हिन्दी हाइकु कविता / जगदीश व्योम
हिन्दी साहित्य की अनेकानेक विधाओं में ‘हाइकु’ नव्यतम विधा है । हाइकु मूलतः जापानी साहित्य की प्रमुख विधा है। आज हिन्दी साहित्य में हाइकु की भरपूर चर्चा हो रही है। हिन्दी में हाइकु खूब लिखे जा रहे हैं और अनेक पत्र-पत्रिकाएँ इनका प्रकाशन कर रहे हैं । निरन्तर हाइकु-संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं। यदि यह कहा जाये कि वर्तमान की सबसे चर्चित विधा के रूप में हाइकु स्थान लेता जा रहा है तो अत्युक्ति न होगी। “हाइकु को काव्य-विधा के रूप में प्रतिष्ठा प्रदान की मात्सुओ बाशो (1644-1694) ने। बाशो के हाथों संवरकर हाइकु 17वीं शताब्दी में जीवन के दर्शन से अनुप्राणित होकर जापानी कविता की युग-ध्ाारा के रूप में प्रस्फुटित हुआ।...आज हाइकु जापानी साहित्य की सीमाओं को लाँघकर विश्व-साहित्य की निध्ाि बन चुका है। हाइकु अनुभूति के चरम क्षण की कविता है। सौन्दर्यानुभूति अथवा भावानुभूति के चरम क्षण की अवस्था में विचार, चिन्तन और निष्कर्ष आदि प्रक्रियाओं का भेद मिट जाता है।... यह अनुभूत क्षण प्रत्येक कला के लिए अनिवार्य है। अनुभूति का यह चरम क्षण प्रत्येक हाइकु कवि का लक्ष्य होता है। इस क्षण की जो अनुगूँज हमारी चेतना में उभरती है, उसे जिसने शब्दों में उतार दिया, वह एक सफल हाइकु की रचना में समर्थ हुआ। बाशो ने कहा है, ‘जिसने जीवन में तीन से पाँच हाइकु रच डाले, वह हाइकु कवि है। जिसने दस हाइकु की रचना कर डाली, वह महाकवि है।’” (प्रो. सत्यभूषण वर्मा, जापानी कविताएँ, पृष्ठ-22) हाइकु कविता को भारत में लाने का श्रेय कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर को जाता है- “भारतीय भाषाओं में रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने जापान-यात्रा से लौटने के पश्चात् 1919 में ‘जापान-यात्री’ में हाइकु की चर्चा करते हुए बंगला में दो कविताओं के अनुवाद प्रस्तुत किये। वे कविताएँ थीं- पुरोनो पुकुर / ब्यांगेर लाफ / जलेर शब्द। तथा पचा डाल / एकटा को / शरत्काल।
दोनों अनुवाद शब्दिक हैं और बाशो की प्रसिद्ध कविताओं के हैं।” (प्रो.सत्यभूषण वर्मा, जापानी कविताएँ, पृष्ठ-29)
हाइकु कविता आज विश्व की अनेक भाषाओं में लिखी जा रही है तथा चर्चित हो रही है। प्रत्येक भाषा की अपनी सीमाएँ होती हैं, अपनी वर्ण व्यवस्था होती है और अपना छन्द विधान होता है, इसी के अनुरूप उस भाषा के साहित्य की रचना होती है। हिन्दी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। यह लिपि वैज्ञानिक लिपि है और (अपवाद को छोड़कर) जो कुछ लिखा जाता है वही पढ़ा जाता है। हाइकु के लिए हिन्दी बहुत ही उपयुक्त भाषा है।
हाइकु सत्रह (17) अक्षर में लिखी जाने वाली सबसे छोटी कविता है। इसमें तीन पंक्तियाँ रहती हैं। प्रथम पंक्ति में 5 अक्षर दूसरी में 7 अक्षर और तीसरी में 5 अक्षर रहते हैं। संयुक्त अक्षर को एक अक्षर गिना जाता है, जैसे (सुगन्ध) शब्द में तीन अक्षर हैं-(सु-1, ग-1, न्ध्-1)। तीनों वाक्य अलग-अलग होने चाहिए। अर्थात् एक ही वाक्य को 5,7,5 के क्रम में तोड़कर नहीं लिखना है। बल्कि तीन पूर्ण पंक्तियाँ हों।
अनेक हाइकुकार एक ही वाक्य को 5-7-5 वर्ण क्रम में तोड़कर कुछ भी लिख देते हैं और उसे हाइकु कहने लगते हैं। यह सरासर गलत है, और हाइकु के नाम पर स्वयं को छलावे में रखना मात्र है। अनेक पत्रिकाएँ ऐसे हाइकुओं को प्रकाशित कर रही हैं। यह इसलिए कि इन पत्रिकाओं के संपादकों को हाइकु की समझ न होने के कारण ऐसा हो रहा है। इससे हाइकु कविता को तो हानि हो ही रही है साथ ही जो अच्छे हाइकु लिख सकते हैं, वे भी काफी समय तक भ्रमित होते रहते हैं।
हाइकु कविता में 5-7-5 का अनुशासन तो रखना ही है, क्योंकि यह नियम शिथिल कर देने से छन्द की दृष्टि से अराजकता की स्थिति आ जाएगी। कोई कुछ भी लिखेगा ओर उसे हाइकु कहने लगेगा। वैसे भी हिन्दी में इतने छन्द प्रचलित हैं, यदि 5-7-5 में नहीं लिख सकते तो फिर मुक्त छन्द में अपनी बात कहिए, क्षणिका के रूप में कहिए उसे ‘हाइकु’ ही क्यों कहना चाहते हैं? अर्थात् हिन्दी हाइकु में 5-7-5 वर्ण का पालन होता रहना चाहिए यही हाइकु के हित में है।
अब 5-7-5 वर्ण के अनुशासन का पूरी तरह से पालन किया जा सकता है और कवि ऐसा कर रहे हैं, परन्तु मात्र 5-7-5 वर्णों में कुछ भी ऊल-जलूल कह देने को क्या हाइकु कहा जा सकता है? साहित्य की थोड़ी-सी भी समझ रखने वाला यह जानता है कि किसी भी विधा में लिखी गई कविता की पहली और अनिवार्य शर्त उसमें ‘कविता’ का होना है। यदि उसमें से कविता गायब है और छन्द पूरी तरह से सुरक्षित है तो भला वह छन्द किस काम का!
हाइकु साधना की कविता है। किसी क्षण विशेष की सघन अनुभूति कलात्मक प्रस्तुति हाइकु है। प्रो सत्यभूषण वर्मा के शब्दों में-
“आकार की लघुता हाइकु का गुण भी है और यही इसकी सीमा भी। अनुभूति के क्षण की अवधि एक निमिष, एक पल अथवा एक प्रश्वास भी हो सकती है। अतः अभिव्यक्ति की सीमा उतने ही शब्दों तक है जो उस क्षण को उतार पाने के लिए आवश्यक है। हाइकु में एक भी शब्द व्यर्थ नहीं होना चाहिए। हाइकु का प्रत्येक शब्द अपने क्रम में विशिष्ट अर्थ का द्योतक होकर एक समन्वित प्रभाव की सृष्टि में समर्थ होता है। किसी शब्द को उसके स्थान से च्युत कर अन्यत्र रख देने से भाव-बोध नष्ट हो जाएगा। हाइकु का प्रत्येक शब्द एक साक्षात् अनुभव है। कविता के अन्तिम शब्द तक पहुँचते ही एक पूर्ण बिम्ब सजीव हो उठता है।” -(प्रो.सत्यभूषण वर्मा, जापानी कविताएँ, पृष्ठ-27)
थोड़े शब्दों में बहुत कुछ कहना आसान नहीं है। हाइकु लिखने के लिए बहुत धैर्य की आवश्यकता है। एक बैठक में थोक के भाव हाइकु नहीं लिखे जाते, हाइकु के नाम पर कबाड़ लिखा जा सकता है। यदि आप वास्तव में हाइकु लिखना चाहते हैं तो हाइकु को समझिए, विचार कीजिए फिर गम्भीरता से हाइकु लिखिए। निश्चय ही आप अच्छा हाइकु लिख सकेंगे। यह चिन्ता न कीजिए कि जल्दी से जल्दी में पास सौ-दो सौ हाइकु हो जाएँ और इन्हें पुस्तक के रूप में प्रकाशित करा लिया जाये। क्योंकि जो हाइकु संग्रह जल्दबाजी में प्रकाशित कराये गए हैं, वे कूड़े के अतिरिक्त भला और क्या हैं? इसलिए आप धैर्य के साथ लिखते रहिए जब उचित समय आयेगा तो संग्रह छप ही जाएगा। यदि आप में इतना धैर्य है तो निश्चय ही आप अच्छे हाइकु लिख सकते हैं। प्रायः यह देखा गया है कि जो गम्भीर साहित्यकार हैं वे किसी भी विधा में लिखें, गम्भीरता से ही लिखते हैं। हाइकु के लिए गम्भीर चिन्तन चाहिए, एकाग्रता चाहिए और अनुभूति को पचाकर उसे अभिव्यक्त करने के लिए पर्याप्त धैर्य चाहिए।
हिन्दी साहित्य का एक दुर्भाग्य और है कि अनेक ऐसे लोग घुस आये हैं जिनका कविता या साहित्य से कुछ भी लेना-देना नहीं है। जब हाइकु का नाम ऐसे लोगों ने सुना तो इन्हें सबसे आसान यही लगा, क्योंकि 5-7-5 में कुछ भी कहकर हाइकु कह दिया। अपना पैसा लगाकर हाइकु संग्रह छपवा डाले। यहाँ तक तो ठीक है क्योंकि अपना पैसा लगाकर कोई कुछ भी छपवाए, भला उसे रोकने वाला कौन है। लेकिन जब पास-पड़ोस के नई पीढ़ी के नवोदित हाइकुकारों को उनका सानिध्य मिला तो उन्होंने उन्हें भी अपने साथ उसी कीचड़ में खींच लिया। उनसे भी रातों-रात हजारों हाइकु लिखवा डाले और भूमिकाएँ स्वयं लिखकर भूमिका लेखक की अपूर्ण अभिलाषा को तृप्त कर डाला। और हाइकु या अन्य विधा की एक बड़ी संभावना की भ्रूणहत्या कर डाली।
नए हाइकुकारों को एसे लोगों से बचने की आवश्यकता है। हाइकु लिखते समय यह देखें कि उसे सुनकर ऐसा लगे कि दृश्य उपस्थिति हो गया है, प्रतीक पूरी तरह से खुल रहे हैं, बिम्ब स्पष्ट है। हाइकु लिखने के बाद आप स्वयं उसे कई बार पढ़िये, यदि आप को अच्छा लगता है तो निश्चय ही वह एक अच्छा हाइकु होगा ही।
हाइकु काव्य का प्रिय विषय प्रकृति रहा है। हाइकु प्रकृति को माध्यम बनाकर मनुष्य की भावनाओं को प्रकट करता है। हिन्दी में इस प्रकार के हाइकु लिखे जा रहे हैं। परन्तु अध्ािकांश हिन्दी हाइकु में व्यंग्य दिखाई देता है। व्यंग्य हाइकु कविता का विषय नहीं है। परन्तु जापान में भी व्यंग्य परक काव्य लिखा जाता है। क्योंकि व्यंग्य मनुष्य के दैनिक जीवन से अलग नहीं है। जापान में इसे हाइकु न कहकर ‘सेर्न्यू’ कहा जाता है। हिन्दी कविता में व्यंग्य की उपस्थिति सदैव से रही है। इसलिए इसे हाइकु से अलग रखा जाना बहुत कठिन है। इस सन्दर्भ में कमलेश भट्ट कमल का विचार उचित प्रतीत होता है-
“हिन्दी में हाइकु और सेन्र्यू के एकीकरण का मुद्दा भी बीच-बीच में बहस के केन्द्र में आता रहता है। लेकिन वस्तु स्थिति यह है कि हिन्दी में हाइकु और सेन्र्यू दोनों विध्ााएँ हाइकु के रूप में ही एकाकार हो चुकी हैं और यह स्थिति बनी रहे यही हाइकु विध्ाा के हित में होगा। क्योंकि जापानी सेन्र्यू को हल्के-फुल्के अन्दाज वाली रचना माना जाता है और हिन्दी में ऐसी रचनाएँ हास्य-व्यंग्य के रूप में प्रायः मान्यता प्राप्त कर चुकी हैं। अतः हिन्दी में केवल शिल्प के आध्ाार पर सेन्र्यू को अलग से कोई पहचान मिल पायेगी, इसमें संदेह है। फिर वर्ण्य विषय के आध्ाार पर हाइकु को वर्गीकृत/विभक्त करना हिन्दी में संभव नहीं लग रहा है। क्योंकि जापानी हाइकु में प्रकृति के महत्वपूर्ण तत्व होते हुए भी हिन्दी हाइकु में उसकी अनिवार्यता का बंध्ान सर्वस्वीकृत नहीं हो पाया है। हिन्दी कविता में विषयों की इतनी विविध्ाता है कि उसके चलते यहाँ हाइकु का वर्ण्य विषय बहुत-बहुत व्यापक है। जो कुछ भी हिन्दी कविता में है, वह सब कुछ हाइकु में भी आ रहा है। संभवतः इसी प्रवृŸिा के चलते हिन्दी की हाइकु कविता कहीं से विजातीय नहीं लगती।” -(कमलेश भट्ट कमल, ‘हिन्दी हाइकु: इतिहास और उपलब्धि’-संपादक- डॉ० रामनारायण पटेल ‘राम’ पृष्ठ-42)
हिन्दी में हाइकु को गम्भीरता के साथ लेने वालों और हाइकुकारों की लम्बी सूची है। इनमें- प्रोफेसर सत्यभूषण वर्मा का नाम अग्रणी है। डॉ० वर्मा ने हाइकु को हिन्दी में विशेष पहचान दिलाई है। वे पूरी तत्परता के साथ इस अभियान से जुड़े रहे। कमलेश भट्ट कमल ने हाइकु-1989 तथा हाइकु-1999 का संपादन किया जो हाइकु के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण कार्य माना जाता है। डॉ० भगवत शरण अग्रवाल हाइकु भारती पत्रिका का संपादन कर रहे हैं और हाइकु पर गम्भीर कार्य कर रहे हैं। प्रो० आदित्य प्रताप सिंह हाइकु को लेकर काफी गम्भीर हैं और हिन्दी हाइकु की स्थिति को सुधारने की दिशा में चिन्तित हैं। उनके अनेक लेख प्रकाशित हो चुके हैं। हाइकु दर्पण पत्रिका का संपादन डॉ० जगदीश व्योम कर रहे हैं, यह पत्रिका हाइकु की एक महत्वपूर्ण एवं पूर्ण पत्रिका है। डॉ० रामनारायण पटेल ‘राम’ ने ‘हिन्दी हाइकु: इतिहास ओर उपलब्धियाँ’’ पुस्तक का संपादन किया है। इस पुस्तक में हाइकु पर अनेक गम्भीर लेख है। लखनऊ विश्वविद्यालय से करुणेश भट्ट ने हाइकु पर शोध् कार्य किया है। हाइकुकारों में इस समय लगभग 200 से भी अधिक हाइकुकार हैं जो गम्भीरता के साथ हाइकु लिख रहे हैं। यह संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है।
हिन्दी हाइकु कविता आज देश भर में तो चर्चित हो ही रही है। इसमें एक क्रान्तिकारी मोड़ उस समय दिखाई दिया जब इण्टरनेट पत्रिका ‘अनुभूति’ पर डॉ० जगदीश व्योम का हाइकु पर एक लेख प्रकाशित हुआ। भारत वर्ष से बाहर रह रहे तमाम हिन्दी प्रेमी प्रवासी भारतीय कवि / लेखक हाइकु के नाम से तो परिचित थे परन्तु जब अनुभूति जैसी लोकप्रिय इण्टरनेट पत्रिका पर उन्होंने हाइकु पर लेख पढ़ा तो इसकी गम्भीर चर्चा सर्वत्र हुई। हाइकु विषयक अनेक बातों को इस लेख में सहजता के साथ स्पष्ट किया गया है। परिणाम यह हुआ कि अनेक प्रवासी भारतीय साहित्यकारों व नवोदित साहित्यकारों ने हिन्दी हाइकु लिखने शुरू कर दिए। अनुभति की संपादक डॉ० पूर्णिमा वर्मन (शारजाह) ने मेरे (डॉ० व्योम) एक अनुरोध पर ‘अनुभूति’ पर एक कॉलम प्रारम्भ किया है- “माह के हाइकुकार” इसमें प्रति माह एक हाइकुकार का फोटो, परिचय तथा 10 से 15 हाइकु इण्टरनेट पर प्रतिमाह प्रकाशित किए जा रहे हैं। ‘शरद हाइकु महोत्सव’ में दिसम्बर 2005 में प्रतिदिन शीत ऋतु पर केन्द्रित एक सर्वश्रेष्ठ हाइकु सुन्दर चित्र सहित प्रकाशित किया गया, इसे इण्टरनेट पर कभी भी देखा जा सकता है। एक और सुखद सूचना यह है कि अनुभूति पत्रिका का नववर्ष अंक हिन्दी हाइकु कविता पर केन्द्रित है। इसके साथ ही ‘हाइकु दर्पण’ पत्रिका इण्टरनेट पर भी प्रकाशित हो रही है। हाइकु की इस दिशा में किए गए प्रयासों से आज लगभग 35-40 प्रवासी भारतीय अच्छे हाइकु लिख रहे हैं। प्रवासी भारतीय हाइकुकारों पर केन्द्रित ‘हाइकु दर्पण’ का अंक शीघ्र ही प्रकाशित होने जा रहा है। अनेक प्रवासी भारतीय हाइकुकार अच्छे हाइकु लिख रहे हैं, और निरन्तर अनुभूति (इण्टरनेट पत्रिका) एवं हाइकु दर्पण (मुद्रित एवं इण्टरनेट) के लिए अपने हाइकु भेजते रहते हैं। भारत वर्ष से हिन्दी में प्रकाशित होने वाली पत्र-पत्रिकाओं की प्रवासी भारतीय खोज-ख़बर रखते हैं और उनके स्तर को सुधारने की दिशा में यथा संभव प्रयास भी करते रहते हैं। कुछ प्रवासी भारतीयों एवं इण्टरनेट से जुड़े हाइकुकारों के हाइकु दृष्टव्य हैं- ठहर कर / देखी इंसानियत / ठिठुरी हुई। -(डॉ0 सुदर्शन प्रियदर्शिनी, यू.एस.ए.) सो गए सब / प्रकृति की गोद में / मीठी सी नींद। - (सारिका सक्सेना, यू.एस.ए.) कंबल ओढ़े / बाबा की कहानियाँ / स्मृति में कैद । - (जैनन प्रसाद, फिजी ) बर्फ में ढली / बच्चों की कलाकृति / हिम मानव। -(प्रो० अश्विन गाँधी, अमेरिका ) जाड़े की रात / बर्फ के बिछौने में / दुबकी पड़ी। -(शकुन्तला तलवार, यू.एस.ए.) फटी रजाई / तकिया फुटपाथ / स®ता आदमी। -(मानोशी चटर्जी, कनाड़ा) धूप ने उसे / हौले से सहलाया / बर्फ पिघली। - (अनूप भार्गव, यू.एस.ए.) धूप जांचती / ऋतुओं की शाला में / जाड़े की कापी। -(डॉ० पूर्णिमा वर्मन, संयुक्त अरब अमीरात) दूध में धुली / सफेद चुनरिया / अ®ढ़े धरती। -(देवी नंगरानी, यू.एस.ए.) बर्फ के लड्डू / आकाश की परात / हाथ से छूटी। -(हरिहर झा, आस्ट्रेलिया) तुहिन धरे / चंद्रिका ठिठुरती / है मौन चांद। -(दीपिका अ®झल) आवारा धुंध / ढांप रही झील का / ठंडा बदन। -(पुरवा पांडे) सर्दी की धूप / ठंडी हवा का झोंका / मन क्यों चौंका। -(प्रदीप मैथानी, सिंगापुर )