'काबुलीवाला' एक बार और / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 18 मई 2018
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की कथा 'काबुलीवाला' पर पहले बंगाली भाषा में फिल्म बनी और बिमल रॉय ने इसे बलराज साहनी के साथ हिन्दी में दूसरी बार बनाई। ताजा खबर है कि यह कथा पुन: फिल्माने की योजना पर काम चल रहा है और गीत लिखने के लिए गुलज़ार को अनुबंधित किया है जो उस समय बिमल रॉय के सहायक निर्देशक थे जब वे बलराज साहनी अभिनीत 'काबुलीवाला' बना रहे थे। गौरतलब है कि रमेश तलवार ने इसी कथा के अगले भाग का आकल्पन एक नाटक के रूप में प्रस्तुत किया था। यह नाटक कई बार मंचित हुआ। मूल कथा में एक काजू, बादाम बेचने वाला व्यक्ति एक मिनी नामक बच्ची को कुछ मेवा मुफ्त में देता है क्योंकि वह बच्ची उसे अपनी बिटिया की याद दिलाती है जिसे वह अपने मुल्क में अपने परिवार के पास छोड़ आया है। रमेश तलवार के नाटक में यही बच्ची अब युवा होकर एक डॉक्टर बन गई। उसे एक ऊंचा पद अस्पताल में दिया जा रहा है जिसे ठुकराकर वह डॉक्टरों के दल के साथ अफगानिस्तान जाने का फैसला करती है। उसके मन में यह मोह है कि संभवत: वह काबुलीवाले या उसके परिवार से मिल सके और उन्हें बताए कि बचपन के वे क्षण जो उसने काबुलीवाला के साथ बिताए, उसके जीवन की सबसे बड़ी पूंजी है और धन्यवाद ज्ञापन करना चाहती है।
बचपन वह पटकथा है जिस पर जीवन की फिल्म आधारित होती है, जीवन की आपाधापी में बचपन पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता जितना आवश्यक है। निर्मम बाजारी व्यवस्थाएं मनुष्य को दौड़ाती रहती हैं। एक फ्रेन्च फिल्म में एक बहुमंजिला इमारत में एक स्त्री लौटती है तो पड़ोसी का बच्चा स्कूल से आकर अपने नौकरीपेशा मां-बाप का इन्तजार कर रहा होता है। स्त्री उसे अपने फ्लैट में ले जाकर नाश्ता कराती है। स्नेह का एक रिश्ता पनपता है।
कुछ समय पश्चात वह स्त्री गर्भवती होती है और उसे मातृत्व का अवकाश मिलता है। रात में उसे अहसास होता है कि उसका गर्भस्थ शिशु यह कह रहा है कि उसे इस पृथ्वी पर जन्म नहीं लेना है जहां एक बच्चा अपने नौकरीपेशा माता-पिता के इंतजार में घंटों बैठा रहता है। यहां हर व्यक्ति भागता रहता है परन्तु कोई कहीं पहुंचता नजर नहीं आता। वह गर्भवती स्त्री पहाड़ पर जाती है। खुली हवा में सांस लेती है और गर्भस्थ शिशु को आश्वस्त करती है कि अभी भी यह पृथ्वी जन्म लेने लायक है। गर्भस्थ शिशु कहता है कि इसी पहाड़ी पर वह अपने हनीमून के लिए आई थी और इसी स्थान पर वह गर्भवती हुई। उस समय यहां जितने वृक्ष थे, अब उससे आधे ही रह गए हैं। संभवत: इस फिल्म का नाम था 'एज इन हैवन, सो ऑन अर्थ'।
तथाकथित विकास का रथ कई चीजों को रौंदता हुआ आगे बढ़ रहा है। एक पर्यटक की निगाह से देखे सिंगापुर और हॉन्गकॉन्ग की तरह भारत को रचने का दावा करने वालों ने इन शहरों में पनपते अपराध को नहीं देखा है। पर्यटकों को शहर के सुंदर स्थानों की एक बुकलेट मुफ्त दी जाती है और उसी को पढ़कर इन्होंने अपने विकास का आकल्पन कर लिया है। उन शहरों के लेखकों और कवियों से ये कभी मिले ही नहीं। ये तो अपने वतन के अदीबों से भी नहीं मिले। अफगानिस्तान वह अभागा देश है जिसने रूस और अमेरिका के जुल्म सहे हैं। उनका भूगोल उनके मजबूत जिस्म में उभर आता है और उनका संघर्ष भरा इतिहास उनकी स्मृति से कभी मिट नहीं सकता। अरसे पहले बनी अमिताभ बच्चन और श्रीदेवी अभिनीत फिल्म 'खुदागवाह' में एक पठान भारत आता है और उस गुनाह के लिए पकड़ा जाता है जो उसने किया ही नहीं है। वह जेलर से यह वादा करता है कि कुछ दिनों की पैरोल दिला दें, वह जरूर लौट आएगा। वहां वह जाता है, अपनी प्रेयसी से विवाह करता है परन्तु उसे यह नहीं बताता है कि उसे लौटकर जाना है गोयाकि एक वादा निभाया परन्तु दूसरा तोड़ा है। उसे विवाह पूर्व ही अपनी प्रेयसी को सब कुछ बताना था। इस गैरपठानी गुस्ताखी के कारण ही वह फिल्म असफल रही। फिल्मकार थे मुकुल आनंद। उस दौर में उनको असाधारण प्रतिभावान माना जाता था क्योंकि सिने कला के तकनीकी पक्ष का उन्हें गहरा ज्ञान था परन्तु फिल्मकार का संवेदनशील होना ज्यादा जरूरी है। उसे मनुष्य की करुणा का गायक बनना होता है। हर दौर में ऐसे लोग होते हैं जो किसी व्यक्ति के प्रचार में जुट जाते हैं क्योंकि यही उनकी रोजी-रोटी है। वर्तमान में नेताओं ने उन्हें वेतन पर रखा है। उनका तमाशा अवाम का मन मोह रहा है।
बहरहाल 'काबुलीवाला' का नया संस्करण बनाने वालों के सामने अमिताभ बच्चन ही एकमात्र रास्ता है। अमिताभ बच्चन भूमिका के साथ न्याय करेंगे और इसी प्रक्रिया में वे 'खुदागवाह' नामक हादसे के लिए प्रायश्चित भी कर लेंगे। वे चाहें तो इसे प्रायश्चित नहीं कहकर, प्रार्थना कह लें। मन को शांति मिलेगी।