'आप' से 'खाप' बनने की क़वायद / ओशो
लोकतांत्रिक राजनीति में प्राय: दो प्रकार के जीव पाए जाते हैं, बुद्धूजीवी और बुद्धिजीवी। बुद्धूजीवी जीवों की प्रकृत्ति दीमक मार रसायन के समान होती है। अर्थात जिस प्रकार दीमक मार रसायन लकड़ी की रक्षा करता रहता है। उसी प्रकार बुद्धूजीवी जीव लोकतंत्र की रक्षा में सर्वस्व त्याग की भावना से उसके साथ चिपके रहते हैं। इसके विपरीत बुद्धिजीवी जीव बुद्धूजीवियों द्वारा रक्षित लोकतंत्र को चटकारे ले लेकर खाते हैं। अर्थात धीरे-धीरे लकड़ी में घुन वाली आस्था के समान खाते हैं। दरअसल वे लोकतंत्र को जीवकोपर्जन के रूप में देखते हैं। वे न खाते हुए भी खाते हैं। अपने लिए नहीं, देश के लिए खाते हैं! लोकतंत्र के लिए खाते हैं! 'भूखे भजन न होई गोपाला' यह उनका आदर्श वाक्य है! इसलिए ही वे बुद्धिजीवी कहलाते हैं। बुद्धूजीवी उपवासी प्ऱकति के नहीं हैं। वे भी चाटते हैं, किन्तु लोकतंत्र को नहीं, लोकतंत्र से चिपकी नैतिकता व आदर्श को चाटते हैं। अर्थात लोकतंत्र का आवरण चाटते हैं। उनका आदर्श लोकतंत्र को दीर्घजीवी बनाए रखना है। महत्वपूर्ण एक तथ्य यह भी है कि बुद्धिजीवी अपेक्षाकृत प्रगतिशील किस्म के जीव होते हैं। तानाशाही व्यवस्था में बुद्धूजीवियों के लिए कोई स्थान नहीं है। उस व्यवस्था में केवल बुद्धिजीवी ही होते हैं। तानाशाही प्रवृत्ति में बुद्धूजीवी मानसिकता दकियानूसी मानी जाती है! जिस किसी भी व्यवस्था में बुद्धूजीवी पाए जाते हैं। मजबूरन पाए जाते हैं, क्योंकि दिल भले ही किसी भी रंग का हो, चेहरा सभी साफ-सुथरा रखना चाहते हैं। ऐसा नहीं है कि बुद्धिजीवी ही उग्र स्वभाव के होते हैं। दरअसल उग्रता उनका जन्मजात स्वभाव है। कभी-कभी बुद्धूजीवी भी उग्र हो जाते हैं और जब वे उग्र होते हैं, तब वे आदर्श व नैतिकता की चादर को ठिठुरते इनसान की तरह चारों ओर से लपेटकर पूरी ताकत के साथ लोकतंत्र से चिपक जाते हैं। ऐसी स्थिति तब आती है, जब उन्हें बुद्धिजीवियों की चटाई से लोकतंत्र ख़्ातरे में नजर आने लगता है। और, तब वे 'धर्मो रक्षति रक्षित:' -धर्म रक्षकों की रक्षा धर्म करता है!' के सिद्धांत का पालन करते हुए लोकतंत्र की रक्षा के लिए संघर्ष पर उतारू हो जाते हैं। यही सिद्धांत उन्हें बुद्धूजीवी बनाता है। वास्तत्व में वे नहीं जानते हैं कि आदर्श व नैतिकता जैसे जुमले केवल चेहरा चमकाने के लिए होते हैं। जीवन में उतारने के लिए नहीं! बुद्धिजीवियों के लाख समझाने पर भी बुद्धूजीवी जब यथार्थ से अनभिज्ञ रहते हैं, तब बुद्धिजीवी बनाम बुद्धूजीवी संघर्ष प्रारंभ हो जाता है। ऐसी स्थिति में बुद्धिजीवियों के पास केवल 'लातमार' रास्ता ही शेष रह जाता है! और, वे बुद्धूजीवियों को लतियाने की जुगत में लग जाते हैं। यद्यपि राजनैतिक विचारक लतियाने की इस प्रवृत्ति को तानाशाही प्रवृत्ति बताते हैं, किन्तु इसे विशुद्ध तानाशाही कहना उचित नहीं होगा। दरअसल इसे लोकतांत्रिक-तानाशाही प्रवृत्ति कहना अधिक उचित होगा। क्योंकि, इसमें लोकतंत्र को ढाल बनाकर तानाशाही सिद्धांतों का अनुगमन किया जाता है। लोकतंत्र की रक्षा के लिए तानाशाही का सदुपयोग करने का हवाला दिया जाता है। आम आदमी पार्टी (आाप) का संघर्ष ऐसे ही दो विरोधी मानसिकता व विरोधी सिद्धांतों का परिणाम हैं। समझाया बहुत समझाया, 'अरे भाई रास्ते पर आ जाओ!' बुद्धूजीवी थे कि समझने का नाम ही नहीं ले रहे थे। बुद्धिजीवी आखिर कब तक धैर्य रखते। आखिर एक दिन लतिया दिया बुद्धूजीवियों को! अच्छा किया! आम से खास बनने की इच्छा किसको नहीं होती! वैसे भी 'आप' कब तक आम आदमी पार्टी बनी रहती। एक न एक दिन तो उसे भी खास आदमी पार्टी (खाप) बनना ही था। अत: आप से खाप बनने के लिए बुद्धूजीवियों को लतियाना आवश्यक था। ऐसा किया और 'आप' से 'खाप' बन गए। जहाँ तक बुद्धूजीवियों का प्रश्न है, एक खोजो हजार मिलते हैं! चिन्ता किस बात की है। कल और बहुतेरे मिल जाएंगे। संपर्क- 8860423256