'कोेनेस्टी' मायने क्या होता है? / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 16 सितम्बर 2014
महान शायर कैफी आजमी की पत्नी शौकत आैर उनकी बेटी शबाना आजमी की कला से सभी परिचित हैं परंतु कैफी आजमी के सुपुत्र बाबा आजमी हमेशा परदे के पीछे ही रहे हैं, यों भी सिनेमेटोग्राफर कैमरे के पीछे ही रहता है। बाबा आजमी ने दर्जनों सफल फिल्मों का छायांकन किया है आैर इंदर कुमार की अनेक फिल्मों में उनका सहयोग सराहनीय रहा है। बाबा आजमी की पत्नी तन्वी भी रंगमंच पर बढ़िया काम करती रही हैं, उनकी माता ऊषा किरण कभी सार्थक फिल्में जैसे अमिया चक्रवर्ती की 'पतिता' की नायिका रही हैं, बहरहाल यह पूरा परिवार सृजनशील रहा है आैर शबाना के पति जावेद अख्तर भी अनेक सतहों पर सक्रिय रहे हैं तथा उनकी पहली पत्नी हनी इरानी से जन्मे फरहान अख्तर एवं जोया भी सक्रिय हैं आैर सितारा हैसियत रखते हैं। इसे सिनेमा में आजमी घराना कह सकते हैं। विगत कुछ वर्षों से बाबा आजमी कैमरे के पीछे सक्रिय नहीं रहे हैं। टेक्नोलॉजी द्वारा लाए गए परिवर्तन के कारण यह मिथ्या धारणा फैल जाती है कि उस जमाने के तकनीशियन नई मशीनों का उपयोग नहीं कर पाएंगे। टेक्नोलॉजी कुछ भी करे परंतु मूलभूत सिद्धांत कि एक सेकंड में 24 फ्रेम होती है तो नहीं बदलेगा। मशीन फिल्म नहीं रचती, मशीन चलाने वाला रचता है। उसके साथ ही इसे 'युवा युग' प्रचारित करके अनुभव को रद्दी की टोकरी में फेंका जा रहा है।
सिनेमा ही नहीं सभी क्षेत्रों में 'युवा वय' को एक प्रीमियम प्रोडक्ट बना दिया गया है, एक 'ब्लू चिप' बनाया गया है। बहरहाल बाबा आजमी ने 29 मिनिट की एक लघु फिल्म बनाई है जिसमें एक अपहरणकर्ता आैर अपहरण किए गए युवा के बीच का वार्तालाप है। बाबा आजमी ने कथा फिल्म के लिए पटकथा लिखी है परंतु वे कई कारणों से फिल्म नहीं बना रहे हैं। यह भी संभव है कि वे अपनी पटकथा की किसी गुत्थी को सुलझा नहीं पा रहे हैं। लगभग सारे सफल फिल्मकारों ने कुछ पटकथाएं बनाई परंतु फिल्मांकन नहीं किया। कवि आैर लेखक भी अपने कई विचारों को खारिज करते रहते हैं। दरअसल अपने ही काम को खारिज करना सृजन प्रक्रिया का हिस्सा है। हमारी पाचन क्रिया में भी खारिज अर्थात अस्वीकृत की महत्वपूर्ण भूमिका है। सिनेमा में तो पांच शॉट लेने पर एक ही शॉट सही मिलता है। कई बार तो पचास के बाद सही मिल पाता है। सिनेमा शास्त्र का ही कड़वा सच यह भी है कि बहुत मेहनत से लिए शॉट को भी संपादन मेज पर खारिज करना पड़ता है, क्योंकि वह फिल्म के समग्र प्रभाव में बाधा बन रहा है। मसलन सत्यजीत रॉय ने "पाथेर पांचाली' में बरगद के पत्तों से छनकर अपु के चेहरे पर गिरती रोशनी का शॉट संपादन में इसलिए हटा दिया है कि यथार्थवादी प्रभाव में इस 'सौंदर्य' के लिए स्थान नहीं था। इसी तरह जीवन के सभी भागों में खारिज अर्थात अस्वीकृत अर्थहीन नहीं है। वह उस प्रक्रिया का हिस्सा है जो सार्थकता देती है।
बहरहाल बाबा आजमी ने अपनी लघु फिल्म का नाम "कोनेस्टी' रखा है जो कोई मान्य शब्द नहीं है परंतु बाबा आजमी का ख्याल है कि वर्तमान में कॉन (Con) अर्थात धोखा देने का काम बड़ी लगन से किया जाता है आैर 'विश्वासघात' को भी बड़ी कलात्मकता से किया जाता है। उन्होंने अंग्रेजी के कॉन आैर ऑनेस्टी को जोड़कर इस नाम को रचा है। चार्ल्स डिकेन्स ने अपने 'ऑलिवर ट्विस्ट' में एक इसी तरह कलात्मक रूप से धोखा देने वाले पात्र को 'आर्टफुल डोजर' कहकर वर्णित किया है। आज यह धोखाधड़ी व्यापक स्तर पर की जा रही है आैर अनेक लोग कल्पना ही नहीं कर पा रहे हैं कि किस पैमाने पर यह काम हो रहा है। ऐसा घटारोप रचा है कि सत्य का सूर्य ही नजर नहीं आता। यह 'कॉन गेम' राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर खेला जा रहा है। अंग्रेजी में एक नाटक है 'स्कूल फॉर स्काउन्ड्रल' आज वह 'स्कूल' विश्वविद्यालय बन गया है।
मारिया पुजो अपनी किताब 'गॉडफादर' का प्रारंभ ही इस बात से करते हैं कि सारे भव्य आैद्योगिक घराने आैर कॉरपोरेट्स की नींव ही अपराध पर रखी गई है। भारतीय पीनल कोड में इसे धारा 420 के तहत रखा गया है आैर इसी आधार पर ख्वाजा अहमद अब्बास ने राजकपूर के लिए 'श्री 420' लिखी थी और यह सम्मानजनक "श्री' को '420' से जोड़ना ही बहुत कुछ कहता है। सन् 54 की यह फिल्म है परंतु बाद के दशकों में ये लोग 'श्री' से भी ऊंचे सम्मान सूचक संबोधन के हकदार हो गए हैं। दरअसल आज 'सम्मान' भीकिसी 'फैक्टरी' में मेन्यूफैक्चर हो रहा है।