"चलो दिलदार चलो" / प्रमोद यादव
बचपन में जब कभी किसी रोबदार, मूंछदार थानेदार को देखता तो मन ही मन सोचता- बड़ा होकर ‘थानेदार’ बनूँगा. तब के माँ-बाप बच्चों को आज की तरह इंजीनियर या डाक्टर बनाने की नहीं सोचते थे बल्कि थानेदार बनाने की मंशा रखते. इसके पीछे ‘लाजिक’ थानेदार की कमाई कतई नहीं होता, केवल ‘पद का रौब’ ही ज्यादा काम करता. तब का थानेदार दो सौ रुपल्ली के वेतन में भी हजारों पर भारी पड़ता ( रौब के मामले में ) उन दिनों तो हवलदार का भी काफी जलवा हुआ करता..हमेशा वे हलुवे में होते...
मन बड़ा ही चंचल होता है..और बचपन में तो कुछ ज्यादा ही...पल-पल में उछलता-कूदता बदलता रहता है..कभी शहर- सेठ के ठाटबाट देख भविष्य में ‘मालदार’ बनने की इच्छा पनपती तो कभी स्कूल के किसी दिमागदार विद्यार्थी को पुरस्कार पाते देख जगदीशचंद्र बसु बनने को मन करता..कभी किसी फर्राटेदार दौड़ लगाते किसी खिलाड़ी को देख ‘भाग मिल्खा भाग’ जैसा मन हो जाता.. तो कभी किसी लालबत्ती वाली गाड़ी में लदे मंत्री को देख सिर में टोपी पहनने को दिल करता..
बड़ी ही अजीब बात है कि बचपन में हर चीज कुछ जरुरत से ज्यादा बड़ी दिखती थी ..मसलन कि मेरे मोहल्ले में उन दिनों श्यामलाल गुप्ता की एक छोटी–सी दूकान थी जो काफी बड़ी लगती..जरुरत की हर छोटी-बड़ी चीज मै वहीँ से खरीदता..पेन्सिल, कलम, कापी, रजिस्टर, बिस्कुट, चाकलेट, चना, बेर, मुरकू..आदि-आदि..दिन में कई-कई बार दौड़ लगाता..उसके लंचबॉक्सनुमा गल्ले को देख आँखे फटी की फटी रह जाती..मुंह तक सिक्कों से अटा होता..6x6 के बाथरूमनुमा दुकान में पसरा श्यामलाल हमेशा मुझे धन्ना सेठ लगता..और उसकी दूकान सुपर बाजार.. आज की तारीख में भी वही दुकान है.. वही श्यामलाल है. वही गल्ला है..पर सब कुछ गरीब-गरीब लगता है..उसके गल्ले में जितने सिक्के होते हैं, उससे ज्यादा तो सेक्टर नाईन मंदिर के बाहर बैठे भिखारी के आगे बिछे पंछे में होता है..खैर..विषय पर लौटता हूँ..बातें बचपन की हो रही थी..
जैसे-जैसे बचपन बीतता गया..मर्ज बढ़ता गया..जिंदगी की हकीकतों के अनेक जादुई दरवाजे ‘सिम-सिम’ कर खुलने लगे..तब मालुम हुआ कि कोई थानेदार, तहसीलदार, जागीरदार, तालुकदार या मालदार यूं ही नहीं बन जाता..उसके पीछे काफी मेहनत-मशक्कत, पढाई-लिखाई और घिसाई होती है..घर से रोज नसीहतें मिलती कि कोई भी ‘दार’ (रसूखदार, दमदार, मालदार, इज्जतदार, थानेदार, जागीरदार, तहसीलदार) बनना हो तो सबसे पहले ईमानदार बनो..रास्ता जरुर कुछ अडचनों भरा, घुमावदार होगा पर ‘मलाईदार’ जाब पाना है तो एक तरह से इसे ‘मस्ट’ समझो....अन्यथा जमादार, चौकीदार या झाड़ूदार बनना तो तय है ही....घरवाले अक्सर एक लाइन का एक मुहावरा ( ताना) सुनाते (मारते) –“ पढोगे लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे बनोगे खराब” आज की तारीख में सब उल्टा-पुल्टा हो गया है..खेलने-कूदने वाले ‘ भारत-रत्न ‘ झोंक रहे हैं और पढ़े-लिखे लोग भाड़..
पढने-लिखने से ख्याल आया कि पढ़ने-लिखने के दिनों में सबसे बोर काम होता है-पढना-लिखना..इस बात को लगभग सभी बच्चे स्वीकारेंगे.. केवल दो प्रतिशत बच्चे ही माँ की कोख से पाकेट-डिक्शनरी लिए पैदा होते है..पढातू होते हैं..बाकी सारे तो माँ-बाप की तुतारी के डर से ही पढ़ते हैं..पढ़ते क्या हैं, केवल छलते हैं..झूठ क्यूं बोलूं – मैंने भी छला....घरवाले, नातेदार, रिश्तेदार सबने ख़बरदार किया कि पढ़-लिखकर इज्जतदार बनूँ..पर मार्क्स इतने बुरे थे कि सिवा बेइज्जती के कुछ न हुआ ..तब वे मेरे अन्दर एक ‘दुकानदार’ तलाशने लगे..तब ऐसा ही कायदा था..पढने-लिखने से चूके तो दुकानदार
बनना तय..दूकानदार से तात्पर्य ये नहीं कि मेन मार्केट में कांच के चमचमाते दुकान में बैठ टी.वी.-फ्रिज बेचे या किसी मल्टीस्टोरी माल में लिवाइस जींस या कूपन का काउंटर खोलकर बैठे ..तब दूकान का अर्थ केवल ‘किराने की दूकान’ होता था..मेरे विषय में भी यही सोचा गया..पर थर्ड डिवीजन मेट्रिक करने के बाद मैंने कालेज पढने की जिद की तो दो-तीन सालो के लिए मेरा ‘किराना-मर्चेंट’ बनना रद्द हो गया..
कालेज पहुचते ही कलेजे को ठंडक मिली..एक हसीं और संगीन हादसे का शिकार हो गया..एक चाँद जैसे मुखड़े वाली लड़की को दिल दे दिलदार हो गया..वह अंतिम क्षनो तक ( ससुराल जाते तक ) मेरे प्रति वफादार रही और मैं उसके प्रति..आज के लैला-मजनुओं की तरह ना उसने मुझे कभी ‘चीट’ किया ना मैंने उसे..अच्छा हुआ उस दौर में सेलफोन नहीं था नहीं तो हमें भी ( खासकर मुझे ) बेईमान बनने में समय नहीं लगता..आज के युग में लड़कियों के पास कई ‘आप्शन’ होते हैं..थोडा सा भी आपसी तकरार हुआ या आपने गुस्सा दिखाया कि दूसरे दिन ‘हीर’ किसी दूसरे ‘रांझे’ के बाइक के पीछे मुंह लपेटे सरपट भागती दिखेगी..फिर ‘ ढूंढते रह जाओगे’ जैसी स्थिति हो जाती है..हमारे जमाने में ऐसा नहीं था...रूठने-मनाने में ही सबसे बढ़िया टाईम-पास होता.. उन दिनों एक गाना भी काफी लोकप्रिय था - ‘ तुम रूठी रहो, मैं मनाता रहूँ कि इन अदाओं में और प्यार आता है ’ हमारे दौर में किसी के पास कोई ‘आप्शन’ नहीं होता था..’ जीना यहाँ, मरना यहाँ ‘ जैसी स्थिति होती..एक का एक पर ही मर-मिटने का रिवाज था...हालाकि कहने की बातें हैं, मरता-मिटता कोई न था..उम्र होते ही लड़की ब्याह दी जाती..और कभी-कभी ‘अफेयर’ के ‘आम’ हो जाने से कम उम्र में ही ब्याह दी जाती..और दिलदार महोदय दोनों ही स्थितियों-परिस्थितियों में ‘ मैं कहीं कवि ना बन जाऊं तेरे प्यार में ऐ कविता ’ कहते-कहते आगे का रास्ता( जो माता-पिता तय करते )नाप लेते..
‘ चलो दिलदार चलो चाँद के पार चलो..’गीत आने के चार साल पहले ही मेरी पारो ‘पार’ हो गई थी..मतलब कि ससुराल चली गई थी..इसलिए चाँद के उस पार क्या है, नहीं जान सका ..अब तो खुद चाँद हो गया हूँ...वह भी दागदार..छह बच्चों का पिता जो बन गया हूँ.. खैर..दिलदार के बाद चंद दिनों के लिए दुकानदार बना..फिर इसके चलते (दुकान के न चलते) कर्जदार भी बना..कईयों से उधार लिया फिर भी उद्धार न हुआ अलबत्ता बहुतों के लिए गद्दार बन गया . अच्छे-बुरे सभी दिनों में मेरा राजदार व सुख-दुःख का हिस्सेदार रही मेरी अभागी, सीधी-सादी पत्नी हर पल मुझे जी-जान से धारदार बनाने की कोशिश की, .पर होता वही है जो मंजूरे-खुदा होता है..समझदार होते हुए भी जिंदगी में कोई धमाकेदार काम न कर सका..सिवा छह बच्चे पैदा करने के....दमदार, असरदार बनने के चक्कर में दर-दर भटक तार-तार हुआ..
क्या ही अच्छा होता कि किसी सरदार के घर में पैदा होता..ना कोई थानेदार, मालदार, तहसीलदार बनने का चक्कर होता ना ही दिलदार होने का कोई दर्द....सरदार तो जन्मजात रौबदार, पानीदार, वफादार, ईमानदार, इज्जतदार, जानदार, शानदार होते हैं..इन्हें कुछ बनने के लिए कुछ भी बिगाड़ना नहीं पड़ता, , मैंने तो कुछ बनने के फेर में सब कुछ बिगाड़ डाला..जिंदगी को जायकेदार की जगह बदबूदार बना डाला..अब तो केवल उपरवाले के दीदार की तमन्ना है..और उससे विनती है कि अगले जनम में किसी सरदार के घर पैदा कर मुझे आल इन वन बनाए...’दिलदार वाला चेप्टर’ इसी जनम वाला रखे तो आभारी रहूँगा.. बड़ी सोणी लड़की थी वो....जानता हूँ, अगले जनम में भी वो चाँद के उस पार जाने के पहले ही पार हो जायेगी...फिर भी..कोशिश होगी कि अगली बार उसके कानों में गुनगुना सकूँ- ‘ चलो दिलदार चलो ..चाँद के पार चलो..’ तैयार होना न होना उसकी मर्जी.