इस गन्दगी में स्वर्गीय बहुगुणा को तो मत घसीटो / संजय कोठियाल
मुखपृष्ठ » | पत्रिकाओं की सूची » | पत्रिका: युगवाणी » | अंक: मई 2016 |
संजय कोठियाल
उत्तराखण्ड में चल रही राजनैतिक उथल-पुथल के बीच पिछली 25 अप्रैल को स्वर्गीय हेमवती नन्दन बहुगुणा की जन्म तिथि के अवसर पर काँग्रेस के दोनों खेमे एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते दिखाई पड़े। देहरादून में बहुगुणा जी की मूर्ति पर पहले बागी विधायकों ने विजय बहुगुणा के नेतृत्व में उन्हें याद किया और उसके बाद हरीश रावत ने अपने समर्थकों के साथ वहाँ पहुँचकर उनकी मूर्ति पर पुष्प अर्पित किए। जाहिर है कि इस मौके पर मीडिया की उपस्थिति में दोनों ही धड़ों ने वर्तमान राजनैतिक हालात के लिए एक दूसरे को दोषी ठहराया। हरीश रावत ने जहाँ बहुगुणा को महान सेकुलर नेता बता कर उनके जीवन से प्रेरणा लेने की बात कही वहीं विजय बहुगुणा ने कहा कि ऐसे राजनैतिक हालात में यदि उनके पिता (स्वर्गीय बहुगुणा) जीवित होते तो वो भी ऐसे निंरकुश नेतृत्व के खिलापफ बगावत का रास्ता ही चुनते। उत्तराखण्ड के इस राजनैतिक हालात में यदि स्वर्गीय हेमवती नन्दन बहुगुणा जीवित होते, तो वो क्या करते, इस पर तो अलग से बहस की जा सकती है, पर स्वर्गीय बहुगुणा ने अपने पाँच दशक के राजनैतिक सफर में क्या किया, इसको दोहराने की जरूरत यहाँ इसलिए भी है क्योंकि यह बात उनके पुत्र विजय बहुगुणा ने उठाई है। हेमवती नन्दन बहुगुणा पर उनके विरोधी चाहे कैसी भी टिप्पणी करें, पर इस बात को कतई नहीं नकारा जा सकता कि स्वर्गीय बहुगुणा ताउम्र सेकुलर ताकतों के साथ खड़े रहे और समाज के दबे-कुचले और अल्पसंख्यकों के हित के लिए उन्होंने कभी भी अपने राजनैतिक जीवन में कोई समझौता नहीं किया। हेमवती नन्दन बहुगुणा पर दलबदलू होने का जो मुख्य आरोप लगता है, उसके पीछे भी उनके राजनैतिक विरोधियों का ही हाथ रहा है वरना मोरारजी देसाई, चरण सिंह, जगजीवन राम और चन्द्रशेखर जैसे तमाम खांटी नेता सत्ता के शीर्ष तक तभी पहँुच पाए, जब उन्होंने काँग्रेस से बगावत कर अपने लिए जमीन खोजी। बहुगुणा ने भी जब 80 के शुरुआती दशक में काँग्रेस में घुटन महसूस की तो उन्होंने न केवल काँग्रेस पार्टी ही छोड़ी बल्कि अपनी लोकसभा की सदस्यता त्यागकर वह जनता की अदालत में जनादेश लेने पहँुचे। 1980 और 1982 के गढ़वाल उप-चुनाव को कौन नहीं जानता जब हेमवती नन्दन बहुगुणा के बहाने देश का पूरा विपक्ष इन्दिरा काँग्रेस के खिलापफ गोलबन्द हुआ था और इन्दिरा गाँधी के तमाम छल-प्रपंचांे के बाद भी बहुगुणा ने जनता की ताकत के दम पर उन्हें औंधे मँुह पटक दिया था। विजय बहुगुणा जी! शायद आप यह भूल रहे हैं कि आपके पूज्य पिता तब भी तब की जनसंघ की शरण में नहीं गए थे, और उन्होंने जनता की ऊर्जा के साथ तमाम सेकुलर ताक्तांे को इकट्ठा कर इन्दिरा गाँधी जैसी सशक्त राजनैतिक कद की महिला को जमीन सुंघाई थी। पर आपने क्या किया? अपने पिता की विरासत से जो कुछ आपने हासिल किया, उसको बड़ी बेशर्मी से भाजपा की गोद में बैठ कर आपने स्वर्गीय बहुगुणा का अपमान ही किया है। यदि आपमें जरा भी आत्म सम्मान होता तो ;जैसा आप कह रहे हैंद्ध आप हरीश रावत के निरंकुश शासन के खिलापफ अपने समर्थकों के साथ विधान सभा से इस्तीफा देते और जनता के दरबार में जाकर जनमत हासिल करते, जैसा कि आपके पिता स्वर्गीय हेमवती नन्दन बहुगुणा ने किया था। विजय बहुगुणा जी! आप और आपकी मण्डली जिस तरह से आज हरीश रावत पर आरोप लगा रही है, लगभग ऐसे ही आरोप आप और आपके पुत्र पर तब खुलेआम लगते थे, जब आप मुख्यमंत्राी थे। और मुख्यमंत्राी भी आप तभी बन पाए, जब आप हेमवती नन्दन बहुगुणा के पुत्र थे। वरना अपने दम पर उत्तराखण्ड की राजनीति में आपने ऐसा कोई तीर नहीं मारा जिसे याद किया जा सके। वो तो आपकी किस्मत भली थी कि 2007 में टिहरी लोकसभा क्षेत्र से आठ बार सांसद रहे महाराजा मानवेन्द्र शाह दिवंगत हुए और काँग्रेस की ही तरह भाजपा ने भी उनके पुत्र मनुजेन्द्र शाह पर दाँव खेला, जिससे आपके हत्थे लोकसभा की सीट आ गई। उसमें भी मुख्य बात यह थी कि महाराजा साहब की मृत्यु के बाद हुआ वह उप-चुनाव 2007 के उत्तराखण्ड के आम चुनाव के साथ हुआ और आप तर गए। चूंकि तब किशोर उपाध्याय, शूरवीर सजवाण और ऐसे ही तमाम लोग स्वयं अपने चुनाव में फंसे हुए थे लिहाजा आपका काम और आसान हो गया, वरना तो उससे पहले के पाँच लोकसभा चुनावों में आपकी क्या गत हुई थी, शायद आपको यह याद दिलाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। लिहाजा, उत्तराखण्ड के वर्तमान राजनैतिक हालात के लिए आपने हरक सिंह रावत और अपने कुछ समर्थक विधायकों के साथ जो कुकर्म किया है, उसमें स्वर्गीय हेमवती नन्दन बहुगुणा को न ही घसीटो तो अच्छा होगा। यही आपके लिए और स्वर्गीय बहुगुणा के लिए भी बेहतर होगा।