"बायसिकल थीव्स" नव-यथार्थवादी सिनेमा की नींव का पत्थर / राकेश मित्तल

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"बायसिकल थीव्स" नव-यथार्थवादी सिनेमा की नींव का पत्थर
प्रकाशन तिथि : 27 अप्रैल 2013


वर्ष 1948 में प्रदर्शित यह फिल्म दुनिया की सर्वकालिक महान फिल्मों की प्रथम पंक्ति में शुमार की जाती है। इस फिल्म ने इटैलियन फिल्मकार विटोरियो डी’ सिका को अमर बना दिया। ब्रिटिश फिल्म पत्रिका ‘साइट एवं साउंड’ ने दुनिया भर के फिल्मकारों और समालोचकों के मतों के आधार पर इसे ‘ग्रेटेस्ट फिल्म ऑफ ऑल टाइम’ की संज्ञा दी थी। ऑस्कर पुरस्कार समिति के निदेशक मंडल ने इसे मानद ऑस्कर पुरस्कार प्रदान करते हुए ‘मोस्ट आउटस्टैंडिंग फॉरेन लैंग्वेज फिल्म एवर रिलीज्ड् इन यूएसए’ का खिताब दिया था। विश्व के अनेक महान निर्देशकों ने इस फिल्म से प्रेरणा लेकर अपना फिल्मी करियर प्रारंभ किया, जिनमें भारत के सत्यजीत रे, बिमल रॉय, श्याम बेनेगल एवं अनुराग कश्यप शामिल हैं।

फिल्म का समय द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के ठीक बाद का है, जब संपूर्ण योरप की तरह इटली भी अपने घाव भरने की कोशिश कर रहा था। बेरोजगारी और बदहाली अपने चरम पर थी। फिल्म का नायक एंटोनियो रिकी (लैम्बटों मैगियोरानी) गरीब बेरोजगार है। एक दिन उसे दीवारों पर पोस्टर चिपकाने का काम मिलता है पर वह इसे तब कर पाएगा जब उसके पास एक सायकल हो। उसकी सायकल पहले ही गिरवी रखी हुई है। उसकी पत्नी मारिया (लायनेला कैरल) अपने दहेज में मिली चादरों को बेचकर सायकल छुड़वाती है और दोनों अच्छे भविष्य की कल्पना में झूमते हुए सायकल पर सवार होकर घर लौटते हैं। अपने काम के पहले ही दिन जब एंटोनियो सीढ़ी पर चढ़कर पोस्टर चिपका रहा होता है, तब एक चोर उसकी सायकल चुराकर भाग जाता है। बाकी की पूरी फिल्म उस चोर और सायकल को खोजने की जद्दोजहद पर केंद्रित है।

एंटोनियो और उसका सात वर्षीय बेटा बू्रनो (एंजो स्टेओला)पूरे रोम में सायकल तलाशते फिरते हैं। इस तलाश के माध्यम से निर्देशक उस समय के सामाजिक परिवेश, आर्थिक विषमताएं, गरीबी, बेकारी, राजनीतिक अराजकता, सामाजिक मानसिकता आदि का सजीव चित्रण करते हैं। तलाश के दौरान रोम की सड़कों, चोर बाजार, रेड लाइट एरिया, चर्च आदि स्थानों से गुजरते हुए यहां रहने वाले सामाजिक तबकों की मानसिकता और व्यवहार की बारीकियों को भी निर्देशक ने बहुत खूबी से उभारा है। एक गरीब, ईमानदार, मेहनतकश आदमी सायकल चोर की तलाश में किस तरह खुद सायकल चोर बन जाता है, यह देखने लायक है।

इस फिल्म की खूबी इसकी सरलता और विश्वसनीयता है। यह अपनी बात पूरी ईमानदारी और सच्चाई से दर्शकों तक पहुंचाती है। यह आम आदमी की कहानी है, जो अपने परिवार से प्यार करता है, उसका ठीक से पालन-पोषण करना चाहता है पर इसके लिए उसे इस निष्ठुर दुनिया से लगातार जूझना पड़ता है। यह बात कमोबेश हर व्यक्ति पर लागू होती है, इसलिए दर्शक इस फिल्म से सीधा जुड़ाव महसूस करता है।

फिल्म की एक और विशेषता है कि इसमें काम करने वाले किसी भी कलाकार ने इससे पहले किसी फिल्म या नाटक में अभिनय नहीं किया था। डी’ सिका ने सभी प्रमुख कलाकार आम जनता के बीच से लिए और उनसे कमाल का अभिनय कराया। फिल्म का हीरो लैम्बटों मैगियोरानी एक फैक्टरी में लेथ मशीन पर काम करता था। इस फिल्म में काम करने के बाद उसे फैैक्टरी मालिकों ने फिर काम पर नहीं रखा, तो मजबूरी में उसने अभिनय को ही अपना करियर बना लिया। उसकी पत्नी का रोल करने वाली, लायनेला कैरल निचली बस्ती में रहने वाली आम महिला थी, जो इस फिल्म के बाद इटैलियन फिल्मों की मशहूर अभिनेत्री बन गई।

सात वर्षीय ब्रूनो के रूप में एंजो स्टेओला ने कमाल किया है। अपने स्वाभाविक अभिनय से उसने फिल्म के हर कलाकार को पीछे छोड़ दिया है। उसके चेहरे की मासूमियत और आंखों के भाव फिल्म खत्म होने के बाद भी दर्शकों के जेहन में समाए रहते हैं। एक दृश्य में जब हताश, निराश एंटोनियो पूरी तरह टूट जाता है और वेदना के अतिरेक में उसकी आंखों से आंसू बहने लगते हैं, तब मासूम ब्रूनो जिस तरह उसका हाथ पकड़ता है और उसकी आंखों में जिस तरह के भाव उभर आते हैं, यह देखने लायक है। यह फिल्म इटली के नव-यथार्थवादी सिनेमा की नीव का पत्थर है।