अधूरीपतिया / भाग 8 / कमलेश पुण्यार्क

Gadya Kosh से
(अधूरीपतिया / भाग 8 / कमलेश से पुनर्निर्देशित)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

‘तो क्या नहीं जानते हो बाबू? ’-कहते हुए गोरखुआ बाबू के समीप आ गया- ‘यही मेरी अपनी होने जा रही है, इसी साल सोहराय के बाद...।’-फिर थोड़ा ठहरकर मंगरिया की ओर देखकर बोला- ‘देख जरा सम्हल के रहियो, हमारे बाबू बहुत कमजोर हैं अभी। कहीं इन्हीं पर बिजुली न गिरा दिहौ।’

‘धत्त! ’ करती मंगरिया लजाकर एक ओर हट गयी मतिया का हाथ पकड़कर खींचती हुई। बाबू और गोरखुआ दोनों हँसने लगे।

हँसते-हँसते, सजी-संवरी मंगरिया को देखते हुए बाबू ने गोरखुआ से पूछा- ‘तो क्या तुमलोगों में शादी एक गांव में ही हो जाती है?’

‘नहीं बाबू , ऐसी बात नहीं है। सच पूछो तो हम सभी यहां अलग-अलग जगहों से आकर बसे हैं। अलग-अलग जातियाँ भी हैं हमलोगों की, अलग-अलग रिवाज भी हैं। क्या मतिया ने आपको बतलाया नहीं गुजरिया गांव की कहानी? ’

‘हाँ-हाँ, कुछ तो जरुर मालूम चल गया है, मतिया कह रही थी एक दिन, उधर कहीं साहब की कोठी से भागकर लोग आ बसे हैं यहाँ।’

‘हाँ-हाँ, यही बात है। अलग-अलग जगहों से लोग वहाँ आये थे, और फिर वहाँ से यहाँ आ गये; किन्तु इतने दिनों से साथ रहते-रहते ऐसा प्रेम भाव बन गया है कि पता नहीं चलता कि कौन क्या है।’

बातें हो ही रही थी कि होरिया भी सज-धज कर, गले में मान्दर लटकाये आ पहुँचा।

‘बातें ही करते रहोगे गोरखुभाई या कुछ और भी सोचे हो?’

‘चुप रह साले। सारी रात तो नाचने के लिए है ही। जरा बतला रहा था बाबू को यहां का रस्म-वो-रिवाज।’

‘सुन रहे हो ना बाबू! गोरखुभाई की गाली?’- कहा होरिया ने, तो बाबू उसका मुंह देखने लगे। मुस्कुराते हुए गोरखुआ ने कहा- ‘साले को साला न कहूँ तो और क्या कहूँ बाबू? अब ये भी कह दो कि मंगरिया तुम्हारे काका की छोरी नहीं है।’

‘चलो न गोरखुभाई! सभी वहाँ तुम्हारा इन्तजार कर रहे हैं।तुम भी यहाँ आये तो यहीं चिपक गये।’- कहा डोरमा ने, उधर से दौड़ते हुये आकर।

‘चलो भाई, चल ही रहा हूँ।’- बाबू का हाथ पकड़कर गोरखुआ बोला- ‘चलो बाबू , अब चला ही जाय।’ और एक दूसरे का हाथ पकड़े सभी चल पड़े मंडप की ओर।

बच्चे उछलने-कूदने लगे- अब नाच होगा..नाच...बाजा बजेगा।

मंडप के भीतर आ इकट्ठे हो गये सभी। बीच में गोरखुआ को करके, डोरमा, होरिया, मंगरु, लोलवा, मरछुआ, मोरना, झरंगा...सभी खड़े हो गये घेर कर। हर किसी के पास कोई न कोई साज था- मान्दर, नगाड़ा, तुरही, किरटी, बांसुरी, तासा....। मर्दों के बाद दूसरा घेरा पड़ गया औरतों का। औरतों का हाथ बिलकुल खाली था। किसी-किसी औरत का हाथ पकड़े बच्चे भी घुस आये थे उसी झुण्ड में। दूधपीते बच्चे अपनी मांओं की पीठ पर बकुंचों में बंधे पड़े थे। मतिया और मंगरिया भी घेरे के भीतर आ घुसी।

सबसे पहले गोरखुआ अपने हाथ में पकड़े लाल और पीली झंडियों को किसी खास अंदाज में दो-तीन दफा हवा में लहराया, और इसके साथ ही डोरमा ने मान्दर पर थाप भी मारा किसी खास अन्दाज में ही, मानों सबके लिए इशारा था, और फिर शुरु हो गया गीत गोरखुआ का।

कुछ देर तक गोरखु अकेला ही गाता रहा। मान्दर के साथ अन्य साज भी बजने लगे। गाते-गाते एकाएक नाच उठा गोरखुआ। उसका नाचना था कि सबके पैरों में मानों बिजली लग गयी। आगे-पीछे कई कतारों में होकर, एक मंजे-सधे नर्तक की भांति औरत-मर्द सभी नाचने लगे। बाबू, दादू, सोहनु काका आदि पांच-छः लोग अलग खड़े नाच का मजा लेते रहे।

फिर शुरु हुआ एकल गीत—एक-एक कर कोई औरत घेरे से बाहर निकल कर, बीच में आजाती, और नाच कर गाती। मर्द बाजा बजाते रहते। अलग-अलग गीतों का अलग-अलग धुन, किसी में मान्दर की आवाज ऊपर, तो किसी में बांसुरी की, किसी धुन में सभी साज एक साथ बज उठते...आरोह-अवरोह...अजीब आनन्द का समा बंध गया। औरत-मर्द, बच्चे-बूढे सभी मस्त। नाच-गान के बीच में कोई भीड़ से बाहर निकल कर हंडिया भी पी लेते।

इसी क्रम में मंगरिया की भी बारी आयी। ओह! मंगरिया का नाच ! दंग रह गये देखने वाले। भीड़ से बाहर आकर, गोरखुआ ने बाबू का हाथ पकड़ा, और नजदीक ले गया, जहाँ मंगरिया नाच रही थी।

‘देखो बाबू! मेरी मंगरिया कैसी नाचती है।’

मंगरिया सच में माहिर थी नाच में। देखने वाले सभी वाह-वाह कर रहे थे। गोरखु के कंधे पर हाथ रखकर बाबू ने कहा, ‘ वाह गोरखुभाई वाह! चीज तो बड़ी अच्छी चुने हो। ओह, ऐसा नाच तो आजतक मैंने कभी देखा ही नहीं था। हमारे यहां भी एक से एक नाचने वाले हैं, मगर मंगरिया की टक्कर का एक भी नहीं। गीत भी अजीब है। कमाल है गीतों का। हालांकि भाषा मैं जरा भी समझ नहीं पा रहा हूँ, फिर भी नाच में हाव-भाव ऐसे दे रही है मंगरिया कि भाषा का सवाल ही नहीं रह जाता।’

भीड़ से थोड़ा हटकर, एक टीले पर तीन-चार बूढ़ियां बैठी थी। उन्हीं में कजुरी नानी भी थी। मंगरिया की नाच पर बाबू मुग्ध है- इसकी भनक शायद नानी को भी लग गयी थी। इशारे से बाबू को पास बुला कर बोली- ‘ अभी क्या देखे हो बाबू! मेरी नातिन का नाच देखोगे तो दांतों तले उंगली दबा लोगे।’

नानी के कहने का भाव बाबू को गोरखुआ ने बतलाया- ‘ एक पर एक सात कलशी रखेगी सिर पर। वदन ऐसा मटकायेगी कि देखते ही बन पड़ेगा। मगर मजाल है कि एक भी कलशी सिर से हिले-डुले।’

मंगरिया का नाच पूरा हुआ। लोगों का ध्यान टंग गया मतिया पर। अब उसकी ही बारी है। मतिया का साजो-सिंगार पहले ही बाबूको अपनी ओर खींच चुका था। नाचने के लिए पैरों में घुंघरु बांध, सिर पर सात कलशी रख, घेरे के बीच में आयी, तो पल भर के लिए सबकी आँखें फैल गयी।

बांसुरी पर नयी धुन बजने लगी। मान्दर पर नया ताल, और नाच उठी मतिया।

बड़ी देर तक मतिया का नाच चलता रहा। देखने वाले झूमते रहे, नाचने वाली तो झूम ही रही थी। मतिया के नाच के समय गोरखुआ के हाथ में बांसुरी थी, डोरमा के कंधे पर मान्दर।

‘गाती नहीं है क्या मतिया?’- देर तक सिर्फ नाच ही चलता देखकर, बाबू ने होरिया से पूछा।

‘गाती है बाबू! खूब गाती है मतिया। मतिया की तरह गाने वाली, मेरे गांव क्या आसपास के दस-बीस गांवों में भी न मिलेगी। पहले नाच तो देखो बाबू। फिर गीत सुनना।’- होरिया ने बाबू से कहा।

बजाते-बजाते डोरमा नीचे बैठ गया, मान्दर को जमीन पर रखकर। उधर से नाचती-बलखाती मतिया आयी, और सीधे पड़ गयी, पेट के बल मान्दर पर ही। देखने वालों की सांसें रुक सी गयी। लगा कि सिर पर रखी कलसियां अब गिर कर चकनाचूर हुयी। परन्तु खटाक से उठ खड़ी हुयी, और लोगों ने देखा- सिर पर धरी एक-पर-एक सात कलसियां तीन और चार की संख्या में बंट कर दोनों हथेलियों पर आगयी है। अचानक क्षण भर में ही कमर बलखायी सांपिन सी, और अगले ही पल सारी कलसियां पहले की भांति सिर पर नजर आने लगी- छप्पर पर बैठे उकाब की तरह। बाबू के मुंह से बरबस ही निकल पड़ा- ‘वाह-वाह ! कमाल है ! ये मतिया है या कि जादू की पुतली?’

नाच थमा नहीं, पर ताल बदल गया- एक ही इशारे पर। गति बदल गयी। धुन बदल गया। नाच के साथ-साथ अब गान भी शुरु हो गया। स्वर धीरे-धीरे चढ़ने लगे- छिपकिली की तरह, और फिर अचानक गिरगिट हो गया मतिया का स्वर। बाबू के कानों में अगनित जलतरंग बज उठे- कोकिल-कंठी की गीत सुनकर। भाव विभोर हो सुनते रहे बाबू- मतिया का रसभरा गीत- सिंगार गीत।

होरिया ने कहा- ‘सुन रहे हो न बाबू? कह रहे थे कि मतिया गाती नहीं है क्या।’

एक के बाद एक मतिया ने लागातार तीन-चार गीत गाये- विरह, सिंगार, दर्द...से भरे गीतों का खूब आनन्द लिया लोगों ने। देर तक मतिया गाती रही, लोग झूमते रहे। बाबू की इच्छा हो रही थी कि मतिया इसी तरह सारी रात गाती रहे, और वह सुनता रहे। रात खतम न हो कभी। किन्तु नाच खतम हुआ। गीत पूरे हुए। साजों ने शायद शरमा कर चुप्पी साध ली, तब कहीं जाकर, लोगों का सपना टूटा। ‘वाह-वाह!’ करता हुआ गोरखुआ लिपट पड़ा बाबू से।

अब बारी थी जोड़ी नाच की। इसमें मर्द-औरत की जोड़ी का नाच होना था। इधर के नाच में इसका भी खास स्थान हुआ करता है। नाच के लिए कोई निश्चित जोड़ी नहीं- कि कौन किसके साथ नाचेगा। जिसे जिसके साथ जी आवे, नाच सकता है। न उम्र का सीमा-बन्धन, और न रिस्ते-नाते की पाबंदी।

इस बार बाजे बूढों के गले में पड़े। सोहनु काका ने मान्दर सम्हाला, भिरखु काका ने नगाड़ा, दादू ने बांसुरी टेरी, धानुदादा ने सींघा फूंका। जोड़ी फटाफट तैयार हो गयी- डोरमा ने सोनरिया को साझीदार बनाया, होरिया ने नेऊली को, मंगरु ने करीमनी को, गोरखुआ की जोड़ीदार तो पहले से ही तय थी- मंगरिया।

‘क्यों मतिया! तू पीछे क्यों छिपी है? पकड़ ना बाबू पलटनवां को।’- हँसती हुयी मंगरिया पास खड़े बाबू का हाथ खींच कर मतिया के हाथ में थमा दी।

‘मुझे नाचना-वाचना नहीं आता।’- हाथ छुड़ाने की जोरदार कोशिश करता बाबू ने कहा। किन्तु हाथ शायद चिपक से गये थे मतिया के हाथों में। इतने बड़े समूह में मंगरिया ने बाबू का हाथ एक-ब-एक मतिया के हाथ में पकड़ा दिया था, जिसके कारण बाबू के वदन में एक अजीब सी सिहरन दौड़ गयी। अब से पहले तो, मतिया ने कई दफा हाथ पकड़ा था बाबू का, किन्तु अभी का छुअन कुछ और ही तरह का लगा बाबू को। आँखें कूद सी पड़ी, आंखों में, और उलझ सी गयी क्षण भर के लिए।

‘चलो बाबू नाचो न!’- बाबू की ठुड्डी छूकर मंगरिया ने कहा मुस्कुराते हुए- ‘उसके वास्ते काहे को परिसान हो बाबू? नाचना नहीं आता तो मत आवे। मतिया तो तुमको ऐसा नाच नचायेगी कि जिन्दगी भर याद रखोगे।’- एक साथ दोनों के हाथ पकड़कर मंगरिया ने फिर कहा- ‘ देख मतिया, ठीक से पकड़े रहिहो। शहरी बाबू का हाथ है। कहीं भाग न जाये पलटनवां बाबू हाथ झटक कर...।’

मंगरिया ने इस तरह मुंह बनाकर, आँखें मटकाकर, हाथ नचा कर, कहा कि सुनकर सभी ठहाका लगाकर हँसने लगे। बगल में बैठी गोरखुआ की अम्मां कजुरी नानी के कान में मुंह सटाकर धीरे से बोली- ‘देखत हो माई पिस्सा! केतक बढ़िया लगत हेके। नीक भांटू आहे वो। इके ही देई दे मतिया के।’

‘मोंय की जानवों, करम जाने मतियार...।’-कजुरी ने अपना लिलार छूकर कहा।

उधर बाबू का हाथ खींचते मतिया घुस पड़ी भीड़ में।

सोहनु काका ने थाप मारा मान्दर पर, और एक साथ थिरक उठी सब जोड़ियां। बांसुरी भी बजने लगी। भेरखुदादू की बांसुरी गोरखुआ से भी बेहतरीन बज रही थी। इस उम्र में भी जो सुर-तान की पकड़ दादू में थी, गोरखुआ उसका पासंग भी नहीं।

‘नाचो न बाबू। लजाते क्या हो छोरियों जैसा? साथ-साथ नाचने में क्या रखा है, जैसा जैसा मैं कर रही हूँ, तुम भी करते जाओ। ज्यादा जोर वाला नाच न नचाऊँगी।’- बाबू का हाथ पकड़े, मतिया ने धीरे से कहा।

जोड़ी-नाच शुरु होगया, तो फिर शुरु ही हो गया।थमने का मानों नाम ही नहीं। सबके पैरों में मानों बिजली लग गयी। झूमर, झमरे, पोड़ी, घेंगना...कई तरह के नाच होते रहे इन जोड़ियों के। नशे में धुत्त...नाच में मस्त...गान में विभोर...रुकने का कोई नाम ही नहीं... जोड़ी तो सब जोड़ी ही थी, परन्तु दो जोड़ियाँ ज्यादा खींच रहीं थी अपनी ओर सभी देखने वालों को- एक थी गोरखुआ और मंगरिया की जोड़ी, और दूसरी बाबू और मतिया की। कहने को तो बाबू ने कह दिया था- मुझे नाचना नहीं आता, किन्तु मतिया के साथ का असर कहें या कि कुछ और, देखने वाला कह नहीं सकता कि बाबू को नाचना नहीं आता। खूब जमा बाबू और मतिया भी नाच।

काफी देर बाद, यहाँ तक कि पौ फटने की बारी आयी, तब जाकर यह नाच खतम हुआ। सभी थक कर चूर हो गये थे। गोरखुआ ने कहा- ‘सब तो हुआ ही, पर थोड़ी सी कसर और रह गयी है।’

‘क्या?’-चौंक कर पूछा मतिया ने। बाकी लोग भी गोरखुआ की ओर देखने लगे।

‘आज के नाच-गान का पुरनाहुत बाबू के गीत से हो तो मजा आ जाये। आओ बाबू हो जाये एक गीत।’- बाबू का हाथ पकड़, गोरखुआ ने कहा तो, मतिया और मंगरिया दोनों थिरक उठी- ‘हां-हां, जरुर होना चाहिए। हमारे बहुत से गीत बाबू ने सुने, अब जरा अपनी भी तो कुछ सुनायें।’

‘मुझे तो गीत गाना आता ही नहीं। आज तक कभी मैंने गाया भी नहीं।’- हाथ छुड़ाने की कोशिश करते बाबू ने कहा।

‘रोना और गाना किसे नहीं आता बाबू? यह भी कोई कहने की बात है? दिल में दर्द हो तो रुलाई आ हीं जायेगी। उसी तरह मन में उमंग हो, जवानी की तरंग हो, तो होठ खुद ब खुद थिरकने लगते हैं।’- गोरखुआ ने बाबू को आगे की ओर खींचते हुए कहा।

‘गाओ न बाबू। कुछ तो गाओ। तुम तो कहते थे- नाचना भी नहीं आता, और नाचे तो ऐसा नाचे कि दिखते ही रह गये लोग।’- कहा मंगरिया ने, तो बड़े-बूढ़े भी हां में हां मिला दी- ‘गाना ही होगा बाबू को।’

लाचार होकर, बाबू को आगे आना ही पड़ा। कुछ देर ठहर कर, जमीन को चीर कर बाहर निकलने को आतुर लाल सूरज को बाबू ने गौर से निहारा, और फिर शुरु हो गया उसका गाना...। सूरज भी बेताब ही था, रात भर तो मौका नहीं मिला, सोचा चलो, कम से कम अन्तिम गीत-गान तो सुन लिया जाय।

वैसे तो बाबू के गीत में कोई कसर न थी, थी भी यदि तो गोरखुआ की वांसुरी ने पूरी कर दी। उधर होरिया मान्दर पर हल्के-हल्के थाप देता रहा। इधर मंगरिया घुंघरु झमकाती रही। गीत के भाव सभी समझ न पा रहे थे, परन्तु मस्त हो गये सभी मस्ती के आलम में। बाबू का गीत पूरा हुआ तो तालियां गड़गड़ा उठी।

बाबू के गीत की बधाई देने को सूरज भी ललक उठा। तारिकायें तो पहले ही थक

कर सो चुकी थी। रात भर की जगी बेचारी, कब तक टिकी रहतीं, जबकि सूरज का भय भी था- नाच देखते बच्चों के सामने एकाएक उसके गुरुजी आजायें तो फिर कौन टिक सकता है वहां? यही हाल तारिकाओं का हुआ। ईर्ष्यालु चाँद तो और भी पहले भाग गया था। टिकता भी कैसे- मतिया और मंगरिया के सामने?

दिन कुछ ऊपर चढ़ आया। लोगों ने हाथ-मुंह धोया। रात के बचे-खुच पकवानों पर बच्चों की फौज गोरा-पलटन सी टूट पड़ी। उनसे निपटारा होता न देख, बड़ों को भी मदद के लिए आगे बढ़ना पड़ा।

इन सबसे फुरसत मिलने पर तैयारी होने लगी करम डाढ़ बहाने की। जिस धूम-धाम से पहले दिने उसे लाने की तैयारी हुयी थी, उसी उमंग से उसकी विदाई का भी इन्तजाम होने लगा। अन्तर इतना ही था कि आये थे करमदेव पाहन के कंधे चढ़कर, जाने लगे मंगरुआ के कंधे पर।

मंगरुआ ने करमडाढ़ को अपने कंधे पर रखा। उसके साथ ही कलशी में पानी, पूजा से बचे सामान- फूल, रोली, अक्षत आदि और थोड़ा सा पकवान, जो पहले ही अलग रख दिया गया था विदाई के लिए, एक छोटी सी हंड़िया सहित बांस की टोकरी में सजाकर, सोमरुआ ने अपने सिर पर ले लिया। उसके पीछे-पीछे गांव के बाकी लोग चलने लगे।

बाजे आज भी बज रहे थे, पर धुन कुछ और थी। सबके चेहरे पर गुजरे उमंग की परछाई थी। गीत भी गाये जा रहे थे, पर वैसा उल्लास न था। बाजे भी बज ही रहे थे, पर थके-थके से। लोगों की चाल भी कुछ धीमी ही थी।

सभी पहुँचे झरने के किनारे, जहां पिछले दिन नहाने गये थे।एक चट्टान पर करमडाढ को रख दिया गया- किसी देवता की सोयी हुयी मूर्ति की तरह। आखिर खड़ा होने की ताकत कहाँ थी अब उस देव में ! पाहन नहीं आये थे। रात कुछ ज्यादा पकवान और हंडिया चढ़ा लेने के कारण उनकी तबियत गड़बड़ा गयी थी। वैसे भी आज उनकी खास जरुरत नहीं थी यहाँ आने की। गांव के बुजुर्ग भेरखु दादू ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया करमदेव को, और उठाकर उसी टोकरी में रख दिया, जिसमें साथ लाये बाकी सामन रखे गये थे। सबने सिर झुकाकर प्रणाम किया एकबार, और तब सोमरुआ अपने सिर पर टोकरी उठाकर, उतर गया गहरे पानी में। कुछ आगे बढ़कर टोकरी को कल-कल करती जलधार में छोड़ दी गयी। फिर लोगों ने नहाया-धोया, और हँसते कूदते चल पड़े गांव की ओर।

घर आकर रात के बचे पकवानों को ही खा-पीकर, लोग आराम करने लगे। सबकी आँखें नींद से भारी हो रही थी।


मतिया की आवाज सुन बाबू की आँख खुली। ‘अरे शाम हो गयी? ओह, बहुत सोया आज। असल में, आंखें जल रही थी।वदन में भी दर्द हो रहा था।’

‘बुखार तो नहीं है न बाबू?’-बाबू के सिर पर हाथ धरती मतिया ने कहा- ‘नहीं, बुखार-उखार तो बिलकुल नहीं है। मैं तो डर गयी कि फिर बाबू को बुखार न हो गया हो।’

‘अब क्या रोज-रोज बुखार ही होता रहेगा।’-उठकर बैठते हुए बाबू ने कहा।

‘जख्म कैसा है बाबू देखे थे खोल कर? ’

‘देखना क्या है, आज सुबह से पट्टी भी नहीं बांधा हूँ। सिर की पट्टी तो उसी दिन खोल फेकीं थी। घाव बिलकुल भर गया है। देखो न..।’- बाबू ने माथे पर इशारा किया, फिर पेट पर से कपड़ा हटाकर मतिया को दिखाया- ‘यह भी ठीक हो चला है। अब पट्टी की जरुरत नहीं है, सिर्फ दवा लगा भर देना है।’

‘हां, बिलकुल ठीक है अब।’-झुक कर जख्म को देखती हुयी मतिया बोली- ‘चलो उठो बाबू ! कुल्ला-उल्ला करो। भूख लगी है? कुछ खाओगे?’

‘नहीं, खाने की जरा भी इच्छा नहीं है। प्यास लगी है सिर्फ।’- पेट पर हाथ फेरते हुए बाबू ने कहा।

‘अभी लायी।’- कहकर मतिया भीतर चली गयी। थोड़ी देर में लोटे में पानी, और एक दोनियां में दाने की लाई लिये आ पहुँची, ‘लो बाबू, इसे खाकर पानी पीलो। ’

कुल्ला करते हुए बाबू ने देखा, मतिया की निगाहें उसे घूरे जा रही हैं। जानबूझ कर बाबू देर तक कुल्ला करता रहा। आंखों पर पानी के छींटे मारते रहे। फिर पानी पीते हुए भी कनखियों से देखा, मतिया अभी भी देखे जा रही है।

‘कल का परब कैसा लगा बाबू ? ’- मतिया पूछ ही रही थी कि गोरखुआ आ पहुँचा।

‘आज खूब सोया बाबू।’-आते ही गोरखुआ ने कहा- ‘बीच में भी नींद खुली थी, विचार हुआ कि चलूँ बाबू के पास, किन्तु सोचा अभी और थोड़ा सो लेने दूँ बाबू को; और तब जो नींद लगी सो अभी खुल रही है।’- फिर मतिया की ओर देखते हुए बोला, ‘क्या पूछ रही थी कल के परब के बारे में? ’

‘हाँ वही पूछ रही थी- कैसा लगा इधर का त्योहार? ’- मतिया ने मुस्कुराकर बाबूकी ओर देखा, और चटाई बिछाने लगी, जो वहीं खाट के नीचे पड़ी थी।

‘त्योहार का क्या कहना, हमारे यहां भी बहुत से पर्व-त्योहार मनाये जाते हैं। एक है होली, जिसमें इसी तरह खाना-पीना, नाचना-गाना होता है, पर जो आनन्द इस त्योहार में मिला वह वहां कहाँ।’- बाबू ने कहा।

‘ऐसा क्यों बाबू ? त्योहार तो त्योहार है, होली हो या करमा।’- चटाई पर बैठते हुए गोरखुआ ने कहा।

खाट पर जम कर बैठते हुए बाबू ने कहा, ‘बात है गोरखुभाई कि त्योहार हँसी-खुशी के लिए है। वास्तविक उल्लास स्वच्छ हृदय में ही जग सकता है। मन में यदि उमंग नहीं, फिर पर्व का आनन्द कहाँ? हालांकि इसके कई कारण हैं। आपस के बैर-भाव को लोग पर्व-त्योहार के दिनों में भी धो-पोंछ नहीं पाते, और जब दिल ही नहीं धुला हो तो फिर पर्व क्या? हिन्दू दशहरे का जुलूस निकालते हैं, तो मुसलमान भाई कटार पजाते हैं। उनका ईद-बकरीद होता है, तो इधर बर्छे-भाले चमकते हैं। जाति-पाति, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब...बहुत तरह का भेद भाव है समाज में भाई मेरे, जो वास्तविक आनन्द में बाधक होता है। जब कि यहां मैंने देखा, इसका जरा भी भेद नहीं। तुम कहते हो कि सभी अलग-अलग जगहों से आ बसे हो यहां, किन्तु साथ मिलकर खाये-पीये, नाचे-गाये। किसके यहाँ से क्या और कितना आया- इसे भी देखने की जरुरत न पड़ी। मगर हमारे यहां तो ऐसी बात नहीं, एक लड्डू के लिए कितने सिर फूट जाते हैं...। ’

‘खैर ये भेद जल्दी ही मिट जायेगा बाबू। गान्हीबाबा कहते हैं- रामराज ला देंगे... सबको एक समान कर देंगे...। ’

‘क्या कहते हो गोरखुभाई? ’- बाबू ने उदासी पूर्वक कहा- ‘सिर्फ राम से ही रामराज थोड़े जो था, उनके साथ ही पूरा साकेत भी था- अयोध्या में साकेत ही अवतरित हुआ था। किन्तु यहां तो हम वही हैं, वही रहने की कसम खाये बैठे हैं, फिर शासक और सत्ता बदलने भर से क्या फर्क होना है? देख लेना गोरखुभाई, गांधी के प्रयास से स्वराज्य मिल भी गया यदि जल्दी ही, तो भी उनके चहेते उसे सही चलने नहीं देंगे। इधर तुम्हारे गांधी टें बोलेंगे, उधर चहेतों की चांदी होगी। गांधी के नाम पर घड़ियाली आँसू बहायेंगे। गांधी को सबसे ज्यादा खतरा गांधीवादियों से ही है। कहा भी जाता है- भगवान अपने भक्तों से ही ज्यादा परेशान रहते हैं। तुम्हें क्या लग रहा है गोरखुभाई! - ये गांधी के नाम की टोपियां सब देश भक्तों के सिर पर ही नजर आ रही है? नहीं, बिलकुल नहीं। चुने-गिने ही सच्चे देशभक्त हैं इसमें। बाकी सब शतरंज के मोहरे हैं- प्यादा से फरजी भयो, टेढ़ो-टेढ़ो जाय....। इन्हें अपनी-अपनी कुर्सी की चिन्ता रहेगी, उसे ही बचाने में सारा दिन गुजर जायेगा। भूखी-नंगी जनता वहीं की वहीं रहेगी, जहां आज दीख रही है। सुराज मिलने पर पहले ये गांधीवादी अपनी अगली दस-बीस पीढ़ियों के लिए सुख-सुविधा का साधन जुटायेंगे, फिर देखा जायेगा देश का विकास, कभी फुरसत मिलने पर किया जायेगा...और फुरसत का वह क्षण कभी आने वाला नहीं है।’

बाबू बिलकुल भाषण के मूड में हो गया था, कि बीच में ही गोरखुआ ने कुछ उदास

होकर टोका- ‘तो क्या तुम चाहते हो, बाबू कि सुराज अभी नहीं मिले? ’

‘यह मैं कब कह रहा हूँ? ’-बाबू ने हाथ मटका कर कहा- ‘स्वराज्य मिले, जल्दी मिले, जरुर मिले, वशर्ते कि हम उसके काबिल हों, और सही तरीके से मिले, जिसे सही ढंग से सम्हाल कर हम रख भी सकें। स्वराज्य का यह अर्थ तो नहीं कि जिसे जो जी में आये करने लगे, बोलने लगे, बकने लगे। देश अपना है, देश की सम्पदा अपनी है, इसका ये मतलब तो नहीं कि जी में आया तो रेल-वस में आग लगा दी, या बिना टिकट के ही सफर कर लिए, सार्वजनिक सम्पदा का दोहन करते रहे या ऑफिस का पंखा उठा कर घर में ले आये? ये कैसा सुराज होगा? जरा सोचो तो गोरखुभाई। ’

‘बस-बस, आ गये गान्हीबाबा के एक और चेले। शुरु हो गयी सुराज-चर्चा। ’- मतिया बीच में ही टोकी ।

‘ तो और क्या चाहती हो?’- गोरखुआ जरा झल्लाकर बोला- ‘ ओह, मैं अभी समझा। आपने तो मतिया के नाच के बारे में कुछ कहा नहीं, और सुराज की चर्चा में मैं घसीट लिया आपको, इसीलिए मतिया नाराज हो गयी।’

‘ मैं काहे को नाराज होने लगी? ये क्यों नहीं कहते कि मंगरिया के बारे में बाबू कुछ कह नहीं रहे हैं, और दूसरी-दूसरी बात किये जा रहे हैं। मुझे भी मंगरिया की बात सुननी थी।’

‘कहना क्या है भई! ’- बाबू गम्भीर बने, धीरे से बोले- ‘सच पूछो तो नाच के बारे में मैं चुप इस कारण हूँ कि सोच नहीं पा रहा हूँ कि किसको अधिक अच्छा कहूँ- मतिया को या कि मंगरिया को। मतिया तो सामने है, अच्छा कहने पर कह सकती है कि सामने पाकर मुंहदेखी बघार रहे हो, किन्तु मंगरिया तो समाने नहीं है न। सच मानों तो इन दोनों का नाच मुझे इतना भाया कि अभी सपने में भी आँखें बन्द कर इनका नाच ही देख रहा था। साज-सिंगार तो इन दोनों ने लगता है कि आपस में मसविरा करके ही किया था। ओफ काबिले तारीफ...। साधारण साधन से इतना असाधारण सुन्दर श्रृंगार हो सकता है, मैं कल्पना भी नहीं कर पाता हूँ।’- कहते हुए बाबू ने मतिया की ओर देखा, जो लजाकर, गर्दन झुकाये, पांव के अँगूठे से जमीन कुरेद रही थी।

‘गोरखुभाई का नाच क्या कम मजेदार था बाबू? ’-नजरें नीची किये, कनखी से देखती हुयी मतिया ने कहा।

‘ कौन कहता है, कम था? ये तो सबके सरदार ही ठहरे। उसपर भी इनकी पोशाक- चिड़ियों के पंख वाली, सबसे अधिक मोहक लगी मुझे।’-बाबू ने कहा।

‘अब मेरे को इतना न नजर लगा दो कि आगे से नाचना ही भूल जाऊँ। ’-हँसता हुआ गोरखुआ वोला- ‘अब यहीं बैठे केवल गप ही होगी या कहीं घूमने-फिरने का भी विचार है? ’

‘चलो चला जाय कहीं। ’-बाबू ने कहा तो गोरखुआ उठ खड़ा हुआ। उसके साथ ही बाबू भी उठ गये खाट पर से।

दोनों चल पड़े झरने की ओर। मतिया अपने काम में लग गयी- रात के लिए खाना बनाने में। आज दिन में भी हल्का भोजन ही हो पाया था।

उधर रास्ते भर गोरखुआ अलम-गलम ही बतियाता रहा। सुराज और गान्हीं बाबा ही उसकी बातों में छाये रहे।

बाबू ने कहा- ‘जब तुम्हें इतना ही लगाव है, तो गांधी बाबा का ही चेला क्यों नहीं बन जाते हो? देश को अभी भारी संख्या में स्वयंसेवकों की जरुरत भी है। ’

‘बनने को तो मैं बन ही जाऊँ बाबू, मगर बना कैसे जाता है- बतला दोगे तब न।’- गोरखुआ ने खुश होकर कहा- ‘अच्छा, इसबार मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा बाबू। तुम हमें गान्ही बाबा से मिलवा देना। हम बहुत सा उपाय सोचे हैं मन में। गान्ही बाबा से भेट होती तो उनसे कहता। सब मेरा कहा मुताबिक अगर मान गये तो फिर देखता हूँ बाबू कि सुराज अपनी मुट्टी में...। ’

गोरखुआ की बात सुन बाबू हंसने लगे, ‘ठीक है गोरखुभाई इस बार तुम्हें जरुर ले चलूंगा गांधी बाबा के पास। तुम्हें देखकर वे बहुत ही खुश होंगे। ’

इसी तरह की बातें करते दोनों काफी देर तक टहलते रहे, फिर अन्धेरा होते घर वापस आये। मतिया खाना बनाकर बाहर ही नानी के साथ बैठी इन्तजार कर रही थी। और भी दो-चार लोग आकर बैठे थे बाबू से मिलने के लिए।

‘बहुत देर लगा दिये बाबू। ’-आते ही मतिया ने कहा।

‘यह कहो कि इतनी जल्दी आ गया। विचार तो था, गान्ही बाबा से भेंट कराकर, गोरों के हाथ से सुराज छीनकर ही वापस आने का।’- बाबू ने कहा तो वहां बैठे सबके सब हँसने लगे।

‘अच्छा सुराज लाना बाद में, पहले चलो हाथ-मुंह धोओ, खाना खाओ। ’-चटाई पर से उठती हुयी मतिया ने कहा, ‘तुम्हारा भी खाना निकाल रही हूँ गोरखु भाई, खा लो यहीं। ’

भीतर आ, मतिया ने दोनों के लिए खाना परोसा। आज मतिया ने नये ढंग का खाना बनाया था- सब कुछ बाबू के मन लायक- रोटी, दाल, सब्जी, चटनी...।

खाना खाते हुए बाबू ने पूछा- ‘ये सब सामान बनाना तुमने कहां से सीखा मतिया?’- बाबू को आश्चर्य हो रहा था मतिया पर।

‘वाह बाबू! तुम क्या सोचते हो सिर्फ हंडिया बनाना ही जानती है मतिया? तुमलोगों के मुलुक का खाना ऐसा बना देगी कि अंगुली ही चाटते रह जाओगे।’-मतिया की ओर देखते हुए गोरखुआ ने कहा।