"सेंट्रल स्टेशन" मानवीय संबंधों से स्पंदित जीवन / राकेश मित्तल

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"सेंट्रल स्टेशन" मानवीय संबंधों से स्पंदित जीवन
प्रकाशन तिथि : 02 मार्च 2013


राजनीतिक और आर्थिक विषमता से लगातार जूझने के बाद भी लैटिन अमेरिकी सिनेमा आज अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित है। ब्राजीलियन फिल्मकार वॉल्टर सैलेस की गिनती विश्व के श्रेष्ठतम निर्देशकों में होती है। मुख्यधारा के सिनेमा से अलग उनकी फिल्में मानवीय संबंधों को बेहद खूबसूरती से परिभाषित करती हैं। वर्ष 1998 में आई उनकी फिल्म ‘सेंट्रल स्टेशन’ इसका एक बेहतरीन उदाहरण है।

यह फिल्म 9 वर्षीय बालक जोसू और 67 वर्षीय महिला डोरा की दोस्ती की कहानी है। इन दो केंद्रीय पात्रों के इर्द-गिर्द घूमती यह फिल्म हमें एक यात्रा पर ले जाती है। इस यात्रा में हम ब्राजील के गांवों की सुंदरता और धर्म के प्रति लोगों की आस्था से रूबरू होते हैं, मानवीय ऊष्मा को महसूस करते हैं और अंत तक पहुंचते हुए अपने भीतर कुछ आर्द्र महसूस करते हैं। एक बच्चे को उसके पिता से मिलवाने की जिम्मेदारी एक बूढ़ी महिला को किस तरह लेनी पड़ती है और इससे उस महिला की जिंदगी किस तरह बदल जाती है, यही फिल्म की विषयवस्तु है। फिल्म कहती है कि हमारा जीवन हमारे संबंधों की वजह से ही इतना सुंदर और स्पंदित है। संबंधों की गहराई और ऊष्मा किसी नाम या पहचान की मोहताज नहीं होती।

डोरा (फर्नाण्डा मोन्टेनेग्रो) एक सेवानिवृत्त शिक्षक हैं, जो रियो डि जेनेरियो के मुख्य रेलवे स्टेशन पर अनपढ़ लोगों के लिए चिट्ठियां लिखकर अपना गुजारा करती है। लेकिन उन चिट्ठियों को वह पोस्ट नहीं करती, बल्कि अपने दराज में डाल देती है या नष्ट कर देती है। जब उन अनपढ़ लोगों को कोई जवाब नहीं मिलता, तो वे पुनः उसके पास चिट्ठियां लिखवाने आते रहते हैं। एक महिला, जिसका पति कई वर्षों से लापता है, अपने 9 वर्षीय बेटे जोसू (विनिशियस डी-ओलिविएरा) के साथ डोरा के पास चिट्ठी लिखवाने आती है। चिट्ठी लिखवाकर लौटते समय सड़क पार करते हुए ट्रक की चपेट में आकर उसकी मौत हो जाती है। यह दृश्य देखकर डोरा द्रवित हो जाती है और जोसू की मदद करना चाहती है पर उसे साथ रखने का झंझट भी नहीं पालना चाहती। वह उसे एक अनाथाश्रम में बेचकर उन पैसों से अपने लिए एक टीवी खरीद लेती है। बाद में जब उसे पता चलता है कि उस अनाथाश्रम के संचालक बच्चों के अंग बेचने का धंधा करते हैं, तो वह आत्मग्लानि से भर उठती है। वह किसी तरह जोसू को वहां से लेकर निकल भागती है। अनाथाश्रम के गुंडों से बचते हुए वे रियो शहर से बस में बैठ कर भाग निकलती है। जोसू उसे बिल्कुल पसंद नहीं करता पर साथ रहना उसकी मजबूरी बन जाती है।

एक बार जब आप यह फिल्म देखना शुरू करते हैं, तो हर दृश्य के साथ फिल्म आपको अपनी गिरफ्त में लेती है। फिल्म जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, नए किरदार और घटनाएं हमें बांधते हैं और फिल्म में हमारी दिलचस्पी बनाए रखते हैं। फिल्म की खूबी यह है कि यह किसी भी पात्र को महान बनाने की कोशिश नहीं करती बल्कि उन्हें उनकी सामान्य मानव सुलभ कमजोरियों के साथ वास्तविक स्वरूप में प्रस्तुत करती है। यह फिल्म इस बात का श्रेष्ठ उदाहरण है कि एक अच्छा निर्देशक किसी भी कलाकार से बेहतरीन अभिनय करवा सकता है। जोसू की भूमिका में 9 वर्षीय बालक विनिशियस ने कमाल का अभिनय किया है, जबकि उसे इसका कोई पूर्व अनुभव नहीं था। वह तो जूते पॉलिश करने वाला बच्चा था, जिस पर निर्देशक वॉल्टर सैलेस की नजर पड़ गई। उसे इस भूमिका में लेने के पूर्व वे डेढ़ हजार से अधिक बच्चों के ऑडिशन ले चुके थे किंतु संतुष्ट नहीं हो पा रहे थे। महान ब्राजीलियन अभिनेत्री फर्नाण्डा मोन्टेनेग्रो ने डोरा की भूमिका में अभिनय का शिखर छुआ है। बर्लिन और बाफ्टा फिल्म समारोहों में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार जीतने के बाद उन्हें इसी श्रेणी में ऑस्कर पुरस्कार हेतु नामांकित किया गया था। फिल्म को गोल्डन ग्लोब, गोल्डन बेयर एवं बेस्ट फॉरेन लैंग्वेज फिल्म के ऑस्कर नामांकन सहित कई पुरस्कार और नामांकन प्राप्त हुए थे।