"ट्वेल्व ईयर्स अ स्लेव" स्याह अतीत का ऐतिहासिक दस्तावेज / राकेश मित्तल
प्रकाशन तिथि : 08 फरवरी 2014
ब्रिटिश फिल्मकार स्टीव मॅक्वीन की फिल्म 'ट्वेल्व ईयर्स अ स्लेव" को हाल ही में संपन्न गोल्डन ग्लोब पुरस्कार समारोह में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार मिला है। इसके अलावा ऑस्कर के लिए इसे नौ श्रेणियों में नामांकित किया गया है, जिनमें से कई पुरस्कार इसकी झोली में गिरने की संभावना है। यह 2013 की सर्वाधिक चर्चित फिल्मों में से एक है। 'हंगर" और 'शेम" जैसी उम्दा फिल्मों के बाद स्टीव मॅक्वीन की यह तीसरी फिल्म है।
यह फिल्म सोलोमन नॉर्थप नामक अफ्रीकी अश्वेत व्यक्ति की सच्ची कहानी है। सोलोमन अमेरिका के न्यूयॉर्क राज्य का नागरिक और निवासी था, जिसका वर्ष 1841 में वॉशिंगटन डीसी शहर में अपहरण कर लिया गया था और फिर उसे बारह वर्ष तक गुलाम बनाकर रखा गया। 1853 में उसे लुसियाना प्रांत में स्थित कपास के खेत से छुड़ाया गया था। डेविड विल्सन नामक लेखक ने सोलोमन के इस जीवन वृत्तांत को सुनकर एक संस्मरणात्मक किताब लिखी, जो उस समय की "बेस्टसेलर" किताब रही थी। यही किताब इस फिल्म का मूल आधार है, जिस पर जॉन रिडले ने एक सशक्त पटकथा तैयार की और स्टीव मॅक्वीन ने उसे एक बेहद प्रभावशाली फिल्म में रूपांतरित कर दिया।
यह फिल्म न केवल प्रस्तुतिकरण के स्तर पर उम्दा है, बल्कि अपने बेबाक, निष्पक्ष और ईमानदार कलेवर के कारण इसका ऐतिहासिक महत्व हो गया है। अमेरिकी दास प्रथा के विषय को लेकर बनी अब तक की सभी फिल्मों में इसे निर्विवाद रूप से शीर्ष पर रखा जा सकता है। यह केवल दास प्रथा की ओर इंगित नहीं करती, बल्कि अनेक बिम्बों और प्रतीकों के माध्यम से उस समय के नस्लीय मानसिकता वाले अमेरिका का घृणित एवं विद्रूप चेहरा प्रस्तुत करती है।
फिल्म की शुरूआत 1841 में होती है, जहां न्यूयॉर्क शहर में सोलोमन नॉर्थप (शिवेटल इजियोफर) अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ सामान्य जीवन व्यतीत कर रहा है। वह सुतारी का काम करता है और वायलिन भी बजा लेता है। दो अज्ञात बदमाश उसे वॉशिंगटन डीसी में अच्छा काम दिलाने का लालच देकर ले जाते हैं और पेय पदार्थ में नशीली दवा मिलाकर उसे बेहोश कर देते हैं। होश आने पर वह अपने आप को एक काल कोठरी में पाता है। बहुत जल्द उसे समझ में आ जाता है कि वह एक बड़े गिरोह के चंगुल में फंस चुका है और उसे गुलाम के रूप में बेच दिया गया है। यहां से उसके नारकीय जीवन की शुरूआत होती है। अनवरत शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना के बीच उसे थोड़े-थोड़े दिनों में एक मालिक से दूसरे मालिक को बेचा जाता है और बुरी तरह पीट-पीटकर काम लिया जाता है। अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर वह तमाम यातनाओं का सामना करते हुए सम्मानजनक जीवन जीने का विकल्प बनाए रखने की कोशिश करता है।
इस फिल्म को देखना आसान नहीं है। इसके कई दृश्य हमें बेचैन कर देते हैं। फिल्म देखते हुए मन क्रोध, वितृष्णा और अफसोस से भर जाता है। विश्वास नहीं होता कि यह भी इतिहास का एक सच है और मनुष्य रंगभेद या नस्लभेद के आध्ाार पर इतना क्रूर एवं निष्ठुर हो सकता है।
इस फिल्म के कास्टिंग डायरेक्टर की तारीफ करना होगी क्योंकि हर पात्र के लिए उन्होंने एकदम सटीक कलाकार चुना है। सोलोमन नॉर्थप की भूमिका में शिवेटल इजियोफर ने कमाल किया है। अपने पथरीले चेहरे और बोलती आंखों से उन्होंने सोलोमन की पीड़ा को जीवंत कर दिया है। कई संवाद तो उन्होंने सिर्फ आंखों के माध्यम से संप्रेषित किए हैं। दिल दहला देने वाली शारीरिक और मानसिक यातना के बीच कसमसाती जिजीविषा को उन्होंने बहुत खूबी से उभारा है। क्रूर मालिक एडविन ऐप्स की भूमिका में माइकल फासबिंडर भी बेहद प्रभावी हैं। माइकल मूलत: आइरिश-जर्मन कलाकार हैं और स्टीव मॅक्वीन के सबसे पसंदीदा अभिनेताओं में से हैं। स्टीव की तीनों फिल्मों में माइकल ने महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाई हैं।
इस फिल्म की दुनिया भर के समीक्षकों और फिल्मकारों ने सराहना की है। यह अमेरिका के उस 'दास प्रथा युग" का लोमहर्षक प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करती है, जो मानव सभ्यता के इतिहास का एक काला अध्याय रहा है। भविष्य की बेहतरी के लिए अतीत की गलतियों से सबक लिया जाना जरूरी है। ये स्याह पन्नो हमें इस बात की याद दिलाते हैं कि मानव सभ्यता ने इस मुकाम तक पहुंचने के पूर्व कई तरह के दंश झेले हैं और किसी भी कीमत पर उन गलतियों की पुनरावृत्ति नहीं होना चाहिए।