सपनों में भी धरती की धड़कन सुनते हैं नागार्जुन / निर्मला गर्ग

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नागार्जुन को याद करते हुये
निर्मला गर्ग का संस्मरण

कविता लिखना मुझे संुदर लगता है। मगर मुश्किल। कविता पर लिखना और भी मुश्किल। नागार्जुन की दो कविताएं चुनी हैं। उन पर लिख रही हूं। पर नागार्जुन की रचनाओं पर जितना लिखा जा चुका है और जितनी तरह से लिखा गया उसमें कोई नया आयाम जोड़ पाऊंगीμऐसा नहीं है। जन्मशती वर्ष पर शब्दों के कुछ पुष्पगुच्छ उन्हें भेंट कर रही हूं। बस इतना ही। किताब खोलते ही उस बीहड़ कवि का स्नेहिल चेहरा सामने आ जाता है। क्रोध, खीझ, झुंझलाहट, मुस्कान, मोटी मुस्कानμअनेकों भावों से भरा। उनकी कविताओं जैसा है वह चेहरा या यों कह लें कविताएं उनके चेहरे जैसी हैं। दोनों में द्वैत नहीं है।

ऐसा बहुत कम होता है। हम लिखते कुछ हैं पर हमारा व्यक्तित्व कुछ और है। जिनके लिए लिखते हैं, उनसे किसी भी स्तर पर जुड़े नहीं होते।

नागार्जुन का अधिकांश काव्य साधारण लोगों के अभाव, उनके दुःख-दर्द, उनकी अभिलाषाओं से जुड़ा है। रचनाओं, भाषाशैली, स्थापत्य की भूमिका के बारे में नामवर जी ने उचित ही लिखा है

‘तुलसीदास और निराला के बाद कविता में हिंदी भाषा की विविधता और समृद्धि का ऐसा सर्जनात्मक संयोग नागार्जुन में ही दिखायी पड़ता है।’

नागार्जुन के यहां वर्गचेतना बहुत गहरी है। वे श्रमिक वर्ग के सामने अभिजात वर्ग को खड़ा कर उस पर व्यंग कसते हैं। उनके व्यंग की धार बहुत तीखी होती है, पर कभी-कभी मासूमियत से भरी भी। ‘घिन तो नहीं आती’ एक ऐसी ही कविता है। ट्राम में कुली मज़दूर ठट्ठा कर रहे हैं। गप्प मार रहे हैं। वे ट्राम के सबसे पिछले डिब्बे में बैठे हैं। एक संभ्रांत युवक भी वहां मौजूद है। उसे लक्ष्य कर बाबा कहते हैं:

पूरी स्पीड में है ट्राम

खाती है दचके पे दचका

सटता है बदन से बदन

पसीने से लथपथ ...

छूती है निगाहों को

कत्थई दांतों की मोटी मुस्कान ....

घिन तो नहीं आती है?

जी तो नहीं कुढ़ता है?

मुझे बाबा के कत्थई दांत याद आते हैं। सुबह उठने के बाद वे ब्रश दातुन कुछ नहीं करते थे। बस पानी से कुल्ला कर लेते। भरी गर्मी में भी रोज़ नहीं नहाते थे।

कुली मज़दूरों पर लिखने के लिए क्या बिल्कुल वैसे ही रहना होगा? स्वच्छ नहीं रहना तो प्रतिबद्ध होने की शर्त नहीं है। गांधीजी भी सफ़ाई पर बहुत ज़ोर देते थे।

जहां तक कविता का सवाल हैμश्रमिक वर्ग और कुलीन वर्ग के बीच की दूरी, तल्ख़ी साफ़ उभरकर आती है। युवक से व्यंग में कहते हैं:

दूध सा सादा लिबास है तुम्हारा

निकले हो शायद चौरंगी की हवा खाने

बैठना था पंखे के नीचे, अगले डिब्बे में...

आज के समय में तो वर्गों की दूरियां और बढ़ी हैं। खाई और चौड़ी हुई है। एक वर्ग ऐशोआराम में डूब रहा है, दूसरा अभावों के दलदल में। सरकार की नीतियां ही ऐसी हैं। आमलोगों की तकलीफ़ उसके लिए बस चुनावी एजेंडा है। लोकतंत्रा का समाजवादी सपना हिरण हो चुका है। सरकार पर विदेशी निवेश और कारपोरेट पूंजी का दबाव है।

नागार्जुन आज होते तो इस समय पर तल्ख़ टिप्पणी करते। उनकी कविताएं मनमोहन सिंह के कान खींचतीं... ख़ासकर उनकी अमेरिकापरस्ती पर।

नागार्जुन में तात्कालिकता है। पर उनकी तात्कालिकता में सार्वभौम होने के गुण हैं। उनकी कविता

‘आओ रानी हम ढोयेंगे पालकी

यही हुई है राय जवाहरलाल की’....

कितने मौक़ों पर याद आती है। बाबा के चार दिनों के आतिथ्य का सौभाग्य मुझे मिला है। एक सुबह मैंने देखा-मैग्नीफ़ाइंग ग्लास से बड़े ध्यान से बाबा अख़बार में कुछ देख रहे हैं। मैं पास गयी,

अरे! यह तो श्रीदेवी हैं। सौंदर्य सब को लुभाता है। नागार्जुन भी उसे अनदेखा नहीं कर सके। मुझे कॉलेज में पॉल सर का इलियट या शायद शेली को पढ़ाते हुए यह बताना याद आया, Beauty is its own excuse for being. उसी दिन थोड़ी देर बाद बातचीत में रजनीश का ज़िक्र आया। नागार्जुन ने रजनीश की तारीफ़ की। कहाμ बड़ा विद्वान है वह। मेरा मुंह सारा दिन फूला रहा। मुझे रजनीश का दर्शन पसंद नहीं। रात होते-होते बात समझ में आ गयी। बाबा के प्रति सम्मान और बढ़ा। हम अपने विरोधियों को पूरी तरह ख़ारिज कर देते हैं। उनकी विद्वत्ता, उनके गुणों को नहीं सराहते।

बाबा की दृष्टि चीज़ों को भीतर तक महसूस करती है। भोजन में एक दिन मैंने तोरी की सब्जी बनायी। उसमें अलग से पानी डाला। जैसा कि मैं हमेशा करती थी। बाबा ने डांटते हुए समझाया:

कितनी मूढ़ हो। तोरी, घिया तो ख़ुद पकते समय पानी छोड़ते हैं। अलग से पानी मिलाने से उनका स्वाद बिगड़ जाता है।

अपने दैनंदिन जीवन में हमलोग बाहर से ऐसा बहुत कुछ ग्रहण करते हैं जो हमारी ऊर्जा और मानवीय गुणों को प्रदूषित करता है और आंतरिक मिठास को क्षीण।

इसी सिलसिले में एक बात और याद आती है जो है तो बहुत मामूली, पर उसने मुझ पर ख़ासा प्रभाव डाला। हमारी खानपान की आदतों से भी हमारे विचारों का पता चलता है।

नागार्जुन के भोजन करने का तरीक़ा मैंने अलग देखा। थाली में दो सब्ज़ियां हों और दो रोटियां तो वे एक सब्ज़ी से एक रोटी खायेंगे। दूसरी सब्ज़ी से दूसरी रोटी। उनके चेहरे पर मैंने अन्न के स्वाद की तृप्ति देखी।

हममें से अधिकांश इस तरह नहीं करते। खाते समय हम और और बातें सोचते रहते हैं। भोजन का आनंद शायद ही कभी ले पाते हैं। हर चीज़ का अपना रस है, अपना राग, अपना रंग, अपना रूप। इन्हें ठीक से समझना कविधर्म का या कह लें मनुष्य धर्म का सही निर्वाह है।

नागार्जुन की दूसरी कविता है ‘पैने दांतोंवाली’। मुझे लगाμजो कविताएं मैंने अपने लिखने के लिए चुनी हैं, उन पर औरों का ध्यान नहीं जायेगा; जैसे... ‘कविगण’, ‘प्रतिबद्ध हूं’, ‘बादल को घिरते देखा है’ ‘बहुत दिनों के बाद’, ‘बाक़ी बच गया अंडा’, ‘अकाल और उसके बाद’, आओ रानी हम ढोयेंगे पालकी’, ‘शासन की बंदूक,’ ‘मंत्रा कविता’, ‘कालिदास सच सच बतलाना’। नामवर जी ने ‘प्रतिनिधि कविताएं’ की भूमिका में ‘पैने दांतोंवाली’ का ज़िक्र किया है।

‘पैने दांतोंवाली’ कविता में पैने दांत मादा सूअर के हैं। वह जमना किनारे पूस की गुनगुनी धूप में पसरकर लेटी है। उसके छौने मां का दूध पी रहे हैं।

एक निगाह में लगेगा कि इस कविता में ख़ास क्या है! यह सब तो हम देखते रहते हैं। हम देखते हैं पर लिखा नागार्जुन ने ही। यह नागार्जुन की दृष्टि, उनके सरोकारों की गहराई और उनकी व्यापकता दिखाता है। उनकी कवि निगाह सूअर जैसे जीव तक चली गयी है। और उसे भी उन्होंने ‘मादरे हिंद की बेटी’ बतलाया है।

यह पृथ्वी सिर्फ़ इंसानों की ही नहीं तमाम जीव जंतुओं, कीड़े-मकोड़ों, पशु-पक्षियों की भी है। सबका इस पर बराबर का अधिकार है। मनुष्य अपने लालच में, अपने अहंकार में सब नष्ट किये दे रहा है। ‘यात्राी’ की कविताओं की ख़ास बात यह है कि जब भी वे साधारण मनुष्य या जीव-जंतुओं का ज़िक्र करते हैं तो उनके प्रति दया भाव नहीं होता बल्कि उन्हें वे उनकी पूरी गरिमा में प्रतिष्ठित करते हैं। ‘वह भी तो मादरे हिंद की बेटी है’ कहकर कवि उसे हमारी पंक्ति में बिठाते हैंμहमसे नीचे नहीं। दुर्लभ दृष्टि है यह। जहां तक कविता के शिल्प का सवाल है तो अरुण कमल के अनुसार

‘रोटी की तरह कविता में सबका हिस्सा होना चाहिए।’

इस कविता का शिल्प भी वही है जो नागार्जुन की अधिकांश कविताओं का है।

नागार्जुन के देहावसान के बाद सादतपुर में स्मृति-सभा थी। उस सभा में मैंने इसी मादा सूअर पर आधारित अपनी कविता से बाबा को श्रद्धांजलि दी थी। उस कविता को मैं आज भी यहां लिख रही हूं:

स्मृृिति-सभा में

भद्रजनो, इस स्मृति-सभा में

थोड़ी सी जगह खाली रखिए मेरे लिए भी

बैठूंगी मैं यहां अपने बच्चों के साथ

यूं अकचकाकर क्या देख रहे हैं

मैं वही पैने दांतों वाली अधेड़ मादा सूअर हूं


जिसके लिए बाबा ने लिखा था

यह भी तो मादरे हिंद की बेटी है।

आयी हूं मैं किताब के पन्नों से निकलकर

यमुना किनारे की गुनगुनी धूप छोड़कर

कहना चाहती हूं कुछ अपने और बाबा के रिश्तों के बारे में

चौंकिए मत जितना और जैसा रिश्ता

उनका आप लोगों से था

मुझसे भी कोई कम न था

जीवों में मैं अधम

देखा सबने सदा कीचड़ में लोटते

बिष्ठा खाते

नाक पर रूमाल रख गुज़र जाते बग़ल से

यह नागार्जुन ही थे, गरिमा दी मुझे मां की

परखा मन-मिज़ाज

प्यार से निहारा मेरे छौनों को

ऐसे कवि अपनी मिट्टी से

नाभिनाल की तरह जुड़े होते हैं

चूकती नहीं उनकी क़लम से

छोटी से छोटी चीज़

खोज लाती है वह उनमें जीवन के स्रोत

देखती छोटे-छोटे लोगों में

संभावनाएं परिवर्तन की

बोझ नहीं था उनके लिए जीना

यद्यपि संघर्ष बहुत था

हंसना-रोना, गाना, दांत पीसना

सब एक गाछ के पत्ते थे

औघड़ थे वे, शिव थे

नहीं रहे वे बीच हमारे तो क्या

मैं तो हूं और अनेकों मेरे जैसे।


मो.: 09717163756