'क्वीन' कंगना अब बेगम बनेंगी? / जयप्रकाश चौकसे

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'क्वीन' कंगना अब बेगम बनेंगी?
प्रकाशन तिथि :19 अक्तूबर 2015


केतन मेहता ने कंगना रनौत के साथ अब बेगम अख्तर पर बायोपिक बनाने की घोषणा की है, जिसका अर्थ है कि उन्होंने कंगना के साथ रानी लक्ष्मीबाई बायोपिक रद्‌द कर दी है। बेगम अख्तर असाधारण प्रतिभा की धनी थीं और उन्होंने कभी भी व्यवहार के दोहरे मानदंड नहीं अपनाए। उन्हें सिगरेट पीने का शौक था, तो कभी उन्होंने इसे छिपाया नहीं वरन् सरेआम सिगरेट पीती थीं। कहा जाता है कि एक बार रेल के सफर में किसी कस्बाई स्टेशन पर सिगरेट समाप्त हो गई। उन्होंने रेलवे स्टेशन मास्टर से कहा कि एक पैकेट सिगरेट का ला दें और यह कैसा स्टेशन है कि यहां एक अदद दुकान नहीं सिगरेट की। स्टेशन मास्टर के इनकार करने पर उन्होंने उसके हाथ से वह लालटेन छीन ली, जिसके दिखाने पर गाड़ी आगे बढ़ती है। बेचारे स्टेशन मास्टर को सिगरेट लाकर देनी पड़ी। दरअसल, अख्तरीबाई फैजाबादी 7 अक्टूबर 1914 को जन्मी थीं और बचपन से ही साहसी तथा खिलंदड़ स्वभाव की थीं। मुंह पर कड़वा सच बोलने की उनकी आदत से सामान्य लोग घबरा जाते थे। हमारे समाज में भीरू होने की शिक्षा इस कदर दी जाती है कि डर सामान्य व्यक्ति के चरित्र में समा गया है। शिक्षा में भी इस डर के कारण कि अन्य लोग क्या कहेंगे, बच्चा सवाल नहीं पूछता। वह अज्ञान को ही आत्मसात कर लेता है।

जब वे मात्र पंद्रह वर्ष की थीं तब सरोजनी नायडू के आग्रह पर उन्होंने पहली बार जनता के सामने अपनी गायकी से सबको मंत्रमुग्ध कर दिया। इससे उन्हें अपने जीवन का उद्‌देश्य पंद्रह वर्ष की आयु में मिल गया और वे इसी पथ पर ताउम्र चलती रहीं। अधिकांश लोग पूरी उम्र गुजरने पर भी जीवन का उद्‌देश्य नहीं खोज पाते और अनचाहे कामों का बोझ लिए पूरी उम्र गुजार देते हैं। विश्व मानवता का अल्प प्रतिशत ही अपनी पसंद का काम खोज पाता है। यह सारी ऊब और थकान उसका ही परिणाम है। अपने काम को पूरी निष्ठा से ताउम्र करते रहना ही अध्यात्म है। उसकी खोज में वन-वन भटकने से कुछ नहीं होता। जब बुद्ध के श्रेष्ठ अनुयायी आनंद ने पूछा कि सारी उम्र उसने बुद्ध के पीछे चलकर काटी है, फिर उसे ज्ञान या दिव्य प्रकाश क्यों नहीं मिला। तब महात्मा बुद्ध ने आनंद से कहा कि किसी के पीछे नहीं आगे चलकर अपना लक्ष्य स्वयं खोजना पड़ता है। यह हमारी अनुयायी बनने की घोर आकांक्षा ही हमारे नेताओं को अहंकार देती है। इसी तरह हर क्षेत्र में, यहां तक कि साहित्य में भी मठाधीश बन जाते हैं।

बेगम अख्तर का मिजाज तो ऐसा था कि एक बार उनसे प्रेम का दावा करने वाले सामंतवादी को उन्होंने किसी के आगोश में देखा तो ताउम्र उससे बात नहीं की। वे अपने फन में माहिर थीं, इसीलिए उन्हें 'लोग क्या कहेंगे' का कोई भय नहीं था। कंगना का अपना मिजाज भी बेगम से मिलता है और फिर केतन मेहता के निर्देशन में यह 'क्वीन' बकमाल 'बेगम' साबित होंगी। सुना जा रहा है कि हंसल मेहता के निर्देशन में कंगना एक अमेरिकन कन्या की भूमिका करने जा रही हैं गोयाकि अब हमारी 'रिवॉल्वर रानी' अमेरिका में बैंक डकैत की भूमिका करने जा रही हैं। यह कथा कुछ 'बोनी एंड क्लाइड' की तरह ध्वनित हो रही है, जिससे प्रेरित 'बंटी और बबली' हम देख चुके हैं।

कंगना रनौत अमेरिका से पटकथा लेखन एवं संपादन का कोर्स कर आई हैं और अपने आपको निर्देशन के लिए तैयार कर रही हैं। आश्चर्य यह है कि इस कोर्स से वे 'कट्‌टी-बट्‌टी' की कमजोरी नहीं भांप सकीं और निखिल का रिकॉर्ड भी उन्होंने नहीं देखा। उनकी अभिनय यात्रा में 'कट्‌टी-बट्‌टी' एक दुर्घटना है। कई बार सफलता से चौंधिया गईं अांखें खतरा देख नहीं पातीं। ऐसा अनुमान है कि इस समय कंगना 'इंटलैक्चुअल नशे' में गाफिल है। हमारे यहां थोड़ा अलग होते ही व्यक्ति को बुद्धिजीवी होने का भरम सताने लगता है। इस दौर में तो असल बुद्धजीवी भी कष्ट में हैं और अपने सम्मान को लौटाने को हुक्मरान 'कागजी विद्रोह' करार दे रहे हैं। वे भी तो कागज की नौका को बरसाती नाले में बहाकर स्वयं को विश्व विजेता मान रहे हैं। बहरहाल, बेगम अख्तर को 1968 में पद्‌मश्री, 1975 में पद्‌मभूषण तथा 1972 में संगीत नाटक अकादमी ने सम्मान से नवाजा था। बेगम अख्तर की मृत्यु हो चुकी है। अगर वे जीवित ोतीं तो क्या 'कागजी विद्रोह' करतीं या रेलवे स्टेशन मास्टर के हाथ से लालटेन छीनने की तरह कोई कार्य करतीं।