1977 के जाति तोड़ो सम्मेलन का दस्तावेज

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स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व तक समाज के प्रबुद्ध वर्ग ने यह नहीं सोचा था कि जातिवाद के विरोध में किए गए प्रयास सफल नहीं होंगे। इस प्रकार के सुधारवादी उत्साह में क्षीणता बाद में आई है। अब इस प्रश्न की या तो सर्वथा उपेक्षा की जाती है या यह उत्तर देकर कि आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन के साथ जातिवाद स्वयं क्षीण होता जा रहा है, अत: आगे चलकर उसकी स्वयं मौत हो जाएगी - अपने को समस्या की उलझन से बचा लेते हैं। ऐसा नहीं है कि ये लोग भी समस्या के हल के लिए आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में ही प्रभावशाली प्रयास कर रहे हों, उसके विपरीत वास्तविकता यह है कि ये लोग मौके से अपने सुलभ-लाभ के लिए जातिवाद के कुपित अंगों को अधिक तीव्र बनाकर यथास्थितिवाद के पोषण द्वारा उसका यथावत् विनियोग कर लेते हें। वास्तव में यह सामाजिक अपराध की मनोदशा है। देखा गया है कि राजनीति के क्षेत्र के कल के विद्रोही दल या नेतागण, बुद्धिजीवियों में क्रांतिकारी तत्वचिंतक, राष्ट्रीय शिक्षण संस्थाओं के निर्माता, प्रशासन के उच्चासीन पदाधिकारी, सभी समान रूप से जातिवाद के शिकार होते गए। इससे भी बुरी स्थिति यह है कि ऐसे लोगों का व्यक्तित्व दोहरा हो गया है। एक जातिवादी, दूसरा जाति-विरोधी। खेदजनक स्थिति यह है कि एक प्रकार से सारा देश इस स्थिति से गुजर रहा है। अंत:शाक्ता:बाह:शैवा:, समाध्ये च वैष्णवा:। धीरे-धीरे संपूर्ण सामाजिक एवं राजनीतिक चरित्र इस पाखंड से घिरता जा रहा है। समान अपराध करने वालों में यह नैतिक साहस कहां रह जाता है कि वे पांखडवाद के विरोध में खड़े हो सकें। इस मानसिक हीनता में ही सभी प्रकार की क्रांतिकारी चेतनाएं न जाने कहां विलीन होती जा रही हैं। ऐसी स्थिति में जातिवाद को तोड़ने की बात अप्रासंगिक होती जा रही है, जबकि उसका नैतिक और तार्विâक मुखौटा भी उतर चुका है।

जातिविरोधी आंदोलन की असफलता

यह मानसिक अवसाद जातिविरोधी आंदोलनों की असफलता का भी परिणाम है। जातिवाद का इतिहास समाज के विशिष्ट वर्ग की दृष्टि से अति प्राचीन है, किंतु तथ्य यह है कि देश के बड़े भाग पर वह बहुत बाद में प्रभावी हुआ। यह भी तथ्य है कि व्यवस्था के रूप में इसे कभी पूरे समाज पर लागू नहीं किया जा सका। वास्तव में समाज की दृष्टि से यह कभी व्यवस्था नहीं बन सकी। सौभाग्यवश जाति-विरोध का इतिहास आज से ढाई

( १८३ ) हजार वर्ष पूर्व प्रारंभ हुआ था, किंतु दुर्भाग्यवश इधर के एक हजार वर्षों में विरोध का इतिहास दुर्बल होता गया और जातिवाद उत्तरोत्तर पुष्ट होता गया। पिछले दो सौ वर्षों की अंग्रेजी-दासता के काल में जब आधुनिक विश्व-सभ्यता के संपर्वâ में सवर्ण एवं सचेत भारतीय मन को आत्महीनता का बोध होने लगा, तब भारतीय जीवन में विशेषकर सवर्ण हिंदुओं में जातिवाद और रूढ़िवादी मान्यताओं के विरोध में सांस्कृतिक जागरण प्रारंभ हुआ। फलत: राजा राममोहन राय से महात्मा गांधी तक के काल में दर्जनों महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों और अनेक संस्थाओं ने जातिवाद और अंधविश्वासों की सक्रिय आलोचना प्रारंभ की। कुछ अपवादों को छोड़कर ये सभी आंदोलन क्रांतिकारी नहीं सुधारवादी थे। इनके सुधार का प्रमुख क्षेत्र था—सवर्ण हिंदुओं का उच्च वर्ग। किसी भी स्थिति में यह संपूर्ण आंदोलन वर्गीय स्वार्थ से ऊपर नहीं उठ सका। वेद की ओर, वेदांत की ओर, समदर्शी ईश्वर और आत्मा की ओर देखने का नारा दिया गया।

इसके लिए प्राचीन मान्यताओं और शास्त्रवचनों की ही यत्विंâचित् उदार व्याख्या करने की चेष्टा की गई। कुछ अस्वीकार्य मान्यताओं को बाद की प्रक्षिप्ति बताया गया। इस्लाम तथा ईसाई प्रभाव के कारण एकता, भ्रातृत्व और सेवा के नये भावों को अपने साथ जोड़ने की चेष्टा की गई। सामयिक लाभ के साथ-साथ इसका स्थायी प्रभाव यह हुआ कि समाज में सेवा और सुधार को कुछ संस्थागत रूप मिला। आश्चर्य है कि इस पूरे काल का कोई भी उल्लेखनीय सामाजिक लाभ समाज के पीड़ित वर्ग तक नहीं पहुँचा। सवर्ण-वर्ग को भी जो विशेष लाभ मिला, वह अधिकांश में राजनीतिक था, जिसका अंतिम पर्यवसान थासवर्ण हिंदुओं को हिंदुस्तान के रूप में तथा मुसलमानों को पाकिस्तान के रूप में स्वराज्य का मिलना। भारतीय नवजागरण के दो सौ वर्षों के इतिहास का संक्षेप में यही मूल्यांकन है। इसकी प्रभावहीनता स्वराज्य के बाद और भी स्पष्ट हो गई है, जब देखा गया कि जातिवाद एवं अंधविश्वासों को किस प्रकार नये संदर्भ में व्यापक प्रतिष्ठा मिलती जा रही है। उस काल की परिणति आज के सचेत वर्ग के मानसिक अवसाद में दिखाई दे रही है, जिसके प्रभाव में वह जाति-समस्या से पलायन करता जा रहा है।

जातिवाद की व्यूह रचना

जातिवाद अकेला नहीं है। उसका भरा-पूरा परिवार है, जो परस्पर में सहोदर एवं संयुक्त-सा है। इनका संबंध अन्योऽन्याश्रित एवं अविनाभावी है। ये एक-दूसरे पर आश्रित होकर पोषण प्राप्त करते हैं और अपने लिए दूसरे को भी कायम रखते हैं। पिछले हजारों वर्ष के बीच एक विशिष्ट वर्ग के द्वारा इसे सामाजिक जीवन में अकाट्य व्यवस्था के रूप में खड़ी करने का चतुर्दिक् प्रयास किया गया है। ब्राह्मणवाद का गौरव और शौर्य इसी में हैं। इसकी उदार एवं अनुदार संपूर्ण विशेषताएं इसी प्रयास में प्रकट हुई हैं। इस ऐतिहासिक

प्रयास के फलस्वरूप जातिवाद रूढि या अंधविश्वास मात्र नहीं रह गया, प्रत्युत उसका विकास एक धर्म, दर्शन और संस्कृति के रूप में हुआ है। उसे समाज-व्यवस्था से लेकर अध्यात्म तक पहुंचाने की भरपूर चेष्टा की गयी है। यह ठीक है कि जाति की समस्या किसी न किसी रूप में अन्य देशों में भी रही है, और किसी अंश में आज भी है। किन्तु भारतवर्ष की जाति-समस्या से उसकी कोई तुलना नहीं है।

यहां जाति-व्यवस्था की पृष्टि के लिए दर्शन के क्षेत्र में सहदााों वर्षों तक घोर प्रयास किया गया है। दर्शन और धर्म के क्षेत्र में ईश्वर, आत्मा, देव, प्रकृति आदि से संबंधित विचार भी जातिवाद हैं। जातिवाद की पुष्टि में ही इन सबका साक्षात् या के समर्थक परोक्ष विनियोग किया गया है। ईश्वरवाद, आत्मवाद, प्रकृतिवाद, प्रामाण्यवाद आदि की व्याख्या जातिवाद के समर्थन में ही की गई है। धर्मशास्त्रोें का ही नहीं काव्य, नाटक तथा इतिहास पुराणों का भी प्रधान लक्ष्य जातिवाद की स्थापना ही है। भाषा और क्षेत्रीयता की महत्ता और उनकी पवित्रता की भावना घनिष्ठ रूप में जातिवाद से जुड़ी है। जातिवाद जहां अनेकानेक विघटनकारी मान्यताओं को जन्म देता रहा है, वहीं भाषावाद और क्षेत्रीयता के आग्रह को भी पुष्ट करता है। ये सारी मान्यताएं मिलकर एक ऐसी शाश्वतवादी अवधारणा को जन्म देती हैं, जिसमें इन्हें निरपेक्ष सनातन और अकाट्य होने का जैसे प्रमाण मिल जाता है। सभी संप्रदाय प्रवर्तकों ने अपने आचार्यत्व की स्थापना के लिए जातिवाद समेत सभी ब्राह्मणवादी अवधारणाओं का समर्थन एवं पोषण किया। उसी परंपरा में परवर्ती संतों और सुधारकों ने भी अपने को स्थापित किया, इसलिए उनमें वह अपेक्षित साहस नहीं रहा कि उसकी अकाट्यता और प्रामाणिकता को चुनौती देते। उनके सुधारवाद का आदि और अंत इतने मात्र में था कि वे या तो नवीन व्याख्या से प्राचीन का ही समर्थन करें या पुराने विधिविधान में और राजनीति में कुछ समझौतावादी प्रवृत्तियों को जोड़ दें।

जाति-व्यवस्था का घनिष्ठतम संबंध जीविका और वृत्ति से भी रहा है। धन, धरती और सम्मान के बंटवारे का वही प्रमुख आधार रहा है, जो आज भी टूटा नहीं है। सवर्ण समाज के सामंतवादी ढांचे की रक्षा करने का औचित्य उसका सनातन जातिवाद है, जो धर्म-दर्शन और संस्कृति से समर्थित है। इस प्रकार प्राचीन भारत में जातिवाद की रक्षा में एक ऐसी व्यूह रचना की गई है। जिसको किसी भी एकांगी आक्रमण से दुर्बल नहीं किया जा सकता।

ऐतिहासिक सांस्कृतिक चेतना

ऊपर जातिवाद का जो चित्र खींचा गया है उसका पूरा भान आज समाज के सचेत वर्ग को भी प्राय: नहीं है। इसका कारण स्पष्ट है। इस देश में जो शताब्दियों तक जातिवादी और जाति-विरोधियों के बीच जीवन के सभी क्षेत्रों में वैचारिक और सामाजिक संघर्ष हुआ था, उस संघर्ष की प्रतिक्रियास्वरूप धर्म, दर्शन और संस्कृति का जो दो विरोधी धाराओं में विकास हुआ और उसके बीच जो साहित्य विकसित हुआ, उसका अध्ययन नहीं के बराबर हुआ है। बुद्ध और महावीर तथा उनके अनुयायियों द्वारा लिखित जातिविरोधी साहित्य पालि और प्राकृतों में भरा पड़ा है। इस दृष्टि से परवर्ती संस्कृत बौद्ध दर्शन भी कुछ कम नहीं है। इस विरोधी धारा के साहित्य को दृष्टि में रखकर वैदिक और पौराणिक साहित्य का यदि अध्ययन किया जाए तो वाद-प्रतिवाद के रूप में विकसित जातिवादी और जातिविरोधी प्रवृत्तियों का और उसके व्यापक सामाजिक प्रभाव का आकलन हो सकता है। ऐेतिहासिक कारणों के बीच दुर्भाग्यवश शताब्दियों से इस देश पर जातिवादी एवं ब्राह्मणवादी साहित्य का और उसकी देवभाषा संस्कृत का कब्जा हो गया। फलत: भारतीय संस्कृति के अध्ययन की एक क्षुद्र सीमा हो गई। वेदों से चलकर पुराणों तक की इसी एकांगी भारतीय संस्कृति का परिचय सामान्य जन को दिया जाने लगा। इस प्रक्रिया में धर्म, दर्शन, संस्कृति एवं समाज की जाति-विरोधी प्रवृत्तियों का परिचय हर प्रकार से दबा दिया गया।

यदि आज के भारतीय को इसका ज्ञान हो सके कि हमारी अपनी ही धरती पर हमारे ही प्रतिभाशाली पूर्वजों द्वारा शताब्दियों तक जीवन और दर्शन के हर क्षेत्र से जातिवाद को उखाड़ दिया गया था, तो उसमें एक नया गौरव आ जाए। जब उन्हें इसका पता चले कि भारतीय इतिहास का एक ऐसा भी स्वर्णयुग था, जिसमें आज के परिचति जातिवादी धर्म और दर्शनों से श्रेष्ठ एक दूसरा मानववादी धर्म, दर्शन और संस्कृति भी थी, जिनका शताब्दियों तक यहां की समाज रचना पर व्यापक प्रभाव पड़ा था तो उन्हें आज भी उसके विरोध में खड़ा होने का साहस मिलेगा। इस स्थिति में वे सारे संसार में अपना सिर ऊंचा करके कह सकेंगे कि विश्व में जब मानववाद अंधविश्वासों के जाल में आबद्ध था, तब हम सभी दिशाओं में विशुद्ध मानववाद का जयघोष कर रहे थे। अगले जातिविरोधी आंदोलनों के लिए इस सांस्कृतिक चेतना का केवल ऐतिहासिक मूल्य नहीं है, अपितु आज भी भारतीय जीवन में जो उदार प्रवृत्तियां उपेक्षित एवं अपमानित होकर प्रसुप्त पड़ी हैं, उनकी गतिविधि एवं स्वभाव को समझने का और उनको संगठित करने का अवसर मिलेगा। इतिहास की उन जातिविरोधी मानववादी शक्तियों को पुनरुज्जीवित करना और नये संदर्भ में उसे क्रांतिकारी-शक्ति के रूप में खड़ा कर देना, जातिविरोधी आंदोलन का एक महान कार्य होगा।

शिक्षा का मानवीकरण

जाति-भावना निकालने का सर्वाधिक सशक्त माध्यम है—शिक्षा। किसी प्रकार के सामाजिक परिवर्तन के पहले शिक्षा में परिवर्तन आवश्यक होता है। किंतु हमारी शिक्षा का वातावरण पंरपरावादी मान्यताओं के यशोगन से भरा रहता है। रहस्यवादी, रूढ़िवादी एवं सामंतवादी साहित्य से शिक्षार्थी की उठती जिज्ञासा-वृत्ति को सदा के लिए दबा दिया जाता है। पाठ्यक्रम एवं शिक्षा संस्थाएं, रेडियो और समाचारपत्र,धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाएं विद्यालीय शिक्षण या जनशिक्षण के महत्वपूर्ण माध्यम हैं। इनके द्वारा नई पीढ़ी पर जो प्रभाव छोड़ा जा रहा है उससे निम्नलिखित धारणाएं बनती हैं-मनुष्य दीन-हीन, पतित एवं अशक्त प्राणी है, अपने उद्धार के लिए उसे देवादि अप्राकृतिकशक्तियों की शरण जाना चाहिए। मनुष्यों में विशिष्टता या विभूतिमत्ता सहज रूप से या परंपरा से आती है। हमारा जो कुछ प्राचीन था वह श्रेष्ठ था, जो आधुनिक है वह उससे घटिया है। आज की वैज्ञानिक शिक्षा या उसकी नयी उपलब्धियां आर्थिक एवं औद्योगिक विकास के लिए यद्यपि ग्राह्य हैं किंतु उनके तथ्य मानव के अस्तित्व तथा उसके स्वभाव पर नहीं घटते, इत्यादि। इस संपूर्ण शिक्षा का दुष्फल होता है — मानव का अवमूल्यन और उसकी सर्जनशीलता का ह्रास। शिक्षा की यह पृष्ठभूमि जातिवाद को प्रतिष्ठित रखने के लिए सर्वथा उपयुक्त है। इसलिए जातिविरोधी आंदोलनों की एक प्रमुख दिशा होनी चाहिए शिक्षा का मानवीकरण।

जातिवाद का नया आयाम: प्रजातंत्र

जातिवाद ने अनेकानेक अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियों में ऐंतिहासिक यात्रा की है। अध्ययन से स्पष्ट होता है कि विभिन्न परिस्थितियों में उसने अपने नये-नये आयाम बदले हैं। यद्यपि सभी स्थितियों में मुट्ठी भर सवर्ण वर्ग को लाभान्वित करना और बहुसंख्यक को उससे वंचित रखना, जो उसका स्वभाव बन चुका था, उसे उसने कभी नहीं छोड़ा। इस सहदाााब्दी में जातिवाद पर सबसे बड़ा धक्का स्वातंत्र्य-आंदोलन के कारण लगा, जिसने उसको एक बार विचलित कर दिया। स्वराज्य के साथ भारतीय जीवन के अधिकंाश पर राजनीति का प्रभाव बढ़ा, जिसकी शर्त प्रजातंत्र था। प्रजातंत्र की परंपरा के अनुसार यह माना गया था कि वह राजनीति की सिर्फ़ यांत्रिक विधि नहीं है, प्रत्युत एक जीवन-दृष्टि भी है जो समता, स्वतंत्रता और भ्रातृत्व के द्वारा संपूर्ण ऐहिक जीवन को मानवीय संदर्भ प्रदान करती है। यह समझा गया था कि वर्ण, जाति, कुल, धर्म, लिंग आदि के वैशिष्टय का विरोध प्रजातंत्र का सहज प्रतिफलन है। यह ठीक भी है क्योंकि पाश्चात्य देशों ने इसके द्वारा अपनी परंपरागत सामाजिक एवं धार्मिक मान्यताओं में व्यापक परिवर्तन किया था। प्रश्न है कि भारतवर्ष में उसके परिवर्तन की धार कुंठित क्यों हो गई? यहां वह सत्तारोहण की एक यांत्रिक प्रक्रिया क्यों बनती गई? सबसे आश्चर्यजनक घटना यह है कि जातिवाद से उसका विरोध कैसे मिटता गया? उससे जातिवाद का तालमेल कैसे बैठ गया, जिससे जातिवाद को घाटा नहीं हुआ, प्रत्युत नये संकटकाल में उसे एक नया पोषण मिल गया। आश्चर्य है कि प्रजातंत्र के आने पर भी जातिवाद में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हुआ। जातियों में परस्पर विलगाव और अविश्वास की भावना को उसने कम नहीं किया। इतना ही नहीं, जिस क्षेत्र में जो बहुसंख्यक जाति है और राजनीतिक लाभ उठाने में अधिक सक्षम है, उसमें दमनकारी प्रवृत्तियां उभरी हैं, जिसका दुष्फल अन्य जाति वालों को भोगना पड़ रहा है। विशेषकर इससे अवर्ण जातियों के उत्पीड़न के लिए इधर नयी-नयी सामंतवादी शक्तियाँ खड़ी हो रही हैं।

इस प्रकार भारतीय प्रजातंत्र ने अपने जीवन के ३० वर्षों में धर्मों, संप्रदायों, जाति, कुल, कुटुंब आदि की परंपरागत मान्यता एवं प्रतिष्ठा को तनिक भी छेड़ा नहीं है। धर्मनिरपेक्षता उसका एक ऐसा दिशानिर्देशक आदर्श है, जो राज्य और राजनीति को अपेक्षित रूप में धर्मनिरपेक्ष तो नहीं कर पाया किंतु सभी धर्मों, संप्रदायों, रूढ़ियों एवं परंपराओं से निरपेक्ष एवं उदासीन रहकर उनकी सभी विकृतियों को फलने-फूलने का अव्याहत अवसर प्रदान कर रहा है। इस प्रोत्साहन के फलस्वरूप देश में पिछले तीस वर्षों में जितने नये-नये संप्रदाय, धर्म, अवतार, तंत्र, मंत्र एवं विविध प्रकार के अंधविश्वास संस्थागत रूप में प्रतिष्ठापित किए गए, उतने पिछली अनेक शताब्दियों में भी नहीं हो सके थे। इसके विपरीत पूरे देश में ऐसी सक्रिय संस्थाएं नहीं रह गर्इं, जो समाज-सुधार के कार्य करें, जैसा कि स्वातंत्र्य पूर्व काल में अनेकानेक संस्थाओं द्वारा प्रभावशाली कार्य हुए। यह बड़ी ही निरुत्साहजनक स्थिति है कि भारतवर्ष में प्रजातंत्र एक प्रतिक्रियावादी समझौतावादी शक्ति के रूप में उभर रहा है। इसके दोषों के निराकरण में जाति-विरोधी आंदोलन का महत्त्व स्पष्ट होगा।

नवब्राह्मणवाद

सुधारवाद की प्रक्रिया में से नवब्राह्मणवाद का जन्म होता है, जो जाति-विशेष के लिए सम्मानप्रद सुधार मालूम होता है, किन्तु जातिव्यवस्था को तोड़ने में उसका कोई योगदान नहीं होता। सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए कुछ जातियां सर्वर्णों के अनुकरण पर अपने में ऊँच-नीच का भेदभाव और श्रम, सेवा, सादगी तथा ग्रामीण जीवन के प्रति हीनभाव जगाती हैं। सवर्णीकरण की उनकी यह प्रवृत्ति अस्वाभाविक नहीं कही जा सकती, क्योंकि जातिवादी घेरे में प्रतिष्ठा के जातिवादी मानदंड से अपने को नापने के लिए स्वयं सवर्णों के चाल-चलन का अनुकरण करना एक प्रकार का सुधारवाद मान लिया जाता है। किन्तु इसके दो बड़े दुष्फल होते हैं। एक ब्राह्मणवाद की प्रतिष्ठा पहले से कहीं अधिक बढ़ जाती है और दूसरे नये सवर्णों द्वारा इतर शूद्र जातियों का अपमान एवं उत्पीड़न पहले से अधिक बढ़ जाता है। यही कारण है कि दक्षिण में अब्राह्मणों द्वारा एक ओर ब्राह्मण जाति का विरोध हुआ तो दूसरी ओर ब्राह्मणवाद को महत्त्व प्राप्त हो गया। वहां की अंत्यज जातियों के उत्पीड़न और अपमान के लिए पुराने ब्राह्मणों के अतिरिक्त नई ब्राह्मणवादी अब्राह्मणजातियां भी खड़ी हो गर्इं। उत्तर भारत में भी इस प्रवृत्ति को बहुत बल मिला है। पहले इस कार्य को जातीय सभाओं द्वारा प्रोत्साहन मिलता था, अब उसकी पूर्ति राजनीतिक शक्ति के द्वारा हो रही है।

आधुनिकता की समस्या

नव-ब्राह्मणवाद से ही कुछ मिलती-जुलती समस्या आधुनिकता की है। जीवन और चिंतन के क्षेत्र में आधुनिकता का योगदान कुछ कम नहीं है। आधुनिकता यद्यपि अभी स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं है तथापि उसकी बनती हुई कुछ अवधारणाएं हैं। वह है—विचार की वैज्ञानिक परिदृष्टि और परंपरागत आचार में सुविधानुसार छूट। आधुनिकता के सामने परंपरागत मान्यताओं को महत्त्वहीन हो जाना चाहिए था, किंतु देखा गया कि बाहर से आरोपित होने के कारण यह जीवन का सहज अंग नहीं बन पाती, यद्यपि उसका लाभ एक विशेष वर्ग को मिला है। किसी नई अवधारणा को जीवन का सहज अंग बनने के लिए उसका परंपरा से जुड़ना आवश्यक होता है। अवश्य ही परंपरा को अस्वीकार करना भी आवश्यक है, किंतु उस के सक्रिय एवं सफल प्रतिकार के लिए उसका बोध भी आवश्यक होता है। आधुनिकतावादियों की गलती यह है कि उन्होंने समाज में रहकर उसकी मान्यताओं को चुनौती नहीं दी और न उसका प्रतिफल ही भोगा। अत: ऐसे लोगों का जीवन स्वयं व्यक्तिगत एवं कृत्रिम बन जाता है। इस प्रक्रिया में एक ऐसे वर्ग की सृष्टि हो रही है, जिसमें आत्मरति और आत्मतृष्टि के मनोवैज्ञानिक विकार उभर रहे हैं। ये लोग समाज से आंख मूंदकर अपना सीमित संसार बना लेते हैं और वास्तव में उससे सदा भयग्रस्त रहते हैं।

समतावादी आंदोलन और जातिवाद

स्वातंत्र्य आंदोलन के साथ फ्रांस और रूस की ऐतिहासिक क्रांतियों का प्रभाव भारतीय समाज पर पड़ना स्वाभाविक था। उसके फलस्वरूप समतावादी विचारधाराओं ने अनेक वामपंथी राजनीति दलों को जन्म दिया। उसका प्रमुख प्रेरणा-दााोत था, माक्र्स का ऐतिहासिक द्वंद्वात्मक भौतिकवाद। यह मानकर कि सभी सामाजिक विषमताओं के मूल में आर्थिक विषमता है, जो वर्गीय स्वार्थों के बीच विकसित हुई है, अत: वर्ग-संघर्ष के माध्यम से आर्थिक विषमता को हटाकर ही सामाजिक एकता स्थापित की जा सकती है, इस मान्यता को आवश्यकता से अधिक महत्त्व दिया गया। समतावादी वामपंथी सिद्धांतों के आवेश में इस ओर ध्यान नहीं दिया गया कि भारतवर्ष में सामाजिक और आर्थिक विषमता के मूल में जातिवाद की भी भूमिका कितनी महत्त्वपूर्ण है। आर्थिक वर्गों के साथ वर्णों का घनिष्ठ संबंध भारतवर्ष की अपनी विशेषता थी, जिसकी ओर ध्यान न देने से वामपंथी आंदोलनों को जनता में क्रांतिकारी चेतना जगाने में अनावश्यक विलंब हुआ। उनके प्रज्ञावाद ने उनके क्रांतिरथ के चक्कों को जातिवाद के पंक में ऐसा पंâसा दिया है कि उनकी गति भी प्रजातंत्र के समान ही निराशाजनक होती जा रही है। समतावादी विचारों के

लिए यह आवश्यक है कि वह भारतीय समाज में व्याप्त ‘सवर्ण बनाम अवर्ण’ के ऐतिहासिक द्वंद्वों का अध्ययन करें और अपने वैज्ञानिक अध्ययन में उसे आत्मसात् करें। उन्हें इस तथ्य का निरीक्षण करना होगा कि भारतवर्ष में हिंदू-मुस्लिम-क्रिश्चियन-सिक्खदलित-ब्राह्मण-अब्राह्मण आदि के अंतर्गत फ़ैली सामाजिक विषमताओं का कारण जैसे आर्थिक है, वैसे ही इस देश का परंपरागत सवर्ण-अवर्ण का व्यापक भेद भी है। इसे न देखना भारतीय समाज की ऐतिहासिक प्रवृत्तियों को न देखना होगा।

चतुर्दिक प्रहार की आवश्यकता

भारतीय समाज के अध्ययन से यह स्पष्ट हो चुका है कि जातिवाद कोई एकांगी समस्या नहीं है। उसके आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक ऐसे व्यापक आयाम हैं, जो यहां के परंपरागत धर्म, दर्शन और संस्कृति से समर्थित एवं समरस हो चुके हैं। इसलिए जातिवाद के विरोध में अपेक्षित सफलता न मिलने का प्रमुख कारण था, उस पर एकांगी प्रहार करना। संपूर्ण भारतीय इतिहास में भगवान् बुद्ध ने ही सर्वप्रथम इस पर सबसे बड़ा प्रहार किया था, जिसने जातिवाद तथा उसके समर्थन में खड़े धर्म, दर्शन और संस्कृति को शताब्दियों तक मूचर््िछत रखा। उस आंदोलन की कमी यह थी कि समाज के जातिवादी अर्थतंत्र को तोड़ने का प्रयास नहीं किया गया। बुद्ध ने यद्यपि जातियों के साथ जीविका के संबंध का जोरदार खंडन किया, जिसके क्रांतिकारी प्रभावों से आगे चलकर क्षत्रियों का राजसत्ता पर एकाधिपत्य समाप्त होने लगा और बड़े-बड़े शक्तिशाली शूद्र राज्यों का भी आविर्भाव हुआ। इतनी महान् उपलब्धि के बाद भी श्रेष्ठी वर्ग का प्राचीन अर्थतंत्र यथावत् बना रहा। संघ को मिली संपत्ति व्यक्ति की नहीं होती थी। और उसका वितरण भी आवश्यकतानुसार समान होता था, किन्तु संघ के इस आदर्श का प्रयोग समाज में नहीं किया गया। संभवत: भगवान् बुद्ध का इस ओर ध्यान भी नहीं गया था कि सामाजिक दु:ख के कारणों में तंत्र के रूप में अर्थ का इतना महत्त्वपूर्ण स्थान है। कहना नहीं है कि बीसवीं शताब्दी में यह तथ्य इतना उजागर हो चुका है कि उसकी प्रधानता को स्वीकार न करते हुए भी अपने को क्रांतिकारी घोषित करना बौद्धिक अपराध होगा। इस देश में आर्थिक विषमता जाति-व्यवस्था में इतनी सहयुक्त रही है कि एक के बिना दूसरे की कल्पना तथ्यहीन होगी। इस स्थिति में वर्णवाद एवं वर्ग-स्वार्थ दोनों पर साथ-साथ प्रहार होना चाहिए।

एक विशेष धर्म और संस्कृति ने जातिवाद को भारतीय अंतरमन में एक श्रेष्ठ मानवीय मूल्य के रूप में प्रतिष्ठा दिलाई है। जिस भारतीय-मन से क्रांति की ज्वाला उठ सकती थी, त्रिकालदर्शी ऋषियों ने उसे अपने जातिवादी धर्म, रहस्यवादी दर्शन और ब्राह्मणवादी संस्कृति से ऐसा शांत, गतिहीन और यथास्थ्तििवादी बना दिया कि उसमें दैव, रहस्य, अधंविश्वास, तंत्र,मंत्र, ज्योतिष, भूत-प्रेत और भगवान् आदि तो पनप सकते हैं किंतु

इंकार, प्रतिकार और असहयोग आदि अपना सिर भी नहीं उठा सकते। जातिवादी क्रूरता की पराकाष्ठा इसमें है कि जिस वर्ग के लाभ में इसे खड़ा किया गया सिर्फ़ उसी के मन की यह दशा नहीं है, अपितु उस वर्ग की भी वही मनोदशा है, जिसे उस व्यवस्था से हानि उठानी पड़ी है। इस क्रांति विरोधी मानस को सुधारवादी कानूनों और समन्वयवादी राजनीति से केवल सुला दिया जा सकता है, क्रांतिकारी नहीं बनाा जा सकता। क्रांति की दिशा में उसे ले चलने के लिए उसकी पंरपरागत मान्यताओं पर चतुर्दिक प्रहार करना होगा, जिसका लक्ष्य होगा—जातिवादी धर्म, दर्शन, संस्कृति, शिक्षा, अर्थव्यवस्था, राजनीति और कानून।

कार्य का क्षेत्र और नेतृत्व का प्रश्न

जातिविरोधी आंदोलनों के नेतृत्व का प्रश्न भी कुछ कम महत्वपूर्ण नहीं है। हमें इसका भी ध्यान रखना होगा कि इस देश के लिए जातिवाद एक नैतिक और सांस्कृतिक प्रश्न ही नहीं है, अपितु एक राष्ट्रीय समस्या भी है। इस देश की स्वतंत्रता की रक्षा और विकास के लिए जिस प्रकार की राष्ट्रीयता एवं भावनात्मक एकता की अपेक्षा है, जातिवाद क्या उसे पनपने देगा? थोड़ी देर के लिए सवर्ण अवर्ण के बीच की समस्या को भूल जाएं और मान लें कि सारा राष्ट्रीय उत्तरदायित्व केवल सवर्ण या केवल अवर्ण जातियों पर है, तो उस स्थिति में क्या जातिवाद के दोष बाधक नहीं रह जाएंगे? उत्तर के लिए दूर जाने की आवश्यकता नहीं। मध्यकाल के दुर्भाग्यपूर्ण इतिहास का सारा उत्तरदायित्व सवर्णों पर ही था, जब शूद्र जातियों का हस्तक्षेप नहीं था, क्योंकि विवश होकर वे राष्ट्रीय समस्याओं से उदासीन एवं उपेक्षित स्थिति में अलग पड़ी हुई थी। उस काल में इस देश का राष्ट्रीय जीवन, जो सब प्रकार से छिन्न-भिन्न हुआ, उसका सारा उत्तरदायित्व सवर्णों पर ही तो था। उस काल में उनके बीच जातिवाद का जो नग्न तांडव हुआ, वह अभी दूर की बात नहीं है। जातिवाद वह विष है जो किसी भी स्थिति में राष्ट्रीय एकता और भावनात्मक एकता को फ़ैलने का अवसर नहीं देगा।

स्पष्ट है कि पूरे राष्ट्रीय जीवन में इस समस्या का समाधान करना होगा। किंतु उसका मर्म-बिंदु असवर्ण जातियां हैं, उनकी दृष्टि से जिस मात्रा में सामाजिक परिवर्तन होंगे उसी मात्रा में संपूर्ण राष्ट्रीय जीवन में समता, स्वतंत्रता और प्रजातंत्र के मूल्य भी प्रतिष्ठित होंगे।