नागार्जुन के बारे में रामविलास शर्मा / नागार्जुन
अवध से दूर नागार्जुन मिथिला जनपद के कवि हैं। उन्होंने मैथिली में रचनाएं की हैं। हिंदी में तो उनकी रचनाएं प्रसिद्ध हैं ही। जनआंदोलनों से वह घनिष्ठ रूप से जुड़े रहे हैं। सोद्देश्य, राजनीतिक, व्यंग्यपूर्ण रचनाओं के अपने ढंग के, हिंदी में वह एक ही कवि हैं। भारतेंदु-युग की परंपरा उनमें पूरे विकास और निखार पर दिखायी देती है। अगस्त 1946 के पत्रा में उन्होंने अपनी हिंदी और मैथिली, दोनों भाषाओं में रचनाओं का जिक्र किया है। किसी प्रगतिशील लेखक सम्मेलन में उनसे पहले पहल भेंट हुई थी। भेंट होने पर उनसे बहुत-सी कविताएं मैंने सुनीं, हिंदी और मैथिली में। कविताएं सुनने के साथ ही हम दोनों में घनिष्ठता हो गयी। नागार्जुन ने अपना एक उपनाम ‘यात्राी’ रखा था। बड़ा सार्थक नाम था। त्रिलोचन की तरह वह भी बहुत कुछ घुमंतू जीवन बिताते रहे हैं। कुछ दिन इलाहाबाद में थे। मैं भी पहुंचने वाला था। कैसी जगह में रहते थे, उसका चित्रा यह हैः
‘यहां जगह मिल सकती है मगर मकान में बिजलीऔर बंबा नहीं। रामजी के आसरे और सब ठीक है। सामने-पीछे की खिड़कियां खोल दो तो गंगा भागीरथी पुण्या और छोटी लाइन का पुल बिलकुल क़रीब है।’
मैं इस घर में गया हूं और खिड़की खोल कर गंगा और छोटी लाइन के पुल का दृश्य भी देखा है। गंगा भागीरथी पुण्या मानो पुरानी दुनिया की याद दिलाती है और छोटी लाइन नयी दुनिया की। नागार्जुन का संबंध पुरानी दुनिया से था और नयी दुनिया से भी। इस पत्रा में उन्होंने निराला से मिलने पर, जिस ढंग से निराला बातें करते थे, उसका उल्लेख भी किया है। त्रिलोचन की तरह नागार्जुन भी निराला-काव्य के प्रेमी थे। हम दोनों की मैत्राी का यह भी एक आधार था। सन् ’57 के पत्रा में उन्होंने लिखा था कि वे निराला से मिलने गये:
‘आज दारागंज गया था। निरालाजी मध्याह्मोत्तर विश्राम ले रहे थे। सोये हुए थे। फिर भाभी से मिलने हरभजन दास का मंदिर चला गया। लौटते वक़्त नहीं जा सका निराला जी के यहां। 23 को फिर जाऊंगा।’ ये भाभी वैसी ही कोठरी में रहती थीं जिसकी खिड़की खोलने पर गंगा और छोटी लाइन का दृश्य दिखायी देता था। मैंने उनके दर्शन किये हैं और उनके हाथ का बनाया हुआ भोजन भी किया है। मैंने कहीं लिखा था, वह नागार्जुन की भाभी होने के सर्वथा योग्य हैं। उनसे मिलने जा कर फिर उसी दिन निराला से मिलने का समय न मिला, तो यह कोई बहुत अस्वाभाविक बात नहीं थी। निराला के अतिरिक्त केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं से भी नागार्जुन को प्रेम था। मैत्राी का यह दूसरा आधार था। वह बांदा गये। केदार के साथ रहे। उन पर कविता लिखी: ‘बांदा स्मृति और केदार पर कुल मिलाकर 99 लाइनों की एक लंबी कविता तैयार की है। खूब अच्छी बनी है। मिलने पर सुनाऊंगा।’ केदार ने भी नागार्जुन के बांदा आने पर कविता नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 47 लिखी थी।
कवियों के अतिरिक्त वह वृंदावनलाल वर्मा के साहित्य के प्रेमी भी थे। मैं तो था ही। लिखा था: ‘और यदि मूड आ गया तो दो-तीन रोज़ झांसी वृंदावनलाल वर्मा के साथ कुछ व़क्त बिताने की लालसा जाने कब पूरी होगी।’ यह तब की बात है जब वह आगरा आने वाले थे। आगरा तो आये थे। उसके बाद झांसी गये कि नहीं, मुझे ठीक याद नहीं। कभी-कभी उनका गद्य शमशेर की याद दिलाता है:
‘अब, चूंकि, अप्रैल के अंत तक यहां रहना ही है और फिर सितंबर में दिल्ली वापस लौटकर इसी
प्रकार दूसरे अप्रैल तक यहां रहना है यानि प्रति वर्ष 8 महीने के अनुपात में दिल्ली निवास का इरादा:
‘अरे भाई, नहीं!
अरे भाई, हां!’ ये पत्रा कहां से लिखा था, यह पता लगाना कठिन नहीं है, क्योंकि अंतर्देशीय पत्रा पर पीछे राजकमल प्रकाशन, दिल्ली छपा हुआ है। अपने वाक्यों की व्याख्या करते हुए आगे उन्होंने लिखा:
‘दरअसल बात
यह है कि यहां प्रकाशकीय सुविधाएं इतनी प्रचुर हैं कि अगले 10-20-30 वर्ष यदि यहीं गुज़ार सकूं तो जाने कितना विपुल वाङ्मय लोगों के लिए सुलभ कर दूं। जी, साहब!... आधा दर्जन बड़े प्रकाशक मुझे थिरकाते रहते हैंμसाहब, इत्ता अच्छा आपकी मार्किट है, मगर आप तो जाने क्या करते रहते हैं। लिखते ही नहीं... आदि आदि। अब बतलाओ तुम्हीं कि अर्जुन नागा नाम का यह जंतु क्या करे।’ अपने नाम की संधि का विच्छेद करके अर्जुन ले आये पहले और नागा रखा बाद में। दिलचस्प बात है कि मई सन् ’46 में उन्होंने जो पत्रा लिखा, उसमें नाम भिक्षु नागार्जुन लिखा था। नागार्जुन को भिक्षु रूप में अब शायद ही कोई याद करता हो। 1946 के पत्रा में नागार्जुन ने लिखा था: ‘नीयत है कि चार रोज़ जमकर तुम्हारे साथ रहूं।’ जमकर साथ रहने का मतलब है खूब कविताएं सुनायें और खूब बातें करें। 1981 में मैं दिल्ली आ गया था। अप्रैल 1983 में नागार्जुन ने लिखा: ‘पहली मई को 4 बजे अवश्य पहुंच रहा हूं... इस बार बातें तो होंगी ही, कविताएं भी सुनायेंगे, हिंदी और संस्कृत की ताजा रचनाएं...’ उसके बाद केदार एक बार दिल्ली आये। मैं उनके साथ नागार्जुन के घर उनसे मिलने गया। फिर सुना वह अस्वस्थ रहने लगे हैं और दरभंगा चले गये हैं। भारत में जितनी कम्युनिस्ट पार्टियां हैं, उतने ही उनसे जुड़े हुए साहित्यिक संगठन हैं। इन सबकी गतिविधि पर नागार्जुन ध्यान रखते थे। नवंबर 1970 के पत्रा में उन्होंने लिखा था: ‘अफ्रो-एशियाई का बड़ा ज़ोर है... तुम तो नहीं आ रहे? युवक साहित्यकारों ने 16 वाली मीटिंग में मुल्कराज की बड़ी रगड़ाई की... शिवदान और सज्जाद ज़हीर भी खींचे गये...।’ त्रिलोचन की तरह कभी-कभी नागार्जुन उग्रपंथियों के जन संस्कृति मंच के प्रति भी अपनी सहानुभूति प्रकट करते थे। इसी पत्रा में आगे लिखा है: ‘यह साफ़ है कि इंदिरापंथी और रूसपंथी साहित्य-पुरोहितों की अगवानी में बाहर के काफ़ी मेहमान यहां जुटेंगे। बाहर से गुरिल्ला जन-पुत्रों के बारे में भले ही दो-चार शब्द कह सुन लिये जायेंगे मगर श्रीकाकुलम् में, बंगाल में, और अन्यत्रा सैकड़ों की तादाद में जो धरती-पुत्रा मारे जा रहे हैं, उनकी याद तक नहीं की जायेगी। ठीक है, सरकारी हिंसा हिंसा न भवति।’ जो गुरिल्ला मारे जा रहे थे, उनकी हत्या का विरोध करना उचित था। पर साथ ही यह बताना भी आवश्यक है कि इक्का-दुक्का या छोटे-मोटे गुट बनाकर हिंसा करने से क्रांति नहीं होती। क्रांतिकारी आंदोलन किस तरह का होता है, यह 1946 के जन-उभार का अध्ययन करने से ज्ञात होगा। बड़े पैमाने पर मज़दूरों और किसानों का संगठन किये बिना हिंसक या अहिंसक किसी तरह की क्रांति भारत में संभव नहीं है। इन उग्रपंथियों के साथ एक कठिनाई यह 48 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 भी है कि वे भारत की जातीय समस्या नहीं समझते, हिंदी प्रदेश की एकता पर ज़ोर नहीं देते। भारत में जो दीर्घ काल से राष्ट्रीय चेतना का विकास हुआ है, उसे नज़रंदाज़ करते हैं। परंतु इन सब भ्रांतियों का बहुत बड़ा कारण प्रमुख कम्युनिस्ट पार्टियों की अपनी कमज़ोरी है। वे भारत में, और विशेष रूप से हिंदी प्रदेश में, एक शक्तिशाली जन-संगठन खड़ा नहीं कर पाये। और कांग्रेस की नीतियों से जब जनता में क्षोभ बढ़ा, तो उससे लाभ उठाया दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी दलों ने। इसलिए नागार्जुन की आलोचना से बिदकने के बदले उस पर ध्यान देना चाहिए कि ऐसा लेखक जो कम्युनिस्ट आंदोलन से इतना घनिष्ठ रूप में जुड़ा हुआ था, वह ऐसी बातें क्यों लिख रहा है। मेरी नीति यह है कि सभी कम्युनिस्ट गुटों को राजनीतिक स्तर पर अल्पतम कार्यक्रम तय करके संयुक्त आंदोलन चलाना चाहिए और इसी तरह साहित्य में विभिन्न प्रगतिशील संगठनों को न्यूनतम कार्यकम तय करके, मिलकर अपना साहित्यिक आंदोलन चलाना चाहिए। एक-दूसरे की आलोचना ज़रूर करते रहें, पर साथ मिलकर काम करना भी ज़रूरी है। बहुत-सी बातें सिद्धांत-चर्चा से स्पष्ट नहीं होतीं। वे काम करने और अनुभव प्राप्त करने से ही स्पष्ट होती हैं।