'जेड प्लस' में अर्थ की सतहें / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 01 दिसम्बर 2014
डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी की 'जेड प्लस' में गरीब आदमी को प्रधानमंत्री द्वारा सुरक्षा देने की व्याख्या इस ढंग से भी की जा सकती है कि आम आदमी सामाजिक अन्याय के खिलाफ सुरक्षा चाहता है, रोजी रोटी आैर अवसर की मांग करता है, वह रोटी मांगता है तो उसे बंदूकधारियों की सुरक्षा दी जाती है। तथाकथित तौर पर माआेवादी प्रभाव क्षेत्र को फौजी छावनी में बदल दिया जाता है, आतंकवादी होने की फर्जी शंका के आधार पर निहत्थों को गोली से उड़ा दिया जाता है। हाल में दर्जन से अधिक अफसरों को इसी तरह के प्रकरणों के लिए सजा सुनाई गई है। मानव अधिकार द्वारा दर्ज प्रकरणों का यह मंत्र दस प्रतिशत है।
बहरहाल साहित्य सिनेमा की शक्ति उसकी विविध व्याख्याआें से होती है। 'हेमलेट' पर कम से कम सौ किताबें लिखी गई है। कोलरिज की एक कविता की प्रथम पंक्ति 'इन जनालू हिड कुबला खान लिव' पर शोध किया गया है आैर 'जनालू' नामक जगह कहां थी आैर आज उसका क्या नाम है- यह सब बातें उस शोधपरक किताब में है। शरतचंंद्र के देवदास के ग्यारह संस्करण बनाए जा चुके हैं। राजकपूर के 'जागते रहो' के नायक की अतृप्त प्यास दरअसल सांस्कृतिक मूल्यों के लिए प्यास है आैर गुरुदत्त की 'प्यासा' भी सांस्कृतिक रेगिस्तान में वही प्यास की कथा है।
बहरहाल द्विवेदी की 'जेड प्लस' खूब मनोरंजन करती है परंतु उसमें अर्थ की अनेक परते हैं जिन पर खूब लिखा जाना चाहिए। मसलन भारत के प्रधानमंत्री को केवल अंग्रेजी भाषा आती है। इसे मैं इस मायने में देखता हूं कि भारत में हर क्षेत्र में शासक वर्ग केवल अंग्रेजी ही समझता है आैर आज भी वह भाषाआें में रानी की तरह है जबकि ब्रिटेन की महारानी को भारत से गए अरसा हो गया है। निर्देशक को प्रधानमंत्री के पात्र को दक्षिण भारतीय की तरह प्रस्तुत करना था आैर उन्हें कथा की बुनावट के लिए 'घपलों' की आवश्यकता थी तो नरसिंहराव के जमाने में भी बहुमत कैसे हासिल किया गया- यह भी घपला ही था। उस सरकार के आर्थिक उदारकरण के घातक सांस्कृतिक प्रभाव अभी धीरे-धीरे उजागर हो रहे हैं, इसकी भयावहता भविष्य में उजागर होगी।
यह भी गौरतलब है कि सारे गरीब पात्रों में भी नैतिक कमजोरियां प्रस्तुत की गई है आैर वे अखिल भारतीय सांस्कृतिक भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं है। दोनों पड़ोसी एक ही पराई महिला के प्रति आकर्षित हैं परंतु शायर का इश्क अदब के परे नहीं जा पाता जबकि पंचर सुधारने वाले कामयाब लम्पट हैं। 'शायर' पड़ोसी की भूमिका में मुकेश तिवारी ने प्रभावोत्पादक अभिनय किया है। वह हमेशा ही भूमिकाआें में रमता रहा है जैसे हमने उसे प्रकाश झा की फिल्मों में देखा है। क्या यह संकेत नहीं है कि हमारा गरीब आैर मध्यम वर्ग भी कुछ हद तक अय्याश है। आज हर आय वर्ग का व्यक्ति अनावश्यक खरीदी कर रहा है। बाजार द्वारा दी गई यह 'अय्याशी' अन्याय आधारित व्यवस्थाआें की सुरक्षा की ग्यारंटी है क्योंकि 'जलसाघर' में रहने वाले क्रांति नहीं कर सकते। पहले सामंतों के जलसाघर होता था, आज उनके बोन्साई आैर लघु संस्करण सभी वर्गों में मौजूद है।
गौरतलब यह है कि 'सुरक्षा के घेरे' में गरीब का जमीर जागता है आैर वह सरेआम अपनी लंपटता स्वीकार करता है। यह साहस ही आशा की किरण है। इस फिल्म का आला अफसर उस वर्ग का प्रतीक है जिसने भ्रष्टाचार के रास्ते मंत्रियों को दिखाए हैं। मोना सिंह का बयान कि वह भ्रष्ट धन को हाथ नहीं लगाएगी तमाम गृहणियों को संदेश है। दो छोटे मार्मिक शॉट्स पर गौर करें। अस्पताल में पड़ोसी मुकेश तिवारी का कहना कि दोस्त तुझे मरने नहीं देंगे वरना लड़ेंगे किससे आैर दूसरी आैरत (शिवानी) का टिफिन लाकर पत्नी को देना। आंखें नम करने वाला दृश्य है। वह 'डिजायर' को सरेआम 'डिनाई' (अस्वीकार) कर रही है।