"द बेटल आफ अल्जीयर्स" एक क्रांति की अनूठी दास्तान / राकेश मित्तल

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प्रकाशन तिथि : 21 फरवरी 2014


इटली के प्रतिभाशाली फिल्म निर्देशक गिलो पोंटेकोर्वो की १९६६ में प्रदर्शित फिल्म " द बेटल आफ अल्जीयर्स " को विश्व सिनेमा की धरोहर माना जाता है. कई मायनों में यह एक अद्भुत फिल्म है. इटली के नव यथार्थवादी सिनेमा की इस महत्वपूर्ण प्रस्तुति को विश्व की श्रेष्ठतम वॉर फिल्मों में शुमार किया जाता है. यह १९५४ से १९६२ के बीच अल्जीरिया में स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व हुए जन संघर्ष की वास्तविक कहानी है. स्थानीय गैर पेशेवर कलाकारों की सहायता से वास्तविक लोकेशंस पर फिल्माए जाने के कारण यह अत्यंत विश्वसनीय फिल्म बन गई है. वेनिस के अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में इसका प्रीमियर किया गया था जहाँ इसे सर्वोच्च पुरस्कार "गोल्डन ग्लोब " प्रदान किया गया. इसके अलावा इसे विदेशी भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म सहित तीन आस्कर पुरस्कारों के लिए भी नामांकित किया गया. दुनिया भर के फिल्म समारोहों में इसे ढेरों पुरस्कार प्राप्त हुए.

इस फिल्म में युद्ध की गुरिल्ला शैली को अत्यंत प्रामाणिक एवं विश्वसनीय ढंग से दिखाया गया है. बाद में क्यूबा में फिदेल कास्त्रो व चेग्वेवारा के अलावा फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन तथा वियतनाम, इराक, ईरान, दक्षिण अफ्रीका, एशिया व मध्य पूर्व के कई देशों में अनेक विद्रोही संगठनों एवं अतिवादियों ने आक्रमण की इस शैली को अपनाया और आज भी अपना रहे हैं. २००३ में यह फिल्म पुनः चर्चा में आई जब अमेरिकी रक्षा मुख्यालय पेंटागान में इराक युद्ध के दौरान अपने सैनिकों को प्रशिक्षित करने के लिये इस फिल्म को दिखाया गया. यह फिल्म एक महत्वपूर्ण एतिहासिक दस्तावेज है. विगत पचास वर्षों में हुई अनेक क्रांतियों की झलक हमें इसमें दिखाई पड़ती है. फिल्म का फ़ोकस मुख्य रूप से फ़्रांस अधिकृत 'अल्जीयर' में सितम्बर १९५४ से दिसंबर १९५७ के बीच घटी घटनाएँ है.

अल्जीरिया भूमध्य सागर के तट पर उत्तरी अफ्रीका के मगरिब क्षेत्र में स्थित है. अपनी महत्वपूर्ण सामरिक भौगोलिक स्थिति के कारण यह हमेशा से ताकतवर देशों के निशाने पर रहा. १९६२ में स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व यह १३२ वर्ष तक फ़्रांस का गुलाम रहा और फ़्रांस के सबसे लम्बे आधिपत्य वाले औपनिवेशिक हिस्से के रूप में जाना गया. इस दौरान हजारों योरोपीय नागरिक वहां आ कर बस गए. यद्यपि इन विदेशियों की तादाद अल्जीरिया के मूल अरबी मुस्लिम नागरिकों की अपेक्षा बहुत कम थी किन्तु प्रशासन एवं अर्थव्यवस्था के सारे सूत्र इनके हाथ में होने से समूची व्यवस्था इन्हीं के इशारों पर चलती थी. फ़्रांस नियंत्रित पुलिस एवं अर्धसैनिक बलों का पूरे क्षेत्र पर नियंत्रण था. राजधानी कस्बाह का अधिकांश हिस्सा बदहाल था जहाँ आम जनता रहती थी. विदेशी नागरिक वहीँ एक अलग विकसित क्षेत्र "यूरोपियन क्वार्टर" में रहते थे. गरीबी, बेरोजगारी और असमानता के दंश से पीड़ित जनता में धीरे धीरे विद्रोह की आग सुलग रही थी जो पचास के दशक में अल्जीरियाई नेशनल लिब्रेशन फ्रंट (एफएलएन) के रूप में संगठित होकर सामने आई. बेरोजगार युवकों के इस समूह में महिलाओं और बच्चों ने भी सक्रियता से भाग लिया. सितम्बर १९५४ में कुछ पुलिस कर्मियों की हत्या के साथ एफ एल एन ने विद्रोह का बिगुल बजा दिया. अगले तीन साल तक एफएलएन कार्यकर्ताओं ने फ़्रांस समर्थित पुलिस और सेना के साथ जम कर गुरिल्ला युद्ध किया. वे सामान्य नागरिकों के बीच से अचानक प्रकट हो कर हमला करते थे और फिर उन्हीं के बीच गायब हो जाते थे. इन घटनाओं को फिल्म में हम अली (ब्राहम हेग्गियाग) नामक एफएलएन कमांडर की निगाह से देखते हैं. इन गुरिल्ला आक्रमणों से निबटने के लिए फ़्रांसिसी सेना अपने एक वरिष्ठ अधिकारी कर्नल मैथ्यू (जीन मार्टिन) को कस्बाह भेजती है जो अपनी चालों और यातनापूर्ण तरीकों से इस आन्दोलन का दमन करने की कोशिश करता है.

सादी यासेफ़ एफएलएन के उन चार प्रमुख कमांडरों में से एक था जिन्होंने इस फ्रंट का गठन किया था. वह एफएलएन की गुरिल्ला गतिविधियों का प्रमुख था. फ़्रांसिसी सेना ने सितम्बर १९५७ में उसे गिरफ्तार कर मृत्युदंड की सजा सुनाई थी जो बाद में उसके द्वारा घोर यातना सहने के बाद अली का गुप्त ठिकाना बताने पर माफ़ कर दी गई थी. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वह चुनाव लड़ कर अल्जीरियाई संसद में पहुंचा और आज ८६ वर्ष की उम्र में भी वह एक सक्रिय सांसद है. यह फिल्म मुख्यतः सादी यासेफ़ के संस्मरणों पर आधारित है. इसके अलावा फिल्म में जफ़र के नाम से सादी यासेफ़ ने अपनी भूमिका स्वयं निभाई है.

इस फिल्म की सबसे बड़ी विशेषता इसका निष्पक्ष और विश्वसनीय प्रस्तुतीकरण है जिस कारण यह समान रूप से सभी देशों के दर्शकों एवं समीक्षकों द्वारा सराही गई. हालाँकि फ़्रांसिसी सरकार द्वारा इसे अल्जीरियाई नागरिकों के पक्ष में मानते हुए इसके फ़्रांस में प्रदर्शन पर प्रतिबन्ध लगा दिया था जो पोंटेकोर्वो की पांच साल की कोशिशों के बाद हट पाया. फिल्म सत्य घटनाओं पर आधारित है किन्तु पात्रों के नाम बदल दिए गए हैं. फिल्म के एकमात्र व्यावसायिक कलाकार फ़्रांसिसी अभिनेता जीन मार्टिन हैं जिन्होंने कर्नल मैथ्यू का किरदार निभाया है. अन्य सभी कलाकार स्थानीय अल्जीरियाई नागरिक हैं जिन्होंने पहली बार कैमरे का सामना किया है. जीन मार्टिन स्वयं पूर्व सैनिक थे. उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध तथा इंडो चाइना वॉर में सक्रिय हिस्सा लिया था. इस कारण कर्नल मैथ्यू के किरदार को उन्होंने जीवंत बना दिया. फिल्म को जानबूझ कर श्वेत श्याम माध्यम में बनाया गया है ताकि उसकी विश्वसनीयता अधिक प्रभावी ढंग से उभर कर आ सके. फिल्म इतनी वास्तविक लगती है कि पोंटेकोर्वो को फिल्म की शुरुआत में ये बयान डालना पड़ा कि इसमें किसी भी पूर्व टीवी समाचार या न्यूज़ रील के फुटेज़ नहीं डाले गए हैं तथा जो कुछ भी दिखाया गया है वह वास्तव में शूट किया गया है.

यह फिल्म आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी १९६६ में थी. एक तरफ यह फ़्रांस के नज़रिए से बताती है की आतंकवाद से लड़ना कितना मुश्किल काम है तो दूसरी तरफ अल्जीरिया के नज़रिए से यह बताती है कि सीमित संसाधनों में ताकतवर दुश्मन के खिलाफ किस तरह व्यूह रचना कर आक्रमण किया जा सकता है. यह एक सिनेमाई मास्टर पीस है जिसे अवश्य देखा जाना चाहिए.