'एमराल्ड फारेस्ट' और चीन के बांध / जयप्रकाश चौकसे

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'एमराल्ड फारेस्ट' और चीन के बांध
प्रकाशन तिथि :20 नवम्बर 2015


किसी विशेष कारण से आज फिर 'एमराल्ड फारेस्ट' का सारांश बता रहा हूं। इस विलक्षण फिल्म में जनजातियों के क्षेत्र में बहती एक वेगवती नदी पर विकास के लिए ऊंचा बांंध बनाया जा रहा है और जनजातियां अपने क्षेत्र को डूब से बचाने के लिए विरोध करती हैं परंतु उनकी आवाज सदियों से अनसुनी रही और उनके ही लाचार मन की घाटियों में गूंजती रहती है। अत: वे मुख्य अभियंता के नन्हे शिशु का अपहरण कर लेते हैं। उन्हें नहीं पता की व्यवस्था की मशीनरी से पुर्जा या वायसर निकालने से उसका निर्मम दमन-चक्र रुकता नहीं। बहरहाल, केंद्र में सत्ता परिवर्तन के कारण बांध का काम रोक दिया जाता है और पंद्रह वर्ष पश्चात फिर सत्ता परिवर्तन के कारण काम शुरू होता है। वही अभियंता इस बार विशेषज्ञ बनकर आया है और अपने अपहृत शिशु की खोज में घने जंगल में जाता है, जहां जनजाति के सांवले-सलोने युवाओं में गोराचिट‌्टा, सुनहरे रंग के बालों तथा एमराल्ड-सी आंखों वाला युवा मिलता है। दोनों अामने-सामने खड़े हैं। उस युवा में बूढ़ा अभियंता अपनी जवानी की छवि देख रहा है और युवा को यह उम्रदराज जाने क्यों अपना-सा लगता है। जनजाति का सरदार अभियंता को अपना पुत्र ले जाने की आज्ञा देता है परंतु आगाह करता है कि बांध प्रकृति के विरुद्ध विद्रोह है।

अभियंता की पत्नी अपने बेटे को वापस पाकर धन्य हो जाती है। अब ये एक-दूसरे के लिए अजनबी हैं, क्योंकि भाषा रहन-सहन और रुचियों में अंतर है। यहां तक कि अब उनके सपने भी अलग हैं। महानगर के बीहड़ और प्रकृति की गोद में भारी अंतर है। अत: बेटे की खुशी की खातिर कुछ दिन बाद ही उसे अपने कबीले में लौटाया जाता है। कबीले का सरदार कहता है कि तेज बारिश आने वाली है और सबको पहाड़ की कंदरा में शरण लेनी चाहिए। वह कहता है कि जब मेंढक तालाब से बाहर भागे तो अत्यंत तीव्र वर्षा का संकेत है। अभियंता दो दिन उनके साथ पहाड़ी कंदरा में रहता है और उनकी उन्मुक्त, आनंदमय जीवन-शैली देखकर अचंभित है। उन दो दिनों में कुछ बीमारों का इलाज जड़ी-बूटी उबालकर किया जा रहा है, जनजातियां नृत्य और संगीत हर अवस्था में करते हैं। उसे लगता है कि अपने बेटे को महानगर ले जाने पर उसके जीवन का आनंद और रस समाप्त हो जाएगा। बहरहाल, कुछ दिन बाद वह आधी रात को पुत्र के शयन-कक्ष में खड़ा है।

वह पाइप पकड़कर खुली खिड़की से आया है। वह बताता है कि रेत सीमेंट का ठेकेदार जनजाति की कुछ युवा कन्याओं को शहर ले जाकर बेचने वाला है। पिता-पुत्र जाकर इस घिनौने षड्यंत्र को विफल करते हैं। उन कन्याओं में पुत्र की प्रेयसी भी है। कुछ घटनाओं के बाद अभियंता इस नतीजे पर पहुंचता है कि यह बांध विनाशकारी सिद्ध होगा। अत: एक रात वह बांध को विस्फटकों से उड़ा देता है और साथ ही स्वयं भी मर जाता है। इस पुरानी फिल्म का नया संदर्भ यह है कि चीन ने अपने क्षेत्र में बहने वाली ब्रह्मपुत्र नदी पर बड़ा बांध बांधा है और कुछ अन्य बांधों पर काम तीव्र गति से हो रहा है। चीनी क्षेत्र में इस नदी का नाम यारलुंग जांगबो है। भारत भी ब्रह्मपुत्र के अपने क्षेत्र में बांध बनाना चाहता है। बांध का जवाब बांध से देने में असम, अरुणाचल इत्यादि क्षेत्र खतरे में आ सकते हैं। असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगाई प्रधानमंत्री से खफा हैं कि इस ओर अनेक बार ध्यान दिलाने के बाद भी केंद्र सरकार खामोश है। राष्ट्र की सुरक्षा जैसे प्रश्न पर सरकार उदासीन है। प्रकृति के विनाश के सतत प्रयास पूरी पृथ्वी का अस्तित्व ही खतरे में डाल रहे हैं। पेरिस में प्रकृति की रक्षा के सम्मेलन में डींगे हांकी गई। विक्रम सोनी ने अपनी किताब 'नेचरली : ट्रेड सॉफ्टली ऑन द प्लेनेट' में आगाह किया है और 'प्लेनेट वी प्लंडर्ड' नामक किताब कई वर्ष पूर्व प्रकाशित हो चुकी है।

चीन में वायु से बिजली प्राप्त करने के सबसे अधिक कारखाने हैं। इसके बावजूद उसकी ब्रह्मपुत्र पर बांध की योजनाओं का उद्देश्य मात्र बिजली उत्पादन नहीं वरन कुछ और भी हो सकता है। हमारी त्रासदी यह है कि हम सारे समय पाकिस्तान से खतरे पर ध्यान देते हैं और पाकिस्तान के नेता अपना ध्यान भारत विरोध पर कायम रखते हैं। दरअसल, दोनों देशों के अवाम को एक-दूसरे से उतनी नफरत नहीं है, जितनी दोनों देशों के नेता अनी सत्ता की रक्षा के लिए प्रचार द्वारा पैदा करते हैं। भारत का आम आदमी, पाकिस्तान के आम आदमी से कहीं अधिक बेहतर स्थिति में हैं। परंतु दोनों देश हथियार खरीदने पर ज्यादा पैसा खर्च कर रहे हैं। इन दोनों देशों के नेता चीन के खतरे को जानकर अनदेखी कर रहे हैं। संभवत: वे जानते हैं कि सैन्य क्षेत्र में चीन से लड़ने की उनमें सामर्थ्य ही नहीं है। अपने से ताकतवर के सामने गिड़गिड़ाना और कमजोर पर गुर्राना साहसी लोगों की शैली नहीं है। चीन कम्युनिस्ट जीवनशैली से अपने उत्पाद और शक्ति बढ़ाकर अपने पूंजीवादी सपनों को सार्थक करना चाहता है। अमेरिका एशिया को चीन से अपने युद्ध का रणक्षेत्र बनाना चाहता है।

हमारे किसी भी राजनीतिक दल के पास ऐसे नेता ही नहीं हैं, जो देश की डगमगाती नैया को पार लगा सकें। राजनीति में बुद्धिजीवियों, वैज्ञानिकों और साहित्यकारों का घोर अभाव है। यह वर्ग पैसा खाकर पुरस्कार लौटा रहा है और 'अदृश्य असहिष्णुता' की बात कर रहा है- ऐसे खोखले अारोप लगाने का कोई अर्थ नहीं है। चीन अपने भाग में भारत की सीमा के निकट बने बांध स्वयं उड़ा दें तो असम, उत्तरांचल तथा साथ के पांच राज्य जलमग्न हो जाएंगे। कैसे कोई आत्मलीन, स्वयं पर मुग्ध होकर असल खतरों को अनदेखी कर सकता है।