'आत्मा' का गुड़ और गुलगुले से परहेज / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 03 दिसम्बर 2012
सिनेमा विधा के पहले प्रदर्शन (१८९५) में मौजूद थे जादूगर जॉर्ज मेलिए, जिन्होंने इस विधा का उपयोग अपने तमाशे में किया और तमाशे को शामिल करके जादुई फिल्में भी बनाई हैं और पहली विज्ञान कथा 'जर्नी टू मून' भी बनाई। इत्तफाक की बात है कि भारत में कथा फिल्म के जनक गोविंद धुंडिराज फाल्के ने भी जादू की ट्रिक्स सीखी थीं और उनका इस्तेमाल अपने सिनेमा में भी किया। इसका विवरण मेरी किताब 'महात्मा गांधी और सिनेमा' में है। भारत में पहले दशक में बनी सारी फिल्में धार्मिक आख्यानों पर आधारित थीं और उनमें भी ट्रिक्स के द्वारा जादू-सा प्रभाव पैदा किया। अमेरिका में प्रेतात्माओं पर सबसे पहले फिल्में बनीं और उनमें क्रिश्चिएनिटी का प्रचार भी किया गया कि 'पवित्र जल' छिड़कने से भूत-प्रेत भाग जाते हैं और कई फिल्मों में चर्च के शिखर का क्रॉस प्रेतात्मा पर गिरकर उसे नष्ट कर देता है।
भारत में सस्पेंस फिल्में बुंदेलखंड फिल्म कंपनी के एनए अंसारी ने बनाईं और प्रेतात्मा फिल्मों का प्रारंभ रामसे ब्रदर्स ने किया, जिस धारा के वर्तमान प्रवर्तक भट्ट बंधु हैं। विक्रम भट्ट की '१९२०' में नायक प्रेतात्मा से लड़ते हुए हनुमान चालीसा का जाप करता है, गोयाकि धार्मिक आख्यान और प्रेतात्मा फिल्में एक-दूसरे से जुड़ी हैं और प्राय: धार्मिक आवरण में ही इन कथाओं की तर्कहीनता छुपी होती है, जो दरअसल धर्म बनाम आधुनिकता संघर्ष का ही हिस्सा है। रामसे ब्रदर्स के बहुत पहले १९४९ में अशोक कुमार द्वारा निर्मित और कमाल अमरोही द्वारा निर्देशित 'महल' में आत्मा का भ्रम खड़ा किया गया था। दरअसल चतुल माली ने अपनी बेटी मधुबाला को 'आत्मा' के रूप में प्रस्तुत किया था और मधुबाला के दिव्य सौंदर्य ने मिथक को मजबूत बनाने में मदद की थी।
बहरहाल, यह सारा बखान इसलिए है कि आमिर खान और रीमा कागती की फिल्म 'तलाश' में एक 'आत्मा' न केवल घटनाक्रम को गति देती है, वरन कथानक की भीतरी सतह में प्रवाहित नायक के अपराधबोध से उसे मुक्त करने में सहायता करती है। अत: कथा की बुनावट का आधार ही आत्मा है, परंतु यह रीमा कागती का कमाल है कि उन्होंने रामसे ब्रदर्स और विक्रम भट्ट की फिल्मों से एक अलग दर्जा अपनी फिल्म को दिया, जिसका वातावरण, पात्र और प्रस्तुतीकरण घोर यथार्थवादी है, परंतु यथार्थवाद के विपरीत भावना की प्रतीक 'आत्मा' इसकी केंद्रीय ऊर्जा है। यह विरोधाभास फिल्म का आधार है और रीमा ने इसका तनाव बखूबी साधा है।
टेलीविजन में यही 'आत्मा' का खेल अत्यंत फूहड़ रूप में सामने आता है। साहित्य में भी 'आत्मा' के चरित्र पर बहुत रचनाएं प्रस्तुत की गई हैं। जर्मन डॉ. वीज हिप्नोटिज्म के माध्यम से मरीज को पूर्वजन्म की स्मृति में ले जाते हैं और प्राय: हिप्नोटिज्म के दौर से बाहर आते ही मरीज अपने रोग से मुक्त हो जाते हैं। रिग्रेसिव हिप्नोसिस अवधारणा को कुछ वैज्ञानिक गंभीरता से लेते हैं। डॉ. वीज ने अपने अनुभवों पर आधा दर्जन किताबें लिखी हैं और भारत में भी एक पारसी महिला ने भी 'लॉज ऑफ स्पिरिट वल्र्ड' नामक लोकप्रिय किताब लिखी है। हम विश्वास कर सकते हैं कि रीमा कागती ने यह किताब पढ़ी है, क्योंकि उन्होंने अपनी 'तलाश' में आत्मा से बात करने वाली पात्र को पारसी महिला ही बताया है। उपरोक्त किताब की लेखिका का नाम खुर्शीद भावनागिरी है और प्रसिद्ध कोरियोग्राफर श्यामक डावर भी इस विधा से परिचित हैं तथा भारतीय मूल के फिल्मकार एम. नाइट श्यामलन से भी इस क्षेत्र की अहम फिल्म 'द सिक्स्थ सेंस' बनाई, जिसमें अंतिम दृश्य में मालूम पड़ता है कि यह केंद्रीय पात्र एक आत्मा था। संभवत: रीमा कागती पर इसका भी प्रभाव है। बहरहाल 'आत्मा' विश्व सिनेमा गीत का वह अंतरा है, जो प्राय: दोहराया जाता है।
यहां यह गौरतलब है कि जब हम सिनेमा को ही यकीन दिलाने की कला मानते हैं तो उसमें आत्मा का प्रवेश कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि घोर यथार्थवादी फिल्मों में भी समय के गुजर जाने के दृश्य रखने की इजाजत है। सारी बात सिमट जाती है इस नुक्ते पर कि फिल्म का समग्र प्रभाव क्या है। फंतासी और लार्जर दैन लाइफ फिल्में भी पूरे मन से स्वीकृत की जाती हैं, फिर गुड़ खाकर रीमा कागती के गुलगुले से क्यों परहेज करना? आमिर खान ने 'लगान' से 'तलाश' तक सिनेमाई गुणवत्ता की अपनी यात्रा जारी रखी है और प्रयोग ही उनके विकास का केंद्र है। इस फिल्म ने उन्हें अभिनेता के रूप में विकास का अवसर दिया। ज्ञातव्य है कि सिनेमा बॉक्स ऑफिस के परे जाता है।