'क्वीन' और 'राजकुमार' पुन: साथ में / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 12 जून 2018
क्वीन कंगना रनौत और अभिनेता राजकुमार राव फिर एक बार साथ-साथ काम कर रहे हैं। फिल्म 'मेंटल है क्या?' लंदन में शूट की जा रही है। सनकी व्यक्ति को 'मेंटल' कहना शुरू किया गया सलमान खान अभिनीत 'क्योंकि' से। प्राय: शोध करने वाले सनकी माने जाते हैं। हमारी विचार प्रक्रिया में सामाजिक व्यवहार के कुछ नियम हैं, कुछ कायदे हैं, जिनके दायरों से बाहर आने वाले को हम सनकी अर्थात मेंटल कहने लगते हैं। सुकरात, न्यूटन, आइंस्टीन इत्यादि विचारकों को उनके कालखंड में सनकी ही कहा गया। इरविंग वैलेस की एक पुस्तक का नाम है 'स्क्वैयर पेग्स : सम अमेरिकन्स हू डेयर्ड टू बी डिफरेंट'। स्क्वैयर पेग इन राउंड होल' अंग्रेजी का मुहावरा है अर्थात किसी चौकोर आकार की वस्तु को किसी गोल खाने में जमाने प्रयास करना। इस तरह लोगों को मिसफिट भी कहा जाता है और इसी नाम की मर्लिन ब्रैंडो अभिनीत फिल्म भी बनी है। दरअसल, दिल की बात को कहने वाले व्यक्ति को प्राय: गलत समझा जाता है। साथ ही यह भी सच है कि हमारे सामाजिक आचरण की आधारशिला सत्य नहीं है, भले ही हमारा मंत्र 'सत्यमेव जयते' ही क्यों न हो?
गुजरे जमाने के सितारे राजकुमार को सनकी माना जाता था। यह बात मौजूदा राजकुमार राव के बारे में नहीं है। उनके सनकीपन के किस्से चटखारे लेकर सुनाए जाते हैं। ज्ञातव्य है कि इन्हीं राजकुमार ने 'मदर इंडिया' में नरगिस के पति की भूमिका का निर्वााह किया था। अभिनेता बनने के लिए उन्होंने पुलिस इंस्पेक्टर पद से इस्तीफा दिया था। संवाद अदायगी की उनकी शैली अत्यंत लोकप्रिय हुई थी। वे मुंहफट भी माने जाते थे। जब बलदेवराज चोपड़ा की फिल्म वक्त सफल हुई तो उन्होंने फोन पर बलदेवराज चोपड़ा से कहा, 'जॉनी, सुना है कि आजकल तुम हमारे जूते की खा रहे हो।' उस फिल्म में उन्होंने सफेद रंग के चमड़े के जूते पहने थे। उन्होंने मुंबई से अस्सी किलोमीटर दूर एक फार्महाउस खरीदा था, जहां जाने के लिए नाव द्वारा कुछ दूरी तय करना पड़ती थी। उन्होंने सड़क द्वारा उसे जोड़ने के सारे प्रयास विफल कर दिए थे। संभवत: कमार अमरोही की फिल्म 'पाकिज़ा' की स्मृति वे बनाए रखना चाहते थे, जिसमें नाव पर गीत फिल्माया गया था 'चलो दिलदार चलो, चांद के पार चलो।'
क्वीन कंगना भी अपने मन की ही सुनती हैं और किसी वैचारिक ढांचे को स्वीकार नहीं करती। संभवत: उनके कड़े संघर्ष ने उन्हें ऐसा बना दिया है। वे फुटपाथ पर भी भूखे पेट सोई हैं। वे अच्छे-खासे मध्यम वर्ग की कन्या हैं परंतु अभिनय की ज़िद में उन्होंने बहुत कुछ सहा है। उन्होंने महेश भट्ट द्वारा निर्मित एवं अनुराग बसु द्वारा निर्देशित 'गैंगस्टर' से अपनी पहचान बनाई, जबकि वह पहले 'बूम' जैसी फूहड़ फिल्मों में काम कर चुकी थी परंतु सितारा हैसियत उसे अानंद एल राय की 'तनु वेड्स मनु' से ही मिली है। इसी फिल्म के भाग दो में उसकी अभिनीत दोहरी भूमिकाओं में एक भूमिका हरियाणा में जन्मी लड़की की थी। इस भूमिका के लिए स्वयं को तैयार करने के लिए उन्होंने अपने को बदलकर एक हरियाणा के एक कॉलेज में दाखला लिया था। मर्लिन ब्रैंडो से ही प्रारंभ हुई हैं अभिनय की 'मेथड स्कूल' जिसमें अपनी भूमिका के अनुरूप तैयारी करनी होती है। हमारे दिलीप कुमार भी इसी तरह की तैयारी करते थे। फिल्म 'कोहिनूर' में सितार वादन के एक छोटे से दृश्य के लिए महीनों वे सितार बजाना सीखते रहे।
क्वीन कंगना का मिज़ाज उनकी जुल्फों की तरह आंका-बांका है। जब वे अच्छे मूड में होती हैं तब उनसे अधिक प्यारा, मीठा कोई व्यक्ति नहीं हो सकता परंतु जब वे तुनकमिज़ाजी पर उतर आती हैं तब तलवार की तरह हो जाती हैं। अब देखना यह है कि 'झांसी की रानी' फिल्म में वे शमशीरबाजी कैसे अभिनीत करती हैं। फिल्म का प्रदर्शन वर्ष के अंतिम महीने में होगा।
कंगना के साथी कलाकार राजकुमार राव की शक्ल-सूरत एक आम आदमी के समान है परंतु वे प्रतिभाशाली अभिनेता है। हमारे यहां इस तरह के कलाकारों की परम्परा रही है। दिवंगत ओम पुरी विलक्षण अभिनेता थे और नसीरुद्दीन शाह या नवाजुद्दीन सिद्दीकी भी आम आदमी की तरह ही दिखते हैं। कुछ लोग इतने कैमरा फ्रेंडली होते हैं कि यथार्थ से अधिक बेहतर परदे पर नज़र आते हैं। जिगर मुरादाबादी जब मुशायरे में शेर सुनाते थे तो शेर दर शेर वे सुंदर लगने लगते थे। इस तरह आपका काम आपके दिखने-दिखाने को बदलता रहता है। विजय तेंडुलकर के नाटक 'पंछी ऐसे आते हैं' में बिन बुलाया मेहमान घर की साधारण-सी दिखने वाली कन्या को अपनी बातों से इस कदर प्रभावित करता है कि एक बार जब उसे देखने वाला वर आता है तब वह मेहमान निर्मित अपनी छवि को मन में बसाए सामने प्रस्तुत होती है और उसे पसंद कर लिया जाता है। इसके पूर्व दर्जनभर लड़के उसे अस्वीकृत कर देते हैं। नाटक में कभी घरघुसिया मेहमान कन्या से सीधे वार्तालाप नहीं करता। कन्या नेे उसकी अवााज सुनी है। एक बार वह अपनी अनदेखी लड़की के रूप का बखान कुछ ऐसे करता है कि उसी के प्रभाव में वह बड़े आत्मविश्वास से लड़के वालों के सामने प्रस्तुत होती है। नाटक में वह स्वयं ही संभावित वर के विवाह निवेदन को अस्वीकृत कर देती है, क्योंकि वह जानती है कि उसकी जिस छवि को स्वीकार किया गया है वह उसकी अपनी नहीं है गोयाकि काया की माया को स्वीकार किया गया है और वह छल के आधार पर अपना वैवाहिक जीवन प्रारंभ नहीं करना चाहती। महान विजय तेंडुलकर के नाटकों में अर्थ की अनेक परतें होती हैं।
एक बार राज कपूर ने विजय तेंडुलकर को आमंत्रित किया था और वे चाहते थे कि उनकी फिल्म 'घूंघट के पट खोल' तेंडुलकर लिखें। वे तीन बार मिले परंतु पटकथा बनने के पहले ही राज कपूर जीवन मंच से पटाक्षेप कर गए। घंूघट के पट खुले ही नहीं। यह अजीब बात है कि किसी महान फिल्मकार के अधूरे काम कभी प्रकाशित ही नहीं हुए। गुरुदत्त भी कई फिल्मों का आकल्पन करते हुए उसे अधूरा ही छोड़ देते थे। इसी तरह मेहबूब खान की 'हब्बा खातून' भी जाने कहां खो गई है। आज सुलगते कश्मीर में हब्बा खातून बनाना कितना सामयिक हो सकता है।