'टेक इट इजी' मनोरंजक सोद्देश्य फिल्म / जयप्रकाश चौकसे

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'टेक इट इजी' मनोरंजक सोद्देश्य फिल्म
प्रकाशन तिथि :30 दिसम्बर 2014


कई वर्षों से शिक्षा संस्थानों आैर समाज में प्रथम ही आने पर जोर दिया जा रहा है आैर संस्थाआें से अधिक पालक इस प्रवृति के लिए जवाबदार हैं। बच्चों पर प्रथम आने के लिए अतिरिक्त दबाव बनाया जाता है जिससे उनके सर्वागीण स्वाभाविक विकास में बाधा पड़ती है। कक्षा में इतनी तीव्र एवं आक्रामक प्रतिद्वन्दता की भावना का जन्म होता है कि बच्चों में मित्रता संभव नहीं रह जाती जबकि शिक्षा के समय बनी मित्रता बुढ़ापे तक संबल बनी रह सकती है। हालात ऐसे हो गए हैं कि थोड़े से अंक से नंबर दो आने को अपराध बना दिया है। इसी तरह एक आैर भयावह प्रवृति यह है कि स्कूल में ही गरीब आैर अमीर के अंतर को रेखांकित किया जा रहा है जो देश की आर्थिक खाई का ही प्रतीक बन गया है।

इस दिशा में कुछ महत्वपूर्ण फिल्में बनीं हैं, जैसे 'चिल्लर पार्टी' में एक गरीब अनाथ के कुत्ते की रक्षा में परिसर के सारे बच्चे एकजुट हो जाते हैं आैर गरीब बालक का अंतिम संवाद था कि उसे स्कूल नहीं जा पाने का दु:ख हमेशा पालता था परंतु अब इन पढ़े-लिखे नेताआें का व्यवहार देखकर लगता है कि पढ़-लिखकर वह भी उनकी तरह जाहिल हो जाता। गरीब आैर अमीर बच्चे पर दशकों पूर्व महान सत्यजीत रॉय ने ग्यारह मिनिट की एक कथा फिल्म बनाई थी जिसका एकमात्र प्रिंट अब हॉलीवुड में सुरक्षित है। अमीर बालक के माता-पिता पैसा कमाने आैर अपनी मौज-मस्ती में व्यस्त रहते हैं आैर बच्चे के लिए ढेरों आधुनिकतम खिलौने खरीद कर अपने आपको लालन-पालन के दायित्व से मुक्त मानते हैं। वह तन्हा बच्चा अपनी हवेली की खिड़की से एक गरीब बच्चे को खुद के बनाए देशी खिलौनों से खेलता देखता है आैर उसे चिढ़ाने के लिए अमीर बालक अपने खिलौने उसे दिखाता है। इस प्रतियोगिता का अंत होता है जब गरीब बालक की पतंग आकाश में उड़ती है जिसका कोई जवाब अमीरजादे के पास नहीं है आैर फिल्म के अंतिम शॉट में उसके आधुनिकतम खिलौनों से भरे कमरे में सारे चाबी से चलने वाले खिलौने एक साथ चल पड़ते हैं आैर अमीर बालक के चेहरे पर भय आैर दु:ख छाया है, उधर गरीब की पतंग आकाश में अटखेलियां कर रही है।

बहरहाल शुक्रवार को धर्मेश पंडित की 'टेक इट इजी' का प्रदर्शन होने जा रहा है। इमारत बनाने के व्यवसाय में सफलता अर्जित करके धर्मेश पंडित के भीतर वर्षों से दुबका लेखक बाहर आया आैर उन्होंने एक सारगर्भित कथा लिखी जिसपर निर्देशक सुनील प्रेम व्यास ने एक मनोरंजक सोद्देश्य फिल्म गढ़ी है। टाइटिल 'टेक इट इजी' के नीचे वाक्य है 'यारो समझा करो' प्रिंस प्रोडक्शन की फिल्म एक स्कूल परिसर की कथा है जहां अन्य स्कूलों की तरह प्रथम आने के मंत्र का जाप होता है। एक गरीब प्रतिभाशाली बालक के पिता अपनी युवा वय में धावक बनना चाहते थे परंतु आर्थिक संकट के कारण विजेता नहीं बन पाए। राज जुत्शी ने यह भूमिका जीवंत कर दी है।

गरीब बालक पैरों में पिता की अधूरी इच्छा के पंख लगाकर तेज दौड़ता है आैर उसका अमीर प्रतिद्वन्दी उसे छल करके हराता है परंतु इस अपराध बोध से वह ग्रसित है आैर इस घटना से बच्चों के बीच गहरी मित्रता आैर एकजुटता की भावना जागती है आैर वह महसूस करते हैं कि पालकों के द्वारा प्रथम ही आने पर बल दिया जाना उन पर कैसा तनाव बनाता है। इस सारे घटनाक्रम का निर्देशक ने अत्यंत रोचक एवं मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत किया है आैर कोई बच्चा 'फिल्मी बच्चा' नहीं लगता। दर्शकों को अपने बच्चों की याद आएगी आैर सिनेमाघर में बैठे बच्चों से आंख मिलाते हुए उन्हें लगेगा कि यह इस 'प्रथम मात्र' आने का खेल कितना भयावह है। इस फिल्म के गंभीर कथानक को खूब मनोरंजक बनाया गया है। इसमें गीत-संगीत भी मधुर हैं। फिल्म का क्लाइमैक्स राष्ट्रीय महत्व रखता है जब फाइनल दौड़ के आयोजन में एक रोमांचक मुकाबले में गरीब बालक को पहली रेस की चोट की पीड़ा गिरा देती है तो अमीर बालक उसे कंधे पर उठाकर दौड़ता है आैर सारे बालक जानकर एक साथ ही विजय की रस्सी को पार करते हैं गोयाकि वे सारे ही 'प्रथम' है- अब सारी प्रतिद्वन्दता मैत्री में बदल गई आैर सब अवाक खड़े हैं। इस दृश्य को निर्देशक ने ऐसी उत्तेजना रच कर बनाया है जैसे दिलीप कुमार ने 'गंगा जमुना' में कबड्डी को बनाया था या 'बेनहर' के चैरियट रेस में हमने देखा था। इस फिल्म में प्रस्तुत बच्चे अपनी स्वाभाविक चंचलता से सारे वयस्कों आैर पालकों को करार जवाब देते हैं- शायद इसीलिए टाइटिल े नीचे लिखा है 'यारों समझा करो' दरअसल यह फिल्म अपनी सतह के नीचे अनेक अर्थ समेट कर चलती है परंतु मनोरंजन में कमी नहीं आती। बाजार ने मध्यम आैर गरीब वर्ग को अपनी आय के दायरे में अय्याश बना दिया है, अत: क्रांति की संभावनाएं निरस्त हो गई है परंतु अमीरों को अपनी ही सुरक्षा के लिए गरीबी, बीमारी आैर गंदगी को मिटाना होगा क्योंकि गरीबों की बस्ती में फैले संक्रामक रोग के कीटाणु संगमरमरी महलों में घुस सकते हैं आैर आपके सुरक्षा गार्ड उन्हें पुलिस की तरह रिश्वत देकर रोक नहीं पाएंगे। इस फिल्म में अमीर बच्चे का गरीब बच्चे को कंधे पर लेकर दौड़ना बहुत गहरा अर्थ रखता है। सरकारें तो अपने ताम-झाम आैर वोट बैंक सुद्दड़ा करने में लगी रहेंगी आैर फिल्म के बच्चों की तरह अवाम को मैत्री आैर एकजुटता से परिवर्तन का प्रयास करना चाहिए।