'चित मैं जीता, पट तू हारा' / जयप्रकाश चौकसे

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'चित मैं जीता, पट तू हारा'
प्रकाशन तिथि : 06 फरवरी 2019

'जॉली एलएलबी भाग दो' के अदालत के दृश्य में अन्नू कपूर अभिनीत वकील एक गवाह के प्रस्तुत करने पर तकनीकी आपत्ति दर्ज कराता है और जज चाहता है कि अहम गवाही होनी चाहिए। अपनी हार से आशंकित वकील साहब अदालत में धरने पर बैठ जाते हैं। जज महोदय भी वकील के इस कदम का विरोध करते हुए धरने पर बैठ जाते हैं। अदालत में मौजूद कुछ लोग जज के साथ ही उसके पक्ष में धरने पर बैठ जाते हैं। सौरभ शुक्ला जज की भूमिका में बहुत प्रभावित करते हैं। अदालत के बाहर अवाम और मीडिया इस असाधारण घटना से भौंचक्का रह जाता है।

इस फिल्म में इकबाल कादरी को गिरफ्तार करने के बदले इकबाल कासिम को उसके शादी के मंडप से उठाकर गिरफ्तार किया गया है और रिश्वतखोर पुलिस अफसर यमुना के पुल पर उस मासूम व्यक्ति को गोली मार देता है और प्रकरण को यह रूप देता है कि गिरफ्तार आरोपी ने पुलिस की रिवाॅल्वर से ही हिंसा का प्रयास किया था, इसलिए उसे गोली मार दी गई है। फिल्म के अंत में पुलिस इकबाल कादरी को गिरफ्तार करके अदालत में प्रस्तुत करती है। यह अपराधी साधु का वेष धारण किए, गंगा तट पर अपनी 'दुकानदारी' जमा चुका था। जिरह के दरमियान श्लोक बोलते-बोलते वह कुरान की पंक्तियां बोलने लगता है। स्पष्ट है कि हर व्यक्ति कभी ना कभी अपनी मातृभाषा बोलता है। स्वप्न में अपनी भाषा व्यक्ति बोलता है। आजकल युवा के स्वप्न की भाषा भी हिंगलिश हो गई है। विज्ञापन संसार ने हिंगलिश को अवाम की भाषा बना दिया है।

किशोर कुमार की फिल्म 'चलती का नाम गाड़ी' के एक दृश्य में सिक्का उछालकर निर्णय लेने की घटना में पात्र कहता है, 'चित मैं जीता पट तू हारा'। गोयाकि सिक्का किसी करवट भी गिरे जीत तो उसी की होगी। आजकल कुछ अदालती फैसले भी इसी तर्ज पर आ रहे हैं कि दोनों पक्षों को लगता है कि वे जीते हैं। दरअसल, सारे मामलों में अवाम ही हार रहा है। किसी प्रकरण को एक पक्ष अपनी कानूनी जीत बताता है तो दूसरे इसे अपनी नैतिक जीत बताता है। कानून और नैतिकता में हमेशा अंतर रहा है। सच्चे झूठे और पेशावर गवाह कानून की आंख पर बंधी पट्टी की तरह दिखाई पड़ते हैं। ज्ञातव्य है कि सलीम-जावेद के स्वर्ण काल में उनकी लिखी एक फिल्म के दो पात्र पेशेवर गवाह हैं। फिल्म का नाम था 'ईमान धर्म'। फिल्म के टाइटल से ही जाहिर होता है कि पेशेवर झूठा गवाह अपने काम पर धर्म का आवरण डाल रहा है। भाषा का अजीबोगरीब खेल देखिए कि पावन पुनीत कुंभ में अखाड़े आते हैं। अखाड़ा शब्द कुश्ती खेल का शब्द है परंतु इसका समावेश धर्म में कर लिया गया है।

शूजीत सरकार की फिल्म 'पिंक' में जज का नाम 'सत्यजीत' रखा गया है। गोयािक युवा बंगाली फिल्मकार उस महान फिल्मकार को आदरांजली दे रहा है। इस दृश्य का यह अर्थ भी हो सकता है कि वह अपनी योग्यता पर महान फिल्मकार को फैसला देने की गुजारिश कर रहा है। यह आभास होता है कि आम दर्शक इन महीन इशारों को समझता ही नहीं है परंतु सच्चाई यह है कि उसके अवचेतन में यह दर्ज होता है। 'जॉली एलएलबी भाग 2' के जज की मेज पर एक छोटा सा गमला रखा है जिसमें जज पानी डालता है। यह संकेत है कि वह न्याय परंपरा को पल्लवित कर रहा है। इसी तरह स्टीवन स्पिलबर्ग की फिल्म 'द कलर पर्पल' में अफ्रीका से गुलाम अमेरिका लाए जा रहे हैं। यातना से त्रस्त गुलाम जहाज पर कब्जा कर लेते हैं। उनके साथ वह एक गमला ला रहे हैं। उनका वकील उस गमले को एक साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत करता है।

एक देश की जमीन से उखाड़कर लाए गए पौधे, अन्य देश की जमीन में पनप नहीं पाते। वे जलवायु परिवर्तन को अस्वीकार कर देते हैं। इसी फिल्म की अदालत की दीवारों पर अब्राहम लिंकन, जॉन एफ कैनेडी इत्यादि लोगों के चित्र लगे हैं। बचाव पक्ष का वकील जज से अनुरोध करता है कि फैसला सुनाते समय वह अपनी विरासत को ध्यान में रखें। उसका फैसला अब्राहम लिंकन और कैनेडी इत्यादि भूतपूर्व प्रेसिडेंट सुन रहे हैं। आपके पूर्वज आपके वर्तमान में अपनी अदृश्य मौजूदगी दर्ज करते रहते हैं। हम उन्हें देख नहीं पाते, उनकी आवाज सुन नहीं पाते क्योंकि जीवन की आपाधापी इसकी इजाजत और मोहलत नहीं देती। हमें 'दो पल के जीवन से एक उम्र चुरानी है'।