"सिटी ऑफ गॉड" जहां ईश्वर के लिए कोई जगह नहीं / राकेश मित्तल

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"सिटी ऑफ गॉड" जहां ईश्वर के लिए कोई जगह नहीं
प्रकाशन तिथि : 28 सितम्बर 2013


अक्सर यह देखा गया है कि अच्छी फिल्मों की श्रेणी में हिंसात्मक फिल्मों को वह स्थान नहीं मिल पाता जो सामाजिक संदेश वाली फिल्मों को मिल जाता है। लेकिन कई बार हिंसात्मक फिल्म अपने समाज के सच को ज्यादा आसानी और साफगोई से हमारे सामने रख देती है। ऐसी ही एक फिल्म है ‘सिटी ऑफ गॉड’, जिसे अमेरिका की प्रतिष्ठित ‘टाइम’ मैग्जीन ने विश्व की सौ सर्वकालिक महान फिल्मों में शामिल किया है। लैटिन अमेरिकी देश ब्राजील, जो विश्व की तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था के रूप में पहचान बना रहा है, पिछले कई दशकों से अनेक प्रकार की सामाजिक-सांस्कृतिक विषमताओं और चुनौतियों से जूझ रहा है।

‘सिटी ऑफ गॉड’ साठ के दशक के उत्तरार्द्ध से अस्सी के दशक की शुरूआत तक के ब्राजील की सच्ची कहानी है। यह वह समय था, जब नशे के सौदागरों ने संगठित गिरोह के रूप में समूचे ब्राजील में अपने पांव पसार लिए थे। हिंसा, लूटपाट, हत्याएं आम जनजीवन का हिस्सा बन चुकी थीं। अपराध, हिंसा और ड्रग माफिया के इस गठजोड़ पर 1997 में पाउलो लिन्स ने ‘सिटी ऑफ गॉड’ नामक उपन्यास लिखा, जो बेहद चर्चित हुआ। इसी उपन्यास पर वर्ष 2002 में ब्राजीलियन फिल्मकार फर्नाण्डो मैरिल्स ने यह फिल्म बनाई। इस फिल्म के अधिकांश पात्र वास्तविक चरित्र हैं और लगभग सभी कलाकार उन बस्तियों के स्थानीय निवासी हैं। इन कलाकारों ने इससे पहले कभी कैमरे का सामना नहीं किया था। फर्नाण्डो फिल्म की प्रामाणिकता अक्षुण्ण रखना चाहते थे, इसलिए उन्होंने स्थानीय लोगों के साथ ही शूटिंग करने का फैसला किया, जो एक बेहद चुनौतीपूर्ण काम था।

फिल्म की कहानी रियो-डि-जनेरियो के एक उपनगर की कहानी है, जिसे ‘सिटी ऑफ गॉड’ कहा गया है। लैटिन अमेरिकी देशों में अमीर और गरीब के बीच बहुत गहरी खाई है। अधिकांश गरीब लोग सघन झुग्गी-झोपड़ियों में समूह के रूप में रहते हैं। इन बसाहटों को स्थानीय भाषा में ‘फेबला’ कहा जाता है। सिटी ऑफ गॉड ऐसा ही बड़ा फेबला है, जहां चारों ओर भूख, लालच, नशे और हिंसा का साम्राज्य है। छोटे-छोटे बच्चे गेंद और बल्लों के बजाए बंदूक और बमों से खेलते हैं। उनके लिए किताबें और कलम दूसरी दुनिया की बातें है।ं चोरी, डकैती, लूटपाट उनके जीवन का हिस्सा है। जरा-जरा-सी बात पर खून बहाना उनके लिए आम बात है। बस्ती में आए व्यापारियों को लूटना उनकी मस्ती और मनोरंजन का साधन है।

ब्राजील के मशहूर फोटोग्राफर आंद्रे कमारा ने सत्तर के दशक में मात्र सोलह-सत्रह वर्ष की उम्र में रियो-डि-जनेरियो के फेबलों की जीवंत तस्वीरें उतारी थीं। यही तस्वीरें इस फिल्म के निर्माण का आधार बनीं। फिल्म में आंद्रे कमारा की भूमिका ‘रॉकेट’ नामक पात्र ने की है, जो उस बस्ती में रहता है। वह हमेशा से फोटोग्राफर बनना चाहता था। उसका इलाके की सबसे बड़ी गैंग में सहज आना-जाना है, जिसके कारण वह उनकी दुर्लभ तस्वीरें उतार पाता है। गैंग का सरदार खुद को -‘लिल’ यानी अवतार कहलाना पसंद करता है। वह एक क्रूर और कम दिमाग का व्यक्ति है, जो दूसरी सभी गैंग्स का सफाया कर अपराध की दुनिया का बादशाह बनना चाहता है। वह पुलिस को भी खरीद लेता है पर अंत में उसके पास पलटकर वही चीज आती है, जिसका बीज उसने खुद डाला था।

फिल्म इतनी कसी हुई है कि कुछ पलों के लिए भी नजरें हटाने का मौका नहीं देती। फिल्म की कहानी सीधी नहीं है और आगे-पीछे छलांगें मारती है। इसलिए कई बार फिल्म देखते हुए दृश्यों से तारतम्य बिठाने में मुश्किल आती है। फिल्म तकनीकी रूप से बेहद सशक्त है, खासकर सिनेमेटोग्राफी के क्षेत्र में। भागने वाले दृश्यों में हाथ से कैमरे का इस्तेमाल दृश्यों को प्रमाणिक बनाता है। वर्तमान के दृश्यों को बीते हुए समय के दृश्यों से अलग करने के लिए दूसरे रंग के फिल्टरों का इस्तेमाल किया गया है। हिंसा के दृश्य बेहद सपाट और भावनाहीन हैं। यह सोचकर और अधिक दहशत होती है कि जो कुछ भी दिखाया जा रहा है, वह एक सच्चाई है। हिंसा से लबरेज यह फिल्म अपने समय का जीवंत और प्रामाणिक दस्तावेज हैं।