'जग घूमिया थारे जैसा न कोई' / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :30 जून 2016
'सुल्तान' के एक गीत की पंक्ति है, 'जैसी तू है, वैसी रहना।' इस एक पंक्ति में प्रेम, विवाह और अन्य रिश्तों के रहस्य की कम से कम एक परत तो उजागर होती है और संभवत: इस पंक्ति को लिखने वाले की यह मंशा न भी हो, क्योंकि ज्यादातर फिल्मों के गीत संगीतकार द्वारा दिए गए मीटर पर होते हैं और साहिर लुधियानवी एकमात्र अपवाद थे। उन्हें मीटर इत्यादि तकनीकी बातों का न इल्म था और न ही फ़िक्र। वे निर्देशक से सिचुएशन सुनकर बोल लिखते थे और फिर संगीतकार धुन बना देते। अपनी सफलता के दौर में उन्होंने गीत लिखने के लिए संगीतकार को दिए जाने वाले पारिश्रिक के समान राशि मांगना शुरू कर दिया। इस कारण 'प्यासा' की उनकी सचिवदेव बर्मन के साथ जोड़ी को दोहराया नहीं गया, इसलिए गुरुदत्त ने 'कागज के फूल' में कैफी आज़मी से गीत लिखाए और 'वक्त ने किया क्या हसीं सितम, तुम रहे न तुम, हम रहे न हम,' जैसे गीत बने।
प्रेम का रहस्य अबूझ पहेली है और हम इस दैवीय रसायन को समझने की कोशिश भर कर सकते हैं, क्योंकि गालिब जैसे सर्वकालिक महान शायर ने भी लिखा है, 'जो लगाए न लगे और बुझाये न बुझे।' ग्रामीण अंचलों में जैसे भूत-प्रेत भगाने के लिए ओझा होते हैं, वैसे ही प्रेम नामक भूत से मुक्ति के भी अनाड़ी जतन होते रहते हैं। एक और नज़रिया संभवत: फिल्म 'खामोशी' में था कि 'रम से भागे गम , जीन (एक किस्म की शराब) से भागे भूत-प्रेत।' जिन समस्याओं के निदान तर्क और विज्ञान से नहीं मिलते। उनके लिए बतौर टोटका ही सही, मूर्खता को आजमाना चाहिए और इसीलिए निदा फाज़ली ने लिखा था, 'मौला थोड़ी नादानी दे।' भूखे बच्चे को गुड़धानी देने पर कुछ देर के लिए उसकी रोटी के लिए ज़िद बंद हो जाती है। आजकल तो बच्चे महंगी चॉकलेट से ही बहलते हैं और गुड़धानी को बाजार ने विलोप कर दिया है। सूप ने सत्तू को खदेड़ दिया है जैसे महानगर गांवों को लील गए हैं परंतु पचा नहीं पाए, इसीलिए गगनचुंबी इमारतों की ऊंची नाक के नीचे झोपड़पटि्टयों में समाए हैं गांव। हर शहर की गोद में अनेक गांव हैं और गांव वालों के सपनों में महानगर है। इसीलिए पलायन जारी है, जिसके बारे में कुछ न कर पाने वाले नेता कुछ जगहों से हिंदू पलायन का हव्वा खड़ा कर रहे हैं। धन्य है वे लोग जिन्होंने काम की तलाश के लिए किए गए पलायन को भी सांप्रदायिक कर दिया है।
उन जादुई मुलाकातों में प्रेमी को लगता है कि उसकी प्रेमिका संसार की सबसे सुंदर लड़की है और प्रेमिका को लगता है कि उसका प्रेमी सबसे अधिक बुद्धिमान है। याद आता है कि जब मर्लिन मनरो ने आइंस्टीन से कहा कि अगर वे दोनों शादी कर लें तो बच्चे मनरो की तरह संुदर और आइंस्टीन की तरह बुद्धिमान होंगे। अपने 'विट' के लिए प्रसिद्ध आइंस्टीन ने कहा है कि वे मर्लिन से शादी नहीं कर सकते, क्योंकि अगर बच्चे उनकी तरह दिखेंगे और मर्लिन की तरह सोचेंगे तो अनर्थ हो जाएगा। किस दिलकश अंदाज से आइंस्टीन ने मर्लिन को मूर्ख कहा है। इस तरह की बातों को 'विट' कहते हैं, महज खोखली जुमलेबाजी नहीं है। दुर्भाग्य से राजनीति में जुमलेबाजी को 'विट' माना जाने लगा है।
प्रकृति का नियम सतत परिवर्तन है, इसलिए 'तुम जैसी हो वैसी ही बने रहना' मुमकिन नहीं है। आप सौंदर्य को केवल कल्पना में ही सदैव जीवित रख सकते हैं। अपने घर में मानव खोपड़ीनुमा टेबल लैम्प रखिए, आप सब तरह के घमंड से आज़ाद हो जाएंगे। आश्चर्य होता है कि इतनी सदी पहले वात्स्यायन ने यह लिख दिया था कि शयन कक्ष में लोगों की बाहों में कोई और दिमाग में कोई और रहता है। इस अजूबे को फोटोग्राफी में छवि के ऊपर अन्य छवि को 'सुपर इम्पोज' करना कहते हैं। दार्शनिक बर्गसन ने फिल्म विधा के आविष्कार के समय ही कह दिया था कि कैमरा मानव दिमाग की अनुकृति है। मानवीय आंखें लेंस है और विचार प्रक्रिया की प्रयोगशाला में स्थिर चित्र गतिमान हो जाते हैं। महान फिल्में मानवीय दिमाग और कैमरे के आपस में समा जाने पर बनती हैं। जब ये विपरीत दशा में गतिमान होते हैं तब फूहड़ फिल्में बनती हैं।
कैमरा कलपुर्जों से बनी मशीन हैं परंतु कैमरामैन उसे कला बना देता है। कलम नेता के हा में जालिम फरमान लिखती है, संवेदनशील व्यक्ति के हाथ में वही कलम कविता रचती है। इतनी सदियों से मनुष्य ही मशीन बनाता रहा है परंतु अब मशीन मनुष्य रचने लगी है और इसी भय के कारण महात्मा गांधी ने मशीन का विरोध किया था। रोबो सारे काम करने लगे हैं। विलक्षण चिंतक फिल्मकार स्टीवन स्पिलबर्ग की एक फिल्म में नि:संतान स्त्री ने बाल स्वरूप की मानव मशीन अपने घरेलू काम में मदद के लिए बनवाई थी। बाल स्वरूप बने इस रोबो से उसका मन भी बहलता है। कुछ समय बाद महिला को लाइलाज कैंसर हो जाता है और बाल स्वरूप बने रोबो की आंख में आंसू दिखाकर फिल्मकार ने दर्शनशास्त्र रच दिया।
मशीन का यह मानवीकरण विलक्षण है और नोबेल पुरस्कार का हकदार है। जाने क्यों स्मरण में कौंधती हैं जयशंकर प्रसाद की पंक्तियां, 'घनीभूत पीड़ा थी, जो स्मृति सी मस्तिष्क में छाई, दुर्दिन में आंसू बनकर आज बरसने आई।'