साथ चलते हुए / अध्याय 14 / जयश्री रॉय
उस दिन अपर्णा मानिनी के बँगले से बहुत निराश होकर लौटी थी। मानिनी ने स्वयं को इस अरण्य में एक तरह से दफ्न कर लिया है। वह खुद जीना नहीं चाहती, कोई किस तरह से उसकी मदद कर सकता था।
एक दिन आदिवासियों के एक गाँव से देर शाम को लौटते हुए उसने कौशल को मानिनी के विषय में बताया था। कौशल मुस्कराकर रह गया था - औरत... प्यार की मारी, और क्या... बाप कैसा भी हो, उसे इस तरह से अकेला छोड़ नहीं सकती।
- क्यों प्यार हम लोगों के लिए कारावास बन जाता है कौशल? कभी सोचती हूँ तो स्वयं ही जबाव नहीं दे पाती।
उसकी उदास आवाज में मेले में खोए किसी बच्चे की-सी निसंगता थी। एक छोटा-सा पहाड़ी नाला पारकर वे दूसरे किनारे पर आए थे। अपने पैर से एक लीच को अलग करते हुए कौशल ने अँधेरे में ही उसका चेहरा टटोला था -
प्यार को कारावास या आलिंगन में बदल देना हमारे ही वश में होता है अपर्णा... संबंध पाश में बदल जाए, इससे पहले ही उसे अपने से काटकर परे कर देना चाहिए।
- इतना सहज नहीं होता सब कुछ... जिन्हें काटकर फेंक देने की बात आप कर रहे हैं, वे जंगलात नहीं, जिंदा रिश्ते हैं... हथियार भले दूसरों पर चलाए, दर्द तो खुद को ही सहना पड़ता है।।
कहते हुए उसके स्वर में डूबता हुआ-सा कोई अहसास था। पुरते हुए किसी घाव के टाँके अनायास उधड़ गए थे शायद... कौशल ने जबाव में कुछ भी नहीं कहा था, चुपचाप चलता रहा था। दोनों के बीच का पसरा हुआ मौन झींगुर की तेज आवाज से टूटता-बिखरता रहा था। एक जंगल उनके आसपास से सिमटकर अनायास उनके भीतर तक उग आया था जैसे। बहुत सघन और निविड़...
देर तक चुप रहने बाद उसने संकोच के साथ पूछा था - आप आजकल कहाँ रहते हैं? दिनों तक नहीं दिखते... रेंजर साहब भी कह रहे थे... उन्हें आपकी बहुत फिक्र रहती है...
- सिर्फ उन्हें? चलते हुए कौशल ने मुड़कर उसकी तरफ देखा था। सुनकर अँधेरे में वह रंग गई थी। बिना कोई जवाब दिए चलती रही थी। चुपचाप।
- बहुत काम है और समय बहुत कम... कौशल ने न जाने कैसी अजनबी आवाज में कहा था। सुनकर वह कहीं से सहम आई थी।
- समय कम है... माने?
- माने... माने तो मै भी नहीं जानता अपर्णा... बस एक गट फीलिंग है... परछाइयाँ गहरी हो रही हैं, घिर रही हैं, उनका घेरा तंग हो रहा है, आसपास कस रहा है... कहीं एक टाइम बम रखा है, टीक्-टीक्कर रहा है, किसी भी क्षण फट सकता है...
उसकी बातें सुनकर अपर्णा सहम उठी थी - कौशल...
- नहीं, डरो नहीं... कौशल ने रुककर उसका हाथ पकड़ लिया था - अपर्णा, अपने आसपास देखो, कितना अंधेर है... किस दुनिया में जी रहे हैं हम... एक तरफ ऐसी जगमगाहट, ऐश्वर्य का वल्गर प्रदर्शन, खुशहाली और दूसरी तरफ... अपर्णा, कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं, यहाँ - अपने आसपास देखो - आजादी के इतने वर्षों बाद भी आबादी का एक बड़ा हिस्सा जीवन की न्युनतम सुविधाओं से भी वंचित है, कीड़े-मकौडों की तरह जी रहा है...
अपनी कलाई पर उसकी कसती हुई अंगुलियों को महसूस करते हुए वह चलती रही थी। यहाँ आने के बाद उसे भी यह बातें उद्वेलित करती रही थीं। एक ही देश, समाज के लोगों के जीवन के बीच ऐसी असामानता... कोई ऐश्वर्य की पराकाष्ठा में जी रहा है और कोई दो जून की रोटी के लिए भी मोहताज है। उसने आदिवासियों की बस्तियों में देखा है, लोग किस अकल्पनीय अभाव में जी रहे हैं! भूखे-नंगे बच्चे... अपुष्ट और बीमार, मरणासन्न वृद्ध, कंकालसार स्त्री-पुरुष... हर जगह वही पीले, भूखे चेहरे, अवसन्न आँखें और मौन प्रश्नों के अंबार...
कौशल अब भी कह रहा था - अपर्णा, सोचो जरा, एक तरफ आजादी के इतने साल बाद भी देश के नागरिकों को पीने का स्वच्छ पानी तक उपलब्ध नहीं और दूसरी तरफ हमारे नेताओं, अफसरों की ऐयाशी... इन नेताओं के रूप में हमने सफेद हाथी पाल लिए हैं। यह लाख दो लाख मंत्री... इनके रख-रखाव, विदेश यात्राएँ, मनोरंजन, मोटी तनख्वाह... इसी में तो हम इनकम टैक्स देनेवालों के आधे से अधिक पैसे खर्च हो जाते होंगे, नहीं? आखिर यह किसके प्रतिनिधि हैं? जिस देश की एक बड़ी संख्या गरीबी की रेखा के नीचे आज भी जीने के लिए अभिशप्त है, उनके प्रतिनिधियों को ऐसी शान-ओ-शौकत में जीने का हक कैसे मिल सकता है? मंत्रियों के बँगलों की सजावट, रख-रखाव में लाखों फूँक दिए जाते हैं। उनकी पार्टियाँ, विदेशों के दौरे, वहाँ उपचार... मुगल गार्डन के फूलों के पीछे करोड़ों उड़ाए जाते हैं, प्रधानमंत्री का हवाई जहाज विदेशों से फर्नीस्ड होकर आता है... अपर्णा यहाँ स्वास्थ्य, शिक्षा, रक्षा जैसी आवश्यक चीजों के लिए हमेशा फंड का अभाव बना रहता है, लेकिन एशियाड, कामनवेल्थ, सेमिनारों पर पानी की तरह पैसा बहाया जाता है।
अपर्णा ने आहिस्ता से कौशल की बाँह छूई थी - कौशल... टेक इट इजी...
- टेक इट ईजी...! टेल मी, फॉर हाउ लांग टु टेक इट ईजी? कौशल की आवाज उत्तेजना से थरथरा रही थी - कहोगी, क्यों सिर्फ कुछ नगर, महानगर जगमगा रहे है, क्यों सारे देश की पूँजी का निवेश गिने-चुने महानगरों, शहरों में हो रहा है? कोई शहर शंघाई बन रहा है तो कोई प्रदेश पिछड़ता ही चला जा रहा है... कोई कौम तरक्की की राह पर है तो कोई संप्रदाय मिट जाने की कगार पर पहुँच रहा है... यह प्रांतीयता, जातिवाद, सांप्रदायिकता इसी असमानता, अन्याय और शोषण का परिणाम है और इन सब की जड में है हमारी राजनीति - वोट की राजनीति, तुष्टिकरण की राजनीति, फूट की राजनीति...
- हमें भावुकता से नहीं, दिमाग से काम लेना चाहिए... लड़ना है, मगर हमारा हथियार सही होना चाहिए। हथियार बंदूक भी होता है और अंहिसा भी... बड़ी शक्तियों के सामने भूखे-नंगों के हथियार ऐसे होने चाहिए जिसे आसानी से कुचला न जा सके। ऐसी विषम परिस्थितियों में लगता है, गांधी आज भी प्रासंगिक हैं, अहिंसा का कोई विकल्प नहीं हो सकता... इतिहास के पन्ने पलटकर देख लो, यह कारगर है, इसलिए भी अनिवार्य है... यह सेना, विशाल स्टेट पावर के आगे दो-चार लाठी, बंदूकों की क्या औकात... मटियामेट कर दिए जाएँगे...
उसकी बात पर कौशल यकायक चुप हो गया था, देर तक बिना कुछ कहे चलता रहा था। चाँदनी में भीगा जंगल गीला-गीला चमक रहा था। पेड़ों के नीचे गहरा अंधकार पसरा था। कोई रात का पक्षी रुक-रुककर निरंतर बोल रहा था। चलती हवा में अजीब सरसराहट थी। पूरा वन-प्रांतर एक गहरे रहस्य में डूबा जैसे स्तब्ध पड़ा था।
न जाने कितनी देर बाद कौशल ने कहा था - जानती हो अपर्णा, जिस दिन यह करोडों भूखे-नंगे लोग एक साथ उठ खड़े होंगे, अन्याय का यह साम्राज्य ध्वस्त होकर रह जाएगा... फ्रांस की खूनी क्रांति के विषय में सुना है न? ... उसी की तरह यहाँ भी खून की नदियाँ बहेंगी, ऐश्वर्य के राजप्रसाद ढहकर जमीन पर गिरेंगे, अन्यायियों के सर गिलोटिन में कटकर रास्तों में लुढ़कते फिरेंगे...
उसकी बात सुनकर अपर्णा सिहर उठी थी - कौशल...
- हाँ अपर्णा, यह छ्द्मवेशी राजे-महाराजे, उनके मंत्री, उनके पाले हुए गुंडे, धर्म के ठेकेदार... इनका अत्याचार अब चरम को पहुँच रहा है... इतिहास गवाह है, अब इनका प्रतिरोध होगा, प्रतिकार होगा... हर क्रिया की प्रतिक्रिया अनिवार्य है... बेजान वस्तु पर भी प्रहार करो तो टंकार उठती है, यह तो जीते-जागते मनुष्य हैं। कब तक चुप रहेंगे? कौशल की आवाज में अजीब खौल थी, गहरा उबाल -
रणभेरी बज उठी है... मुट्ठियाँ तन रही हैं, बाजू फड़क रहे हैं, झुके हुए सर, कंधे उठ रहे है, मेरुदंड सतर हो रहे हैं... शिराओं में रक्त का प्रवाह अब उष्ण हो रहा है... अन्यायी चेत जाए, अपनी सुखनिद्रा से जागे... युद्ध अवश्यमभावी है...
कौशल में जैसे कोई आसेव उतरा था। वह अजीब आवाज में बोल रहा था। नशे में चूर। सुनकर अपर्णा सचमुच डर गई थी - तुम यह सब क्या कह रहे हो कौशल... युद्ध! रणभेरी!
- हाँ, युद्ध, एक आर-पार की लड़ाई... अगर इसी तरह अन्याय, शोषण और दमन का यह भीषण चक्र चलता रहा तो एक दिन ऐसा ही होगा, निश्चित जानो... अपनी बात के अंत में आते-आते कौशल गहरी उत्तेजना में हाँफ रहा था।