'इंसाफ का तराजू' से फिल्म '377' तक / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 03 मई 2019
'बीए पास' नामक फिल्म के लिए मशहूर फिल्मकार अजय बहल ने '377' नामक फिल्म की शूटिंग पूरी कर ली है। ज्ञातव्य है कि इंडियन पीनल कोड की धारा 377 दुष्कर्म के आरोपी पर लगाई जाती है। बलदेव राज चोपड़ा ने जीनत अमान, पद्मिनी कोल्हापुरे और राज बब्बर अभिनीत फिल्म 'इंसाफ का तराजू' बनाई थी, जो 1976 में प्रदर्शित हुई विदेशी फिल्म 'लिपस्टिक' की 'प्रेरणा' से बनी थी। हमारे फिल्मकार प्राय: 'प्रेरित' होते रहे हैं और निहायत ही ईमानदारी से फिल्म के अनुदित नाम ही रखते हैं। बलदेव राज चोपड़ा ने 'ब्लॉजम इन द डस्ट' को 'धूल के फूल' के नाम से बनाया।
आज अखबार में प्रकाशित खबर है कि एक रेस्तरां में 30 वर्षीय महिला मिनी स्कर्ट पहनकर अपनी सहेलियों के साथ भोजन कर रही थी। एक अन्य महिला ने उससे कहा कि इस तरह के उत्तेजक कपड़े पहनने वालों का दुष्कर्म होना ही चाहिए। यह फतवा देने वाली उसकी परिचित भी नहीं थी। नैतिकता के स्वयंभू 'हवलदार' हर जगह पहरा दे रहे हैं और उनको यह खामोखयाली है कि 1000 वर्षों पुरानी संस्कृति पर मिनी स्कर्ट आक्रमण कर रहा है। गोयाकि एक पुराने बरगद जिसकी डालियां अपने वजन के कारण धरती में समाकर उसकी जड़ों को मजबूती देती हैं, को एक डाली पर फुदकती गिलहरी से भय लग रहा है।
बलदेव राज चोपड़ा की फिल्म में भी इसी तरह का संवाद था कि उत्तेजक कपड़े पहनने के कारण दुष्कर्म किया गया है। तर्कहीन मूर्खतापूर्ण बातें इसी तरह दोहराई जाकर सामूहिक अवचेतन पर चस्पा हो जाती हैं। मुकदमे मनुष्यों की जगह कपड़ों पर चलाए जाते हैं। इस तरह की सोच सही होती तो जनजातियों की कन्याओं का रोज दुष्कर्म होता रहता, परंतु जनजातियां अपनी परंपराओं के कारण छद्म आधुनिकता को धता दिखाती हैं। बस्तर में घोटुल के कारण यौन विकृतियां होती ही नहीं। हम यह कैसे भूल सकते हैं कि निर्भया सिर से पैर तक वस्त्र से ढंकी थी। राजकुमार संतोषी की मीनाक्षी शेषाद्री और ऋषि कपूर अभिनीत 'दामिनी' में भी घर की एक सेविका से चार लड़के दुष्कर्म करते हैं। उस घर की बहू सेविका के दुष्कर्मियों को अदालत द्वारा दंडित कराने के लिए प्रयास करती है और सफल भी होती है। इस फिल्म में आरोपियों की पैरवी करने वाला व्यक्ति भी अभद्र प्रश्न पूछता है कि पुरुष ने नारी के शरीर के किस अंग को पहले स्पर्श किया और किस तरह किया। वर्तमान में न्यायाधीश इस तरह के अभद्र प्रश्न पूछने नहीं देते। समाज भले ही जड़ बना रहे, अदालतें न्याय को जस का तस रखकर परिवर्तन स्वीकार करती हैं।
दुष्कर्म के सभी प्रकरणों में महिला को पीटकर बेहोश कर दिया जाता है। शरीर संरचना इस तरह है कि जरा-सा होश रहते दुष्कर्म नहीं किया जा सकता। याद आती है सदाअत हसन मंटो की विभाजन के समय का विवरण प्रस्तुत करने वाली कथा 'ठंडा गोश्त' कहानी, जिसमें मरी हुई महिला का दुष्कर्म किया जाता है। उनकी कथा 'खोल दो' भी कुछ भयावह तथ्य रेखांकित करती है। गलत अनुवाद किए गए आख्यानों के रेशों से सामूहिक अचेतन बना है। इंद्र दंडित नहीं होते अहिल्या दंडित की जाती है। श्रीदेवी अभिनीत 'मॉम' में मां अपनी सौतेली बेटी से दुष्कर्म करने वाले चार लंपटों को मार देती है। इनमें से एक का वह अंग काट देती है कि वह दीवारों से सिर टकरा-टकराकर मर जाता है।
चुनाव के लिए बनाए गए घोषणा-पत्रों में नारी सुरक्षा का मुद्दा ही नहीं है। यूं भी इस तरह के सभी दलों के घोषणा-पत्र घटिया गद्य के नमूने हैं। कब किस ने वादा निभाया है? चुनाव मौसम में भाषणों के कारण प्रदूषण अधिक हो रहा है। सरकारी और गैर-सरकारी दफ्तरों में काम करने वाली महिलाओं के वस्त्र निगाहों से उतारे जाते हैं। दशकों पूर्व ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म का नाम था 'ग्यारह हजार लड़कियां' सदियों का वहशीपन तरह-तरह से उजागर होती है। कुछ प्रशिक्षण केंद्र महिलाओं को स्वयं की रक्षा करने के लिए तरीके सिखाते हैं। वासना के आंख में उभरते ही उस पर मिर्चीनुमा गैस डालने से बचाव हो जाता है। कपड़े कम या अधिक मुद्दा ही नहीं है। अवचेतन में कुलबुलाते कीड़े मारने का उपाय है तर्क सम्मत विज्ञान आधारित शिक्षा।