आँख की किरकिरी / खंड 1 / पृष्ठ 3 / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
रात में महेंद्र ठीक से सो नहीं पाया। तड़के ही वह बिहारी के घर पहुँच गया। बोला - 'यार, मैंने बड़ी ध्यान से सोचा और देखा कि चाची यही चाहती है कि शादी मैं ही करूँ।'
बिहारी बोला - 'इसके लिए सोचने की जरूरत नहीं थी। यह बात तो वे खुद कई बार कह चुकी हैं।'
महेंद्र बोला - 'तभी तो कहता हूँ, मैंने आशा से विवाह न किया तो उन्हें दु:ख होगा।'
बिहारी बोला - 'हो सकता है!'
महेंद्र ने कहा, 'मेरा खयाल है, यह तो ज्यादती होगी।'
'हाँ! बात तो ठीक है।' बिहारी ने कहा - 'यह बात थोड़ी देर से आपकी समझ में आई। कल आ जातr तो अच्छा होता।'
महेंद्र - 'एक दिन बाद ही आया, तो क्या बुरा हो गया।'
विवाह की बात पर मन की लगाम को छोड़ना था कि महेंद्र के लिए धीरज रखना कठिन हो गया। उसके मन में आया- इस बारे में बात करने का तो कोई अर्थ नहीं है। शादी हो ही जानी चाहिए।
उसने माँ से कहा - 'अच्छा माँ, मैं विवाह करने के लिए राजी हूँ।'
माँ मन-ही-मन बोलीं- 'समझ गई, उस दिन अचानक क्यों मँझली बहू अपनी भानजी को देखने चली गई। और क्यों महेंद्र बन-ठन कर घर से निकला।'
उनके अनुरोध की बार-बार उपेक्षा होती रही और अन्नपूर्णा की साजिश कारगर हो गई, इस बात से वह नाराज हो उठीं। कहा - 'अच्छा, मैं अच्छी-सी लड़की को देखती हूँ।'
आशा का जिक्र करते हुए महेंद्र ने कहा - 'लड़की तो मिल गई।'
राजलक्ष्मी बोली - 'उस लड़की से विवाह नहीं हो सकता, यह मैं कहे देती हूँ।'
महेंद्र ने बड़े संयत शब्दों में कहा - 'क्यों माँ, लड़की बुरी तो नहीं है।'
राजलक्ष्मी- 'उसके तीनों कुल में कोई नहीं। ऐसी लड़की से विवाह रच कर कुटुंब को सुख भी न मिल सकेगा।'
महेंद्र - 'कुटुंब को सुख मिले न मिले, लड़की मुझे खूब पसंद है। उससे शादी न हुई तो मैं दुखी हो जाऊँगा।'
लड़के की जिद से राजलक्ष्मी और सख्त हो गईं। वह अन्नपूर्णा से भिड़ गईं- 'एक अनाथ से विवाह करा कर तुम मेरे लड़के को फँसा रही हो। यह हरकत है।'
अन्नपूर्णा रो पड़ीं - 'उससे तो शादी की कोई बात ही नहीं हुई, उसने तुम्हें क्या कहा, इसकी मुझे जरा भी खबर नहीं।'
राजलक्ष्मी इसका रत्ती- भर यकीन न कर सकीं।
अन्नपूर्णा ने बिहारी को बुलवाया और आँसू भर कर कहा - 'तय तो सब तुमसे हुआ था, फिर तुमने पासा क्यों पलट दिया? मैं कहे देती हूँ शादी तो तुम्हें ही करनी पड़ेगी। यह बेड़ा तुम न पार करोगे तो मुझे बड़ी शर्मिंदगी उठानी होगी। वैसे लड़की अच्छी है।'
बिहारी ने कहा - 'चाची, तुम्हारी बात मंजूर है। वह तुम्हारी भानजी है, फिर मेरे 'ना' करने की कोई बात ही नहीं। लेकिन महेंद्र...'
अन्नपूर्णा बोलीं- 'नहीं-नहीं बेटे, महेंद्र से उसका विवाह किसी भी हालत में न होगा। यकीन मानो, तुमसे विवाह हो, तभी मैं ज्यादा निश्चिंत हो सकूँगी। महेंद्र से रिश्ता हो यह मैं चाहती भी नहीं।'
बिहारी बोला - 'तुम्हीं नहीं चाहतीं तो कोई बात नहीं।'
और वह राजलक्ष्मी के पास जा कर बोला - 'माँ, चाची की भानजी से मेरी शादी पक्की हो गई। सगे-संबंधियों में तो कोई महिला है नहीं, इसलिए मैं ही खबर देने आया हूँ।'
राजलक्ष्मी- 'अच्छा! बड़ी खुशी हुई बिहारी, सुन कर। लड़की बड़ी भली है। तेरे लायक। इसे हाथ से जाने मत देना!'
बिहारी - 'हाथ से बाहर होने का सवाल ही क्या! खुद महेंद्र भैया ने लड़की पसंद करके रिश्ता पक्का किया है।'
इन झंझट से महेंद्र और भी उत्तेजित हो गया। माँ और चाची से नाराज हो कर वह मामूली-से हॉस्टल में जा कर रहने लगा।
राजलक्ष्मी रोती हुई अन्नपूर्णा के कमरे में पहुँचीं; कहा - 'मँझली बहू, लगता है, उदास हो कर महेंद्र ने घर छोड़ दिया, उसे बचाओ!'
अन्नपूर्णा बोलीं- 'दीदी, धीरज रखो, दो दिन के बाद गुस्सा उतर जाएगा।'
राजलक्ष्मी बोलीं- 'तुम उसे जानती नहीं बहन, वह जो चाहता है, न मिले तो कुछ भी कर सकता है। जैसे भी हो, अपनी बहन की लड़की से...'
अन्नपूर्णा- 'भला यह कैसे होगा दीदी, बिहारी से बात लगभग पक्की हो चुकी।'
राजलक्ष्मी बोली - 'हो चुकी, तो टूटने में देर कितनी लगती है?'
और उन्होंने बिहारी को बुलवाया। कहा - 'तुम्हारे लिए मैं दूसरी लड़की ढूँढ़ देती हूँ- मगर इससे तुम्हें बाज आना पड़ेगा।'
बिहारी बोला - 'नहीं माँ, यह नहीं होगा। सब तय हो चुका है।'
राजलक्ष्मी फिर अन्नपूर्णा के पास गईं। बोलीं- 'मेरे सिर की कसम मँझली, मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ... तुम्हीं बिहारी से कहो! तुम कहोगी तो बिगड़ी बन जाएगी।'
आखिर अन्नपूर्णा ने बिहारी से कहा - 'बेटा, तुमसे कुछ कहने का मुँह नहीं है, मगर लाचारी है क्या करूँ। आशा को तुम्हें सौंप कर ही मैं निश्चिंत होती, मगर क्या बताऊँ, सब तो तुम्हें पता है ही।'
बिहारी - 'समझ गया। तुम जो हुक्म करोगी, वही होगा। लेकिन फिर कभी किसी से विवाह करने का मुझसे आग्रह मत करना!'
बिहारी चला गया। अन्नपूर्णा की आँखें छलछला गईं। महेंद्र का अमंगल न हो, इस आशंका से उन्होंने आँखें पोंछ लीं। बार-बार दिल को दिलासा दिया- 'जो हुआ, अच्छा ही हुआ।'
और इस तरह राजलक्ष्मी-अन्नपूर्णा-महेंद्र में किल-किल चलते-चलते आखिर विवाह का दिन आया। रोशनी हँसती हुई जली, शहनाई उतनी ही मधुर बजी जितनी वह बजा करती है। यानी उसके दिल के साथ कोई न था।
सज-सँवर कर लज्जित और मुग्ध-मन आशा अपनी नई दुनिया में पहली बार आई। उसके कंपित कोमल हृदय को पता ही न चला कि उसके इस बसेरे में कहीं काँटा है। बल्कि यह सोच कर भरोसे और आनंद से उसके सारे ही संदेह जाते रहे कि इस दुनिया में एकमात्र माँ-जैसी अपनी मौसी के पास जा रही है।
विवाह के बाद राजलक्ष्मी ने कहा - 'मैं कहती हूँ, अभी कुछ दिन बहू अपने बड़े चाचा के घर ही रहे।'
महेंद्र ने पूछा - 'ऐसा क्यों, माँ?'
माँ ने कहा - 'तुम्हारा इम्तहान है। पढ़ाई-लिखाई में रुकावट पड़ सकती है।'
महेंद्र बोला - 'आखिर मैं कोई नन्हा-नादान हूँ! अपने भले-बुरे की समझ नहीं मुझे?'
राजलक्ष्मी- 'जो हो, साल-भर की ही तो बात है।'
महेंद्र ने कहा - 'इसके माँ-बाप रहे होते, तो मुझे कोई एतराज न होता लेकिन चाचा के यहाँ इसे मैं नहीं छोड़ सकता।'
राजलक्ष्मी (अपने आप)- 'बाप रे आप ही मालिक, सास कोई नहीं! कल शादी और आज ही इतनी हमदर्दी! आखिर हमारी भी तो शादी हुई थी। मगर तब ऐसी बेहयाई न थी।'
महेंद्र ने दृढ़ता से कहा - 'तुम बिलकुल मत सोचो, माँ! इम्तहान में कोई फर्क नहीं पड़ेगा।'