कबीर-- एकल संस्कृति की अमर प्रस्तावना / भवदेव पांडेय

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रचना : डा. भवदेव पांडेय

कबीर की छाती पर जब रामानन्द का अकस्मात पाँव पड़ा तब उन्हें लगा कि उनको एक अद्भुत गुरु मिल गया है। एक ऐसा गुरु जो बहुजन समाजोन्मुख एकल संस्कृति का प्रवक्ता था, जो सार्वभौम और एकात्मक दर्शन का व्याख्याता था और जो अतीतवादी अभिजात परम्परा के विरुद्ध समतावादी समाज का दार्शनिक था। कबीर के लिए इस गुरु का पांव मध्यकालीन समाज का आईना साबित हुआ। उन्होंने पहले स्तर पर गुरुत्व के विराट आईने में अपने को देखा। आईने का रुख समाज की ओर मोड़ा। तमाम बिम्बों-प्रतिबिम्बों के साथ तदयुगीन समाज का समूचा चेहरा उभरकर सामने आया। उनकी विवेक की आँखें खुली और देखा कि अनेक धार्मिक सम्प्रदायों के छद्म गुरु भिन्न-भिन्न पंथों में लोगों को दीक्षित करके आदमी-आदमी में नफरत पैदा कर रहे थे, काल सत्य की खुली अवमानना हो रही थी। कुछ थोड़े से राजशाहों और सामंतों की गिरफ्त में इतिहास छटपटा रहा था। वर्णवाद और वर्गवाद की कारा में कैद समाज गतिशीलता के लिए आतुर तो था, परन्तु मुक्ति का कोई रास्ता नहीं दिखलाई पड़ रहा था क्योंकि हिन्दू और तुरुक धर्मों की बेड़ियों से उनके पाँव बंधे हुए थे और यह सब कुछ शहंशाहों और सामन्तवादियों के इशारे पर चल रहा था। ये ही परिदृश्य थे जिनमें कबीर ने अपनी रचनात्मक भूमिका का निर्धारण किया।

भूमिका के वरीयता क्रम में कबीर ने अपने समय के ठहरे हुए इतिहास को गतिशील बनाने का बीड़ा उठाया। उस समय गुरुतावाद, कर्मकांडवाद और अभिजातीय वर्ग द्वारा आम जनता को शोषित करने की बाढ़ आई थी। सृजन क्षेत्रा में भी खोटे सिक्केबाजों के बाजार गर्म थे। दुकानों पर बहुवादी मुखौटाधारियों का आधिपत्य था। सबसे बड़ी दुकान छद्म गुरुओं द्वारा संचालित की जा रही थी। इसलिए कबीर ने सदगुरु और असदगुरु की परख करने के लिए कुछ निकष तैयार किए। दोनों के चित्र बनाए। इन्हें गुरुदेव के अंग पर अलग-अलग इस प्रकार चस्पा कर दिया कि उन पर लोगों की दृष्टि पड़े और उनमें परख करने की स्वयं चेतना विकसित हो। अगर गौर किया जाये तो यह कबीर का क्रांतिकारी कबीरत्व था। उन्होंने उपदेश देने और शिष्य मूड़ने की प्रवृत्ति के बर-अक्स लोगों में आत्म चेतना जगाने और परीक्षण करने की मौलिक क्षमता विकसित करने को अधिक संगत समझा। कहै कबीर दीवाना का यही मर्म था। इसी मर्म के चलते उन्होंने पारदर्शी शैली अपनाई और कहा कहै कबीर चेतहु रे भौंदू, बोलनहारा तुरक न हिन्दू। वे भोंदू-समाज को बदल कर उत्तरदायी समाज बनाना चाह रहे थे। उत्तरदायी समाज में ही एकल-संस्कृति की कल्पना की जा सकती थी। एकल-संस्कृति के लिए सदगुरु की पहचान करना जरूरी था। असदगुरु से बचना भी जरूरी था। कबीर ने गुरु-प्रत्यभिज्ञा के लिए विस्तृत वार्तिक लिखें। कालजयी अर्थ-ज्ञान के लिए निर्ष्णात वार्तिक लिखना कबीर के ही बूते की बात थी। मिसाल के तौर पर उन्होंने लिखा

-चेतनि चौकी बैसि करि सतगुरु दीन्हाँ धीर।
निरभै होई निसंक भजि केवल कहै कबीर।

यहाँ अस्पष्ट नहीं रह जाता कि मध्ययुगीन इतिहास की अदालत का फैसला केवल कबीर सुना सकते थे। उन्होंने सदगुरु के लिए कुछ नियामक तत्त्व निर्धारित किये यानी जो व्यक्ति शंकाहीन तथा निर्भीक हो, चेतना की चौकी पर बैठा हो, वही सदगुरु होने का अधिकार हो सकता था, ऐसा ही गुरु दीपक दीया तेल भरि बाती दई अघट्ट की जिम्मेदारी सँभाल सकता था। उन्होंने सद्गुरु के कृतित्व का परिचय देते हुए लिखा -

कबीर गुरु गरवा मिल्या रलि गया आटैं लूण।
जाति पाँति कुल सब मिटै, नांव धरौवो कूण॥

देखा जा सकता है कि कबीर ने दूध और पानी की तरह मिलकर एक होने के परम्परागत कथन से भिन्न रले गए आटा और नमक की तरह एक होने का दर्शन पेश किया। यह उनका नया अप्रस्तुत था। उन्होंने इस अप्रस्तुत द्वारा सांस्कृतिक सौन्दर्यशास्त्र की नयी अवधारणा अंकुरित की। यह कबीर के रसत्व-विवर्धन की सौंदर्य-चेतना थी। वे भली भाँति जानते थे कि दूध और पानी के मिलने के बाद दूध का भाव घटता है परन्तु आटा और नमक के मिलने से भाव चढ़ता है। आस्वाद में भी अंतर पड़ता है । दूध और पानी मिलकर आस्वाद का विघटन करते हैं, जबकि आटा और नमक मिलकर आस्वाद का विवर्धन। मिले हुए दूध और पानी में अलगाव की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता। सूरदास ने लिखा है-हम जातहि वह उघरि परैगी दूध दूध पानी सो पानी। इसके विपरीत रलने की कला में कुशल गुरु द्वारा मिलाए हुए आटा और नमक को अलग नहीं किया जा सकता। साखी'में रलि शब्द का प्रयोग भी अनूठा है। रलन (ललन) सौन्दर्य शास्त्रीय शब्द है। कबीर द्वारा प्रस्तुत रलि शब्द का प्रयोग परवर्ती कवियों द्वारा आमोद के अर्थ में किया जाने लगा। कबीर के समकालीन सूरदास ने ही लिखा-

चली पीठ दै दृष्टि फिरावत अंग आनन्द रली।

यानी जिस प्रकार किसी सुन्दर नारी के अंग और लावण्य में अद्वैत सौन्दर्य सम्बन्ध होते हैं, उसी प्रकार कबीर के आँटा-लूण के सौन्दर्य शास्त्रीय सम्बन्ध थे। कबीर की यह मौलिक एकलता थी जिसकी कल्पना सूर, तुलसी और जायसी ने नहीं की थी।

कबीर के समय में सामासिक संस्कृति' जैसा समस्वित पद व्यवहार में नहीं था। अगर होता भी तो कबीर अपने समय के इतिहास के लिए नाकाफी समझते क्योंकि सामासिक संस्कृति में एकपदीयता के अद्वैत की संभावना नहीं की जा सकती थी। इसमें पूर्वपद और उत्तरपद के अस्तित्व बने रहते हैं। कबीर पूर्व और उत्तर दोनों को मिलाकर एकाकार करना चाहते थे। यह उपलब्धि एकल संस्कृति द्वारा ही संभव थी। इसलिए उन्होंने लिखा -

वेद पुरान कुरान कितेवा नाना भाँति बखानी
हिन्दू तुरक जैन अरु जोगी एकल काहु न जानी।

स्पष्ट है कि वे धर्म, संस्कृति, राजनीति, समाज और उपासना के हर स्तर पर नानात्व का विखंडन करके एकलता की स्थापना करना चाहते थे। उनका रचना कर्म नानात्व को एकल बनाने का संघर्ष था। उनकी सृजन-यात्रा का अंतिम पड़ाव था, एकल-भाव की चरम उपलब्धि। अपने राह भटकते समाज को उन्होंने बार-बार समझाया-

एक बूँद एकै मलमूतर एक चाम एक गुदा।
एक जोति तै सब उपजा कौन ब्राहमन कौन सूदा।
...
एकै पवन एक ही पानी एक जोति संसारा
एक ही खाक घडे सब भाँडा एक हील सिरजन हारा।
...
इनमें आप आप सबहिन में आप आप सुखेलै
नाना भाँति गढे+ सब भाँडे रूप धरै हरि मेलै।

गौर करने पर अज्ञात नहीं रहेगा कि कबीर काल-विवेक के समुच्चय थे। उनके समुच्चय के केवल एक अंश ने ही उनकी कविता का रूप धारण किया था न कि सम्पूर्ण ने । संपूर्ण तो उनका व्यावहारिक जीवन था जो इतिहास के अज्ञात फैलाओं में ही कहीं तूर्यमान हो रहा था। परन्तु इतना सत्य है कि उनकी समुच्चयता का जितना भाग काव्य-रूप में परिणत हुआ वह मध्य काल के सभी रचनाकारों के सम्पूर्ण के बराबर था। इस रहस्य को उन्होंने बड़ी सांकेतिक शैली में व्यक्त किया था-हेरत हेरत हे सखी रहा कबीर हेराय/बूँद समानी समुद्र में सो कत हेरी जाय।

देखा जाय तो मध्यकाल के अभिजातीय इतिहास की पोथियों ने कबीर को हेरने की कोई प्रक्रिया नहीं शुरू की। यहॅां प्रश्न यह उठता है कि कबीर ने अपने को जितना हेरा जाने दिया उसको हम किन माध्यमों उपादानों और उपकरणों द्वारा ढूढें आज कबीर के व्याख्याताओं के सामने सबसे दुरूह प्रश्न यही है। अब तो केवल उन संकेत माध्यमों से ही संतोष करना पड़ेगा जो कबीर की रचनाओं में इधर-उधर बिखरे हैं।

कबीर की समुद्र में बूँद के मिल कर एक हो जाने की ऐतिहासिक संवेदना का पाठ अध्यात्म और दर्शन के परिपे्रक्ष्य में ही नहीं किया जाना चाहिए बल्कि उनके जैसे रचनाकार द्वारा समुद्रवत विस्तृत समाज को आत्मसात्‌ कर लेने के समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में भी किया जाना चाहिए। आज यह जानना बहुत जरूरी हो गया है कि वे अपने समय का कितना हिस्सा ढूँढ़ पाए और कितने को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते उसी में खप-पच गए। इतिहास अन्वेषियों के समक्ष यह एक बड़ा सवाल खड़ा होता है जिस पर गहराई के साथ विमर्श शुरू किया जा सकता है। यदि किन्हीं स्रोतों द्वारा कबीर द्वारा अनन्वेषित रह गए कालांश पर प्रकाश डाला जा सके तो एक नये कबीर की तस्वीर तैयार की जा सकती है ।

ऐसा लगता है कि नये कबीर के मीमांसकों के सामने महत्त्वपूर्ण समस्या उपस्थित हो सकती है। (कबीर) द्वारा प्रयुक्त ÷राम' पद को ठीक-ठीक समझने की राम कबीर के अध्यात्म दर्शन, साधना, उपासना और काल चेतना सब कुछ हो सकते हैं। बार-बार राम पद का प्रयोग करते हुए उन्होंने तमाम ऐसे संकेत दिए हैं जिनसे ज्ञात होता है कि उन्होंने राम का प्रयोग अपने समय के प्रतीक रूप में किया था। जब वे पूछते हैं कि राम बड़ा कि रामहिं जानै तब ऐसा लगता है कि वे रामज्ञ ( समय के ज्ञाता) को राम (समय) से बड़ा प्रमाणित करना चाहते थे क्योंकि उनका समय (इतिहास) एक नये समय में बदल रहा था। वे समयज्ञ को ही कालजयी मानते थे। कबीर का सारा सृजन-संघर्ष राम को जान कर राम से बड़ा हो जाने के लिए था। मध्यकालीन राम-भक्ति शाखा में राम से बड़ा होने की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी। तुलसीदास ने रामचरितमानस के प्रारंभ में लिख दिया था

-बन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामरव्यमीशं हरिम।'

राम भक्ति शाखा में राम सगुण और निर्गुण दोनों दशाओं में नेति थे सारद सेस महेश विधि आगम निगम पुरान नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरन्तर गान। राम भक्ति वादियों में राम बड़ा अथवा राम को जानने वाला बड़ा का द्वन्द्व नहीं था।परन्तु कबीर का सम्पूर्ण रचना-द्वन्द्व इस रहस्य को जान लेने का था। इसलिए कबीर को लिखना पड़ा - झगरा एक निबेरो राम। वेद बड़ा कि जहाँ थे आया?

तुलसीदास की तरह कबीर राम को अपरिवर्तनशील चेतना नहीं मानते थे। वे गतिशील समय में राम के परिवर्तित होते चलने के विचार को ही संगत और प्रासंगिक समझते थे। इसी संदर्भ में उन्होंने लिखा -

काबा फिर कासी भया राम भया रहीम।
मोट चून मैदा भया बैठि कबीरा जीम।

यह राम का निर्गुण आस्वाद था, न ही सगुण बल्कि राम का रहीम में बदल कर मोटे अनाज के मैदा हो जाने की तरह था। कोई भी राम भक्त कबीर के इस रूपक से सहमत नहीं हो सकता। वह यह बर्दाश्त तक नहीं कर सकता कि राम मोटे अनाज की तरह थे जो काल की चक्की में पिस कर रहीम (मैदा) हो गए थे। यही कबीर की एकल संस्कृति थी यानी मैदा-संस्कृति जिसमें पूर्व पद राम और उत्तर पद रहीम दोनों मिलकर एक हो गए थे। आधार और आधेय की चरम एक रूपता ही कबीर की एकल संस्कृति थी। आज कबीर के परिवर्तनशील राम को तद्युगीन इतिहास की चेतना के निकष पर ही परखा जा सकता है। कबीर के काव्य में राम के इस रूप को अभी नहीं समझा गया है। कबीर के राम को काल-पर्याय के रूप में अन्वेषित करने के बाद ही नये कबीर की प्रतिमा खड़ी की जा सकती है। इसी क्रम में हेरत-हेरत हे सखी कबीरा गया हेराय की प्रासंगिकता भी समझी जा सकती है। अनन्त काल के रामत्व को ढूंढ़ने का लक्ष्य लेकर वे रचना और साधना के क्षेत्र में उतरे थे। काफी कुछ कृत मनोरथ हुए थे। अन्वेषण-प्रक्रिया के दरम्यान खो जाने की नियति केवल उनकी ही नहीं थी। बहुत लोग तो उतना ही नहीं तलाश कर सके जितना उन्होंने किया था। अन्तर इतना था कि उन्होंने खो जाने का सत्य स्वीकार कर लिया था, जबकि दूसरे लोग इसे छिपा ले जाते हैं। जड़तावादी तथा परिवर्तन विरोधी वर्ग द्वारा काल-सत्य की उपेक्षा करना कबीर के लिए असह्‌य था। जड़ परम्परावाद की पूँछ पकड़कर सार्थक समाज की वकालत करने वालों पर उनका व्यंग्य-बाण निरन्तर चलता रहता था। वे भारतीय समाज को समुद्र की तरह विस्तृत देख रहे थे क्योंकि यहाँ अनेक धर्म, अनेक पंथ, अनेक भाषाएँ और अनेक सांस्कृतिक प्रथाएँ अलग-अलग क्षेत्रों में प्रचलित थीं, परन्तु कबीर इन अनेकताओं में एकता का ही बोध बाँट रहे थे यानी समुद्र एक परन्तु लहरें अनेक के दर्शन का बोध। रहन-सहन, रीति-रिवाज, खान-पान और पहनावा-ओढ़ावा ऊपरी अनिवार्यताएँ थीं परन्तु सबकी अन्तरात्मा एक थी। वे इसी अन्तरात्मा की खोज कर रहे थे। इस अभेद की तलाश का लक्ष्य लेकर उन्होंने लिखा -

व्यापक ब्रह्म सबनि में एकै को पंडित को जोगी
राणा रंक कवन सु कहिए कवन वैद को रोगी।
इनमें आप आप सबहिन में आप आप सु खेलै
नाना भाँति गढ़े सब भाँडे रूप धरै हरि मेलै।

कबीर के इस कथन को उनके अद्वैत ब्रह्मवाद तक सीमित नहीं किया जा सकता। यह उनका सामाजिक दर्शन भी था। दर्शन और संस्कृति दोनों धरातलों पर वे विवर्त्तवादी बोध के मध्ययुगीन साधु थे। तत्त्वज्ञान का उद्घोष करने से वे कभी नहीं थके। उन्होंने लिखा -

कबीर इस संसार को समझाऊँ कै बार,
पूँछ जो पकड़ै भेद की उतर्‌या चाहे पार।

कबीर के लिए समुद्र की तरह फैले भारतीय समाज और संस्कृति का संतरण केवल अभेद भाव द्वारा संभव था। हालांकि वे भाववादी नहीं थे, परन्तु उन्होंने अभाववादी ज्ञान को मान्यता कभी नहीं दी। चारों वेद के ज्ञानवाद में उरझि पुरझि कर मरने वालों को वे साहस पूर्वक धिक्कारते थे। उनके अनुसार जिहि घटि प्रीति न प्रेम रहा उसे वे समाज का निरर्थक अस्तित्त्व मानते थे। इसीलिए कबीर के समय में बिरले लोग ऐसे थे जो उनके दोस्त बन सके। वे अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति करते हुए कहा करते थे, भाई रे बिरले दोसत कबीरा के हालांकि वे भलीभाँति जानते थे कि उनके दोस्तों की संख्या क्यों कम थी, परन्तु उन्होंने क्यों से समझौता बिल्कुल नहीं किया। समाज को सही रास्ते पर लाने के लिए उन्हें जो जब सही सूझा, उसका प्रयोग किया। उन्होंने छद्म सिद्धान्तों की गाँठ कभी नहीं बाँधी। वे विविध होकर भी विधेय के एकत्व की खोज कर रहे थे। सिद्धान्तवादियों को इस प्रकार का कबीरत्व चुभता था। यही कारण था कि वे उनसे दूर करना चाहते थे। सिद्धान्तवादी वेद और दर्शन द्वारा निरूपित सत्य को परम मानते थे। कबीर का सत्य काल-सापेक्ष सत्य था। काल-सापेक्ष सत्य की पक्षधरता के कारण ही उन्हें योगी और जंगम दोनों असत्य प्रतीत हुए -

कहै कबीर जोगी और जंगम ए सब झूठी आसा।

कबीर के सृजन का प्रत्येक क्षण लुआठी की तरह सुलगता रहता था। सुलगते रहना उनके रचनात्मक तनाव का ही प्रतीक था। वे अपने सृजन की लुआठी लेकर बीच बाजार में खड़े हो गए और पुकार-पुकार कर कहने लगे -

कबिरा खड़ा बाजार में लिये लुआठी हाथ,
जो घर जारै आपनो चले हमारे साथ।

कबीर द्वारा लगाई गई यह शर्त तद्युगीन समाज के लिए काफी कठोर थी। उस समय का पूरा समाज छद्म घरों और घरानों के भारी भ्रम में जी रहा था। अभिजातों के अपने घर थे जो उपयोग के केन्द्र बने हुए उपभोक्ता वर्ग की वकालत में लगे थे, धर्मावलंबियों के अपने घर थे जो लोगों में पंथगत भेद पैदा कर अंधतावाद फैलाने की भूमिका रच रहे थे, मायावादियों के भी निजी घर थे जिनमें सगुण-निगुर्ण के झगड़े मचे थे, पैगंबरवादियों के घरों में हिंसा और तांत्रिकों के घरों में नग्न मैथुनवाद का बोलबाला था। कबीर की सृजन-यात्रा इंसानपरस्ती की अभियान यात्रा थी। इस अभियान-यात्रा में उन्हें मत-मतान्तर वादियों की जरूरत नहीं थी। ये ही कारण थे कि उन्होंने जो घर जारै आपनो चले हमारे साथ' जैसी कठिन शर्त लगाई थी। उन्होंने सदगुरु के आइने में देखकर अनुभव किया था -

कबीर भेष अतीत का कर तूति करै अपराध
बाहर दीसे साध गति माँहै महा असाध।

कबीर को अतीतवादी वेश-भूषा के प्रचारक घरों की क्षुद्र सीमाएँ अज्ञात थीं। उन्हें बाहरी आडम्बरों से चिढ़ थी और अपराधियों से घृणा थी। ऐसे लोगों को सामाजिक मान्यता देकर एकल-संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती थी। इसलिए वे बीच बाजार में खड़े होकर मोहासक्त घरों को जला देने का ऐलान करने लगे।

यहाँ यह कहना कि कबीर का बाजार मायालीन असार संसार का रूपक था, उनकी रचनात्मक यात्रा को नजर-अंदाज करना होगा। सही तो यह कहना होगा कि उनका बाजार दलित, शोषित और अभिजातीय वर्ग द्वारा उपेक्षित जनों की अभिव्यक्ति -भूमि था। उपेक्षितों की अभिव्यक्ति-भूमि पर खड़े होकर और हाथ की लुआठी फहराकर कबीर ने उपभोक्तावादियों को खुली चेतावनी दी कि एक दिन दलित वर्ग के लोग रूई लपेटी आगि की तरह प्रज्ज्वलित होकर शोषकों की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को खाक कर देंगे। उन्होंने छद्म कुलीनतावादियों को चेतावनी दी थी ऊजल कपड़ा पहिर कर पान सुपरी खाहिं' का वर्ग जल्दी ही विनष्ट होने वाला था। उन्होंने साफ-साफ कहा -

मीयां तुम सौ बोल्यां बणि नहीं आवै।
हम मसकीन खुदाई बंदे तुम्हारा जस मन भावै।
अलह अवलि दीन का साहिब जोर नहीं फुरमाया।
मुरसिद पीर तुम्हारै है को कहौ कहाँ थे आय।

कबीर ने अपने आक्रामक सवालों द्वारा उन लोगों को गहरी चोट पहुँचाई थी जो धर्म का विपणन कर रहे थे अथवा जो राजा राणा छत्रपति बने हुए अपने ऊँचे महलों के मद में ग़ाफिल थे। एक तरफ कबीर के इन सवालों ने सामन्तों और मनसबदारों को आहत किया था तो दूसरी तरफ दासों, निर्धनों और शोषितों में आत्मनिष्ठा जगाई थी, उनको अपना वजूद पहचानने की शक्ति दी थी और अवरोधों को तोड़कर आगे बढ़ने का हौसला बुलन्द किया था।

इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि कबीर आत्म प्रक्षेपण के संत कवि थे। तमाम असंतों के दबाओ के बावजूद उन्होंने अपनी संतई नहीं छोड़ी थी। उनकी संतई में विनम्रता तो थी परन्तु आत्म समर्पण नहीं था। रचना की लुआठी लेकर बाजार के बीचो बीच खड़े कबीर का झुकना कैसा! वे अपनी बनारसी अक्खड़ता को दोनों हाथों लुटा रहे थे। उन्होंने जिन दलितों-शोषितों को कबीर बना दिया था, उनको हिम्मत दिलाते हुए कहा -

कबीर तू काहे डरै, सिर परि हरि का हाथ।
हस्ती चढ़ि नहीं डोलिए कूकर मुकैं लाख।

यह कम आश्चर्य की बात नहीं थी कि अकेले कबीर ने अपने समय के दलित-वर्ग को स्वाभिमान के हाथी पर बैठाने की जिम्मेदारी महसूस की थी। ये ही हथिचढ़े कबीर के साधो, संतों और अवधू बने जिन्हें समझाते हुए उन्होंने कहा, संतो सो अनभै पद गहिए। शैली अपनाई द्विअर्थी। यह उनकी आवश्यक विवशता थी। पहला अर्थ अध्यात्मवादियों के लिए था जो दूसरा समाज के निम्न और मध्यवर्ग के लिए। २०वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक कबीर के दूसरे अर्थ को पर्दे के पीछे डाल देने की साजिश चलती रही, परन्तु ज्वलंत कब तक चुप बैठता। आज कबीर के सृजन का दूसरा अर्थ लोगों के सिर चढ़कर बोलने लगा है।

मध्यकाल में कबीर को परम्परावादी अभिजातीय वर्ग के अनेक प्रहार झेलने पड़े थे। हालांकि वे झेलने के कवच थे परन्तु जब तब चोट लग ही जाती थी, दर्द भी होता था। ऐसे ही किसी दर्द की अभिव्यक्ति करने के लिए उन्हें लिखना पड़ा था -

अभिअंतरि मन रंग समाना लोग कहै कबीर बौराना,
रंग न चीन्है मूरख लोई जिहि रंग रंग रह्‌या सब कोई॥

आखिर कौन लोग थे जो कबीर को पागल साबित करना चाहते थे? उत्तर अस्पष्ट नहीं है। कबीर को पागल कहने वालों में हिन्दू भी थे मुसलमान भी, वैष्णव भी, गोरखपंथी भी तथा ब्रह्मवादी भी यानी समय को मुट्ठियों में बंद कर अपनी-अपनी दुकान चलाने वाले सभी धर्मों-सम्प्रदायों के लोग थे। कबीर ने इन सभी को झेला और जो सत्य समझा उसे दबंगई के साथ कहा। कबीर बौराना कहने वालों को उलटकर उत्तर भी दिया, रंग न चीन्हें मूरख लोई यानी कबीर को विक्षिप्त कहने वाले वे लोग थे जो समय के रंग की परख करने में असमर्थ थे और अपनी मूर्खता को ही काल-सत्य मान रहे थे। कबीर को इसी मूर्ख समूह से लोहा लेना पड़ा था। उन्होंने देखा कि तदयुगीन मूर्खों का समूह नानात्ववादी था। उन्हें मनुष्य मात्र में विद्यमान एकत्व का अन्तः सूत्र नहीं दिखलाई पड़ रहा था।

वास्तव में तदयुगीन समाज का यह अनर्थकारी दृष्टि-रोग था। इसकी शल्यचिकित्सा जरूरी थी। इस दृष्टि-रोग के चलते लोग अन्धे होते जा रहे थे। उन्होंने देखा कि अंधै अंधा ठेलिया दून्यूं कूप पड़न्त की महामारी फैली हुई थी। आपरेशन जरूरी था। इसके लिए उन्होंने तमाम औजारों का परीक्षण किया। उन्हें जो सबसे अधिक कारगर औजार दिखलाई पड़ा, वह था राम। यह उनका सहज चिकित्सा उपकरण था। अपनी पहचान पर उन्हें खुद आश्चर्य हुआ। उन्होंने लिखा, सहज सहज सब कोई कहै, सहज न चीन्हैं लोग। परन्तु उन्होंने चीन्ह लिया। इसी उपकरण को लेकर उन्होंने तमाम अन्धों को आँखें दीं। देखने और पहचानने का अभ्यास कराया, समझाया -

कबीर औगुंण ना गहै, गुण ही कौं ले बीति।
घट घट महु के मधुप ज्यूँ पर आतम ले चीन्हि।

उन्होंने उन्हें भी दृष्टि दान किया जो उन्हें पागल कह रहे थे। यदि वे बीनने और चीन्हने में समर्थ हुए तो उन्हें भी अपने अवधू वर्ग में सम्मिलित कर लिया। उनसे स्पष्ट रूप से कहा -

सीतलता तब जाणियें समिता रहै समाइ
पष छाडै निरपष रहै, सबद न दूष्या जाय।

कबीर ने दृष्टि यानी विचारों में व्याप्त जलन दूर करने के उपचार सुझाये उनका उपचार था प्रत्येक मनुष्य को समता की नजर से देखना हठवादी पक्षधरता का परित्याग करना और समता की भावना रखते हुए निष्पक्ष बने रहने का सामाजिक जीवन जीना। उन्हें लगा कि भारतीय समाज शब्दों के प्रदूषण से आक्रान्त था। सामन्तों और कुलीनतावादियों द्वारा दलितों और दासों के प्रति शब्द-न्याय तक नहीं किया जा रहा था। पादस्थ वर्ग के लिए अपमान जनक भाषा का प्रयोग किया जा रहा था। तथाकथित पंडितों की भाषा कूप-जल की तरह प्रवाहहीन हो गई थी। इसलिए कबीर ने सांस्कृतिक समत्त्व की स्थापना के लिए नया सबद-धर्म चलाने का संकल्प किया। कुशब्द और सुशब्द की संहिताएँ लिखीं। भाषाई परिष्कार की जंग छेड़ी। कुशब्दों की चोट से घायल वर्ग की ओर से गवाहियाँ देते हुए भाषा के एक पक्षीय न्यायालय को ललकारा। जैसे -

अणी सुहेली सेल की पंडता लेइ उसास।
चोट सहारै सबद की तास गुरु मैं दास।

मध्यकालीन इतिहास लेखकों ने शब्दों के अनुशासनहीन वर्गवाद पर ज्यादा प्रकाश नहीं डाला है। उस काल के प्रायः सभी रचनाकारों ने भाषा की उच्छृंखलता की ओर संकेत किया था। तुलसीदास तक ने लिखा-

बूँद अघात सहैं गिरि कैसे, खल के वचन संत सह जैसे।

यह भाषाई समतावाद की लड़ाई थी जिसके कमांडर कबीर थे।

अगर आज कबीर के सम्पूर्ण रचना दर्शन की ब्योरेवार व्याख्या की जाये तो हमें एक ऐसा कबीर मिलेगा जो आगे आने वाले हजार वर्षों के समाज को जीवन जीने के नये साधन प्रस्तुत करेगा। उन्होंने महत्त्व प्रधान सामाजिक दर्शन और सार्वभौम एकल-संस्कृति के बीज बोकर रचना का एक ऐसा उद्यान तैयार किया जिसमें फल तो विभिन्न रंग के खिले परन्तु सब में प्रभाव का अभिन्नत्व था। इसी संदर्भ में उन्होंने लिखा था,

रंग न चीन्हें मूरख लोई जिहि रंग रंग रह्‌या सब कोई।

भक्ति, उपासना, हठयोग-दर्शन, अद्वैत, निर्गुण, सगुण, माया, जीव, जगत, धर्म, कर्म, ज्ञान, विज्ञान, गुरु, शिष्य, निन्दा, स्तुति, उलटबासी, रहस्य-कथन और अपने समय के यथार्थ का उद्घाटन आदि उनके आनुषंगिक प्रसंग थे। इन सभी प्रसंगों में उनकी आधारिक चेतना थी एकल-संस्कृति। उन्होंने अपने समय को आधार बनाकर जिस अन्तः बोध का अन्वेषण किया था, उसके केन्द्र में सम्पूर्ण आदमी की तलाश थी। इसलिए संसार में जब तक आदमी का अस्तित्व रहेगा तब तक कबीर की रचना भी जीवित रहेगी। स्पष्ट है न आदमी मरेगा न ही कबीर का काव्य मरेगा।