'कैसे' का भी अपना 'क्या' है / संजीव कुमार

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1.

'दो मिनट भी नहीं लगे होंगे, बहुत बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई थी और उस भीड़ ने हमारे बाथरूम को घेर लिया था। उन सबों पर पिताजी के' दूर हटो 'और' बम रखा होगा'का कोई असर नहीं हुआ था। भीड़ आतंकवाद के खिलाफ नारे लगा रही थी। थोड़ी देर में आतंकवाद के खिलाफ नारे' पाकिस्तान हाय हाय' में बदल गए।

...मेरे यह बता देने पर कि अंदर बाथरूम में मेरा भाई है, उस भीड़ का एक हिस्सा तो मेरे पक्ष में आया था, पर एक बड़ा हिस्सा न जाने कैसे यह मान बैठा कि जो भीतर था वह आतंकवादी ही था, भले ही वह गुलशन ही क्यों न हो।

खिलाफ भीड़ का वह हिस्सा जो मानता था कि मेरा भाई बहुत खूबसूरत है, उसके लोग बाथरूम की छत तथा रोशनदान पर चढ़ गए थे। बाथरूम के तमाम छोटे-मोटे छेदों को इस भीड़ ने मूँद दिया था। भीड़ के इस हिस्से को लग रहा था कि मेरा भाई इतना खूबसूरत है कि ज़रूर ही उसे बचाने के लिए सभी देवता अपने रथों पर चले आ रहे होंगे। बाथरूम की छत पर, रोशनदान पर चढ़कर ये लोग देवताओं से युद्ध की तैयारी कर रहे थे।

भीड़ के जिस हिस्से को लगा था कि सभी आतंकवादी संगठन मेरे भाई को बचाने आने वाले थे, उन लोगों ने लाठी-डंडे से लैस होकर पूरे मुहल्ले को घेर लिया था। इन लोगों के समूचे शहर में फैल जाने की उम्मीद थी। '-' भूलना' , चंदन पांडेय

करीब दो महीने पहले मैंने 'भूलना' कहानी पर लिखना तय किया था। तब इस बात का इल्म न था कि जिस हास्यापद, भयावह और करुण बेतुकेपन (एब्सर्डिट) से हमारा सामना इस कहानी में होता है, वह आनेवाले दिनों में बाढ़ के पानी की तरह इस कदर हमारे चारों ओर ठाठें मारता नजर आएगा।

पूरा जेएनयू-देशद्रोह-प्रकरण और क्या है?

देश को बौद्धिक नेतृत्व देनेवाले एक विश्वविद्यालय के परिसर में एक सभा होती है जिसकी आजादखयाली का संज्ञान लेकर और वह भी निहायत अस्पष्ट तथा संदिग्ध वीडियो के आधार पर, केंद्र सरकार का गृह मंत्रालय देश की एकता-अखंडता की रक्षा के प्रति आत्यंतिक रूप से चिंतित हो उठता है। अविलंब कुलपति पर दबाव बनाकर पुलिस को विश्वविद्यालय में प्रवेश दिलाया जाता है और वह बिना किसी सबूत के कन्हैया कुमार नामक एक जहीन युवक को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लेती है। गृहमंत्री जैसे जिम्मेदार पद पर बैठा आदमी कल को फर्जी साबित होनेवाले एक ट्वीट के आधार पर यह घोषणा कर देता है कि हाफिज सईद ने जेएनयू में 'देशद्रोही' नारे लगानेवालों को मुबारकबाद दी है और अपनी तथा अपने संगठन की देशभक्ति पर लगे सवालिया निशानों को उखाड़ फेंकने के प्रयासों की एक कड़ी के रूप में वह दहाड़ उठता है, 'देशद्रोही नारे लगानेवालों को बख्शा नहीं जाएगा।' विश्वविद्यालय में उमर खालिद और अनिर्बन भट्टाचार्य जैसे पढ़ाकू शोधार्थियों को ढूँढ़ पाने में नकाम रही पुलिस तुरंत अपना यह हास्यास्पद अनुमान सार्वजनिक करती है कि उमर खालिद जैशे-मोहम्मद से सम्बद्ध हो सकता है कि वह कितनी ही बार पाकिस्तान के चक्कर लगा चुका है (पासपोर्ट नहीं बनवाया तो क्या हुआ!) कि वह उस खास दिन देश के तेरह विश्वविद्यालयों में ऐसी देशद्रोही सभाओं के आयोजन के पीछे का 'मास्टरमाइंड' है कि उसके मोबाइल फोन की 'ट्रैकिंग' से पता चलता है कि वह झारखंड के जंगलों में अपनी 'लोकेशंस' बदल रहा है कि उसके नंबर से इस बीच इतनी-इतनी बार दुबई और पाकिस्तान फोन किया जा चुका है। पूरा जेएनयू देश के टुकड़े करने पर आमादा एक राष्ट्रविरोधी केंद्र में तब्दील हो जाता है। टीवी चैनलों पर ऐंकर पागलों की तरह अपने देश के पक्ष में चीख-पुकार मचाने लगते हैं और हर दूसरी लाइन में पता नहीं किस प्राधिकार के बूते पर यह 'शो कॉज नोटिस' जारी करने लगते हैं कि करदाताओं के पैसे से चलनेवाले ऐसे संस्थान को बंद क्यों नहीं कर दिया जाए? जेएनयू परिसर से निकलकर ऑटो रिक्शे को आवाज देनेवाली लड़की से रिक्शेवाला पूछता है, 'कहाँ जाना है? पाकिस्तान?' और हिकारत के साथ आगे बढ़ जाता है। कन्हैया कुमार के समर्थन में निकले जुलूस को सड़क की दूसरी ओर से घूरते, मीडिया और राज्यतंत्र के पागलपन से संक्रमित दो आम नागरिक आपस में बातें करते हैं, 'साले देशद्रोही! खाते हैं भारत का, गाते हैं पाकिस्तान का!' शिक्षा-संस्थानों के शरीर में देशप्रेमाल्पता (बतर्ज रक्ताल्पता) से बेहद चिंतित मानव संसाधन विकास मंत्री और 46 केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपति एक बैठक में सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 207 फीट ऊँचा राष्ट्रीय झंडा स्थापित करने का प्रस्ताव पारित करते हैं और आदेश अविलंब निर्गत कर दिया जाता है। अपनी डरावनी मूँछों पर देशभक्ति का दुर्वह भार उठाए एक भाजपा विधायक किसी जादुई स्रोत से प्राप्त सर्वे के आधार पर गिनती पेश करता है कि जेएनयू परिसर में रोज 3000 कंडोम, 5000 सिगरेट की ठूँठें, जाने कितने हजार बीड़ी के और छोटे-बड़े पशुओं की हड्डियों के टुकड़े निकलते हैं; पापाचार का ऐसा आसुरी अड्डा है यह संस्थान...!

और भी पता नहीं क्या-क्या! ...

एक साथ डराने और हँसाने वाले बेतुकेपन की यह बाढ़ फरवरी के दूसरे सप्ताह से गोया चप्पे-चप्पे पर पसर गई है; पहले वह जगह-जगह अपनी मर्यादा का अतिक्रमण करती एक उफनती नदी भर थी। इस बाढ़ को दो-एक अनुच्छेदों में समेट कर रख देने का मेरा कोई इरादा नहीं। क्षमता भी नहीं है। आप उससे वैसे भी परिचित हैं। बस कहना ये है कि इन सबसे गुजरते हुए मुझे 'भूलना' कहानी लगातार 'हॉण्ट' करती रही... और अपनी ही कही हुई यह बात भी कि जब हम कहानी की बनाई समानांतर दुनिया से अपनी दुनिया में लौटते हैं तो हमारे पास इस दुनिया के लिए एक अलग निगाह होती है, इसके कई अनदेखे या उपेक्षित या धुँधले या ढँके-तुपे पहलू हमारे लिए अधिक स्पष्ट हो उठते हैं। 'भूलना' के संदर्भ में मैं अपनी बात को आगे शायद बेहतर समझा पाऊँगा, पर फिलहाल इतना ज़रूर कहना चाहता हूँ कि जिसे एक महत्त्वपूर्ण कहानी मानकर मैंने विचार के लिए चुना था, वह इस बीच मेरे अंदर एक बहुत बड़ी कहानी की हैसियत अख्तियार कर चुकी है।

2.

राकेश बिहारी ने अपनी किताब 'केंद्र में कहानी' में 'भूलना' को 'कैरियर की प्लानिंग और बेरोजगारी का दंश झेलते किशोर-युवाओं की परिस्थितिजन्य विडंबनाओं का संज्ञान लेनेवाली कहानियों' के खाते में रखा है। उस पुस्तक की समीक्षा करते हुए इपंले (इन पंक्तियों के लेखक) ने इससे असहमति जताई थी और इसे 'आतंकवाद के नाम पर बने हुए मास पॅरानोइया के बेहद जटिल आयामों को खोलने वाली कहानी' बताया था ('मास पॅरानोइया' यानी जनता में फैला हुआ, मनोरोग की हद तक जाता, साजिशों का तर्कातीत अंदेशा और भय) ।

कहाँ बेरोजगार किशोर-युवाओं की परिस्थितिजन्य विडंबनाएँ और कहाँ आतंकवाद को लेकर बना मास पॅरानोइया! कोई तुक-ताल है? क्या एक ही कहानी की दो पढ़तें इतनी जुदा-जुदा हो सकती हैं कि लगे ही नहीं कि एक ही कहानी की बात की जा रही है? ...हाँ, हो सकती हैं, अगर कहानी 'भूलना' जैसी हो और अगर 'पढ़त' का मतलब 'पढ़ना' नहीं बल्कि पढ़े हुए पर विचार करके उसके सार को सूत्रबद्ध करना, यानी निचोड़ निकालना हो।

सार और निचोड़-पिछली बार इन्हीं शब्दों ने पूरा लेख गड़प कर लिया था। इस बार इपंले कृतसंकल्प है कि किसी भाँति यह जुलुम दुहराया न जाए... पर पिछली बार अगर पाठकों को कुछ उलझाव-सा महसूस हुआ हो तो उसे सुलझा कर ही आगे बढ़ना उचित होगा, क्योंकि 'भूलना' के संदर्भ में और सामान्य रूप से आज की कहानियों के संदर्भ में, उन बातों का विशेष महत्त्व है। सुलझाने के क्रम में मैं एक सरल समीकरण प्रस्तावित करना चाहता हूँ जो अन्यथा किसी काम का साबित हो चाहे न हो, हमारे मकसद के लिए खासा कारगर है। वह समीकरण है: कहानी = क1+क2+ख, जहाँ 'क' कथावस्तु है जिसमें परिणति और प्रक्रिया के रूप में दो पक्ष (क1+क2) मौजूद हैं और 'ख' प्रस्तुतीकरण है। मैं जब कथावस्तु कहता हूँ तो उसे समझने के लिए आप पहले से अपने मन में मौजूद किसी संकल्पना-मसलन, कथा और कथानक के अंतर आदि-की शरण में न जाएँ। वह आप तक मेरी बात के पहुँचने में आड़े आएगी। बस यह समझ लें कि मेरा आशय उन सारी चीजों से है जिनका वजूद, असलियत या कल्पना में, कहानी की अपनी विशिष्ट भाषा और प्रस्तुति-युक्तियों के बगैर भी है / हो सकता है। इनमें घटनाएँ और कार्यव्यापार तो शामिल हैं ही, चरित्र, स्थान, प्रकृति, वस्तुएँ आदि भी शामिल हैं। आख्यान-संरचना पर विचार करनेवालों ने इन्हें क्रमशः 'इवेंट्स' और 'एग़्जिस्टेंट्स' कहा है। मैं कथा या कथावस्तु कहूँ तो उसे आप इन्हीं का कुल योग समझें। इस कुल योग के दो पक्ष मैंने चिह्नित किए: (1) एक अंतिम नतीजे में जाकर मिलता स्थूल घटना-विकास, यानी 'क्या हुआ'-संक्षेप में, परिणति-पक्ष; (2) स्थूल घटना-विकास के बीच का विस्तार, यानी 'कैसे हुआ'-संक्षेप में, प्रक्रिया-पक्ष। ये ही पूर्वोक्त समीकरण में क्रमशः क1 और क2 हैं। रह गया 'ख' । तो उसे हमने सहूलियत के लिए प्रस्तुतीकरण कह दिया है, लेकिन दरअसल प्रस्तुतीकरण तो कहानी खुद है, इसलिए 'ख' वस्तुतः वह (कल्पित) शेषांश है जो कहानी में से कथावस्तु को घटा देने पर बचा रहता है। इसमें शामिल हैं, भाषा-शैली और विविध प्रस्तुति-युक्तियाँ, जैसे-वाचक की अवस्थिति से तय होनेवाला प्रस्तुति का परिप्रेक्ष्य (कल्पना कीजिए कि 'तीसरी कसम' कहानी को हम हीराबाई की जुबानी, 'मैं' शैली में सुन रहे होते) , कालक्रम की उलट-पलट (कल्पना कीजिए कि 'कफन' की शुरुआत शराब के अड्डे से हुई होती और पीछे का पूरा प्रसंग फ्लैशबैक में बताया जाता) , कथाकाल का संकुचन या विस्तार (संकुचन लगभग हर कहानी में होता है, विस्तार का उदाहरण अभी याद नहीं आ रहा) इत्यादि।

ये क1, क2 और ख हर कहानी में होते हैं। इन तीनों के बगैर कोई कहानी बन नहीं सकती। तो फिर संरचना के स्तर पर फर्क किस चीज से पड़ता है? फर्क इससे पड़ता है कि सापेक्षिक महत्त्व की दृष्टि से कहानी में इन तीनों की स्थिति क्या है, यानी कहानी की जान इनमें से किसमें या किस-किसमें बसती है। (याद रखिए कि यह मॉडल कहीं से लिया नहीं गया है और अगर इसमें कोई झोल है तो उसके लिए इपंले पूरी तरह से जिम्मेदार है।) अब मैं पिछली किस्त में कही गई सारी बातों को दुहराऊँगा नहीं, बस उक्त समीकरण में अलग-अलग अंशों को रेखांकित करते हुए यह इशारा करूँगा कि सापेक्षिक महत्त्व की दृष्टि से कितनी तरह की स्थितियाँ संभव हैं:

कहानी 1 = क1+क2+ख

कहानी 2 = क1+क2+ख

कहानी 3 = क1+क2+ख

कहानी 4 = क1+क2+ख

कहानी 5 = क1+क2+ख

कहानी 6 = क1+क2+ख

कहानी 7 = क1+क2+ख

इनमें से सिर्फ़ कहानी 7 ऐसी श्रेणी है जिसमें सापेक्षिकता का मामला नहीं बनता। तीनों पक्ष समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। बाकी सभी में रेखांकित अंश ऐसे हैं जो अरेखांकित अंश / अंशों के मुकाबले अधिक महत्त्वपूर्ण हैं और कहानी की प्रतिष्ठा का-वह जितनी और जैसी भी हो-आधार हैं। पिछली किस्त के विवेचन को याद करें तो कहानी 1 का सार प्रस्तुत करना अपेक्षाकृत आसान होगा, जबकि कहानी 3 का लगभग नामुमकिन, जहाँ कथावस्तु की क्षीणता के कारण आपको सार में समेटी जाने लायक सामग्री ही बहुत कम मिलेगी और जो मिलेगी भी, वह कहानी के महत्त्व को समझा पाने की दृष्टि से अनुपयोगी होगी। कहानी 7 की स्थिति इनमें सबसे विचित्र है, जहाँ आपके पास सारांश-रूप में प्रस्तुत करने लायक काफी-कुछ होगा (क1) , पर क2 और ख की बराबर की अहमियत आपको अपने सार से खासा असंतुष्ट रखेगी। लगेगा, बताया भी तो क्या!

कहानी 7 हिन्दी कहानी की सबसे अल्पवयस् संरचना है और 'भूलना' उसी का एक नमूना। 'भूलना' को इस श्रेणी का अगुआ उदाहरण तो शायद नहीं कहा जा सकता-अपने सीमित अध्ययन के आधार पर इपंले को कहानी 7 की शुरुआत तीसेक साल पीछे उदय प्रकाश के यहाँ दिखाई पड़ती है, 'टेपचू' और 'छप्पन तोले का करधन' जैसी कहानियों में नहीं बल्कि 'तिरिछ' में-पर यह एक सशक्त और इसीलिए प्रतिनिधि उदाहरण अवश्य है। इसमें एक अच्छा-भला क1 है जिसे समेटकर आप कहानी के सार के तौर पर पेश कर सकते हैं, लेकिन क2 और ख की बराबर की समृद्धि-जिसे सार में सफलतापूर्वक समेटा नहीं जा सकता, सिर्फ़ इंगित किया जा सकता है-आपको यह अहसास कराएगी कि कितनी बातें तो रह ही गईं, क्या खाक सुनाया!

अब ज़्यादा अमूर्त चर्चा छोड़कर मामले को ठोस बनाते हुए मैं आपको 'भूलना' का कथा-सार बताने की कोशिश करता हूँ।

कहानी में एक परिवार है जिसमें पिता, माता, उनके दो बेटे और एक बेटी हैं। परिवार बनारस शहर के एक कमरे के घर में किसी तरह अपना गुजारा करता है। पिता एक सिनेमा हॉल में दरबान हैं। माता दो-एक घरों में झाड़ू-पोंछे का काम करती हैं। बड़ा लड़का ट्यूशन पढ़ाता है। लड़की नौकरी की तलाश में लगी है। छोटा लड़का, जो परिवार में सबसे छोटा है, जितना शरारती है, पढ़ाई में उतना ही अच्छा। वह बोर्ड इम्तहान में पूरे शहर में अव्वल आकर इस बदहाल परिवार के अंदर एक उम्मीद जगा देता है। माँ-बाप से लेकर भाई-बहन तक, सभी यह सपना पाल लेते हैं कि मेधावी छोटा भाई इंजीनियर बनकर घर का दलिद्दर दूर करेगा। उनके सपनों का दबाव महसूस करता हुआ छोटा भाई प्रतियोगिता परीक्षा पास करने के लिए असाधारण परिश्रम करने लगता है। एक ही कमरे के उस घर में, जिसका एक कोना रसोई बना हुआ है, दूसरे कोने में वह दीवार की ओर मुँह किए हर वक्त पढ़ता रहता है। उसकी शरारतें धीरे-धीरे नदारद होती जाती हैं। उस अँधेरे कोने में घर के शेष हिस्से की ओर पीठ देकर उसका लगातार पढ़ते रहना और घर की किसी भी बातचीत, हलचल आदि में भागीदार न होना एक ऐसी चीज है जो अब उसकी मौजूदगी को महसूस नहीं होने देती। घर के लोग गोया उसे भूलते जाते हैं। पहले यह भूलना छोटे वक्फों के लिए होता है। फिर भूलने के वक्फे लंबे होते जाते हैं। एक बार तो स्थिति यहाँ तक आती है कि जनगणना वाले आते हैं और उन्हें माँ चार लोगों के ही नाम लिखाती हैं; कुछ भूलने जैसा अहसास होता है, पर समझ नहीं पातीं कि वे क्या भूल रही हैं। जिन दिनों घर में यह प्रक्रिया चल रही है, उन्हीं दिनों शहर में आतंकवाद को लेकर चर्चा हर गली-मुहल्ले में, हर जुबान पर है। एक दिन पानी आने में भी विलंब हो जाए तो लोगों को लगता है कि अगले दिन अखबार में पानी टंकी पर कुछ गड़बड़ी करनेवाले आतंकवादियों की खबर होगी। नए शहर कोतवाल ने आतंकवाद को काबू में करने के नाम पर नया नियम बनाया है कि हर थाने को कुछ निश्चित संख्या में अपराधियों की पकड़-धकड़ रोज करनी है। इस पूरे माहौल में एक गर्मी की दुपहर को, जब घर के सभी लोग नींद और पसीने में डूबे हैं, बड़े भाई की आँख अचानक खुलती है और वह देखता है कि कोई छाया-सी पास से गुजरकर बाथरूम में घुसी है। बाथरूम का दरवाजा अंदर से बंद हो जाता है। वह घबराकर चिल्लाता है और सोते हुए पिता चौंककर उठ जाते हैं। बाथरूम में कोई है, यह सुनते ही बदहवास पिता भागकर बाहर से उसकी कुंडी लगा देते हैं और चीख-चीख कर कहने लगते हैं कि सब लोग दूर रहो, बम रखा होगा, वह कुछ भी कर सकता है। बाहर से लोग यह शोर-शराबा सुनकर इकट्ठा हो जाते हैं। कुछ ही देर में एक बड़ी भीड़ घर पर काबिज हो जाती है और एक आतंकवादी पकड़ा जा चुका है, इस उन्माद में 'पाकिस्तान हाय हाय' जैसे नारे लगने लगते हैं। एकाएक बड़े भाई और माँ को कुछ याद आता है। वे उस कोने की ओर देखते हैं जहाँ छोटा भाई किताबों में घुसा रहता है। वह वहाँ नहीं है। उनके होश उड़ जाते हैं। माजरा समझ में आ जाता है। अंदर वही छोटा भाई है, हर वक्त अपने में डूबा रहनेवाला, दुनिया से बेखबर, पढ़ाकू छोटा भाई! लेकिन अब मामला उनके हाथ से निकल चुका है। आतंकवाद से घृणा करनेवाली, अकारण भय और गुस्से की शिकार भीड़ को शांत करने और समझाने की कोशिशें नाकाम रहती हैं। कोई सुनने की स्थिति में ही नहीं है। पुलिस अविलंब मौके पर पहुँच जाती है। अंदर से छोटे भाई को निकाला जाता है जिसे आतंकवादी के रूप में पकड़ कर थाने ले जाया जाता है। तब तक भीड़ का एक हिस्सा समझ चुका है कि गलती हो गई है, लेकिन उसके समझाने का भी पुलिसवालों पर कोई असर नहीं पड़ता। उनके लिए वह आतंकवादी है। आखिरकार किसी तरह बड़े लोगों की मदद से उसे पुलिस की हाजत से वापस लाया जाता है। पर वहाँ की पूछताछ और मार-पीट के दौरान उसके सिर पर जो चोट लगी होती है, उसका दूरगामी असर तब सामने आता है जब धीरे-धीरे छोटे भाई की आँख और कान की शक्ति जाती रहती है। उसके भरोसे सपने देखनेवाला परिवार पिता के लाचार होने के साथ गाँव वापस लौट जाता है। अब वहाँ घर के बाहर की एक पलानी में लगभग अंधा और बहरा छोटा भाई पड़ा रहता है और घर के लोगों की मदद से उसकी ज़िन्दगी कटती है। बड़े भाई की शादी हो चुकी है। उसकी एक छोटी-सी बिटिया है जिसके बारे में स्कूल के शिक्षक कहते हैं कि वह पढ़ने में बहुत तेज है... बिल्कुल छोटे भाई की तरह।

यह 'भूलना' का सार किंवा कथा-सार है, मेरे हिसाब से। जिन्होंने कहानी पढ़ रखी है, उन्हें यह खासा नाकाफी लगेगा, बावजूद इसके कि इपंले ने इस कथा-सार को बताने में कुल 777 शब्द खर्च किए हैं; और जिन्होंने पढ़ी नहीं है, उन्हें इस कथा-सार को पढ़कर कहानी का वह सबसे आविष्ट क्षण, जहाँ पीछे का पूरा घटना-विकास एक विचलित कर देनेवाले अर्थ से प्रकाशित हो उठता है, विश्वसनीय नहीं लगेगा। जब विश्वसनीय ही न हो, तो कहाँ विचलित कर देनेवाला अर्थ और कहाँ उसका प्रकाश! तो कुल मिलाकर हम पाते हैं कि एक सघन घटनात्मक क1 की मौजूदगी के बावजूद कहानी की जान अकेले उसमें नहीं बसी है। कथावस्तु का प्रक्रिया-पक्ष और कहानी का प्रस्तुतीकरण-क्रमशः क2 और ख-उस महत्त्वपूर्ण क्षण को विश्वसनीय बनाने के लिए इतने ज़रूरी हैं कि उनके बिना कहानी का परिचय देने पर अधूरेपन का ही नहीं, एक उच्चतर दर्जे की विकलांगता का अनुभव होता है। साथ ही यह भी है कि मामला सिर्फ़ उस क्षण की विश्वसनीयता का नहीं है। मैंने कहा कि जिन्होंने कहानी पढ़ रखी है यानी जिनके लिए मेरे बताए हुए सार-संक्षेप में कथा-विकास की विश्वसनीयता तलाशना कोई मसला नहीं है, उन्हें यह कथा-सार खासा नाकाफी लगेगा। क्यों? यहाँ मैं पिछली किस्त की वह बात याद दिलाना चाहता हूँ: 'इस पीढ़ी का कहानीकार किसी भी घटना को अनेक कोणों से खंगालना चाहता है, कई तरह के निशाने और प्रक्षेप-पथ चुनता है, कहानी विधा के शास्त्रीय आग्रह के अनुरूप किसी एक ठिकाने पर वार करके संतुष्ट नहीं होता और ब्यौरों-विवरणों के मामले में ज़रूरत भर कह कर काम चलाने को बिल्कुल तैयार नहीं, बल्कि यों कहें कि ज़रूरत को लेकर उसकी समझ ही पहले के कहानीकारों से आमूलतः भिन्न है। वह सूचना और संचार के माध्यमों से जिस कदर घिरा हुआ है, उसके प्रति यह उसकी स्वाभाविक अनुक्रिया है।' 'भूलना' भी भटकाव का अहसास कराए बगैर एक साथ एकाधिक निशाने और प्रक्षेप-पथ चुनती है जो कि मेरे मॉडल के हिसाब से क1 के दायरे से बाहर पड़ते हैं, लेकिन जो इसी वजह से सापेक्षतः कमतर महत्त्व के नहीं हो जाते। अगर राकेश बिहारी को यह कहानी आतंकवाद को लेकर बनते मास-पॅरानोइया पर नहीं, बल्कि बेरोजगार किशोर-युवाओं की परिस्थितिजन्य विडंबनाओं पर केंद्रित प्रतीत हुई थी तो उसका कारण यही है।

तो क्या यह संभव है कि कहानी एक साथ कई निशाने और प्रक्षेप-पथ चुनती हो, फिर भी उसमें भटकाव का अहसास न हो? जब कहानी के दो सजग पाठक उसे बिल्कुल दो तरीके से पढ़ रहे हों, तो क्या यह अपने-आप में इस बात का पुख्ता सबूत नहीं है कि उसमें किसी केंद्रीय संगठन-सूत्र का अभाव है? इसका उत्तर यह है कि दो सजग पाठकों के दो तरीके से पढ़ने यानी दो अलग-अलग बलाघात चुनने का मतलब यह नहीं है कि दोनों तरीके या चुनाव अपनी-अपनी जगह सही हैं। मैंने कथावस्तु को क1 और क2 के योग के रूप में देखने की, या यों कहिए कि उसे, कृत्रिम रूप से ही सही, क1 औ क2 में बाँटकर देखने की जो प्रस्तावना की है, वह यहाँ मददगार है। क1, जैसा कि पीछे कहा जा चुका है, एक अंतिम परिणति में जाकर विसर्जित होता स्थूल घटना-विकास है और क2 उस घटना-विकास के बीच का विस्तार। यह बीच का विस्तार भी घटनाविहीन नहीं होता। यानी अगर क1 कथावस्तु का क्या हुआ वाला पहलू है और क2 कैसे हुआ वाला, तो इस कैसे का भी अपना क्या है। कैसे हुआ बताने में भी तो कहानीकार कुछ घटित होता हुआ दिखाता है; वह घटित ही कैसे का क्या है। इस घटित को आप जिस हद तक क2 की जगह क1 का हिस्सा मानेंगे, उसी हद तक कहानी के मुख्य बलाघात से-अगर कहानी कायदे की है और उसका कोई मुख्य बलाघात है तो-भिन्न बलाघात आपकी पढ़त में उभरेगा। आज की कहानी में यह क2 का घटित, यानी कैसे का क्या, बहुत समृद्ध और विस्तृत हुआ है और यही वह इलाका है जहाँ वह एक साथ कई निशाने साधती हुई, कई प्रक्षेप-पथ चुनती हुई दिखाई देती है। पर यह तब तक भटकाव का प्रमाण नहीं है, जब तक कहानी में एक सिलसिलेवार क1 को पाया / चिह्नित किया जा सकता है और बची हुई घटनाओं, कार्यव्यापारों, सूचनाओं की क2 के तौर पर पहचान की जा सकती है। अगर हम ऐसा नहीं कर पाते तो यह दो कारणों से हो सकता है- (1) कहानी में सचमुच गड्डमड्डकारी भटकाव अर्थात् संगठन-सूत्र का निरा अभाव हो; (2) कहानी की जटिल संरचना सही पढ़त के लिए जिस तरह की पाठकीय योग्यता या अवधान की माँग करती है, वह हममें न हो।

'भूलना' के प्रसंग में मैं बहुत विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि अगर आप उसमें क1 और क2 की अलग-अलग पहचान नहीं कर पाते हैं तो इसका कारण पहला नहीं, दूसरा होगा और अगर आप इसके क1 की पहचान कर पाते हैं तो निश्चित रूप से उसके केंद्र में कहानी का वह सबसे मार्मिक, सबसे आविष्ट और सर्वाधिक विचलित कर देनेवाला क्षण होगा जो पीछे बताए गए कथा-सार के केंद्र में भी है। आप उक्त कथा-सार में और जितना कुछ भी जोड़ना या घटाना चाहें, कम से कम छोटे भाई के ऊपर घर की उम्मीदों का भार, घर के लोगों के बीच उसकी अनुपस्थित-सी उपस्थिति, भूलने की एक नामालूम-सी प्रक्रिया, शहर में आतंकवाद को लेकर फैलाया जा रहा मनोरोगात्मक शक्कीपना, फिर इस पूरी पृश्ठभूमि में बाथरूम में छोटे भाई के बंद हो जाने और आतंकवादी के रूप में पकड़े जाने का स्तब्धकारी प्रसंग और पुलिसिया इन्टेरोगेशन के दौरान आई सिर की चोट से अंततः उसका अंधा और बहरा हो जाना-इतनी चीजों को आप किसी भी सूरत में घटा नहीं सकते और अगर यही है जिसे हर कथा-सार में अनिवार्यतः मौजूद रहना है, तो इसका मतलब, आतंकवाद के नाम पर बने मास पॅरानोइया से उपजी एक पारिवारिक त्रासदी कहानी के केंद्र में है।

लेकिन जो चीज कहानी के केंद्र में है, उसकी तीव्रता, विश्वसनीयता और मकड़जाल सरीखी जटिलता के उपस्थापन के लिए कहानी अनेक प्रसंगों और युक्तियों का सहारा लेती है। ये क्रमशः कहानी का क2 और ख हैं जहाँ आप पाते हैं कि अगर मास पॅरानोइया उस पारिवारिक त्रासदी का सबसे निकटस्थ कारण है तो साथ ही उससे थोड़ी ही दूरी पर खड़े दूसरे कारण भी हैं और यह त्रासदी अंततः इन सभी कारणों के जटिल जंजाल की पैदावार है।

कहानी 'मैं' शैली में है और वाचक है, उस परिवार का बड़ा लड़का। कहानी का वर्तमान कहानी की मुख्य घटना के हो चुकने के बाद का है। शुरुआत बेतुकी (एब्सर्ड) शैली में होती है (ध्यान रखें, यहाँ मैं प्रस्तुति की शुरुआत की बात कर रहा हूँ, कथा की शुरुआत की नहीं) । वाचक आपके सामने कुछ ऐसे बेतुके प्रसंग रखता है जिनसे कम-से-कम दो चीजें बहुत साफ तौर पर उभरती हैं-एक, अपने भुलक्कड़पन के प्रति उसकी अतिरिक्त सजगता और दो, बेरोजगारी तथा बदहाली की पीड़ा जिसे बेतुकेपन में निहित हास्य का सहारा लेकर सहनीय बनाया जा रहा है। ये दोनों चीजें ऐसी हैं जिनका सम्बंध उस त्रासदी से है जिससे वाचक का परिवार गुजरा है और गुजर रहा है, लेकिन जिसके बारे में अभी कहानी खामोश है। वे अगर गुलशन (छोटे लड़के) को भूलते नहीं तो यह हादसा न हुआ होता और अगर उनकी बदहाली गुलशन के ऊपर उम्मीदों का इतना बड़ा बोझ न लादती तो वह घर में रहकर भी न रहने जैसी स्थिति को प्राप्त न हुआ होता। लिहाजा, बदहाली और भूलना, गुलशन के साथ जो हुआ उसके कारणों में शामिल हैं और इनमें आपस में भी एक कारणता सम्बंध है। वाचक और उसके परिवार के सदस्यों में अपने को गुलशन की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार मानने का अपराध-बोध है और हालाँकि उस अपराध-बोध को कहानी में थोड़ा आगे चलकर स्पष्ट होना है, कहानीकार गुलशन के दुर्भाग्य का और वाचक के अपराध-बोध का कोई हवाला दिए बिना कहानी की शुरुआत में ही बदहाली और भुलक्कड़ी के रूप में उस बोध के दो स्तंभों की पेशबंदी (फोरग्राउंडिंग) करता है। वाचक की ओर से देखें तो यह अपनी दो ऐसी कमियों के प्रति एक तरह की मनोग्रस्ति / 'आब्सेशन' है जिनकी उसके पारिवारिक जीवन में एक बेहद क्रूर भूमिका रही है, भले ही फिलहाल वह उस क्रूर भूमिका की कोई चर्चा न कर रहा हो। कहानीकार की ओर से देखें तो इस पेशबंदी के माध्यम से पाठक को उस चीज के लिए तैयार किया जा रहा है जिससे कहानी के सबसे महत्त्वपूर्ण क्षण को 'कन्विंसिंग' बनकर उभरना है।

पर गौर करें तो यहाँ पेशबंदी दो नहीं, तीन चीजों की है। तीसरी चीज है वह बेतुकापन / 'एब्सर्डिटी' , जो भुलक्कड़ी और बदहाली को व्यक्त करने की युक्ति बनकर आती है, पर सिर्फ़ युक्ति नहीं रह जाती, स्वयं एक बड़ा कथ्य बन जाती है। कथ्य इसलिए कि वह हमारे समाज में व्याप्त और निरंतर वर्द्धमान उस बेतुकेपन की ओर एक अतिशयोक्तिपूर्ण संकेत है जिसका गहरा सम्बंध गुलशन के दुर्भाग्य के साथ है। कोई व्यक्ति अपने ही घर के बाथरूम में आतंकवादी होने के संदेह में बंद कर दिया जाए और अँधेरे में तीर छोड़ती एक चरम देशभक्त भीड़ का शिकार बने और लोगों द्वारा अपनी गलतफहमी को महसूस करने-कहने के बावजूद पुलिस पूरी संजीदगी से उसे बतौर आतंकवादी पकड़ ले जाए और गुलशन को गुलफाम बनाकर उससे पूछताछ करने लगे-इससे बड़ा बेतुकापन और क्या होगा! और ऐसा नहीं कि यह बेतुकापन हमारा जाना-पहचाना न हो। यह हमारे समाज में रोज घट रहा है। सोचिए, यह कितना एब्सर्ड है कि एक भीड़ किसी आदमी के घर से उसे खींच कर पीटते-पीटते इसलिए मार डालती है कि उस पर एक ऐसे पशु का मांस पकाने का संदेह है जिसे वह भीड़ पवित्र पशु मानती है और गजब यह कि उसके बाद उसके घर से उस पशु का मांस बरामद भी नहीं होता! यह कितना एब्सर्ड है कि इस भूमंडल का सबसे ताकतवर मुल्क दूसरे पर हमला करके अकल्पनीय जनसंहार को अंजाम देता है, बस्तियों की बस्तियाँ और सदियों पुरानी सभ्यता की निशानियाँ नेस्तनाबूद कर देता है, सिर्फ़ इस संदेह की बिना पर कि उस दूसरे मुल्क के पास जनसंहार के रासायनिक हथियार हैं और गजब यह कि सब कुछ करने के बाद उसके पास से रासायनिक हथियार बरामद भी नहीं होते! व्यक्ति से लेकर एक मुल्क, एक सभ्यता तक को बेतुकी वजहों से जिस तरह नेस्तनाबूद किया जा सकता है, वह हमारे रोजमर्रा का अनुभव बन चुका है। 'भूलना' अंततः ऐसे ही बेतुकेपन की कहानी है और उसकी शुरुआत का बहुत उभरा हुआ, बेहद मुखर बेतुकापन हमें दुनिया के वास्तविक बेतुकेपन को पहचानने के लिए तैयार करता है।

शुरुआत में ही आप जिनसे रू-ब-रू होते हैं, वे तीनों चीजें कहानी के आगे बढ़ने के साथ मुख्य घटनाक्रम के संदर्भ में अपनी अहमियत उजागर करती जाती हैं। आप पाते हैं कि चेतना-प्रवाही प्रलाप सरीखे इस शुरुआती हिस्से के बाद कहानीकार अचानक हमें आतंकवाद को लेकर बनाए जाते मास पॅरानोइया की ओर मोड़ देता है। यह अचानक है, पर अटपटा नहीं। बेटी के स्कूल से मिला आतंकवाद सम्बंधी प्रश्नपत्र और अक्षयवर चाचा के रिक्शे का टायर बोल जाने की घटना-ये दो प्रसंग ऐसे हैं जो बिना किसी वाचकीय टिप्पणी / व्याख्या के हमें यह सोचने पर विवश करते हैं कि लोगों की भूख, हारी-बीमारी और आत्मबल के क्षय का हल दे पाने में अक्षम व्यवस्था किस तरह उन्हें उलझाने और सही मुद्दों से भटकाने के लिए झूठे मुद्दों का जंजाल खड़ा करती है। इसके लिए वाचक द्वारा प्रस्तुत किसी व्याख्या की ज़रूरत क्यों नहीं पड़ती? इसलिए कि वह हमें वाजिब मुद्दों से पहले ही रू-ब-रू करा चुका है और अब जब वह ऐसी घटनाओं के द्वारा, जिनकी ऐब्सर्डिटी रचनाकार के हाथों गढ़ी हुई किसी विकृति का परिणाम नहीं है, एक खोखले मुद्दे को सामने लाता है, तो उस मुद्दे की प्रकृति और भूमिका अनायास एक अहसास की तरह हमारे अंदर उतर जाती है। यह मुद्दा है आतंकवाद का।

मैंने कहा, ऐसी घटनाएँ जिनकी ऐब्सर्डिटी रचनाकार के हाथों गढ़ी हुई किसी विकृति का परिणाम नहीं है। ऐसा इसलिए कहा कि कहानी के शुरुआती हिस्से में उसने बहुत मजेदार तरीके से एक बेतुकी घटना का वर्णन किया था जिसका बेतुकापन फैंटेसी की तरह था, अर्थात् अपने फ़ॉर्म में गैर-यथार्थवादी और ऐसी विकृति पर निर्भर जो रचनाकार के हाथों गढ़ी गई है। राज्य के सर्वेसर्वा लखनऊ से शताब्दी एक्सप्रेस में अपनी प्रेमिका के साथ दिल्ली जानेवाले हैं, प्रेमिका की नाक पर उग आई फुंसी का इलाज कराने। शताब्दी की हेडलाइट फूट जाती है और प्रेमिका मुँह फुलाकर बैठ जाती है। लिहाजा सरकार आनन-फानन में एक भर्ती खोल देती है। 'उसमें उम्र की कोई सीमा नहीं थी। बस आप दौड़नेवाले हों। काम बस इतना ही था कि माथे पर गैस-बत्ती लेकर शताब्दी एक्सप्रेस के आगे-आगे दौड़ना था। सभी दौड़नेवालों को दस हजार प्रति मिनट मिलता।' इसी अंदाज में यह घटना आगे चलती है। वाचक यह बताते-बताते अपनी हसरत बयान करने लगता है: 'मैं भी अगर लखनऊ रहा होता और अगर दो मिनट भी दौड़ लेता तो बीस हजार रुपये। बाप रे! बीस हजार रुपये! पाँच-छह साल का खर्च तो निकल ही आता और अगर एक हाथ या पाँव के कट जाने की कीमत पर अगला आधा मिनट भी दौड़ लेता तो ऊपर से पाँच हजार और... अगे मा गो!' इस प्रसंग में एक स्वप्न-सरीखी अतार्किकता है। इसे ही मैं गढ़ी हुई विकृति कह रहा हूँ, जो अतिशयोक्ति का उपयोग करते हुए सामाजिक-राजनीतिक दायरों में फैले हुए सचमुच के बेतुकेपन की ओर हमारा ध्यान खींचती है।

बाद में आतंकवाद का प्रसंग आने पर हम अपने को जिस बेतुकेपन के सामने पाते हैं, उसमें कोई गढ़ी हुई विकृति या अतिशयोक्ति नहीं है, स्वप्न / फैंटेसी सरीखी अतार्किकता नहीं है। वह अपने कथ्य में ही नहीं, रूप में भी यथार्थवादी है, यानी वास्तविक जीवन के बेतुकेपन जैसा। वाचक की नन्ही-सी बिटिया को उसके स्कूल से एक पर्चा मिला है, जिसे भरना है और सटीक उत्तर मिलने पर ट्रॉफी और सर्टिफिकेट मिलने की बात है। पर्चा इस प्रकार है:

आतंकवाद: देश का अभिषाप

(जागरूक देशभक्तों के लिए कुछ यक्षप्रश्न)

1. आतंकवाद क्या है?

उत्तर-

2. आतंकवाद से राष्ट्र को क्या नुकसान है?

उत्तर-

3. आतंकवादियों की पहचान क्या है?

उत्तर—

4. अगर कहीं आतंकवादियों का सामना हो जाए तो आप क्या करेंगे?

उत्तर-

सहयोग-राशि: दो रुपये मात्र।

(हस्ताक्षर)

अध्यक्ष, संग्राम सेना

यह कक्षा दो या तीन की एक बच्ची को भरने के लिए दी गई प्रश्नावली है! और इसके साथ ट्रॉफी और सर्टिफिकेट का लोभ! इसे पढ़ते हुए आपके जेहन में ऐसी अनगिनत चीजें कौंध सकती हैं जो बेहद कच्ची उम्र से हमारे अंदर एक मनोरोगात्मक शक्कीपने को गढ़ने लगती हैं; और ऐसी ही क्यों, वे तमाम चीजें भी, जो अनगिनत स्तरों पर अनगिनत विमर्शों के रास्ते व्यवस्था के एक अनुशासित अनुयायी के रूप में हमारी विचारधारात्मक गढ़त का काम करती हैं। वे सारे 'जागरूक देशभक्त' , जिन्हें जेएनयू को देशद्रोहियों और आतंकवादियों का अड्डा मान लेने में कोई उलझन नहीं हुई, इसी प्रक्रिया की पैदावार हैं! इस तरह कहानी के इस प्रसंग के साथ हमारे सामने एक ऐसा परिदृश्य निर्मित होने लगता है जो एक साथ हास्यास्पद और भयावह, दोनों है। हास्यास्पद अपने बेतुकेपन में और भयावह अपने नतीजों में।

बेटी को मिले इस पर्चे के उल्लेख के बाद वाचक लगभग अंधे और पूरी तरह से बहरे अपने भाई गुलशन के बारे में सोचता है और यहीं कहानी चुपके से अतीत की ओर खिसक जाती है। अब आपके सामने गुलशन के अंधा-बहरा बनने का इतिहास खुलना शुरू होता है। आप वाचक के साथ बनारस के उस निम्नवर्गीय मुहल्ले में पहुँचते हैं जहाँ 'आतंकवाद का मजाक, आतंकवाद की गाली, आतंकवाद का खेल, सब चलता रहता' था और फिर मुहल्ले के उस एक कमरे के घर में दाखिल होते हैं जहाँ बुनियादी ज़रूरतों के लिए संघर्ष करते एक परिवार ने अपने सबसे छोटे लड़के के अच्छे परीक्षा-परिणामों को देखकर उसके बल पर अमीर बन जाने की 'क्रूर ख्वाहिश' पाल ली थी। एक ओर आतंकवाद का हौवा, दूसरी ओर गरीबी में पलते सपने। दोनों कतई अलग-सी दिखनेवाली चीजों के बीच यहाँ कोई जोड़, कोई सीवन दिखाई नहीं पड़ती। ये मिलकर ऐसी संपूर्णता का निर्माण करती हैं जिसमें वाजिब और छद्म, दोनों तरह के मुद्दे एक-दूसरे को समझने का ज़रूरी संदर्भ बन जाते हैं। किसी अतिरिक्त बलाघात के बगैर भी कहानी आपको यह महसूस कराने में सक्षम है कि जो व्यवस्था आम आदमी की हद दर्जे की तंगहाली का कोई समाधान नहीं दे सकती, वही अपनी नालायकी की ओर से उसका ध्यान भटकाने के लिए ऐसे हौवे खड़े करती है। निस्संदेह, हौवे हवा में खड़े नहीं होते। उनके नीचे भी ठोस जमीन तो होती ही है। पर वह जमीन व्यवस्था के लिए एक सहारा बन जाती है, क्योंकि उसी के बल पर दारुण परिस्थितियों में पलती जनता के गुस्से को ठीक दिशा में लक्षित होने से रोका और दूसरी दिशा में मोड़ा जा सकता है। 'भूलना' वाजिब और छद्म के इस रिश्ते की कहानी भी है जहाँ आम आदमी के दिमाग में बनती प्राथमिकताओं के स्तर पर दूसरा वाला पहले वाले को प्रतिस्थापित करता है।

'भूलना' की खासियत है कि यहाँ कुछ भी इकहरा नहीं है। जिस तरह जीवन में, उसी तरह इस कहानी में आप सीधा-सरल, एक-एक्कम-एक जैसा कारण-कार्य-सम्बंध चिह्नित नहीं कर सकते। या यों कहें कि यह कहानी हमें जीवन को उस रूप में देखने के लिए तैयार करती है जिसमें सीधे-सरल कारणता सम्बंध का कोई स्थान नहीं है। व्यवस्था और मनुश्य, (वर्चस्वशाली) विचारधारा और समाज, शोषक और शोषित-यथार्थ में इनके रिश्ते बेहद जटिल हैं और यह कहानी 'जीवन की पुनर्रचना' करते हुए इनका सरलीकरण नहीं करती। इसीलिए पठन के दौरान गुलशन की त्रासदी तक जाते कितने ही धागे हमारी उँगलियों में उलझते जाते हैं और कहानी खत्म करने के बाद हम पाते हैं कि हर उँगली को हिलाने पर उस त्रासदी की अंतर्वस्तु में कहीं कुछ हरकत होती है। उनमें से एक धागा निम्नवर्गीय परिवार की तंगहाली का है। दूसरा मीडिया और राज्यतंत्र द्वारा फैलाए गए आतंकवाद के हौवे का है। तीसरा पारिवारिक सपनों के बोझ के नीचे कुंठित होते कैशोर्य का है। चौथा भूलने की एक जटिल प्रक्रिया का है, जो जितनी जमीन के बाहर है उतनी ही अंदर भी। चंदन पांडेय की कल्पना ऐसे कई धागों से गुँथी-बँटी रस्सी जैसी है, जिनमें से हर धागे के भी अपने कई रेशे हैं। कहानी के जिस हिस्से में वाचक इस पर विचार करता है कि घर के लोग गुलशन को क्यों भूलते जा रहे थे, सिर्फ़ उसे ही देख लें तो सीधी-सरल व्याख्याओं को खारिज करनेवाले इस कहानीकार के मिजाज का अंदाजा लग जाएगा:

' अब तो हम सबने तमाम कारण इकट्ठा कर लिए हैं और जब जैसा मौका आता है, हम उस हिसाब से उन कारणों में से किसी एक को अपने मन से बाहर लाकर उस पर सोचने लगते हैं। उस वक्त बाकी बचे कारणों को हम अपने भीतर ही कहीं दबाए रखते हैं।

गुलशन को भूलने का जो सर्वाधिक तसल्ली देनेवाला कारण था वह यह कि घर के जिस कोने में उसने खुद को अपनी किताबों समेत जमा रखा था, वह घर का सबसे अंधियारा कोना था।

दूसरा कारण यह कि... उसने बोलना चालना और कोई हस्तक्षेप करना बिल्कुल ही छोड़ दिया था।

या इसलिए कि हम निश्चिंत थे कि वह जो कुछ कर रहा था, हमारे मन की कर रहा था।

या फिर हम अपने-अपने काम करने में व्यस्त रहते ही थे, उसके इतर हम हमेशा कुछ ज़्यादा करने की सोचते थे-पिताजी सिनेमा की टिकटें ब्लैक करने की सोचते रहते थे, माँ बर्तन-पोंछा के लिए दूसरे घर तलाशती रहती थीं और मैं और सीमा नींद में तनख्वाह पा रहे थे।

हम हद से ज़्यादा व्यस्त थे।

या फिर मुझे लगता है कि हमें ही 'कुछ हो गया' था। हम किसी अनवरत शोर के शिकार हो गए थे, जो हमें अतिरिक्त कुछ भी सुनने नहीं देता था। ठीक इसी तरह दृश्यों का भी घमासान हमारे भीतर मचा होता था। '

यह प्रसंग यहीं खत्म नहीं होता। आगे 'कुछ हो जाने' और 'दृश्यों का घमासान मचा होने' की भी, अपने अनुभवों के सहारे, लंबी व्याख्या है। इसे ही मैं इकहरेपन को खारिज करता कथा-कौशल मानता हूँ और यह बात जितनी प्रसंग विशेष पर लागू होती है, उतनी ही पूरी कहानी पर भी। इससे हुआ यह है कि कहानी का प्रक्रिया-पक्ष राज्य, मीडिया, शिक्षा, समाज, परिवार और व्यक्ति के सम्बंधों की संश्लिष्टता का एक असरलीकृत नमूना (सैंपल) बन गया है।

पर कारणों और सम्बंधों की जटिलता में उतरने का मतलब मार्मिकता को बौद्धिकता की वेदी पर कुर्बान कर देना नहीं है। वस्तुतः जटिलताओं और मार्मिकता में कोई द्विचर विरोध नहीं है, यह बात इस कहानी को पढ़कर समझी जा सकती है। अतीत की ओर मुड़ने के बाद से पूरी कहानी एक जिए-भोगे हुए अनुभव जैसी प्रतीत होती है, अपनी प्रथम पुरुष शैली के औचित्य को सिद्ध करती। आप लगभग दम साधे पढ़ते जाते हैं। 'ऑब्जर्वेशंस' इतने सूक्ष्म और तीक्ष्ण हैं कि आप बार-बार अपने सामने ऐसी स्थितियों को गाढ़े रंगों में उभरता हुआ पाते हैं जिन्हें आपने कभी देख कर भी अनदेखा कर दिया था। कहानीकार की इसी क्षमता के कारण वाचक की ही नहीं, माँ, पिता और गुलशन की चरित्र-रेखाएँ भी बहुत उभरी हुई हैं। वह कुछ ही 'स्ट्रोक्स' में इन चरित्रों से आपका गहरा परिचय करा देता है। उदाहरण के लिए, उस प्रसंग से लिया गया एक अंश देखिए जहाँ वाचक यह बता रहा है कि गुलशन अपनी पढ़ाई में डूबता हुआ कैसे चुप्पा होता चला गया:

'खाने के ही लें, उन दिनों जब कभी माँ गुलशन से कुछ दुबारा परोसने के लिए पूछती तो वह या तो सिर नहीं डुलाता, या कभी' हाँ'में डुलाता कभी' नहीं'में डुलाता। पर इसका यह मतलब कतई नहीं होता था कि अगर वह' हाँ'में सिर डुलता तो उसे कुछ चाहिए-ही-चाहिए या फिर वह' ना'में सिर डुलाता तो उसे कुछ भी नहीं चाहिए होता था। वह गायब भी नहीं होता था। दरअसल सिर नहीं डुलाते हुए, सिर' हाँ'में डुलाते हुए, या सिर' ना' में डुलाते हुए गुलशन माँ से नहीं, अपने भीतर के किसी प्रश्न से मुखातिब रहा करता होगा।

हम इस बात को बहुत बाद में समझे थे। माँ ने उस दिन छठ का परना (पूर्वाहुति) किया था और हमें खाने में सब्जी और प्रसाद का ठेकुआ मिला था। माँ ने गुलशन से पूछा था-ठेकुआ और दें? गुलशन ने 'हाँ' में सिर हिलाया था। पर माँ के ठेकुआ परोसते ही गुलशन ने माँ की तरफ देखते हुए कहा था-'अरे...!' 'अरे' कहने के बाद, मुझे याद है, उसने सिर नीचे करके 'च्च' कहा था। '

इसी तरह गुलशन के पकड़े जाने के बाद माँ की हालत बयान करनेवाले हिस्से अद्भुत हैं जो अपनी मार्मिकता और उसे रचनेवाले जीवनावलोकन से एक साथ आपको भावविह्वल और चकित करते हैं। गुलशन की माँ लोगों के अनुसार किसी 'देशभक्त' की नहीं, 'आतंकवादी-फातंकवादी, चोर-चिकारे' की माँ है, इसलिए उसे दहाड़ें मारकर नहीं, छुप-छुपकर रोना है-इस मार्मिक स्थिति के ऐसे विवरण हमारे सामने आते हैं कि असंख्य निरपराध युवाओं की माँओं का एक छुपा हुआ संसार जैसे आँखों के सामने आ जाता है। वह राष्ट्रद्रोही करार दिए गए रोहित वेमुला, कन्हैया कुमार या उमर खालिद की माँ भी हो सकती है, वह फिदायिन आतंकवादी करार दी गई इशरत जहाँ की माँ भी हो सकती है, वह भारतीय राज्य द्वारा संदेह की बिना पर गिरफ्तार किए गए किसी भी युवक-युवती की माँ हो सकती है। कहानियाँ इसी तरह हमें अपनी वास्तविक दुनिया को देखने की अधिक बेधक दृष्टि सौंपती हैं।

'भूलना' आज से दस साल पहले प्रकाशित हुई थी। वह विकट और भयावह परिदृश्य, जिसे प्रभात पटनायक 'मोजाइक फासिज्म' कहते हैं और जिसके भीतर सत्ता-शीर्ष पर फासीवाद के आगमन लिए अनुकूल आबोहवा पिछले वर्षों में लगातार तैयार होती रही है, इस कहानी में अपनी अनेक जटिलताओं के साथ मौजूद है। आज-जबकि फासीवाद के आने में थोड़ी कसर भले ही रह गई हो, फासीवादी सत्ता-शीर्ष पर काबिज हैं-इस कहानी के बारे में इतना कुछ कहने के बाद भी यह महसूस होता है कि यहाँ कुछ ऐसा है जो आज के हालात को समझने की दृष्टि से बहुत खास है और जो अभी भी इस विश्लेषण की जद में पूरी तरह आने से रह गया है। ज्वेतान तोदोरोव के शब्दों में यही कहना होगा 'किसी कृति का सर्वोत्तम संभव वर्णन स्वयं वह कृति ही होती है: पूरी तरह मुकम्मल और निःशेष'। 24 साल के एक युवा कहानीकार से ऐसी गहरी रचना की उम्मीद सामान्यतः नहीं की जाती। कहीं-कहीं कच्चापन भी है (जैसे, 'मुझे याद है' की टेक बार-बार दुहराना) , कुछ असावधानियाँ भी हैं (जैसे, गुलशन के दीवार की ओर मुँह करके पढ़ने को एक जगह उसका सामान्य अभ्यास और दूसरी जगह एक खास समय पर होनेवाली शुरुआत बताना) , लेकिन स्वीकार करना चाहिए कि कहानी की समग्र कल्पना के आगे उसकी विसंगतियाँ नगण्य हैं। एक बड़ा कथा-विचार शैली और ब्यौरों के ऐसे कई दोषों को पचा जाता है।