"अली फियर ईट्स द सोल" नस्लवाद के साये में पनपता प्यार / राकेश मित्तल

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"अली फियर ईट्स द सोल" नस्लवाद के साये में पनपता प्यार
प्रकाशन तिथि : 07 सितम्बर 2013


जर्मनी के सिने परिदृश्य में राइनर फासबिंडर का नाम सर्वाधिक प्रतिभाशाली और विवादास्पद शख्सियत के रूप में लिया जाता है। उन्हें जर्मनी के नव-उदारवादी सिनेमा की धुरी कहा जाता है। सत्तर के दशक में जर्मन सिनेमा को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फासबिंडर की कृतियों के लिए जाना गया। युद्धोत्तर जर्मन समाज की विद्रूपताओं को फासबिंडर ने जिस तीक्ष्णता से उजागर किया, उसके लिए उन्हें कई विवादों का सामना करना पड़ा। उनका जीवन बेहद अशांत, कठिन और असामान्य परिस्थितियों में गुजरा। अत्यधिक मदिरापान और कोकीन के सेवन के कारण मात्र 37 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया। इस छोटी से अवधि में उन्होंने चालीस फीचर फिल्मों एवं अनेक नाटकों, टीवी फिल्मों व लघु फिल्मों का निर्माण व निर्देशन किया। वे एक क्रिएटिव जीनियस थे। अपनी अधिकांश फिल्मों में वे स्वयं निर्माता, निर्देशक, अभिनेता, लेखक, संगीतकार होते थे। 1974 में वे दो बड़े बजट की फिल्मों पर काम कर रहे थे, तभी उन्हें एक नई कहानी का प्लॉट सूझा। उन्होंने एक छोटा-सा ब्रेक लिया और मात्र दो सप्ताह में ‘‘अली फियर ईट्स द सोल’ नामक फिल्म बना डाली। यह फासबिंडर के करियर की सर्वश्रेष्ठ फिल्म मानी जाती है, जो उन्होंने सबसे कम समय और न्यूनतम बजट में बना दी।

यह एक बेहद साहसिक और जटिल फिल्म है, जिसमंे नस्लवाद केंद्रीय विषयवस्तु है। उन दिनों आप्रवासी विदेशी कामगारों को जर्मनी में बेहद नफरत और नस्लीय भेदभाव का सामना करना पड़ता था। फिल्म की नायिका एमी (ब्रिगिट मीरा) साठ वर्षीय जर्मन विधवा है, जो घरों में साफ-सफाई का काम करती है। एक दिन घर लौटते समय अचानक हुई तेज बारिश के बचने के लिए वह एक बार में घुस जाती है। वहां उसकी मुलाकात मोरक्को मूल के 35 वर्षीय आप्रवासी गैराज मैकेनिक अली (अल हैदी बिन सलेम) से होती है। बार में गूंजती हुई संगीत की नशीली स्वरलहरियों के बीच अली एमी को नृत्य के लिए आमंत्रित करता है, जिसे एमी स्वीकार कर लेती है।

नृत्य के दौरान दोनों अजनबियों के बीच अजीब आकर्षण-सा पनपने लगता है। यह आकर्षण कुछ ही दिनों में प्यार में बदल जाता है और दोनों शादी करने का निश्चय कर लेते हैं। उनका यह मेल दोनों के मित्रों और परिवारों के लिए सदमा होता है। एमी की बेटी क्रिस्टा (इर्म हरमन) और दामाद यूगन (राइनर फासबिंडर) आग बबूला हो उठते हैं। अली, जो अब तक एक चाल नुमा कमरे में पांच अरब मित्रों के साथ तंगहाली में रहता था, एमी के घर रहने आ जाता है किंतु इस जर्मन-अरब रिश्ते के कारण उनका जीना मुहाल हो जाता है। आस-पड़ोस के लोग, दुकानदार, मित्र, रिश्तेदार आदि सभी उन पर छींटाकशी करने लगते हैं। एमी को काम से निकाल दिया जाता है और अली को हर मोड़ पर नफरत का सामना करना पड़ता हैं एमी के बच्चे उनके घर आकर सामान तोड़-फोड़ देते हैं।

मगर इस सारी नफरत के बावजूद एमी और अली विचलित नहीं होते। वे कुछ दिनों के लिए कहीं दूर एकांत में चले जाते हैं। बाहरी दुनिया का वे दोनों आपसी प्रेम, सामंजस्य और दृढ़ता से सामना करते हैं किंतु अकेले रहने पर कुछ समय बाद एमी का ‘जर्मन भाव’ उदित होने लगता है और वह बात-बात पर अली को अपमानित करने लगती है। अली परेशान होकर एक अन्य महिला बारबरा (बारबरा वेलेन्टाइनो) की ओर आकर्षित होने लगता हैं स्थितियां जटिल होने लगती हैं आकर्षणए विकर्षण, नस्लभेद और सामाजिक संरचनाओं के बीच रिश्ते अपना अस्तित्व तलाशते हैं। फिल्म का अंत चौंकाता है।

फिल्म की बुनावट बेहद कसी हुई है। दोनों पात्र अपनी उम्र, स्वभाव, नस्ल, रंग और राष्ट्रीयता में एक-दूसरे से बिल्कुल अलग है। ऐसे विषम और संवेदनशील परिप्रेक्ष्य में आदिम रिश्तों की विवेचना फासबिंडर जैसा जीनियस ही कर सकता है। इन पात्रों के माध्यम से निर्देशक ने उस समय की सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियों का भी बहुत सूक्ष्मता से चित्रण किया है।

फिल्म के कलाकारों का वास्तविक जीवन भी बेहद चुनौतीपूर्ण एवं असामान्य रहा, जिसका तनाव उनके द्वारा निभाए गए पात्रों में भी परिलक्षित होता है। अली की भूमिका निभाने वाला अल हैदी उन दिनों फासबिंडर का समलैंगिक पार्टनर था और क्रिस्टा की भूमिका निभाने वाली जर्मन अभिनेत्री इर्म हरमन फासबिंडर की पूर्व प्रेमिका थी। उन दोनों का संबंध अत्यंत तनावपूर्ण और हिंसात्मक रहा था। एमी यानी ब्रिगिटा मीरा एक रूसी यहूदी आप्रवासी पिता की संतान होने के कारण नाजी अत्याचारों की शिकार रहीं।

इस फिल्म को कान फिल्म समारोह में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का अंतर्राष्ट्रीय क्रिटिक्स अवॉर्ड प्राप्त हुआ था।