'क्वीन' कंगना अमेरिका की पाठशाला में / जयप्रकाश चौकसे

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'क्वीन' कंगना अमेरिका की पाठशाला में
प्रकाशन तिथि : 14 अप्रैल 2014


'क्वीन' की व्यावसायिक सफलता के साथ ही कंगना रनोट के विलक्षण अभिनय ने उसके लिए दर्शक का प्रेम और सारे फिल्म उद्योग की प्रशंसा बटोरी, यहां तक कि उसकी प्रतिद्वंद्वी समकालीन अभिनेत्रियों ने भी उसकी प्रतिभा का लोहा मान लिया। एक छोटे शहर से महानगर आकर बिना किसी सिफारिश और गॉडफादर के उसने मध्यम बजट की फिल्मों में सफलता अर्जित की और वह भी बिना किसी बड़े बैनर के लिए काम किए। राकेश रोशन की 'कृष 3' में खलनायिका की भूमिका उसने ऐसी अभिनीत की कि नायिका को हाशिये में डाल दिया। आज पुन: उसने 'क्वीन' की सफलता का दोहन नहीं करते हुए, यह निर्णय लिया है कि जुलाई में 'तनु वेड्स मनु-2' की शूटिंग करेगी और डेढ़ माह के लिए अमेरिका जाकर पटकथा लेखन और निर्देशन का वह कोर्स पूरी करेगी जिसका प्रथम चरण वह कुछ माह पूर्व कर चुकी है। यह निरंतर स्वयं को मांजने का जुनून उसे अन्य लोगों से अलग करता है।

भारत के किसी संस्थान में दाखिला लेने पर उसके लिए सामान्य विद्यार्थी की तरह पढऩा संभव नहीं होता। सितारों के लिए हमारा दीवानापन उन्हें सामान्य जीवन जीने नहीं देता और इसी प्रक्रिया में प्रशंसक भी स्वयं को खोखला कर देते हैं। अमेरिका में उसे सामान्य व साधारण बने रहने का सुख मिलेगा। निरंतर असामान्य व प्रसिद्ध बने रहना भी आसान काम नहीं है। वे दबाव अन्य किस्म के होते हैं।

बहरहाल अमेरिका के संस्थान में फिल्म शास्त्र पढ़ाने की प्रक्रिया में वहां के सिनेमा से उदाहरण दिए जाते है। भारतीय अवाम के लिए फिल्म बनाने का पहला चरण तो भारत के इतिहास व संस्कृति को समझने का प्रयास होना चाहिए। आम आदमी के अवचेतन में सदियों से जमे प्रभावों को परत दर परत खोलना चाहिए। जब तक एक फिल्मकार अपनी जमीन और जमीर की फिल्म नहीं बनाता, तब तक शेष दुनिया उसका लोहा नहीं मानती। सत्यजीत रॉय की सारी फिल्में नितांत भारतीय फिल्में हैं, अकीरा कुरोसावा ने हमेशा जापान के इतिहास और संस्कृति से विषय चुने। स्वयं कंगना रनोट ने अपना देशज ठाठ कभी नहीं छोड़ा और अब उनका असली इम्तिहान तो यह होगा कि सिनेमा विधा को अमेरिका में सीखने के बाद वह अपने देश की जमीन से कथाएं चुने- यहां तो 'हर गली एक किस्सा है, हर चेहरा एक अफसाना है।' हमारी सड़ांध खाती व्यवस्था में कुछ लोगों का लालच और अनगिनत गरीबों की मजबूरी के महाकाव्य के बीज छुपे हैं और हर परिवर्तन के साथ नए मुखौटे ही सामने आते हैं। गरीब को गरीब बनाए रखने के षड्यंत्र किसी भी कल्पनाशील लेखक को चुनौती दे सकते हैं। यह पहला संकट काल खंड है जिसने अपना महाकवि नहीं पैदा किया, जिसने अपना प्रेमचंद पैदा नहीं किया, जिसने अपना सआदत हसन मंटो नहीं दिया। इससे ज्यादा अभागा कोई काल खंड नहीं जिसके विरोधाभास, विसंगतियों को कलमबद्ध करने वाला व्यक्ति नहीं। अगर यह महाभारत भी है तो इसका कोई वेदव्यास नहीं। कई बार मन में शंका पैदा होती है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि पहले वेदव्यास ने महाभारत लिख दी और फिर वह घटा जैसे रिचर्डसन का उपन्यास प्रकाशित होने के चौदह वर्ष पश्चात टाइटैनिक के डूबने में सत्य सिद्ध हुआ। समय की नदी कई सतहों पर बहती है और लेखक अपनी शक्ति के अनुरूप अपनी प्रिय सतह तक पहुंचते हैं और धारा के विपरीत तैरते हुए डूबने वाले की जो उंगलियां सबसे बाद में डूबती हैं, वे ही लहरों पर इतिहास लिखती हैं। आज नेहरू जैसे नेता से कही अधिक नेहरू सा इतिहास बोध वाले लेखक की आवश्यकता है।

कंगना रनोट अगर इस चुनाव को बतौर विद्यार्थी देखती तो उन्हें भारत अलग रंग में नजर आता, वे समझ पातीं कि कैसे एक झूठ को हजार बार बोलकर सच बनाया जाता है। कंगना रनावत यूं ही चलती रहें, उन्हें मीलों जाना है। मुनि क्षमा सागर की एक कविता है- 'अभी मुझे और धीमे कदम रखना है, अभी तो चलने की आवाज आती है।' मुनि महोदय का आशय है कि यात्रा कोई माध्यम नहीं, वही मंजिल भी है तल्लीनता इतनी हो कि अपनी पगध्वनि भी नहीं सुन पाए।