गालियां रोको गोलियां चलने दो ! / जयप्रकाश चौकसे

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गालियां रोको गोलियां चलने दो !

प्रकाशन तिथि : 03 जनवरी 2011

सात जनवरी को प्रदर्शित होने जा रही रानी मुखर्जी एवं विद्या बालन अभिनीत फिल्म 'नो वन किल्ड जेसिका' का टाइटिल ही अवाम की उदासीनता को रेखांकित कर रहा है। उस रात लगभग सौ लोग घटनास्थल पर मौजूद थे, परंतु किसी ने भी यह नहीं कहा कि उन्होंने कातिल को देखा है। फिल्म के प्रोमो में वकील एक गवाह से कहता है कि अब तो नीचे आ जाओ। वह गवाह घटना के समय खुद को छत पर मौजूद बता रहा है। उस पार्टी में दिल्ली के अनेक अमीर और प्रसिद्ध लोग मौजूद थे और सभी कत्ल के चश्मदीद गवाह थे व कातिल को अच्छी तरह जानते थे। 'स्लमडॉग मिलिनेयर' के लेखक ने भी इसी हत्याकांड पर आधारित 'सिक्स सस्पेक्ट्स' नामक उपन्यास लिखा है। इस कांड को तो मीडिया ने न केवल जिंदा रखा, वरन कातिल को सजा दिलाने तक सुर्खियों में भी रखा। सोनिया गांधी की पहल भी महत्वपूर्ण सिद्ध हुई।

दरअसल अवाम की उदासीनता और सत्य से निगाह चुराने के दो कारण हैं- एक तो यह कि मुकदमे लंबे समय तक चलते हैं और दूसरा यह कि आरोपी अनेक प्रकार के दबाव बनाते हैं तथा प्राय: हिंसा का प्रयोग भी होता है। देश में निरंतर अन्याय होते रहने के कारण भी लोग हताश हैं।

तीन या चार दशक पूर्व आई हॉलीवुड की 'इंसीडेंट' नामक फिल्म में रेल के एक डिब्बे में एक बुजुर्ग व्यक्ति, जो नशे में धुत है, की नायक मदद करता है। दो गुंडे डिब्बे में आकर बारी-बारी से मुसाफिरों को लूटते हैं और अपमानित भी करते हैं। जब अपराधी एक अबोध बालिका के साथ अभद्र होने लगते हैं, तब नायक (जिसके सीधे हाथ में प्लास्टर चढ़ा है) उन अपराधियों को प्लास्टर वाले हाथ से पीटता है। उसे टूटी हड्डी में दर्द होता है, परंतु वह अपराधियों की पिटाई जारी रखता है। ट्रेन रुकती है, वृद्ध शराबी नीचे गिर पड़ता है। वह बेहोश है। मुसाफिर उस पर से कूदकर निकल जाते हैं। वे पुलिस के आने और पिटे हुए अपराधी के पंचनामे से पहले घटनास्थल छोड़ देना चाहते हैं। नायक को बहुत दुख होता है। वह पुन: बेहोश वृद्ध को ठीक से लिटाता है। उसे लोगों की उदासीनता पर आश्चर्य है।

भारत में यह जेसिका प्रकरण कानून की लंबी प्रक्रिया और व्यवस्था के ठप होने को दिखाता है। सच की गवाही देने में जोखिम है और अपराधियों के दुस्साहस के सामने सरकार लाचार है। इसी विषय पर राजकुमार संतोषी की ऋषि कपूर व मीनाक्षी शेषाद्रि अभिनीत 'दामिनी' महान फिल्म थी। हमारे राष्टï्रीय चरित्र में ही यह बात समा गई है कि स्वयं को झंझट से बचाए रखो और उलझन देखकर बचकर निकल जाओ। व्यक्तिगत साहस सामाजिक असुरक्षा के सामने स्वयं को लाचार पाता है।


'नो वन किल्ड जेसिका' के प्रोमो में रानी मुखर्जी एक तमाशबीन से कहती हैं कि मौका-ए-वारदात पर होते तो ...बीप... (ध्वनि हटा दी गई है) हो जाती। रानी के अंदाजे बयां और होंठों की हरकत से स्पष्टï है कि उन्होंने किस असंसदीय शब्द का इस्तेमाल किया है। आज बदले समाज में महिला वर्ग भी इन तथाकथित अपशब्दों का इस्तेमाल करता है। टेलीविजन और सिनेमा में 'बीप' की ध्वनि का इस्तेमाल किन अपशब्दों को हटाने के लिए किया जाता है, उनसे अवाम अच्छी तरह परिचित हो गया है। गोयाकि 'बीप' ही अभद्र हो चुका है। अब 'बीप' छुपाता कम है, उजागर अधिक करता है। यह भी गौरतलब है कि जिस रीढ़हीन समाज में चश्मदीद गवाह साफ मुकर जाते हैं या अनुपलब्ध रहते हैं और फिल्मकार को मजबूर होकर कहना पड़ता है कि जेसिका का कत्ल किसी ने नहीं किया, वह कत्ल ही नहीं हुई; उस समाज में मासूम से अपशब्द को बदलकर ज्यादा अश्लील 'बीप' डालना पड़ता है। क्या गालियां रोकना, गोलियों को चलने से रोकने से ज्यादा आवश्यक है ?