'आग' से 'रिश्वत' तक भ्रष्ट भारत यात्रा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :02 जून 2016
आज राज कपूर को दिवंगत हुए 28 वर्ष हो चुके हैं। इन 28 वर्षों में भारतीय समाज और सिनेमा में बहुत परिवर्तन हुए हैं। शो बिज़नेस से शो घटा है और बिज़नेस बढ़ा है तथा कमोबेश सारे क्षेत्रों में व्यापार और प्रतिस्पर्द्धा खूब बढ़ गई है। राज कपूर के दौर में कूपमंडूक सेंसर था परंतु आज पूरा देश ही अदृश्य सेंसर की पकड़ को महसूस कर रहा है। सरकार सीधे हस्तक्षेप नहीं करती परंतु उसके हुड़दंगी खूब सक्रिय हैं, उनका थीम गीत है, 'सैया भए कोतवाल, अब डर काहे का।' यह कल्पना करना तो कठिन है कि राज कपूर जीवित रहते तो गुजश्ता 28 वर्षों में किस किस्म की फिल्में बनाते। इसकी कल्पना करने के लिए हम देखें कि उन्होंने 1946 से 1988 तक किस किस्म की फिल्में बनाई। जब आज़ादी उफक पर खड़ी थी तब 23 वर्षीय राज कपूर ने अपनी पहली फिल्म 'आग' बनाई और बाद की सारी फिल्मों में किसी न किसी रूप में 'आग' मौजूद थी। 'आग' उनका फिल्मी मैनीफेस्टो अर्थात घोषणा-पत्र था। उस दौर में विभाजन की लपटें सर्वत्र उठ रही थीं।
'आग' की नायिका भी विभाजन की विस्थापित स्त्री थी। नायक सृजनशील व्यक्ति था, वह रंगमंच को समर्पित था। वह जहां नाटक प्रस्तुत करता था, वह इमारत बिक चुकी है और नए मालिक ने ताला लगा दिया है। वह थिएटर तोड़कर व्यापार केंद्र बनाना चाहता है। नायक पिछले दरवाजे से मंच पर पहुंचता है। मंच पर वह अपने एकल नाटक में अपनी पीड़ा अभिव्यक्त करता है कि युवा की अभिव्यक्ति पर कितनी पाबंदियां है। माता-पिता से लेकर व्यवस्था तक कहती है कि क्या करो और क्या न करो। गौर करें यह आज भी हो रहा है। युवा कब तक भीतर ही भीतर घुटता रहेगा। नायक खाली थिएटर में प्रवेश करता है। वह कल्पना करता है कि थिएटर भरा है और तालियां पड़ रही हैं। वह झुककर अभिवादन स्वीकार करता है। यकायक यथार्थ में थिएटर में बैठा एक आदमी ताली बजाता है और कल्पना संसार खत्म होकर यथार्थ में आ जाता है। 'आग' का यह खाली थिएटर 'जोकर' में दोहराया गया है परंतु तब तक दर्द गहरा हो चुका है। जोकर में पंक्तियां हैं, 'खाली खाली तंबू है, खाली खाली घेरा है, यह घर न तेरा न मेरा है।' यह खालीपन सृजनकर्ता का दिल है। वह ताली बजाने वाला थिएटर का नया मालिक है। वह मंच पर आकर नायक से कहता है कि नाटकों के लिए यथेष्ट साधन वह जुटाएगा तथा सृजन की डोर नायक के हाथ होगी। जब नवांगतुक लाखों लगाने की बात खत्म करता है, तब नायक कहता है, 'क्या आप मुझे दो आने दे सकते हैं, दो दिन से कुछ खाया नहीं है।' सिनेमाघर में दर्शक ठहाके लगाते हैं।
यह दृश्य ही राज कपूर शैली की विशेषता है कि उनकी फिल्मों में कल्पना और यथार्थ गलबहियां करते हैं और लाखों की बात करने वाले से रोटी का सवाल दर्शक से ठहाका लगवाता है। सारी बड़ी बातों के बीच मूल मुद्दा रोटी है। यह रोटी के प्रति आग्रह ही अवाम को राज कपूर के अफसाने से जोड़ता है। यह विलक्षण तादात्म्य दर्शक व निर्देशक के बीच स्थापित होने के बाद उसकी सारी फंतासी सत्य लगती है। राज कपूर का सिनेमा तर्क पर नहीं इसी आत्मीय तादात्म्य पर टिका है। इसी कारण सिने आलोचना के किताबी पढ़ाकू राज कपूर के सिनेमा को कमतर आंकते हैं परंतु वह तो आधी रात मल्हार गाता है कि 'दिल का हाल सुने दिलवाला, कहकर रहेगा कहने वाला,' फुटपाथ पर अवाम द्वारा गाए इस गीत से सेठ सोनाचंद धर्मानंद की नींद में खलल पड़ता है और वे पुलिस को फोन करते हैं। राज कपूर का सिनेमा साधन-संपन्न लोगों की नींद में खलल डालने का सिनेमा है और इस कड़ी की एक फिल्म 'जागते रहो' है। रोजगार की तलाश मंे उजड़ते हुए गांव से एक भूमिहीन किसान महानगर आया है और अपनी प्यास बुझाने एक बहुमंजिला इमारत के अहाते में घुसता है। उसे चोर समझा जाता है और वह देखता है कि बहुमंजिले में भांति-भांति की चोरियां होती हैं, नकली दवाएं बनती हैं। फिल्म के अंत में नायक की प्यास मंदिर में एक पुजारिन बुझाती है। इस फिल्म की प्यास सांस्कृतिक मूल्यों की प्यास है और बहुमंजिला इमारत भारतीय समाज है, जिसका हर भाग भ्रष्ट है। फिल्म पर वर्ग संघर्ष को प्रोत्साहन देने के आरोप में सेन्सर इसे रोकना चाहता था परंतु बगाली संस्करण 'एक दिन रात्रे' बंगाल सेन्सर पास कर चुका था। भारत के चार हिस्सों में विभिन्न भाषा की फिल्मों के लिए सेेन्सर बोर्ड हैं और चारों के मानदंड अलग-अलग हैं।
अपने बचपन में राज कपूर का सपना था रेलवे इंजन का ड्राइवर बनना, जो पूरी गाड़ी चलाता है। कमसिन अवस्था में पहुंचते ही वे फिल्मकार बनना चाहते थे परंतु वे अपनी फिल्मों के ऊर्जा इंजन के ड्राइवर रहे और रेल के प्रति उस आसक्ति के कारण ही 'जोकर' में अभूतपूर्व रेल-प्लेटफॉर्म दृश्य बना तथा जोकर के तीसरे भाग में नायक चलती ट्रेन की खिड़की से बाहर देख रहा है और पूछे जाने पर कहता है, 'स्टेज की चकाचौंध रोशनी की अभ्यस्त आंखें अंधेरे में सच खोज रही है।'
इस रेल आग्रह की श्रेष्ठतम प्रस्तुति वे अपनी फिल्म 'रिश्वत' में करना चाहते थे, जिसकी पटकथा के लिए उन्होंने विजय तेंडुलकर से आग्रह किया था परंतु मृत्यु के कारण फिल्म नहीं बनी। रिश्वत का कथासार था कि एक सेवानिवृत्त स्कूल मास्टर अपने मंत्री बेटे के घर जाता है। रेल के डिब्बे में सिमटे विविधतापूर्ण भारत की समस्याओं को वह जमकर अपने मंत्री पुत्र को बताना चाहता है। मंत्री के बंगले का संत्री उसे भीतर नहीं जाने देता। वह बंगले के पिछले भाग से पाइप चढ़कर प्रवेश करता है और देखता है कि उसका मंत्री पुत्र सेठ सोनाचंद धरमानंद से रिश्वत ले रहा है। वह बूढ़ा पिता अपने बेल्ट से पुत्र को मारता हुआ दस जनपथ ले जाता है और कहता है कि उसके पुत्र को अापने ऐसा बना दिया है। प्रधानमंत्री निवास पर यह पिटाई होती है।
इस तरह 'अाग' से नहीं बन पाने वाली 'रिश्वत' तक राज कपूर निरंतर भ्रष्ट होते भारत विरोध के प्रतिनिधि फिल्मकार साबित होते हैं। आज के विरोधाभास व विसंगतियों के कालखंड में हम जैसे हरिशंकर परसाई व शरद जोशी की कमी महसूस करते हैं, वैसे ही राज कपूर की कमी भी हमें सालती है।