़ में दौड़ नहीं थी, अतिक्रमण नहीं था और भी अनोखी बात यह थी कि कोई भी स्नानार्थी किसी सैलानी आनंद में डुबकी नहीं लगा रहा था। बल्कि स्नान से ज़्यादा समय ध्यान ले रहा था। दूर जलधारा के बीच एक आदमी सूर्य की ओर उन्मुख हाथ जोड़े खड़ा था। उसके चेहरे पर इतना विभोर, विनीत भाव था मानो उसने अपना सारा अहम त्याग दिया है, उसके अंदर ‘स्व’ से जनित कोई कुण्ठा शेष नहीं है, वह विशुद्ध रूप से चेतनस्वरूप, आत्माराम और निर्मलानंद है।<br />
<br />
एक छोटे से लड़के ने लगभग हँसते हुए उसका ध्यान भंग किया। भैया, आप नहीं नहाएँगे?<br />
<br />
संभव ने गौर किया। जाने कब पौड़ी पर उसके नज़दीक यह बच्चा आ बैठा था। उसका भाल चंदन चर्चित था। चेहरे पर चमकीली ताज़गी थी।<br />
<br />
अकेले हो ?<br />
<br />
नहीं बुआ साथ हैं।<br />
<br />
कहाँ से आए हो ?<br />
<br />
रोहतक <br />
<br />
अब वापस जाओगे?<br />
नहीं — बच्चे ने चमकीली आँखों से बताया,— अभी तो मंसा देवी जाना है, वह उधर। बच्चा सामने पहाड़ी पर बना एक मंदिर इंगित से दिखाने लगा।<br />
<br />
यह स्थल संभव को पहले दिन से ही अपनी ओर खींच रहा था। लेकिन नानी ने उसे बरज दिया था, — ना लल्ला मंसा देवी जाना है तो क्या वह झूलागाड़ी में तो बैठियो न। रस्सी से चलती है, क्या पता कब टूट जाए। एक बार टूटी थी, हज़ारन मरे - गिरे थे। जाना है तो चढ़कर जाना, उसका महातम अलग है।"<br />
<br />
संभव बहुत शारीरिक मेहनत में यक़ीन नहीं करता था। बरसों से कुरसी पर बैठ पढ़ते-पढ़ते उसे सक्रियता के नाम पर हमेशा किसी दिमागी हरकत का ही ध्यान आता था। उसे यहाँ सुबह-सुबह नानी का झाड़ ू<br />
लगाना, चक्की चलाना, पानी भरना, रात वेफ माँजे<br />
बरतन पिफर से धो-धोकर लगाना, सब कष्ट दे रहा था। वह एतराश नहीं कर रहा था तो सिप़्र्<br />
ाफ इसलिए<br />
कि महश चार दिन रुककर वह नानी की दिनचर्या में हस्तक्षेप करने का अधिकारी नहीं बन सकता।<br />
संभव ने बच्चे से कहा, फ्अगर गिर गए तो?य्<br />
बच्चा हँसा, फ्इतने बड़े होकर डरते हो भैया? गिरेंगे वैफसे, इतने लोग जो चढ़ रहे हैं।य्<br />
शहर वेफ इतिहास वेफ साथ-साथ संभव उसका भूगोल भी आत्मसात करना चाहता था। इसलिए<br />
थोड़ी देर बाद वह अटकता भटकता, उस जगह पहुँच गया जहाँ से रोपवे शुरू होती थी।<br />
रोपवे वेफ नाम में कोई धर्माडंबर नहीं था। ‘उषा ब्रेको सर्विस’ की खिड़की वेफ आगे लंबा क्यू था।<br />
वहीं मंसा देवी पर चढ़ाने वाली चुनरी और प्रसाद की थैलियाँ बिक रही थीं। पाँच, सात और ग्यारह<br />
रुपए की। कई बच्चे ¯बदी-पाउडर और उसवेफ साँचे बेच रहे थे, तीन-तीन रुपए। उन्होंने अपनी हथेली<br />
पर कलात्मक ¯बदियाँ बना रखी थीं। नमूने की खातिर। उससे पहले संभव ने कभी ¯बदी जैसे शृंगार<br />
प्रसाधन पर ध्यान नहीं दिया था। अब यकायक उसे ये ¯बदियाँ बहुत आकर्षक लगीं। मन ही मन उसने<br />
एक ¯बदी उस अज्ञातयौवना वेफ माथे पर सजा दी। माँग में तारे भर देने जैसे कई गाने उसे आधे अधूरे<br />
याद आकर रह गए। उसका नंबर बहुत जल्द आ गया। अब वह दूसरी कतार में था जहाँ से वेफबिल<br />
कार में बैठना था। सभी काम बड़ी तत्परता से हो रहे थे।<br />
जल्द ही वह उस विशाल परिसर में पहुँच गया जहाँ लाल, पीली, नीली, गुलाबी वेफबिल कार<br />
बारी-बारी से आकर रुकतीं, चार यात्राी बैठातीं और रवाना हो जातीं। वेफबिल कार का द्वार खोलने और<br />
बंद करने की चाभी ऑपरेटर वेफ नियंत्राण में थी। संभव एक गुलाबी वेफबिल कार में बैठ गया। कल<br />
से उसे गुलाबी वेफ सिवा और कोई रंग सुहा ही नहीं रहा था। उसवेफ सामने की सीट पर एक<br />
नवविवाहित दंपति चढ़ावे की बड़ी थैली और एक वृ( चढ़ावे की छोटी थैली लिए बैठे थे।<br />
संभव को अप़्<br />
ाफसोस हुआ कि वह चढ़ावा खरीदकर नहीं लाया। इस वक्त जहाँ से वेफबिल कार<br />
गुशर रही थी, नीचे कतारब( पूफल खिले हुए थे। लगता था रंग-बिरंगी वादियों से कोई ¯हडोला उड़ा<br />
जा रहा है।<br />
एक बार चारों ओर वेफ विहंगम दृश्य में मन रम गया तो न मोटे-मोटे प़्<br />
ाफौलाद वेफ खंभें नशर आए<br />
और न भारी वेफबिल वाली रोपवे। पूरा हरिद्वार सामने खुला था। जगह-जगह मंदिरों वेफ बुर्ज, गंगा मैया<br />
की धवल धार और सड़कों वेफ खूबसूरत घुमाव। नीचे सड़क वेफ रास्ते चढ़ते, हाँपफते लोग। लिमका<br />
की दुकानें और नाम अनाम पेड़।<br />
बहुत जल्द उनकी वेफबिल कार मंसा देवी वेफ द्वार पर पहुँच गई। यहाँ पिफर चढ़ावा बेचने वाले<br />
बच्चे नशर आए।<br />
संभव ने एक थैली खरीद ली और सीढ़ियाँ चढ़कर प्रांगण में पहुँच गया।<br />
नाम मंसा देवी का था पर वर्चस्व सभी देवी-देवताओं का मिला जुला था।<br />
2022.23<br />
ममता कालिया/157<br />
एकदम अंदर वेफ प्रकोष्ठ में चामुंडा रूप धारिणी मंसादेवी स्थापित थीं। व्यापार यहाँ भी था।<br />
मनोकामना वेफ हेतुक लाल-पीले धागे सवा रुपए में बिक रहे थे। लोग पहले धागा बाँधते, पिफर<br />
देवी वेफ आगे शीश नवाते।<br />
संभव ने भी पूरी श्र(ा वेफ साथ मनोकामना की, गाँठ लगाई, सिर झुकाया, नैवेद्य चढ़ाया और वहाँ<br />
से बाहर आ गया।<br />
आँगन में रुद्राक्ष मालाओं की अनेक गुमटियाँ थीं, जहाँ दस रुपए से लेकर तीन हशार तक की<br />
मालाओं पर लिखा थाµ‘असली रुद्राक्ष, नकली साबित करने वाले को पाँच सौ रुपए इनाम।’<br />
एक तरप़्<br />
ाफ हलवाई गरम जलेबी, पूरी, कचौड़ी छान रहे थे। मेले का माहौल था।<br />
संभव वापस वेफबिल कार की कतार में लग गया।<br />
वापसी का रास्ता ढलवाँ था। कार और भी जल्द नीचे पहुँच रही थी।<br />
इस बार संभव वेफ साथ तीन समवयस्क लड़वेफ बैठे हुए थे वह वेफबिल कार की ढलवाँ दौड़ देख<br />
रहा था कि यकायक दो आश्चर्य एक साथ घटित हुए।<br />
वह बच्चा जो पौड़ी पर उसवेफ करीब आकर बैठ गया था, दूर पीली वेफबिल कार में नशर आया।<br />
बच्चे की लाल कमीज़ उसे अच्छी तरह याद थी। हालाँकि इतनी दूर से उसका चेहरा स्पष्ट नज़र नहीं<br />
आ रहा था ।<br />
<br />
और बच्चे से सटी हुई जो दुबली, पतली, श्याम सलोनी आकृति बैठी थी, वह थी वही लड़की, जो कल शाम के झुटपुटे में हर की पौड़ी पर उससे टकराई थी ।<br />
<br />
संभव बेहद बेचैन हो गया। वह दाएँ-बाएँ झुक-झुककर चीह्नने की कोशिश करने लगा। उसका मन हुआ पंछी की तरह उड़कर पीली केबिल कार में पहुँच जाए ।<br />
<br />
बहुत जल्द केबिल कार वापस नीचे पहुँच गई।<br />
<br />
संभव ने आगे-आगे जाते बच्चे को लपककर कन्धे से थाम लिया और बोला, कहो दोस्त ?<br />
<br />
बच्चे ने अचकचाकर उसकी ओर देखा, "अरे भैया। रुककर बोला, हमने सोचा, जब हमारा दोस्त नहीं डरता तो हो जाए एक ट्रिप।<br />
<br />
तभी आगे से एक महीन सी आवाज़ ने कहा, "मन्नू घर नहीं चलना है।"<br />
<br />
बालक मन्नू ने कहा, "अभी आया बुआ।"<br />
<br />
सम्भव ने अस्फुट स्वर में पूछा, "ये तुम्हारी बुआ हैं।"<br />
<br />
"और क्या" मन्नू ने साश्चर्य जवाब दिया।<br />
<br />
"हमें नहीं मिलाओगे, हम तो तुम्हारे दोस्त हैं।"<br />
<br />
मन्नू वाकई उसका हाथ खींचता हुआ चल दिया, "बुआ, बुआ, इनसे मिलो, ये हैं हमारे नए दोस्त..."<br />
<br />
उसने प्रश्नवाचक नज़रों से सम्भव को देखा, "अपना नाम ख़ुद बताइए।" वह अपना नाम बताता, इससे पहले उसी <br />
महीन मीठी आवाज़ ने कहा, "ऐसे कैसे दोस्त हैं तुम्हारे, तुम्हें उनका नाम भी नहीं पता ? अब संभव ने गौर किया, बिलकुल वही कण्ठ, वही उलाहना, वही अन्दाज़ । पुलक से उसका रोम-रोम हिल उठा। हे ईश्वर ! उसने कब सोचा था, मनोकामना का मौन उद्गार इतनी शीघ्र शुभ परिणाम दिखाएगा ।<br />
<br />
लड़की ने आज गुलाबी परिधान नहीं पहना था पर सफ़ेद साड़ी में लाज से गुलाबी होते हुए उसने मंसा देवी पर एक और चुनरी चढ़ाने का संकल्प लेते हुए सोचा, मनोकामना की गाँठ भी अद्भुत, अनूठी है, इधर बाँधो उधर लग जाती है...। <br />
<br />
"पारो बुआ, पारो बुआ, इनका नाम है..." मन्नू ने बुआ का आँचल खींचते हुए कहा ।<br />
<br />
"सम्भव देवदास" सम्भव ने हँसते हुए वाक्य पूरा किया । उसे भी मनोकामना का पीला-लाल धागा और उसमें पड़ी गिठान का मधुर स्मरण हो आया ।</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A6%E0%A5%82%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%BE_%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8_/_%E0%A4%AE%E0%A4%AE%E0%A4%A4%E0%A4%BE_%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE&diff=43645दूसरा देवदास / ममता कालिया2023-07-15T22:11:08Z<p>अनिल जनविजय: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
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https://ncert.nic.in/textbook/pdf/lhat120.pdf<br />
हर की पौड़ी पर साँझ कुछ अलग रंग में उतरती है । दीया-बाती का समय या कह लो आरती की बेला । पाँच बजे जो फूलों के दोने एक-एक रुपये के बिक रहे थे, इस वक्त दो-दो के हो गए हैं । भक्तों को इससे कोई शिकायत नहीं । इतनी बड़ी-बड़ी मनोकामना लेकर आए हुए हैं । एक-दो रुपये का मुँह थोड़े ही देखना है । गंगा सभा के स्वयंसेवक ख़ाकी वरदी में मुस्तैदी से घूम रहे हैं । वे सबसे सीढ़ियों पर बैठने की प्रार्थना कर रहे हैं । शान्त होकर बैठिए, आरती शुरू होने वाली है । कुछ भक्तों ने स्पेशल आरती बोल रखी है । स्पेशल आरती यानी एक सौ एक या एक सौ इक्यावन रुपये वाली । गंगातट पर हर छोटे-बड़े मन्दिर पर लिखा है — ‘गंगा जी का प्राचीन मन्दिर ।’ पण्डितगण आरती के इन्तज़ाम में व्यस्त हैं । पीतल की नीलांजलि में सहस्र बत्तियाँ घी में भिगोकर रखी हुई हैं । सबने देशी घी के डब्बे अपनी ईमानदारी के प्रतीकस्वरूप सजा रखे हैं । गंगा की मूर्ति के साथ-साथ चामुण्डा, बालकृष्ण, राधाकृष्ण, हनुमान, सीताराम की मूर्तियों की शृंगारपूर्ण स्थापना है । जो भी आपका आराध्य हो, चुन लें ।<br />
<br />
आरती से पहले स्नान ! हर-हर बहता गंगाजल, निर्मल, नीला, निष्पाप । औरतें डुबकी लगा रही हैं । बस, उन्होंने तट पर लगे कुण्डों से बँधी ज़ंजीरें पकड़ रखी हैं। पास ही कोई न कोई पण्डा जजमानों के कपड़ों-लत्तों की सुरक्षा कर रहा है । हर एक के पास चन्दन और सिन्दूर की कटोरी है। मर्दों के माथे पर चन्दन तिलक और औरतों के माथे पर सिन्दूर का टीका लगा देते हैं पण्डे । कहीं कोई दादी-बाबा पहला पोता होने की ख़ुशी में आरती करवा रहे हैं, कहीं कोई नई बहू आने की ख़ुशी में । अभी पूरा अन्धेरा नहीं घिरा है । गोधूलि बेला है ।<br />
<br />
यकायक सहस्र दीप जल उठते हैं । पण्डित अपने आसन से उठ खड़े होते हैं । हाथ में अँगोछा लपेट के पञ्चमंज़िली नीलांजलि पकड़ते हैं और शुरू हो जाती है आरती। पहले पुजारियों के भर्राए गले से समवेत स्वर उठता है — जय गंगे माता, जो कोई तुझको ध्याता, सारे सुख पाता, जय गंगे माता । घण्टे -घड़ियाल बजते हैं । मनौतियों के दिये लिए हुए फूलों की छोटी-छोटी किश्तियाँ गंगा की लहरों पर इठलाती हुई आगे बढ़ती हैं । गोताखोर दोने पकड़, उनमें रखा चढ़ावे का पैसा उठाकर मुँह में दबा लेते हैं । एक औरत ने इक्कीस दोने तैराएँ हैं । गंगापुत्र जैसे ही एक दोने से पैसा उठाता है, औरत अगला दोना सरका देती है । गंगापुत्र उसपर लपकता है कि पहले दोने की दीपक से उसके लँगोट में आग की लपट लग जाती है । पास खड़े लोग हँसने लगते हैं । पर गंगापुत्र हतप्रभ नहीं होता । वह झट गंगाजी में बैठ जाता है । गंगा मैया ही उसकी जीविका और जीवन है । इसके रहते वह बीस चक्कर मुँह भर-भर रेज़गारी बटोरता है । उसकी बीवी और बहन कुशाघाट पर रे्गाज़री बेचकर नोट कमाती हैं । एक रुपए के पच्चासी पैसे । कभी-कभी अस्सी भी देती हैं । जैसा दिन हो ।<br />
<br />
पुजारियों का स्वर थकने लगता है तो लता मंगेशकर की सुरीली आवाज़ लाउडस्पीकरों के साथ सहयोग करने लगती है और आरती में यकायक एक स्निग्ध सौन्दर्य की रचना हो जाती है । ‘ओम जय जगदीश हरे’ से हर की पौड़ी गुंजायमान हो जाती है ।<br />
<br />
औरतें ज़्यादातर नहाकर वस्त्र नहीं बदलतीं । गीले कपड़ों में ही खड़ी-खड़ी आरती में शामिल हो जाती हैं। पीतल की पञ्चमंज़िली नीलांजलि गरम हो उठी है । पुजारी नीलांजलि को गंगाजल से स्पर्श कर, हाथ में लिपटे अँगोछे को नामालूम ढंग से गीला कर लेते हैं । दूसरे यह दृश्य देखने पर मालूम होता है वे अपना सम्बोधन गंगाजी के गर्भ तक पहुँचा रहे हैं । पानी पर सहस्र बाती वाले दीपकों की प्रतिच्छवियाँ झिलमिला रही हैं । पूरे वातावरण में अगरु-चन्दन की दिव्य सुगन्ध है । आरती के बाद बारी है संकल्प और मंत्रोच्चार की । भक्त आरती लेते हैं, चढ़ावा चढ़ाते हैं । स्पेशल भक्तों से पुजारी ब्राह्मण-भोज, दान, मिष्ठान की धनराशि कबुलवाते हैं । आरती के क्षण इतने भव्य और दिव्य रहे हैं कि भक्त हुज्जत नहीं करते । ख़ुशी-ख़ुशी दक्षिणा देते हैं । पण्डित जी प्रसन्न होकर भगवान के गले से माला उतार-उतारकर यजमान के गले में डालते हैं । फिर जी खोलकर देते हैं प्रसाद, इतना कि अपना हिस्सा खाकर भी ढेर सा बच रहता है, बाँटने के लिए-मुरमरे, इलायचीदाना, केले और पुष्प ।<br />
<br />
खर्च हुआ पर भक्तों के चेहरे पर कोई मलाल नहीं। कई खर्च सुखदायी होते हैं ।<br />
<br />
कुछ पण्डे अभी भी अपने तख़्त पर जमे हैं । देर से आनेवाले भक्तों का स्नान - ध्यान अभी जारी है। आरती के दोने फिर एक रुपये में बिकने लगे हैं । गंगाजल आकाश के साथ रंग बदल रहा है।<br />
<br />
सम्भव काफ़ी देर से नहा रहा था । जब घाट पर आया तो मंगल पण्डा बोले,— ‘का हो जजमान, बड़ी<br />
देर लगाय दी। हम तो डर गए थे।’<br />
<br />
सम्भव हंसा । उसके एकसार ख़ूबसूरत दाँत साँवले चेहरे पर फब उठे । उसने लापरवाही से कपड़े पहने और जांघिया निचोड़कर थैले में डाला । जब वह कुरते से पोंछकर चश्मा लगा रहा था, पण्डे ने उसके माथे पर चन्दन तिलक लगाने को हाथ बढ़ाया ।<br />
<br />
‘उ हूँ’ — उसने चेहरा हटा लिया तो मंगल पण्डा ने कहा,— ‘चन्दन तिलक के बग़ैर अस्नान अधूरा होता है, बेटा ।’<br />
<br />
सम्भव ने चुपचाप तिलक लगवा लिया । वह वापस सीढ़ियाँ चढ़ ही रहा था कि पौड़ी पर बने एक छोटे से मन्दिर के पुजारी ने आवाज़ लगाई, — ‘अरे दर्शन तो करते जाओ’।<br />
<br />
सम्भव ठिठक गया ।<br />
<br />
उसकी इन चीशों में नियमित आस्था तो नहीं थी पर नानी ने कहा था, ‘मंदिर में बीस आने<br />
चढ़ाकर आना।’<br />
संभव ने वुफरते की जेब में हाथ डाला। एक रुपए का नोट तो मिल गया चवन्नी वेफ लिए उसे<br />
वुफछ प्रयत्न करना पड़ा। चवन्नी जेब में नहीं थी। संभव ने थैला खखोरा। पुजारी ने उसकी परेशानी<br />
ताड़ ली।<br />
फ्इधर आओ, हम दें रेजगारी।य्<br />
संभव ने झेंपते हुए एक का नोट जेब में रखकर दो का नोट निकाला। पुजारी जी ने चरणामृत<br />
दिया और लाल रंग का कलावा बाँधने वेफ लिए हाथ बढ़ाया।<br />
संभव का ध्यान कलावे की तरप़्<br />
ाफ नहीं था। वह गंगा जी की छटा निहार रहा था। तभी एक और<br />
दुबली नाशुक सी कलाई पुजारी की तरप़्<br />
ाफ बढ़ आई। पुजारी ने उस पर कलावा बाँध दिया। उस हाथ<br />
ने थाली में सवा पाँच रुपए रखे।<br />
लड़की अब बिलवुफल बराबर में खड़ी, आँख मूँदकर अर्चन कर रही थी। संभव ने यकायक<br />
मुड़कर उसकी ओर गौर किया। उसवेफ कपड़े एकदम भीगे हुए थे, यहाँ तक कि उसवेफ गुलाबी<br />
आँचल से संभव वेफ वुफर्ते का एक कोना भी गीला हो रहा था। लड़की वेफ लंबे गीले बाल पीठ पर<br />
काले चमकीले शॉल की तरह लग रहे थे। दीपकों वेफ नीम उजाले में, आकाश और जल की साँवली<br />
संधि-बेला में, लड़की बेहद सौम्य, लगभग काँस्य प्रतिमा लग रही थी।<br />
लड़की ने कहा, फ्पंडित जी, आज तो आरती हो चुकी। क्या करें हमें देर हो गई।य्<br />
पुजारी ने उत्साह से कहा, फ्इससे क्या, हम हिंया कराय दें। का कराना है संकल्प, कल्याण-मंत्रा,<br />
आरती जो कहो?य्<br />
फ्नहीं हम कल आरती की बेला आएँगे।य् लड़की ने कहा।<br />
संभव इंतशार में खड़ा था कि पुजारी उसे पचहत्तर पैसे लौटाए। लेकिन पुजारी भूल चुका था।<br />
जाने वैफसे पुजारी ने लड़की वेफ ‘हम’ को युगल अर्थ में लिया कि उसवेफ मुँह से अनायास आशीष<br />
निकली, फ्सुखी रहो, पूफलोपफलो, जब भी आओ साथ ही आना, गंगा मैया मनोरथ पूरे करें।य्<br />
लड़की और लड़का दोनों अकबका गए।<br />
लड़की छिटककर दूर खड़ी हो गई।<br />
लड़वेफ को तुरंत वहाँ से चल पड़ने की जल्दी हो गई।<br />
शायद उनकी चप्पलें एक ही रखवाले वेफ यहाँ रखी हुई थीं। टोकन देकर चप्पलें लेते समय दोनों<br />
की निगाहें एक बार पिफर टकरा गईं। आँखों का चकाचौंध अभी मिटा नहीं था।<br />
संभव आगे बढ़कर कहना चाहता था, फ्देखिए इसमें मेरी कोई गलती नहीं थी। पुजारी ने गलत<br />
अर्थ ले लिया।य् लड़की कहना चाहती थी, फ्आपको इतना पास नहीं खड़ा होना चाहिए था।य्<br />
2022.23<br />
152 / अंतरा<br />
152/अंतरा<br />
लड़की ने अपना होंठ दाँतों में दबाकर छोड़ दिया। भूल तो उसी की थी। बाद में तो वही आई<br />
थी। अंधेरे से घबराकर कहाँ, कितनी पास खड़ी हुई, उसे वुफछ खबर नहीं थी। लेकिन बातचीत वेफ<br />
लायक दोनों की मनःस्थिति नहीं थी। पहचान भी नहीं। दोनों ने नशरें बचाते हुए चप्पलें पहनीं।<br />
लड़की घबराहट में ठीक से चप्पल पहन नहीं पाई। थोड़ी सी अँगूठे में अटकाकर ही आगे बढ़ गई।<br />
संभव ने आगे लपककर देखना चाहा कि लड़की किस तरप़्<br />
ाफ गई। वह घाट की भीड़ को काटता<br />
हुआ सब्जीमंडी पहुंँच गया। हर की पौड़ी और सब्जीमंडी वेफ बीच अनेक घुमावदार गलियाँ थीं।<br />
लड़का देख नहीं पाया लड़की कहाँ ओझल हो गई।<br />
नानी का घर करीब आ गया था लेकिन लड़का घर नहीं गया। वह वापस अनदेखी गलियों में<br />
चक्कर लगाता रहा। उसने चूड़ी की समस्त दुकानों पर नशर दौड़ाई। हर दुकान पर भीड़ थी पर एक<br />
भीगी, गुलाबी आकृति नहीं थी। आखिर भटकते-भटकते संभव हार गया। पस्त कदमों से वह घर की<br />
ओर मुड़ा।<br />
नानी ने द्वार खोलते हुए कहा, फ्कहाँ रह गए थे लल्ला। मैं तो जी में बड़ा काँप रही थी। तुझे<br />
तो तैरना भी न आवे। कहीं पैर पिफसल जाता तो मैं तेरी माँ को कौन मुँह दिखाती।य्<br />
संभव वुफछ नहीं बोला। थैला तख्त पर पटक, पैर धोने नल वेफ पास चला गया।<br />
नानी बोली, फ्ब्यालू कर ले।य्<br />
संभव पिफर भी नहीं बोला।<br />
नानी की आदत थी एक बात को कई-कई बार कहती। संभव तख्त पर लेट गया।<br />
नानी ने कहा, फ्थक गया न। अरे तुझे मेले-ठेले में चलने की आदत थोड़ेई है। कल बैसाखी है,<br />
इसलिए भीड़ बहुत बढ़ गई है। अभी तो कल देखना, तिल धरने की जगह नहीं मिलेगी पौड़ी पर।<br />
चल उठ खायबे को खा ले।य्<br />
फ्मुझे भूख नहीं है,य् संभव ने कहा और करवट बदल ली।<br />
फ्अरे क्या हो गया। अस्नान वेफ बाद भी भूख नाँय चमकी। तभी न इतनी सींक सलाई देही है।<br />
मैंने सबिता से पहले ही कही थी, इसे अवेफले ना भेज। यहाँ जी ना लगे इसका।य् नानी पास खड़े<br />
खटोले पर अधलेटी हो गई। उम्र वेफ साथ-साथ नानी की काया इतनी संक्षिप्त हो गई थी कि वे पैफल<br />
पसर कर सोती तो भी उनवेफ लिए खटोला पर्याप्त था। पर उन्हें सिवुफड़कर, गठरी बनकर सोने की<br />
आदत थी।<br />
गंगा को छूकर आती हवा से आँगन काप़्<br />
ाफी शीतल था। ऊपर से नानी ने रोश की तरह शाम को<br />
चौक धो डाला था।<br />
नींद और स्वप्न वेफ बीच संभव की आँखों में घाट की पूरी बात उतर आई। लड़की का आँख<br />
मूँदकर अर्चना करना, माथे पर भीगे बालों की लट, वुफरते को छूता उसका गुलाबी आँचल और पुजारी<br />
से कहता उसका सौम्य स्वर ‘हम कल आएँगे।’<br />
2022.23<br />
ममता कालिया/153<br />
संभव की आँख खुल गई। यह तो वह भूल ही गया था। लड़की ने कल वहाँ आने का वचन<br />
दिया था। संभव आशा आौर उत्साह से उठ बैठा।<br />
नानी को झकझोरते हुए बोला, फ्नानी, नानी चलो खा लें मुझे भूख लगी है।य् नानी की नींद झूले<br />
वेफ समान थी, कभी गहरी, कभी उथली। उथले झोटे में उन्हें धेवते की सुध आई। वे रसोई से थाली<br />
उठा लाईं।<br />
संभव ने बहुत मगन होकर खाना शुरू किया, फ्वाह नानी! क्या आलू टमाटर बनाया है, माँ तो<br />
ऐसा बिलवुफल नहीं बना सकतीं। ककड़ी का रायता मुझे बहुत पसंद है।य्<br />
खाते-खाते संभव को याद आया आशीर्वचन की दुर्घटना तो बाद में घटी थी। वह कौर हाथ में<br />
लिए बैठा रह गया। उसकी आँखों वेफ बीच आगे वुफछ घंटे पहले का सारा दृश्य घूम गया। पुजारी का<br />
वह मंत्रोच्चार जैसा पवित्रा उद्गार ‘सुखी रहो, पूफलो-पफलो, सारे मनोरथ पूरे हों। जब भी आओ साथ<br />
ही आना।’ लड़की का चिहुँकना, छिटककर दूर खड़े होना, घबराहट में चप्पल भी ठीक से न पहन<br />
पाना और आगे बढ़ जाना।<br />
संभव ने विचलित स्वर में कहा, फ्मुझे भूख नाँय। मैं तो यों ही उठ बैठा था।य्<br />
सारी रात संभव की आँखों में शाम मँडराती रही। उसकी श्यादा उम्र नहीं थी। इसी साल एम.ए.<br />
पूरा किया था। अब वह सिविल सर्विसेश प्रतियोगिताओं में बैठने वाला था। माता-पिता का खयाल<br />
था वह हरिद्वार जाकर गंगा जी वेफ दर्शन कर ले तो बेखटवेफ सिविल सेवा में चुन लिया जाएगा। लड़का<br />
इन टोटकों को नहीं मानता था पर घूमना और नानी से मिलना उसे पसंद था।<br />
अभी तक उसवेफ जीवन में कोई लड़की किसी अहम भूमिका में नहीं आई थी। लड़कियाँ या तो<br />
क्लास में बाँयी तरप़्<br />
ाफ की बेंचों पर बैठनेवाली एक कतार थी या पिफर ताई चाची की लड़कियाँ जिनवेफ<br />
साथ खेलते खाते वह बड़ा हुआ था। इस तरह बिलवुफल अवेफली, अनजान जगह पर, एक अनाम<br />
लड़की का सद्य-स्नात दशा में सामने आना, पुजारी का गलत समझना, आशीर्वाद देना, लड़की का<br />
घबराना और चल देना सब मिलाकर एक नयी निराली अनुभूति थी जिसमें उसे वुफछ सुख और श्यादा<br />
बेचैनी लग रही थी। उसने मन ही मन तय किया कि कल शाम पाँच बजे से ही वह घाट पर जाकर<br />
बैठ जाएगा। पौड़ी पर इस तरह बैठेगा कि कल वाले पुजारी वेफ देवालय पर सीधी आँख पड़े।<br />
उसने तो लड़की का नाम भी नहीं पूछा। वैसे वह हरिद्वार की नहीं लगती थी। वैफसी लगती थी,<br />
संभव ने याद करने की कोशिश की। उसे सिप़्र्<br />
ाफ उसकी दुबली पतली काया, गुलाबी साड़ी, और<br />
भीगी-भीगी श्याम सलोनी आँखें दिखीं। उसे अप़्<br />
ाफसोस था वह उसे ठीक से देख भी नहीं पाया पर<br />
यह तय था कि वह उसे हशारों की भीड़ में भी पहचान लेगा।<br />
अभी चिड़ियों ने आँगन में लगे अमरूद वेफ पेड़ पर चहचहाना शुरू ही किया था कि नानी ने<br />
आवाश दी, फ्लल्ला चलेगा गंगाजी, आज बैसाखी है।य्<br />
2022.23<br />
154 / अंतरा<br />
154/अंतरा<br />
संभव को लगा वह रातभर सोया नहीं है। नानी की मौजूदगी में जैसे उसे संकोच हो रहा था।<br />
उसने कहा, फ्तुम मेरे भी नाम की डुबकी लगा लेना नानी, मैं तो अभी सोउँफगा।य्<br />
नानी द्वार उढ़काकर चली गईं, तो लड़वेफ ने अपनी कल्पना को निर्द्वंद्व छोड़ दिया। आज जब वह<br />
सलोनी उसे दिखेगी तो वह उसवेफ पास जाकर कहेगा, फ्पुजारी जी की नादानी का मुझे बेहद अप़्<br />
ाफसोस<br />
है। यकीन मानिए, पंडित जी मेरे लिए भी उतने ही अनजान हैं। जितने आपवेफ लिए।य्<br />
लड़की कहेगी, फ्कोई बात नहीं।य्<br />
वह पूछेगा, फ्आप दिल्ली से आई हैं?य्<br />
लड़की कहेगी, फ्नहीं हम तो... वेफ हैं।य्<br />
बस उसवेफ हाथ पते की बात लग जाएगी। अगर उसने रुख दिखाया तो वह कहेगा, फ्मेरा नाम<br />
संभव है और आपका?य्<br />
वह क्या कहेगी? उसका नाम क्या होगा। वह बी.ए. में पढ़ रही होगी या एम.ए. में? इन सवालों<br />
वेफ जवाब वह अभी ढूँढ भी नहीं पाया था कि नानी वापस आ गईं।<br />
फ्ले तू अभी तक सुपने ले रहा है, वहाँ लाखन लाख लोग नहान कर लिए। अरे कभी तो बड़ों<br />
का कहा कर लो।य् लड़वेफ की तंद्रा नष्ट हो गई। नानी उवाच वेफ बीच सपने नौ दो ग्यारह हो गए।<br />
लड़वेफ ने उठते-उठते तय किया कि इस वक्त वह घाट तक चला तो जाएगा, पर नहाएगा नहीं।<br />
हाथ-मुँह धोकर प्रार्थना कर लेगा। वुफछ देर पौड़ी पर बैठ गंगा की जलराशि निहारेगा। लौटते हुए<br />
मथुरा जी की प्राचीन दुकान से गरम जलेबी खरीदेगा और वापस आ जाएगा। उसने वुफरते की जेब<br />
में बीस का नोट डाला और चल दिया।<br />
वास्तव में पौड़ी पर आज अद्भुत भीड़ थी। गंगा वेफ घाट से भी चौड़ा मानव-रेला दिखाई दे रहा<br />
था। भोर की आरती हो चुकी थी। लेकिन भजन शोर-शोर से चले जा रहे थे। नारियल, पूफल और<br />
प्रसाद की घनघोर बिक्री थी।<br />
भीड़ लड़के ने दिल्ली में भी देखी थी, बल्कि रोज़ देखता था। दफ़्तर जाती भीड़, ख़रीद-फ़रोख़्त करती भीड़, तमाशा देखती भीड़, सड़क क्रॉस करती भीड़। लेकिन इस भीड़ का अन्दाज़ निराला था।<br />
<br />
इस भीड़ में एकसूत्रता थी। न यहाँ जाति का महत्त्व था, न भाषा का, महत्त्व उद्देश्य का था और वह सबका समान था, जीवन के प्रति कल्याण की कामना। इस भीड़ में दौड़ नहीं थी, अतिक्रमण नहीं था और भी अनोखी बात यह थी कि कोई भी स्नानार्थी किसी सैलानी आनंद में डुबकी नहीं लगा रहा था। बल्कि स्नान से ज़्यादा समय ध्यान ले रहा था। दूर जलधारा के बीच एक आदमी सूर्य की ओर उन्मुख हाथ जोड़े खड़ा था। उसके चेहरे पर इतना विभोर, विनीत भाव था मानो उसने अपना सारा अहम त्याग दिया है, उसके अंदर ‘स्व’ से जनित कोई कुण्ठा शेष नहीं है, वह विशुद्ध रूप से चेतनस्वरूप, आत्माराम और निर्मलानंद है।<br />
<br />
एक छोटे से लड़के ने लगभग हँसते हुए उसका ध्यान भंग किया। भैया, आप नहीं नहाएँगे?<br />
<br />
संभव ने गौर किया। जाने कब पौड़ी पर उसके नज़दीक यह बच्चा आ बैठा था। उसका भाल चंदन चर्चित था। चेहरे पर चमकीली ताज़गी थी।<br />
<br />
अकेले हो ?<br />
<br />
नहीं बुआ साथ हैं।<br />
<br />
कहाँ से आए हो ?<br />
<br />
रोहतक <br />
<br />
अब वापस जाओगे?<br />
नहीं — बच्चे ने चमकीली आँखों से बताया,— अभी तो मंसा देवी जाना है, वह उधर। बच्चा सामने पहाड़ी पर बना एक मंदिर इंगित से दिखाने लगा।<br />
<br />
यह स्थल संभव को पहले दिन से ही अपनी ओर खींच रहा था। लेकिन नानी ने उसे बरज दिया था, — ना लल्ला मंसा देवी जाना है तो क्या वह झूलागाड़ी में तो बैठियो न। रस्सी से चलती है, क्या पता कब टूट जाए। एक बार टूटी थी, हज़ारन मरे - गिरे थे। जाना है तो चढ़कर जाना, उसका महातम अलग है।"<br />
<br />
संभव बहुत शारीरिक मेहनत में यक़ीन नहीं करता था। बरसों से कुरसी पर बैठ पढ़ते-पढ़ते उसे सक्रियता के नाम पर हमेशा किसी दिमागी हरकत का ही ध्यान आता था। उसे यहाँ सुबह-सुबह नानी का झाड़ ू<br />
लगाना, चक्की चलाना, पानी भरना, रात वेफ माँजे<br />
बरतन पिफर से धो-धोकर लगाना, सब कष्ट दे रहा था। वह एतराश नहीं कर रहा था तो सिप़्र्<br />
ाफ इसलिए<br />
कि महश चार दिन रुककर वह नानी की दिनचर्या में हस्तक्षेप करने का अधिकारी नहीं बन सकता।<br />
संभव ने बच्चे से कहा, फ्अगर गिर गए तो?य्<br />
बच्चा हँसा, फ्इतने बड़े होकर डरते हो भैया? गिरेंगे वैफसे, इतने लोग जो चढ़ रहे हैं।य्<br />
शहर वेफ इतिहास वेफ साथ-साथ संभव उसका भूगोल भी आत्मसात करना चाहता था। इसलिए<br />
थोड़ी देर बाद वह अटकता भटकता, उस जगह पहुँच गया जहाँ से रोपवे शुरू होती थी।<br />
रोपवे वेफ नाम में कोई धर्माडंबर नहीं था। ‘उषा ब्रेको सर्विस’ की खिड़की वेफ आगे लंबा क्यू था।<br />
वहीं मंसा देवी पर चढ़ाने वाली चुनरी और प्रसाद की थैलियाँ बिक रही थीं। पाँच, सात और ग्यारह<br />
रुपए की। कई बच्चे ¯बदी-पाउडर और उसवेफ साँचे बेच रहे थे, तीन-तीन रुपए। उन्होंने अपनी हथेली<br />
पर कलात्मक ¯बदियाँ बना रखी थीं। नमूने की खातिर। उससे पहले संभव ने कभी ¯बदी जैसे शृंगार<br />
प्रसाधन पर ध्यान नहीं दिया था। अब यकायक उसे ये ¯बदियाँ बहुत आकर्षक लगीं। मन ही मन उसने<br />
एक ¯बदी उस अज्ञातयौवना वेफ माथे पर सजा दी। माँग में तारे भर देने जैसे कई गाने उसे आधे अधूरे<br />
याद आकर रह गए। उसका नंबर बहुत जल्द आ गया। अब वह दूसरी कतार में था जहाँ से वेफबिल<br />
कार में बैठना था। सभी काम बड़ी तत्परता से हो रहे थे।<br />
जल्द ही वह उस विशाल परिसर में पहुँच गया जहाँ लाल, पीली, नीली, गुलाबी वेफबिल कार<br />
बारी-बारी से आकर रुकतीं, चार यात्राी बैठातीं और रवाना हो जातीं। वेफबिल कार का द्वार खोलने और<br />
बंद करने की चाभी ऑपरेटर वेफ नियंत्राण में थी। संभव एक गुलाबी वेफबिल कार में बैठ गया। कल<br />
से उसे गुलाबी वेफ सिवा और कोई रंग सुहा ही नहीं रहा था। उसवेफ सामने की सीट पर एक<br />
नवविवाहित दंपति चढ़ावे की बड़ी थैली और एक वृ( चढ़ावे की छोटी थैली लिए बैठे थे।<br />
संभव को अप़्<br />
ाफसोस हुआ कि वह चढ़ावा खरीदकर नहीं लाया। इस वक्त जहाँ से वेफबिल कार<br />
गुशर रही थी, नीचे कतारब( पूफल खिले हुए थे। लगता था रंग-बिरंगी वादियों से कोई ¯हडोला उड़ा<br />
जा रहा है।<br />
एक बार चारों ओर वेफ विहंगम दृश्य में मन रम गया तो न मोटे-मोटे प़्<br />
ाफौलाद वेफ खंभें नशर आए<br />
और न भारी वेफबिल वाली रोपवे। पूरा हरिद्वार सामने खुला था। जगह-जगह मंदिरों वेफ बुर्ज, गंगा मैया<br />
की धवल धार और सड़कों वेफ खूबसूरत घुमाव। नीचे सड़क वेफ रास्ते चढ़ते, हाँपफते लोग। लिमका<br />
की दुकानें और नाम अनाम पेड़।<br />
बहुत जल्द उनकी वेफबिल कार मंसा देवी वेफ द्वार पर पहुँच गई। यहाँ पिफर चढ़ावा बेचने वाले<br />
बच्चे नशर आए।<br />
संभव ने एक थैली खरीद ली और सीढ़ियाँ चढ़कर प्रांगण में पहुँच गया।<br />
नाम मंसा देवी का था पर वर्चस्व सभी देवी-देवताओं का मिला जुला था।<br />
2022.23<br />
ममता कालिया/157<br />
एकदम अंदर वेफ प्रकोष्ठ में चामुंडा रूप धारिणी मंसादेवी स्थापित थीं। व्यापार यहाँ भी था।<br />
मनोकामना वेफ हेतुक लाल-पीले धागे सवा रुपए में बिक रहे थे। लोग पहले धागा बाँधते, पिफर<br />
देवी वेफ आगे शीश नवाते।<br />
संभव ने भी पूरी श्र(ा वेफ साथ मनोकामना की, गाँठ लगाई, सिर झुकाया, नैवेद्य चढ़ाया और वहाँ<br />
से बाहर आ गया।<br />
आँगन में रुद्राक्ष मालाओं की अनेक गुमटियाँ थीं, जहाँ दस रुपए से लेकर तीन हशार तक की<br />
मालाओं पर लिखा थाµ‘असली रुद्राक्ष, नकली साबित करने वाले को पाँच सौ रुपए इनाम।’<br />
एक तरप़्<br />
ाफ हलवाई गरम जलेबी, पूरी, कचौड़ी छान रहे थे। मेले का माहौल था।<br />
संभव वापस वेफबिल कार की कतार में लग गया।<br />
वापसी का रास्ता ढलवाँ था। कार और भी जल्द नीचे पहुँच रही थी।<br />
इस बार संभव वेफ साथ तीन समवयस्क लड़वेफ बैठे हुए थे वह वेफबिल कार की ढलवाँ दौड़ देख<br />
रहा था कि यकायक दो आश्चर्य एक साथ घटित हुए।<br />
वह बच्चा जो पौड़ी पर उसवेफ करीब आकर बैठ गया था, दूर पीली वेफबिल कार में नशर आया।<br />
बच्चे की लाल कमीज़ उसे अच्छी तरह याद थी। हालाँकि इतनी दूर से उसका चेहरा स्पष्ट नज़र नहीं<br />
आ रहा था ।<br />
<br />
और बच्चे से सटी हुई जो दुबली, पतली, श्याम सलोनी आकृति बैठी थी, वह थी वही लड़की, जो कल शाम के झुटपुटे में हर की पौड़ी पर उससे टकराई थी ।<br />
<br />
संभव बेहद बेचैन हो गया। वह दाएँ-बाएँ झुक-झुककर चीह्नने की कोशिश करने लगा। उसका मन हुआ पंछी की तरह उड़कर पीली केबिल कार में पहुँच जाए ।<br />
<br />
बहुत जल्द केबिल कार वापस नीचे पहुँच गई।<br />
<br />
संभव ने आगे-आगे जाते बच्चे को लपककर कन्धे से थाम लिया और बोला, कहो दोस्त ?<br />
<br />
बच्चे ने अचकचाकर उसकी ओर देखा, "अरे भैया। रुककर बोला, हमने सोचा, जब हमारा दोस्त नहीं डरता तो हो जाए एक ट्रिप।<br />
<br />
तभी आगे से एक महीन सी आवाज़ ने कहा, "मन्नू घर नहीं चलना है।"<br />
<br />
बालक मन्नू ने कहा, "अभी आया बुआ।"<br />
<br />
सम्भव ने अस्फुट स्वर में पूछा, "ये तुम्हारी बुआ हैं।"<br />
<br />
"और क्या" मन्नू ने साश्चर्य जवाब दिया।<br />
<br />
"हमें नहीं मिलाओगे, हम तो तुम्हारे दोस्त हैं।"<br />
<br />
मन्नू वाकई उसका हाथ खींचता हुआ चल दिया, "बुआ, बुआ, इनसे मिलो, ये हैं हमारे नए दोस्त..."<br />
<br />
उसने प्रश्नवाचक नज़रों से सम्भव को देखा, "अपना नाम ख़ुद बताइए।" वह अपना नाम बताता, इससे पहले उसी <br />
महीन मीठी आवाज़ ने कहा, "ऐसे कैसे दोस्त हैं तुम्हारे, तुम्हें उनका नाम भी नहीं पता ? अब संभव ने गौर किया, बिलकुल वही कण्ठ, वही उलाहना, वही अन्दाज़ । पुलक से उसका रोम-रोम हिल उठा। हे ईश्वर ! उसने कब सोचा था, मनोकामना का मौन उद्गार इतनी शीघ्र शुभ परिणाम दिखाएगा ।<br />
<br />
लड़की ने आज गुलाबी परिधान नहीं पहना था पर सफ़ेद साड़ी में लाज से गुलाबी होते हुए उसने मंसा देवी पर एक और चुनरी चढ़ाने का संकल्प लेते हुए सोचा, मनोकामना की गाँठ भी अद्भुत, अनूठी है, इधर बाँधो उधर लग जाती है...। <br />
<br />
"पारो बुआ, पारो बुआ, इनका नाम है..." मन्नू ने बुआ का आँचल खींचते हुए कहा ।<br />
<br />
"सम्भव देवदास" सम्भव ने हँसते हुए वाक्य पूरा किया । उसे भी मनोकामना का पीला-लाल धागा और उसमें पड़ी गिठान का मधुर स्मरण हो आया ।</div>अनिल जनविजयhttp://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A6%E0%A5%82%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%BE_%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8_/_%E0%A4%AE%E0%A4%AE%E0%A4%A4%E0%A4%BE_%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE&diff=43644दूसरा देवदास / ममता कालिया2023-07-15T14:29:52Z<p>अनिल जनविजय: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
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|संग्रह=<br />
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<br />
हर की पौड़ी पर साँझ कुछ अलग रंग में उतरती है । दीया-बाती का समय या कह लो आरती की बेला । पाँच बजे जो फूलों के दोने एक-एक रुपये के बिक रहे थे, इस वक्त दो-दो के हो गए हैं । भक्तों को इससे कोई शिकायत नहीं । इतनी बड़ी-बड़ी मनोकामना लेकर आए हुए हैं । एक-दो रुपये का मुँह थोड़े ही देखना है । गंगा सभा के स्वयंसेवक ख़ाकी वरदी में मुस्तैदी से घूम रहे हैं । वे सबसे सीढ़ियों पर बैठने की प्रार्थना कर रहे हैं । शान्त होकर बैठिए, आरती शुरू होने वाली है । कुछ भक्तों ने स्पेशल आरती बोल रखी है । स्पेशल आरती यानी एक सौ एक या एक सौ इक्यावन रुपये वाली । गंगातट पर हर छोटे-बड़े मन्दिर पर लिखा है — ‘गंगा जी का प्राचीन मन्दिर ।’ पण्डितगण आरती के इन्तज़ाम में व्यस्त हैं । पीतल की नीलांजलि में सहस्र बत्तियाँ घी में भिगोकर रखी हुई हैं । सबने देशी घी के डब्बे अपनी ईमानदारी के प्रतीकस्वरूप सजा रखे हैं । गंगा की मूर्ति के साथ-साथ चामुण्डा, बालकृष्ण, राधाकृष्ण, हनुमान, सीताराम की मूर्तियों की शृंगारपूर्ण स्थापना है । जो भी आपका आराध्य हो, चुन लें ।<br />
<br />
आरती से पहले स्नान ! हर-हर बहता गंगाजल, निर्मल, नीला, निष्पाप । औरतें डुबकी लगा रही हैं । बस, उन्होंने तट पर लगे कुण्डों से बँधी ज़ंजीरें पकड़ रखी हैं। पास ही कोई न कोई पण्डा जजमानों के कपड़ों-लत्तों की सुरक्षा कर रहा है । हर एक के पास चन्दन और सिन्दूर की कटोरी है। मर्दों के माथे पर चन्दन तिलक और औरतों के माथे पर सिन्दूर का टीका लगा देते हैं पण्डे । कहीं कोई दादी-बाबा पहला पोता होने की ख़ुशी में आरती करवा रहे हैं, कहीं कोई नई बहू आने की ख़ुशी में । अभी पूरा अन्धेरा नहीं घिरा है । गोधूलि बेला है ।<br />
<br />
यकायक सहस्र दीप जल उठते हैं । पण्डित अपने आसन से उठ खड़े होते हैं । हाथ में अँगोछा लपेट के पञ्चमंज़िली नीलांजलि पकड़ते हैं और शुरू हो जाती है आरती। पहले पुजारियों के भर्राए गले से समवेत स्वर उठता है — जय गंगे माता, जो कोई तुझको ध्याता, सारे सुख पाता, जय गंगे माता । घण्टे -घड़ियाल बजते हैं । मनौतियों के दिये लिए हुए फूलों की छोटी-छोटी किश्तियाँ गंगा की लहरों पर इठलाती हुई आगे बढ़ती हैं । गोताखोर दोने पकड़, उनमें रखा चढ़ावे का पैसा उठाकर मुँह में दबा लेते हैं । एक औरत ने इक्कीस दोने तैराएँ हैं । गंगापुत्र जैसे ही एक दोने से पैसा उठाता है, औरत अगला दोना सरका देती है । गंगापुत्र उसपर लपकता है कि पहले दोने की दीपक से उसके लँगोट में आग की लपट लग जाती है । पास खड़े लोग हँसने लगते हैं । पर गंगापुत्र हतप्रभ नहीं होता । वह झट गंगाजी में बैठ जाता है । गंगा मैया ही उसकी जीविका और जीवन है । इसके रहते वह बीस चक्कर मुँह भर-भर रेज़गारी बटोरता है । उसकी बीवी और बहन कुशाघाट पर रे्गाज़री बेचकर नोट कमाती हैं । एक रुपए के पच्चासी पैसे । कभी-कभी अस्सी भी देती हैं । जैसा दिन हो ।<br />
<br />
पुजारियों का स्वर थकने लगता है तो लता मंगेशकर की सुरीली आवाज़ लाउडस्पीकरों के साथ सहयोग करने लगती है और आरती में यकायक एक स्निग्ध सौन्दर्य की रचना हो जाती है । ‘ओम जय जगदीश हरे’ से हर की पौड़ी गुंजायमान हो जाती है ।<br />
<br />
औरतें ज़्यादातर नहाकर वस्त्र नहीं बदलतीं । गीले कपड़ों में ही खड़ी-खड़ी आरती में शामिल हो जाती हैं। पीतल की पञ्चमंज़िली नीलांजलि गरम हो उठी है । पुजारी नीलांजलि को गंगाजल से स्पर्श कर, हाथ में लिपटे अँगोछे को नामालूम ढंग से गीला कर लेते हैं । दूसरे यह दृश्य देखने पर मालूम होता है वे अपना सम्बोधन गंगाजी के गर्भ तक पहुँचा रहे हैं । पानी पर सहस्र बाती वाले दीपकों की प्रतिच्छवियाँ झिलमिला रही हैं । पूरे वातावरण में अगरु-चन्दन की दिव्य सुगन्ध है । आरती के बाद बारी है संकल्प और मंत्रोच्चार की । भक्त आरती लेते हैं, चढ़ावा चढ़ाते हैं । स्पेशल भक्तों से पुजारी ब्राह्मण-भोज, दान, मिष्ठान की धनराशि कबुलवाते हैं । आरती के क्षण इतने भव्य और दिव्य रहे हैं कि भक्त हुज्जत नहीं करते । ख़ुशी-ख़ुशी दक्षिणा देते हैं । पण्डित जी प्रसन्न होकर भगवान के गले से माला उतार-उतारकर यजमान के गले में डालते हैं । फिर जी खोलकर देते हैं प्रसाद, इतना कि अपना हिस्सा खाकर भी ढेर सा बच रहता है, बाँटने के लिए-मुरमरे, इलायचीदाना, केले और पुष्प ।<br />
<br />
खर्च हुआ पर भक्तों के चेहरे पर कोई मलाल नहीं। कई खर्च सुखदायी होते हैं ।<br />
<br />
कुछ पण्डे अभी भी अपने तख़्त पर जमे हैं । देर से आनेवाले भक्तों का स्नान - ध्यान अभी जारी है। आरती के दोने फिर एक रुपये में बिकने लगे हैं । गंगाजल आकाश के साथ रंग बदल रहा है।<br />
<br />
सम्भव काफ़ी देर से नहा रहा था । जब घाट पर आया तो मंगल पण्डा बोले,— ‘का हो जजमान, बड़ी<br />
देर लगाय दी। हम तो डर गए थे।’<br />
<br />
सम्भव हंसा । उसके एकसार ख़ूबसूरत दाँत साँवले चेहरे पर फब उठे । उसने लापरवाही से कपड़े पहने और जांघिया निचोड़कर थैले में डाला । जब वह कुरते से पोंछकर चश्मा लगा रहा था, पण्डे ने उसके माथे पर चन्दन तिलक लगाने को हाथ बढ़ाया ।<br />
<br />
‘उ हूँ’ — उसने चेहरा हटा लिया तो मंगल पण्डा ने कहा,— ‘चन्दन तिलक के बग़ैर अस्नान अधूरा होता है, बेटा ।’<br />
<br />
सम्भव ने चुपचाप तिलक लगवा लिया । वह वापस सीढ़ियाँ चढ़ ही रहा था कि पौड़ी पर बने एक छोटे से मन्दिर के पुजारी ने आवाज़ लगाई, — ‘अरे दर्शन तो करते जाओ’।<br />
<br />
सम्भव ठिठक गया ।<br />
<br />
उसकी इन चीशों में नियमित आस्था तो नहीं थी पर नानी ने कहा था, ‘मंदिर में बीस आने<br />
चढ़ाकर आना।’<br />
संभव ने वुफरते की जेब में हाथ डाला। एक रुपए का नोट तो मिल गया चवन्नी वेफ लिए उसे<br />
वुफछ प्रयत्न करना पड़ा। चवन्नी जेब में नहीं थी। संभव ने थैला खखोरा। पुजारी ने उसकी परेशानी<br />
ताड़ ली।<br />
फ्इधर आओ, हम दें रेजगारी।य्<br />
संभव ने झेंपते हुए एक का नोट जेब में रखकर दो का नोट निकाला। पुजारी जी ने चरणामृत<br />
दिया और लाल रंग का कलावा बाँधने वेफ लिए हाथ बढ़ाया।<br />
संभव का ध्यान कलावे की तरप़्<br />
ाफ नहीं था। वह गंगा जी की छटा निहार रहा था। तभी एक और<br />
दुबली नाशुक सी कलाई पुजारी की तरप़्<br />
ाफ बढ़ आई। पुजारी ने उस पर कलावा बाँध दिया। उस हाथ<br />
ने थाली में सवा पाँच रुपए रखे।<br />
लड़की अब बिलवुफल बराबर में खड़ी, आँख मूँदकर अर्चन कर रही थी। संभव ने यकायक<br />
मुड़कर उसकी ओर गौर किया। उसवेफ कपड़े एकदम भीगे हुए थे, यहाँ तक कि उसवेफ गुलाबी<br />
आँचल से संभव वेफ वुफर्ते का एक कोना भी गीला हो रहा था। लड़की वेफ लंबे गीले बाल पीठ पर<br />
काले चमकीले शॉल की तरह लग रहे थे। दीपकों वेफ नीम उजाले में, आकाश और जल की साँवली<br />
संधि-बेला में, लड़की बेहद सौम्य, लगभग काँस्य प्रतिमा लग रही थी।<br />
लड़की ने कहा, फ्पंडित जी, आज तो आरती हो चुकी। क्या करें हमें देर हो गई।य्<br />
पुजारी ने उत्साह से कहा, फ्इससे क्या, हम हिंया कराय दें। का कराना है संकल्प, कल्याण-मंत्रा,<br />
आरती जो कहो?य्<br />
फ्नहीं हम कल आरती की बेला आएँगे।य् लड़की ने कहा।<br />
संभव इंतशार में खड़ा था कि पुजारी उसे पचहत्तर पैसे लौटाए। लेकिन पुजारी भूल चुका था।<br />
जाने वैफसे पुजारी ने लड़की वेफ ‘हम’ को युगल अर्थ में लिया कि उसवेफ मुँह से अनायास आशीष<br />
निकली, फ्सुखी रहो, पूफलोपफलो, जब भी आओ साथ ही आना, गंगा मैया मनोरथ पूरे करें।य्<br />
लड़की और लड़का दोनों अकबका गए।<br />
लड़की छिटककर दूर खड़ी हो गई।<br />
लड़वेफ को तुरंत वहाँ से चल पड़ने की जल्दी हो गई।<br />
शायद उनकी चप्पलें एक ही रखवाले वेफ यहाँ रखी हुई थीं। टोकन देकर चप्पलें लेते समय दोनों<br />
की निगाहें एक बार पिफर टकरा गईं। आँखों का चकाचौंध अभी मिटा नहीं था।<br />
संभव आगे बढ़कर कहना चाहता था, फ्देखिए इसमें मेरी कोई गलती नहीं थी। पुजारी ने गलत<br />
अर्थ ले लिया।य् लड़की कहना चाहती थी, फ्आपको इतना पास नहीं खड़ा होना चाहिए था।य्<br />
2022.23<br />
152 / अंतरा<br />
152/अंतरा<br />
लड़की ने अपना होंठ दाँतों में दबाकर छोड़ दिया। भूल तो उसी की थी। बाद में तो वही आई<br />
थी। अंधेरे से घबराकर कहाँ, कितनी पास खड़ी हुई, उसे वुफछ खबर नहीं थी। लेकिन बातचीत वेफ<br />
लायक दोनों की मनःस्थिति नहीं थी। पहचान भी नहीं। दोनों ने नशरें बचाते हुए चप्पलें पहनीं।<br />
लड़की घबराहट में ठीक से चप्पल पहन नहीं पाई। थोड़ी सी अँगूठे में अटकाकर ही आगे बढ़ गई।<br />
संभव ने आगे लपककर देखना चाहा कि लड़की किस तरप़्<br />
ाफ गई। वह घाट की भीड़ को काटता<br />
हुआ सब्जीमंडी पहुंँच गया। हर की पौड़ी और सब्जीमंडी वेफ बीच अनेक घुमावदार गलियाँ थीं।<br />
लड़का देख नहीं पाया लड़की कहाँ ओझल हो गई।<br />
नानी का घर करीब आ गया था लेकिन लड़का घर नहीं गया। वह वापस अनदेखी गलियों में<br />
चक्कर लगाता रहा। उसने चूड़ी की समस्त दुकानों पर नशर दौड़ाई। हर दुकान पर भीड़ थी पर एक<br />
भीगी, गुलाबी आकृति नहीं थी। आखिर भटकते-भटकते संभव हार गया। पस्त कदमों से वह घर की<br />
ओर मुड़ा।<br />
नानी ने द्वार खोलते हुए कहा, फ्कहाँ रह गए थे लल्ला। मैं तो जी में बड़ा काँप रही थी। तुझे<br />
तो तैरना भी न आवे। कहीं पैर पिफसल जाता तो मैं तेरी माँ को कौन मुँह दिखाती।य्<br />
संभव वुफछ नहीं बोला। थैला तख्त पर पटक, पैर धोने नल वेफ पास चला गया।<br />
नानी बोली, फ्ब्यालू कर ले।य्<br />
संभव पिफर भी नहीं बोला।<br />
नानी की आदत थी एक बात को कई-कई बार कहती। संभव तख्त पर लेट गया।<br />
नानी ने कहा, फ्थक गया न। अरे तुझे मेले-ठेले में चलने की आदत थोड़ेई है। कल बैसाखी है,<br />
इसलिए भीड़ बहुत बढ़ गई है। अभी तो कल देखना, तिल धरने की जगह नहीं मिलेगी पौड़ी पर।<br />
चल उठ खायबे को खा ले।य्<br />
फ्मुझे भूख नहीं है,य् संभव ने कहा और करवट बदल ली।<br />
फ्अरे क्या हो गया। अस्नान वेफ बाद भी भूख नाँय चमकी। तभी न इतनी सींक सलाई देही है।<br />
मैंने सबिता से पहले ही कही थी, इसे अवेफले ना भेज। यहाँ जी ना लगे इसका।य् नानी पास खड़े<br />
खटोले पर अधलेटी हो गई। उम्र वेफ साथ-साथ नानी की काया इतनी संक्षिप्त हो गई थी कि वे पैफल<br />
पसर कर सोती तो भी उनवेफ लिए खटोला पर्याप्त था। पर उन्हें सिवुफड़कर, गठरी बनकर सोने की<br />
आदत थी।<br />
गंगा को छूकर आती हवा से आँगन काप़्<br />
ाफी शीतल था। ऊपर से नानी ने रोश की तरह शाम को<br />
चौक धो डाला था।<br />
नींद और स्वप्न वेफ बीच संभव की आँखों में घाट की पूरी बात उतर आई। लड़की का आँख<br />
मूँदकर अर्चना करना, माथे पर भीगे बालों की लट, वुफरते को छूता उसका गुलाबी आँचल और पुजारी<br />
से कहता उसका सौम्य स्वर ‘हम कल आएँगे।’<br />
2022.23<br />
ममता कालिया/153<br />
संभव की आँख खुल गई। यह तो वह भूल ही गया था। लड़की ने कल वहाँ आने का वचन<br />
दिया था। संभव आशा आौर उत्साह से उठ बैठा।<br />
नानी को झकझोरते हुए बोला, फ्नानी, नानी चलो खा लें मुझे भूख लगी है।य् नानी की नींद झूले<br />
वेफ समान थी, कभी गहरी, कभी उथली। उथले झोटे में उन्हें धेवते की सुध आई। वे रसोई से थाली<br />
उठा लाईं।<br />
संभव ने बहुत मगन होकर खाना शुरू किया, फ्वाह नानी! क्या आलू टमाटर बनाया है, माँ तो<br />
ऐसा बिलवुफल नहीं बना सकतीं। ककड़ी का रायता मुझे बहुत पसंद है।य्<br />
खाते-खाते संभव को याद आया आशीर्वचन की दुर्घटना तो बाद में घटी थी। वह कौर हाथ में<br />
लिए बैठा रह गया। उसकी आँखों वेफ बीच आगे वुफछ घंटे पहले का सारा दृश्य घूम गया। पुजारी का<br />
वह मंत्रोच्चार जैसा पवित्रा उद्गार ‘सुखी रहो, पूफलो-पफलो, सारे मनोरथ पूरे हों। जब भी आओ साथ<br />
ही आना।’ लड़की का चिहुँकना, छिटककर दूर खड़े होना, घबराहट में चप्पल भी ठीक से न पहन<br />
पाना और आगे बढ़ जाना।<br />
संभव ने विचलित स्वर में कहा, फ्मुझे भूख नाँय। मैं तो यों ही उठ बैठा था।य्<br />
सारी रात संभव की आँखों में शाम मँडराती रही। उसकी श्यादा उम्र नहीं थी। इसी साल एम.ए.<br />
पूरा किया था। अब वह सिविल सर्विसेश प्रतियोगिताओं में बैठने वाला था। माता-पिता का खयाल<br />
था वह हरिद्वार जाकर गंगा जी वेफ दर्शन कर ले तो बेखटवेफ सिविल सेवा में चुन लिया जाएगा। लड़का<br />
इन टोटकों को नहीं मानता था पर घूमना और नानी से मिलना उसे पसंद था।<br />
अभी तक उसवेफ जीवन में कोई लड़की किसी अहम भूमिका में नहीं आई थी। लड़कियाँ या तो<br />
क्लास में बाँयी तरप़्<br />
ाफ की बेंचों पर बैठनेवाली एक कतार थी या पिफर ताई चाची की लड़कियाँ जिनवेफ<br />
साथ खेलते खाते वह बड़ा हुआ था। इस तरह बिलवुफल अवेफली, अनजान जगह पर, एक अनाम<br />
लड़की का सद्य-स्नात दशा में सामने आना, पुजारी का गलत समझना, आशीर्वाद देना, लड़की का<br />
घबराना और चल देना सब मिलाकर एक नयी निराली अनुभूति थी जिसमें उसे वुफछ सुख और श्यादा<br />
बेचैनी लग रही थी। उसने मन ही मन तय किया कि कल शाम पाँच बजे से ही वह घाट पर जाकर<br />
बैठ जाएगा। पौड़ी पर इस तरह बैठेगा कि कल वाले पुजारी वेफ देवालय पर सीधी आँख पड़े।<br />
उसने तो लड़की का नाम भी नहीं पूछा। वैसे वह हरिद्वार की नहीं लगती थी। वैफसी लगती थी,<br />
संभव ने याद करने की कोशिश की। उसे सिप़्र्<br />
ाफ उसकी दुबली पतली काया, गुलाबी साड़ी, और<br />
भीगी-भीगी श्याम सलोनी आँखें दिखीं। उसे अप़्<br />
ाफसोस था वह उसे ठीक से देख भी नहीं पाया पर<br />
यह तय था कि वह उसे हशारों की भीड़ में भी पहचान लेगा।<br />
अभी चिड़ियों ने आँगन में लगे अमरूद वेफ पेड़ पर चहचहाना शुरू ही किया था कि नानी ने<br />
आवाश दी, फ्लल्ला चलेगा गंगाजी, आज बैसाखी है।य्<br />
2022.23<br />
154 / अंतरा<br />
154/अंतरा<br />
संभव को लगा वह रातभर सोया नहीं है। नानी की मौजूदगी में जैसे उसे संकोच हो रहा था।<br />
उसने कहा, फ्तुम मेरे भी नाम की डुबकी लगा लेना नानी, मैं तो अभी सोउँफगा।य्<br />
नानी द्वार उढ़काकर चली गईं, तो लड़वेफ ने अपनी कल्पना को निर्द्वंद्व छोड़ दिया। आज जब वह<br />
सलोनी उसे दिखेगी तो वह उसवेफ पास जाकर कहेगा, फ्पुजारी जी की नादानी का मुझे बेहद अप़्<br />
ाफसोस<br />
है। यकीन मानिए, पंडित जी मेरे लिए भी उतने ही अनजान हैं। जितने आपवेफ लिए।य्<br />
लड़की कहेगी, फ्कोई बात नहीं।य्<br />
वह पूछेगा, फ्आप दिल्ली से आई हैं?य्<br />
लड़की कहेगी, फ्नहीं हम तो... वेफ हैं।य्<br />
बस उसवेफ हाथ पते की बात लग जाएगी। अगर उसने रुख दिखाया तो वह कहेगा, फ्मेरा नाम<br />
संभव है और आपका?य्<br />
वह क्या कहेगी? उसका नाम क्या होगा। वह बी.ए. में पढ़ रही होगी या एम.ए. में? इन सवालों<br />
वेफ जवाब वह अभी ढूँढ भी नहीं पाया था कि नानी वापस आ गईं।<br />
फ्ले तू अभी तक सुपने ले रहा है, वहाँ लाखन लाख लोग नहान कर लिए। अरे कभी तो बड़ों<br />
का कहा कर लो।य् लड़वेफ की तंद्रा नष्ट हो गई। नानी उवाच वेफ बीच सपने नौ दो ग्यारह हो गए।<br />
लड़वेफ ने उठते-उठते तय किया कि इस वक्त वह घाट तक चला तो जाएगा, पर नहाएगा नहीं।<br />
हाथ-मुँह धोकर प्रार्थना कर लेगा। वुफछ देर पौड़ी पर बैठ गंगा की जलराशि निहारेगा। लौटते हुए<br />
मथुरा जी की प्राचीन दुकान से गरम जलेबी खरीदेगा और वापस आ जाएगा। उसने वुफरते की जेब<br />
में बीस का नोट डाला और चल दिया।<br />
वास्तव में पौड़ी पर आज अद्भुत भीड़ थी। गंगा वेफ घाट से भी चौड़ा मानव-रेला दिखाई दे रहा<br />
था। भोर की आरती हो चुकी थी। लेकिन भजन शोर-शोर से चले जा रहे थे। नारियल, पूफल और<br />
प्रसाद की घनघोर बिक्री थी।<br />
भीड़ लड़के ने दिल्ली में भी देखी थी, बल्कि रोज़ देखता था। दफ़्तर जाती भीड़, ख़रीद-फ़रोख़्त करती भीड़, तमाशा देखती भीड़, सड़क क्रॉस करती भीड़। लेकिन इस भीड़ का अन्दाज़ निराला था।<br />
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इस भीड़ में एकसूत्रता थी। न यहाँ जाति का महत्त्व था, न भाषा का, महत्त्व उद्देश्य का था और वह सबका समान था, जीवन के प्रति कल्याण की कामना। इस भीड़ में दौड़ नहीं थी, अतिक्रमण नहीं था और भी अनोखी बात यह थी कि कोई भी स्नानार्थी किसी सैलानी आनंद में डुबकी नहीं लगा रहा था। बल्कि स्नान से ज़्यादा समय ध्यान ले रहा था। दूर जलधारा के बीच एक आदमी सूर्य की ओर उन्मुख हाथ जोड़े खड़ा था। उसके चेहरे पर इतना विभोर, विनीत भाव था मानो उसने अपना सारा अहम त्याग दिया है, उसके अंदर ‘स्व’ से जनित कोई कुण्ठा शेष नहीं है, वह विशुद्ध रूप से चेतनस्वरूप, आत्माराम और निर्मलानंद है।<br />
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एक छोटे से लड़के ने लगभग हँसते हुए उसका ध्यान भंग किया। भैया, आप नहीं नहाएँगे?<br />
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संभव ने गौर किया। जाने कब पौड़ी पर उसके नज़दीक यह बच्चा आ बैठा था। उसका भाल चंदन चर्चित था। चेहरे पर चमकीली ताज़गी थी।<br />
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अकेले हो ?<br />
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नहीं बुआ साथ हैं।<br />
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कहाँ से आए हो ?<br />
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रोहतक <br />
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अब वापस जाओगे?<br />
नहीं — बच्चे ने चमकीली आँखों से बताया,— अभी तो मंसा देवी जाना है, वह उधर। बच्चा सामने पहाड़ी पर बना एक मंदिर इंगित से दिखाने लगा।<br />
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यह स्थल संभव को पहले दिन से ही अपनी ओर खींच रहा था। लेकिन नानी ने उसे बरज दिया था, — ना लल्ला मंसा देवी जाना है तो क्या वह झूलागाड़ी में तो बैठियो न। रस्सी से चलती है, क्या पता कब टूट जाए। एक बार टूटी थी, हज़ारन मरे - गिरे थे। जाना है तो चढ़कर जाना, उसका महातम अलग है।"<br />
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संभव बहुत शारीरिक मेहनत में यक़ीन नहीं करता था। बरसों से कुरसी पर बैठ पढ़ते-पढ़ते उसे सक्रियता के नाम पर हमेशा किसी दिमागी हरकत का ही ध्यान आता था। उसे यहाँ सुबह-सुबह नानी का झाड़ ू<br />
लगाना, चक्की चलाना, पानी भरना, रात वेफ माँजे<br />
बरतन पिफर से धो-धोकर लगाना, सब कष्ट दे रहा था। वह एतराश नहीं कर रहा था तो सिप़्र्<br />
ाफ इसलिए<br />
कि महश चार दिन रुककर वह नानी की दिनचर्या में हस्तक्षेप करने का अधिकारी नहीं बन सकता।<br />
संभव ने बच्चे से कहा, फ्अगर गिर गए तो?य्<br />
बच्चा हँसा, फ्इतने बड़े होकर डरते हो भैया? गिरेंगे वैफसे, इतने लोग जो चढ़ रहे हैं।य्<br />
शहर वेफ इतिहास वेफ साथ-साथ संभव उसका भूगोल भी आत्मसात करना चाहता था। इसलिए<br />
थोड़ी देर बाद वह अटकता भटकता, उस जगह पहुँच गया जहाँ से रोपवे शुरू होती थी।<br />
रोपवे वेफ नाम में कोई धर्माडंबर नहीं था। ‘उषा ब्रेको सर्विस’ की खिड़की वेफ आगे लंबा क्यू था।<br />
वहीं मंसा देवी पर चढ़ाने वाली चुनरी और प्रसाद की थैलियाँ बिक रही थीं। पाँच, सात और ग्यारह<br />
रुपए की। कई बच्चे ¯बदी-पाउडर और उसवेफ साँचे बेच रहे थे, तीन-तीन रुपए। उन्होंने अपनी हथेली<br />
पर कलात्मक ¯बदियाँ बना रखी थीं। नमूने की खातिर। उससे पहले संभव ने कभी ¯बदी जैसे शृंगार<br />
प्रसाधन पर ध्यान नहीं दिया था। अब यकायक उसे ये ¯बदियाँ बहुत आकर्षक लगीं। मन ही मन उसने<br />
एक ¯बदी उस अज्ञातयौवना वेफ माथे पर सजा दी। माँग में तारे भर देने जैसे कई गाने उसे आधे अधूरे<br />
याद आकर रह गए। उसका नंबर बहुत जल्द आ गया। अब वह दूसरी कतार में था जहाँ से वेफबिल<br />
कार में बैठना था। सभी काम बड़ी तत्परता से हो रहे थे।<br />
जल्द ही वह उस विशाल परिसर में पहुँच गया जहाँ लाल, पीली, नीली, गुलाबी वेफबिल कार<br />
बारी-बारी से आकर रुकतीं, चार यात्राी बैठातीं और रवाना हो जातीं। वेफबिल कार का द्वार खोलने और<br />
बंद करने की चाभी ऑपरेटर वेफ नियंत्राण में थी। संभव एक गुलाबी वेफबिल कार में बैठ गया। कल<br />
से उसे गुलाबी वेफ सिवा और कोई रंग सुहा ही नहीं रहा था। उसवेफ सामने की सीट पर एक<br />
नवविवाहित दंपति चढ़ावे की बड़ी थैली और एक वृ( चढ़ावे की छोटी थैली लिए बैठे थे।<br />
संभव को अप़्<br />
ाफसोस हुआ कि वह चढ़ावा खरीदकर नहीं लाया। इस वक्त जहाँ से वेफबिल कार<br />
गुशर रही थी, नीचे कतारब( पूफल खिले हुए थे। लगता था रंग-बिरंगी वादियों से कोई ¯हडोला उड़ा<br />
जा रहा है।<br />
एक बार चारों ओर वेफ विहंगम दृश्य में मन रम गया तो न मोटे-मोटे प़्<br />
ाफौलाद वेफ खंभें नशर आए<br />
और न भारी वेफबिल वाली रोपवे। पूरा हरिद्वार सामने खुला था। जगह-जगह मंदिरों वेफ बुर्ज, गंगा मैया<br />
की धवल धार और सड़कों वेफ खूबसूरत घुमाव। नीचे सड़क वेफ रास्ते चढ़ते, हाँपफते लोग। लिमका<br />
की दुकानें और नाम अनाम पेड़।<br />
बहुत जल्द उनकी वेफबिल कार मंसा देवी वेफ द्वार पर पहुँच गई। यहाँ पिफर चढ़ावा बेचने वाले<br />
बच्चे नशर आए।<br />
संभव ने एक थैली खरीद ली और सीढ़ियाँ चढ़कर प्रांगण में पहुँच गया।<br />
नाम मंसा देवी का था पर वर्चस्व सभी देवी-देवताओं का मिला जुला था।<br />
2022.23<br />
ममता कालिया/157<br />
एकदम अंदर वेफ प्रकोष्ठ में चामुंडा रूप धारिणी मंसादेवी स्थापित थीं। व्यापार यहाँ भी था।<br />
मनोकामना वेफ हेतुक लाल-पीले धागे सवा रुपए में बिक रहे थे। लोग पहले धागा बाँधते, पिफर<br />
देवी वेफ आगे शीश नवाते।<br />
संभव ने भी पूरी श्र(ा वेफ साथ मनोकामना की, गाँठ लगाई, सिर झुकाया, नैवेद्य चढ़ाया और वहाँ<br />
से बाहर आ गया।<br />
आँगन में रुद्राक्ष मालाओं की अनेक गुमटियाँ थीं, जहाँ दस रुपए से लेकर तीन हशार तक की<br />
मालाओं पर लिखा थाµ‘असली रुद्राक्ष, नकली साबित करने वाले को पाँच सौ रुपए इनाम।’<br />
एक तरप़्<br />
ाफ हलवाई गरम जलेबी, पूरी, कचौड़ी छान रहे थे। मेले का माहौल था।<br />
संभव वापस वेफबिल कार की कतार में लग गया।<br />
वापसी का रास्ता ढलवाँ था। कार और भी जल्द नीचे पहुँच रही थी।<br />
इस बार संभव वेफ साथ तीन समवयस्क लड़वेफ बैठे हुए थे वह वेफबिल कार की ढलवाँ दौड़ देख<br />
रहा था कि यकायक दो आश्चर्य एक साथ घटित हुए।<br />
वह बच्चा जो पौड़ी पर उसवेफ करीब आकर बैठ गया था, दूर पीली वेफबिल कार में नशर आया।<br />
बच्चे की लाल कमीज़ उसे अच्छी तरह याद थी। हालाँकि इतनी दूर से उसका चेहरा स्पष्ट नज़र नहीं<br />
आ रहा था ।<br />
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और बच्चे से सटी हुई जो दुबली, पतली, श्याम सलोनी आकृति बैठी थी, वह थी वही लड़की, जो कल शाम के झुटपुटे में हर की पौड़ी पर उससे टकराई थी ।<br />
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संभव बेहद बेचैन हो गया। वह दाएँ-बाएँ झुक-झुककर चीह्नने की कोशिश करने लगा। उसका मन हुआ पंछी की तरह उड़कर पीली केबिल कार में पहुँच जाए ।<br />
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बहुत जल्द केबिल कार वापस नीचे पहुँच गई।<br />
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संभव ने आगे-आगे जाते बच्चे को लपककर कन्धे से थाम लिया और बोला, कहो दोस्त ?<br />
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बच्चे ने अचकचाकर उसकी ओर देखा, "अरे भैया। रुककर बोला, हमने सोचा, जब हमारा दोस्त नहीं डरता तो हो जाए एक ट्रिप।<br />
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तभी आगे से एक महीन सी आवाज़ ने कहा, "मन्नू घर नहीं चलना है।"<br />
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बालक मन्नू ने कहा, "अभी आया बुआ।"<br />
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सम्भव ने अस्फुट स्वर में पूछा, "ये तुम्हारी बुआ हैं।"<br />
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"और क्या" मन्नू ने साश्चर्य जवाब दिया।<br />
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"हमें नहीं मिलाओगे, हम तो तुम्हारे दोस्त हैं।"<br />
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मन्नू वाकई उसका हाथ खींचता हुआ चल दिया, "बुआ, बुआ, इनसे मिलो, ये हैं हमारे नए दोस्त..."<br />
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उसने प्रश्नवाचक नज़रों से सम्भव को देखा, "अपना नाम ख़ुद बताइए।" वह अपना नाम बताता, इससे पहले उसी <br />
महीन मीठी आवाज़ ने कहा, "ऐसे कैसे दोस्त हैं तुम्हारे, तुम्हें उनका नाम भी नहीं पता ? अब संभव ने गौर किया, बिलकुल वही कण्ठ, वही उलाहना, वही अन्दाज़ । पुलक से उसका रोम-रोम हिल उठा। हे ईश्वर ! उसने कब सोचा था, मनोकामना का मौन उद्गार इतनी शीघ्र शुभ परिणाम दिखाएगा ।<br />
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लड़की ने आज गुलाबी परिधान नहीं पहना था पर सफ़ेद साड़ी में लाज से गुलाबी होते हुए उसने मंसा देवी पर एक और चुनरी चढ़ाने का संकल्प लेते हुए सोचा, मनोकामना की गाँठ भी अद्भुत, अनूठी है, इधर बाँधो उधर लग जाती है...। <br />
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"पारो बुआ, पारो बुआ, इनका नाम है..." मन्नू ने बुआ का आँचल खींचते हुए कहा ।<br />
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"सम्भव देवदास" सम्भव ने हँसते हुए वाक्य पूरा किया । उसे भी मनोकामना का पीला-लाल धागा और उसमें पड़ी गिठान का मधुर स्मरण हो आया ।</div>अनिल जनविजय