भारतीय मीडिया में दलितों की स्थिति / अशोक कुमार शुक्ला

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बी0बी0सी0 हिन्दी सर्वेक्षण पर आधारित
आलेख:अशोक कुमार शुक्ला

भारत देश में आरक्षण के मुद्दे पर छिडी बहस राजनैतिक गलियारों से होती हुयी पहले ही सर्वोच्च न्यायालय की चौखट पर जा चुकी है। इस प्रकार लोकतंत्र के दो खंभें इस विषय पर पहले ही आपस में टकरा चुके हैं अब लोकतंत्र का चौथा खम्भा कहे जाने वाले मीडिया में भी आरक्षण के मुद्दे पर बहस होती नजर आने लगी है।

जाने माने सामाजिक विश्लेषक रॉबिन जेफ़री ने जब दिल्ली में राजेंद्र माथुर स्मृति व्याख्यानमाला में भारतीय मीडिया में दलितों की स्थिति की चर्चा की तो उन्होंने बताया कि मीडिया के प्रमुख 300 नीति निर्धारकों से दलित नदारद हैं.

प्रोफ़ेसर जेफ़री के अनुसार भारतीय संविधान में समानता और सौहार्द की जो भावना है वह तब तक पूरी हो सकती जब तक लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ में दलित वर्ग के लोगों को उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिलता. वह कहते हैं जब न्यूज़रूम में विविधता होगी तो वो विविधता समाचार माध्यमों के कवरेज में भी दिखेगी.

रॉबिन जेफ़री के द्वारा उठाये गये इस विषय को बी0बी0सी0 हिन्दी ने महत्वपूर्ण मानते हुये इस पर इस विषय पर एक सर्वेक्षण कराकर भारतीय मीडिया में दलितों की स्थिति का आकलन करने का प्रयास किया गया है जिसके अनुसार निम्न दो मुख्य बिन्दुओं पर रायशुमारी की गयी:-

1-कि क्या भारतीय समाचारों में दलित वर्ग की ख़बरें सिर्फ़ हिंसा या ग़लत कारणों से ही आती हैं और इस बड़े वर्ग को समुचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है?

2-कि क्या मीडिया में भी आरक्षण जैसा कोई प्रावधान हो या मीडिया संगठनों को ख़ुद कोई लक्ष्य तय करके उसे हासिल करने की दिशा में काम करना चाहिए?

हांलांकि इस विषय पर बी0बी0सी0 हिन्दी के इस सर्वेक्षण में सैकडों व्यक्तियों के मत प्राप्त हुये परन्तु कुछ विचारवान प्रतिनिधि मन्तव्यों के आधार पर हम इस विषय की विवेचना करने का प्रयास करेंगे

विदेशी पाठकों की राय

विदेश में बसे हिन्दी पाठकों में अमरीका के उमेश यादव का मत है कि मीडिया में दलितों का प्रतिनिधित्व तो होना ही चाहिए लेकिन आरक्षण के आधार पर नहीं; यह मेरा व्यक्तिगत विचार है. कोई ऐसा उपाय हो जहाँ प्रतिभा का नुकसान न हो और गरीब का फायदा भी हो. कुछ लोगों के आरक्षण विरोध से तो केवल ईर्ष्या और नफरत की बू आती है. जिस समाज में किसी को धर्मस्थल में जाने से रोका गया हो, सामने कटोरा और पैर में झाड़ू बांध कर चलने पर मजबूर किया गया हो और जहाँ आदर किसी को केवल जाति के आधार पर मिलता हो या वह चाहता हो; आरक्षण वहां बिलकुल बेतुका नहीं है.

वहीं बैंकाक के एक पाठक का मत है कि अगर इसे आरक्षण के बजाय, प्रतिनिधित्व या भागीदारी कहा जाए तो ज्यादा अच्छा है. मीडिया में दलितों की कमी के कारण एकतरफ़ा मानसिकता से खबर दी जाती है. आप अक्सर समाचार पाएँगे कि दलित महिला के साथ बलात्कार. लेकिन कभी आपको ये नहीं पढ़ने को मिलेगा कि ब्राह्मण या यादव महिला के साथ बलात्कार. पीड़ित महिला होती है, उसे दलित नहीं कहना चाहिए. ये दिखाने की कोशिश की जाती है कि दलित महिलाओं के साथ ही ऐसी घटना होती है. ये गलत सोच और गलत पत्रकारिता का परिणाम है.

देशी पाठकों का मत

भारतवर्ष के हिन्दी पाठकों की राय विविधतापूर्ण रही शहडौल के प्रिय भारत पैराणिक का मत रहा कि मीडिया इंसान और दुनिया के बीच संवाद की कड़ी हैं. ये जितना ज्यादा लोगों के बीच जाएगी, उतनी अच्छे तरह से पहचान पाएगी.. मीडिया को जाति से अलग होना चाहिए, इसे मानव समाज की बेहतरी के लिए भूमिका निभानी चाहिए. वहीं पटना विहार के नवीन कुमार नीरज का मत रहा कि मीडिया ही नहीं, दलितों को भारत में कहीं भी उचित स्थान प्राप्त नहीं है. देश की आजादी के बाद से आज तक दलितों को वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है., जिन लोगों ने शुरू में अपना स्थान बना लिया वही आज हर जगह पर अपने सगे संबंधियों को स्थान देने लगे हैं. चुनाव में आरक्षण इसलिए दिया गया था ताकि दलितों के प्रतिनिधि उभरकर आएँगे और उनके पैरोकार होंगे. लेकिन आज देखें सभी आरक्षित जगहों पर उनके सगे संबंधी को ही जगह मिलती है और दलित आज भी दलित है. बघवारी-मदरहिया, सीधी, मप्र के रोहित सिंह चौहान का मत रहा कि मीडिया में किसी भी प्रकार के आरक्षण की आवश्यकता नहीं है और न तो आरक्षण होना चाहिए. किसी भी जाति-धर्म के इनसान के मन से इंसानियत निकल सकती है. अगर हम दलित वर्ग के उत्थान की बात करते हैं तो वास्तविक पत्रकारिता को छूट देनी होगी यानी जिस मिशन से पत्रकारिता की शुरुआत हुई और जो मिशन पत्रकारिता की मां है उसे बहाल करना होगा. अगर हमने आरक्षण लादने की कोशिश की तो मीडिया भटक जाएगी और सही लक्ष्य नहीं मिलेगा.

कुछ हिन्दी पाठकों ने विषय से इतर जाकर भी अपनी राय प्रकट की. जैसे आरा के अशोक दुशद का मत रहा कि दलितों को अपना प्रचार माध्यम कायम करना चाहिए. सवर्णों के वर्चस्व वाली मीडिया आज दलितों को भागीदारी देने को तत्पर है इसके पीछे राजनीति है कि दलित मीडिया स्वतंत्र रूप से खड़ी न हो सके. सवर्ण वर्चस्व वाली मीडिया का चरित्र सबके सामने है. सोशल मीडिया में दलितों की भागीदारी बढ़ी है जो कि मुख्यधारा की मीडिया को कड़ी चुनौती दे रही है. अप्रासंगित होती मुख्यधारा की मीडिया में दलित भागीदारी क्यों चाहेगा? इसी के अनुरूप मुबई के बी उन गिरि का मत रहा कि मीडिया में आरक्षण की बात करना बेमानी है. दरअसल मीडिया बुद्धिजीवियों का क्षेत्र है. बुद्धिजीवी आरक्षण से नहीं बल्कि अध्ययन और अनुभव से बनते हैं. एक पत्रकार खबर के साथ तभी न्याय कर सकेगा जब वो बुद्धिजीवी होगा, ज्ञानवान होगा न कि आरक्षण के बल पर बना पत्रकार. इसी प्रकार उतरौला बलरामपुर के सुरेश वंद का मत रहा कि मीडिया में आरक्षण? कभी नहीं. अगर चौथा स्तंभ सवर्णों का है तो पिछड़ों और दलितों को अलग से अपना पाँचवाँ और छठा स्तंभ बनाना चाहिए.क्योंकि जब चौथे खंभे में कोई वैकेन्सी नहीं तो वो हिस्सेदारी कहां से देंगे.

भारतीय पाठकों के मतों में सबसे स्पष्ट और इमानदार मत नयी दिल्ली के अरविंद कुमार सिंह का रहा कि यह कहना गलत है कि मीडिया में केवल दलितों की हालत खराब है..वस्तुतः कुछ ऊंची जातियों का ही भारत में मीडिया पर कब्जा है. यह कब्जा संपादकीय टीम से लेकर जिले और कस्बों के संवाददाता नेटवर्क तक में है. नीति निर्माताओं की मानसिकता में बदलाव लाए बिना दलितों और वंचित समुदायों का भला नहीं हो सक. कुछ पदों को आरक्षित कर देने से न न्यूज रूम का स्वरूप बदलेगा न दलितो या वंचित समुदाय के पक्ष की पत्रकारिता हो सकेगी. पाठक या दर्शक के रूप में जब तक ये वंचित वर्ग खुद प्रतिरोध नहीं करते, यह बहस ही बेमानी है.

इस विषय पर एक नऐ कोण से विचार करते हुये इलाहाबाद के श्री राजीव कुमार रंजन का यह मत प्रभावशाली रहा कि

मीडिया में दलित प्रतिनिधित्व नहीं होने के कारण दलितों से संबंधित समस्या सामने नहीं आ पाती. दूसरी चीज़ मीडिया आज कॉर्पोरेट सेक्टर का प्रतिनिधित्व करता है इसलिए वह नहीं चाहेगा कि उसका वर्चस्व कोई उससे छीन ले.

बहस का निष्कर्ष

पूरे सर्वेक्षण में यदि हम देशी विदेशी पाठकों की संयुक्त राय पर विचार करें तो यह पाते हैं कि सम्पूर्ण बहस का कोई अंतिम निष्कर्ष नहीं निकला . हांलांकि देशी पाठकों में मुबई के बी उन गिरि तथा आरा के अशोक दुशद सहित कुछ पाठकों की टिप्पणियां असंयमित भी रहीं और सम्पूर्ण बहस का ऐसा कोई अंतिम निष्कर्षकारणी परिणाम नहीं निकला जो मीडिया पर प्रभाव छोड सकता परन्तु इस समूची बहस का एक परिणाम तो अवश्य निकला है कि लोकतंत्र का चौथा खंभा कहे जाने वाले क्षेत्र में भी अब हम दलितों की सक्रिय भागीदारी की बातें करने लगे हैं। इस समूची बहस का सबसे अधिक सार्थक हिस्सा यह रहा कि मीडिया के प्रति दलितों की जागरूकता प्रदर्शित हुयी ।

यह निर्विवाद रूप से स्वीकार किया गया कि मीडिया में अभी भी अच्छे लेखकों, विचारकों औऱ मनीषियों की कमी है और देश में खबरें तो आती हैं पर उनमें पूर्णता का अभाव होता है. आरक्षण से समस्या और विकट हो जाएगी लेकिन वास्तविक रूप से देखा जाए तो दलित यदि काबिल हैं और उसे आरक्षण चाहिए तो वो उन्हें दिया जाना चाहिए जो योग्यता होते हुए भी आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हैं.

भले इस बहस का कोई अंतिम परिणाम अभी प्रदर्शित नहीं हो पाया हो परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि किसी भी चट्टान को तोडने के लिये उस पर हथौडे से हजारों चोट करनी होती हैं तभी जाकर वह टूटती है । यदि वह चट्टान हजारवीं चोट पर टूट कर बिखरती है तो उस पर की जाने वाली पहली चोट का महत्व कम नहीं होता क्योंकि बिना इस पहली चोट के वह हजारवीं चोट संभव ही नहीं हो सकती थी। मीडिया में कार्पोरेट सेक्टर के हावी होने से इस मजबूत चट्टान के टूटने के लिये अभी हजारों अनेक चोटें करनी होंगी।