धिन्तारा / मनोज श्रीवास्तव
धिन्तारा के माई-बाप स्वर्ग सिधार गए तो क्या हुआ! सारा गाँव उसका है। वह जिस घर में चाहे, वहाँ जाकर रहे। लेकिन हमें यह मंजूर नहीं है कि वह शहर जाकर नौकरी करे। यह हमारे गाँव की इज़्ज़त का सवाल है...। धीमन केवट ने हाथ उठाकर अपना फैसला सुनाया। उत्तेजित भीड़ की गड़गड़ाती तालियों और कहकहों से सारा चौपाल गूँज उठा। सभी के मन की इच्छा जो पूरी हुई थी।
तभी पंचों में से रामजियावन ने खुशी से कंधे उचकाते हुए सभी को शांत किया, "पंचों का निर्णय यह है कि आज से धिन्तारा इस गाँव से बाहर नहीं जाएगी, दूसरी जनानियों की तरह। अगर उसे अपनी तालीम के बेकार जाने का पछतावा है तो पंचों का हुकुम है कि वह गाँव के बच्चों को पढ़ाए। बदले में, हम उसे खाना-खर्चा देंगे। उसकी देखरेख करेंगे। हिफ़ाज़त करेंगे।"
उनकी बातें सुनकर, धिन्तारा की नाक के ऊपर से पानी बहने लगा। चेहरे से लपटें निकलने लगीं। वह सभी बंदिशों को ठोकर मारकर एक अलग रास्ता चुनेगी। उसने न दुपट्टा सम्हाला, न ही बाल समेटे। बस, मुट्ठी भींचकर दौड़ पड़ी और चौपाल के बीच आ-खड़ी हुई।
उसकी इस शोखी पर सभी ने दाँतों तले अंगुली दबा ली--"कितनी बज़्ज़ात औरत है!"
"यह सरासर नाइंसाफ़ी है। मेरे ऊपर ज़्यादती है। आपलोग मेरा भविष्य चौपट कर रहे हैं। आखिर, मैंने चूल्हा-चौका करने के लिए तो बी.ए. पास किया नहीं है। कितनी मेहनत के बाद, यह पुलिस इन्स्पेक्टरी की नौकरी मिली है? केवटाना गाँव की कोई लड़की पहली बार पढ़-लिखकर शहर जा रही है, नौकरी करने। आप मर्दों में तो कोई दमखम रहा नहीं। सारे के सारे अंगूठा-छाप हैं। चिट्ठी-पत्री तक तो पढ़ नहीं सकते। बस, पतवार लेकर नावों में सवार रहते हैं। मछली पकड़ने के जुगाड़ में, नदी में जाल डाले हुए, पालघर से झाँकते रहते हैं।
उसका गुरूर से सिर झटकना सबके गले की हड्डी बन गया। बेशक! उसने केवटों और मछुआरों की सदियों पुरानी आजीविका की खिल्ली उड़ाई थी। उनकी ज़िंदगी को हिकारत से देखा था।
ठिंगना दुक्खीराम तक आपे से बाहर हो उठा, "पंचों के फ़ैसले का छीछालेदर करने वाले को हम नहीं बख्शेंगे। इस दुधमुँही छोकरी की यह मजाल कि वह हमें सरेआम नंगा करे! इसने अपना लाज-शरम तो उसी दिन बेच दिया था, जिस दिन इसके बाप बब्बन ने इसे पढ़ने तहसील भेजा था। अच्छा हुआ, साला भरी जवानी में ही मर गया। नहीं तो, वह अपनी छोकरी को पढ़ाने-लिखाने के बहाने कोठे पर बैठाकर ही दम लेता। हरामज़ादी नौकरी करेगी, हमारी बिरादरी की औरतों की नाक कटाएगी। साली का झोंटा खींचकर चार लप्पड़ लगाओ, इसका दिमाग ठिकाने लग जाएगा।"
खिलावन को दुक्खीराम की तैश बहुत भली लगी. धिन्तारा उसकी होने वाली लुगाई जो ठहरी. इसलिए उसके कोई ऊटपटांग करने पर गाँव वालों से पहले उसके आन पर आंच आएगी. खुद बब्बन ने उसके बाप रामजियावन से कह-सुनकर धिन्तारा के साथ उसका रिश्ता तय किया था--"रामजियावन, अगर हमारी मेहरारू ने लड़की पैदा किया तो ऊ तुम्हारी बहू बनेगी." सो, जिस दिन धिन्तारा पैदा हुई, उसी शाम बब्बन, रामजियावन के घर जाकर सगुन भी कर आया था. तब, खिलावन भी हंसता-खेलता बच्चा था, कोई साढ़े चार साल का. खिलावन की आँखों में ये सारी घटनाएं ताजी थीं. सो, चौपाल में जिसका सबसे ज़्यादा खून उबल रहा था, वह खिलावन ही था. वह वहीं से दहाड़ उठा, "इ सुअरी, शहर जाएगी तो किसी कुजात से इशक लड़ाएगी और ब्याह रचाएगी. इससे हमारी जात पर लांछन आएगा. हम ठहरे खांटी केवट. हमारे ऊपर भगवान राम का आशीर्वाद है. सीता मैया का आशीर्वाद है. सो, हमारा नाक कटाने से पहले ही, हम इसका गला रेत देंगे." चौपाल में जमा वहशी भीड़ खिलावन की बात सुनकर, धिन्तारा को चुन-चुनकर गालियाँ देने लगी. जवान लौंडे गुस्से से बेकाबू हो रहे थे. खिड़कियाँ झांकती औरतें धिन्तारा के शेखी बघारने पर ताज्जुब कर रही थीं. सोच रहीं थी कि 'चलो, छाती तानकर वह रोज साइकिल से स्कूल जाती थी, हमने बरदाश्त कर लिया. लेकिन, यह तो हैरतअंगेज़ बात है कि वह सिपाही की वर्दी पहन, अपने जनाने अंग झुलाते, पुलिस की ट्रेनिंग लेने शहर जाए और ट्रेनिंग के बाद किसी अनजान चौराहे पर लाठी भांजती फिरे.'
उत्तेजना केवल पंचायत में ही नहीं थी, बल्कि पूरे गाँव का पारा चढ़ा हुआ था. धिन्तारा ने हरेक को ध्यान से देखा. सभी की आँखें जलती हुई माचिस की तीलियाँ थीं. लेकिन, उसके मन की ज्वाला कहीं अधिक दाहक थी. वह बड़वानल की तरह भीतर-ही-भीतर झुलस रही थी. पहले वह चिंगारी की तरह चटख रही थी. पर, अब वह साबूत जल रही थी--क्रोध और प्रतिशोध में. चार साल पहले पिता की गोताखोरी करते समय डूबकर हुई मौत के बाद वह अनाथ हो गई थी. तब, वह बावली-सी इधर-उधर मंडराती थी. क्या कोई गांववाला उसकी मदद करने आया था? बल्कि, उसका तो जीना और भी दूभर हो गया था. जवान लड़की और वह भी एकदम अकेली. जैसे वहशी बाजों के जंगल में एक अकेली कबूतरी. कोई आगे न पीछे. आते-जाते छीटाकशियों का वार झेलना पड़ता था उसे. कई दफे तो रात को उसके आँगन में गाँव के ही मनचले बदमाश मर्द उतर जाते थे. पर, उसकी जांबाजी ने सभी के छक्के छुड़ा दिए. जनाने जिस्म में मर्दों वाली फुर्ती और ताकत थी. रंधावा को तो उसने बीच हाट में छठी का दूध याद दिलाया था. सभी गाँव वालों की आँखें नीची हो गई थीं. तब, कोई भी सामने नहीं आया, कामांध रंधावा को सबक सिखाने! न पंचायत बैठी, न ही चौपाल. वह गला फाड़-फाड़ चींखती-चिल्लाती रही; लेकिन, सभी अपने-अपने काम में मग्न हो गए--जैसे कुछ हुआ ही न हो.
धिन्तारा तड़प रही थी. आखिर उसने कौन-सा गुनाह किया था की उसकी माँ उसे जनते ही भगवान् को प्यारी हो गई? माँ का ख्याल आते ही उसके होंठ घृणा से सिकुड़ गए. गाँव में यह अफवाह थी कि उसकी माँ के ठाकुर विक्रमसिंह से नाजायज ताल्लुकात थे और वह उसी का नतीजा है. तभी तो जब वह गलियों से गुजरती थी तो लोग फब्तियां कसते हैं. कानाफूसी करते हैं, "इस कुलच्छनी को देखो ,कैसे ठकुराइन-सरीखी ऐंठकर चल रही है? बब्बन तो नामर्द था. तभी तो उसकी लुगाई विक्रम ठाकुर के साथ गुलछर्रे उड़ाती फिरती थी."
जब चौपाल में लोगों की जुबान से तानों के बारूद फट रहे थे, तभी ग्रामप्रधान धीमन केवट आवेश में कांपता हुआ खड़ा हुआ. वह धिन्तारा के गुस्ताखी को नहीं बरदाश्त कर सका. खूनी डोरे उसकी आँखों में चमक रहे थे.
"अब हमारा आख़िरी फैसला सुनो. धिन्तारा को उसके ही घर में कैद कर दो और एक हफ्ते के भीतर इसे जबर खिलावन केवट की खूंटी में बाँध दो. तब तक इस पर इतना सख्त पहरा रखो कि यह इस गाँव से टस से मस न हो सके. "
चौपाल उठने के काफी देर बाद तक धिन्तारा जड़वत वहीं खड़ी रही. जैसे कैदखाने की रिहाई की आस संजो रहे किसी कैदी को अचानक फांसी की सजा सुना दी गई हो. बदतमीज़ खिलावन की घिनौनी शक्ल उसके दिमाग में कौंध रही थी. उसने अपने होठ भींच कर संकल्प लिया--वह पंचायत के फैसले को कभी नहीं मानेगी. उसका दिमाग सरपट दौड़ रहा था--'क्या करे कि वह नकेल पड़ने से पहले ही भाग खड़ी हो और इन बर्बर लोगों के हाथ जीवनपर्यंत न आए?' उसकी गर्दन निश्चय के भाव से तन गई--'अंगूठाछाप खिलावन के हाथों तबाह होने से पहले ही वह निरंकुश पंचों के अन्यायपूर्ण आदेश पर पानी फेर देगी.'
धिन्तारा को उसके ही घर में नजरबन्द कर दिया गया. उसके घर के चारों ओर पहरुए तैनात कर दिए गए. गाँव का चप्पा-चप्पा संवेदनशील हो गया था. सारे गाँव वालों का अहं अट्टहास कर रहा था. खिलावन खुद गलियों से गुरूर से गुजरते हुए दरवाजे-दरवाजे अपनी शादी का न्योता दे रहा था. खास बात यह थी कि उसकी शादी के बंदोबस्त की जिम्मेदारी पंचायत के कंधो पर थी और गाँव के सभी बच्चे-बूढ़े इसमें शामिल होने वाले थे. आखिर पंच रामजियावन के बेटे की शादी थी और वह भी पंचायत के हस्तक्षेप से.
इस दरमियान, धिन्तारा ने कोई बवाल नहीं खड़ा किया. वह दरवाजे पर खड़ी होकर पहरुओं से सामान्य लहजे में बातें करती और और अपनी शादी की चर्चा पर फिसकारी मारकर हंस देती. इस तरह, वह यह संकेत देती की वह खिलावन के साथ अपनी होने वाली शादी से खुश है. पहरुए क्या, सभी गाँव वाले आश्वस्त हो गए की धिन्तारा ने पंचों के फैसले को सहर्ष स्वीकार कर लिया है. उसने परम्पराओं और प्रथाओं को स्वीकृति देकर गाँव के मान-सम्मान में वृद्धि की है इसलिए, पहरुए लापरवाह हो गए. उस पर चौकसी ढीली पड़ गई.
लेकिन, ऐन शादी की शाम, जब केवटाना के ग्रामीण एक जश्न मनाने के जद्दोजहद में गाफिल-से हो रहे थे तो धिन्तारा की गैर-मौजूदगी ने सभी को झंकझोर दिया. वह सभी की आँखों में धूल झोंककर फरार हो गई थी. दरवाज़े पर खिलावन अपनी बारात लिए मुंह ताकता रह गया. जिस कोठारी से धिन्तारा सजने-संवरने का नाटक खेल रही थी, उसकी जर्जर खिड़की उखाड़कर वह गुम हो गई. बिल्कुल फिल्मी स्टोरी की नायिका की भाँति.
रामजियावन अपराध-बोध से पागल हो उठा और धिन्तारा पर निगरानी रखने वाले दो मर्दों की टांगें वहीं लाठी से ताबड़तोड़ चूर कर दी. खिलावन ने पूरे होश में ऐलान किया--"चाहे धिन्तारा पाताल में समा गई हो, मैं उसे ढूंढ कर ही दम लूंगा और ब्याह करूंगा तो केवल उसी से नहीं तो जीवन भर कुंवारा रहूँगा...."
केवटाना गाँव में मारपीट, हत्या, बलात्कार आदि जैसी घटनाएँ आए-दिन होती रहती थीं. लेकिन, ऐन खड़ी बारात वाली शाम को किसी लड़की का भाग जाना एकदम अजूबा लग रहा था. केवटाना गाँव के इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. इसे याद करते ही केवटों के सीने पर सांप लोटने लगता. चुनांचे, धिन्तारा काण्ड का भी सुनते-सुनाते साधारणीकरण हो गया--गाँव में अक्सर घटने वाली सनसनीखेज घटनाओं की तरह. इसलिए, चार साल ऐसे गुजर गए, जैसे बंद मुट्ठी से बालू. इतने समय में तो जिन जवान लौंडों की शादी हुई थी, वे दो-दो बच्चों के बाप बन गए. और जो छोकरियाँ गड़हियों में गुल्ली-डंडा खेलती थीं, वे शादी-लायक जबर-जवान हो गईं और मां-बाप की आँखों की किरकिरी बन गईं. लिहाजा, मेहनतकश मल्लाहों और मछुआरों के लिए तो यह समय चुटकी में बीत गया. लेकिन, खेलावन ने न केवल चार सावन और चार वसंत ही बल्कि, दिन, सप्ताह और महीने तक गिन-गिन कर बिताए. उस पर एक ही धुन सवार थी-- धिन्तारा को तलाश कर उससे जबरन शादी करना. सारे गाँव में उसकी थू-थू कराने के लिए वह उसे आजीवन अपनी दासी बनाकर ही चैन की साँस लेगा. यह संकल्प वह दिन भर में कम से कम सौ बार लेता.
इस खुमार में खिलावन को होश कहाँ था? रोज उससे कोई न कोई अनापशनाप काम हो जाता. एक शाम जब रामजियावन और बुधराम मछली पकड़कर लौट रहे थे तो नाव पर ही उनमें मछली के बंटवारे को लेकर तू-तू, मै-मै हो गई. इतने सालों से दोनों साझे में एक ही नाव पर मछली पकड़ते रहे. लेकिन, किसी के हिस्से में एक-दो किलो मछली ज्यादा चली जाने पर कोई कुछ भी शिकायत नहीं करता था. किन्तु, आज दोनों के ग्रह-नक्षत्र ठीक नहीं थे. यूं भी, आज अमावस्या के चलते एक तो उफनती लहरों पर कोई वश नहीं चल रहा था; दूसरे, उनके मन में फितूर की बातें भी उमड़ रही थीं. गुस्से पर कोई काबू नहीं था. रामजियावन घुड़क रहा था कि "नाव हमारी है और जाल तुम्हारा. इसलिए, दो-तिहाई हिस्सा हमें चाहिए." दूसरी तरफ, बुधन ताव खा रहा था कि "तुमने तो नाव स्वर्गीय बब्बन से हड़पी है. बब्बन की मौत के बाद धिन्तारा वह नाव किराए पर चलवाती थी. पर, धिन्तारा के भाग जाने के बाद तुमने उसकी नाव पर हक़ जमा लिया है. सो, तुम्हारी न नाव है, न जाल. हाँ, हमारे साथ मछली पकड़ने में थोड़ी मेहनत-मशक्कत ज़रूर की है. इसलिए, तुम्हे तिहाई हिस्सा ही मिलेगा."
जब नाव बीच नदी में थी तो दोनों में कहासुनी, हाथापाई में तब्दील हो गई. खेवइया बगैर नाव हिचकोलें खा रही थी. किनारे पर उनकी राह अगोर रहा खिलावन उन्हें नाव में मारपीट करते देख, गुस्से में पागल हुआ जा रहा था. जब उसके बरदाश्त की सीमा पार हो गई तो उसने कुर्ता-पाजामा उतार कर नदी में छलांग लगा ली और नाव की ओर तेजी से लपक लिया.
खिलावन के नाव में दस्तक देते ही, बुधन के हाथ-पाँव फूल गए--"बाप रे! भागो! बाप-बेटे दोनों ही टूट पड़े हैं." उसने मैदान छोड़ दिया.
पर, खिलावन का प्रतिशोध भी भभक रहा था. इसलिए, वह भी नदी में कूदकर बुधन का बेतहाशा पीछा करने लगा. छप्पन साल का अधबूढ़ा बुधनराम कब तक खैर मनाता? एक तो खिलावन का कोप; दूसरे, बीच मंझधार में लहरों का बढ़ता आतंक! एक ओर कुआँ तो दूसरी ओर खाई. अंततोगत्वा उसकी शक्ति जवाब दे गई। हाथ-पैर नाकारा हो गए। फिर, छब्बीस साल के उद्दण्ड खिलावन के भय ने उसके मनोबल को और तोड़कर रख दिया। खिलावन ने लपककर उसका कुर्ता पकड़ा। आनन-फानन में बुधन की गरदन अपनी बाईं भुजा में दबोच ली और उसे तब तक पानी में डुबोए रखा जब तक कि उसकी सांस फ़ुस्स नहीं बोल गई और बदन लत्ता नहीं हो गया।
अगले दिन, गाँव के कुछ बच्चे नदी किनारे कबड्डी खेल रहे थे कि उन्होंने यकायक देखा कि कुछ कुत्ते वहीं किनारे पानी में कोई लाश नोच रहे हैं। वैसे भी, बुधन के घर न लौटने पर गाँववाले बड़े सशंकित थे क्योंकि सभी जानते थे कि बुधन और जियावन साथ-साथ मछली मारने जाते थे। लेकिन, जब रामजियावन, बुधन के घर यह बताने गया कि वह नदी-पार अपने साले के घर गया है और वह बुधन के हिस्से की मछली उसके घर वापस आने पर देगा तो सभी को उसकी सूचना से तसल्ली हो गई। पर, जियावन को क्या पता था कि कमबख्त बुधन की लाश कहीं दूर लापता होने के बजाय उसके ही गाँव के किनारे आ लगेगी?
बच्चे लाश को करीब से देखते ही, सिर पर पैर रखकर गाँव की और भागे--"बुधन चच्चा मर गए।" उनकी चीत्कार पर सारा गाँव भौंचक होकर नदी किनारे उमड़ पड़ा। डरा-सहमा रामजियावन पहले तो बड़बड़ाता रहा कि "कल तक तो बुधन भैया अपने साले के घर भले-चंगे गए थे; फिर, उनकी अचानक मौत कैसे हो गई?" लेकिन, जब धीमन केवट ने उसके सीने पर गड़ांसा रखा तो उसने सच्चाई उगल दी--" कल, हमारे और बुधन के झगड़े के बीच खिलावन टपक पड़ा था। उसने बुधन को नदी में डुबोकर उसकी नटई टीप दी।"
अपने ही बाप के मुँह से अपना नाम सुनकर खिलावन चौकन्ना हो गया। लेकिन, वह भागकर कहाँ जाता? भीड़ ने उसे दबोच लिया। तभी धीमन केवट ने अपना फैसला सुनाया--"मामला संगीन है। पंचायत कुछ नहीं कर सकती। हत्या का मामला है। पुलिस को सौंप दो।"
रामजियावन और खिलावन को उसी दिन स्थानीय पुलिस चौकी से तहसील थाना में स्थानान्तरित कर दिया गया। शाम ढलने से पहले उनकी पेशी भी हो गई।
जब केवटाना की भीड़ ने थाना इन्चार्ज़ का नाम पढ़ा तो उनमें खुसुर-फ़ुसुर होने लगी। इस बाबत पक्की जानकारी रखने वाले धीमन केवट ने कहा, "यह धिन्तारा शुक्ला कोई और नहीं, वही ठाकुर विक्रम की नाज़ायज़ औलाद है, जो ऐन बारात वाले दिन खिलावन की इज़्ज़त गुड़-गोबर करके फरार हो गई थी।"
खिलावन के रोंगटे खड़े हो गए। उसने गेट पर लगे नेमप्लेट को गौर से देखा। धीमन ने उसे देख, आँख मटकाई--"देखता क्या है, बुड़बक? यही तेरी सात जनम की दुश्मन--धिन्तारा।"
खिलावन दंग रह गया। सोच-सोच कर उबाल खाने लगा। सोचने लगा कि 'हमारी तलाश पूरी हो गई। अगर पता होता कि बुधन को मारकर ही हम धिन्तारा तक पहुँच पाएंगे तो हम उसे पहले ही ठिकाने लगा देते।' उसका दिल नफ़रत से भर गया--"आखिर, साली ने गैर-बिरादरी में ब्याह करके हमारा किस्सा ही खत्म कर डाला।" उसने नेमप्लेट पर पावभर बलगम उगल दिया।
वहाँ तैनात सिपाहियों को उसकी हरकत बेहद बेहूदी लगी। उन्होंने उस पर दनादन इतने घूंसे जड़े कि वह दर्द से चींखते हुए फ़र्श पर लोटने लगा। शोरगुल सुनकर जब धिन्तारा आसन्न स्थिति का जायज़ा लेने बाहर निकली तो सिपाहियों ने उसके नेमप्लेट की और इशारा करते हुए खिलावन की बदतमीज़ी की तरफ उसका ध्यान आकृष्ट किया--"मैडम! इतना ही नहीं, यह शख़्स क़त्ल का ख़तरनाक़ मुज़रिम भी है।"
धिन्तारा गुस्से में काफ़ूर हुई जा रही थी। जब उसने आक्रोश में खिलावन को पैर मारकर पलटा तो वह सिसकारी मारे बग़ैर नहीं रह सकी, "तो अब आया है ऊँट पहाड़ के नीचे।" उसने खिलावन को एक ही नज़र में पहचान लिया था।
वह तत्काल केवटों की भीड़ को थाना परिसर से बाहर खदेड़ने का आदेश देते हुए पुलिस चौकी से लाए गए एफ़.आई.आर. और रपट का मुआयना करने लगी। इसी बीच, उसका ध्यान भंग हुआ। बाहर जाती भीड़ में से यह भुनभुनाहट साफ सुनाई दे रही थी--"अरे, ठाकुर विक्रम सिंह आ रहे हैं।" उन्हें देख धिन्तारा एक बच्चे की भाँति चंचल हो उठी। जब उसने आगे बढ़कर विक्रमसिंह के पैर छुए और आशीर्वाद लिया तो यह देख, भीड़ फिर रुक गई।
लोग बुदबुदाने लगे, "अरे, देखो! ये हरामज़ादी अपने असल बाप की पैलगी कितने अदब से कर रही है!"
"हाँ-हाँ, नामर्द बब्बन तो इसका फ़र्ज़ी बाप था।"
"अरे, ये ठाकुर विक्रम इसकी अम्मा मनरखनी का आशिक तो पहले से था। अब तो ये इसका भी...।"
"हाँ-हाँ, ये सब पैलगी तो दुनिया को दिखाने के वास्ते है; असल में तो इसका भी ठाकुर के साथ...।"
विक्रमसिंह ने बड़ी आत्मीयता के साथ धिन्तारा के सिर पर हाथ फेरा--"बेटा, तुम्हारी माँ को मैंने अपनी धरम-बहिन बनाया था। वह हर साल हमें राखी बाँधने और भाईदूज़ की मिठाई खिलाने आती थी। जब तू नौ बरस की थी तो बात-बात में एक दिन उसने मुझे अपनी ख्वाहिश बताई थी--"विक्रम भैया! मैं अपनी धिन्तारा को कोई बड़ा आदमी बनाना चाहती हूँ...काश! वह जिंदा होती तो आज तुम्हें पुलिस अफ़सर के रूप में देखकर फूली नहीं समाती।"
"मामाजी! ये सब आपकी बदौलत हुआ है। आप ही मेरा स्कूल से कालिज़ में दाखिला कराने गए थे। आप ही मुझे कापी-किताब दिलाने जाते थे। जब बाबूजी मेरी फीस नहीं जमाकर पाते थे तो आप खुद मेरी फीस अपनी पाकिट से जमा करते थे। मेरे जाहिल बाबूजी क्या यह सब करने लायक थे? बेशक! आपकी मदद के बग़ैर, मैं क्या होती? बस, किसी मेहनतकश मछुआरे के घर झाड़ू-पोंछा लगा रही होती या मछली-भात उसन रही होती। इतना तो मेरा सगा मामा भी होता तो न करता।"
भीड़ में उपस्थित धीमन, दुक्खीराम, रन्धावा आदि सभी केवट, विक्रम और धिन्तारा के बीच बातचीत को सुनकर आत्मग्लानि से पसीने-पसीने हो रहे थे। वे पहली बार विक्रमसिंह की उदारता और बड़प्पन से अवगत हो रहे थे। रामजियावन ने हथकड़ी से बँधे हाथों से अपनी नम आँखें पोछीं। वह मन-ही-मन पछता रहा था--"बिचारी मनरखनी पर हम नाहक शक करते थे। ठाकुर तो बड़ा पाक-साफ लगता है। क्या वह सच में मनरखनी को अपनी बहिन मानता था? च्च, च्च, च्च, हम फ़िज़ूल उसे ठाकुर की रखैल और धिन्तारा को उसकी नाज़ायज़ औलाद मानते रहे। हमारे पापकर्मों को ईश्वर भी माफ़ नहीं करेगा।"
धीमन भी रामजियावन की आँखों में आँखें डालकर रुआँसा हो गया। उसे देखते हुए वह भी सोच रहा था--"हम दोनों को भी रामजियावन की तरह सज़ा मिलनी चाहिए। आख़िर, ठाकुर और मनरखनी के मेलमिलाप को हम दोनों ने ही नाज़ायज़ मानकर मनरखनी को जान से मारने की साज़िश रची थी। जहरीला करैत साँप हम पकड़ कर लाए थे जिसे तुमने चुपके से मनरखनी के झोले में डाल दिया था। जैसे ही उसने झोले में हाथ डाला, साँप ने इसे डस लिया।। ज़हर इतना तेज था कि बिचारी को एक भी लहर नहीं आई और वह वहीं खत्म हो गई। गाँववालों को क्या पता कि उसकी मौत का ज़िम्मेदार कौन है?"
सारे केवट अपराध-बोध से सिर झुकाए मौन खड़े थे। विक्रम सिंह ने उन पर विहंगम दृष्टि डाली और धिन्तारा से पुनः मुखातिब हुआ--"बेटा, तुम्हारे गाँव छोड़कर चले जाने के बाद, मैं तुम्हारे घर गया था। तुम्हारे बारे में सारी बातें सुनकर बड़ा अफ़सोस हुआ। पर, ज़ल्दबाज़ी में तुमने जो फ़ैसला लिया था, वह तुम्हारे भविष्य के लिए अच्छा साबित हुआ।"
उस क्षण, धिन्तारा अपने बीते वर्षों की दुर्गम अंधगुफ़ा में सिर टकराते हुए भटकने लगी। अपने अभिशप्त अतीत की स्मृति-छाया से बार-बार सिहर रही थी। उन बीहड़ रास्तों पर माँ-बाप तक उसे अकेला और बेसहारा छोड़ गए थे। उसे अच्छी तरह याद है जबकि उसने अपना घर, गृहस्थी के सामान, पिता की नाव, पतवार, पालघर आदि बेचकर अन्यत्र बसने की इच्छा व्यक्त की थी। तब, रामजियावन पहाड़ बन सामने खड़ा हो गया था--"तू हमारी लच्छमी है। होने वाली बहू है। तुझे यानी अपनी इज़्ज़त को हम कैसे यहाँ से जाने दे सकते हैं?"
धिन्तारा ने घृणा और रोष से हथकड़ियों में बँधे रामजियावन और खिलावन को देखकर मुँह बिचकाया। फिर, स्वतः बह आए आँसुओं को पोंछा और विक्रम सिंह को देखकर गंभीर हो गई।
"मामाजी! अब आप ही मुझ अनाथ के इकलौते बुजुर्ग हैं। मेरे आदर्श हैं। मेरा क्या? तबादले वाली नौकरी है। कभी इस शहर में तो कभी उस शहर में। इसलिए मैं यह चाहती हूँ कि गाँव में मेरा जो मकान-जमीन है, उसे बेचकर आप वहाँ एक बालिका विद्यालय बनवाने का कष्ट करें ताकि केवटाना की दलित बच्चियाँ पढ़-लिखकर समझदार बन सकें। मैं कोशिश करूंगी कि सरकार से उस विद्यालय के लिए कुछ अनुदान का बंदोबस्त हो सके।"
उनकी बातचीत पर खिलावन के कान ज़्यादा खड़े थे। ठाकुर की भलमनसाहत और धिन्तारा की निश्छलता देख, उसका गुस्सा पश्चाताप में परिणत हो रहा था। धिन्तारा के प्रति उसका आक्रोश पिघल रहा था। ईर्ष्या गलकर पानी-पानी हो रही थी। सच से अवगत होकर उसका दम्भी पुरुष धिन्तारा के विशालकाय कद के सामने ठिंगना होता जा रहा था। वह सोच रहा था कि जब हमें शक्ति और समर्थन प्राप्त था तब भी हम चाहकर उसका दमन नहीं कर पाए। अब धिन्तारा के पास बल और कानून है, हमारी मौत का चाबुक है। वह हमें दण्डित करने की स्थिति में है और हम उसके दण्ड को मूक भोगने की स्थिति में हैं। ईश्वर ने सदैव उसकी मदद की। पहले उसने खुद को बर्बर हाथों से मुक्त किया और अब वह समाज को उनसे मुक्त कराने में जुटी है। केवटाना गाँव में वह स्वयं असहाय और मज़बूर धिन्ताराओं का उद्धार करने के लिए अपनी जमीन-ज़ायदाद बेचकर बालिका विद्यालय खोलने के लिए उतावली हो रही है। यानी, अपने गाँव से दूर रहकर भी उसका मन केवटों की ज़िंदगी में रमा हुआ है। निःसंदेह, वह गाँव का उत्थान चाहती है। औरतों को पशुतुल्य मर्दानगी से आज़ाद कराना चाहती है। अगर केवटाना के तानाशाह मर्द, औरतों पर मनमर्जी नहीं करते होते तो वहाँ दर्ज़नों धिन्ताराएं जन्म ले चुकी होतीं। गाँव का नाम रोशन कर चुकी होतीं। सारे गाँव को उनमें से एक-एक पर नाज़ होता। मर्द भी सीना चौड़ा करके कह रहे होते, "हमें अपनी धिन्ताराओं पर बेहद फ़ख्र है। इन धिन्ताराओं के कीरत और गुन की बदौलत, हम बड़े लोगों को पछाड़ सकते है। देखो, हमारे गाँव की एक धिन्तारा इतनी बड़ी हो गई है कि वह एक उच्च वर्ग की बहू भी है...।"
खिलावन सोचते-सोचते बुदबुदाने लगा, "धिन्तारा बड़ी महान है। मैं नीच आदमी उस पर हक़ जमाने चला था। अरे! मैं तो उसका नौकर बनने लायक भी नहीं हूँ।"
खिलावन ने मन-ही-मन अपना अपराध स्वीकार कर लिया था। सोच रहा था कि उसे मौत की सज़ा भी मिल जाए तो वह खामोश रहेगा। इसलिए, जब उसे चौदह साल की बामशक्कत सज़ा मिली तो उसने कोई गुरेज़ नहीं किया। दूसरी ओर रामजियावन को भी यह अहसास हो चला कि वह खिलावन को बुधनराम की हत्या करने से न रोककर खुद भी उसकी हत्या में शरीक़ है। साथ ही, वह धिन्तारा की पैतृक संपत्ति पर अवैध कब्ज़ा जमाने का भी दोषी है।
इसलिए, जब रामजियावन अपने अच्छे बात-बर्ताव के कारण सिर्फ़ छः साल की जेल चक्की पीसकर घर लौटा तो वह खुश नहीं था। जब तक वह जेल में रहा, अपराधबोध से पीड़ित रहा। इसलिए, वह जेल से छूटते ही, सीधे धिन्तारा के सामने हाजिर हुआ।
"बिटिया, हमें तो और सख़त सज़ा मिलनी चाहिए थी। हम और धीमन तुम्हारी माई मनरखनी के भी क़ातिल हैं।"
धिन्तारा की आँखें क्रोध में न जलकर, भर आईं। "चाचाजी, क्या आप ये समझते हैं कि हमें यह सब नहीं पता है? अम्मा के मरने के बाद, बाबूजी को भी यह सच्चाई मालूम हो गई थी। पर, वह कर भी क्या सकते थे? आप ही लोग पंचायत के सर्वेसर्वा थे। क्या आपलोग पंचायत में बैठकर खुद को हत्यारा साबित करने की जोखिम उठाते?"
रामजियावन का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया। उसकी आँखों से आँसुओं का गुबार उमड़ पड़ा--अपने जुल्मियों के जुल्म जानकर भी बिचारी धिन्तारा ख़ामोश रही।
धिन्तारा ने आगे कहा--"जब आप जेल में थे तो एक दिन धीमन चाचा आए थे। उन्होंने अपनी जुबानी अपना जुर्म कबूल करके मुझसे सज़ा मांगी थी। लेकिन, मैं उससे बदला लेने वाली कौन होती हूँ? बदला लेने वाली मेरी माँ तो स्वर्ग सिधार गई है। सो, मैंने उन्हें उसी समय माफ़ कर दिया और आपको भी। जो हुआ, सो हुआ। आइन्दा हमारे गाँव में ऐसा वाकया नहीं होना चाहिए। ख़ासतौर से हमारे जैसी मज़बूर धिन्ताराओं पर अत्याचार...।"
धिन्तारा का गला भर आया। वह फफक पड़ी।
इस घटना को बीते कोई चालीस साल तो गुजर ही गए हैं। धिन्तारा शुक्ला सीनियर एस.पी. के पद से सेवामुक्त होकर आज भी केवटाना गाँव में रह रही रही है। केवटाना महिला महाविद्यालय की संरक्षिका की हैसियत से। यह वही महाविद्यालय है जिसकी स्थापना बालिका विद्यालय के रूप में हुई थी और जिसके लिए उन्होंने अपनी सारी संपत्ति दान कर दी थी। उक्त विद्यालय को महाविद्यालय को दर्ज़ा दिलाने में खिलावन का अहम योगदान रहा है। चौदह साल की जेल की सज़ा काटकर, वह सीधे केवटाना गाँव में उपस्थित हुआ और उसने अपना सारा जीवन इसके विकास में अर्पित कर दिया। गाँव वाले उसे दलित महिलाओं के मसीहा के रूप में देखते हैं। उससे मिलने पर वह गर्व से कहता है--"आज मैं जो कुछ हूँ, बहन धिन्तारा की बदौलत हूँ। उन्होंने ही मुझे जीने का यह नया अंदाज़ सिखाया है।"
(साहित्य अमृत, संपादक विद्यानिवास मिश्र, जुलाई, 2004)