अधूरीपतिया / भाग 12 / कमलेश पुण्यार्क
कुछ देर बाद, नीचे झुककर दोनों ने कुण्ड के पास माथा टेका, और प्रसन्न मन, मंदिर से बाहर आगये। दोनों के चेहरे पर थिरकती खुशी से सवने समझ लिया कि बात बन गयी। मतिया की अंगुली में चमचमाती अंगूठी ने इस बात की गवाही भी दी। मंगरिया का ध्यान सबसे पहले मतिया की अंगुली पर गया।
‘अरे यह क्या ! बाबू ने तुम्हें दिया है यह उपहार ?’- हाथ से मतिया की अंगुली पकड़, अगूठी देखती हुयी मंगरिया ने पूछा।
मतिया की आँखे झुकी रही। खुशी के मारे मंगरिया चिल्ला उठी- ‘वाह-वाह! ये देखो कमाल पलटनवां बाबू का- चुपके-चुपके मन्दिर में घुसकर मतिया के हाथ में अंगूठी पहरा दी, कोई देखा भी नहीं....। ’
मंगरिया की बात सुन सभी हँसने लगे। बाबू ने मुस्कुराते हुए कहा- ‘चुपके-चुपके कैसे ? तुम सबको बाहर गवाही के लिए खड़ा जो कर रखा था। ’
‘ अरे वाह रे गवाह ! ये तो कहो कि हमलोग यहां खड़े थे, वरना, हमारी बहिनपा को चुपके से उड़ा ले जाते।’- मंगरिया ने हंसते हुये हाथ मटका कर कहा, और मतिया के होंठ चूम लिए।
‘मैं क्या उड़ाऊँगा तुम्हारी सखी को, वह तो खुद मुझे उड़ाकर ले आयी इतनी दूर।’- बाबू ने कहा तो एकबार फिर हँसी का पटाखा फूट पड़ा।
‘देखा न आपने बाबू ! शंकरदेव कितना जल्दी लोगों की मन्नत सुनते हैं ? बस यहां पहुँचने भर की देर है।’- गोरखुआ ने कहा, फिर ऊपर आसमान ताकते हुए बोला- ‘अच्छा तो अब हमलोगों को चलना भी चाहिए वापस। देर करना ठीक नहीं है। ’
‘इत्ती भी क्या हड़बड़ी है?’- मंगरिया बोली- ‘जरा शंकरदेव के सामने नाच-वाच हो जाता, तो मजा आता। ’
‘यूँ ही क्या छूछा-छूछा नाच करोगी? न बाजा, न परसाद न हंड़िया।’- गोरखुआ की
ओर देखते हुए डोरमा ने कहा- ‘क्यों गोरखुभाई ! इसके लिए फिर एक दिन आया जायेगा, पूरी धूमधाम से सबको साथ लेकर। ’
‘जैसी मरजी तुमलोगन की।’- कहती हुयी मंगरिया बढ़ चली आगे सीढी की ओर।
‘तो अब चला ही जाय।’- कहा गोरखुआ ने, और सभी चल पड़े।
‘ गांव वापस जाने के लिए क्या फिर उसी बंगले से होकर जाना पड़ेगा, या कोई और भी रास्ता है?’- सीढियाँ उतरते हुए बाबू ने पूछा।
‘नहीं कोई जरुरी नहीं वहां जाना। एक तिरछा रास्ता भी है, यहां से सीधे हमलोग के गांव तक जाता है। इसे हमारे बुजुर्गों ने बनवाया है, गांव वालों की सुविधा के लिए। इस रास्ते से चलने पर लगभग आधी दूरी की बचत हो जाती है।’- कहा गोरखुआ ने, और बांये के बजाय दांये मुड़ गया। उसके साथ ही और लोग भी चल दिये। बाबू जानबूझ कर टोली में पीछे चले। पीछे मुड़कर ऊपर से नीचे तक गौर से देखा एक बार पूरी इमारत को। श्रद्धा से सिर स्वतः झुक गया। ठीक ही कहा है ऋषियों ने- जहाँ सिर स्वतः झुकने को विवश हो जाय, वही श्रद्धेय होता है।
पल भर के लिए बाबू की आँखें भर आयी । कई छवियां घूम गयीं आंखों के सामने। जेब से रुमाल निकाल, लोगों की आँख बचा, पोंछा अपनी आँखों को, और चल पडे झपटकर।
शाम होने में थोड़ी ही कसर रह गयी थी। बूढे सूरज को भी आज जाने की इच्छा नहीं हो रही थी आकाश छोड़कर। वह भी देख लेना चाहता था, कि जब यह मस्तों की टोली गांव पहुंचेगी, लोगों को सुसमाचार मिलेगा, तो किसको कितनी खुशी होगी।
मगर अफसोस, इन लोगों ने रास्ते में इतना हँसी-मजाक किया कि चाल बहुत धीमी पड़ गयी। एक ओर गोरखुआ को हड़बड़ी थी जल्दी गांव पहुंचने की ताकि सबको संदेशा सुनाये, तो दूसरी ओर मंगरिया को मजाक करने का यही सवसे अच्छा मौका मिला था। उसने भांप लिया था कि बाबू देवी-देवताओं में बहुत विश्वास रखता है; जिसका नतीजा हुआ
कि रास्ते भर न जाने कितने ढेले-पत्थरों के आगे माथा झुकाना पड़ा बाबू को।
‘इन सबको माथा टेके वगैर रास्ते से चले जाओगे बाबू तो बहुत नाराज होंगे लोग। जंगलों में अपनी हिफाजत के लिए जगह-जगह हमारे बड़े-बूढ़ों ने उन्हें बिठा रखा है।’- इस तरह कोई न कोई बात बनाकर, मंगरिया हर दस-बीस कदम पर सिर झुकवाती, परिक्रमा करवाती रही किसी पत्थर की, तो किसी दरख्त की। एक जगह तो कान पकड़कर उठ-बैठ भी करवा दी मंगरिया- ‘देखो बाबू इस गाछ पर हमारे सबसे पुराने पाहन रहते हैं। इनके आगे कोई सिर नहीं झुकाता, बस केवल पांच दफा कान पकड़ कर उठना-बैठना पड़ता है, और एक बार तने पर सिर मारना...। ’
‘सिर्फ अपना ही या साथ में बतलाने वाले का भी? ’-बाबू ने हंसते हुए कहा, और कान पकड़कर जल्दी-जल्दी दण्ड-बैठक करने लगा। मंगरिया ताली बजाकर हँस पड़ी।मतिया आंचल से मुंह दबाये मुस्कुराती रही।
‘छोड़ो भी बाबू चलो। इतना करते फिरे तो सिर में गुम्बड़ निकल जायेगा।’- कहा गोरखुआ ने हँसकर- ‘तो फिर उसकी सिकाई भी मंगरिया को ही करनी होगी। ’
‘सो सब मैं काहे करुंगी ? अब तो दे ही दी हूं इन सब कामों के लिए मतिया को।’- तुनकती हुयी मंगरिया ने कहा।
हालाकि बाबू भी समझ रहे थे कि माजाक हो रहा है, पर सबको इसमें मजा मिल रहा है, इस कारण जान-बूझकर बेवकूफी करते रहे। सूरज घबराता रहा। देर होती रही। इसकी परवाह किसी को नहीं।
घबराहट से तंग आकर सूरज, चला गया पहाड़ों में, मगर बेचारी कजुरी कहां जाये? आश लगाये बैठी रही। बारबार रास्ते पर ताकती रही बाहर ढाबे में बैठी। इतनी देर हो गयी, अभी तक सब आये नहीं—सोचती हुयी। हालांकि पुनियां का चांद बार-बार समझाने की कोशिश करता रहा कजुरी को कि क्यों घबरा रही है रे बुढ़िया ! मैं देख रहा हूँ उन्हें। तुरन्त ही आ जायेंगे सभी।
कजुरी के काफी इन्जार के बाद पहुंचे ये लोग। सबसे पहले गोरखुआ ने नानी को सुनाया- ‘नानी ओय नानी ! मोंय आज सुराज छीन आनलों। ’
‘का बकत हैंरे तोंय सुराज..सुराज ?’- -बुढ़िया बड़बडायी।
‘बकत नहीं नानी, बेसे बोलतही।’- कहते हुए गोरखुआ वहीं नानी के पास बैठ गया।
मतिया का हाथ पकड़, नजदीक खींच नानी के सामने ला खड़ी कर दी मंगरिया- ‘देख कोन सुराज मोरमन आनलों हे आझ। ’
मतिया की अंगुली में चमकती हुयी अंगुठी देख बुढ़िया चौंक उठी। अंगूठी पहचान रही थी। सिर उठाकर कभी बाबू, कभी मतिया के चेहरे पर देखने लगी। मंगरिया ने हँस कर कहा- ‘देखत की आहे ? बाबू के हाथ की अंगूठी अब मतिया के हाथ में चली आयी, और इतना ही नहीं, बाबू भी अब मतिया के ही हाथ में आगया समझो। आज शंकरदेव के पास मन्नत मांगने गयी थी। तुरन्त सुन लिया शंकरदेव ने। ’
गोरखुआ ने बताया- ‘ बाबू ने मतिया से विआह करना कबूल कर लिया और उसी की निशानी है यह अंगूठी। देख ले ठीक से, हीरे की है हीरे की...।’
‘ऐं हीरे की है? सुनते हैं यह बड़ा मोल वाला होता है। ’- कजुरीनानी का मुंह आश्चर्य से खुला रह गया। हीरा क्या होता है, कैसा होता है, कभी जानने-देखने का सवाल ही कहां था, बस इतना भर सुन रखी थी कि बहुत मोल का होता है।
‘ मोल तो है नानी, पर हमारी मतिया की बराबरी क्या इससे हो सकती है?’- मुस्कुरा कर मंगरिया बाबू की ओर देखने लगी।
‘और तुम्हारा अनमोल हीरा तो इधर खड़ा है।’- कहता हुआ गोरखुआ बाबू को खींच कर और समीप ला दिया। बाबू ने झुककर नानी के पैर छुए।
वहां से चल कर समुद्री तूफान की तरह गोरखुआ पूरे गांव में घूम गया। सबको
बतला गया- आज शंकरदेव के मन्दिर में बाबू ने मतिया का हाथ मांग लिया।
सारे गांव में खुशी की लहर दौड़ गयी। नाच-गान और हंडिया की तैयारी होने लगी। दादू ने कहा- ‘इस खुशी में आज मतिया की ड्योढ़ी पर ही नाच होना चाहिए।’
खा-पीकर, निश्चिन्त हो, उस दिन की तरह ही गोरखुआ सजने लगा, और सजने लगी साथ में मंगरिया भी। मतिया को भी सबने मिलकर सजाया, और जब सब सज ही रहे थे तो बाबू को कौन छोड़ता।
मस्त जवानों की टोली मतिया की झोपड़ी के सामने आजुटी, और गीत-नाच के साथ साथ हंडिया का दौर शुरु हो गया, जो आधी रात बाद तक चलता रहा। सबने खूब मजे लूटे।
मतिया और मंगरिया नाच में माहिर थी ही। आज दोनों का नाच उस दिन से भी ज्यादा जमा। नाच-गान खतम होने के बाद बाबू से गोरखुआ ने पूछा- ‘तब बाबू शादी-विआह का रस्म कब किया जाय ? ’
‘जब बाबू चाहें। वैसे मेरा तो विचार है कि सोहराय के बाद तुम्हारी भी शादी हो जाती और साथ में बाबू और मतिया की भी। ’- बाबू के बदले, दादू ने गोरखुआ से कहा।
दादू की इस राय को सबने ताली बजाकर कबूल किया, ‘ठीक बिलकुल ठीक। अब रह ही कितने दिन गये हैं सोहराय के।’ और इस निश्चय के साथ ही नाच-गान खतम किया गया। सभी अपने-अपने घर चले गये। गोरखुआ की इच्छा तो अभी और बैठने की थी, पर मंगरिया कुछ इशारा करती उसे साथ लिए चली गयी। सबके जाने के बाद ढाबे में बिछी खाट पर पड़े बाबू विचारों में उब-चुब होते रहे। रोज की तरह मतिया जब चादर और पानी लिये आयी तो बाबू को खाट पर उठंगे बैठे पायी।
‘ क्यों बाबू नींद नहीं आरही है क्या ? ’- शरमाती हुयी मतिया ने पूछा। वही मतिया जो अल्हड़ सी बैठ, रोज दिन बाबू से गप्पे लड़ाती रहती थी, सारा दिन जंगल में चक्कर मारा करती थी। रोज की तरह आज भी इच्छा थी, मन में सोच रही थी कि बाबू बहुत पैदल चले हैं। पांव दुख रहे होंगे, पर लाज की चादर को सरका न पा रही थी। तेल की कटोरी धीरे से ताक पर रख दी। लोटे का पानी नीचे रख, कंधे पर से चादर उतार, खाट पर, पायताने रख, खड़ी हो गयी।
‘न जाने आज नींद क्यों उचाट हो गयी। इतनी देर से सोने की कोशिश कर रहा हूँ, पर सो नहीं पा रहा हूँ।’- बाबू ने उठंगे बैठे हुये ही कहा। झोपड़ी के भीतर ‘दीअट’ पर दीया जल रहा था, जिसकी धीमी रौशनी बाहर ढाबे तक आकर फैली हुयी थी। बाबू ने अनुभव किया, मतिया शायद कुछ कहना चाहती है, पर मुंह पर लगा शर्म-वो-हया का ताला खुल नहीं रहा है, इस बात की गवाही उसका चेहरा दे रहा है। जरा ठहर कर बाबू ने पहल की- ‘क्यों कुछ कहना चाह रही हो क्या ?’
मतिया ने ‘ना’ में सिर हिलाया। थोड़ी देर चुप खड़ी रही, झांक कर भीकर देखी- नानी बेखबर सो रही थी, जिसके खुर्राटे बाहर भी मंडरा रहे थे। आज बाबू के पास आने में लाज लग रही थी मतिया को। साहस बटोर कर आगे बढ़ी। पैर पकड़ती हुयी बोली- ‘पांव दुख रहे होंगे, इसी से नींद नहीं आ रही है। आओ ना मालिश कर दूँ। ’
‘नहीं-नहीं। मालिश की जरुरत नहीं। तुम भी तो थकी ही होगी।’- कहते हुये बाबू ने हाथ खींच मतिया को बैठा लिया बगल में । लाज के कारण खुद में ही सिमटी जा रही थी मतिया। बिना कुछ बोले बैठ गयी चुपसे। अपने दोनों हाथों में मतिया का हाथ लिए बाबू एकटक देखते रहे उसके भोले मुखड़े को। आहिस्ते-आहिस्ते सहलाते रहे उसके हाथ को। मतिया के वदन में अजीब चुनचुनाहट सी महसूस होने लगी, मानों बहुत सी चीटियां रेंग रही हो भीतर चमड़ी के अन्दर घुस कर। चीटियां रेंगती रही, मतिया बैठी रही। बाबू भी बिना कुछ बोले चुप बैठे फेरते रहे अपने हाथ उसके हाथों पर ही सिर्फ।
‘आज इतने दिनों से लोग मेरे बारे में तरह-तरह की अटकलें लगाते रहे है।’- मतिया का हाथ सहलाते हुये बाबू ने चुप्पी तोड़ी- ‘ कोई कुछ कहता है, कोई कुछ, किन्तु मैं क्या कहूँ समझ नहीं पा रहा हूँ। जो जैसा कहता है, उसके सन्तोष के लिए सिर्फ हां-हूं कर दिया करता हूँ। आज तक मैंने स्वयं भी तुमसे कुछ कहा नहीं। कहना अच्छा भी नहीं लगा, जरुरी भी नहीं। इसका यह मतलब नहीं कि तुम्हें अधिकार नहीं था सुनने-जानने का। था, खूब था, पूरा अधिकार था। तुमने मुझे दुबारा जीवन दिया है, फिर एक जरा सी मामूली बात तुमसे न कहना भी तो भारी अपराध कहा जायेगा, और अब तो तुम मेरी सर्वस्व हो चुकी हो, फिर दुख कैसा ?’-बाबू ने भींच लिया मतिया को सीने से। नन्हीं बच्ची सी वह चिपकी रही बाबू की गोद में।
वह चिपकी रही। बाबू कहता रहा, ‘ मेरा जीवन विचित्र घटनाओं का कवाड़खाना रहा है। पतझड़ के मौसम में सारे के सारे पत्ते झड़ जाने के बाद जो स्थिति किसी दरख्त की होती है, उसी स्थिति में मैं भी हूँ। दूर छिटके पत्ते भूल जाते हैं पुराने पेड़ को। कुछ ऐसे भी पत्ते होते हैं, जो वहीं जड़ के पास पड़े अंकुरित हो उठते है- नये गाछ को पैदा कर देते हैं। ओफ ! कैसा लगता होगा ‘पत्थरचूर’ के उस पौधे को ....?’
बाबू की आवाज कांप रही थी। गला भर आया था। जरा रुक कर खंखारा दो बार, फिर मतिया की पीठ सहलाते हुए कहने लगा- ‘....पतझड़ के बाद बसन्त आता है, किन्तु मेरे जीवन के इस पेड़ के लिए कभी कोमल फुनगियां निकल सकेंगी- सोचा भी न था। आज मेरा भ्रम दूर हो गया। तुझे पाकर मैं धन्य हो गया....।’ पागलों की तरह कस कर चूम लिया मतिया को। इतनी जोर से बांधा आलिंगन में कि लगा हड्डियां चरमरा जायेंगी। मतिया सिहर उठी, किन्तु गरम सांसो की फुहार भी अजीब सी तरावट पैदाकर रही थी भीतर-भीतर। कुछ कहने से ज्यादा अच्छा, कुछ सुनते रहना ही लग रहा था।
बाबू कहे जा रहा था- ‘....पता नहीं तुमने क्या-क्या सोचा होगा मेरे बारे में। कुछ सोचा भी होगा या नहीं, कह नहीं सकता। मगर तुम्हारे प्यार ने जरुर सोचा होगा। जरुर परखा होगा। तुमने अपना प्यार देकर सचमें मुझे उबार लिया। एक भटकते मुसाफिर को जीवन के सही रास्ते पर ला खड़ा कर दिया तूने...।’ बाबू भाउकता में बहे जा रहा था। आज वह सबकुछ उगल कर, अपने प्राणेश्वरी की आंचल में उढेल देना चाहता था।
दम भर ठहर कर फिर कहने लगा- ‘ ...मेरे छोटे से जीवन की कहानी बहुत बड़ी है। क्यों न बड़ी हो- बेटा जो ठहरा बड़े घर का- चार-चार कपड़ा मिलों के मालिक का बेटा, बहुत बड़े जमींदार का बेटा, वह भी इकलौता। किन्तु यह इकलौतापन ही, यह भारी सम्पत्ति ही मुझे फुफकारती नागिन सी काट खाने को दौड़ती है। ओफ मतिया ! मेरी रानी! …’
बाबू की छाती लुहार की धौंकनी सी चलने लगी। लम्बी सांस छोड़, अपने सीने पर हाथ फेरते हुए उसने कहा- ‘मेरी पीड़ा की शुरुआत न जाने कब से हुयी। फोड़ा कब से शुरु हुआ, कह नहीं सकता। कुछ पता न चला। और पता जब चला, भीतर ही भीतर मवाद भर चुका था। टीस उठने लगी थी। फोड़ा मेरी मां के वदन में था, मवाद मेरे वदन में, और टीस हमदोनों के वदन में...।’- इस विचित्र फोड़े की बात मतिया के पल्ले कुछ पड़ी नहीं, सो चौंक कर सिर उठायी, बाबू के चेहरे को गौर से देखने लगी, जो दीये के मद्धिम रौशनी में भी साफ नजर आ रहा था।
‘...लग रही है न कुछ अजीब बात ?’- दोनों हाथों से मतिया के मुखड़े को थाम कर बाबू ने कहा, ‘औरत पूरी तरह से औरत तभी कहलाती है, जब वह मां बन जाय, और यह मां बनना ही शायद अभिशाप बन गया मेरी मां के लिए। वास्तविक अभिशप्त तो पिता थे, बाप ! मगर ‘वपन’ की ताकत जो न थी। ढेला ईंटा पूजने से, मौलवी-पंडित-औलियों के पास दौड़ लगाने से भी काम न बना, बड़े-बड़े डॉक्टर भी निराश कर चुके थे। एक दिन एक बूढ़े वैद्य ने दवा की सात पुड़िया दी, सिर्फ सात दिनों के लिए, और तीसरे महीने ही मां ने हरी झंडी दिखायी- गर्भवती होने की....।
‘...मगर हाय रे गर्भ ! जिस गर्भ के लिए रुपये पानी की तरह बहाये जा रहे थे, पिछले सात-आठ बर्षों से, अब उस गर्भ को ही बहाने के लिए नदी की गहराई नापी जाने लगी थी। ओफ ! कैसा लगा होगा उस दिन मां को जब पिता ने कहा होगा- ‘‘अरे कुलमुंही जा कहीं डूब मर नदी-नाले में...सात वर्षों से मैं नामर्द था, और आज मर्द बन गया- उन धूलभरी पुड़ियों से ? क्यों थोपना चाहती है दूसरे का पाप मेरे सिर पर ? ’’
‘.... मां के पैरों तले की धरती कांप उठी थी। जबान कट सी गयी थी। कोई शब्द भी न सूझ रहा था। और चुप्पी का फल मिला- लात-घूंसे, बेंत की छड़ी, और यहां तक की गर्म सलाखें भी। मार-मूर कर निकाल दिया गया घर से बाहर...।’
बाबू की मां की दुर्दशा सुन, मतिया कांप उठी, ‘ओफ ! ऐसे बेरहम थे बाबू के बाप ! बाप रे बाप ! ’
बाबू कहे जा रहा था, मतिया सुने जा रही थी- ‘....अपनी डाल से टूटे पत्ते को दूसरी डाल भी शरण नहीं देती। कुलकलंकनी कहलायी बहन को सगे भाई ने भी पनाह न दी। लाचार बेचारी वहां से भी निराश हो चल दी, किन्तु भाई से बहन का दिल ज्यादा कोमल हुआ करता है। एक बहन ने अपने यहां शरण दे दी। समय पर जन्म हुआ एक बच्चे का, जिसका ‘बाप’ अपने को बाप मानने को राजी न था। पालन-पोषण होता रहा-मौसी के घर। इस बीच पिता के गुप्तचर भी चक्कर लगाते रहे, जमीन सूंघते रहे- दुर्योधन के गुप्तचरों की तरह, पांडवों की अज्ञातवास भंग का प्रयास होता रहा...।
‘....कहते हैं न कि भगवान के घर में देर है, पर अन्धेर नहीं...न्याय मिलता है... समय के ऊँट ने अजीब करवट ली। मौसी के घर बच्चे के जन्म के कुछ ही महीनों बाद की बात है, मुहल्ले में मुंहा-मुंही होने लगी। क्यों कि बगल की एक कुंआरी बेटी मां बनने वाली थी, जिसकी तोहमत नामर्द कहे जाने वाले ‘उस’ पिता पर लगी, और इसे बुरा कहने से अच्छा है, अच्छा कहना ही। क्यों कि इस तोहमत ने ही उनकी आंखें खोलीं। डॉक्टरी जांच ने भी साबित कर दिया कि वे निश्चित रुप से गुनाहगार हो सकते हैं, और तब पश्चाताप होने लगा पिता के साथ-साथ दादा-दादी को भी- अपनी पुरानी भूल का।
‘...कुछ शुभचिन्तकों ने राय दी- प्रायश्चित करने की- क्या करोगे, अनजाने में भूल तो कर ही चुके, अब जाकर किसी तरह मनौअल करके ले आओ बहु और बच्चे को, दुनियां तो नहीं कहेगी कि दूसरे का बच्चा है...कुल का डूवता सितारा तो बच जायेगा...’ पहले तो दादी की बातों पर जरा भी ध्यान न दिया गया था, किन्तु पड़ोसन वाली तोहमत के बाद, जब दूध और पानी का हिसाब साफ हो गया, तो दादी तो दादी, इष्ट-मित्र, टोले-मुहल्ले सभी कोसने लगे।
‘...और तब एक दिन लाचार होकर, अपराधी सा मुंह लटकाये पिता को मौसी के दरवाजे पर खड़ा देखा मां ने। आरजू-मिन्नत, और फिर दबाव भी पड़ा- ‘‘क्या चाहती हो तुम्हारी वजह से मेरी जगहंसायी हो रही है, इसकी जरा भी परवाह नहीं तुझे ? चलो, चुपचाप घर चलो, वहीं रहो, आंखिर तुम्हारा ही घर है...।’’ मां की इच्छा जरा भी न थी- पुरानी डाल पर जा बैठने की, जिसमें घुन लगा हुआ है, मगर अफसोस ! आखिर ठहरी तो आर्यावर्त की नारी ही न- आदर्श की प्रतिमूर्ति, धरती सी सहनशीलता वाली...थोड़े से मीठे बोल से पिघल गयी बहुत जल्दी ....। दूसरे ही दिन चली आयी बोरिया-विस्तर-बच्चे को लेकर अपने पुराने घोसले में जहाँ से एक दिन दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंकी गयी थी।
‘...मां के आते ही घर में फिर एकबार रौनक वापस आगयी। एक ओर बांझ की कोख आवाद होने का सुख था, तो दूसरी ओर कुल-दीपक के चमकने का। यानी कि मेरा लालन-पालन होने लगा- बड़े बाप के इकलौते बेटे की तरह। दुनियां में दौलत के बदौलत जो कुछ भी हासिल किया जा सकता है, तथा कथित पिता ने जुटायी अपने पुत्र के लिए; किन्तु वास्तविक सुख तो तभी तक कायम रहा जब तक कि बालक अज्ञानी रहा। जैसे-जैसे होश सम्हालता गया, भीतर का छिपा फोड़ा मवाद से भरता गया, और धीरे-धीरे उसमें टीस उठती रही...।
‘...मौसी के यहां से उठाकर अपने घर में मां को डाल देने तक ही पिता अपना धर्म निभा पाये, उसके बाद मां का मोल कूड़ेदान में फेंके गये जूठे पत्तलों से अधिक न था। पिता को असली मतलब रहा तो सिर्फ बच्चे से। वैसे मतलब तो बहुतों से था- सेक्रेटरी लीना से, स्टेनो गीता से, पड़ोसन टीना से, घर में काम करने वाली बाई लछमिनिया से भी...कितनों का पता बताऊँ ! उधर दादी का पोपला मुंह खुला रहा- एक पोती के लिए, किन्तु बेचारी मां के सामर्थ्य से बाहर की मांग थी दादी की, जो कभी पूरी न हो पायी। क्या कहती कि इसके लिए अपने लाडले से पूछें…?
‘…इसी तरह समय गुजरता रहा, और मैं सात साल का हो गया। बांझी का नाम तो मिट गया, पर ‘एकौंझी’ का नाम मिटाने में मां असफल रही, और इसका फल हुआ कि धीरे-धीरे दादी के व्यवहार ने भी करवट लेना शुरु कर दिया। पिता तो हर तरह से कष्ट दे ही रहे थे- शारीरिक से मानसिक तक, दादी की बेमरौवती ने आग में घी का काम किया, और मां की दुर्दशा का दौर फिर से शुरु हो गया। गांव से लेकर घर तक के उलाहने और ताने से मां का जिस्म छलनी होने लगा। किसी औरत की, वो भी एक सन्तान के होते हुए, दूसरी सन्तान के लिए ऐसी दुर्दशा हो सकती है, कल्पना से परे की बात है, पर मैंने इन्हीं आँखों के सामने देखा है...इन्हीं आंखों के सामने...।’- कहते हुए बाबू की अंगुली अपनी आंख पर चली गयी, और सीना धौंकनी से बाजी मारने लगा।
‘...अबोध था तब तक डरता रहा, दबता रहा; पर जैसे-जैसे बड़ा होता गया, बोध होता गया, पास-पड़ोस से हवा-पानी का रुख समझने लगा, वर्तमान से बीते इतिहास तक का पाठ पढ़ लिया, तब फिर कहां सवाल रह जाता – पिता, दादी या किसी और से सहानुभूति और प्रेम का ? नतीजा ये हुआ कि आये दिन पिता से उलझने लगा। और फिर बहुत जल्दी ही, मामूली सा उलझाव भीषण टकराव में बदलने लगा...।
‘...समय सरकता रहा। मेरी उम्र बढती रही। मील के पत्थरों के तरह, एक-एक करके, किड्स गार्डेन से मॉर्डन हाई स्कूल में पहुँच गया। जैसे-जैसे बुद्धि बढ़ती गयी, ज्ञान-अनुभव बढ़ता गया, मां के प्रति ममता-प्रेम और श्रद्धा भी बढ़ती गयी; और साथ ही बढ़ता रहा परिवार के अन्य लोगों के प्रति क्षोभ, घृणा, नफरत...इसका परिणाम हुआ डांट-डपट, और फिर मार-पीट भी। कई बार तो ऐसा हुआ कि हाथ-पैर बांध कर कमरे में बन्द कर दिया जाता- भूखा-प्यासा ही, मां को भी और मुझे भी- अलग-अलग कमरों में। इधर मां तड़पती, उधर मैं। पिता के दिल में इकलौते के प्रति प्रेम की दरिया न जाने कहां सूख गयी थी, किन्तु इस नजरबन्दी का भी कुछ खास असर न हुआ...।
‘...समय ने डग भरे, हाई स्कूल का चौखट भी खट से पार हो गया। रिजल्ट लेकर घर आया तो पिता के आंखों में घडियाली आँसू दीखे- ‘‘बाह! आंखिर बेटा किसका है’’-कहते हुए पिता ने चूम लिया, पर पिता के चुम्बन में प्यार की मिठास नहीं, बदबूदार विदेशी सिगरेट और जर्दे का भभाका ही मिला। झट परे हट गया...।
‘...एक तीर से दो शिकार...पिता मशहूर शिकारी...। उनके शिकार की धूम बहुत दूर-दूर तक है। हमेशा कोई न कोई गोरा साहब आते ही रहते शिकार के आमन्त्रण पर, और फिर हफ्तों तक सभी मिलकर जंगलों की खाक छानते...अंग्रेजी बोतलें खुलती, नयी-नयी साकियों के हाथ से। पिता की नजरों में मैं भी एक शिकार भर ही तो था। उच्च शिक्षा के बहाने सुदूर सागर पार भेज दिया गया- एक तीर से दो शिकार एक साथ हो गये। व्यापारी हर बात में नफा-नुकसान की ही सोचता है। व्यापार में निपुण पिता ने भी यही सोचा- एक ओर बेटे को विदेशी डिग्री मिलेगी, और दूसरी ओर घर का रोज-रोज का टंटा भी कुछ दिनों के लिए मिट जायेगा। सयाना बच्चा कहीं ज्यादा उदण्डता न करे, इसलिए इसे इतनी दूर कर दो जहां मां के कोमल हृदय की धड़कनें और सिसकियां सुनायी न पड़ सके । लाभ ही लाभ मिला व्यापारी को...। ‘‘अब मेरा बेटा सीधे बैरिस्टर होकर ही आयेगा ’’- कहा पिता ने, और हफ्ते भर के अन्दर ही तैयारी पूरी हो गयी मेरे ‘कालापानी’ की। मां काफी रोयी-धोयी, चीखी-चिल्लाई, तड़पी; परन्तु नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता है ! मैं भी कहता रहा- ‘मुझे नहीं चाहिए विलायती डिग्री। सबके सब हिन्दुस्तानी क्या विदेश जाकर ही पढ़ते हैं ?’ पर मेरी भी एक न सुनी गयी। इस मामले में पिता के सुहृद मित्रों ने भी अच्छी-खासी भूमिका निभायी, और नतीजा हुआ कि बड़े बाप का बड़ा बेटा बैरिस्टर बनने विलायत चल दिया...।
‘...विलायत में मेरे रहने, पढ़ने, खाने-पीने, मौज-मस्ती का राजसी प्रबन्ध पिता ने बहुत जल्दी ही जुटा दिया। दौलत जो न कराये...।
‘...सब कुछ तो जुटा दिया पिता के दौलत ने, किन्तु मेरे रेगिस्तानी दिल में सुख-शान्ति के फूल खिलाने की ताकत कहां थी पिता के दौलत में ? चांदी की कटार से पौधे की छंटाई भले की जा सकती है, फूल नहीं खिलाये जा सकते...।
‘...विलखती मां को तड़पता छोड़, बिना डैनों के ही ऊँचे आकाश में उड़ता चला जा रहा मेरा मन क्या कभी शान्त हो सकता था ? हुआ भी नहीं। ममतामयी मां की मूर्ति हर वक्त आंखों के सामने घूमती रही। घर से चलते वक्त गोद में चिपटाकर मां ने कहा था- “अब तो तू जा रहा है रे मुन्ना, न जाने मेरी क्या दुर्दशा होगी तेरे पीछे ! कौन है मेरा यहां अपना ? जीती भी बचूंगी कि नहीं- राम जाने। खैर, तू जा, जहाँ भी रह मेरे लाल, सुख से रह। तेरी खुशी में ही मेरी खुशी है। तेरे सुख में ही मेरा सुख है। वहाँ जाकर भूल न जाना। कम से कम महीने में एक चिट्ठी तो जरुर दे देना...।” – मां के सीने से चिपका, आँसू से उसके कलेजे को शीतल करते हुए पूछा था मैंने- ‘तुम भी चिट्ठी लिखोगी न माँ ? जरुर लिखना। तेरी चिट्ठी ही तो एक मात्र सहारा होगा, उस उजाड़ कारागार में....।’
‘...सही में महीने में एक चिट्ठी माँ को डाल दिया करता था। महीने में तो नहीं, पर दो- तीन महने पर यहाँ से माँ की भी चिट्ठी मिल जाया करती, पिता के नियमित पत्र के साथ। किन्तु पिता के सेन्सर से पास हुए भाव ही सिर्फ पहुँच पाते थे मुझ तक- क्यों कि कई चिट्ठियों में मैंने पाया कि बहुत सी पंक्तियों को बेरहमी पूर्वक रगड़ा गया है। सामान्य रुप से गलती लिखा जानेपर, काटने का यह तरीका माँ का कतई नहीं हो सकता। निश्चित यह काम क्रूर पिता का ही होता था, और इससे यह भी तय था कि मेरे पत्रों को भी बिना सेंसर के प्रवेश की अनुमति नहीं थी, फिर सोचने की बात है कि हमदोनों के सही हृदयोद्गार कहाँ पहुँच पाये एक-दूसरे के पास ! मां के दिल की कसक को मुझ तक पहुँचाने में मेरा बाप हमेशा ही बाधक बना रहा, इस स्थिति में दूर बैठे बेटे को पढ़ाई-लिखाई में मन क्या लगता खाक !
‘….समय के छोटे-छोटे टुकड़ों ने दिन-महीने-साल बनाये, किन्तु विलायत को कभी अपना न सका मैं ; और, वहां की पढ़ाई के कड़वे घूँट ही घुटक पाया। मन तो अशान्त था ही, किन्तु कभी-कभार ध्यान आता- आखिर पढ़ाई के लिए ही तो पिता ने भेजा है इतनी दूर...मां वहां तड़प रही है...माँ के आँसू के मोल से कम से कम विदेशी डिग्री तो हासिल कर ही लेना चाहिए...सोचकर मन को फुसलाने की कोशिश करता। भाग्यवादी प्रधान भारतवासी के मन में एक क्षीण सहारा जगा भाग्य का, जो होना होगा सो तो होकर ही रहेगा- इसे कौन टाल सकता है ! और मुझ तथाकथित भाग्यावलम्बी को भी ढाढस बंधने लगा। भले ही हरवक्त गुमसुम उदास बैठे रहता, किसी एकान्त में खोया सा। एक दिन इसी तरह खाली समय में कॉलेज के पार्क में बैठा था, माँ की याद में ही खोया हुआ कि अचानक कानों में आवाज पड़ी- ‘‘हेलो मिस्टर अमरेश! ’’ आवाज साथ में पढ़ने वाली मेरिना की थी। पास आकर, सट कर बैठ गयी। अपने विचारों में खोया मैं, उसके हाय-हेलो का जबाव भी न दिया। कोई और होती तो मेरी उदण्डता को शायद माफ न करती, घमंडी कह कर, मुंह मोड़ लेती, पर मैं जानता था कि मेरिना उनमें नहीं है। पिछले कुछ दिनों से मैं देख रहा था कि वह मेरे करीब खिसक रही है। यदि मेरा उच्चाटपन न रहता, तो काफी पहले ही करीब आचुकी रहती।
“ मेरी बात सुनी नहीं तुमने ? ” – मेरिना ने फिर टोका, कंधे पर हाथ रखकर।
“ओह ! आई ऐम भेरी सौरी, कहो क्या बात है ? ” मैंने चौंकते हुए सवाल किया तो वह मुस्कुरा उठी।
“यू क्यूट इंडियन ब्यॉय ! ”- मेरे चेहरे को अपनी हथेली में कैद करती हुयी बोली- “एक बात पूछूं, मिस्टर अमरेश ! बुरा तो न मानोगे ? ”—टूटी-फूटी हिन्दी में उसने कहा।
“बुरा क्यों मानने लगा। कहो क्या जानना चाहती हो ? ” – मेरे प्रतिप्रश्न पर उसने फिर सवाल किया।
“तुम इसने मायूस क्यों रहते हो ? शादी होगयी है क्या ? अकेले मन नहीं लगता ?”
“उदास रहने और शादी होने में क्या सम्बन्ध है ?”- मैंने मुस्कुरा कर पूछा।
“इसलिए की हिन्दुस्तानियों की शादी बहुत कम उम्र में हो जाया करती है, और पढ़ाई के लिए परदेश जाना पड़ता है, नयी बीबी को छोड़कर, तो उदासी तो रहेगी ही न ?”- “क्यों क्या मैं गलत कह रही हूँ ? ”
‘ नहीं मेरिना, सो बात नहीं है, तुम गलत नहीं कह रही हो, फिर भी है गलत ही। ’
“ मतलब ? ”
‘ मतलब यह कि अभी मेरी उम्र ही क्या है, जो शादी हो जाय ? वैसे तुम्हारा कहना आंशिक रुप से सही है, कि हमारे देश में शादी तुम्हारे देश की तुलना में जल्दी हो जाती है, किन्तु खास कर देहातों में; और उसका भी मुख्य कारण है- बादशाही सल्तनत का सूखा जूठन, जिसे अभी तक अंग्रेजियत के पानी से पूरी तरह धोया नहीं जा सका है।’
“क्या बोल रहे हो ये ? मैं कुछ समझी नहीं।”
‘ पुराने समय में मुगलों और बादशाहों के भय से शादी जल्दी कर दी जाती थी, और फिर देशी रजवाड़े भी ‘ डोला काढ़ने ’ लगे, उनका भय व्याप गया समाज में; और एक खास बात यह भी है कि तुम्हारे अपेक्षा मेरा मुल्क गरम है, वहाँ लड़के-लड़कियां जल्दी सयानी हो जाती हैं। ’
“ ठीक है, मान लिया तुम्हारी बात, किन्तु जब तुम्हारी शादी हुयी ही नहीं, फिर ये अकेलेपन वाली उदासी क्यों? ”- मेरिना ने फिर सवाल किया- ‘‘ तुम्हें यहाँ आये साल से ऊपर हो रहे हैं, पर उदासी ज्यों की त्यों। लगता है जैसे कल ही आये हो। इस तरह उदास, गुम-सुम बने रहोगे तो काम कैसे चलेगा ? मैं तो समझ रही थी बीबी को छोड़कर आये हो, उसकी याद में खोये रहते हो।’’