'अनारकली हम तुझे जीने नहीं देंगे' / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :01 अप्रैल 2017
महानगर में पढ़ने वाली शिक्षित आधुनिक लड़की 'पिंक' में भरी अदालत में, जहां उसके माता-पिता भी बैठे हैं, कहती है कि उसने अपनी रजामंदी से सहवास किया है परंतु बाद दूसरे मौके पर जब उसकी अस्वीकृति को गंभीरता से नहीं लिया गया तो उसने विरोध दर्ज किया और न्याय के लिए अदालत के दरवाजे पर दस्तक दी। कस्बे की अशिक्षित एवं साधनहीन आरा की अनारकली भी कहती है कि वह सती सावित्री नहीं है परंतु एक राजनीतिक तौर पर शक्तिशाली मठाधीश ने उससे जबर्दस्ती करनी चाही तो उसने उसे थप्पड़ मार दिया और परिणाम स्वरूप उसका ऐसा पीछा किया गया मानो वह हिरण है और आखेट करने वाले उसका शिकार करना चाहते हैं। वह आरा छोड़कर नई दिल्ली भागी परंतु वहां भी उसका जीवन दूभर कर दिया गया। अत: वह आरा लौटती है और उसके वस्त्रहरण करने की मंशा रखने वालों को सरेआम नंगा कर देती है। उनके मुखौटे हटा देती है और वासना संचालित उनके अवचेतन की कंदरा के लौह कपाट तोड़ देती है।
अनेक दशक पूर्व शांताराम की फिल्म 'जीवन ज्योति' में एक पत्नी अपने हिंसक पति के खिलाफ अदालत जाती है। जज महोदय फरमाते हैं कि पति को अपनी पत्नी को पीटने का अधिकार है। यह फिल्म हमारी गुलामी के दौर में बनी थी और जज एक अंग्रेज था। वह पत्नी अपनी तरह त्रस्त पत्नियों का दल बनाती है। वे सब हथियार चलाना सीखती हैं और अन्याय करने वाले पतियों को सजा देती हैं। कुछ इसी तरह के कथानक पर कुछ समय पूर्व ही माधुरी दीक्षित नैने अभिनीत 'गुलाबी गैंग' नामक फिल्म बनी थी। के. आसिफ की 'मुगल-ए-आजम' में भी अनारकली राज दरबार में एक गीत के द्वारा शक्तिशाली शहंशाह अकबर को सिर झुकाने पर मजबूर करती है। वह गीत है, 'प्यार किया तो डरना क्या।'
पुरुष केंद्रित भारतीय समाज ने महिला को समानता नहीं देते हुए उसे दमित करके रखा परंतु भारतीय सिनेमा ने महिला को कुछ हद तक सम्मान दिया है और नारी केंद्रित फिल्में भी बनी हैं। सच तो यह है कि इस क्षेत्र में अभी बहुत काम शेष है। सबसे बड़ी बाधा यह है कि पुरुष केंद्रित समाज में नारी केंद्रित फिल्मों का व्यवसाय भी कम होता है। इसलिए पूंजी निवेशक पहल नहीं करते। यह कितनी खुशी की बात है कि भारत में सबसे अधिक दर्शकों द्वारा बार-बार देखी गई फिल्म नारी केंद्रित मेहबूब खान की 'मंदर इंडिया' है।
इस श्रेणी में अरुणा राजे की हेमा मालिनी, विनोद खन्ना अभिनीत 'रिहाई' है। इस फिल्म के क्लाईमैक्स का संवाद है, 'हमसे सीता-सा आचरण की उम्मीद रखने वाले पुरुष तो राम की तरह आचरण करके दिखाएं।' नैतिकता के हमारे दोहरे मानदंड हमारी असलियत जाहिर कर देते हैं। इस दोहरे मानदंड पर जबर्दस्त प्रहार राज कपूर की 'प्रेम रोग' करती है, जो संभवत: उन्होंने नारी शरीर प्रदर्शित करने वाली अपनी 'सत्यम शिवम सुंदरम' के पश्चाताप स्वरूप बनाई है।
हॉलीवुड की फिल्म 'इरमा ला डूज' से प्रेरित शम्मी कपूर ने 'मनोरंजन' नामक फिल्म बनाई थी, जिसमें तवायफ अपने प्रेमी से कहती है कि वह मेहनत करके व अपमानित होकर धन नहीं कमाए और तवायफों की बिरादरी में उसका अपमान नहीं कराए कि क्या वह एक अदद पति नहीं पाल पाई। 'इरमा ला डूज' में एक तवायफ और उसके प्रेमी पति पुलिस वाले की कथा है, जो संभवत: 1961 में बनी थी परंतु इसके बाईस वर्ष पूर्व शांताराम ने 'आदमी' बनाई थी, जो तवायफ और पुलिस वाले की प्रेम-कथा है। केदार शर्मा भी इस तरह फिल्म बना चुके थे, जिसे पुन: बनाने का प्रयास गुरुदत्त ने 'गौरी' के नाम से किया था। इस फिल्म की नायिका उनकी पत्नी गीता दत्त थी परंतु पति-पत्नी के आपसी द्वंद्व के कारण फिल्म अधूरी ही छूट गई।
इस कथा में प्रेमी विवाह करके अपने गांव लौटते हैं और पत्नी अपने घर के सब काम करने के साथ ही अपने पास-पड़ोस के लोगों की खूब सहायता भी करती है और इस बहू पर सबको गर्व भी है। कुछ वर्षों बाद नायिका के अतीत के बारे में सबको बताने की धमकी देकर उसका एक पुराना परिचित उसे ब्लैकमेल करना चाहता है। वह धन देने से इनकार करती हैं तो वह व्यक्ति सबको बताता है कि यह एक कोठेवाली है जहां नायक को उससे प्रेम हुआ और उससे ब्याह करके अपनी बस्ती लौट आया। यह जानते ही मोहल्ले के सभी लोग जिनकी उसने सहायता की थी, उसके खिलाफ होजाते हैं। सामूहिक अवचेतन में अनेक छिद्र हैं, जिनसे मवाद रिसता रहता है।
हम स्त्री को कभी देवी की छवि देते हैं, कभी माता की और कभी-कभी तवायफ की परंतु औरत को कभी सिर्फ औरत नहीं रहने देते। स्मरण आता है, 'पतिता' का शैलेंद्र रचित गीत, 'मिट्टी से खेलते हो बार-बार किसलिए, टूटे हुए खिलौनों से प्यार किसलिए।' बहरहाल, सलीम की अनारकली हो या आरा की अनारकली हो उसे दीवार में हम चुनावा ही देते हैं।