'काइ पो छे' और धर्मनिरपेक्षता / जयप्रकाश चौकसे

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'काइ पो छे' और धर्मनिरपेक्षता
प्रकाशन तिथि : 22 फरवरी 2013


यू टीवी और अभिषेक कपूर की फिल्म का नाम 'काई पो छे' है। गुजरात में पतंगबाजी के समय विरोधी की पतंग काटने पर यह विजयनाद की तरह कहा जाता है, जैसे पंजाब की हॉकी टीम गोल मारने के बाद 'चक दे इंडिया' कहती है। प्राय: क्षेत्रों और अंचलों में विजयनाद अपनी भाषा में किया जाता है। नाव चलाने वाले 'हैया हो हैया' कहते हुए पतवार चलाते हैं। रमैया वस्तावैया भी ऐसा ही कुछ रहा होगा। कथा सुनाते समय वाचक श्रोता के हुंकारे सुनता है और प्रेरित होता है। वर्तमान में श्रोता हुंकारे भर रहा है, परंतु कथावाचक नेता शायद सो गया है। नेता 'हैया हैया' नहीं, 'हाय हाय' कर रहे हैं, क्योंकि उनकी नाव में है तूफान और उनको लग रहा है समुद्र में है तूफान।

क्रिकेट में गेंदबाज विकेट लेने के बाद हवा में उछल जाता है। यहां तक स्वाभाविक है, परंतु बाद में वह अपने हाथ को कुछ ऐसा चलाता है, मानो साइकिल में हवा भर रहा है, परंतु इस हरकत में अभद्र संकेत भी निहित है। भद्र समाज का खेल माने जाने वाले क्रिकेट में इस तरह का शरीर संचालन विगत कुछ वर्षों की देन है। जब क्रिकेट एक विशाल व्यवसाय हो गया है और इस व्यवसाय में बेईमानी प्रवेश कर चुकी है। अंग्रेजी भाषा के स्कूल में पढ़े हुए लोग विजय के समय 'हिप हिप हुर्रे' बोलते हैं।

किसी भी क्षेत्र में विजय को सामाजिक व्यवहार में इतना महत्वपूर्ण बना दिया गया है कि गूंगे व्यक्ति के मुंह से भी विजय के क्षण में कुछ अजीब-सी आवाज निकलती है, परंतु गूंगा व्यक्ति दारुण दुख के समय जब ध्वनि निकालता है तो वह किसी भी मनुष्य को हिला सकती है। उसका वर्णन तो शब्दों में नहीं किया जा सकता, परंतु एक कमजोर कोशिश यह होगी कि सदियों से सूखे पड़े कुएं से आती ध्वनि भांय-भांय की तरह होती है। दरअसल, आहत मन में दबाई गई आह की कोई ध्वनि नहीं होती, परंतु कहीं वह प्रकृति का संतुलन बिगाड़ती जरूर है, क्योंकि ध्वनि अनश्वर होती है। वह अनुच्चारित होकर भी अपना असर रखती है। आंख से झरने वाले आंसू विरेचन कर सकते हैं, परंतु आंसू न टपकने देकर जो भीतर ले लेता है, वे इस्पात बन जाते हैं। मन की रसायन प्रयोगशाला में अजूबे घटते हैं। हमारा सब कुछ जानने का दावा किस कदर खोखला है।

भाषा मनुष्य की सांस्कृतिक प्रयोगशाला में निर्मित हुई है और बोलचाल की भाषा में प्रयुक्त अनेक शब्द इसी मूल प्रोडक्ट का बाय प्रोडक्ट मानना चाहिए। रोजमर्रा की भाषा में कई मुहावरे अनायास बनते-से लगते हैं, परंतु वह सचमुच में अनायास नहीं है। मसलन, आजादी के कुछ वर्ष पश्चात 'मजबूरी का नाम महात्मा गांधी' कहा जाने लगा, जबकि गांधी कभी मजबूर नहीं थे, परंतु विभाजन स्वीकार होते ही उन्होंने स्वयं को जीवन में पहली बार मजबूर पाया। दरअसल, 'मजबूरी का नाम महात्मा गांधी' इस आशय से बोला जाने लगा कि मजबूर ही आदर्शवादी और ईमानदार होता है। इस मुहावरे के उपयोग को नैतिक पतन का प्रारंभ मानना चाहिए।

आम जीवन में प्रयुक्त भाषा ग्रामर के बांध से नहीं बंधी होती, वह मनुष्य के मन की स्वाभाविक अभिव्यक्ति होती है। ग्रामर का लचीलापन भाषा के विकास का अवसर देता है। विगत कुछ वर्षों में प्रकाशित अंग्रेजी के शब्द-कोश में हिंदी व राष्ट्र की अन्य भाषाओं के शब्दों का समावेश मात्र उनकी उदारता या भाषा का लचीलापन नहीं है, वरन हम अंग्रेजी को हिंदी के साथ मिलाकर बोलें- इस योजना का हिस्सा है और हमारे मन में गुलामी इस तरह पैठी है कि हमारे शब्दों के उनके शब्दकोश में शामिल होने को हम गर्व की बात समझते हैं। साम्राज्यवाद केवल सेना द्वारा दूसरे देशों को जीतना मात्र नहीं होता, वरन सांस्कृतिक मिलावट द्वारा भी होता है, जिसका असल उद्देश्य हमसे अपनी सोचने की शक्ति को हानि पहुंचाना है। सिनेमा मनुष्य की प्रयोगशाला में जन्मा है और बिंब उसकी अपनी भाषा है। उसका अपना ग्रामर है और अपने मुहावरे भी हैं। कभी-कभी कैमरा ब्रश की तरह पेंटिंग भी करता है, परंतु सवाक होने के बाद उसमें भाषा का प्रयोग होने लगा है और अधिकतम की पसंद उसका आर्थिक आधार है। अत: उसमें प्रयुक्त भाषा में सभी भाषाएं और बोलियां शामिल हैं। अभिषेक कपूर की फिल्म आंचलिक नहीं है, परंतु गुजरात की पृष्ठभूमि होने के कारण इसमें वहां के प्रचलित मुहावरे हैं, गरबा है, पतंगबाजी है। मूल उद्देश्य तो धर्मनिरपेक्षता की बात है।