"द स्लीपिंग चाइल्ड" पीछे छूटी महिलाओं की त्रासदी / राकेश मित्तल

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"द स्लीपिंग चाइल्ड" पीछे छूटी महिलाओं की त्रासदी
प्रकाशन तिथि : 29 जून 2013


मोरक्को की युवा एवं प्रतिभाशाली निर्देशक यास्मीन कसारी ने वर्ष 2000 में रोजगार हेतु पुरुषों के अवैध पलायन पर ‘व्हेन मैन क्राय’ नामक वृत्तचित्र बनाया था, जिसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खूब सराहना मिली थी। इससे उत्साहित होकर उन्होंने 2004 में अपनी पहली फीचर फिल्म ‘द स्लीपिंग चाइल्ड’ को प्रस्तुत किया। इसका सह-निर्माण, निर्देशन और पटकथा लेखन भी उन्होंने ही किया है। पहली ही फिल्म से उन्होंने अपनी जबर्दस्त निर्देशकीय प्रतिभा और परिपक्वता का सबूत दे दिया।

यह एक अत्यंत संवेदनशील, नाजुक और जटिल बुनावट वाली फिल्म है, जिसमें हम फिल्म की नायिका जैनब (मोनिया आस्फर) और उसकी सहेली हलीमा (राचिदा ब्राकनी) के माध्यम से महिलाओं की एक ऐसी दुनिया में प्रवेश करते हैं जो सतही तौर पर एकदम सामान्य दिखाई देती है लेकिन भीतर गहरे उनके एकाकी संघर्ष, अदम्य साहस और जिजीविषा से परिचित करवाती है। यह मोरक्को के ग्रामीण इलाकों में महिलाओं की दयनीय स्थिति का चित्रण करती है, जहां वे शादी के बाद अकेली रहकर घर संभालती हैं, खेत-खलिहान, मवेशी और रोजमर्रा की जरूरतों का ध्यान रखती हैंें, जबकि पुरुष रोजगार की तलाश में अवैध रूप से निकटवर्ती योरपीय देशों में चले जाते हैं। उनके लौटने का कोई ठिकाना नहीं है।

फिल्म की शुरूआत जैनब की शादी से होती है। शादी की पहली रात गुजारने के बाद अगले ही दिन उसका पति हसन (ड्रिस अब्देसामी) रोजगार की तलाश में दूसरे देश के लिए निकल पड़ता है। जैनब घर में अपनी सास और दादी सास के साथ रह जाती है। गांव की एक अन्य युवती हलीमा उसकी अंतरंग सहेली है। गांव के अधिकांश परिवारों में कोई पुरुष सदस्य नहीं है। गांव की बाहरी सड़क से गुजरने वाले पुराने ट्रकों की आहट सुनकर महिलाएं दौड़ पड़ती हैं, क्योंकि टेलीफोन या किसी भी अन्य संचार माध्यम के अभाव में ये ट्रक ही उनके संदेश वाहक हैं। अनपढ़ होने के कारण वे चिट्ठियां भी नहीं पढ़ सकतीं, इसलिए उनका एकमात्र सहारा वे ट्रक ड्राइवर ही हैं, जो शहर से पुरुषों के संदेश लेकर आते हैं। फिल्म की केंद्र बिंदु पीछे छूटी महिलाएं हैं जिनके जीवन में कुछ भी नयापन नहीं है। उनका हर दिन लगभग एक जैसी दिनचर्या में लिपटा होता है। रोज सुबह उठकर नदी से पानी लाना, चूल्हे के लिए लकड़ी काटकर लाना, खाना पकाना, बच्चों की देखभाल, मवेशियों की देखभाल और बिजली के अभाव में अंधेरा घिरने तक सो जाना।

इसी बीच जैनब को पता चलता है कि वह गर्भवती है। वह अपने बच्चे को पति की अनुपस्थिति में जन्म नहीं देना चाहती। इसके लिए वह गांव के ओझा के पास जाती है, जिसके पास हर मर्ज का ‘इलाज’ है। वह जैनब को एक तावीज देता है, जिसे बांधने से गर्भ में बच्चे का विकास रुक जाता है और वह सुषुप्त अवस्था में चला जाता है, जब तक कि तावीज हटा न लिया जाए। इसी विश्वास के साथ जैनब वह ताबीज बांध लेती है। एक बार वह पड़ोस के छोटे शहर में जाकर अपनी दादी सास और गांव के एक छोटे बच्चे के साथ फोटो खिंचवाकर अपने पति को भेजती है। उसका पति इस चेतावनी के साथ फोटो वापस भेज देता है कि आइंदा उसकी इजाजत के वगैर वह गांव से बाहर न जाए। यह चेतावनी मिलने पर जैनब तावीज निकाल फेंकती है, ताकि वह बच्चे को जन्म दे सके।

फिल्म कई स्तरों पर एक साथ कई तरह से उद्वेलित करती है। पुरुषों के हजारों मील दूर रहने के बावजूद उनकी इजाजत के बिना महिलाएं तयशुदा सीमाओं से बाहर नहीं जा सकतीं और ऐसा करने से उन्हें अन्य बुजुर्ग महिलाएं ही रोकती हैं। अपने अस्तित्व और आकांक्षाओं की बलि वेदी पर कर्तव्य निर्वहन करते हुए वे जीने का मकसद तलाशती रहती हैं। यास्मीन कसारी ने बेहद प्रभावी तरीके से इस कश्मकश को उभारा है। फिल्म की सिनेमेटोग्राफी कमाल की है। लांग शॉट्स में विराट सूनी जमीनों के बीच बिंदुओं जैसे छोटे-छोटे गांव विषय के प्रभाव को गहरा बनाते हैं। दिन के अलग-अलग समय के लगभग सभी शॉट्स प्राकृतिक रोशनी में लिए गए हैं।

इस फिल्म को 25 से अधिक अंतर्राष्ट्रीय अवॉर्ड मिले हैं, जिनमें सर्वश्रेष्ठ फिल्म, निर्देशन और सिनेमेटोग्राफी के लिए मिले अवॉर्ड शामिल हैं।