मेरे घर आना जिंदगी / भाग 8 / संतोष श्रीवास्तव्
विरार के फ्लैट का लोन पटाने में दिक्कतें आ रही थीं इसलिए हमने मीरा रोड सृष्टि कॉन्प्लेक्स में निर्मल टॉवर की छठवीं मंजिल पर वन बेडरूम हॉल किचन का फ्लैट विरार के फ्लैट को बेचकर ले लिया और पूरा लोन पटा दिया। मीरा रोड का फ्लैट बहुत खूबसूरत था। संगमरमर की टाइल्स वाला और सारी सुविधाओं से युक्त। हेमंत ने घर अपनी पसंद से सजाया था। पर्दे, केन का फर्नीचर, बालकनी में सजावटी प्लांट्स आदि। मैंने आगरे के अम्मा के बगीचे से लाकर सफेद गुलाब की बेल किचन की बालकनी में लगाई थी। जिस पर गुच्छों में ढेरों फूल खिलते थे। गौरैयाँ भी शोर मचाती रहती थीं। हम मार्च में गुड़ी पाड़वा के दिन मीरा रोड के फ्लैट में शिफ्ट हुए और 20 अप्रैल 1999 को अम्मा का निधन हो गया।
मुझे लगा था यह बरस मेरी जिंदगी का सबसे सुनहला बरस सिद्ध होगा। मगर वह बेहद काला और मनहूस सिद्ध हुआ, जिसने नए फ्लैट में गृह प्रवेश के ठीक एक महीने बाद ही अम्मा को मुझसे छीन लिया। लगा जैसे शरीर से बूंद-बूंद लहू किसी ने निचोड़ लिया हो। मशीनवत काम तो होते रहे पर न उमंग थी न उत्साह। मैं महीनों-महीनों अवसाद की स्थिति से गुजरने लगी। मैं अम्मा को बहुत सुख देना चाहती थी। पर उन्होंने नौकरी लगने का इंतजार नहीं किया। हमें एक मौका तक नहीं दिया और ...
वे प्रकृति में जीती थीं। थीं भी प्रकृति जैसी बहुत प्यारी, खूबसूरत। मैं बालकनी में चाय का प्याला हाथ में लिए खड़ी थी। इतवार का दिन था। पूर्व दिशा लालिमा से भरी आस-पास ठिठके बादलों को सिलेटी आभास दे रही थी। कतारबद्ध बगुले समंदर की दिशा में उड़े जा रहे थे। दूर पहाड़ों पर जलती बुझती आग की कतार थी। आदिवासी इसी तरह आग लगाकर खेती योग्य जमीन तैयार करते हैं। मरण निश्चित है फिर भी जिजीविषा बनी रहती है। उस एक पल में अम्मा को मैंने अपने निकट पाया। वे प्रकृति में समाई प्रकृति बन मौजूद हैं मेरे निकट। हमेशा-हमेशा के लिए। जब तक मैं जीवित हूँ।
मीरा रोड के फ्लैट में साहित्यकारों का जमावड़ा खूब होता था। कहानी पाठ, कवि गोष्ठी, महीने दो महीने में एक बार कर ही लेते थे। उस दिन धीरेंद्र अस्थाना का कहानी पाठ था। दीर्घा के संपादक वरिष्ठ लेखक डॉ विनय को अध्यक्षता करनी थी। सुबह से ही खूब पानी बरस रहा था। मुंबई की बारिश, सड़कें पानी से लबालब। यातायात ठप। मैंने तैयारी तो पूरी रखी जलपान वगैरह की पर विश्वास कम था कि कोई आएगा इतने पानी में। लेकिन मुंबई के लोग बरसात की परवाह नहीं करते। धीरे-धीरे सब आने लगे। डॉ विनय सबसे पहले आए। निरुपमा सेवती के संग। घुटने-घुटने तक पेंट चढ़ाए धीरेंद्र अस्थाना और देवमणि पांडे आए। करीब 20 लेखकों की उपस्थिति में धीरेंद्र जी ने कहानी पाठ किया। देवमणि पांडे ने संचालन। मैंने नाश्ते के लिए समोसे मंगवाए थे लेकिन वेद प्रकाश जी की फरमाइश-" बारिश में तो भजिये मजा देते हैं। बहरहाल भजिये तले गए और बरसात की वह खुशनुमा रात यादों में अंकित हो गई।
मई 2000 में मैं जम्मू घूमने गई। साथ में प्रमिला वर्मा, यामिनी और हेमंत भी थे। भारत भारद्वाज जी की पोस्टिंग जम्मू में ही हुई थी। हम उन्हीं के घर 4 दिन रूके। वे चार दिन बिल्कुल भी साहित्यिक नहीं थे। हम सिर्फ घूमे और दीगर चर्चाओं में व्यस्त रहे। दिल्ली भारत जी भी हमारे साथ आए। उनकी छुट्टियाँ शुरू हो गई थीं और वे अपनी छुट्टियाँ दिल्ली में गुजारते थे। दिल्ली दर्शन के दौरान मैं राजेंद्र यादव से हंस कार्यालय में मिली। वैसे भी दिल्ली जब भी आती थी उनसे मिले बिना नहीं लौटती थी।
जाने से पहले राजेंद्र जी को फोन किया-"मैं आ रही हूँ आपसे मिलने"
"जल्दी आ जाओ, आज हम दूसरे घर में शिफ्ट हो रहे हैं।"
लेकिन हमें पहुँचने में थोडी देर हो गई। मेरे प्रवेश करते ही बोले-"देर कर दी न? पर हम तो डरे सहमे बैठे हैं, कहीं नाराज़ न हो जाओ।"
उनके ऑफिस में गंगा प्रसाद विमल और हिमांशु जोशी बैठे थे। सब हँस पडे। हेमंत साथ था। हेमंत की एक खासियत थी जहाँ जाता महफिल को अपनी बना लेता। राजेंद्र जी ज्यादातर समय हेमंत के साथ बातचीत करने में ही लगे रहे। जैसे उसकी विद्वत्ता और साहित्य के बारे में उसके ज्ञान की परीक्षा ले रहे हों। राजेंद्र जी के साथ की वह शाम हेमंत के ही नाम हो गई। दो-तीन बार चाय के दौर हुए। वह शाम मानो हंस कार्यालय में ठहर गई थी।
हमें यात्री प्रकाशन भी जाना था पर समय नहीं था।
हेमंत को अपनी चित्रा मौसी (चित्रा मुद्गल) से मिलने की बड़ी चाह थी। उसका बचपन उन्हीं की गोद में बीता था। वह उनकी किताबों को पढ़ता था और कहता था-"चित्रा मौसी जितनी खुद सुंदर हैं उतना ही सुंदर उनका लेखन है।" लोटस टेंपल से वापसी में हम चित्रा दीदी के घर गए। उनकी बहू यानी शब्द कुमार की बेटी शील... शील की गिलहरी-सी फुदकती जुड़वां बेटियाँ। बहुत भरी पूरी लगीं चित्रा दी। उनकी किताबों के रैक के ऊपर अपर्णा यानी बिट्टू की फोटो मानो पूरे घर में अपनी गैरमौजूदगी के शून्य को भरती हुई। बिट्टू की शादी मृदुला गर्ग के पुत्र से हुई थी और हनीमून के लिए शिमला जाते हुए दोनों की कार एक्सीडेंट में मृत्यु हो गई थी। यह आघात अवध नारायण मुद्गल जीजा सह नहीं पाए थे। वे बिस्तर पर थे। याददाश्त कमजोर हो गई थी। चित्रा दी उनके कमरे में मिलवाने ले गईं। वे मुझे पहचान नहीं पाए पर हेमंत को पहचान गए।
"अरे टमटू (हेमंत का घरेलू नाम) तुम तो बड़े हो गए यार। इतने लंबे और हैंडसम।" उन्होंने हेमंत को अपने पास पलंग पर बैठा लिया और बातें करने लगे। चित्रा दी बोलीं-"पंडित जी तुम्हारी किताब मालवगढ़ की मालविका दो बार पढ़ चुके हैं।" फिर पास रखे लोटे पर से ढक्कन हटाया। "दूध नहीं पिया, पी लो।"
हॉल में लौटते हुए बोलीं "कुछ खाते पीते नहीं हैं अवध। बस दूध प्रिय है उन्हें।"
हेमंत "आता हूँ मम्मी" कहकर यामिनी के साथ नीचे गया और मिठाई खरीद कर लाया। चित्रा दी के पैर छूकर मिठाई के डिब्बे में से काजू कतली का टुकड़ा उन्हें खिलाया। उन्होंने गदगद हो हेमंत को गले से लगा लिया।
"बड़ा होनहार है संतोष तुम्हारा बेटा। एकदम परफेक्ट।"
शील थालियों में फूली-फूली गर्म पूड़ियाँ, आलू की भुनी सब्जी, मिर्च का अचार और सलाद ले आई। शाम घिरने लगी थी। चित्रा दी नीचे तक छोड़ने आईं। टैक्सी स्टार्ट होने ही वाली थी कि जाने क्या सोचकर रुकवाई। शील को फोन लगाया। शील गिफ्ट बॉक्स लेकर आई। उन्होंने हेमंत को दिया।
"तुम्हारे लिए बेटा, खूब खुश रहो।" टैक्सी ओझल होते तक वे हाथ हिलाती रहीं। न जाने क्यों चित्रा दी का वह हिलता हाथ आगत के किन लम्हों की ओर संकेत कर रहा था। यह तो मैं अब सोचती हूँ जब हेमंत...
मई में मुंबई लौटे और जुलाई में हेमंत की नौकरी पोसीत्रा पोर्ट पिपावा में लग गई। इसका हेड ऑफिस द्वारका और विदेश में जर्मनी में था। बेहद सुनहरा भविष्य सामने था। नितिन गांधी ने उसके एक महीने का काम देख कर छह महीने बाद उसे जर्मनी भेजने की योजना बना ली थी और अंधेरी पश्चिम में उसके नाम का घर भी अलॉट करने वाले थे। लेकिन नौकरी के एक महीने बाद ही 5 अगस्त 2000 को माथेरान जाते हुए उसकी गाड़ी ...
अब जब हेमंत के लिए लिखने को कलम उठाई है तो सोच रही हूँ कहाँ से याद करूं? उज्जैन में क्षिप्रा नदी के किनारे बसे उस मेटरनिटी होम से या माथेरान पहाड़ी मार्ग के जुम्मापट्टी मोड़ की उस गहरी घाटी से! जैसे कि भूकंप से पूरी की पूरी सभ्यता नष्ट हो जाती है उसी तरह सन 1977 से 2000 तक का कड़वा, कसैला, मीठा, खुशनुमा, मोहक मेरा जीवन काल के गर्त में समा गया तो यह जो मैं दीखती हूँ यह मात्र जीवन का अवशेष ही तो है... खंडहर... ईंट-ईंट बिखरा...
अभी कल की ही तो बात है। उज्जैन का महाकाल मंदिर। दर्शन के बाद मंदिर की सीढ़ियों पर बैठकर सर्जन का आनंद महसूसती मैं भूल जाती थी कि मैं किन संघर्षों, किन उदासियों से गुजर रही हूँ। जिंदगी का वह एक ऐसा मोड़ था जब हम अपनी जमीन अपने शहर जबलपुर से उखड़ गए थे। मैं अपनी छोटी-सी दुनिया अपने शिशु के साथ मुंबई में बसाने का सपना लिए समय की प्रतीक्षा कर रही थी। 23 मई 1977 को सोमवार की सुबह 9 बजकर 6 मिनट पर हेमंत ने जन्म लिया। कितना अजब संयोग कि शिवजी की नगरी में हेमंत ने सोमवार के ही दिन जन्म लिया। रुई से मुलायम घने रेशमी बालों वाला, उजले रंग का मेरा बेटा मेरे पलंग के बाजू में पालने में दुबका था। मैंने अपनी नीम बंद पलकें खोल उसे देखना चाहा। हौले से हाथ बढ़ा उसका स्पर्श किया। वह कुनमुनाया और फिर चकित हो पल भर को आंखें खोलीं। शायद दुनिया की रोशनी देखने को वह तैयार नहीं था। लेकिन वह दुनिया को ऐसा उजाला देना चाहता था जो मानव के अंधेरों को रोशनी से जगमगा दे। मेरे लिए तो शिवजी का वरदान था वह।
3 महीने बाद मैं मुंबई आ गई। नया बसेरा, जीवन की नई शुरुआत, आर्थिक संकट मुँह बाए था लेकिन जीवन की उन कमियों में भी हेमंत की शरारतें मेरे दुखों पर मरहम लेप देतीं।
अंधेरी के लिटिल एंजेल स्कूल में केजी में उसका दाखिला हुआ। घर दूर होने की वजह से उसे स्कूल छोड़ने जाना और घर लौटकर फिर लेने जाना संभव न था। मैं भी अपना बस्ता तैयार करती। पढ़ने के लिए कोई उपन्यास लिखने का मूड हुआ तो कुछ कागज कलम। दिन भर स्कूल के बगीचे में पत्थर की बेंच पर बैठी रहती। छुट्टी के बाद लाव लश्कर सहित घर लौटती। हेमंत इतना थक जाता कि आते ही सो जाता। घंटे भर बाद उठकर होमवर्क करने लगता। मुम्बई की दूरियों ने उसका बचपन छीन लिया था।
मेरे बीएड करने के दौरान एक साल के लिए उसे अम्मा के पास आगरा में रहना पड़ा था।
आज सोचती हूँ तो लगता है उस नन्हे से बच्चे में कितनी समझदारी थी। एक बच्चे से उसका पुराना स्कूल छुड़ाकर बिल्कुल नए शहर, नए स्कूल और नए परिवेश में रहने की अपेक्षा करना... परिवेश भी आश्रमनुमा बल्कि आश्रम ही। अम्मा राधास्वामी संप्रदाय की थीं। इसलिए दयालबाग आश्रम में रहती थीं। आश्रम के नियमों के अनुसार रेडियो सुनना, टीवी देखना मना है। कुत्ता बिल्ली पालना मना है। किसी तरह का कोई मनोरंजन नहीं। एक उदासी भरा सन्नाटा जहाँ चौबीसों घंटे पसरा रहता है वहाँ मेरे बेटे ने एक साल इसलिए खुशी-खुशी गुजारा। (तब वह चौथी क्लास में पढ़ता था) कि उसकी माँ बीएड कर सके।
उन अव्यवस्थाओं, विपरीत परिस्थितियों में भी उसने 90% अंक लाकर मेरे अंदर तेजी से यह एहसास करा दिया था कि वह अन्य बच्चों की तरह नहीं है। उसमें कुछ अतिरिक्त है, विलक्षण है। कुछ ऐसी विद्वत्ता, कुछ ऐसी कला, ऐसे गुण, ऐसा स्वभाव जो उसे आम आदमी से अलग सिद्ध करता है। स्कूल और कॉलेज स्तर पर विभिन्न प्रतियोगिताएँ जीतना, निबंध, कहानी, कविता लेखन में प्रथम स्थान प्राप्त करना, नगर स्तर पर रेखा चित्रकला प्रतियोगिता में प्रथम स्थान, चित्र पहेली प्रतियोगिता में प्रथम स्थान, अंग्रेजी स्टोरी राइटिंग प्रतियोगिता में प्रथम स्थान पाना इतना ही नहीं प्रादेशिक स्तर पर मराठी शिक्षक संघटना द्वारा आयोजित मराठी भाषा की लिखित प्रतियोगिता में प्रथम स्थान मिलना इसके अलावा
, नाटक खेलना, गिटार बजाना, जो हेमंत ने किया वह एक बहुत आम बात थी। लेकिन सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान ग़ालिब, फिराक, निदा फाजली की गजलें पढ़ना, हेमिंग्वे कीट्स, बायरन और शेक्सपियर के साथ-साथ कालिदास को भी चाव से पढ़ना। मैं दंग रह जाती उसकी लाजवाब अंग्रेजी पर, उससे भी अच्छी हिन्दी पर, मराठी पर। बाद में उसने उर्दू के पाठ मुझ से सीखे और फ्रेंच इंस्टिट्यूट से फ्रेंच भाषा। उसे सधुक्कड़ी भाषाओं में रस आने लगा। वह कबीर पढ़ता तो विचलित हो जाता जबकि अपनी लिखी कविता की चंद पंक्तियाँ तो उसने 10 वर्ष की आयु में सुना कर मुझे चौंका दिया था
" और कहीं भी क्या फूलों का अंबार लगा है
या मेरा ही मन भंवरे-सा गुंजार हुआ है"
उसके कवि गुण पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। कहा जा चुका है कि हेमंत में गहरी एंद्रिकता के साथ-साथ एक ऐसी आरपार दृष्टि की समझ थी जिसने एकाएक ही उसे सफल कवियों की श्रेणी में ला बिठाया। सफल कवितागिरी से नहीं बल्कि अपनी संवेदना को प्रकट करने की जादुई समझ से। उसका पहला और अंतिम कविता संग्रह "मेरे रहते" जो उसकी मृत्यु के बाद प्रमिला वर्मा के संपादन में छपा और जिसमें उसके बनाए रेखाचित्र भी हैं और जो आज इतना लोकप्रिय हो रहा है कि लोग हाथों-हाथ खरीद रहे हैं उस संग्रह की अंतिम कविता मन को चीर डालती है।
मेरे रहते
ऐसा कुछ भी नहीं होगा मेरे बाद
जो नहीं हुआ मेरे रहते
वही भोर के धुँधलके में लगेंगी डुबकियाँ
दोहराये जायेंगे मंत्र श्लोक
वही ऐन सिर पर
धूप के चढ जाने पर
बुझे चेहरे और चमकते कपडों में
भागेंगे लोग दफ्तरों की ओर
वही द्वार पर चौक पूरे जायेंगे
और छौंकी जायेगी सौंधी दाल
वही काम से निपटकर
बतियाएँगी पडोसिनें
सुख दुख की बातें
वही दफ्तर से लौटती
थकी महिलाएँ
जूझेंगी एक रुपये के लिये
सब्जी वाले से
वही शादी ब्याह, पढाई कर्ज
और बीमारी के तनाव से
जूझेगा आम आदमी
सट्टा, शेयर, दलाली
हेरा फेरी में
डूबा रहेगा खास आदमी
गुनगुनाएँगी किशोरियाँ
प्रेम के गीत
वेलेंटाइन डे पर
गुलाबों के साथ
प्रेम का प्रस्ताव लिये
ढूँढेंगे किशोर मन का मीत
सब कुछ वैसे ही होगा...
जैसा अभी है
मेरे रहते
हाँ, तब ये अजूबा ज़रूर होगा
कि मेरी तस्वीर पर होगी
चन्दन की माला
और सामने अगरबत्ती
जो नहीं जलीं मेरे रहते
यह कविता प्रश्नचिन्ह लगाती है कि क्या हेमंत को अपनी मृत्यु का पूर्वाभास था? पर वह तो बहुत जिंदादिल इंसान था। उसके मन में आनंद ही आनंद भरा था। जहाँ बैठता महफिल जुटा लेता। उस दौरान अगर मैं काम में व्यस्त रहती तो मुझे कंधों से पकड़कर सोफे पर ला बिठाता।
"मम्मी, पल भर कामों को भूल भी जाया करो।" उसकी हर अदा में शान थी। आला दर्जे के कपड़े पहनना, आला दर्जे की घर की सजावट, आला दर्जे का खाना-पीना। इस शान में भी एक सादगी थी ...सादगी, भोलापन और मासूमियत। घर में होता तो अपने पुराने जींस, पैंट को काटकर अपने हाथों सिलाई की गई हाफ पेंट पहनता और कोई उपन्यास या कविता की किताब लेकर औंधे लेट जाता। फिर चाहे सर पर ड्रम ही क्यों न बज रहा हो। उसके आनंद में जरा भी खलल नहीं पड़ता। वह जो कुछ करता डूबकर करता। उसे प्रकृति से बेहद प्यार था। वह अंधेरे तक को एंजॉय करता। अंधेरे में सोफे पर बैठ कर वह अपने प्रिय गायक हेमंत कुमार और तलत महमूद के कैसेट सुनता। इतना मग्न होकर कि मानो बस वही घड़ी सार्थक है बाकी सब निरर्थक। अकेलेपन के एहसास को उसने धरती के अंधेरे उजालों में समो लिया था। उसका कोई भाई, कोई बहन न होने की कमी उसने कभी मेरे सामने प्रकट नहीं की। पर महसूस इतनी की कि उसके मित्रो का दायरा फैलता ही गया और वह उनके बीच रमता गया।
उसे अरहर की दाल, चावल, आलू मटर की सब्जी, बैंगन का भर्ता, आम और मिर्च का अचार बेहद पसंद था। समोसे उसके पसंदीदा थे। कोई भी त्यौहार हो घर में ढेर पकवान बनते लेकिन समोसे की फरमाइश वह जरूर करता।
नौकरी के कारण मेरी व्यस्तता ने उसे खाना बनाना सिखा दिया था। मैं टूर पर होती तो मुझे कभी उसके खाने की चिंता नहीं करनी पड़ती। मैं उन दिनों मंगलवार का व्रत रखती थी और शाम को दही पराठे खाकर व्रत खोलती थी। दिन भर के लेक्चर के बाद मैं निढाल-सी घर लौटती तो पाती कि वह जल्दी-जल्दी मेरे उपवास खोलने की तैयारी कर रहा है। मैं भी बच्ची जैसी खाने बैठ जाती। वह गरमा गरम पराठे परोस लाता और प्यार से मेरे सामने बैठकर पहला कौर खिलाता और फिर दिन भर की बातें सुनाता। उन्हीं दिनों उसने स्वाति से अपने लगाव की चर्चा की थी। स्वाति महाराष्ट्रीयन सावंत परिवार से थी और दोनों शादी करना चाहते थे। स्वाति में ऐसा कुछ न था जिसे वजह बनाकर मैं इंकार करती। लिहाजा मैंने उसे अपनी होने वाली बहू के रूप में स्वीकार कर लिया था और उसका घर में आना जाना शुरु हो गया था।
मेरे लेखन, पत्रकारिता, आदिवासी महिलाओं के लिए किए गए मेरे उल्लेखनीय कार्यों, मेरे लिखे साहित्य पर एम फिल, पीएचडी, मुझे मिले तमाम पुरस्कारों और पब्लिक स्कूल में अध्यापन को लेकर हेमंत जहाँ एक ओर गौरवान्वित था। वहीं छोटे से छोटे कामों के प्रति कभी हिचकिचाता नहीं था। रमेश लिवर सिरोसिस की बीमारी के कारण साल भर गंभीर रूप से बीमार रहे। घर में केवल मेरा ही वेतन आता था। आर्थिक तंगी से हम जूझ रहे थे क्योंकि एक तो हमने विरार में फ्लैट लोन बेसिस पर बुक करा लिया था दूसरे रमेश की बीमारी में रुपया पानी की तरह बहा जा रहा था। मुझे होश न था कि हेमंत की पढ़ाई, जेब खर्च आदि कैसे निपटता जा रहा है। एक दिन उसे और उसके दोस्त बेंजामिन को पैरों में मालिश करते देख मैं चौंकी। पता चला दोनों फाइव गार्डन जैसे पॉश इलाके में सुबह-सुबह पेपर बांटने हॉकर बनकर जाते हैं। कभी-कभी लिफ्ट आने में देरी के कारण छह-छह मंजिल सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती थीं। मैं स्तब्ध रह गई थी। लेकिन हेमंत की कर्मठता से मैं खुश भी थी। वह मुँह अंधेरे ही उठकर पेपर बांटने चला जाता था। कॉलेज से लौटकर शाम को ट्यूशन पढ़ाता था। साथ ही अस्पताल की भागदौड़, रसोई में मेरी मदद और घर की साज सज्जा बडे सलीके से निभाते हुए उसने यह महसूस नहीं होने दिया कि वह कठिन पढ़ाई के दौर से गुजर रहा है कि उसे पढ़ाई के लिए खूब सारे रूपयों की जरूरत है। मुझे तो वह गुड़िया-सी सजा कर रखता। मेरे लिए कपड़े खुद खरीदता। जूते चप्पल, बिंदी, गहने जैसे कि मेरा पिता हो। प्रतिदिन मेरे कपड़ों में सुबह 5 बजे उठकर आयरन करता। उसे कपड़ों में तह की लकीरें भी पसंद न थीं और आयरन वाला तो कपड़े तह करके ही लाएगा।
रमेश स्वस्थ हुए तो मैं बीमार मेरी रीढ़ की हड्डी में गैप हो गया। खूब इलाज कराया पर जरा भी फायदा नहीं। न झुक सकती थी, न बिना तकिए के सहारे बैठ सकती थी। कमर में बेल्ट बाँध कर पढ़ाने जाती। असहनीय दर्द, डॉक्टर का बस एक ही निष्कर्ष ऑपरेशन जो मैं कराना नहीं चाहती थी। मेरी सहकर्मी ने भी इसी रोग का ऑपरेशन कराया था। उसकी हालत अब यह थी कि शरीर अकड़ा रहता था। शरीर का लोच खत्म हो गया था। इसी से डरती थी। तभी डॉ मढीवाला के आयुर्वेदिक इलाज का पता चला। आयुर्वेदिक दवाएँ, परहेज का भोजन और इसके साथ ही उनके बनाए स्पेशल तेल से बहुत ही स्पेशल मालिश। लेकिन मालिश करे कौन? तब हेमंत ने 2 दिन तक डॉक्टर से मालिश की ट्रेनिंग ली और साल भर तक मेरी कमर की आधा घंटे रोज मालिश की और बिना ऑपरेशन के मुझे ठीक कर दिया।
मुझे तो बाद में पता चला कि मेरी बीमारी के दौरान उसने कितना बड़ा त्याग किया था। महाराष्ट्र सरकार की ओर से छात्रों के लिए भारत के ऐतिहासिक स्थलों के शैक्षिक टूर का कार्यक्रम बना था। हेमंत के सभी दोस्त लगभग बाइस दिन की इस यात्रा पर गए। जिसमें उसका प्रिय शौक ट्रैकिंग भी शामिल था। पर वह नहीं गया। और इस टूर की खबर भी मुझे लगभग महीने भर बाद दी। तब तक तो टूर लौट भी आया था।
न केवल पारिवारिक कर्तव्य बल्कि सामाजिक दुर्दशा भी उसके दिमाग में फितूर बनकर मंडराती। यह वह समय था जब मुंबई सांप्रदायिक दंगों की त्रासदी झेल रहा था। सीरियल बम ब्लास्ट ने मुंबई की तेज रफ्तार जिंदगी को लड़खड़ा दिया था। अखबारों में वह सब नहीं छपता था जो हो रहा था। वह कसमसा उठा था। उसकी प्रबल भावनाओं ने उसे रिपोर्टर बना दिया था और वह दैनिक अखबार संझा लोकस्वामी के लिए रिपोर्टिंग करने लगा था।
तभी मैंने और प्रमिला वर्मा ने मिलकर मुम्बई के कथाकारों की विभाजन और सांप्रदायिक दंगों पर आधारित कहानियों का संग्रह "नहीं अब और नहीं" संपादित करके परिदृश्य प्रकाशन से प्रकाशित करवाया जिसका लोकार्पण अभिनेता।अंजन श्रीवास्तव और दूरदर्शन के तात्कालिक निदेशक मुकेश शर्मा के हाथों मुंबई की आशीर्वाद संस्था ने करवाया।
उस दौरान पत्रकारिता के साथ उसने नेत्रहीनों की समस्याओं को भी करीब से देखा था। उनके कल्याण के लिए उसने बेंजामिन के साथ मिलकर मिलेनियम 21 नाम से एक इवेंट कंपनी स्थापित की और नेत्रहीनों के नाम अपना पहला कल्चरल प्रोग्राम संपन्न करने में दोनों जुट गए। गायक पंकज उधास से कार्यक्रम की तारीख भी मिल चुकी थी लेकिन...
कभी-कभी मैं सोचती हूँ कितनी जल्दी थी उसे हर काम निपटाने की। जैसे वक्त कम हो उसके पास। आज को जीने की ललक जैसे कल का भरोसा नहीं।
उसकी डायरी की चंद लाइने आज भी मुझे कुरेदती हैं ..."कैसे समझाऊँ स्वाति को कि वह जो खुद को कमियों में रखकर, तरसा कर बचत करती है। वह फिजूल है। कल किसने देखा है। वैसे भी आज का युवा तो जान हथेली पर लिए घूमता है। उसका भविष्य तो आतंक की छाँव तले पनप रहा है। बंदूक की नोक, रेल की पटरी, बम धमाके और सड़क हादसों के बीच सहमा खड़ा है उसका भविष्य।"
वह स्वाति को आज में जीना तो सिखा गया पर उसके हृदय में अपनी इंसानियत की ऐसी छाप छोड़ गया कि अब स्वाति सिर्फ उसके लिए जीती है। सिर्फ उसके अधूरे कामों को पूरा करने का बीड़ा उठाए। कहती है "मैं हेमंत के लिए ही इस दुनिया में आई थी और हेमंत के हिस्से की जिंदगी जी कर ही इस दुनिया से जाऊंगी।" उसकी आँखों के आँसू उसकी गोद में रखी हेमंत की तस्वीर की आँखों में झर-झर गिर रहे थे। प्रेम के इस समर्पण में मानो धरती आकाश थर्रा उठे थे। हेमंत ने कविता लिखी थी
आओ ... आओ मेरी प्रिये
मुझे राँझे, पुन्नू और महिवाल का
धर्म निभाने दो
मिट जाने दो मुझे
आओ जीवंत करो मेरे मिटने को
उठो और जियो
हाँ मुझे जियो
और स्वाति सचमुच हेमंत को जी रही है। हेमंत सड़क के लावारिस कुत्तों को दूध बिस्किट और चिकन के उपयोग में न आने वाले उबाले हुए टुकड़े जिन्हें वह ग्रांटरोड के एक होटल से मीरारोड तक लोकल में सफर करते हुए खुद लाद कर लाता था और जिनका वजन लगभग 5 किलो होता था, प्रतिदिन खिलाता। अब यह जिम्मा स्वाति निभाती है। कुत्ते भोजन तो खाते हैं पर चौंक-चौंक कर। मानो उसके आने की प्रतीक्षा में इधर उधर देखते हैं। ये तमाम कुत्ते 5 अगस्त 2000 शनिवार के दिन सड़क के मोड़ तक हेमंत को छोड़ने गए थे। जैसे कि अब दोबारा नहीं मिलेंगे। वह मनहूस दिन घनघोर घटा-सा मेरे सिर पर ताउम्र मंडराता रहेगा।
5 अगस्त 2000 हेमंत अपने ऑफिस के 11 सहकर्मियों के साथ फ्रेंडशिप डे मनाने मुम्बई के करीब खूबसूरत हिल स्टेशन माथेरान गया था। मैं भी जाना चाहती थी पर हेमंत ने टाल दिया कि वे लोग नेरल से ट्रेकिंग करते हुए माथेरान जाएंगे और कमर दर्द के कारण मैं ट्रेकिंग नहीं कर पाऊंगी। वे रात के किसी वक्त माथेरान पहुँचेंगे और दूसरे दिन 6 अगस्त को फ्रेंडशिप डे मनाएंगे। मेरे घर शाम को संजीव निगम आए। प्रमिला, रमेश हम सब चाय समोसे का आनंद लेते गप्पे मार रहे थे कि करीब सवा 6 बजे अचानक हेमंत की सबसे प्रिय अलार्म घड़ी सुरीली तान छेड़ने लगी। इस घड़ी में कभी अलार्म नहीं भरा जाता था। मैं चौंक पड़ी। संजीव निगम ने कहा-"अच्छी धुन है अलार्म की।" लगभग 5 मिनट तक गहरी चुप्पी छाई रही। मुझे क्या पता था कि इन 5 मिनटों में मेरी दुनिया ही उजड़ चुकी है। हेमंत मौत के करीब पहुँच चुका था। ठीक उसी वक्त उन्हीं लम्हों में कि जैसे उसने सूचित किया हो "कि लो अंतिम बार मेरी मौजूदगी महसूस कर लो। फिर मैं कहाँ।"
फिर फोन का बजना। दुर्घटना की सूचना। मेरा रमेश के साथ लोकल पकड़ कर भागना। मुंबई सेंट्रल में स्वाति और उसकी मम्मी डैडी का कार लेकर तैयार मिलना और हमारा नेरल पहुँचना। मेरी जिंदगी में कील-सी ठुकी इन घटनाओं का गुजर जाना उस रात मैंने कहाँ जाना था! जाना था तो बस इतना कि जब हम नेरल पहुँचे तो मेरे बेटे सहित पाँच लाशों का पोस्टमार्टम चल रहा था और अपार जनसमूह सन्नाटे में अस्पताल के सामने खड़ा था। पर यह मुझे क्या हुआ ...मैं अपनी सोचने समझने की शक्ति खो रही थी। पत्थर हो चुकी थी मैं... जैसे शरीर का सारा रक्त निकल गया हो। जैसे पैरों तले जमीन ही न हो। स्वाति को मूर्छित होते बचाया उसकी मम्मी ने। फिर मुझे अपने कंधों पर ढह जाने दिया। शिवसेना प्रमुख प्रवीण ने बताया कि हेमंत की मारुती वैन जुम्मा पट्टी के खतरनाक मोड़ से जब घाटी में गिरी तो एक भेड़ बकरी चराने वाले ने देख लिया। वह दौड़ता हुआ प्रवीण के पास आया और मिनटों में ही पूरा नेरल घटनास्थल पर इकट्ठा हो गया। माथेरान जाने के लिए हेमंत ने जो ट्रैकिंग का प्रोग्राम बनाया था वह साथ जाने वाली एक लड़की के कारण कैंसिल हो गया था। सभी ने दो वैन किराए पर ली थी। हेमंत की वैन पर छह और दूसरी पर पांच लड़के सवार थे। 2 मिनट पहले ही न जाने क्यों शायद मौत का बुलावा था हेमंत ने दूसरी वैन के एक लड़के से अपनी सीट बदली थी और 2 मिनट बाद ही वह वैन संतुलन खोती घाटी में जा गिरी थी। वैन पर सवार पाँचो खत्म हो चुके थे।
हेमंत को लिए जब एंबुलेंस घर लौट रही थी मैं अन्य लोगों के साथ कार में थी। एंबुलेंस को घेरे भरी आँखों से हेमंत को विदा देते नेरलवासी, पाँच जवान मौतें उनके गाँव में हुई थीं। इस सदमे ने सबको झंझोड़ डाला था। कितने सिर मेरी कार की खिड़की पर झुके थे।
"दीदी, हमें अपना हेमंत समझिए।"
"आंटी, हम आपके बेटे हैं। कभी भी जरूरत हो बुला लेना। यह हमारा फोन नंबर।"
पर उस वक्त इन दिलासाओं को, हमदर्दी को समेटना मेरे लिए दूभर हो रहा था। मैं जो शून्य हो चुकी थी। मेरे कंधे पर सिर रखे स्वाति बुदबुदा रही थी ..."मेरा भगवान एंबुलेंस में है। मैंने गणपति से प्रार्थना की थी कि चाहे मुझे कितना भी दुख दो पर अपने पर से मेरा विश्वास मत जाने देना। आज मेरा विश्वास खत्म। गणपति भी खत्म।" स्वाति के शब्द मेरा कलेजा बींध रहे थे। हेमंत की नौकरी के लिए उसने 21 मंगल व्रत की मन्नत की थी। वह 6 घंटे सिद्धि विनायक मंदिर में दर्शन पूजा के लिए लगी लाइन में खड़ी रहती थी। दो मंगल व्रत के बाद ही उसकी पोसित्रा पोर्ट लिमिटेड में हाई पोस्ट पर नियुक्ति हो गई थी। 6 महीने बाद जर्मनी भेजा जाना था। ब्राइट फ्यूचर सामने था। लेकिन नौकरी लगे अभी डेढ़ माह ही गुजरा था कि यह हादसा। विश्वास कैसे न डिगता उस मासूम का। विश्वास मेरा भी डिगा। हाँ मैं स्वीकार करती हूँ। ईश्वर के प्रति मेरी गहरी आस्था हेमंत के साथ ही भस्म हो गई।
जिस घर में शादी की भीड़ जुटनी थी मातम की भीड़ जुट रही थी। जिसे दुल्हन बन कर इस घर में आना था आज वह हेमंत के निर्जीव पैरों पर सर रखे पैरों को सहलाते जड़वत अपने डैडी को देख चीखी थी ..."बग पप्पा, काय झाला" और रो पड़ी थी हर आँख।
अभी शुक्रवार की रात को ही तो 12 बजे तक हम हेमंत की शादी की प्लानिंग करते रहे थे। वह बोला था "मम्मी मैं घोड़े पर नहीं चढ़ूंगा। कितना फनी लगता है।"
"वह तो हमारी परंपरा है। बाकायदा बरात जाएगी चर्चगेट से स्वाति के घर मुंबई सेंट्रल तक।"
वह हँसता रहा था। फिर नया खरीदा परफ्यूम, शेविंग क्रीम और शेविंग किट दिखाया। छोटा-सा हैंडल जिसमें टूथ ब्रश भी फिट हो जाता है और रेज़र भी। नन्ही-सी टूथपेस्ट की ट्यूब। उसने सारा सामान अपने शोल्डर बैग में रखा। वह देर तक मेरे पैरों और कमर की मालिश करता रहा। बहुत खुश था।
असल में हम 6 अगस्त को स्वाति की गोद भरने जा रहे थे। लेकिन उसने कहा था कि माथेरान से लौट आने दो। फिर।
क्यों रोका उसने? कोई भीतरी संकेत?
यह सवाल बार-बार मुझे हेमंत के असाधारण व्यक्तित्व को मान लेने पर मजबूर करता है। 5 अगस्त की सुबह ही उसने हमारी नौकरानी से कहा था..."पंखे ट्यूबलाइट अच्छे से साफ कर दो। शाम को मम्मी के दोस्त आने वाले हैं। मम्मी जो कहे कर दिया करना। उन्हें तंगाना नहीं।" मेरी नौकरानी आज भी इन शब्दों को याद कर जार-जार रोती है और मेरे प्रति पूर्ण समर्पित है। स्वाति बताती है कि दुर्घटना के हफ्ते भर पहले जब वे दोनों मरीन ड्राइव पर टहल रहे थे हेमंत ने अचानक गंभीर होकर कहा था "स्वाति तुम्हें नहीं लगता यह नाते रिश्ते मात्र दिखावा है। अगर मुझे कुछ हो गया तो दो दिन रो गाकर सब लौट जाएंगे। लेकिन मम्मी का क्या होगा। वह तो तनहा अकेली रह जाएंगी। उन्हें तुम संभालोगी स्वाति हेमंत बनकर।"
मैं ही नहीं बल्कि हेमंत के कविता संग्रह "मेरे रहते" की समीक्षा करते हुए डॉ दामोदर खडसे ने भी इस बात को महसूस किया। उन्होंने लिखा कि हेमंत की कविताओं में बौद्धिक मायाजाल न होकर सीधी सपाट और सरल बात बहुत प्रभावी और गतिमान शैली में कही गई है। मात्र 23 बसन्त के साक्षी हेमंत ने अपनी छोटी-सी उम्र में बहुत लंबी जिंदगी को बयान किया है। कविताओं में जगह-जगह मृत्यु बोध जहाँ चौकाते हैं वहीँ इस आभास को सच्चाई की ओर मोड़ भी देते हैं। कविताएँ बताती हैं कि हेमंत एक सशक्त इरादों सपनों को सच्चाई में ढालने और अन्याय, शोषण के खिलाफ आवाज उठाने को ताउम्र जूझ सकता था। संभवत: अत्यंत संवेदनशील कवि होने के कारण उसने पीछा करती मृत्यु को महसूस किया होगा। हेमंत की कविता
वादा करो / तुम मुझे नहीं पुकारोगी / तब मुझे पीड़ा होगी / मैं लौट नहीं पाऊंगा न माँ / उस अनंत से ...
आखिर क्यों तुम्हारी कविताओं में प्रेम भी था और मृत्यु भी। दोनों ही जीवन के शाश्वत सत्य।
कुछ पल गुजरे। भारी और नम। तमाम साहित्यकारों से घर भर चुका था। पड़ोसी, रिश्तेदार, स्वाति के रिश्तेदार, हेमंत के ऑफिस के सभी।
वह सफेद कफन ओढ़े सजा-धजा लेटा था। आँखें मुंदी जैसे ध्यान मग्न। इतनी भयानक दुर्घटना के बाद भी चेहरे पर असीम शांति। इतनी शांत मौत, किसी ने पीछे से कहा हेमंत ऋषि था। तुम धन्य हो जो वह तुम्हारा बेटा था।
"लीजिए तिलक लगाइए"
थाल मेरे सामने आया। मैंने रोली में अंगूठा डुबोकर उसके माथे पर तिलक लगाया। उसके खूबसूरत मुलायम बाल माथे पर बिखरे थे। आँखें शांत मुंदी हुई, गालों पर दाढ़ी का हरापन झलक रहा था। होठ थोड़े से खुले और उनमें से झांकते शुभ्र दांत। मुट्ठी भर गुलाब के फूल उसके सीने पर मेरे हाथों ने डाले। फिर तो मानो फूल बरस गए। वह फूलों से दूल्हे की तरह सज गया। उसके मुँह में गंगाजल डाला गया तो पानी होठों के कोनो से बह चला। मैंने अपने आँचल से उसका मुँह पोछा। इसी तरह तब भी मैं उसके होंठ पोछती थी जब वह दूध के गिलास से दूध पीकर मूंछें बना लेता था। उसकी दूधिया किलकारियाँ ...मेरी ममता सूनी हो गई। अब कौन मुझे मम्मी कहेगा? कैसे सह पा रही हूँ मैं यह सब? मैं जो उसकी हल्की-सी बीमारी से कुम्हलाए चेहरे को भी नहीं सह पाती थी। जबकि मैं उसके साहस का लोहा मानती थी। फिर भी समुद्र की लहरों में डूबती अपनी प्रमिला मौसी को उसने उफनती लहरों से संघर्ष कर जब बचा लिया था तो जैसे मेरा साहस चुक गया था। वे लहरें महीनों मेरे दिमाग पर छाई रहीं और मेरा पीछा करती रहीं। आज वह सदा के लिए जा रहा है। सारे सांसारिक बंधन तोड़ कर फिर कभी न लौटने के लिए तो मैं क्यों नहीं रोक पा रही हूँ उसे? क्यों सूनी आँखों से उसकी विदाई देख रही हूँ?
इस दुर्घटना की खबर मुंबई के अखबारों में तीन-चार दिन के अंतराल से अलग-अलग तरह से छपी। कथादेश, हंस, वागर्थ, कथाबिंब, साहित्य अमृत, मसि कागद, समीचीन, शेष, काव्या, साहित्य बुलेटिन, आदि तमाम पत्र पत्रिकाओं में उसकी कविताएँ छापकर उसे रचनात्मक श्रद्धांजलि दी गई।
औरंगाबाद स्थित प्रमिला के घर में फोन की सुविधा न होने के कारण प्रमिला के परिवार को हेमंत की सूचना नहीं मिल पाई थी। तब नागपुर से संपादक अच्युतानंद मिश्र ने दैनिक अखबार लोकमत समाचार में रातों-रात पैंफलेट छपवा कर रखवाये थे जिसमें लिखा था कि संतोष श्रीवास्तव के एकमात्र पुत्र हेमंत का कार दुर्घटना में मुंबई में निधन और यह अखबार जब औरंगाबाद पहुँचा तब प्रमिला के परिवार को सूचना मिली और वह लोग जीप से मुंबई आए।
सैलानी सिंह ने अपने संस्मरण में लिखा है कि मैं उनका पारिवारिक मित्र होने के नाते हैदराबाद से दौड़ा आया। लेकिन संतोष दीदी का सामना करने की हिम्मत मुझ में नहीं थी। मैं दादर स्टेशन पर घंटों बैठा सिगरेट पर सिगरेट फूंकता रहा फिर डरते हुए प्रमिला जी को फोन किया। थोड़ी हिम्मत लौटी और जब उनके घर पहुँचा तो खुद बुक्का फाड़कर रोता रहा संतोष दीदी के कंधों पर सिर रखकर। वह तो पत्थर हो चुकी थीं। उनके ऊपर किसी भी प्रतिक्रिया का कोई असर न था। मैंने गुलाब के फूलों से लदी हेमंत की तस्वीर के सामने उनके लिए लिखी कविताएँ रखकर उन्हें काव्यमय श्रद्धांजलि दी। ये चारों कविताएँ मैंने इंटरनेट पर हेमंत की मृत्यु का समाचार सुनकर हैदराबाद में रात्रि 3: 00 से 5: 00 के बीच लिखी थीं।
हेमंत की तस्वीरों पर
पहना दिए गए होंगे पुष्प हार
उनकी तस्वीरों पर
हम चढ़ा रहे होंगे फूल कुछ
जिनके अरमानों पर
अभी हमें टांकने थे सितारे
चाँद में दिखता है एक चेहरा
उसका हँसना लगती है
चाँद की हँसी
वह चेहरा हमारे बीच नहीं रहा
यकीन नहीं होता
एक हँसी हमारे बीच नहीं रही
अब सोचने और समझने के
सभी रास्ते बंद हैं
अब तुम हमारे बीच नहीं हो हेमंत
इस सत्य को अपनाना ही होगा।
अनन्य प्रकाशन दिल्ली के प्रकाशक उमेश मेहता जी जो मेरे मित्र हैं और जिन्होंने हेमंत को गोद में खिलाया है, लिखा,
मौत जरा तो रुकती
रुक कर सोचती
कौन तुम्हारे सामने है
एक अकेला फूल हेमंत
क्या उसे ले जाना धर्म था
क्यों बनी अधर्मी तुम
ढाँढ़स, तसल्ली, संवेदना के ढेरों ढेर वाक्य फोन, मेल, मैसेज द्वारा मेरे मन को शांत कर रहे थे या मथ रहे थे यह सोचना मेरे लिए दूभर था।
प्रमिला बता रही थी कि "हादसे की रात 11: 30 बजे दिल्ली से भारत भारद्वाज का फोन आया था। मैंने बताया कि संतोष और जीजाजी नेरल गए हैं क्योंकि हेमंत का एक्सीडेंट हो गया है। मुझे हाई ब्लड प्रेशर है मैं घर पर ही हूँ। भारत जी हर घंटे फोन कर रहे थे और जब रात 2: 30 बजे मैंने उन्हें अनहोनी की खबर दी तो हृदय विदारक चीख इस ओर से भी, उस ओर से भी। मुझे लगा जैसे मेरे दिल ने धड़कना बंद कर दिया है और मैं गहरे अंधेरे में डूब गई हूँ। 5: 00 बजे सुबह से घर में मुंबई के साहित्यकारों का आना शुरू हो गया। पता चला भारत जी ने रात को ही इस खबर की सूचना सभी साहित्यकारों को दे दी थी।"
सुनकर मैं अभिभूत थी। यही वजह थी कि मेरे नेरल से लौटने पर घर सभी लेखकों से भरा हुआ था। यही मेरे मित्र हैं। मेरे बंधु बाँधव जिनकी शक्ति से भर उठी थी मैं। न केवल मुम्बई बल्कि पूरे भारत और विदेश से भी लेखकों ने फोन से अपनी उपस्थिति दर्ज करा मुझे संभाला। भारत भारद्वाज ने पत्र लिखा "गेटे ने कहा था जीवन का वृक्ष सदा हरा रहता है। सुनो संतोष, हमें शव साधना नहीं करनी चाहिए। हेमंत हमारी स्मृतियों में जीवित ही नहीं सुरक्षित है। रोहिताश्व जी ने गोवा से लिखा" हमारी आँखें आप से कम नम नहीं हैं इस दुर्घटना से। आप हेमंत की इच्छाओं का मान रखें। "पत्र के नीचे एक लाइन और" आपने उसका नाम हेमंत क्यों रखा? "
ज्ञानरंजन दा ने लिखा "हेमंत को खोकर तुमने जीवन का अंश ही खो दिया पर उसकी अच्छी चीजों को याद करती रहो। स्वाति हेमंत का अक्स है। जो तुम्हें स्पंदित करती रहेगी।"
साहित्य की सभी पत्रिकाओं में हेमंत की कविताओं के साथ उसे श्रद्धांजलि अर्पित की गई। हंस, कथादेश, शेष, वागर्थ, कथाबिंब, साहित्य अमृत, मसि कागद, समीचीन, काव्या, साहित्य बुलेटिन आदि तमाम पत्र-पत्रिकाओं में छपी कविताएँ पढ़कर ढेरों पत्र आए कि हेमंत की कविताओं में सच्चाई है। जीवन और प्रकृति के बीच उदार दृष्टिकोण हैं। सामाजिक परिवेश को वह भूला नहीं। उसकी कलम क्रांति और मशाल का मिला जुला रूप है। शोषक और शोषित दोनों वर्गों के लिए चुनौती है। धर्म और आस्था मात्र प्रेम करने में है और मृत्यु को कभी नहीं भूला वह।
वरिष्ठ कथाकार और अंबाला से निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका पुष्पगंधा के संपादक विकेश निझावन ने पुष्पगंधा का हेमंत पर केंद्रित विशेषांक निकाला और अपने संपादकीय में लिखा कि " 23 साल की छोटी-सी उम्र तक हेमंत जो कविताएँ लिख गया उन्हें पढ़कर तो यही लगा कि हेमंत कविता ही लिखने के लिए दुनिया में आया था। अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई के साथ-साथ वह कविता में कहीं गहरे उतर गया था। उसकी भाषा, अभिव्यक्ति व संवेदनाएँ संपूर्ण रूप से कविता में उभर कर आए हैं। हेमंत की कविताओं से हेमंत आपको डिस्टर्ब नहीं करते आत्मीय तरीके से वह अपनी, यानी युग की, यानी समाज के जागरूक व्यक्ति की चिंताएँ आपके साथ शेयर करते हैं। वह आप को झकझोरते नहीं स्पर्श करते हैं।