साथ चलते हुए / अध्याय 2 / जयश्री रॉय
जीवन कितना अद्भुत होता है। न जाने कब कौन-सा मोड़ ले ले, किस दिशा में चल पड़े। आज जब वह यहाँ, इस निविड़ अरण्य में बैठकर सोचती है, उसे स्वयं आश्चर्य होता है। कुछ ही महीने पहले वह अमेरिका के एक शानदार शहर के शानदार फ्लैट में अपने भरे-पूरे परिवार के साथ रहती थी। उसके पास वह सब कुछ था जिसे पाने की इच्छा एक स्त्री आमतौर पर किया करती है। मगर फिर न जाने क्या हो गया, उसके सुंदर, सलोने जीवन में ग्रहण लग गया। एक-एककर सारी खुशियाँ उसका हाथ छुड़ाकर जाने कहाँ चली गईं! वह असहाय खड़ी सब कुछ देखती रही, मगर कुछ कर न पाई।
उसे यकायक काजोल की तरल आँखें याद हो आई थीं - पारे की तरह थरथराती हुई, उम्मीदों से भरी - उम्मीद उससे - अपनी माँ से कि वह उसे मरने नहीं देगी, ठीक बचा लेगी, जैसे हमेशा हर विपदा से बचाती रही है।
उस समय उसने स्वयं को कितना विवश, कितना असहाय पाया था। एक कठपुतली, जिसकी डोर न जाने किसके हाथ में है। नाचना और नाचते रहने के सिवा वह और कर भी क्या सकती थी। उसने वही किया भी - अपने हिस्से का रोल अदा किया, पूरी ईमानदारी और लगन से। मगर हुआ क्या! वही जो होना शायद हमेशा से तय था!
काजोल चली गई - अपना जीवन, बचपन और सारे खेल-खिलौने छोड़कर! उसे-अपनी माँ को-भी छोड़कर... जिसके बगैर वह एक रात अपने कमरे में अकेली सो नहीं पाती थी... कई बार बीच रात को उठकर उनका दरवाजा खटखटाती खड़ी रहती थी, सीने में अपना छोटा तकिया दोनों हाथों से दबाकर रोती हुई - माँ, मुझे अकेले नहीं सोना। बहुत बुरे सपने आते हैं... वही ड्राकुलावाला...
आशुतोष नींद में खलल पड़ने से कितना नाराज हो जाते थे - और बिगाड़ो लड़की को। एकदम अपनी माँ पर गई है, बात-बात पर रोना...
वह उठकर काजोल के कमरे में चली जाती थी। उसे अपने सीने में दुबकाकर सारी रात पड़ी रहती थी। न जाने कैसा चलन है उन देशों का। दुधमुँहे बच्चे को अपने से दूर एक अँधेरी कोठरी में रात भर बंदकर रखना... उससे यह नहीं होता था। परिचित इस बात को लेकर उसका मजाक उडाते थे, आशुतोष भी। बात-बात पर उसका 'यू इंडियंस' कहकर उसे संबोधित करना उसे आक्रोश से भर देता था। काले आबनूसी लकड़ी की तरह रंगतवाला आशुतोष अमेरिका में बीस साल रहकर स्वयं को अमेरिकन ही समझने लगा था शायद।
अधिकतर प्रवासी भारतीयों का यही हाल था - न घर के, न घाट के। आधे देशी, आधे विदेशी। कपड़ों से, खान-पान और भाषा से विदेशी बनकर भी रूढ़ि, अंधविश्वास और संकीर्ण मानसिकता में देश के लोगों से भी कई कदम आगे। त्रासदी ये है कि न विदेशी सभ्यता से कुछ अच्छा ग्रहण कर पाए, न अपना ही सँभाल कर रख पाए। दोनों संस्कृतियों के अभावात्मक पक्ष के संयोग का साकार परिणाम हैं जैसे आज के ये प्रवासी भारतीय। कभी-कभी वह खिन्न हो उठती थी, हर बात में दूसरों की नकल, वह भी इतनी भोंडी।
सोचते हुए वह न जाने कहाँ-कहाँ भटक जाती है। आजकल ऐसा ही होता है उसके साथ। कहीं चित्त दो घड़ी के लिए स्थिर नहीं हो पाता। भटकना और भटकना। जल की सतह पर अनवरत तैरते हुए - किसी डाल से टूटे हुए पत्ते की तरह... अपने से दूर भागने का, खुद को नकारने का यह रात दिन का प्रयत्न... कितना थका देनेवाला है! मगर स्वयं से छूटकर जाया भी कहाँ जा सकता है! हर रास्ते पर तो खुद ही खड़ी है दीवार बनकर!
सोचते हुए यकायक जैसे वह थक जाती है। कितना लंबा सफर वह रोज तय करती है। एक ही पल में गत-आगत जीवन के कई-कई साल...
अभी काजोल उसकी गोद में हुमक रही है तो अभी उसकी अंगुली पकड़कर स्कूल जा रही है - स्कूल का पहला दिन, माँ का हाथ ही नहीं छोड़ रही! रो-रोकर आँखें सूज गई हैं। स्कूल के विशाल गेट के बाहर खड़ी वह काजोल का रोना सुन रही है - माँऽ... मुड़ने के लिए कदम बढ़ाती है, फिर ठहर जाती है। उससे रहा नहीं जाता। भागकर काजोल को क्लास टीचर की गोद से छिन ले आती है... उसे इस तरह से छोड़ नहीं सकती!
उसी काजोल को नियति किस निर्ममता से उसकी गोद से छीन ले गई... वह देखती रह गई, कुछ भी नहीं कर पाई...! माँ अक्षम हो जाए, अपने बच्चे को बचा नहीं पाए, ये विवशता का चरम है। कभी-कभी उसे आश्चर्य होता है, ऐसे भीषण अन्याय पर भी धरती फट कैसे नहीं जाती! क्या इसके बाद भी कोई प्रलय हो सकता है इस दुनिया में...
शुरू-शुरू में काजोल की थकावट, भूख न लगने को उसने हल्के ढंग से ही लिया था। डॉक्टर ने खून की कमी बताया तो आयरन सीरप के साथ उसे रोज पालक आदि खिलाया। मगर उसकी हालत दिन पर दिन बिगड़ती ही चली गई। एक बार कई दिनों के लगातार बुखार के बाद जब उसके खून का परिक्षण करवाया गया, पता चला उसे ब्लड कैंसर है।
...सोचते हुए इतने दिनों बाद भी उसका शरीर शून्य पड़ जाता है, नसों में खून के थक्के जमने लगते हैं...
...डाँक्टर लॉरेन के क्लीनिक में बैठी वह उनका इंतजार कर रही थी। किसी इमरजेंसी केस की वजह से उन्हें अचानक उठकर जाना पड़ गया था। वह छोटा-सा इंतजार कितना लंबा खिंचा था... बहुत देर बाद आकर उन्होंने बहुत शालीनता से उसका अभिवादन किया था। मगर वह प्रत्युत्तर में कुछ कह नहीं पाई थी। डॉक्टर लॉरेन के चेहरे पर फैली मुस्कराहट में छिपी करुणा को उसने अनायास महसूस लिया था। और इसके साथ ही उसके अंदर का कोई बहुत बड़ा हिस्सा एकदम से सुन्न पड़ने लगा था...
डॉक्टर लॉरेन की बातें सुनते हुए एक क्षण के लिए उसकी इच्छा हुई थी, उठकर वहाँ से भाग जाए, कहीं बहुत दूर - उन भीषण बातों से। मगर वह बुत बनी बैठी रह गई थी, जैसे साँस लेना भी भूल गई हो।
डॉक्टर लॉरेन ने बताया था, काजोल को ब्लड कैंसर है... उसने सुना था, मगर एकदम से समझ नहीं पाई थी। डॉ. लॉरेन की सपाट आवाज रंगहीन जल की तरह उसमें उतरी थी, उसमें कोई अर्थ नहीं था, एकदम समतल। एक तरह से बहुत निर्लिप्त भाव से ही वह उनकी बातें सुनती रही थी। वे न जाने क्या कुछ बोले जा रहे थे - तरह-तरह के टेस्ट, दवाइयाँ, केमोथेरापी की बातें... उसके अंदर कोई प्रतिक्रिया उत्पन्न नहीं हो पाई थी। एक गहरा सन्नाटा और शून्य-अछोर, अतल... यह वह थी - स्वयं को भी न महसूस कर पाती हुई, सब कुछ अवश हो गया था, एक सिरे से...
एक समय के बाद डॉ. लॉरेन अपनी कुर्सी से उठकर उसके पास आ खड़े हुए थे और बहुत हल्के से उसके कंधे को छुआ था - मिसेज लाहिड़ी...
वह एकदम से चिहुँक पड़ी थी और फिर खिड़की से बाहर देखा था। वहाँ काजोल एक अफ्रिकन बच्ची के साथ झूला झूलते हुए खिलखिला कर हँस रही थी। सफेद, काँच की तरह पारदर्शी धूप में उसका गोरा चेहरा उत्तेजना में सेब की तरह लाल दिख था। हिमेल हवा में नाक की नोक भी सुर्ख पड़ गई थी। बुखार के थोड़ा उतरते ही वह खेल में मगन हो गई थी, बच्चों की अमित ऊर्जा...
उसे बाहर देखते पाकर डॉ. लॉरेन ने भी उसकी निगाहों का पीछा किया था और फिर जैसे थोड़ी देर के लिए दोनों ही उस छोटी-सी बच्ची की मासूम किलकारियों में खोकर रह गए थे। किसी बात पर काजोल अब भी जोर-जोर से हँस रही थी। वह अफ्रिकन बच्ची उसकी कमर से लिपटकर अब उसके हाथ से कुछ छीनने की कोशिश कर रही थी।
वहाँ से नजरे घुमाकर उसने डॉ. लॉरेन की तरफ देखा था और फिर अनायास भरभराकर रो पड़ी थी। डॉ. लॉरेन के कहे शब्द अपनी पूरी भयावहता के साथ अचानक उस तक पहुँच गए थे। डॉ. लॉरेन ने उसे चुप नहीं कराया था, रोने दिया था। कहा था, हाँ, रो लिजिए, यू वील फील बेटर... अपने कंधे पर रखे उनके हाथ से अपना गाल सटाए वह रोती रही थी, न जाने कितनी देर तक... डॉ. लॉरेन धैर्य के साथ खड़े रहे थे, बिना कुछ कहे, मगर उनके स्पर्श से एक आत्मीयता, एक ऊष्मा-सी निसृत होती रही थी। शब्दों के पार होकर उनकी मूक संवेदना उस दिन उस तक पहुँची थी - दुख के विपुल सिंधु में एक छोटा तिनका... मगर उस क्षण एक बहुत बड़ा संबल, आश्रय...
क्लीनिक के नीले पर्दे, दीवार पर टीक-टीक करती विशाल घड़ी, खूबसूरत बच्चों की रंग-बिरंगी तस्वीरे... सब आपस में गड्मड् हो गए थे। अनुभूति में डॉ. लॉरेन की हथेली से रिसती गर्माहट थी और अंदर उठती नमकीन पानी की लहरें - एक के बाद एक - क्रमबद्ध, निरंतर... एक ही साथ न जाने कितनी विपरीत मनःस्थितियों में घिर आई थी वह - बहुत असहाय, बहुत क्रोधित और बहुत भ्रमित भी... सब कुछ समझकर भी जैसे वह कुछ समझ नहीं पा रही थी। शब्दों के अर्थ खो गए थे, विकृत हो गए थे... वह उन पर यकीन करना नहीं चाहती, कैसे भी नहीं... सब झूठ है, बकवास है... काजोल के विषय में ऐसी अशुभ बात... वह उन पर कभी विश्वास नहीं करेगी, ऐसा भी कभी हो सकता है... कितनी छोटी है अभी काजोल...
रोते हुए वह बँगला में बडबड़ाती रही थी, न जाने क्या-क्या। असंबद्ध-से शब्द, टूटे-टूटे, टुकड़ों में... उनमें संवेदनाएँ थीं, मगर कोई अर्थ नहीं। डॉ. लॉरेन ने उसकी बातों का अर्थ समझने का प्रयत्न नहीं किया था। वह जानते थे अपने अनुभवों से, यंत्रणा, भय, दुख के चरम क्षणों में मनुष्य बस अपनी ही मातृभाषा में बोलता है... परायी जुबान में मन की गहनतम बातें, संवेदनाएँ कहाँ अभिव्यक्त हो पाती हैं...
उसे याद नहीं, उस दिन वह कैसे घर पहुँची थी। रास्ते में उसके पीछे बार-बार तेज हार्न की चेतावनी गूँजती रही थी, कइयों ने अभद्र ढंग से उसे बीच की अंगुली दिखाकर लताड़ा भी था। पीछे की सीट पर सीट बैल्ट से बँधी हुई काजोल सहमकर उसे बार-बार चेताती रही थी - माँ, व्हाटस् रांग वीथ यु टु डे...
घर पहुँचकर उसने देखा था, आशुतोष ड्राइंग रूम में डी.वी.डी. पर 'फेटल अट्राक्सन' फिल्म लगाकर चीज और वाईन लेकर सोफे पर बैठा हुआ है। शायद वह तभी नहाकर निकला था। देह से आजारो की तेज गंध उठ रही थी। गले में पाउडर के धब्बे थे। रंगे हुए भीगे बाल कुछ ज्यादा ही काले दिख रहे थे। एक बना हुआ कृतिम चेहरा... उसके व्यक्तित्व की तरह ही - रंग-रोगन से लिपा-पुता, नाटकीय... बढ़ती उम्र के साथ उसके लिबास, रहन-सहन और ज्यादा रंगीन, भड़कीले होते जा रहे थे। उसकी तरफ देखकर वह भीतर से वितृष्णा हो उठती थी। इन दिनों तो कुछ अधिक ही।
यह उसका रोज का नियम था - इस तरह से खाने-पीने की चीजों के साथ टी.वी. के सामने देर रात गए तक बैठना। ऑफिस से लौटकर पहले वह नहाता था। यह नहाना भी एक लंबे-चौड़े अनुष्ठान की तरह ही होता था। टब में गर्म पानी भर के उसमें सी सॉल्ट आदि डालकर घंटा भर उसमें डूबा पड़ा रहता था, या तो कानों में इयर फोन लगाकर क्लासिकल गाना सुनते हुए या हेराल्ड रोबिन्स के नॉवेल पढ़ते हुए। शोभा डे और हेराल्ड रोबिन्स ही उसके प्रिय कथाकार थे। बकौल उसके, बाकी तो सब भिंडी-से लिसलिसे, भावुक कहानियाँ लिखते हैं। स्टुपिड इंइियन इमोशन, शरत्चंद्र मार्का बंगाली भावुकता, दूर, छाई...
नहाने के बाद अपना सिल्क का लाल गाउन पहनकर तथा ड्रिंक का गिलास और चीज, कोल्ड कट्स लेकर देर रात गए तक डी.वी.डी. पर काउ ब्यॉय फिल्म या एक्शन फिल्म देखता रहता था। रात का खाना भी उसका कमोबेश रोज एक ही होता था - तंदूरी चिकन और सलाद् के साथ एक रोटी।
उस दिन काजोल के सोने तक उसने इंतजार किया था। उसे बिस्तर पर लिटाकर वह किचन में खड़ी रोती रही थी। बीच में एक-दो बार आशुतोष फ्रिज से बर्फ निकालने किचन में आया भी था, मगर उसे सिंक के पास उस तरह से सर झुकाए खड़ी देखकर भी कुछ पूछा नहीं था, चुपचाप चला गया था।
वह हमेशा से ही इस तरह से उसके प्रति उदासीन रहा है। उसके दुख-सुख, हँसी, उदासी - किसी बात से भी उसका कभी कोई ताल्लुक नहीं था। एक ही घर में न जाने कब से दो अजनबियों की तरह वे जीते चले आ रहे थे। साथ रहना साथ होना नहीं होता वह बहुत पहले जान चुकी थी...
निःशब्द रोते हुए वह ड्राइंग रूम से आती हुई आशुतोष की आवाज सुनती रही थी। वह फोन पर किसी को अपने बंगाली लहजे में खुशवंत सिंह के नॉनबेज जोक्स सुनाते हुए ठहाके लगा रहा था। अश्लील शब्दों के टुकड़े हवा में रह-रहकर उछल रहे थे। सुनते हुए कई बार उसका जी चाहा था, ड्रॉइंग रूम में जाकर उसके चेहरे पर एक थप्पड़ जड़ दे। मगर वह बस रोती रही थी।
उस रात खाने में तंदूरी चिकन न देखकर आशुतोष गुस्से से फट पड़ा था। उसकी बातों का कोई जबाव न देकर वह किचन में चली गई थी। आशुतोष भी उसके पीछे-पीछे किचन में चला आया था और उसे सिंक के पास खड़ी देखकर पीछे से उसकी बाँहें पकड़कर झिंझोर डाली थी -
अब यह कौन-सा नया नाटक है। तब से देख रहा हूँ, यहाँ खड़ी होकर टसुवे बहा रही हो, कोई और काम नहीं है तुम्हारा? चिकन क्यों नहीं बना? मैंने कहा नहीं था...?
वह न जाने क्यों एकदम से आग बबूला हो उठा था। उससे बातें करते हुए अक्सर उसका लहजा ऐसा ही होता है - अभर्द, अपमानजनक...
उसे आशुतोष के ऐसे व्यवहार की आदत हो गई थी। बिना कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किए वह अपने काम में लगी रहती थी। मगर आज उसके सहने की क्षमता जैसे यकायक समाप्त हो गई थी, एकदम से रोते हुए वही जमीन पर ढह गई थी। उसके धक्का लगने से सब्जी की टोकरी उलटकर उसके चारों तरफ ढेर सारे टमाटर बिखर गए थे।
उसकी यह हालत देखकर एक पल के लिए आशुतोष भी घबरा उठा था। 'अरे रे' करते हुए उसके पास बैठ गया था। पहले तो वह देर तक बिना कुछ कहे रोती रही थी और फिर हिचकियों में टूटकर रोते हुए उसे सब कुछ बताती चली गई थी। उसके असंबद्ध-से शब्द, सिसकियों में कँपकँपाती, लरजती आवाज... इन सब के बीच आशुतोष शायद देर तक उसकी कोई बात समझ ही नहीं पाया था। और जब अचानक उसकी समझ में उसकी बात आई थी, एकदम सकते में आ गया था -
क्या कहती हो... कैंसर! हमारी काजोल को...?
वह उसकी गोद में मुँह छिपाए रोती रही थी। न जाने कब तक, बिना कुछ कहे।
बहुत देर बाद आशुतोष ने उसकी पीठ सहलाते हुए गीली आवाज में कहा था - चलो उठो, अब चिकन बनाने की जरूरत नहीं, दो हैम सैंडवीच ही बना दो, मैं खा लूँगा। सुनकर उसे अपने कानों पर यकीन नहीं आया था। उस समय सैंडवीच बनाते हुए उसका जी चाहा था, पूरे किचन में आग लगा दे...
खाते हुए आशुतोष ने कई बार अपने आँसू पोंछे थे और फिर व्हाईट वाईन की घूँट लेते हुए मुँह बनाया था - एकदम ठंडा नहीं हुआ है, शाम को ही फ्रिज में रख दिया करो... अपनी बात कहते हुए उसकी नजर एक बार फिर उसके आँसुओं से भीगे चेहरे पर पड़ी थी और वह एकदम से रुक गया था - चलो कोई बात नहीं...
उसे याद है, उस रात वह सो नहीं पाई थी। कितना भयानक था वह अनुभव... कितना डर गई थी वह... कई बार चुपके से जाकर काजोल को उसके कमरे में देख आई थी। सोते हुए कितनी मासूम लगती थी वह। उजले चेहरे पर काली, बड़ी-बड़ी आँखें और उनपर झंपी घनी बरौनियाँ... उसके गालों पर धीरे से अंगुलियाँ फिराते हुए अनायास उसकी सिसकी निकल गई थी। किसी तरह अपनी रुलाई दबाते हुए वह बैल्कनी में निकल आई थी।