"व्हेअर इज़ द फ्रैंड्स होम" जिम्मेदारी का मासूम चेहरा / राकेश मित्तल

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"व्हेअर इज़ द फ्रैंड्स होम" जिम्मेदारी का मासूम चेहरा
प्रकाशन तिथि : 15 फरवरी 2014


बच्चों से पर्दे पर अभिनय करवाने में ईरानी फिल्मकारों को महारथ हासिल है। छोटे-छोटे मासूम बच्चों से वे इतनी खूबसूरती से काम लेते हैं कि लगता ही नहीं वे अभिनय कर रहे हैं। सहज, सरल और कोमल मानवीय संवेदनाओं में रची-बसी ईरानी फिल्में पूरे विश्व में सराही जाती हैं। मशहूर निर्देशक अब्बास कियारोस्तामी ईरानी न्यू वेव सिनेमा के प्रमुख स्तंभ रहे हैं। बच्चों को केंद्र में रखकर उन्होंने अनेक छोटी-बड़ी खूबसूरत फिल्में बनाई हैं। वर्ष 1987 में प्रदर्शित उनकी फिल्म 'व्हेअर इज़ द फ्रैंड्स होम" भी इसी श्रंखला की एक अद्भुत फिल्म है। अब्बास एक बेहतरीन निर्देशक होने के साथ-साथ कुशल संपादक, पटकथा लेखक, फोटोग्राफर, पेंटर और संवेदनशील कवि भी हैं। इस कारण उनकी फिल्में सीधे-सीधे दिल को छूती हैं। उनकी इस फिल्म को देखकर लगता है कि शायद सिनेमा का आविष्कार इसी तरह की फिल्में बनाने के लिए किया गया होगा। एक अत्यंत साधारण और छोटी-सी कहानी अब्बास के हाथों में बेहतरीन फिल्म का रूप ले लेती है। फिल्म की शुरूआत एक स्कूल में होती है, जहां टीचर क्लास में एक बच्चे को डांट रहा है क्योंकि वह अपना होमवर्क कॉपी के बजाए एक छोटे-से कागज पर करके लाया है। मोहम्मद (अहमद अहमद पूर) नामक इस बच्चे को पहले भी कॉपी में होमवर्क न करने के कारण डांट पड़ी है और इस बार टीचर ने आखिरी वॉर्निंग देते हुए कहा है कि आइंदा यदि वह होमवर्क कॉपी में करके नहीं लाया, तो उसे स्कूल से निकाल दिया जाएगा। उसके बगल में बैठा उसका दोस्त अहमद (बाबेक अहमद पूर) चुपचाप उसे डांट खाते देख रहा है। स्कूल छूटने के बाद सभी बच्चे थोड़ी देर खेलकर घर चले जाते हैं। घर पहुंचकर अहमद को पता चलता है कि वह गलती से मोहम्मद की होमवर्क कॉपी भी अपने साथ ले आया है। अहमद यह जानकर बेहद परेशान हो उठता है। वह अपनी मां से मोहम्मद के घर जाकर उसकी कॉपी लौटा आने की इजाजत मांगता है किंतु मां इजाजत नहीं देती क्योंकि मोहम्मद बहुत दूर पहाड़ी के उस पार एक अन्य गांव में रहता है। बार-बार इजाजत मांगने पर भी मां उसे झिड़ककर पढ़ने बैठा देती है। बाद में जब वह उसे ब्रेड लाने बाजार भेजती है, तो वह दोस्त की कॉपी देने उसके गांव दौड़ जाता है।

यहां से अहमद की संघर्ष यात्रा शुरू होती है। एक आठ साल का मासूम बच्चा जिम्मेदारी के एहसास तले किसी भी तरह अपने दोस्त को भावी मुसीबत से बचाना चाहता है। मोहम्मद का गांव इतना दूर है कि वहां से आने वाले बच्चों को स्कूल में देर से आने की इजाजत है। कई मील दौड़ने के बाद वह हांफता हुआ मोहम्मद के गांव पहुंचता है किंतु उसे दोस्ता का घर मालूम नहीं है। पहली बार वह यहां आया है। जिन लोगों से वह पता पूछता है, वे उसे आगे-पीछे, दायें-बायें जाने की सलाह देकर आगे बढ़ जाते हैं। उसे हर तरह के लोग मिलते हैं, जिनमें कुछ मदद की कोशिश करते हैं, तो कुछ एकदम पल्ला झाड़ लेते हैं। मुश्किल यह है कि उसे अपने दोस्त के नाम के अलावा कुछ नहीं पता। एक घर के आगे वह अपने दोस्त की पैंट के रंग की पैंट सूखते हुए देखता है, तो उसका नाम लेकर चिल्लाने लगता है पर वह भी किसी और का घर निकलता है। हर छोटी-से-छोटी उम्मीद के सहारे वह इध्ार से उधर भटकता रहता है। इस दौरान निर्देशक बहुत कुशलता से ईरान के गांवों की स्थिति, लोगों की मानसिकता, प्राकृतिक सुंदरता और जीवन की कठिनाइयों का सजीव चित्रण करते हैं। फिल्म का अंतिम दृश्य यह बताने के लिए पर्याप्त है कि क्यों ईरान की फिल्मों को दुनिया भर में इतना सम्मान दिया जाता है।

पूरी फिल्म हम एक बच्चे की आंखों से देखते हैं। अहमद की भूमिका में बाबेक अहमद पूर ने कमाल कर दिया है। उसकी मासूमियत, निश्छलता और भोलापन देखकर मन द्रवित हो जाता है। फिल्म की एक और विशेषता यह है कि सभी कलाकार स्थानीय ग्रामीण हैं, जिन्होंने पहले कभी कैमरे का सामना नहीं किया। इस कारण फिल्म बेहद स्वाभाविक लगती है। वैसे तो यह बच्चों की फिल्म लगती है किंतु जो सबक यह देती है, वैसा बहुत सारी प्रबुद्ध फिल्में भी नहीं दे पातीं।

एक दृश्य में जब अहमद दोस्त का घर ढूंढ पाने में नाकाम होकर अपने गांव की तरफ आता है, तो चौपाल पर बैठा वृद्ध उससे सिगरेट मंगाता है। अहमद कहता है कि उसे पहले ही बहुत देर हो चुकी है और अब जल्दी से ब्रैड लेते हुए उसे घर पहुंचना है किंतु वृद्ध उसे डपटकर सिगरेट लाने भेज देता है। उसका साथी वृद्ध कहता है कि सिगरेट तो तुम्हारे पास है, फिर क्यों बेचारे बच्चे को फालतू दौड़ाया। इस पर वह कहता है कि बच्चों में अनुशासन की भावना जगाने के लिए ऐसा करना जरूरी है, नहीं तो वे आलसी हो जाते हैं। वह बताता है कि उसके पिता उसे बिना बात के पीटा करते थे, इसी कारण उसमें अनुशासन आया। यदि बच्चा कोई गलती न भी करे, तो भी उसे कुछ-कुछ दिनों में पीटते रहना चाहिए ताकि उसमें डर बना रहे और वह अनुशासित रह सके। ये संवाद पुरानी पीढ़ी की नई पीढ़ी के प्रति सोच को तो रेखांकित करते ही हैं, साथ ही ईरान के परंपरागत वर्ग की मानसिक स्थिति का भी चित्रण करते हैं। एक अन्य दृश्य में रास्ता बताने के बजाए एक एकाकी वृद्ध अहमद को अपने अतीत की कहानियां सुनाने लगता है क्योंकि बड़ी मुश्किल से उसे कोई सुनने वाला मिला है। ऐसे अनेक दृश्य फिल्म में गुंथे हैं।

इस फिल्म को ब्रिटिश फिल्म इंस्टीट्यूट ने विश्व की उन दस चुनिंदा फिल्मों में शामिल किया है, जो बच्चों को अवश्य दिखानी चाहिए। यदि आपने अपने बच्चों को यह फिल्म नहीं दिखाई है, तो अवश्य दिखाइए। यकीन मानिए, आप भी इसे जरूर पसंद करेंगे।