प्राचीन पारस का संक्षिप्त इतिहास / रामचन्द्र शुक्ल

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अत्यंत प्राचीन काल में पारस देश आर्यो की एक शाखा का एक वासस्थान था जिसका भारतीय आर्यो से घनिष्ट संबंध था। अत्यंत प्राचीन वैदिक युग में तो पारस से लेकर गंगा, सरयू के किनारे तक की सारी भूमि आर्य भूमि थी जो अनेक प्रदेशों में विभक्त थी। इन प्रदेशों में भी कुछ के साथ आर्य शब्द लगा था। जिस प्रकार यहाँ आर्यावर्त एक प्रदेश था उसी प्रकार प्राचीन पारस में भी आधुनिक अफगानिस्तान से लगा हुआ पूर्वी प्रदेश 'अरियान' वा 'एर्यान' (यूनानी एरियाना) कहलाता था जिससे 'ईरान' शब्द बना। ईरान शब्द आर्यवास के अर्थ में सारे देश के लिए प्रयुक्त होता था। ससान वंशी सम्राटों ने भी अपने को ईरान के (का) शाहंशाह कहा है। पदाधिकारियों के नामों के साथ भी 'ईरान' शब्द मिलता है। जैसे 'ईरान स्पाहपत' (ईरान के सिपाही या सेनापति), “ईरान अम्बारकपत” (ईरान के भंडारी) इत्यादि। प्राचीन पारसी अपने नामों के साथ 'आर्य' शब्द बड़े गौरव के साथ लगाते थे। प्राचीन सम्राट दार्यवहु (दारा) ने अपने को अरियपुत्र लिखा है। सरदारों के नामों में आर्य शब्द मिलता है, जैसे अरियराम्र, अरियोवर्जनिस इत्यादि।

प्राचीन पारस जिन कई प्रदेशों में बँटा था, उसमें पारस की खाड़ी के पूर्वी तट पर पड़ने वाला पार्स या पारस्य प्रदेश भी था जिसके नाम पर आगे चलकर सारे देश का नाम पड़ा। इसकी प्राचीन राजधानी पारस्यपुर (यूनानी-पर्सिपोलिस) थी जहाँ पर आगे चलकर 'इस्तख' बसाया गया। वैदिक काल में 'पारस' नाम प्रसिद्ध नहीं हुआ था। यह नाम तखामनीय वंश के सम्राटों के समय से, जो पारस्य प्रदेश के थे, सारे देश के लिए व्यव्हृत होने लगा। यही कारण है जिससे वेद और रामायण में इस शब्द का पता नहीं लगता। पर महाभारत, रघुवंश, कथासरित्सागर आदि में पारस्य और पारसीकों का उल्लेख बराबर मिलता है।

अत्यंत प्राचीन युग के पारसियों और वैदिक आर्यो में उपासना, कर्मकांड में कोई भेद नहीं था। वे अग्नि, सूर्य, वायु आदि की उपासना और अग्निहोत्रा करते थे। मिथ्र (मित्रासूर्य), वयु (वायु), होम (सोम), अरमइति (अमति), अद्दमन् (अर्यमन), नइर्य-संह (नराशंस) आदि उनके भी देवता थे। वे भी बड़े-बड़े यश्न (यज्ञ) करते, सोम पान करते और अथ्रवन् (अथर्वन्) नामक याजक काठ से काठ रगड़ कर अग्नि उत्पन्न करते थे। उनकी भाषा भी उसी एक मूल आर्य-भाषा से उत्पन्न थी जिससे वैदिक और लौकिक संस्कृत निकली हैं। प्राचीन पारसी और संस्कृत में कोई विशेष भेद नहीं जान पड़ता। अवेस्ता में भारतीय प्रदेशों और नदियों के नाम भी हैं, जैसे हफ्तहिन्दु (सप्तसिन्धु), हरव्वेती (सरस्वती), हरयू (सरयू), पंजाब इत्यादि।

वेदों से पता चलता है कि कुछ देवताओं को असुरों की संज्ञा भी दी जाती थी। वरुण के लिए इस संज्ञा का प्रयोग कई बार हुआ है। सायणाचार्य ने भाष्य में 'असुर' शब्द का अर्थ किया है “असुर: सर्वेषां प्राणद:” इन्द्र के लिए भी इस संज्ञा का प्रयोग दो एक जगह मिलता है। पर यह भी लिखा है कि यह पद प्रदान किया हुआ है। इससे जान पड़ता है कि यह एक विशिष्ट संज्ञा हो गई थी। वेदों को देखने में उसमें क्रमश: वरुण पीछे पड़ते गए हैं और इन्द्र को प्रधानता प्राप्त होती गई है। साथ ही साथ असुर शब्द भी कम होता गया है। पीछे तो असुर शब्द राक्षस, दैत्य के अर्थ में ही मिलता है। इससे जान पड़ता है कि देवोपासक और असुरोपासक ये दो पक्ष आर्यो के बीच हो गए थे।

पारस की ओर जरथुस्त्रा (आधु. फा. जरतुश्त) नामक एक ऋषि या ऋत्विक (जोता, सं. होता) हुए जो असुरोपासक के पक्ष में थे। इन्होंने अपनी शाखा ही अलग कर ली और 'जिश्दंअवेस्ता' के नाम से उसे चलाया, यही ज़िंश्दंअवेस्ता पारसियों का धर्म ग्रंथ हुआ। इसमें 'देव' शब्द दैत्य के अर्थ में आया है। इन्द्र या वृत्राहन (जिश्दं वरेथधा्र) दैत्यों का राजा कहा गया है। शओर्व (शर्व) नाहंइत्य (नासत्य) भी दैत्य कहे गए हैं। अन्धा्र (अंगिरस) नामक अग्नियाजकों की प्रशंसा की गई है और सोमपान की निन्दा। उपास्य अहुर्मज्श्द (सर्वज्ञ असुर) है जो धर्म और सत्य स्वरूप है। अद्दमन (अर्यमन) अधर्म और पाप का अधिष्ठाता है। इस प्रकार जरथुस्त्रा ने धर्म और अधर्म दो द्वन्द्व शक्तियों की सूक्ष्म कल्पना की और शुद्धाचार का उपदेश दिया। जरथुस्त्रा के प्रभाव से पारस में कुछ काल तक के लिए एक अहुर्मज्द की उपासना स्थापित हुई और बहुत से देवताओं की उपासना और कर्मकांड कम हुआ। पर जनता का सन्तोष इस सूक्ष्म विचार वाले धर्म से पूरा-पूरा नहीं हुआ। ससानों के समय में जब मगयाजकों और पुरोहितों का प्रभाव बढ़ा तब बहुत से स्थूल देवताओं की उपासना ज्यों की त्यों जारी हो गई और कर्मकांड की जटिलता फिर वही हो गई। ये पिछली पद्धतियाँ भी 'जिंश्दंअवेस्ता' में ही मिल गईं।

जिंश्दंअवेस्ता में भी वेद के समान गाथा (गाथ) और मंत्र (मन्थ्र) हैं। इसके कई विभाग हैं। जिसमें गाथ सबसे प्राचीन और जरथुस्त्रा के मुँह से निकला हुआ माना जाता है। एक भाग का नाम 'यश्न' है जो वैदिक 'यज्ञ' शब्द का रूपान्तर मात्र है। विस्पर्द, यस्त (वैदिक-इष्टि) वंदिदाद् आदि इसके और विभाग हैं। वंदिदाद् में जरथुस्त्रा और अहुर्मज्द का धर्म सम्बन्ध में संवाद है। 'अवेस्ता' की भाषा, विशेषत: गाथा की, पढ़ने में एक प्रकार की अपभ्रंश वैदिक संस्कृत सी ही प्रतीत होती है। कुछ मंत्र तो वेद मंत्रों से बिलकुल मिलते-जुलते हैं। डॉक्टर हाँग ने यह समानता उदाहरणों से बताई है और डॉक्टर मिल्स ने कई गाथाओं का वैदिक संस्कृत में ज्यों का त्यों रूपान्तर किया है। जरथुस्त्रा ऋषि कब हुए थे इसका निश्चय नहीं हो सका है। पर इसमें सन्देह नहीं कि वे अत्यंत प्राचीन काल में हुए थे। ससानों के समय में पहली भाषा में जो 'अवेस्ता' पर भाष्य स्वरूप अनेक ग्रंथ बने उनमें से एक में व्यास हिन्दी का पारस में जाना लिखा है। सम्भव है वेदव्यास और जश्रथुस्त्रा समकालीन हों।

इतिहास

अरबों (मुसलमानों) के हाथ में ईरान का राज्य आने के पहले पारसियों के इतिहास के अनुसार इतने राजवंशों ने क्रम से ईरान पर राज्य किया- 1.महाबद वंश,

2.पेशदादी वंश, 3.कवयानी वंश, 4.प्रथम मोदी वंश, 5.असुर (असीरियन) वंश, 6.द्वितीय मोदी वंश, 7.हखामनि वंश, 8.पार्थियन या अस्कानी वंश और

9.ससान वंश। महाबद और गोओर्मद के वंश का वर्णन पौराणिक है। वे देवों से लड़ा करते थे। गोओर्मद के पौत्र हुसंग ने खेती, सिंचाई, शस्त्ररचना आदि चलाई और पेशदाद (नियामक) की उपाधि पाई। इसी से वंश का नाम पड़ा। इसके पुत्र तेहेमुर ने कई नगर बसाए। सभ्यता फैलाई और देवबन्द (देवघ्न) की उपाधि पाई। इसी वंश में जमशेद हुआ जिसके सुराज और न्याय की बहुत प्रसिद्धि है। संवत्सर को इसने ठीक किया और वसंत विषुवत पर नववर्ष का उत्सव चलाया जो जमशेदी नौरोज के नाम से पारसियों में प्रचलित है। पर्सेपोलिस विस्तास्प के पुत्र द्वारा प्रथम ने बसाया, किन्तु पहले उसे जमशेद का बसाया मानते थे। इसका पुत्र फरेंदू बड़ा वीर था जिसने काव: नामी योद्धा की सहायता से राज्यपहारी जोहक को भगाया। कवयानी वंश में जाल, रुस्तम आदि वीर हुए जो तुरानियों से लड़कर फिरदौसी के शाहनामे में अपना यश अमर कर गए हैं। इसी वंश में 1300 ई.पू.. के लगभग गुश्तास्प हुआ जिसके समय में जरथुस्त्रा का उदय हुआ।

पहले कहा जा चुका है कि प्राचीन पारस कई प्रदेशों में विभक्त था। कैस्पियन समुद्र के दक्षिण पश्चिम का प्रदेश मिडिया कहलाता था जो एतरेय ब्राह्मण आदि प्राचीन ग्रंथ का उत्तर मद्र हो सकता है। जरथुस्त्रा ने यहाँ अपनी शाखा का उपदेश किया। पारस के सबसे प्राचीन राज्य की स्थापना का पता इसी प्रदेश से चलता है। पहले यह प्रदेश अनार्य असुर जाति के अधिकार में था जिनका देश (वर्तमान असीरिया) यहाँ से पश्चिम में था। यह जाति आर्यो से सर्वथा भिन्न सेम की सन्तान (Semetic सेमेटिक) थी जिसके अंतर्गत यहूदी और अरब वाले हैं। यूनानी इतिहासकारों के अनुसार मिडिया के आर्यो ने ईसा से हजार वर्ष पहले अपने देश से असुरों को निकाल दिया और बहुत दिनों तक बिना राजा के रहे। अंत में देवक ने बाबुल, जो असुर देश के दक्षिण पड़ता था, को जीत कर एक नया राज्य स्थापित किया। पहला राजा यही देवक (यूनानी Deiokes देइओकेस) हुआ। राजधानी थी हगमतान (यूनानी Ecbatana एकबटना आधुनिक हमदान)। आजकल के इराक और खुर्दिस्तान तक बहुत दिनों तक उनके राज्य का विस्तार रहा और असुरों के आक्रमण बराबर होते रहे। दूसरे बादशाह फ्रावर्लिश (यूनानी Phraortes फ्रेओर्टिस) ने पारस्य प्रदेश को भी राज्य में मिलाया। वह असुरों की राजधानी निनवह की चढ़ाई में मारा गया। उसके उत्तराधिकारी उवक्षत्रा (यूनानी Cyaxares सियगजश्रिस) ने बहुत कुछ राज्य बढ़ाया। ईसा से 607 वर्ष पहले उसने असुर राजधानी निनवह का विध्वंस किया। इस चढ़ाई में बाबुल वालों ने मद्रों का साथ दिया। बाबुल के खाल्दीय (चैल्डियन) बादशाह ने अपने पुत्र नबुकाद-नेज़र (Nebuchad-nezzar), का विवाह माद के बादशाह की लड़की अमिति (यूनानी Amyite) से किया। उवक्षत्रा ने यूनानी मिडिया राज्य पर चढ़ाई की जो एशिया कोचक में भूमध्य सागर के तट पर पड़ता था। उसी समय एक भारी ग्रहण लगा जिससे राज्य का अशुभ समझ मिडिया वालों ने चटपट सन्धि कर ली। गणना के अनुसार यह ग्रहण 28 मई 585 ईसवीं पूर्व में पड़ा था। उवक्षत्रा के उपरान्त उसका पुत्र इष्टुवेगु (यूनानी Astyages आस्टियाजिस) राजा हुआ जिसके हाथ से राज्य हख़ामनि (यूनानी Achamene अकामेनि) वंश में गया।

हखामनि वंश

यह वंश पारस्य प्रदेश का था। इसका मूल पुरुष हखामनि कहा जाता है। हखामनि का पुत्र चयस्पि (यूनानी Teispes टियस्पिस ईसा से 730 वर्ष पहले), चयस्पि का पुत्र कंबुजिय (यूनानी Cambyses) उसके वंश में कंबुजिय का पुत्र महाप्रतापी कुरु (या कुरुर् कत्तकारक रूप 'कुरूश' यूनानी Cyrus साइरस) हुआ जिसने ईसा से 550 वर्ष पहले मद्रराज इष्टुवेगु से साम्राज्य लिया। हखामनि वंशवाले पहले पारस्य प्रदेश के अंतर्गत अंशन नामक स्थान के राजा थे। बाबुल के खंडहरों में जो कुरु का लेख मिला है उसमें उसने अपने को 'अंशन का राजा' कहा है, समग्र पारस देश का नहीं। इष्टुवेगु को जीतने के उपरान्त वह बड़े राज्य का अधिकारी हुआ इसका समर्थन एक और प्राचीन लेख से इस प्रकार होता है। “अंशन के राजा कुरु के विरुद्ध गया...इष्टुवेगु...उसकी फौज बागी हुई उन्होंने उसका हाथ पकड़ा और कुरु को दे दिया।” 550 ई.पू.. कुरु ने हगमतान नगर पर अधिकार किया और यों वह एक विशाल राज्य का अधिकार हुआ। यह बड़ा प्रतापी राजा हुआ। मिडिया पर अधिकार करके यहाँ उसने यूनानी राजा फ्रीसस को जीता। जलाने चला था पर कुछ सोचकर रुक गया। इसके सेनापति हरपगस (यूनानी हरपेगस) ने कई यूनानी नगरों को लिया। बाबुल पर चढ़ाई करते ही उसके बादशाह नवोनिद ने अधीनता स्वीकार की। दार्यवहु प्रथम (दारा) के शिलालेख से पता चलता है कि कुरु का साम्राज्य ख़ारज़म (ख़ीवा), सगदान (समरकन्द, बुखारा), बाधीक (पुरा. फा. वक्तर) तथा आजकल के अफगानिस्तान के एक बड़े भाग तक था। हिन्दुस्तान के गान्धार प्रदेश तक भी उसका अधिकार पहुँचा था जैसा कि सिकंदर के कुछ यूनानी साथियों ने लिखा है। यह संदिग्ध है। वंक्षुनद (ऑक्सस) के किनारे बर्बर जातियों के हाथ से ईसा से 529 वर्ष पूर्व कुरु मारा गया और इसकी हव्याँ वसर्गद नगर में बड़ी धूम के साथ गाड़ी गईं। अब तक मुर्गाब के मैदान में उसके विशाल समाधिस्थल का खंडहर पड़ा है जिसके किसी खम्भे पर “अहम कुरु हखामनि” (मैं कुरु हखामनि हूँ) अब तक खुदा दिखाई देता है।

कुरु के दो पुत्र थे बरदिय (यूनानी Smirdis स्मर्डिस) और कंबुजिय। बरदिय मारा गया, कंबुजिय सिंहासन पर बैठा। इसने मिस्र देश को जीता और मन्दिरों में जाकर वहाँ के देवताओं का अपमान किया। यह क्रूर और अन्यायी था। गोमात नामक एक मग याजक (ब्राह्मण) ने अपने को बरदिय प्रसिद्ध कर सिंहासन लेना चाहा। कंबुजिय उसके पीछे शाम देश पर चढ़ गया पर मार्ग में उसने आत्मघात कर लिया। गोमात कुछ दिनों तक राज्य भोगता रहा पर पीछे सात सरदारों ने, जिनमें राजवंशीय भी थे, उसे उतार कर राजवंश की दूसरी शाखा से विस्तास्प के पुत्र दार्यवहु र्(कृत्ताकारक का रूप-दार्यवहु, दारा प्रथम) को लेकर ईसा से 521 वर्ष पहले पारस के सिंहासन पर बैठाया। यह दार्यवहु (प्रथम) भी बड़ा प्रतापी हुआ। इसके कई शिलालेख कई स्थानों में मिले हैं। जिससे इसके शासन काल का बहुत कुछ वृत्तान्त मालूम होता है। उस समय प्रदेश के शासक 'चत्रापावन' कहलाते थे। दार्यवहु का विहिस्तून (वैसितून) का शिलालेख सबसे प्रसिद्ध है। जिसकी कुछ पंक्तियाँ उस समय की पारसी भाषा का नमूना दिखाने के लिए नीचे दी जातीहैं।

अहम दार्यवहु क्षायथिक वज़र्क क्षायथिक क्षायथियानाम् क्षयथिय द्हयोनाम् विस्पणनानाम् क्षायथिय अह्याया वज़र्काया पुरिआपिय विस्तास्पह्या पुत्र हखामनिशिय पार्स पार्सव्या पुत्र अरिय अरिय पुत्र...॥

अर्थात् मैं दार्यवहु राजा, बड़ा राजा, राजाओं का राजा, सारे आबाद देशों का राजा, इस बड़ी पृथ्वी का रक्षक, विस्तास्प हखामनि का पुत्र पारसी, पारसी का पुत्र आर्य, आर्य का पुत्र...॥

इस विहिस्तून वाले शिलालेख में हिन्दुस्तान का नाम नहीं आया है। पर पर्सपोलिस के लेख में है। उससे जान पड़ता कि थोड़ा सा सिन्धु के आसपास का प्रदेश ही उसके हाथों में आया था। इस बात का समर्थन इतिहास के आदि यूनानी आचार्य हेरोडोटस के इस लेख में भी होता है कि उसने सिन्धु नदी की छानबीन के लिए अपने नौबलाधिकृत को पंक्त (पख्तु पठान) लोगों के प्रदेश से होकर भेजा था। दार्यवहु ने यूनान (ग्रीस) पर चढ़ाई की थी और वह आजकल के रूस से होता हुआ बहुत दूर निकल गया था। मराथन की लड़ाई में एथेंस (यूनान का नगर) वालों ने मर्होनिम नामक सेनापति के अधीन पारसी सेना को हराया था। ईसा से 485 वर्ष पूर्व दार्यवहु (प्रथम) की मृत्यु हुई।

दार्यवहु का पुत्र क्षयर्श (यूना. जरिक्सस) सिंहासन पर बैठा। वह बड़ा शक्तिशाली हुआ। इसने मिस्र देश को सर्वतोभाव से अधीन किया और बड़ी भारी सेना लेकर ईसा से 480 वर्ष पहले यूनान पर चढ़ाई की। इस चढ़ाई से यूनानियों ने अपनी रक्षा की, इसका उन्हें बहुत गर्व था और इसके संबंध में देशभक्ति और वीरता की कथाएँ उनके यहाँ प्रसिद्ध हुईं। क्षयर्श को लौटना पड़ा। तूरान की ओर भी उसने समरकन्द, बुखारा आदि प्रदेश जीते। वहाँ किसी तुरुष्क बर्बर जाति के हाथ से उसकी मृत्यु हुई और उसका पुत्र अर्तक्षत्राश (यूनानी अर्तजरक्सिस) 464 ई.पू.र्व में बादशाह हुआ। वह 'आजानुवाहु' कहलाता था। ईसा से 424 वर्ष पहले उसका परलोक-वास हुआ और उसके स्थान पर दार्यवहु द्वितीय गद्दी पर बैठा। स्पार्टा वालों (यूनानियों) के साथ उसका मित्र-भाव रहा। उसका उत्तराधिकारी हुआ अर्तज़रिक्सस द्वितीय, जिसने अपनी कन्या से विवाह किया। प्राचीन पारसीकों में कन्या और बहिन से विवाह करने की प्रथा थी। उससे स्पार्टा वालों से युद्ध हुआ। द्वितीय अर्तजरिक्सस की मृत्यु ईसा से 358 वर्ष पूर्व हुई। अर्तजरिक्सस द्वितीय जो उसका उत्तराधिकारी हुआ, बहुत योग्य और शक्तिवान था।

उसके उपरान्त तृतीय दार्यवहु (दारा) पारस के साम्राज्य का अधीश्वर हुआ। इसी के समय में यूनान के प्रसिद्ध दिग्विजयी सिकंदर की चढ़ाई हुई। 1 अक्टूबर, 331 ई.पू.र्व गौगभूला (अर्बेला) में दार्यवहु की हार हुई और विशाल पारस्य साम्राज्य सिकंदर के हाथ में आया। दार्यवहु (दारा) माद (उत्तारमद्र) देश की ओर भागा। पारस देश में वक्तर (बैक्ट्रिया, वाधीक, आधुनिक बलख) के सामन्त विशस् ने उसका वधा किया। यूनानियों ने पारस्यपुर आदि नगरों को लूटा और राज्य प्रासाद भस्म कर दिए।

यवन (यूनानी) साम्राज्य

सिल्यूकस वंश सिकंदर ने बाबुल को अपनी राजधानी बनाया और वह पंजाब से लौटने पर वहीं जाकर ईसा 326 वर्ष पहले परलोक सिधारा। सिकंदर की अकाल मृत्यु से उसका अधिकृत साम्राज्य छिन्न भिन्न हो गया। प्रदेशों के शासक अलग अलग मालिक बन बैठे। एक ओर सिकंदर के पिता फिलिप का एक जारज पुत्र फिलिप के नाम से पाँच या छह वर्ष तक बादशाह बना रहा। दूसरी ओर सिकंदर का एक पुत्र (जो वक्तर की राजकुमारी रुकसाना से उत्पन्न था) बादशाह कहलाता रहा। पर ये केवल नाम के बादशाह थे। भिन्न-भिन्न प्रदेशों के शासक इन यूनानी सरदारों में अधिकार के लिए बयालीस वर्ष तक मारकाट होती रही। अंत में बाबुल के क्षत्राप (पारस साम्राज्य के प्रदेश शासक प्राचीन काल से क्षत्राप ही कहलाते आते थे) सिल्यूकस की विजय हुई और उसकी अधीनता शेष प्रदेशों ने स्वीकार की। अपने प्रतिद्वन्द्वियों से छुट्टी पाकर सिल्यूकस ने वक्तर (वाधीक) को अधीन किया और पंजाब को लेने का भी हौसला किया जिसे चन्द्रगुप्त मौर्य ने यवनों (यूनानियों) से छीन लिया था। पर चन्द्रगुप्त के हाथ से उसने गहरी हार खाई और उसे वाधीक, कांबोज, शकस्थान (सीस्तान) आदि देश अर्थात् आजकल का सारा अफगानिस्तान और बलूचिस्तान चन्द्रगुप्त के हवाले करना पड़ा। चन्द्रगुप्त को उसने अपनी कन्या भी ब्याह दी। इस प्रकार मौर्यवंश और सिल्यूकसवंश में मैत्री स्थापित हुई जो पीढ़ियों तक रही। 312 ई.पू.र्व से लेकर 280 ई.पू.. तक सिल्यूकस ने राज्य किया। सिल्यूकस ने दजला (हाईग्रीस) नदी के किनारे सिलूसिया नामक नगर बसाया और पहले उसी को अपनी राजधानी बनाया पर पीछे राज्य के पश्चिम भाग पर अंकुश रखने के विचार से उसने शाम देश के अंटिओक नगर में अपनी स्थिति जमाई और पारस आदि पूर्वी प्रदेशों को अपने बेटे अंटिओकस के सुपुर्द किया। अंटिओकस ने पारस में यूनानी सभ्यता और संस्कार फैलाने में बड़ा यत्न किया। राजकाज से संबंध रखने वाले यूनानी भाषा पढ़ते थे। सिक्कों आदि पर बहुत दिनों तक यूनानी अक्षरों का ही व्यव्हार रहा। अंटिओकस की राजधानी सिलूसिया रही और उसने ई.पू 280 से लेकर ई.पू 261 तक राज किया।

इसके उपरान्त अंटिओकस द्वितीय ने ई.पू 261 से लेकर 246 ई पू तक राज किया। यह विषयी और निर्बल था। अशोक के शिलालेख में जिसमे “अंतिओक नाम यौनराज” का जिक्र है वह यही है। जैसा पहले कहा जा चुका है मौर्य वंश और यवन सिल्यूकस वंश के बीच बहुत दिनों तक मित्रता का संबंध रहा। इस निर्बल बादशाह के समय में कई देश स्वाधीन हो गए। वाधीक देश में डायडोट्स नाम का यूनानी सरदार राजा बन बैठा। एक ओर से पारदों का जोर बढ़ा और पारस का पूर्वी भाग सिल्यूकस वंश के हाथ से निकल गया।

पारद साम्राज्य

आर्य शक वंश क़ैस्पियन सागर के दक्षिण के ऊँचे पहाड़ों को पार करके पारस का जो प्रदेश पड़ता था उसे पारद (यूनानी पारथिया) कहते थे। जब पारदों का प्रताप चमका तब यह देश दूर-दूर तक प्रसिद्ध हो गया। महाभारत, मनुस्मृति, वृहत्संहिता आदि में पारद देश और पारद का स्पष्ट उल्लेख है।1 यहाँ पर यह कह

1. पौंड्रकाश्चौड्रद्रविडा: काम्बोजा यवना: शका:ड्ड

पारदा: पहलवाश्चीना: किराता: दरदा: खशा:ड्ड मनु. 10। 44

इसी प्रकार वृहत्संहिता में पश्चिम में बसने वाली जातियों में 'पारत' और उनके देश का उल्लेख हैपझनद रमठ पारत तारक्षितिजृंग वैश्यकनकशका:।

देना आवश्यक है कि पारस पर बहुत दिनों तक उत्तर पूर्व से तूरानी या शक जातियों के आक्रमण होते आते थे। ईरान और तूरान के विरोध की कथा इधर की फारसी पुस्तक में बहुत मिलती है। जिसमें अवसरियाब की कथा सबसे प्रसिद्ध है। सारांश यह कि कुछ शक आकर पारस के पूर्वोत्तर प्रान्त में बहुत दिनों से बसे थे। इससे उस प्रान्त को भी, जो मूल शकस्थान वा सगदान (आधुनिक समरकन्द, बुखारा) से लगा ही हुआ था, शक देश कहते थे। पर वहाँ के आर्य निवासी अपने को असली शकों से भिन्न करने के लिए अपने को आर्यशक कहते थे। उसी देश के पहाड़ों में वर्ण नाम की एक पहाड़ी जाति निवास करती थी जिसका उल्लेख विष्णुपुराण में है। यवनराज अंटिओकस (द्वितीय) के समय में इस जाति के दो भाइयों ने पारद प्रदेश में पहुँच कर विदेशीय यूनानियों के विरुद्ध विद्रोह खड़ा किया और वहाँ से यूनानियों को निकाल दिया।

ईसा से 250 वर्ष पूर्व इन दो भाइयों में से एक अरसकेश (आर्य-शकेश) के नाम से धूम-धाम से गद्दी पर बैठा और पारद का प्रथम राजा कहलाया। सिंहासन पर बैठते ही इसने बड़े समारोह से अग्नि स्थापना की और विदेशीय यवन (यूनानी) संस्कारों को दूर कर देशी रीति-नीति स्थापित करने का उद्योग किया। उसके मरने पर उसके उत्तराधिकारी तिरिदात ने बरकान (हर्केनिया) का प्रदेश जीतकर मिलाया, इधर अंटिओकस द्वितीय का पुत्र सिल्यूकस द्वितीय मिस्र के यूनानी बादशाह से लड़ने में लगा था जिसने उसका बहुत सा प्रदेश छीन लिया। मिस्र से सन्धि कर उसने तिरिदात पर चढ़ाई की पर हार गया। उसका पुत्र सिल्यूकस (तृतीय) सोटर तीन ही वर्ष राज करके ईसवी सन् से 223 वर्ष पूर्व मर गया। उसके उपरान्त अंटिओकस तृतीय राजा हुआ जिसने सिल्यूकस वंश का गौरव फिर से स्थापित कर दिया। मद्र (उत्तर मद्र), पारस प्रान्त आर्मेनिया आदि प्रदेश को ठीक कर एक लाख पैदल और बीस हजार सवार लेकर उसने तिरिदात्ता के पुत्र अरसकेश (द्वितीय) पर चढ़ाई की, उसको हराया पर उसके राज्य पर अधिकार नहीं किया।

पहले कहा जा चुका है कि अंटिओकस द्वितीय के समय में वाधीक प्रदेश का शासक डायडोटस स्वतन्त्र हो गया था। कुछ दिनों में उसके उत्तराधिकारी को हटाकर यूथिडिमस (Euthydemus) वाधीक (वक्तर) का राजा बन बैठा। ईसवी सन् 208 पुराने शिलालेखों में 'पार्थव' रूप मिलता है जिससे यूनानी पार्थिया शब्द बना है। यूरोपीय विद्वानों ने 'पह्लव' शब्द को इसी पार्थव का अपभ्रंश या रूपान्तर मानकर पह्लव और 'पारद' को एक ही ठहराया है। पर संस्कृत साहित्य में ये दोनों जातियाँ भिन्न लिखी गई हैं। मनुस्मृति के समान महाभारत और वृहत्संहिता में 'पह्लव' 'पारद' से अलग आया है। अत: 'पारद' का 'पह्लव' से कोई संबंध नहीं प्रतीत होता। पारस में पह्लव शब्द ससान वंशी राजाओं के समय से ही भाषा और लिपि के अर्थ में मिलता है। इससे सिद्ध होता है कि इसका प्रयोग अधिक व्यापक अर्थ में पारसियों के लिए भारतीय ग्रंथो में हुआ है। किसी समय में पारस के सरदार पहलवान कहलाते थे। सम्भव है यह शब्द पह्लव शब्द से बना हो।

वर्ष पहले अंटिओकस तृतीय ने उस पर चढ़ाई की पर जब उसने शकों का टिड्डी दल छोड़ने की धमकी दी और समझाया कि उनके प्रदेश से यूनानी राज्य और सभ्यता का चिन्ह एशिया से एक बार ही लुप्त हो जाएगा तब अंटिओकस प्रसन्न हो गया और उसने अपनी कन्या का विवाह यूथिडिमस के पुत्र डिमिट्रियस के साथ कर दिया। वाधीक से अंटिओकस (तृतीय), काम्बोज (काबुल) की ओर गया और वहाँ मौर्य सम्राट सुभगसेन (सोफाइटिस) के पास सिल्यूकस वंश की पुरानी मित्रता सूचित करने के लिए बहुमूल्य उपहार भेजे। मौर्य सम्राट की ओर से 150 हाथी बदले में मिले। इसके पीछे अंटिओकस को रोम वालों से सामना करना पड़ा और हार के बाद बहुत सा धन देना पड़ा। पराजित होकर वह सूसा नगर में आया और उसने वहाँ के सम्पन्न मन्दिर को लूटा जिससे बड़ी हलचल मची और वह ई. सन् से 187 वर्ष पूर्व मार डाला गया। यूनानी राज्य की नींव फिर हिल गई। प्रदेश स्वतन्त्र होने लगे। उधर रोमन (रोमक) साम्राज्य एशिया में अपना राज्य बढ़ाने की ताक में था। इसके पीछे अंटिओकस तृतीय के दो पुत्र राजा हुए। दूसरे पुत्र अंटिओकस (चतुर्थ) ने 175 ई.पू से लेकर 164 ई.पू. तक किसी प्रकार यूनानी राज्य सँभाला, उसके बाद अंटिओकस पंचम नाम का एक बालक और फिर डिमिट्रियस प्रथम राजा हुआ जिसने अपनी शक्ति का परिचय दिया। रोमन लोग उसे बराबर तंग करते रहे। पर उसे कई यूनानी शासकों ने मिलकर सन् 150 ई.पू.र्व में मार डाला। बड़ी कठिनाइयों के बीच में डिमिट्रियस द्वितीय राजा हुआ और बराबर अपने पड़ोसियों से लड़ता रहा। पाँच वर्ष के भीतर वह शाम देश के एक बड़े भाग से निकल बाहर हुआ। ऐसे ही समय में पारदों से युद्ध छिड़ा।

इधर पारद राज्य में अरसकेश द्वितीय (ई.पू. 191 से ई.पू. 176) के उपरान्त फ्रावति प्रथम राजा हुआ जिसकी मृत्यु ई. सन् से 171 वर्ष पूर्व हुई। उसकी मृत्यु के उपरान्त परम प्रतापी मिथ्रदात (सं. मित्रादाता) राजा हुआ जिसने पारद साम्राज्य की नींव डाली।

पहले कहा जा चुका है कि अंटिओकस तृतीय ने वाधीक के नए बने हुए राजा यूथिडिमस के पुत्र डिमिट्रियस को अपनी कन्या ब्याह दी। यूथिडिमस के मरने के पीछे डिमिट्रियस राजा हुआ पर थोड़े ही दिनों में (ई.पू. 181 और 171 के बीच) यूक्रेटाईडीज नामक एक व्यक्ति उसे राज्य से निकाल अपने वाधीक का राजा बन बैठा। उसने पंजाब पर चढ़ाई की और सतलुज तक बढ़ा। वाधीक से निकाले जाने पर डिमिट्रियस पंजाब की ओर बढ़ा और उसने साकल में अपनी राजधानी स्थिर की। सिन्धु नदी के दक्षिण होते हुए उसने पाटल (सिन्धु में) को जीता और क्रमश: सौराष्ट्र देश को अपने अधिकार में किया। उसके उपरान्त कई यवन (यूनानी) राजाओं ने भारत के पश्चिम भाग में राज किया। वायु-पुराण में लिखा है कि, आठ यवन राजाओं ने ब्यासी वर्ष के बीच राज किया, सिक्कों में भी कई यूनानी राजाओं के नाम मिलते हैं। इससे इतिहास के संबंध में पुराणों की उपयोगिता सिद्ध होती है। यदि हम यवनों के राज्य का आरम्भ डिमिट्रियस के आगमन से लें तो ईसवी सन् से 93 वर्ष पूर्व तक यवन राज्य की स्थिति पाई जाती है। इस प्रकार पारस में यवन साम्राज्य नष्ट हो जाने के पचास से साठ वर्ष बाद तक भारत के एक भाग में यवन (यूनानी) राजा राज्य करते रहे। इन आठ यवन राजाओं में सबसे प्रतापी मिनांडर था। जिसने मथुरा और साकेत और राजपूताने तक अपना राज्य बढ़ाया था। साकेत (अयोध्या) और मध्यमिका (नगरी, मेवाड़ में चित्तौड़ से आठ मील उत्तर को) पर मिनांडर का धावा और घेरा जिस समय हुआ उस समय महाभाष्यकार पतंजलि विद्यमान थे। मथुरा में इनके सिक्के बहुत मिलते हैं। बौद्ध ग्रंथो से पता लगता है कि मिनांडर बौद्ध हो गया था। बौद्ध ग्रंथ मलिंदपद्हो (मिलिन्दप्रश्न) में नागसेन आचार्य से उसके धर्म विषयक प्रश्नोत्तार लिखे गए हैं। वह जम्बूद्वीप के सब राजाओं में श्रेष्ठ कहा गया है। उसका जन्मस्थान अलसद बताया गया है जो भारतवर्ष में या उससे बाहर सिकंदर के बसाए हुए कई अलेकजेंड्रिया में एक के नाम का अपभ्रंश जान पड़ता है। यहाँ पर यह समझ लेना भी आवश्यक है कि ईरान के पूर्वी भाग में बौद्ध धर्म का प्रचार बहुत दिनों पहले से था। अगथाक्लीज नामक यूनानी राजा के सिक्के में जिसने ईरान के पूर्वी भाग में राज किया था, (ईसवी सन् 180 वर्ष पूर्व से 165 वर्ष पूर्व तक) एक बौद्ध स्तूप अंकित हैं। डिमिट्रियस के समय से यूनानियों ने भारतीय रीति-नीति ग्रहण की। उनके सिक्को पर भी भारतीय चिन्ह और अक्षर रहने लगे। काबुल प्रदेश उस समय हिन्दुस्तान में ही समझा जाता था। और वहाँ की भाषा हिन्दुस्तानी ही कही जाती थी। यूक्रेटाइडीज की मृत्यु के उपरान्त वाधीक, काम्बोज, शकस्थान (सीस्तान) आदि के यूनानी सरदार राज्य के लिए परस्पर लड़ने लगे। पारदेश्वर मिथ्रदात ने अच्छा अवसर देख वाधीक आदि भारत से लगे हुए प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। कुछ लेखकों ने लिखा है कि उसने पंजाब तक अपना अधिकार बढ़ा लिया था। पूर्व से छुट्टी पाकर उसने मद्र पर अधिकार किया और 140 ई.पू. में काबुल आदि डिमिट्रियस के बचे हुए प्रदेश को भी ले लिया। इस प्रकार सिकंदर द्वारा स्थापित पारस का यवन साम्राज्य नष्ट हुआ और पारद साम्राज्य की स्थापना हुई। वह जैसा प्रतापी और वीर था वैसा ही नीतिज्ञ और न्यायपरायण भी था। इसके साम्राज्य का विस्तार वाधीक से लेकर पश्चिम में दजला नदी के किनारे तक था।

पारद लोग जरथुस्त्रा के पक्के अनुयायी भी थे। जब तिरिदात रोमन सामन्त नीरो से मिलने गया था वह स्थल मार्ग से ही गया था। क्योंकि जहाज से जाने में उसे पवित्र समुद्र में थूकना पड़ता। उसके साथ बहुत से मगयाजक गए थे। पारदों के समय में मगयाजकों का यद्यपि उतना अधिक प्राधान्य नहीं था जितना ससानों के समय में था, पर उनका मान बहुत कम था।

मिथ्रदात के पीछे उसका पुत्र फ्रावत्ति (Phraortes) द्वितीय हुआ। उसके समय में ईसा से 129 वर्ष पूर्व शाम देश के सिल्यूकसवंशी यवन राजा अंटिओकस सप्तम ने एक बार फिर भाग्य की परीक्षा की। वह माद प्रदेश पर चढ़ आया पर पारदों की 12000 सेना के सामने पराजित हुआ। पकड़े जाने के डर से वह एक चट्टान पर से कूदकर मर गया। फ्रावत्ति के समय तूरानी शकों का भारी आक्रमण हुआ। दजला के किनारे तक का देश उन्होंने लूटा और फ्रावत्ति को 128 ई.पू.. में मार डाला। फ्रावत्ति का उत्तराधिकारी रत्तावान या अर्दवान (प्रथम) शकों को कर देने पर बाध्य हुआ। शकों ने ईरान के एक पूर्वी प्रदेश पर अधिकार करके अपनी बस्ती बसाई और उसका नाम शकस्थान रखा जो आगे चलकर सीस्तान कहलाया। रत्तावान के बाद मिथ्रदात द्वितीय, फिर रत्तावान द्वितीय, और उसके पीछे फ्रावत्ति तृतीय राजा हुआ। अर्मेनिया देश के झगड़े को लेकर रोमन लोगों के साथ फ्रावत्ति का युद्ध हुआ जिसमें रोमन सेना पराजित हुई। फ्रावत्ति तृतीय की हत्या उसके पुत्र हुरौधा (यूनानी Hyrodes या Orodes) ने की। उसके समय में अर्थात् ईसवी सन् से 53 वर्ष पहले रोमन लोगों ने मेसोपोटामिया (फरात और दजला नदी के बीच के प्रदेश) पर चढ़ाई की, पर गहरी हार खाई। इस युद्ध के उपरान्त रोमन लोगों में भीतरी विवाद उपस्थित हुआ जिससे पारद लोग बहुत लाभ उठा सकते थे। पर यह उनसे नहीं बना। पाँपे ने सीजर के विरुद्ध पारदों से सहायता माँगी। पारदों ने बदले में शाम देश माँगा और उसे न पाने पर सहायता अस्वीकार की, पाँपे की रोमन सेना के साथ पारदों का घोर युद्ध हुआ जिसमें पारदों की हार हुई और उनका राजपुत्र पाकौर मारा गया।

हुरौधा के पीछे उसका दूसरा लड़का फ्रावत्ति (Phraortes) राजा हुआ जिसके समय में रोमन सेनापति एंटनी ने चढ़ाई की। फ्रावत्ति हार गया और उसकी जगह पर तिरिदात नामक एक व्यक्ति रोमनों की सहायता से ईसा से 27 वर्ष पूर्व पारद साम्राज्य का अधीश्वर बन बैठा। फ्रावत्ति बहुत दिनों तक इधर-उधार भटकता रहा। अंत में उसने शकों को अपने पक्ष में किया और उनका टिड्डी दल लेकर आया जिसे देखते ही तिरिदात भागकर रोमन नगर चला गया। फ्रावत्ति ने कुछ दिन राज्य किया। उसके अनन्तर पूर्वी देशों में रोमन का अधिकार बढ़ता गया और पारदों का प्रभाव कम होने लगा। ईसा से 20 वर्ष पूर्व फ्रावत्ति के साथ रोमनों ने सन्धि की। फ्रावत्ति ने अपने कनिष्ठ पुत्र को छोड़ और सारे परिवार को इसलिए रोम भेज दिया जिससे सिंहासन के लिए विवाद खड़ा न हो।

ईसवी सन् के आरम्भ में पारद से लगा हुआ बरकान (हरकेनिया) का पहाड़ी प्रदेश स्वतन्त्र पाया जाता है। उसके सात स्वतन्त्र राजाओं के सिक्के मिले हैं। जिनमें पहला है अरसकेश दाइकेकस (Arsaces Dicacus)। इन राजाओं में सबसे शक्तिशाली गंदोफर (यूनानी Gondophores) था जो उन कई प्रदेशों का राजा था जो पहले पारद साम्राज्य के अंतर्गत थे। इसके सिक्के हेरात, सीस्तान, कंदहार और पंजाब आदि में पाए गए हैं। पेशावर के पास तख्तेवाही के शिलालेख में भी इसका नाम है। ईसाइयों के अनुसार ईसा मसीह का चेला टॉमस इसी के राजत्व काल में हिन्दुस्तान पहुँचा था।

इसी समय के लगभग वाधीक के तुरुष्क शकों की टोचरी शाखा प्रबल हुई। इसके हिमकपिश (सिक्कों पर 'हिमकपिशो', यूनानी Ooemokad-phiscs) बड़ा वीर राजा हुआ जिसके सिक्के काबुल और पंजाब से लेकर काशी तक मिले हैं। भारतवर्ष में तुरुष्क शक की स्थापना इसी ने की। प्रसिद्ध बौद्ध राजा कनिष्क इसी का वंशज था। फ्रावत्ति चतुर्थ को मारकर उसका कनिष्ठ पुत्र फ्रावत्ति पंचम के नाम से गद्दी पर बैठा। इसने अर्मेनिया पर चढ़ाई की जो रोमनों के अधिकार में था पर युद्ध में पराजित होकर पकड़ा गया। रोमन सम्राट आगस्टस ने उससे अर्मेनिया पर कभी चढ़ाई न करने की प्रतिज्ञा लेकर उसे छोड़ दिया। उसके लौटने के थोड़े ही दिनों पीछे विद्रोह हुआ जिससे उसे फिर रोम भागना पड़ा। उसके स्थान पर लोगों ने हुरौधा द्वितीय को बुलाकर सिंहासन पर बिठाया पर अपनी क्रूर प्रकृति के कारण शिकार खेलते समय वह मार डाला गया। कुछ दिनों तक लूटपाट और अराजकता रही। अंत में सरदारों ने फ्रावत्ति चतुर्थ के ज्येष्ठ पुत्र को बुलाकर राज पर बिठाया। पर यूरोप में रहने के कारण उसकी चाल-ढाल बदल गई थी। उसे उतार कर अरसकेश वंश का दूर का व्यक्ति रत्तावान राजा हुआ। वह बड़ा चतुर और पराक्रमी था। वह अर्मेनिया के लिए रोमनों से बराबर लड़ता और राज्य के विद्रोह का भी दमन करता रहा। दो बार वह सिंहासन से हटाया गया पर उसने उसे फिर प्राप्त किया। रोमन लोगों का वह मान ध्वंस करना चाहता था पर भीतरी झगड़ों से कुछ न कर सका और सन् 40 ई. में इसने शरीर त्याग दिया। उसकी मृत्यु के पीछे कुछ काल वरदान (यूनानी Vordanes) ने राज्य किया, उसके निष्ठुर व्यवहार से असन्तुष्ट प्रजा ने वरदान का पक्ष लिया और वह राजा हुआ। गोतार्ज ने फिर विद्रोह किया। वरदान उसे पराजित करके लौट रहा था कि उसे बीच ही में मारा गया। गोतार्ज फिर राजा हुआ उसने अत्याचार आरम्भ किया। नगर से फिर एक और राजकुमार, मिहिरदात भेजा गया पर बीच ही में पकड़ा गया। गोतार्ज ने उसे मारा नहीं, रोमनों के प्रति उपेक्षा प्रकट करने के लिए उसके कान काटकर छोड़ दिया। 51 ई. में गोतार्ज की मृत्यु हुई। 54 ई. तक बानू ने राज्य किया। उसके पीछे उसका बड़ा बेटा बलकाश प्रथम (Valogeses-I) गद्दी पर बैठा। अर्मेनिया के झगड़े को लेकर रोम वालों से उसे फिर युद्ध करना पड़ा। अर्मेनिया बराबर पारस्य साम्राज्य के अधीन रहा और वहाँ के निवासी पारसियों के ही भाई बन्धु और आर्य-धर्म के अनुयायी थे। बलकाश ने अपने भाई तिरिदात को वहाँ का शासक नियुक्त किया। रोमनों ने षटचक्र रचकर वहाँ की गद्दी पर एक अपना सरदार बैठा दिया। बलकाश ने धूम-धाम से चढ़ाई की और अंत में उसे सन्धि करनी पड़ी जिसके अनुसार यह स्थिर हुआ कि तिरिदात रोम के सम्राट से धान प्राप्त करके तब अर्मेनिया पर राज करे। तिरिदात, सन्धि के अनुसार सन् 66 ई. में रोम गया। इसके पीछे अलान नाम की जंगली जाति काकेशस या कोहकाफ के अंचल से टिड्डी दल के समान उमड़ी और अर्मेनिया आदि को लूटती उजाड़ती पारस प्रदेश में जा पहुँची। बलकाश ने रोमनों से सहायता माँगी, पर न मिली। इसी उपद्रव के थोड़े ही दिनों पीछे बलकाश प्रथम की मृत्यु हुई और द्वितीय बलकाश और द्वितीय पाकौर ने कुछ दिन राज किया। अंत में सन् 81 ई. में रत्तावान या अर्दबान चतुर्थ राजा हुआ। यह भी रोमनों से छेड़-छाड़ करता रहा। इसके समय में पारद साम्राज्य का संबंध बहुत दूर तक विस्तृत हुआ। चीन आदि देशों से उसका संबंध स्थापित हुआ। पारद और बरकान के राजा के यहाँ से चीन सम्राट के पास, चीन सम्राट के यहाँ से पारद सम्राट के पास भेंट की वस्तुएँ आती जाती थीं, रत्तावान के पीछे सन् 93 ई. में पाकौर द्वितीय नामक बादशाह के सिक्के मिलते हैं। उसकी मृत्यु के उपरान्त राज्य के तीन उत्तराधिकारी परस्पर युद्ध करते और इधर-उधर राज करते रहे, उसरो, बलकाश द्वितीय और मिहिरदात षष्ठ। रोमनों ने मौका देख चढ़ाई कर दी और अर्मेनिया पर अधिकार करते हुए वे मेसोपोटामिया में आ पहुँचे और वहाँ उन्होंने अपने शासक नियुक्त किए। तुरन्त बलवा हुआ और रोमन निकाल दिए गए। फिर भी पारद राजवंश आपस में लड़ता रहा और रोमनों ने फिर बाबुल आदि पर अपना अधिकार जमाया। पर ठहरना असंभव समझ उसरो के पुत्र पर्थमस्पात को पारस का राजा मान कर वे चले गए। पर यह पारद देश में रह न सका और उसरो उसका राजा बना रहा। अंत में बलकाश द्वितीय राजा हुआ, जिसने 71 वर्ष राज करके 96 वर्ष की अवस्था में नवम्बर 148 ई. में परलोक गमन किया।

उसके पुत्र बलकाश तृतीय ने अर्मेनिया से रोमनों को हटाया। पर अंत में रोमनों से हारकर उसने 166 ई. में सन्धि की जिसके अनुसार मेसोपोटामिया रोमनों के हाथ में गया। उसकी मृत्यु सन् 191 ई. में हुई। बलकाश चतुर्थ के समय में मेसोपोटामिया रोमनों से फिर ले लिया गया। इसके उपरान्त सीवर्स एक बड़ी भारी सेना लेकर पहुँचा और इस्फहान तक बढ़ गया। पारद सम्राट उसके सामने ठहर न सका। रोमनों ने प्रजा पर घोर अत्याचार किया। पर पारद के सामन्त राजा, बरसीन ने रोमनों के खूब छक्के छुड़ाए और उन्हें भागना पड़ा। सन् 209 ई. में बलकाश पंचम राजा हुआ। उसका भाई अर्दवान उसका प्रतिद्वन्द्वी खड़ा हुआ और अंत में इस्फहान आदि उसने ले लिया। बलकाश भी बाबुल में अपनी राजधानी जमाकर राज करता रहा। इन दोनों में प्रबल रत्तावान ही था जिसने रोमन लोगों को खूब ध्वस्त किया। रोमन सेनापति मैक्रिनस को इसने दो बार हराया। अंत में सन् 217 ई. में रोमन लोग मेसोपोटामिया से निकाल बाहर किए गए और शाम देश में भागे। रोमन सेनापति मैक्रिनस को पाँच करोड़ दीनार देकर पारदों से अपना पीछा छुड़ाना पड़ा। इसके उपरान्त पारस्य प्रदेश (यूनानी परसिस) का ससान वंश प्रबल हुआ और पारदों के हाथ से ईरान का साम्राज्य ससानों के हाथ में गया।

ससान साम्राज्य

पारदों के राजत्व काल में पारस्य प्रदेश के राजा कभी पारदों के अधीन हो जाते थे कभी सिल्यूकस वंशी यवनों के। इन राजाओं के नाम या तो हखामनी वंश के राजाओं के नामों से मिलते जुलते होते थे। (जैसे रत्ताक्षत्रा,दार्यवहु) अथवा धर्म ग्रंथो में आए हुए होते थे (जैसे नरसेंह, यज्र्दकत्ता, मिनुचेत्रा) पारद साम्राज्य के पिछले दिनों में पारस्य प्रदेश का शासन बाजरंगी वंश के हाथो में था। उसका अन्तिम राजा गोजिद्द (पुरानी पारसी गोसित्रा) था। पारस्य प्रदेश जरथुस्र धर्म का केन्द्र था। अनोहेथ देवी का प्रसिद्ध अग्निमंदिर वहीं इश्तख नगर में था। उसके पुजारी का नाम ससान था जिसका विवाह बाजरंगी वंश की एक राजकुमारी रामविहिश्त से हुआ था। उसके पुत्र पापक (आधुनिक पारसी पाबेक, बाबेक) ने गोजिद्द को तख्त से उतार दिया और वह आप राजा बना। सन् 212 ई. में पापक का पुत्र अर्दशीर (अर्देशिर बाबेकान) राजा हुआ। इसकी जरथुस्त्रा धर्म और उसके याजकों में बड़ी श्रद्धा थी। इसके सिक्कों पर अग्निदेवी का चिन्ह और इसके नाम के आगे मज्दयश्न (अर्थात् यज्ञपटु) लगा मिलता है। इसी के समय में अर्दाविराफ़ नामक पारसी याजक ने जरथुस्त्रा की वाणी को लेखबद्ध किया। इसने क्रमश: किरमान, सूसियान आदि प्रदेशों को जीता और अंत में वह अन्तिम पारदवंशी सम्राट अर्दवान से जा भिड़ा जो 28 अप्रैल, 224 ई. में लड़ाई में मारा गया। अर्दशीर ने शाहंशाह की उपाधि ग्रहण की। रोमन लोग इस नई शक्ति का उदय देख डरे। इससे उनसे भी उसे लड़ना पड़ा। नाम के लिए तो राजधानी इश्तख (प्राचीन पारस्यपुर) रही पर असली राजधानी पारदों की राजधानी इस्फहान ही थी।

अर्दशीर का पुत्र शापूर प्रथम (प्राचीन रूप-शहपुद्द) 20 मार्च, 242 ई. में गद्दी पर बैठा। वह बराबर रोमनों से लड़ता और उन्हें हराता रहा। एक बार रोमन बादशाह बलेरियन अपनी सेना लेकर चढ़ा, पर बन्दी किया गया। वह कारागार में ही मरा। शापूर ने रोमनों के अधिकृत देश एशिया कोचक और अर्मेनिया पर आक्रमण किया, पर कृतकार्य न हुआ। उसके पीछे उसके पुत्र हरमुज्द प्रथम और फिर बहराम प्रथम ने राज किया। सन् 277 से लेकर 294 ई. तक बहराम द्वितीय राजा रहा। वह बड़ा धार्मिक था। उसकी धर्मलिपीयाँ कई जगह पाई गई हैं। उसके पीछे बहराम तृतीय और फिर नरसेंह राजा हुआ। इसके समय में रोमनों को सफलता हुई और मेसोपोटामिया और अर्मेनिया प्रदेश सन् 298 ई. में उन्हें मिल गए।

नरसेंह के पीछे हुरमुज्द द्वितीय और फिर अधारनसेंह राजा हुआ, जिसे थोड़े ही दिनों में सरदारों ने गद्दी से उतार दिया और शापूर द्वितीय को बादशाह बनाया। यह बड़ा पराक्रमी और धीर बादशाह था। भूखे-जंगली, अरब सीमा पार के स्थानों में आकर लूटपाट किया करते थे। इसने कठोर शासन द्वारा उनका दमन किया और उन स्थानों को उनके आक्रमणों से मुक्त कर दिया। कहा जाता है कि खुरासान का नैशापुर (पु. पा. नवशद्दपुद्द) शहर इसी शापूर का बसाया हुआ है।

शामई पैगम्बरी मतों का स्वाभाविक कट्टरपन प्रकट करने का साहस यहूदियों को नहीं हुआ था। रोमन और पारसी ये दो प्रतापी आर्य जातियाँ उनके सिर पर थीं। पर अब ईसाई धर्म का प्रचार यूरोप में हुआ और रोमन लोग ईसाई होने लगे। रोमन बादशाह कांस्टटाइन (जन्म 272, मृत्यु 337 ई.) के समय में ईसाई धर्म रोमनों का राजधर्म हुआ और कांस्टेटिनोप्ल (कुस्तुन्तुनिया या इस्तंबोल) रोमन राजधानी हुआ। एक ईसाई साम्राज्य को इतना निकट पाकर यहूदी, अर्मेनिया और पारस के ईसाई उद्धत हो उठे। वे पारसी मन्दिरों में जाकर देवताओं और पारसी सम्राट की निन्दा करने लगे। रोमन सम्राट जुलियन की हार की झेप मिटाने आया तो हारा और बहुत सा राज्य देकर सन्धि करके लौटा। जब शापूर रोमनों से लड़ रहा था उस समय उसकी कुछ ईसाई प्रजा ने गुप्त रूप से रोमनों की सहायता की थी। शापूर ने उन्हें कड़ा दंड दिया। यहाँ पर यह कह देना भी परम आवश्यक है कि पारसी लोग धर्म संबंध में बड़े उदार थे। वे किसी मत के साथ विरोध नहीं करते थे। सन् 379 ई. में शापूर द्वितीय का परलोकवास हुआ।

कुछ दिनों तक उसका बुड्ढा भाई आर्दशीर द्वितीय तख्त पर रहा पर सन् 383 ई. में वह उससे उतार दिया गया और शापूर तृतीय गद्दी पर बैठा। उसने रोमनों से सन्धि कर ली और कांस्टेटिनोप्ल में राजदूत भेजे। उसके मारे जाने पर बहराम चतुर्थ (किरमान शाह) राजा हुआ जिसने सन्धि स्थिर रखी। इस सन्धि के अनुसार रोमनों को अर्मेनिया का अधिक भाग पारस साम्राज्य के अधीन कर देना पड़ा। बहराम को सन् 399 में कुछ बदमाशों ने मार डाला। किरमानशाह के उपरान्त शापूर तृतीय का बेटा यज्दगर्द प्रथम तख्त पर बैठा। यह ईसाइयों पर बड़ी कृपा रखता था, पर उनके मतोन्माद पर उन्हें दंड भी देता था। अब्दा नाम के एक मतोन्मद पादरी ने एक अग्नि मन्दिर में जाकर पारसी धर्म की निन्दा और अपमान किया। उसे समुचित दंड मिला। ससानों के समय में मग याजकों की बड़ी चलती थी। ससान वंशी राजा याजकों और पुरोहितों की मुट्ठी में रहते थे। यज्दगर्द उदार और स्वतन्त्र प्रकृति का था इसलिए वे उसे नहीं चाहते थे। कहा जाता है कि सन् 420 ई. में बरकान के पहाड़ी प्रदेश में वह मार डाला गया। सरदारों ने उसके उत्तराधिकारी को भी मारकर खुसरो नाम के एक संबंधी को सिंहासन पर बैठाया। पर जब मृत राजकुमार का एक भाई बहराम अरबों का दल लेकर पहुँचा तो खुसरो को तख्त छोड़ना पड़ा। बहराम गोर पारसियों का बहुत प्रिय राजा और अनेक कथाओं का नायक है। उसने उद्धत ईसाइयों का पूरा शासन किया और उनके उत्तोजक रोमनों पर भारी चढ़ाई की। रोमनों ने हारकर सन् 422 ई. में सन्धि की। हैतालों या हूणों पर बहराम गोर की चढ़ाई भी बहुत प्रसिद्ध है। हूण उस समय वंक्षु नद (ऑक्सस नदी) के किनारे आकर बसे थे1 और पारस की पूर्वोत्तर सीमा पर लूटपाट किया करते थे। बहराम गोर ने सन् 425 ई. में उन्हें हराकर वंक्षु नद के पार भगा दिया और कुछ दिनों के लिए पारस को हूणों के आक्रमण से मुक्त कर दिया। बहराम के इधर फँसने के कारण रोमनों को दम लेने का समय मिला।

सन् 438 या 439 ई. में बहराम गोर की मृत्यु हुई और उसका बेटा यज्दगर्द द्वितीय तख्त पर बैठा जो बड़ा क्रूर और निष्ठुर था। उसे खुरासान में जाकर हूणों से लड़ना पड़ा। यहूदियों और ईसाइयों के मनोन्माद का उसने कठोरता से दमन किया। अर्मेनिया के लोग ईसाई हो गए थे और अपने देश में पारसी धर्म नहीं देख सकते थे। रोमनों के इशारे से उन्होंने बलवा किया पर वे दबा दिए गए। रोमनों के ऊपर भी यज्दगर्द को चढ़ाई करनी पड़ी थी। उसकी मृत्यु अर्थात् सन् 457 के पीछे उसका छोटा लड़का पीरोज या फिरोज हूणों की सहायता से अपने बड़े भाई को हराकर और मारकर 459 ई. में गद्दी पर बैठा। हूणों के साथ फिरोज का विवाद हुआ और वे पारस पर चढ़ दौड़े। हूण उस समय पारसी सभ्यता ग्रहण कर चुके थे और अपने नाम आदि, पारसी ही रखने लगे थे। उनके बादशाह खुशनेवाज के हाथ से फिरोज ने गहरी हार खाई। लड़ाई के पीछे उसका कहीं पता न लगा और उसकी कन्या पकड़कर हूण बादशाह के हरम में दाखिल की गई। हूणों की लूट-पाट के कारण कुछ समय तक पूरे देश में अराजकता रही, अंत में सरदारों ने फीरोज के भाई बलाश को गद्दी पर बैठाया। यह बड़ा निर्बल शासक था। ईसाइयों के उपद्रव पर इसने स्वीकार कर लिया कि अर्मेनिया में जरतुश्त धर्म नहीं रहेगा। उससे मग, पुरोहित और याजक परम असन्तुष्ट थे। अंत में वह अन्धा करके सिंहासन से उतार दिया गया और फीरोज का बेटा कबाद प्रथम सन् 488 ई. या 489 ई. में तख्त पर बैठा। वह याजकों और पुरोहितों के हाथ की कठपुतली नहीं रहना


1. कालिदास के समय में हूण भारतवर्ष के भीतर नहीं घुसे थे, वंक्षु नद के किनारे के प्रदेश में ही बसे थे। जैसा कि रघुवंश के इन श्लोकों से सूचित होता है।

विनीताध्वज्रमातस्य वंक्षुतीरविक्षेष्टनै:।

दुधावुर्वाजिन: स्कंधात्लग्न कुंकुम केसरानड्ड

तत्रा हूणावरोधानं भर्तृषु व्यक्तविक्रमम।

कपोलपाटनादेशि बभूव रघुचेष्टितम्ड्ड

आजकल की पुस्तकों में 'वंक्षु' के स्थान पर 'सिन्धु' पाठ मिलता है। और नौ प्राचीन प्रतियों में से छह में वंक्षु पाठ है। सिन्धु पाठ ठीक मानने से कालिदास का समय गुप्तों से भी पीछे मिहिरगुल और तुरमानशाह का समय हो जाता है। पुराना पाठ 'कपोलपाटना' है। 'पाटला' नहीं, क्योंकि पतिमरण पर हूण स्त्रियों में अपना गाल फाड़ डालने की रीति थी।

चाहता था। उसके समय में मज़दक नामक एक व्यक्ति एक नए मत का प्रचार करने लगा कि जिसके पास आवश्यकता से अधिक धन या सामान हो उसे उसको उन लोगों को बाँट देना चाहिए जिनके पास कुछ भी नहीं है। कबाद ने इस मत को बहुत पसन्द किया और उसके अनुसार थोड़ी बहुत व्यवस्था भी होने लगी। सरदारों ने मिलकर उसे कैद कर लिया और उसके भाई जामास्प को तख्त पर बैठाया। पर कबाद बन्दीगृह से निकलकर हैतालों या हूणों के पास गया और उनकी सहायता से उसने फिर सिंहासन प्राप्त किया। उसने शाम देश में रोमनों पर चढ़ाई की और मेसोपोटामिया का बहुत सा भाग ले लिया। कबाद 82 वर्ष का होकर सन् 531 ई. में मरा।

कबाद का पुत्र परम प्रतापी और न्यायी खुसरो हुआ जो नौशेरवाँ के नाम से प्रसिद्ध है और इसके न्याय की कथाएँ फारसी किताबों में प्रसिद्ध हैं। ईसाइयों पर वह कृपा रखता था। जिसका फल यह हुआ कि उन्होंने उसी के एक पुत्र को ईसाई बनाया और रोम से भगा दिया। नौशेरवाँ ने उन ईसाइयों को दंड दिया, पर बहुत साधारण। न्यायी के अतिरिक्त नौशेरवाँ बड़ा पराक्रमी और प्रतापी भी था। उसने शाम देश पर रोमनों के विरुद्ध चढ़ाई करके उन्हें ध्वस्त किया। वह बहुतों को बन्दी करके ले आया। उसने रोमनों पर भारी कर लगाया जिसे देखकर उन्होंने सन्धि की। अर्मेनिया पर भी चढ़ाई करके नौशेरवाँ ने रोमनों का जोड़ा-तोड़ा और अपना अधिकार दृढ़ किया। इसके समय में राज्य की सब तरह से वृद्धि हुई। नौशेरवाँ के समय में ही अरब में हज़रत मुहम्मद साहब हुए। जिनके मत ने आगे चलकर पारस और तुर्किस्तान से आर्य धर्म और आर्य सभ्यता का लोप किया। सन् 579 ई. में नौशेरवाँ का परलोकवास हुआ।

नौशेरवाँ का पुत्र हुरमुज्ज थोड़े ही दिन राज करके मारा गया और उसका बेटा खुसरो परवेज सेनापति बहराम चोवी के विद्रोह का दमन कर, सन् 590 ई. में तख्त पर बैठा। रोमन राज्य के झगड़ों में वह बराबर हाथ डालता रहा और उसकी सेना कुस्तुतुनिया तक जा पहुँची थी। उसने यहूदियों और ईसाइयों के आदि स्थान दमिश्क और यरूशलम पर अधिकार किया और वह ईसाइयों के परम पवित्र क्रूस को जो यरूशलम में स्थापित था, उखाड़ लाया। सारे एशिया कोचक को तहस नहस करता हुआ वह मिस्र में पहुँचा और उस पर अधिकार किया। यह बड़ा उद्धत और अत्याचारी बादशाह था। उसके समय में बहुत से अरब मुसलमान हो चुके थे और उनमें लूटपाट की प्रवृत्ति के साथ इस्लाम का जोश भर रहा था। खुसरो परवेज़ के समय में अरबी सीमा पर नौमान नाम का एक पराक्रमी सरदार नियुक्त था जिसके डर से जंगली अरब, पारस साम्राज्य में कुछ उपद्रव नहीं करने पाते थे। खुसरो परवेज़ ने बड़ी भारी मूर्खता यह की कि नौमान को मरवा डाला। इससे अरबों की कुछ धाड़क खुल गई, यहाँ तक कि वक्र-बिन-बायल नाम के एक फ़िरके ने इरफात के किनारे लूटपाट करके पारसियों की एक सेना को हरा दिया।

क्रूस के छिन जाने पर ईसाइयों में बड़ी खलबली मची। रोमन सम्राट हिराक्लियस पराजय की लज्जा दूर करने और बदला लेने के लिए काकेशस पहाड़ से बड़ी धूम-धाम से चढ़ा और इस्फहान के पास तक आ पहुँचा। वहाँ पहुँचकर 6 जनवरी, सन् 628ई. को उसने बड़ा भारी भोज दिया। रोमनों की यह तैयारी देख खुसरो परवेज भाग खड़ा हुआ। पर पारस लड़ने को तैयार था। इससे रोमन सम्राट ने भी भागने ही में कुशलता समझी। उसका उद्देश्य तो केवल लज्जा निवारण था। खुसरो परवेज़ अपने अत्याचारों के कारण छोटे बड़े सबका अप्रिय हो गया। उसका भागना देख लोगों को उससे और भी घृणा हो गई। उसने शीरीं नाम की एक ईसाई लड़की से विवाह किया था। उसने उससे उत्पन्न पुत्र मरदानशाह को सिंहासन देने के उद्देश्य से अपने लड़कों को कैद किया। अंत में सरदारों ने उसके पुत्र कबाद द्वितीय को कैद से निकालकर गद्दी पर बैठाया और खुसरो परवेज़ को प्राणदंड दिया। (25 फरवरी, 628 ई.)

कबाद द्वितीय केवल 6 महीने राज करके मरा जिससे अर्दशीर तृतीय नाम का एक सात वर्ष का बालक गद्दी पर बैठाया गया। उसके समय में ईसाइयों का क्रूस रोमन सम्राट के पास भेज दिया गया जिसने उसे बड़ी धूमधाम से यरूशलम में प्रतिष्ठित किया। बच्चे को गद्दी पर देख सेनापति शहरबराज ने राज्य हाथ में करना चाहा और चट अभि-सन्धि के लिए वह रोमन सम्राट से मिला। उसने इस्फहान लिया और बालक अर्दशीर को मार डाला। पर सरदार उठ खड़े हुए। शहरबराज मार डाला गया और उसकी लाश गलियों में घसीटी गई। कुछ दिनों तक खुसरो परवेज़ की बेटी बोरां और फिर उसकी बहन आजारमिदोख्त तख्त पर रहीं। यह गड़बड़ बहुत दिनों तक रही। अंत में सरदारों ने खुसरो परवेज़ के पोते शहरयार के बेटे एक दूसरे बालक को सन् 633 ई. में अग्नि मन्दिर में यज्दज़र्द तृतीय के नाम से तख्त पर बैठाया।

अरब में इस्लाम का जोर उस समय खूब बढ़ती पर था। पारस साम्राज्य की गड़बड़ी में यमन और उत्तरी अरब का कुछ भाग अरबों ने ले लिया था। मुसन्ना नाम का बद्दुओं का एक सरदार जो हाल ही में मुसलमान हुआ था, पारस राज्य में लूट-पाट करने लगा। थोड़े ही दिनों में मुसलमान अरबों का सेनानायक खालुद-बिन-वालिद बद्दुओं का सेनापति हुआ। इफरात के पश्चिमी किनारे पर ईसाई बसे थे जो पारसियों के आर्य धार्मानुयायी होने के कारण उनसे द्वेष रखते थे। वे गुप्त रीति से अरबों की सहायता करने लगे। अरबों ने इफरात पार किया और पारस के राज्य में लूट-पाट की।

कहते हैं कि पारसी सेनापति रुस्तम और फिरुजन की आपस की फूट से पारसी अरबों का ठीक सामना न कर सके। जब अरबों की लूट-पाट बढ़ रही थी तब 14 मुसलमान दूत मदयान (वर्तमान टिसिफन) पर यज्दज़र्द से मिलने आए। यज्दज़र्द ने पूछा कि तुम्हारी भाषा में चोगा, चाबुक और खड़ाऊँ का नाम क्या है। उन्होंने कहा कि बुर्द, सौत और नाल, पारसी भाषा में इनके समानोच्चारण शब्द वुर्दन, सुख्तन और नलीदन का अर्थ बाँधना, जलाना और विलाप करना होता है। यह सुनते ही यज्दज़र्द का चेहरा जर्श्द हो गया। राजा के पूछने पर दूतों ने कहा कि हम इस्लाम को जो ईश्वर का एक मात्र सच्चा धर्म है, फैलाने आए हैं। और कर लेकर या जीतकर लौटेंगे। इस पर राजा ने एक थैले में मिट्टी भरा कर उनके सिर पर यह कहकर रखवा दिया कि तुम्हें यही कर मिलेगा और उन्हें अपमानपूर्वक निकाल दिया। अरब दूतों में प्रधान असीम अलीम बड़ी प्रसन्नता से मिट्टी उठाकर ले गए और अपने सेनापति के पास उसे रखकर कहा कि पारस की भूमि हमारी हो गई। यह चेटक भी अरबों को उत्तोजित और पारसियों को निराश करने में सहायक हुआ। कदेसिया (ई. स. 636) और जलुला (सन् 637) की लड़ाइयों में पारसी सेना हारती गई। इस बीच में खालुद बुला लिया गया और अबुओबैद बद्दुओं का नायक हुआ जिसे पारसी सेना ने मार भगाया। अंत में खलीफा उमर ने एक बड़ी सेना को इराक लेने के लिए भेजा। उसने इस्लाम फैलाने का जोश दिलाया और पारस को स्वर्ग भूमि में प्रवेश कराने का लोभ दिखाया। पारसी लोग अरब वालों को जंगली समझ उन्हें उपेक्षा की दृष्टि से देखते थे। उनकी ओर उनका कभी ध्यान ही नहीं गया था पर जब उन्होंने सुना कि अरबों ने रोमन लोगों से शाम का मुल्क ले लिया तब उनके कान कुछ खड़े हुए और उन्होंने रुस्तम को एक बड़ी सेना और 'दुरफशे कावियानी'1 नाम की प्राचीन पताका के साथ भेजा। अरब और मुसलमानों के नायक साद-इब्न-अबी-वक्का के साथ फदीलिया के मैदान में युद्ध हुआ जिसमें रुस्तम मारा गया और दुरफशे कावियानी छिन गया। इस जीत की उमंग में मुसलमान इस्फहान की ओर बढ़े। यज्दज़र्द की अवस्था उस समय केवल 17 वर्ष की थी। वह बेचारा एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में भागता रहा। इधर अरबों के झुंड के झुंड आते रहे। अंत में 640 और 642 ई. के बीच नहाबन्द की लड़ाई हुई जिसमें पारस के प्रताप का सूर्य सब दिन के लिए अस्त हो गया। पारस के निवासी जबरदस्ती मुसलमान बनाए जाने लगे। इस प्रकार आर्य धर्म और आर्य सभ्यता का लोप पारस से हो गया। यहाँ तक कि आर्य पारस की भाषा भी अरबी में मिलकर अपना रूप खो बैठी। इतने दिनों तक यूनानी (यवन) नाम की यूरोपीय जाति का अधिकार पारस पर रहा, पर पारस के भीतरी जीवन में कुछ परिवर्तन नहीं हुआ था। पर इसलाम ने घुसकर आर्य संस्कारों का सर्वथा लोप कर दिया, पारस की सारी काया पलट गई।

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1. यह पारसी जाति की जातीय पताका थी और कई हजार वर्ष से पारसी सम्राटों के पास वंश परम्परा से चली आती थी। इसकी कथा इस प्रकार है। जमशेद को मार जुहाद नाम का एक अत्यंत क्रूर एवं अत्याचारी मनुष्य फारस के तख्त पर बैठा। उसके कन्धो पर दो ज़ख्म थे जिनकी पीड़ा की शान्ति आदमी के भेजे के मरहम से होती थी। इस मरहम के लिए रोज आदमी मारे जाते थे। इस अत्याचार से प्रजा त्राहि-त्राहि करने लगी। अंत में काव: नाम का इस्फहान का एक लोहार, जिसके चार लड़के मारे जा चुके थे, चमड़े के एक टुकड़े को पताका की तरह बाँस में बाँधकर उठा और ज़ुहाद (ज़ुहाक) के अत्याचार का गीत गाता हुआ चारों ओर फिरने लगा। बहुत से लोग उसके झंडे के नीचे आए और उसने पहले इस्फहान और फिर सारा पारस ले लिया। जमशेद का वंशज फरीदूँ गद्दी पर बैठाया गया। उसी समय से चमड़े की यह पताका पारसी सम्राटों की विजय लक्ष्मी का चिन्ह समझी जाने लगी और इसकी पूजा होने लगी। पारस के बादशाह इसे अनेक प्रकार के रत्नों से विभूषित करते आए। जिस समय यह पताका अरब के मुसलमानों के हाथ में आई उस समय वह जवाहरात से इतनी लदी हुई थी कि इसका मूल्य कोई नहीं ऑंक सकता था। अंत में खलीफा उमर ने इसे चूर-चूर किया।

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नहाबन्द की लड़ाई के पीछे यज्दज़र्द कभी इस प्रदेश के शासक के यहाँ मेहमान रहता, कभी उस प्रदेश के। अपनी इस स्थिति में भी वह अपने नाम के सिक्के ढलवाता जाता था। अंत में दूरस्थ मर्व प्रदेश में भी वह अपने नाम के सिक्के ढालता रहा। मर्व प्रदेश में एक चक्की वाले की शरण जाकर उसी के हाथ से, वहाँ के शासक के इशारे पर (वह) मार डाला गया। खुरासान प्रदेश का स्पाहपत (सेनापति) जो ससान वंश का ही था तवीस्तान नामक उत्तर के पहाड़ी प्रदेश में जाकर ससान वंश और जरथुस्त्रा धर्म का नाम जगाता रहा। लगभग 100 वर्ष तक उसके वंशजों ने वहाँ राज किया पर वे खलीफा को कर देते रहे।

नहाबन्द की लड़ाई के पीछे जब पारस पर अरब के मुसलमानों का राज हो गया और पारसी जबरदस्ती (मुसलमान) बनाए जाने लगे तब बहुत से पारसी अपने आर्य धर्म की रक्षा के लिए खुरामान में आकर रहे। वहाँ वे लगभग सौ वर्ष रहे। जब वहाँ भी उपद्रव देखा तब पारस की खाड़ी के मुहाने पर उरमुज टापू में उसमें से कई भाग आए और वहाँ 15 वर्ष रहे। आगे वहाँ भी बाधा देख अंत में वे एक छोटे जहाज में बैठ अपनी पवित्र अग्नि और धर्म पुस्तकों को ले अपनी अवस्था की गाथाओं को गाते हुए खम्भात की खाड़ी में दीव (संस्कृत द्वीप Diu) टापू में आ उतरे जो आजकल पुर्तगाल वालों के हाथ में है। वहाँ 19 वर्ष रहकर वे भारतवर्ष में आ गए जो सदा से शरणागतों की रक्षा के लिए दूर देशों में प्रसिद्ध था। दीव छोड़ने का कोई कारण विदित नहीं किन्तु कहते हैं कि एक फारसी दस्तूर (याजक) ने भविष्यवाणी की थी कि नक्षत्रो की गणना से अब आगे अभ्युदय का योग आया है। सन् 716 ई. के लगभग वे दमन के दक्षिण 25 मील पर संजान नामक स्थान पर आ उतरे। वहाँ के स्वामी जाड़ी राना को उन्होंने सोलह श्लोकों में अपने धर्म का आभास दिया। राजा ने उनके धर्म की प्राचीन वैदिक धर्म से समानता देखकर उन्हें आदरपूर्वक अपने राज्य में बसाया और अग्नि मन्दिर की स्थापना के लिए भूमि और कई प्रकार की सहायता दी। सन् 721 ई. में प्रथम पारसी अग्नि मन्दिर बना। उन्हीं पारसियों की सन्तान गुजरात, बम्बई आदि में फैली हुई है। भारतीय पारसी अपने संवत् का प्रारम्भ अपने अन्तिम राजा यज्दज़र्द1 के प्रभावकाल से लेते हैं। पीछे से इस संवत् में अधिमास (कबीसा) गिनने न गिनने के विवाद पर उनमें शहनशाही और कदमी नामक दो भेद हो गए।

(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, अप्रैल, 1907 ई)

[ चिन्तामणि, भाग-4 ]

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1. विक्रम संवत् 772 श्रावण सुदी नवमी, यज्दज़र्दी सन् 85 रोज़ तीर मोह बेहमन। पारसी लेखकों ने भ्रम से रोज़ बेहमन, माहतीर लिख दिया है।