"द रिलक्टंट फंडामेंटलिस्ट" आतंक के साये में वजूद की तलाश / राकेश मित्तल

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"द रिलक्टंट फंडामेंटलिस्ट" आतंक के साये में वजूद की तलाश
प्रकाशन तिथि : 25 मई 2013


भारतीय मूल की अमेरिकी फ़िल्मकार मीरा नायर इन दिनों अपनी नई फिल्म ‘द रिलक्टंट फंडामेंटलिस्ट’ के कारण चर्चा में हैण् पाकिस्तानी लेखक मोहसिन हामिद के इसी नाम के लोकप्रिय उपन्यास पर बनी यह फिल्म 9/11 के बाद अमेरिका में बदली हुई परिस्थितियों के मुस्लिम समुदाय पर प्रभाव की विवेचना करती है

इस फिल्म को देखकर एम एस सथ्यू की ‘गर्म हवा’ याद आती है जिसमें भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद मुसलमानों की मुख्यधारा में शामिल होने की कठिनाइयों को बेहद प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया गया था। यह फिल्म उसकी अगली कड़ी के रूप में वर्तमान परिस्थितियों की पड़ताल करती है।

फिल्म का नायक चंगेज खान एक प्रतिभाशाली और महत्वाकांक्षी पाकिस्तानी युवक हैं, जो अपनी आंखों में ढेर सारे सपने लिए अमेरिका आता है। विख्यात प्रिंस्टन विश्वविद्यालय से डिग्री लेने के बाद वह सुनहरे भविष्य की कल्पना और संकल्प के साथ वॉल स्ट्रीट की एक प्रतिष्ठित फर्म में फायनेंशियल एनालिस्ट के पद पर काम करने लगता है। अपनी तीक्ष्ण बुद्धि और प्रतिभा के बल पर बहुत जल्द ही वह कंपनी में बड़ा मुकाम हासिल कर लेता हैं उसकी प्रेमिका एरिका (केट हडसन) संयोगवश उसके बॉस की भतीजी निकलती है, जिस कारण वह बॉस के विश्वस्त नजदीकी कर्मचारियों में शुमार हो जाता है। जीवन एक सुखद रफ्तार से चलने लगता है। तभी अमेरिका में 9/11 का हादसा होता है और जैसे सब कुछ बदल जाता है। आम अमेरिकी नागरिक मुसलमानों को संदेह और नफरत की निगाह से देखने लगते हैं। हालांकि सतह पर सब कुछ सामान्य नजर आता है किंतु नीचे गहरे कहीं अविश्वास की खाई आकार लेने लगती है। एक के बाद एक हुई छोटी-छोटी घटनाएं चंगेज के सामने कई सवाल खड़े करने लगती है और वह अपने वजूद, आत्मसम्मान और अंतःकरण के द्वंद्व में उलझने लगता है।

इसी दौरान कंपनी की ओर से उसे इस्तांबुल में एक प्रकाशक के बंद होते व्यवसाय के आकलन के लिए भेजा जाता है। प्रकाशक से बातचीत के सिलसिलों में उसे अपने मजहब, संस्कृति तथा अपने आप से रूबरू होने का अवसर मिलता है और वह अमेरिका की चमकीली नौकरी छोड़कर अपने वतन लौटने का निश्चय करता है।

चंगेज का पूरा अतीत हमारे सामने फ्लैशबैक की श्रृंखला के रूप में आता है। फिल्म की शुरूआत में लाहौर में एक अमेरिकी प्रोफेसर का अपहरण हो जाता है। चंगेज भी उसी कॉलेज में पढ़ाता है। अपनी गतिविधियों और मान्यताओं के चलते वह शक के घेरे में आ जाता है। एक अमेरिकी पत्रकार बॉबी लिंकन (लिव श्राइवर) चंगेज को इंटरव्यू के लिए राजी कर लेता है। बातचीत के दौरान जल्द ही यह साफ हो जाता है कि यह इंटरव्यू नहीं, बल्कि सीआईए के जासूस द्वारा अमेरिकी प्रोफेसर के अपहरण संबंधी पूछताछ की जा रही है। निर्देशक मीरा नायर उस इंटरव्यू के जरिए वर्तमान परिस्थितयों और पुरानी घटनाओं की बड़ी कुशलता से बुनावट करती है, जो चंगेज के विभाजित व्यक्तित्व को दर्शाने में सहायक होती है। दोनों के बीच बातचीत के दृश्य फिल्म के प्रभाव को गहरा करते हैं।

मूल उपन्यास की तरह फिल्म भी किसी नतीजे पर नहीं पहुंचती। अंतिम आकलन एवं निर्णय निर्देशक दर्शकों पर छोड़ देती हैं। चंगेज खान के रूप में ब्रिटिश अभिनेता रिज़ अहमद इस फिल्म की सबसे बड़ी विशेषता हैं। एक अत्यंत जटिल भूमिका को उन्होंने बड़ी स्वाभाविकता और विश्वसनीयता के साथ निभाया है। फिल्म की हर फ्रेम में उनकी उपस्थिति का अहसास होता है। चंगेज के माता-पिता के रूप में शबाना आजमी और ओम पुरी तथा निकट मित्र के रूप में नसीर के बेटे इमाद शाह अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय करते हैं।

फिल्म की सिनेमेटोग्राफी दर्शनीय है। कैमरामैन डेक्लन क्विन ने अपने कैमरे से लाहौर की अराजकता, न्यूयॉर्क की भव्यता और इस्तांबूल की कलात्मकता को बेहद प्रभावी ढंग से उभारा है। मीरा नायर एक बार फिर अपनी संपूर्ण सिनेमाई गुणवत्ता के साथ उपस्थित हैं।