'आउशवित्ज़: एक प्रेमकथा': इतिहास का सर्जनात्मक स्त्रीवादी पाठ / रवि रंजन
साहित्यिक कृतियों में इतिहास-दृष्टि होती है,पर कोई रचनाकार जब सुपरिचित ऐतिहासिक घटनाओं को उपन्यास का विषय बनाता है तो उसकी रचनात्मक चुनौती बढ़ जाती है। 'आउश्वित्ज: एक प्रेमकथा' उपन्यास में गरिमा श्रीवास्तव ने स्त्री के नजरिए से इस रचनात्मक चुनौती का सामना करते हुए जो गल्प रचा है वह इतिहास की सूचनात्मक और इतिवृत्तात्मक जकड़बंदी को तोड़कर एक ऐसा सर्जनात्मक पाठ बन पड़ा है जो हमारी संवेदना को झकझोर देने में समर्थ है।
उपन्यास में लेखिका ने आउशवित्ज के जातीय नरसंहार के साथ ही बंगलादेश के मुक्तिसंग्राम की बारीक छानबीन करते हुए उन अछूते पहलुओं को आख्यान का विषय बनाया है जिनके बारे में इतिहास लगभग चुप है।आम तौर पर इतिहास की पुस्तकों और लेखागार आदि से प्राप्त विवरण के आधार पर हम जानते हैं कि आउशवित्ज का भयावह नरसंहार मानवता के नाम पर कलंक है और बांगलादेश के मुक्तिसंग्राम में पश्चिमी पाकिस्तान की सेना ने पूर्वी पाकिस्तान की बेकसूर जनता पर अमानुषिक अत्याचार किया था,पर भारतीय सेना ने पाक फ़ौज के लाखों सैनिकों को आत्मसमर्पण करने के लिए बाध्य कर दिया और दुनिया के नक़्शे पर एक नये राष्ट्र के रूप में बांगलादेश का उदय संभव हुआ।
गरिमा जी के इस उपन्यास को पढ़ते हुए उपर्युक्त ऐतिहासिक सच का वह अनदेखा पहलू सामने आता है जिसे इतिहास में दर्ज करना न तो संभव हो पाया है और न ही शायद पूरी तरह मुमकिन है। उदाहरण के लिए मंटो की 'टोबा टेक सिंह' कहानी में भावबोध और संवेदना के स्तर पर जिस शिद्दत से बिना कोई बयान दिए भारत-विभाजन की निरर्थकता को कला के स्तर पर उजागर किया गया है वह इस मुद्दे पर लिखित बड़े इतिहासकारों के ग्रंथों के माध्यम से संभव नहीं है। आउशवित्ज: एक प्रेमकथा'उपन्यास की खूबी यह है कि इसमें ऐतिहासिक इतिवृत को उपन्यास के स्त्री-पात्रों के बीच पत्राचार के तौर पर संक्षेप में रखा गया है। संघर्ष क्षेत्रों पर शोध करनेवाली जादवपुर विश्वविद्यालय की अध्यापिका प्रतीति सेन का द्रौपदी देवी से रहमाना खातून बनी अपनी नानी को लिखित पत्रों के साथ ही सबीना नामक पोलिश स्त्री और प्रतीति सेन के बीच की बातचीत और ख़त-ओ-किताबत में इसे पढ़ा जा सकता है।इनमें नरसंहार को लेकर जगह-जगह कुछ आंकड़े भी मिलते हैं जो इस बात की गवाही देते हैं लेखिका ने अपनी पूर्व प्रकाशित कृति'देह ही देश:क्रोएशिया प्रवास डायरी' की तरह ही गहन शोध करने बाद यह उपन्यास लिखा है।
किसी उपन्यास की खूबी इसका इतिहास होना नहीं होता। वस्तुत: उसकी खूबी उन चीजों पर रोशनी डालना है जिसे इतिहास में जगह नहीं मिलती। ऐसे भी आउशवित्ज और बंगलादेश में हुए नरसंहार पर इतिहास ग्रंथों की कमी नहीं है।इस कृति का महत्त्व उपन्यासकार की स्त्री-दृष्टि में निहित है जिसके तहत उसने अपनी कल्पनाशक्ति का इस्तेमाल करते हुए इन दोनों घटनाओं के दौरान स्त्रियों को दी गयी यौन-यातना के आतंकित कर देने वाले चित्र उकेरे हैं। 'आमि के? चोखे आमार तृष्णा' (मैं कौन हूँ? मेरी आँखों में तृष्णा है।) अध्याय में मुख्य पात्र प्रतीति सेन द्वारा वर्णित आउश्वित्ज में स्त्रियों के साथ हुई हिंसा और यौन-हिंसा के दिल दहला देने वाले प्रसंगों से गुजरकर इसे महसूस किया जा सकता है:
"यहाँ सुन्दर औरतों के साथ खुलेआम बलात्कार होता था और बार-बार होता था।यूक्रेन की एक सुन्दर औरत जिसके बाल घने-काले थे उसे वे लोग बार-बार उठवा लेते थे।कैम्प के जर्मन सुपरवाइजर से लेकर साधारण सिपाही उसे इस्तेमाल करके लहूलुहान कर देते थे।पता नहीं कैसे उस सुन्दर गुड़िया-सी दीखने वाली औरत के केश उन्होंने नहीं मूड़े,वरना तो कैम्प में घुसते ही सभी औरतों के बाल काटने का रिवाज़ था।यह काम भी वहाँ के कैदियों से ही करवाया जाता था जो लोहे की वजनी कैचियाँ लिए हुए तैयार रहते थे।ज्यों ही यहूदियों और अन्य कैदियों की नयी खेप आती,नाइयों को मालूम रहता कि उन्हें क्या करना है-कुछ ही देर में घने काले, भूरे, सीधे, रेशमी, घुँघराले ख़ूब जातां से पाले गए खूबसूरत केश भू-लुंठित हो जाते।इन बालों को इकट्ठा करके जर्मनी के कारखानों में विग और ऊनी धागे बनाने के काम में लाया जाता। गंजी औरतें नंगी कर दी जातीं।अब शुरू होती उनकी परेड, नितांत निर्वस्त्र स्त्री-पुरुष एस.एस. के अधिकारियों के सामने लाए जाते तब उनकी ड्यूटी का निर्धारण होता।" (पृष्ठ.77)
बांग्लादेश के मुक्तिसंग्राम के दौरान हुई भयानक हिंसा से पीड़ित स्त्रियों के सन्दर्भ में इस उपन्यास में कहा गया है कि "इस दौरान पूर्वी पाकिस्तान की स्त्रियों के साथ क्या नहीं गुजरा –बलात्कार,कैद,मानसिक-दैहिक अत्याचार के कौन से प्रयोग छोड़े गए कहना मुश्किल है।एक अनुमान के मुताबिक ऐसी करीब हजारों स्त्रियाँ थीं जिनके साथ बलात यौन-सम्बन्ध बनाना सामान्य-सी बात थी।लड़ाई के पहले ही दिन से 563 बंगाली महिलाओं को डिंगी मिलिट्री कैम्प में क़ैद कर दिया गया था। ये उनके लिए 'कम्फर्ट वूमेन' थीं। वे कैम्प में उनके लिए खाना बनातीं, उनके शारीरिक अत्याचार सहतीं...पूर्वी पाकिस्तान में झड़पों के दौरान होने वाली घटनाओं में स्त्रियों एक सिरे से नदारद था।अखबार मीडिया सब चुप थे।औरतें ज्यों कभी इस देश की नागरिक रहीं ही नहीं...यौन-हिंसा,बंदी-जीवन, भूख, परित्यक्त जीवन जीने के लिए विवश स्त्रियों में से ऐसी बहुत कम स्त्रियाँ थीं जिनके बयान दर्ज होकर दुनिया के सामने आए। अधिकांश तो वे रहीं जिनसे कोई पूछने वाला ही कोई नहीं था...किसी अभिलेखागार,शोध और पुस्तकालय में इन स्त्रियों की जीवंत स्मृतियों के अनुभव दर्ज नहीं किए गए." (पृष्ठ.196)
उपन्यास में 'आउशवित्ज' कई बार एक रूपक प्रतीत होता है। स्त्री के सन्दर्भ में यह एक ऐसे दमघोंटू माहौल की याद दिलाता है जो मानव सभ्यता के विकास के दावे के खोखलेपन का पर्दाफाश करते हुए बताता है कि यह अतीत से लेकर वर्तमान तक, यूरोप से लेकर भारतीय उपमहाद्वीप तक और हमारे समाज में परिवार के भीतर और बाहर आज भी मौजूद है।
हिन्दी में विभाजन की त्रासदी पर केन्द्रित साहित्यिक कृतियों में साम्प्रदायिकता की समस्या पर एक से बढ़कर एक मार्मिक रचनाएँ मिलती हैं।किन्तु, 'आउश्वित्ज: एक प्रेमकथा' में इसका एक विचित्र पहलू चित्रित हुआ है।उपन्यास में विस्तार से विवरण मिलता है कि कोलकाता में साड़ियों का व्यापार करने वाले बिराजित सेन जब व्यापार के सिलसिले में सपरिवार ढाका की यात्रा करते हैं और हसनपुर में अचानक दंगा भड़क उठता है। उनके सामने आंगन में पत्नी के साथ अनहोनी घटित होती है और उन्हें अकेले जान बचाकर कोलकाता भागना पड़ता है।साम्प्रदायिक उन्माद से पागल भीड़ के हाथों उनकी पत्नी द्रौपदी देवी और बेटी टिया भयानक यातना का शिकार होती है और द्रौपदी देवी अंतत: रहमाना खातून बनकर कई बेगमों के शौहर एक बूढ़े मौलवी की आठवीं बेगम के रूप में अपनी जान बचाती है। मौलवी उसे बेटी टिया को खोजने में मदद का आश्वासन भी देता है जिसके मिल जाने पर एक अबोध बच्ची साथ हुई यौन हिंसा कल्पनातीत है:
"जब टिया का इलाज शुरू हुआ तो वह अक्सर डॉक्टर के बेड पर चौपाए जैसी खड़ी हो जाती। उसे डांटकर नीचे उतारना पड़ता। वह चड्डी नहीं पहनना चाहती । बाद में टिया ने ही बताया कि एक उम्रदराज व्यक्ति ने नज़दीक बुलाकर नाम-पता पूछा और उसे भरोसा दिलाया कि माँ के पास लेकर जाएगा यदि टिया उसकी बात माने तो। वे कैम्प में मूढ़ी-बताशा ज़मीन पर बिखेर कर लडकियों को खाने को कहते।बेचारी भूखी-लाचार एक-दूसरी के ऊपर गिरती-पड़ती। मूढ़ी के दाने दोनों हाथों से बटोर कर भकोसने लगती जिसकी जितनी क्षमता। एक तनाव भरे युद्ध के माहौल में यह एक सायंकालीन मनोरंजन हुआ करता। वह आदमी प्लेट में पानी डाल कर ज़मीन पर रख देता और टिया को बकरी की तरह पानी पीने को कहता। कैम्पवासियों के अट्टहास का ठिकाना नहीं रहता जब एक पन्द्रह वर्षीया मानवी चौपाया बन झुक जाती पीछे से सैनिक उसमें लिंग घुसाता ..." (पृष्ठ.218)
उपन्यास में बंगलादेश में लगभग परित्यक्त और कठिन जीवनस्थितियों का सामना करती रहमाना खातून के आत्मिक संतोष का उल्लेख है कि अंतत: टिया उस हादसे से निकलकर विवाह के बाद कनाडा में रहने लगी है।
इस क्रम में सबसे ह्रदय विदारक प्रसंग वह है जिसमें विराजित सेन जड़- संस्कारवश धर्मांतरण के बाद अपनी पत्नी द्रौपदी देवी को अपनाने का नैतिक साहस नहीं जुटा पाता और उसे उसके हाल पर छोड़ देता है।जो बात यहाँ सीधे-सीधे कही जा रही है उपन्यास में उसका चित्रण बहुस्तरीय और बेहद मार्मिक है:
"बिराजित सेन भी तो लौटे थे कलकत्ता- लेकिन जो आदमी गया था स्त्री और सन्तान का हाथ थामे, लौटा था अकेला, बिलकुल अकेला हारे हुए जुआरी जैसा,फटी धोती की खूंट से कीच से सनी सूखी आँखें पोछता, विमूढ़ –सा...सपरिवार ढाका जाना ही ग़लत था।बिराजित अब पराजित थे।अकेले में ख़ुद से बातें करते...सलाहें तमाम मिलतीं –स्टेशन जाकर देखिए, रेड्क्रॉस में नाम लिखाइए,फोटो दिखाइए. बिराजित चुप- मौन! हिले-डुले नहीं। कहीं नहीं जाना उन्हें। कोई है ही नहीं तो ढूँढें किसे ?" (पृष्ठ.134)
लेखिका ने रहमाना खातून के मुख से उस पूरी घटना का विवरण प्रस्तुत करवाया है जिसके अनुसार बिराजित सेन जिस दिन हसनपुर से कलकत्ता लौटने वाले थे उसके ठीक एक दिन पहले उनके मेजबान मौसा-मौसी के आंगन में जब मुक्तिवाहिनी के कारकूनों को खोजते लीग के लोग फरसा- गंडासा आदि लेकर जब खड़े हो गए तो सबकी घिघ्घी बंध गयी।मौसी ने और दो-चार दिन रुकने का आग्रह नहीं किया होता तो वे लोग सब अब तक कलकत्ते पहुँच गये होते। आसपास के लोगों ने लीग वालों को ख़बर दी थी कि लाल बंगले पर कलकतिया मुक्तियोद्धाओं की मेहमाननवाजी हो रही है। उपन्यासकार के शब्दों में "आंगन में बाहरी आ गए,सभी को घेर लिया, वे मुक्तियोद्धाओं को खोज रहे थे,एकदम काटने को तैयार, मेजबान ने कहा- ये भांजा है।कलकत्ते में दूकान है।इसका मुक्ति से क्या लेना- देना,एक जोरदार थप्पड़ ने मेशो मोशाय को चुप करा दिया।बिराजित सेन को लाठी से मारकर ज़मीन पर गिराकर फरसे का प्रहार करने के लिए दल तैयार था...पति को अवश लेटा देखकर पत्नी ने आव देखा न ताव दौड़कर बिराजित को अंकवार में कस लिया।चिल्लाई –मुझे मार दो मेरे पति को छोड़ दो।लाल पाड़ की साड़ी पहने आभूषण से लदी सुन्दर स्त्री को देखकर उनका ध्यान भटक गया,सबकी जान बचनेवाली थी एक जान के बदले, एक-एक कर लुंगियाँ खुलने लगीं ,बिराजित के सामने पत्नी की देह...बिराजित धोती संभालते उठे तो उन्हें निर्देश मिला-एखुनी पालिए-जा (अभी भाग जा यहाँ से)... एक ज़ोर की लात से फुटबाल की तरह बिराजित अहाते से बाहर।" (पृष्ठ.187)
इस प्रसंग में ध्यान देने की बात है कि यह उपन्यास उस पवित्रतावादी हिन्दू पितृसत्तात्मक मानसिकता को भी कटघरे में खड़ा करता है जिससे ग्रस्त होने के कारण बाद में बिराजित सेन मजबूरन इस्लाम धर्म अपनाकर रहमाना खातून बन जाने वाली अपनी प्यारी पत्नी द्रौपदी देवी को स्वीकार नहीं करता।उपन्यास में भारत विभाजन के प्रसंग में गांधी जी का 7 दिसम्बर सन 1947 को इस बारे में जारी एक बयान उद्धृत किया गया है जिसमें उन्होंने इस मानसिकता की निंदा की थी:
"ऐसा सुनने में आ रहा है कि अपहृत की गयी औरतों को उनके परिवार वापस स्वीकार नहीं कर रहे हैं।जो पति या पिता ऐसा करता है वह बर्बर है।मुझे नहीं लगता कि उसमें अपहृत हो जाने वाली स्त्री की कुछ ग़लती है- वे हिंसा का शिकार हुई.उन्हें वापस न लेना अन्याय है।" (पृष्ठ.193)
लेकिन उपन्यास में केवल निंदा से काम नहीं चल सकता।इसलिए रचनाकार ने इस मानसिकता की परत-दर-परत उधेड़कर रख दिया है।बिराजित सेन भले ही पत्नी को स्वीकार नहीं,पर वे इस अपराध-बोध से शायद कभी मुक्त नहीं हो पाए:
"वे कई बार अजानते ही रेलवे स्टेशन पर जाकर खड़े हो जाते कहीं पत्नी दीख जाए शरणार्थियों की भीड़ में बेटी टिया का हाथ थामे ट्रेन से उतरती हुई.कई बार लाल पाड़ की साड़ी पहने हुए किसी अन्य को देखकर भ्रम भी हुआ । लेकिन वे अपनी बात किसी से साझा नहीं कर सकते थे।प्रश्न-प्रतिप्रश्न अपने भीतर ही चलते रहते-
-तुम वहाँ रुके क्यों नहीं ?
-कहाँ रुकता, देखा नहीं तुमने वे मुझ पर फरसा चलाने को तैयार थे ?
-तुम पुलिस के पास जा सकते थे।
-चारों ओर मारो-काटो के शोर में मुझे कुछ सूझा ही कहाँ,हाथ में पैसे भी नहीं थे कि कहीं ठहर क्र सोच सकूं।
-तुम्हारे सामने तुम्हारी पत्नी के साथ,और तुम्हें अपनी जान की पड़ी थी, बेटी के बारे में भी नहीं सोचा ?
-पर मैं अकेला था,बलात्कार से पत्नी को कैसे बचाता,वे छह – साथ थे,दरिन्दगी उनकी आँखों से टपक रही थी।
-तुमने पत्नी की रक्षा का वचन दिया था !
-अब शायद ही जीवित हो वह,पर बेटी याद आती है।" (पृष्ठ.190)
इस प्रसंग में उपन्यासकार ने बिराजित सेन के माध्यम से तथाकथित सनातनी हिन्दू पुरुष की उस मानसिकता को बेनकाब किया है जिसके तहत वे अपने-आप से बातें करते हुए कहते हैं कि 'व्यावहारिक जीवन कुछ और होता है।भूलुंठित पुष्प को देवता को तो नहीं चढ़ाया जाता।' यहाँ ख़ुद को देवता और साम्प्रदायिक दंगे में यौन हिंसा की शिकार हुई अपनी पत्नी को 'भूलुंठित पुष्प' कहना किस मानसिकता का परिचायक है, यह अलग से बताने की ज़रूरत नहीं है।
उपन्यास में द्रौपदी देवी से रहमाना खातून बनी स्त्री के माध्यम से सवालिया अंदाज़ में अनेक मार्मिक बातें कही गयी हैं : "उच्छिष्ट भोजन को कोई वापस थाली में लेता है क्या, देह और मन को तार-तार करने वालों के मन में करुणा उपजना तो दूर की बात है,उससे पहले अपना कहे जाने वालों के मन में करुणा उपजती है क्या।अपनों के साथ स्नेह ही ढाढ़स बँधा सकता है,लेकिन जब वे ही आपको त्यक्त समझ लें तो कहाँ जाया जाय।किसके मिलन की आस,किसका चेहरा आँख के आगे झलमलाए,किसके आने की प्रतीक्षा में जीवन की सांझ काटी जाय..." (पृष्ठ.194)
मुक्तिसंग्राम के बाद अत्याचार की शिकार स्त्रियों को शेख मुजीबुर्रहमान द्वारा 'वीरांगना' कहे जाने पर उपन्यासकार की तल्ख टिप्पणी है कि "उन्हें क्या मालूम कि जिन्हें वे बीरांगना कह रहे हैं वह अपने घर-परिवार में कलंक का कारण है...उन्हें जात बाहर कर दो, रातों-रात गर्भवती लडकी को पोखर में डुबो दो या इतना प्रताड़ित करो कि वह अपनी ही जान ले ले...औरत का कोई देश नहीं होता,नहीं होती उसकी कोई जाति।" (पृष्ठ.197)
इस कृति में प्रतीति सेन का रहमाना खातून बन चुकी अपनी नानी से हुए पत्राचार को पढ़ते हुए दो पीढ़ियों की स्त्रियों की मानसिकता में अंतर के बावजूद वह सजल भावबोध का पता चलता है जो माँ के मन में सन्तान के प्रति अथाह ममता से भरपूर है।रहमाना खातून को इस बात का सुकून है कि टिया कनाडा चली गयी है और प्रतीति भारतीय नागरिक के रूप में अच्छी शिक्षा प्राप्त करके शोध कर रही है।
प्रतीति सेन के पुरुष मित्र अभिरूप के व्यक्तित्व को भी लेखिका ने जबरदस्त ढंग से रचा है।प्रतीति कल्पना करती है कि यदि उसने अभिरूप को ई-मेल भेज दिया होता तो वह क्या जवाब देता।उसका संभावित पत्रोत्तर उपन्यासकार ने कविता की शक्ल में बयान किया है:
वह पत्र जो कभी लिखा नहीं गया
न लिखा जाएगा
तुम्हें भेज रहा हूँ
इस पत्र को लिखने की कल्पना के पहले
मैं एक ऐसा पन्ना था
जिस पर दूसरों की लिखी –कटी-फटी-इबारतें
ज्यादा थीं
अपनी लिखी साफ-सुथरी कम
आह्लाद और सुख का एक निर्भर आकाश
अवतरित हुआ –
पिछले को मिटाता साफ़ स्लेट की तरह
अनलिखे को आमंत्रित करता
उत्सुक और व्यग्र।
पत्र की आशा और प्रतीक्षा
जैसे कि हम और तुम
हरदम
हरदम !
यह कविता जितना अभिरूप के व्यक्तित्व का पता देती है उससे ज़्यादा अभिरूप को लेकर प्रतीति के रुख को व्यक्त करती है।प्रतीति का कहना है कि "मेरे और अभिरूप के बीच अब कुछ ख़ास संवेदना का सम्बन्ध बचा हो तो मालूम नहीं पर मैं जब भी दुखी होती हूँ एक छांह के लिए उसी की याद आती है जिसने समय रहते कभी कंधा छूकर 'ओ!' नहीं कहा।" जिस प्रकार प्रतीति अपनी नानी द्रौपदी देवी के व्यक्तित्व का विस्तार प्रतीत होती है उसी प्रकार अभिरूप कई बार बिराजित सेन का उत्तर-आधुनिक संस्करण लगता है।वह बोहेमियन नहीं है,पर कर्तव्यनिष्ठ प्रेमी भी उसे नहीं कहा जा सकता।कर्तव्य-निर्वाह से बिराजित सेन के पीछे हट जाने का कारण यदि सामन्ती दकियानूसी सोच के उत्पन्न लोकलाज है तो अभिरूप की बौद्धिकता के बावजूद अपने परिवार की संभावित अनिच्छा उसे प्रतीति से जुड़ने नहीं देती।प्रतीति के शब्दों में "उसे लगता था वह जेठी माँ की आँख का तारा है।कुलनामहीन शरणार्थी बंगलादेशी से विवाह का सुन तो माँ विष ही खा लेगी।मैंने क्यों नहीं किया उससे इसरार? क्या मेरे भीतर पैठी अम्माँ ने मुझे रोका।अम्मा का स्वाभिमानी जीवन क्या मेरे ऊपर ऐसा असर डालेगा।बिराजित सेन से अम्माँ ने कभी नहीं कहा –मुझे वापस ले चलो ना,रह नहीं पाउंगी तुम्हारे बगैर,बच्चों के बगैर।मैंने भी तो नहीं कहा अभिरूप से।इतिहास ने अपने-आप को फिर से दोहराया।" (पृष्ठ.141)
आउशवित्ज के प्रसंगों को विस्तार देने के लिए उपन्यास में आयी पोलिश सैलानी पात्र सबीना को लेखिका ने बड़े जतन से रचा है।बंगलादेशी मुक्तिसंग्राम की तरह नाजी सेना द्वारा यहूदियों के नरसंहार को चित्रित करने के क्रम में फ्लैश बैक तथा चेतना-प्रवाह शिल्प का विलक्षण प्रयोग किया गया है।सबीना का पारिवारिक जीवन ऊपर से भले सुखी-सम्पन्न दिखाई देता हो,पर उसके जीवन में गहरी उदासी है।इस उदासी का कारण वे तल्ख स्मृतियाँ हैं जिनका सम्बन्ध दुनिया के इतिहास में कुख्यात हिटलर और नाजी सेना द्वारा किये गए जातीय नरसंहार से है।सबीना के पति रेनाटा यहूदी हैं जो एक बड़े वैज्ञानिक होने के साथ ही परम धार्मिक हैं।वे जब भी विचलित होते हैं,कादिश (यहूदी धर्म की प्रार्थना) पढ़ने लगते हैं। एक बार तो वे अपनी पत्नी सबीना के साथ अन्तरंग क्षणों में होते हुए भी कादिश पढ़नेलगे थे।सबीना को इसकी वजह का अंदाजा है।वह कहती है :
"एक बच्चा जिस तरह की कहानियाँ सुनकर बड़ा होता है,उसके साए से निकलना शायद मुमकिन नहीं होता,बड़े होने पर भी नहीं।रेनाटा के पास अपने परिवार का लहूलुहान इतिहास है जिनके पन्ने उनके लिए कभी पुराने नहीं पड़े।अतीत को काँधे पर लादे हुए वर्तमान की राह पर हम झुकी पीठ और बोझिल कमर के साथ ही चल सकते हैं।भविष्य की ओर दौड़ नहीं सकते।मैं जानती हूँ कि अपने समुदाय का अतीत रेनाटा को कभी उच्छवसित नहीं होने देता।" (पृष्ठ.32)
उपन्यास में विस्तार के साथ वर्णन मिलता है कि किन भयावह परिस्थितियों में रेनाटा के दादा याकूब को यहूदियों के साथ जर्मनी से पोलैंड भागना पड़ा था और वहाँ भी उनकी कैसी दुर्दशा हुई थी।अफरातफरी के माहौल में जर्मनी में रह गए याकूब के बड़े भाई जाकोव का उसके नाम पत्र इस सन्दर्भ में बहुत महत्त्वपूर्ण है और यह इतिहास की भूमि पर खड़ी लेखिका की साहित्यिक कल्पना शक्ति को उजागर करता है।जर्मनी से जाकोव ने पोलैंड भाग आए अपने छोटे भाई और सबीना के पति रेनाटा के दादा याकूब को लिखा था:
"दुःख की बात है कि अब हम साथ नहीं हैं।अच्छा हुआ कि तुम पोलैंड चले गए.यहाँ बच रहे यहूदियों के साथ बहुत बुरा बर्ताव किया जा रहा है।,जिसके बारे में पत्र में लिखना मुमकिन नहीं है,जासूस चारों ओर फैले हुए हैं,मालूम नहीं कि यह चिट्ठी तुम्हें मिलेगी कि नहीं या मिलेगी तो कब...इंतजार करूंगा तुम्हारे पत्र का जिसमें अपने हाल चाल लिखना और कोई ऐसी बात न लिखना जो जासूसों को नागवार गुजरे।" (पृष्ठ.34)
उपन्यास में सबीना की छवि एक अत्यंत संवेदनशील और प्रबुद्ध भारतप्रेमी स्त्री की है।प्रतीति सेन से उसकी लगातार बातचीत और पत्राचार के द्वारा लेखिका ने एक योरोपीय आहत स्त्री के मन में पाठकों को प्रवेश कराने की सफल कोशिश की है।सबीना का उसकी माँ से जो बहुकोणीय रिश्ता है,उससे गुजरते हुए सिमोन द बोउवा र की आत्मकथा 'ए वेरी इजी डेथ' की याद ताज़ा हो जाती है।इस आत्मकथात्मक रचना में सिमोन और उनकी माँ के बीच की बातचीत के साथ ही कृष्णा सोबती की सुप्रसिद्ध रचना 'ऐ लड़की' में अम्मू और बेटी के बीच की बातचीत को मिलाकर पढ़ने पर गरिमा श्रीवास्तव के उपन्यास में सबीना और उसकी माँ ही नहीं,बल्कि रहमाना खातून और प्रतीति सेन के बीच के संवाद की बारीकियाँ ज़्यादा समझ में आने लगती हैं। यहाँ यह बताना शायद ज़रूरी हो कि प्रोफेसर गरिमा श्रीवास्तव ने कृष्णा सोबती के साहित्य का गहन अध्ययन किया है जो पुस्तकाकार प्रकाशित भी है। साथ ही यह भी कि उन्होंने बहुत पहले सिमोन द बोउआर की 'ए वेरी इजी डेथ' का हिन्दी में अनुवाद किया था। इन दोनों बातों के साथ उनकी कृति "देह ही देश:क्रोएशिया प्रवास डायरी' की अंतर्वस्तु को ध्यान में रखने पर इस औपन्यासिक कृति की रचना-प्रक्रिया पर कुछ प्रकाश ज़रूर पड़ता है।
यह उपन्यास प्रचलित अर्थों में प्रेमकथा नहीं है।सच तो यह है कि आज पहले की तरह न तो जीवन बचा है और न ही प्रेम।इसलिए हमारे समय की प्रेमकथा त्रासद होने के लिए अभिशप्त है।स्त्री-जीवन की यह त्रासदी ही इस उपन्यास का मूल विषय है। इस बात को उपन्यास के अधिकांश अध्यायों के शीर्षक तथा कृति में बड़ी संख्या में पिरोए बंगाली प्रगीतों से गुजरते हुए भी अनुभव किया जा सकता है।प्रभावान्विति की दृष्टि से स्त्री-जीवन की इस त्रासदी से एक क्लासिकी उदासी पैदा होती होती है जो अंतत: पाठक को त्रासदी के विरेचन में सहायता करती हुए एक उदात्त मानवीय भावभूमि पर ले जाती है। उपन्यास में 'एबार आमाय डाकले दूरे' (इस बार तुमने मुझे दूर बुलाया) शीर्षक अध्याय में प्रतीति सेन के माध्यम से अम्मा के लम्बे आत्मालाप के बाद बांग्लादेशी कवि सैयद शम्सुल हक़ रचित प्रगीत से गुजरते हुए यह बात गहराई से महसूस की जा सकती है:
किछू शब्द उड़े जाय
किछू शब्द डाना मुड़े थाके
तरल पारार मतों किछू शब्द पड़े जाय
एमन से कौन शब्द नक्खेत्रेर मतों फूटे
थाके, तुमि कि देखेछो ताके
हृदयेर आयनाय?
(कुछ शब्द उड़ जाते हैं।कुछ शब्द अपने देने मोड़कर यहीं रह जाते हैं।कुछ तरल पारे की तरह गिर जाते हैं।इनमें कौन-सा शब्द नक्षत्र की तरह उग जाता है,क्या तुमने हृदय के आईने में उसे देखा है?)
फ्रांसीसी रचनाकार पाल वैलरे का मानना है कि 'एक अच्छा उपन्यास अंतत: संगीत होता है।" उपन्यास लेखन के दौरान गरिमा श्रीवास्तव द्वारा यथास्थान हिन्दी और उर्दू के अलावा अच्छी संख्या में बंगाली प्रगीतों के विन्यास से जो सांगीतिकता उत्पन्न हुई है वह'आउशवित्ज: एक प्रेमकथा'के औपन्यासिक पाठ को अपने समय के उपन्यासों में विशिष्ट बनाता है।सांगीतिकता की दृष्टि से मलिक मुहम्मद जायसी की काव्यपंक्ति –'फूल मरै पै मरै न बासू'और टैगोर की'तुमि रबे नीरबे हृदये ममो' शीर्षकों से रचित उपन्यास के अध्याय में कवित्वपूर्ण हिन्दी गद्य से हम रू-ब-रू होते हैं।
जातीय नरसंहार पर केन्द्रित अनेक महाग्रंथों और कुछ उल्लेखनीय साहित्यिक कृतियों के बीच गरिमा श्रीवास्तव का 'आउशवित्ज: एक प्रेमकथा' उपन्यास अपनी स्त्रीवादी रचना-दृष्टि के कारण विशिष्ट है। ...
(गरिमा श्रीवास्तव: 'आउश्वित्ज: एक प्रेमकथा' (उपन्यास) ,2023,वाणी प्रकाशन, दिल्ली,कुल पृष्ठ.223, मूल्य.399 रूपये मात्र।)