साथ चलते हुए / अध्याय 4 / जयश्री रॉय
बीच में तापसी एक बार उसके कमरे में आई थी - उसे सूप का कप थमाने। सूप के कप से उठते वाष्प के पीछे उसका चेहरा लरजता हुआ-सा प्रतीत हुआ था। वह उसकी तरफ देखती रही थी - कभी वह उसकी अभिन्न सहेली हुआ करती थी। आज वह उसे पहचान भी नहीं पाती। कोई इतना भी कैसे बदल सकता है...
बहुत विश्वास किया था उसने उस पर। पंजाब के किसी छोटे-से शहर से आई थी। यहाँ आने के बाद उसके पति ने उसका जीना मुहाल कर रखा था। किसी ढाबेनुमा रेस्तराँ में अपने ससुरालवालों के साथ रोटियाँ बेलती रहती थी। कभी-कभी एक साथ कई सौ। ऊपर से ताने और तिरस्कार। माँ-बाप की इकलौती लड़की... खूब चाव और धूमधाम से शादी की गई थी उसकी। दहेज से घर भर दिया था बेटी का।
मगर इससे ससुरालवालों को संतुष्टि नहीं हुई। भूख और-और भड़क गई। नित नई चीजों की फरमाईशें होने लगी। न पूरी होने पर मार और अपमान। इसी तरह घुट-घुटकर जी रही थी जब उसे किसी परिचित के यहाँ शादी में मिली थी। खूब गोरी और तीखे नाक-नक्श की वह कमसिन लड़की उसे पहली ही नजर में भा गई थी।
उसकी प्रेरणा और सहायता से उसके बाद उसने स्वयं को स्वाबलंबी बनाया था। गाड़ी चलाना सीखकर, कंप्युटर कोर्स आदि करके सबसे पहले उसने अपने लिए एक नौकरी जुटाई थी और अंत में अपने पति से तलाक ले लिया था। उसके घरवाले इस बात के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे। उनके लिए ससुराल में लड़कियों की तकलीफ एक आम बात थी जिससे कमोबेश सभी औरतों को अपने जीवन में कभी न कभी दो-चार होना ही पड़ता है।
एक दिन वह अपने ससुराल से भागकर रात के दो बजे उसके घर पहुँची थी - सिर्फ पेटीकोट और ब्लाउज में! चेहरा पहचान में नहीं आ रहा था। उसके मुक्केबाज पति ने उसका चेहरा पंचिंग बैग समझकर कूट डाला था।
उसके बाद कानून की एक लंबी प्रक्रिया चली थी। उसे उसके पति से तलाक दिलवाने के लिए उसने रात दिन एक कर दिया था। उन दिनों एक बच्ची की तरह यही औरत उसकी गोद में सर रखकर रोया करती थी... कहती थी, अपर्णा दी, तुम मेरे पिछले जन्म की माँ हो!
एक बार उसे दो महीने के लिए अपने मायके जाना पड़ गया था। पिताजी बीमार थे, कई और भी काम निबटाने थे। आशुतोष पर तो नहीं, मगर हाँ, तापसी पर विश्वास था, पूरा घर उसके हवाले कर गई थी। आशुतोष को खाना बनाना बिल्कुल नहीं आता था। यह जिम्मेदारी उसने स्वेच्छा से उठाई थी। कहाँ था, अपर्णा दी, तुम निश्चिंत होकर जाओ, यहाँ मैं सब सँभाल लूँगी। आशुतोष जी को कोई तकलीफ नहीं होगी। वह बेफिक्र होकर चली गई थी।
लौटकर देखा था, तापसी ने उसका घर सँभाला नहीं था, पूरी तरह से हथिया लिया था। चारों तरफ इसी की चर्चा थी। आते ही परिचितों ने उसे सब कुछ बताया था। पार्टियों, उत्सवों में वह उसके गहने, कपड़े पहनकर आशुतोष की बीवी की तरह सम्मिलित हुआ करती थी। दिनों तक ऑफिस से छुट्टी लेकर आशुतोष घर में पड़ा रहता था। दोनों इसी बीच सात दिन के लिए कहीं एक साथ घूम भी आए थे। सब कुछ देख-सुनकर वह सन्न रह गई थी। कोई ऐसा भी कर सकता है! उसे यकीन करने में कठिनाई हो रही थी। आशुतोष पर नहीं, उसने तापसी पर विश्वास किया था, वह तो ऐसी नहीं थी! फिर...?
पूछने पर आशुतोष हिंसक हो उठा था। उसे न जाने क्या-क्या खरी-खोटी सुना गया था। तापसी भी सहज बनी रही थी। उसमें कहीं भी शर्म या किसी तरह का संकोच नहीं था। सीधी आँखों में आँखें डाले बिना पलक झपकाए बात करती थी। गजब का दुस्साहस था उसमें।
एक बार उसने दोनों को रंगे हाथों कार पार्किंग में पकड़ लिया था। फिर भी दोनों को शर्म नहीं आई थी। बड़ी ढिठाई से तापसी कहती रही थी, वह तो आशुतोष का मसाज कर रही थी। बर्फ में फिसलकर गिरने के बाद उसके पूरे शरीर में बहुत दर्द हो गया था। आशुतोष भी अपने कपड़े दुरुस्त करते हुए उसकी हाँ में हाँ मिला रहा था - सच, अब बड़ा अच्छा लग रहा है। वह दुख और शर्म से गड़कर रह गई थी। बिना कुछ कहे वहाँ से उठ आई थी। कभी-कभी दूसरे की बेशर्मी देखकर इनसान स्वयं शर्मिंदा होकर रह जाता है।
उसके बाद काजोल बीमार पड़ गई थी और वह उसकी बीमारी को लेकर बुरी तरह उलझकर रह गई थी। उसे उन दिनों और किसी बात का होश नहीं रह गया था। क्लीनिक में, अस्पतालों में रात दिन बैठे-बैठे वह काजोल के सिवा और कुछ भी सोच नहीं पाती थी। आशुतोष को इस बात से मनमानी करने का अवसर मिल गया था। इस बीच उसने कई बार उन दोनों को एक साथ देखा था, मगर ध्यान नहीं दे पाई थी। वह अपनी मरती हुई बेटी की उस समय देखभाल करती कि अपने विश्वासघाती पति के पीछे जासूसी करती फिरती! उसके मन में गहरी वितृष्णाजन्य उदासीनता पैदा हो गई थी। सब भाड़ में जाय, उसे परवाह नहीं।
उन दिनों उसे लगातार अस्पताल में काजोल के साथ रहना पड़ता था। घर लौटकर समझ पाती थी, उसकी अनुपस्थिति में तापसी उसके फ्लैट में रात बिताकर जाती है। कभी आशुतोष के बिस्तर में तापसी के बालों के क्लीप पड़े मिल जाते थे तो कभी कहीं कुछ और। उसने अपने सोने का कमरा अलग कर लिया था। आशुतोष ने कोई आपत्ति नहीं की थी। इन दिनों वह शरीर से संतुष्ट था शायद, इसीलिए उससे भी अच्छा व्यवहार करता था।
शुरू-शुरू के दिनों में वह हर रात उसके पास आ जाता था। बिना सेक्स के वह रह ही नहीं पाता था। सालों उसने यह अत्याचार झेला था, मगर अब यह सब उसके लिए असह्य हो उठा था। कई बार वह उसे बुखार से तपती हुई काजोल के पास से हाथ पकड़कर खींच लाता था। काजोल के रोने की धीमी-धीमी आवाज सुनते हुए वह विवश पड़ी रुँधती रहती थी। निःशब्द रोते हुए सरहाने का तकिया भीग जाता था।
आशुतोष की गाढ़े अंधकार में थरथराती हुई कामुक आवाज - अरे कुछ नहीं, बुखार में थोड़ी अपसेट हो गई है... वह घृणा, क्रोध और विवशता में सुलग-सुलग उठती थी। कभी उसके हृदयहीन कमेंटस् - कितनी ठंडी हो तुम, कुछ मजा ही नहीं आता... एक बार ऐसे ही किसी क्षण में वह उसे अपने से परे धकेलकर काजोल के कमरे में भाग गई थी।
वहाँ जाकर उसने देखा था - काजोल फर्श पर बैठी सिसक रही है, नाक से बहते हुए ताजे खून से उसका चेहरा और सारा नाइट गाउन लिसरा हुआ है। उसने उसे उठाकर अपने सीने में भींच लिया था। किसी डरे हुए चिड़िया के बच्चे की तरह काजोल का पूरा शरीर उस क्षण थरथरा रहा था -
माँ, मुझे बहुत डर लग रहा था, तुम मुझे छोड़कर क्यों चली जाती हो?
- अब कभी नहीं जाऊँगी चंदा... प्रामिस...!
वह हिलक-हिलककर रो पड़ी थी। उस समय उसे अपने विवस्त्र शरीर का भी ख्याल नहीं आया था। उस दिन के बाद उसने आशुतोष को फिर कभी अपने पास फटकने नहीं दिया था।
तापसी की तरफ देखते हुए वह न जाने कहाँ-कहाँ भटकती चली गई थी। यंत्रणा का सिलसिला हर सिरे पर शुरू हो जाता है। कौन-सा हिस्सा है मन का जो दुखता नहीं... मना करने पर भी तापसी उसके सामने खड़ी रही थी - थोड़ा पी लो, सारा दिन कुछ खाया-पिया नहीं है तुमने...
आखिर उसने उसके हाथ से सूप का कप ले लिया था। उसके बाद उसने उसकी हथेली पर दो गोलियाँ रख दी थी, स्नायू को शांत रखनेवाली - ले लो, यु विल फिल बेटर...
उसने चुपचाप गोलियाँ गटक ली थी। कुछ देर चुप खड़ी रहने के बाद तापसी अचानक उसके पास बैठ गई थी। काफी देर तक दोनों के बीच एक असहज-सी खामोशी फैली रही थी। तापसी के चेहरे से उसके अंदर चल रहे किसी द्वंद्व का पता चल रहा था। जैसे वह कुछ कहना चाह रही हो, मगर कह नहीं पा रही हो। एक लंबी चुप्पी के बाद उसने उसकी तरफ देखा था, काँपती हुई-सी दृष्टि से -
मैं कोई सफाई नहीं दे रही अपर्णा... दी, मगर एक बात कहना चाहती हूँ।।
वह बिना कुछ कहे सूप के घूँट भरती रही थी।
- तुम जब अपने मायके गई थी...
- अब इन बातों को कहने-सुनने का कोई अर्थ नहीं... उसने बीच में ही उसे हाथ उठाकर टोका था।
- प्लीज, सुन लो, तुम्हारे लिए सुनना न सही, मेरे लिए कहना जरूरी है।
उसके बाद उसने उसे टोका नहीं था, मौन रहकर सुनती रही थी। अनायास तापसी की आँखों में आँसू भर आए थे - अपर्णा दी, तुम जब यहाँ नहीं थी, एक दिन मेरे ड्रिंक में कोई नशीली दवा मिलाकर मुझे बेसुधकर आशुतोष ने मुझे कई दिनों तक... सुनकर तापसी के साथ-साथ उसकी दृष्टि भी झुक गई थी। लगा था, कहीं से कसूरवार वह स्वयं भी है। इतना यकीन क्यों कर गई थी आशुतोष पर! उतना सब झेलने के बाद भी... मगर उसने तो... खैर! अब इन बातों में उलझने का कोई अर्थ भी नहीं रह गया है।
थोड़ी देर बाद तापसी ने फिर से बोलना शुरू किया था - जब भी मैं कुछ होश में आने लगती थी, वह जूस में मिलाकर मुझे फिर से कुछ पिला देता था, और मैं दुबारा अपना सुध-बुध खो बैठती थी। इसी तरह सोते-जागते, गहरे-हल्के नशे में मैं इस फ्लैट में सात दिनों तक पड़ी रही थी और जब पूरी तरह से होश में आई थी, मेरे पास वापस लौटने का कोई रास्ता नहीं रह गया था। उसने कहा था, वह तुम्हें मना लेगा। हम तीनों साथ-साथ रहेंगे...
अचानक वह उसके पैरों के पास ढह गई थी-
यकीन करो, मैंने कभी तुम्हारा बुरा नहीं चाहा। यह सब बस हो गया... संयोग से जिस पुरुष के साथ मेरा संबंध बन गया वह तुम्हारा पति है... सच अपर्णा...दी...
- तुम कहना चाहती हो, तुम्हारा कोई कसूर नहीं? सब कुछ तुम्हारे अनचाहे, अनजाने...
इन सब बातों में दुबारा से न पड़ने के अपने निर्णय के बावजूद वह यह प्रश्न पूछे बिन नहीं रह पाई थी। प्रश्न सुनकर वह वहाँ पड़ी-पड़ी कुछ देर तक सिसकती रही थी और फिर धीरे-से अपना सर उठाया था -
झूठ नहीं कहूँगी, मुझे आशुतोष अच्छे लगते थे, मगर इससे आगे बढ़ने की शायद मैं अपनी तरफ से कभी हिम्मत नहीं कर पाती... तुम्हारा सुख देखकर भी ईर्ष्या होती थी। मैं सुंदर हूँ, कमउम्र भी, फिर भी मुझे कुछ नहीं मिला... और तुम, तुम्हारा ऐश्वर्य...
कहकर वह तेजी से उठकर वहाँ से चली गई थी। वह भी उसे रोककर उससे कुछ कह नहीं पाई थी। उसके सोचने-समझने की शक्ति जैसे एकदम से समाप्त हो गई थी। इतना सब कुछ एक साथ घटा था उसके साथ, वह सँभाल नहीं पा रही थी अपने आप को।
आँसुओं से भीगी उस रात के बाद लरजते हुए सही, वह जीवन की ओर पहला कदम बढ़ा पाई थी।